Saturday, January 31, 2015

MAHA BHART (3) WAR महाभारत युद्ध

MAHA BHART (3) WAR 
महाभारत युद्ध
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]

ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्ण मुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवाव शिष्यते॥
गजानन भूतगणादिसेवितं कपिथ्यजम्बूफलचारुभक्षणम्।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपपंकजम्॥
सत्य और न्याय  रक्षा के लिए लड़ा गया महाभारत एक धर्म युद्ध था। इससे जुड़े अवशेष दिल्ली के आस-पास और हस्तिनापुर में भी मौजूद हैं। इस काल से सम्बन्धी वस्तुएँ यूरोप से लेकर द्वारका तक उपलब्ध हैं। दिल्ली के पुराने किले को पाण्डवों का किला कहा जाता है, यद्यपि इस क्षेत्र में अन्य बेहतर किलों के अवशेष अभी भी स्थित हैं, जो कि कश्मीरी गेट से लेकर पुराने किले तक बिखरे पड़े हैं। कुरुक्षेत्र में महाभारत काल के बाण और भाले प्राप्त हुए हैं। गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे 5,000 वर्ष पुराना द्वारका और बरनावा में लाक्षागृह के अवशेष हैं।
महाभारत युद्ध होने का मुख्य कारण कौरवों की महत्वाकांक्षा और धृतराष्ट्र का पुत्र मोह और दुर्योधन के मन में पाण्डवों अत्यधिक ईर्ष्या और घृणा का भाव था। कौरव और पाण्डव सहोदर थे। भगवान् वेदव्यास जी से नियोग के द्वारा विचित्रवीर्य की भार्या अम्बिका के गर्भ से धृतराष्ट्र और अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु उत्पन्न हुए। धृतराष्ट्र ने गान्धारी के गर्भ से सौ पुत्रों को जन्म दिया, उनमें दुर्योधन सबसे बड़ा था। पाण्डु के युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि पाँच पुत्र हुए। धृतराष्ट्र जन्म से ही नेत्रहीन था, अतः उनकी जगह पर पाण्डु को विदुर नीति के तहत राज्य प्राप्त हुआ, जिससे अक्षम धृतराष्ट्र को सदा पाण्डु और उसके पुत्रों से द्वेष रहने लगा। यह द्वेष दुर्योधन के रूप में फलीभूत हुआ और शकुनि ने इस आग में घी डालने का काम किया। शकुनि के कहने पर दुर्योधन ने बचपन से लेकर लाक्षागृह तक कई षडयंत्र किये; परन्तु हर बार विफल रहा। युवावस्था आने पर जब युधिष्ठिर को युवराज बना दिया गया तो उसने उन्हें लाक्षागृह भिजवाकर मारने की कोशिश की; परन्तु पाण्डव बच निकले। पाण्डवों की अनुपस्थिति में धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को युवराज बना दिया, परन्तु जब पाण्डवों ने वापिस आकर अपना राज्य वापिस माँगा, तो उन्हें राज्य के नाम पर खाण्डव प्रस्थ दे दिया गया। गृहयुद्ध के संकट से बचने के लिए युधिष्ठिर ने यह प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया। भगवान् श्रीकृष्ण के आदेश विश्वकर्मा ने इंद्रप्रस्थ का निर्माण इन्द्र देव के स्वर्ग में स्थित अमरावती पुरी के समान किया। पाण्डवों ने विश्व विजय करके प्रचुर मात्रा में रत्न एवं धन एकत्रित किया और राजसूय यज्ञ किया। दुर्योधन पाण्डवों की उन्नति देख नहीं पाया और शकुनि के सहयोग से द्यूत में छ्ल से युधिष्ठिर से उसका सारा राज्य जीत लिया और कुरु राज्य सभा में द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का प्रयास कर उसे अपमानित किया। इसी दिन महाभारत के युद्ध के बीज पड़ गये थे। अन्ततः पुनः द्यूत में हारकर पाण्डवों को 12 वर्षो को वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास स्वीकार करना पड़ा। परन्तु जब यह शर्त पूरी करने पर भी कौरवों ने पाण्डवों को उनका राज्य देने से मना कर दिया। तो पाण्डवों को युद्ध करने के लिये मज़बूर होना पड़ा। भगवान् श्री कृष्ण के युद्ध रोकने के हर प्रयास को दुर्योधन द्वारा ठुकरा दिया गया।
भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवों की तरफ से कुरुराज्य सभा में शांति दूत बनकर गये और वहाँ भगवान् श्री कृष्ण ने दुर्योधन से पाण्डवों को केवल पाँच गाँव देकर युद्ध टालने का प्रस्ताव रखा। परन्तु जब दुर्योधन ने पाण्डवों को सुई की नोंक जितनी भी भूमि देने से मना कर दिया, तो अन्ततः युधिष्ठिर को युद्ध करने के लिये तैयार होना ही पड़ा। कौरवों ने 11 अक्षौहिणी तथा पाण्डवों ने 7 अक्षौहिणी सेना एकत्रित की। युद्ध की तैयारियाँ पूर्ण करने के बाद कौरव और पाण्डव दोनों दल कुरुक्षेत्र पहुँचे, जहाँ यह भयानक और घमासान संहारक युद्ध हुआ।
महाभारत काल के क्रमशः महाशक्तिशाली जनपद और उनके प्रतिनिधि :: कुरु-भीष्म, मगध-जरासंध, प्राग्ज्योतिषपुर-भगदत्त, शूरसेन-यादव, पांचाल-द्रुपद, बाह्लिक-भूरिश्र्वा, मद्र-शल्य, काम्बोज-सुदक्षिण, शाल्वभोज-शाल्व, मत्स्य-विराट, सौराष्ट्र-भोज, अवन्ति-विन्द एवं अनुविन्द, सिन्ध-जयद्रथ, चेदि-शिशुपाल। 
ये जनपद अत्यधिक विकसित और आर्थिक रुप से सुदृढ थे। इनमें कुरु और यादव सर्वाधिक शक्तिशाली थे और केवल यही दो जनपद थे, जिन्होंने उस काल में राजसूय और अश्वमेध यज्ञ किये थे।
युद्ध की तैयारियाँ पूर्ण करके कौरव और पाण्डव दोनों दल कुरुक्षेत्र पहँचे। पाण्डवों ने कुरुक्षेत्र के पश्चिमी क्षेत्र में सरस्वती नदी के दक्षिणी तट पर बसे समन्त पंचक तीर्थ से बहुत दूर हिरण्यवती नदी (सरस्वती की ही एक सहायक धारा) के तट के पास अपना पड़ाव डाला और कौरवों ने कुरुक्षेत्र के पूर्वी भाग मे वहाँ से कुछ योजन की दूरी पर एक समतल मैदान में अपना पड़ाव डाला। दोनों पक्षों ने वहाँ चिकने और समतल प्रदेशों में जहाँ घास और ईंधन की अधिकता थी, अपनी सेना का पड़ाव डाला। युधिष्ठिर ने देवमंदिरों, तीर्थों और महर्षियों के आश्रमों से बहुत दूर हिरण्यवती नदी के तट के समीप हजारों सैन्य शिविर लगवाये। वहाँ प्रत्येक शिविर में प्रचुर मात्रा में खाद्य सामग्री, अस्त्र-शस्त्र, यन्त्र और चिकित्सक-वैद्य और शिल्पी उपस्थित थे। युद्ध में सामान्य नागरिकों, सेवकों को कोई हानि नहीं हुई। दुर्योधन ने भी इसी तरह हजारों पड़ाव डाले। वहाँ केवल सेनाओं के बीच में युद्ध के लिये केवल 5 योजन का घेरा छोड़ दिया गया। अगले दिन प्रातः दोनों पक्षों की सेनाएँ एक दूसरे के आमने-सामने आ डटीं।
युद्ध के नियम :: पाण्डवों ने अपनी सेना का पड़ाव समन्त्र पंचक तीर्थ पास डाला और कौरवों ने उत्तम और समतल स्थान देखकर अपना पड़ाव डाला। उस संग्राम में हाथी, घोड़े और रथों की कोई गणना नहीं थी। पितामह भीष्म की सलाह पर दोनों दलों ने एकत्र होकर युद्ध के निम्नलिखित प्राचीनतम और प्रचलित नियमों का अनुपालन करने में सहमति व्यक्त की। रात्रि में दोनों पक्ष सामान्य जनों की तरह सामान्य बातचीत करते, मिलते-जुलते थे। 
(1). प्रतिदिन युद्ध सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक ही रहेगा। 
(2). युद्ध समाप्ति के पश्‍चात् छल कपट छोड़कर, सभी लोग प्रेम का व्यवहार करेंगे। 
(3). रथी रथी से, हाथी वाला हाथी वाले से और पैदल, पैदल से ही युद्ध करेगा।
(4). एक वीर के साथ एक ही वीर युद्ध करेगा। 
(5). भय से भागते हुए या शरण में आये हुए लोगों पर अस्त्र-शस्त्र का प्रहार नहीं किया जायेगा। 
(6). जो वीर निहत्था हो जायेगा, उस पर कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं उठाया जायेगा। 
(7). युद्ध में सेवक का काम करने वालों पर कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं उठायेगा। 
इस प्रकार युद्ध संबंधी नियम स्वीकार कर दोनों दल युद्ध के लिये प्रस्तुत हुए। पाण्डवों के पास सात अक्षौहिणी सेना थी और कौरवों के साथ ग्यारह अक्षौहिणी सेना थी। दोनों पक्ष की सेनाएँ पूर्व तथा पश्‍चिम की ओर मुख करके खड़ी हो गयीं। कौरवों की तरफ से पितामह भीष्म और पाण्डवों की तरफ से अर्जुन सेना का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। कुरुक्षेत्र के केवल 5 योजन (40 किलोमीटर) के क्षेत्र के घेरे में दोनों पक्ष की सेनाएँ खड़ी थीं।
न पुत्रः पितरं जज्ञे पिता वा पुत्रमौरसम्। 
भ्राता भ्रातरं तत्र स्वस्रीयं न च मातुलः॥
उस युद्ध में न पुत्र पिता को, न पिता पुत्र को, न भाई भाई को, न मामा भांजे को, न मित्र मित्र को पहचानता था।[महाभारत भीष्म पर्व]
युद्ध में गांधार, मद्र, सिन्ध, काम्बोज, कलिंग, सिंहल, दरद, अभीषह, मागध, पिशाच, कोसल, प्रतीच्य, बाह्लिक, उदीच्य, अंश, पल्लव, सौराष्ट्र, अवन्ति, निषाद, शूरसेन, शिबि, वसति, पौरव तुषार, चूचुपदेश, अशवक, पाण्डय, पुलिन्द, पारद, क्षुद्रक, प्राग्ज्योतिषपुर, मेकल कुरुविन्द, त्रिपुरा, शल, अम्बष्ठ, कैतव, यवन, त्रिगर्त, सौविर, प्राच्य, पांचाल, चेदि, काशी, करुष, मत्स्य, केकय, सृंजय, दक्षार्ण, सोमक, कुन्ति, आन‍र्त, दाशेरक, प्रभद्रक,अनूपक, किरात, पटच्चर तित्तिर, चोल, पाण्ड्य, अग्निवेश्य, हुण्ड, दानभारि, शबर, उद्भस, वत्स, पौण्ड्र, पिशाच, पुण्ड्र, कुण्डीविष, मारुत, धेनुक,तगंण, परतगंण आदि-आदि देश शामिल हुए। 
धर्मक्षेत्र DHARM KSHETR :- धृतराष्ट्र ने इस संवाद में पहला शब्द धर्म क्षेत्र कहा। क्षेत्र का अर्थ है स्थान-भूमि। कुरु क्षेत्र एक आदि देव तीर्थ है। भगवान् शिव ने इसी क्षेत्र कनखल में, प्रजापति दक्ष का यज्ञ ध्वस्त किया था। यहीं भगवान् वामन ने राजा बाहुबली से तीनों लोकों का राज्य लेकर, देवराज इन्द्र को प्रदान किया था। यहीं स्थाणु तीर्थ और शक्ति स्थल है। भगवती माँ सरस्वती भी यहीं से प्रवाह करती हैं। यहीं भगवान् शिव ने राजा वेन को उसके पूर्व जन्म के पापों से मुक्ति प्रदान की। अतः इस भूमि का चयन धर्म के निर्वाह हेतु ही किया गया था। 
In wider sense, it stands for land and the vagina. Its an ancient religious-holy place. Bhagwan Shiv destroyed the Yagy of Daksh Prajapati at Kankhal of this region, when he insulted him and his wife Man Sati-Daksh's daughter. It was only here that Bhagwan Shri Hari Vishnu took away the empire of three Loks-abodes of Heaven, Earth and Patal-nether world, from the mighty demon-Rakshas king Bahu Bali, as Vaman Avtar-incarnation and returned them to Dev Raj Indr. Sthanu Tirth, Shakti Sthal, are located here. Holy river Maa Bhagwati Saraswati flows through this region, at present under ground. Bhagwan Shiv removed the sins of wicked king Ven (now a Shiv Gan) in his previous births, due to the efforts of his son Prathu. Selection of this place is justified due to these reasons.
KURU KSHETR कुरुक्षेत्र :: पूर्व कल्प-काल में हुए राजा कुरु ने इस 400 योजन भूमि को समतल करवाया था। यह भूमि पहले पहाड़ों से युक्त थी। वर्तमान काल में यहाँ वर्तमान चतुर्युगी में, राजा कुरु का शासन था, जो कि सूर्य वंश-इक्ष्वाकु वंश की शाखा ही थी।
In one of the previous Kalp-Brahma's day, a mighty King called Kuru levelled this mountainous-hilly terrain, into plane field, measuring 400 Yojan. The current hierarchy is connected to Ikshawaku, Sury, Raghu dynasty, in which Bhagwan Ram took incarnation. No other place on earth was sufficient-capable to hold the battle, at this massive scale. This is the region, where three battles of Pani Pat have occurred. This is the region through which Kal Yavan & Alexander invaded India and the Muslims too entered India, only. 
Daksh Prajapati evolved from the toe of the right leg and his wife got her birth from the left toe of Brahma Ji. They had 60 daughters. 13 of these were married to the Maharshi-sage Kashyap. These were divine creations. Brahma Ji entrusted the job of creating life through sexual intercourse to Maharshi Kashyap. Kashyap Ji moved to Kurukshetr and established his Ashram here and started ascetic-profound meditation at Himaly Parwat-Kashmir. Kashmir got its name from Kashyap. He created all life forms through his wives. He had some more wives, other than Daksh's daughters. These life forms include Demigods-Dev Gan, Daity, Giants, Rakshas-demons, Yaksh, Gandharv, Kinner, Snakes, Humans etc. In all 12 creations got birth which moved over 2 legs. These life forms moved to various abodes in the galaxies. This is the reason, this region is called Kshetr (vagina, क्षेत्र-योनि). 
प्रमुख योद्धा :: भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, मद्र नरेश शल्य, भूरिश्र्वा, अलम्बुष, कृतवर्मा, कलिंगराज श्रुतायुध, शकुनि, भगदत्त, जयद्रथ, विन्द-अनुविन्द, काम्बोजराज सुदक्षिण, बृहद्वल, दुर्योधन व उसके 99 भाई, भीम, नकुल, सहदेव, अर्जुन, युधिष्टर, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, सात्यकि, उत्तमौजा, विराट, द्रुपद, धृष्टद्युम्न, अभिमन्यु, पाण्ड्य राज, घटोत्कच, शिखण्डी, युयुत्सु, कुन्तिभोज, उत्तमौजा, शैब्य, अनूपराज नील।
DURYODHAN दुर्योधन :- धृतराष्ट्र अँधा था। दुर्योधन युवराज था। राज्य का सारा कार्य वही देखता था। युद्ध में भी कमान-बागडोर उसी के हाथ में थी।
Duryodhan was crown prince. He was undeclared king. He had been regulating the empire, since his father was blind, incapable, incompetent. He himself was the supreme commander of the army.
Duryodhan was cunning & crooked. He was nursed with the idea that he was the real king, being the son of Dhratrashtr the eldest Kuru. He was younger to Yudhistar and Dhratrashtr was blind, which disqualified them to become a king. From early childhood, he started playing dirty tricks to degrade, kill Pandavs. He proved to be an able administrator but could not enjoy the faith & respect of the populace.
DRONACHARY द्रोणाचार्य :- Dronachary was the teacher of Duryodhan and knew exactly what he was saying. He was aware that Duryodhan was a wicked person and Dharm was not on his side. Internally, he was never in favour of Duryodhan, but for the sake of his son, he maintained his cool. He was an incarnation of Dev Guru Brahaspati. He believed in clearing-paying off, the debt of the salt he had, from the Kauravs. (नमक का कर्ज चुकाना) Ashwasthama is an incarnation of Bhagwan Shiv. He was a staunch supporter, friend, fan of Duryodhan and a king under Duryodhan. He was a great warrior-archer and courageous person. He used Brahmastr to kill Abhimanu's son Parikshit when he was in the womb. Dron did not give the knowledge of this weapon to Ashwasthama, since he did not consider him worthy of it. He learnt it  secretly when the lesson was being imparted to Arjun. He killed the 5 sons of Draupadi after the war, when they were asleep. In fact Bhagwan Shiv asked Ashwasthama to kill all of them. But Bhagwan Shri Krashn protected the 5 Pandavs by keeping them with him. Ashwasthama was willing to perform any act for Duryodhan. The jewel (mani मणि) was removed from his forehead as a punishment for the cold blooded murders. He was spared from being killed, being a Brahman and AZAR (अज़र, ageless, one who never grow old), AMAR (अमर, immortal, imperishable). Duryodhan did his best to brain wash-provoke Dron by poisoning his brain.
द्रोणवध के लिये युधिष्टर से यह कहलवाया गया :-
"अश्वस्थामा मृत्यो नर हो वा कुंजरो"। 
अश्वस्थामा मृत्यो के कथन के साथ ही तेज शंख ध्वनि की गई। आचार्य द्रोण ने हथियार रख दिये। वे "नर हो वा कुंजरो" को सुन नहीं पाये और द्रष्टद्युम्न ने उन्हें मर डाला। (नर-मनुष्य, कुञ्जर-हाथी)।
SHIKHANDI महारथी शिखण्डी :: पितामह अपनी और सेना की रक्षा करने में असमर्थ थे, फिर भी यदि यह कहा गया तो उसके पीछे एक मात्र कारण शिखंडी था, जिस पर पितामह किसी भी परिस्थिति में शस्त्र नहीं उठाने वाले थे। शिखण्डी पूर्व जन्म में काशिराज की वह कन्या था, जिसका विवाह नहीं हो सका तो उसने तपस्या की और भगवान् शिव से उनकी मृत्यु का वरदान माँगा। 
Duryodhan directed all his captains to protect Bhishm Pitamah by occupying their strategic locations-positions, in best possible manner. Only reason for this order was Shikhandi, who was the 3rd daughter of Kashi Raj, whom Bhishm picked up for marrying Chitr Viry and Vichitr Viry his step brothers from Saty Vati, in her earlier birth. She requested Bhishm to marry her. Under oath Bhishm could not marry her. She went to forest and begun asceticism, meditation, chastity and prayers to seek boon from Bhagwan Shiv to kill Bhishm. In this birth she became Shikhandi, who was an impotent, eunuch, Hizra-Kinner. Bhishm had vowed not to kill Kinner-Woman in the war. He was aware of Shikhandi's past identity.
पूर्व  जन्म में वह काशी राज की कन्या था और इस जन्म में वह द्रुपद की कन्या बन कर पैदा हुआ था। स्थूला कर्ण नामक यक्ष ने उसे पुरुषत्व प्रदान किया। संसार उसे नपुंसक के रूप में जानता था और पितामह भीष्म उसे एक स्त्री ही समझते थे। इस तरह वो द्रोपदी और धृष्टद्युम्न की बहन हुआ।
He was the daughter of Kashi Raj in his earlier birth abducted by Bhishm to marry her, to either of his step-half bothers. In the current birth, he again took birth as the daughter of King Drupad, as sister of Draupadi and Dhrashtdyumn. Later, he was converted into a male by a Yaksh called Sthul Karn. Every one recognised him as an impotent-Kinnar. Bhishm Pitamah considered him to be a female and advised Arjun to place him before him as a shield, to retire him from the battle field.
अभिमन्यु :: अभिमन्यु अर्जुन-सुभद्रा का पुत्र और भगवान् श्री कृष्ण का भांजा (इससे पहले चंद्र देव का पुत्र)  था। वह एक महान सेना नायक और अपने पिता अर्जुन के समान महारथी-शूरवीर था। उसकी भुजाएं बहुत लम्बी थीं। उसे अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा स्वयं भगवान् श्री कृष्ण ने प्रदान की थी। वह चन्द्र के पुत्र का अवतार-अंश था। चक्रव्यूह का संसाधन उसने माँ के गर्भ में ही सीख लिया था, जबकि अर्जुन सुभद्रा को चक्रव्यूह का भेदन समझा रहे थे। उसे इस व्यूह से निकलना नहीं आता था, क्योंकि सुभद्रा विधि समझते-समझते सो गई थीं। उसकी हत्या कौरव सेना के 6 महारथियों ने षड्यंत्र करके की थी। दुःशासन के पुत्र ने नियम के विरुद्ध उसके सर पर गदा से प्रहार किया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई। इसी के दण्ड स्वरूप जयद्रथ को अर्जुन ने मारा।
He was the component-partial incarnation of the son deity-demigod Chandr-Moon, born with long arms. He learnt the art of penetrating into the cyclic formation of the army columns, while he was in the womb of his mother Subhdra. He could not learn the later part of relieving himself from the Vyuh, since Arjun stopped elaborating it further, as she fall asleep. He was trained in the use of weaponry by Bhagwan Krashn himself. He was killed by 6 stalwarts of the Kaurav's army through a conspiracy hatched by Jai Drath-who was killed by Arjun, the same day. Dushasan's son struck his head with the mac against rules of war.
Bhism Pitamah-great grand father, was more than 150 years old when this war took place. His name was Dev Vrat as a child. He was a Vasu-demigod in his previous birth. He could easily kill Shikhandi as well, but cared for his vow not to raise arms over women, since he still considered Shikhandi as a woman. He was aware of Shikhandi's previous birth. Arjun was protected by Bhagwan Shri Krashn by inviting Hanuman Ji Maha Raj to guard his chariot by staying over the flag mast. As a matter of fact Arjun himself was capable to destroy the whole army of Duryodhan by using divine weapons, which he cared not to use at any point of time except when Ashwatthama shot Brahmastr to counter it.
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि। 
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः॥
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्‌। 
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः॥
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्‌। 
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः॥
इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर युयुधान-सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र; ये सभी महारथी हैं।[श्रीमद्भगवद्गीता 1.4-6] 
Pandav's army constituted of great-mighty warriors yielding big-large bows like Yuyudhan (Satyaki-cousin of Bhagwan Shri Krashn), Virat (the king of Virat) and Drupad (Draupdi's father), comparable to (as great as) Bheem and Arjun in archery and warfare. They include great heroes like Dhrasht Ketu (son of Shishu Pal), Chekitan (a warrior from Vrashni clan & the king of Kashi) and  Puru Jit  Kunti Bhoj (Kunti's brother) and the great king Shaeby (the father in law of Yudhishtar); well known-renowned warriors Yudhamanyu & strong, stout, powerful  great warrior Uttamouja-the 2 Panchal warriors, Subhadra's (Bhagwan Shri Krashn & Bal Ram's sister) son Abhimanyu (incarnation of Moon's son) and  Darupadi's 5 sons-all great warriors.
युयुधान-सात्यकि :: युयुधान ने अस्त्र-शस्त्र की विद्या अर्जुन से सीखी थी। अतः नारायणी सेना का यह नायक भगवान् श्री कृष्ण के द्वारा सेना दुर्योधन को दिए जाने पर भी, दिल से अर्जुन के पक्ष में ही रहा। युयुधान अपने गुरु अर्जुन के साथ है, परन्तु आप से सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का वरदान पाकर भी अर्जुन आपके विरुद्ध खड़ा है। युयुधान की मृत्यु युद्ध समाप्त होने के बाद यादवों के आपसी वाद-विवाद में हुई।
Yuyudhan (Satyiki) learnt archery and Astr Vidya (weapons guided by hymns, rhymes, verses, either orally or mentally. Computer is too inferior to be compared to this technique. Its in an infant stage.) from Arjun. He was the commander of the Narayani Sena capable of eliminating any one, under Bhagwan Shri Krashn. Satyiki remained with Arjun even though his army was handed over to Duryodhan. Duryodhan complained to Dron that Satyiki was with his teacher but Arjun was standing in front of him, in spite of having the blessings to be the greatest archer in the world. Yuyudhan died in the clashes between the Yadavs, after the war.
विराट :: विराट के यहाँ पाण्डवों ने तेरहवें वर्ष गुप्त वास का समय बिताया था। कीचक की मौत का पता लगने पर दुर्योधन को मालूम हो गया कि पाण्डव विराट में हैं। उन्हें सामने लाने के लिए उसने विराट के गौधन को अपहरण करने का प्रयास किया। परन्तु तब तक गुप्तवास का समय  समाप्त हो चुका था। अर्जुन ने दुर्योधन की सारी सेना को बेहोश कर द्रोण और पितामह भीष्म के ऊपरी-अंग वस्त्र उतार लिए थे। दुर्योधन ने इसे उनके अपमान के रूप में दिखाने का प्रयास किया। मारा नहीं, इसका कोई वर्णन-जिक्र नहीं किया और विराट को एक अपराधी के रूप में प्रस्तुत किया। विराट अपने पुत्रों :- उत्तर, श्वेत शंख और  सहित मारे गए थे। दुर्योधन यह भूल गया कि जो योद्धा द्रोणाचार्य, भीष्म जैसे महारथियों के कपड़े उतार सकता था, वो भगवान् श्री कृष्ण के सारथि बनने पर उनका क्या हाल करेगा!? युद्ध में यदि अर्जुन ने दिव्यास्त्रों का प्रयोग किया होता, जो कि नीति विरुद्ध था, तो महाभारत पहले दिन ही समाप्त हो गया होता।
Pandavs spent the 13th year of their exile under cover-in disguise, in the palaces of King Virat. His brother in law Keechak-commander in chief of the army was killed when he tried to entice-seduce Draupadi, by Bheem. Arjun had returned from Heaven-Indr Lok, after acquiring divine weapons. Keechak could not be killed, by none other than Bheem. Duryodhan sensed Pandavs presence in Virat and invaded it and tried to take away the cows forcefully. At this juncture 13 years elapsed by the 4 calendars prevailing at that time. Arjun in the disguise of a Kinner-impotent, eunuch put the entire army of the Kauravs to sleep, defeating Karn miserably but leaving them alive-unharmed. He took off the upper garments of Bhishm Pitamah and Dron, for making dolls by the princess Uttra, who later got married to Abhimanyu-his son. Virat was killed in the war along with his 3 sons :- Uttar, Shwet and Shankh. Duryodhan tried to provoke Dron reminding that incident and quoting it as an insult. Dron did not react but under stood the gimmick quickly. There is no doubt that Arjun an incarnation of Nar Rishi was the greatest warrior of his times with the support of Bhawan Shri Krashn. He did not kill any of the Duryodhan's captains in spite making them fast asleep.
द्रुपद ::  द्रुपद से पहले विराट का नाम इसलिए लिया गया, ताकि द्रोण चालाकी भाँप ना पायें। राजा द्रुपद के द्वारा किये गये अपमान ने ही द्रोण को हस्तिनापुर  दरवाजे पर लाकर खड़ा कर दिया था। द्रुपद इस युद्ध में द्रोण के हाथों मारे गए।
Duryodhan was trying to be clever and did not name Drupad before Virat, just to conceal his bad-malafied intentions. Drupad a school mate, had insulted Dron when he went to his court, considering him a friend for financial help. This incident drove Dron to the Kauravs, when Bhishm saw Dron picking up ball from the well, by using reed arrows. Both of them were educated by Bhagwan Shri Parshu Ram. Drupad lost his life at the hands of Dronachary in the war.
धृष्टकेतु: :: धृष्टकेतु उस शिशुपाल का पुत्र था जो कि भगवान् श्री कृष्ण के हाथों सुदर्शन चक्र से मारा गया। धृष्टकेतु को गुरु द्रोण ने मारा। शिशुपाल दुर्योधन का मित्र था और अब दुर्योधन ने धृष्टकेतु को  मूर्ख बताया, क्योंकि वह भगवान् श्री कृष्ण के पक्ष में खड़ा था।
Dhrasht Ketu was Shishu Pal's son who was killed by Bhagwan Shri Krashn with his Sudarshan Chakr. Dhrasht Ketu was later killed by Dronachary. Shishu Pal was friendly with Duryodhan. Duryodhan called Dhrasht Ketu a fool as he was in the army of the one, who had killed his father.
चेकितानः :: यादव सेना तो दुर्योधन की ओर से लड़ने को तैयार थी, परन्तु चेकितान भगवान् श्री कृष्ण के साथ ही रहा। वह दुर्योधन के हाथों मारा गया।
Yadav army-Narayani Sena, was ready to fight from the side of Duryodhan, but he remained with Bhagwan Shri Krashn. He was killed by Duryodhan.
काशिराजश्च वीर्यवान्‌: :: काशिराज एक महान योद्धा थे। वे शूरवीर और महारथी थे। दुर्योधन ने गुरु द्रोण को उनसे सावधान रहने को कहा। काशिराज युद्ध में मारे गये।
The king of Kashi (Varanasi, Banaras) was a great warrior. He was brave and controlled 10,000 archers (Maha Rathi, who's chariot leads 10,000 archers), simultaneously. He too died in the war.
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च: :: पुरूजीत और कुन्तिभोज पाण्डवों के मामा थे। उनका दुर्योधन के साथ स्नेह था, परन्तु वो लड़े उसी के विरुद्ध। दोनों द्रोण के हाथों मारे गये। दुर्योधन ने कहा कि वो तो हमारे भी मामा  हैं, फिर पाण्डवों की ओर ही से क्यों लड़ रहे हैं?
Puru Jit and Kunti Bhoj were maternal uncles of Pandavs. They loved Duryodhan, but fought from the side of Pandavs. They were killed by Dron. Duryodhan said that they were his maternal uncles as well. Then, why did they sided with Pandavs?
शैब्यश्च नरपुङवः :: शैव्य युधिष्टर के श्वसुर थे। वे एक श्रेष्ठ व्यक्ति और बहुत बलवान थे। दुर्योधन दिखाना चाहता था कि वे भी सम्बन्धी हैं, परन्तु पाण्डवों के पक्ष में खड़े थे।
Shaevy was the father in law of Yudhishtar. He was a noble and mighty person and a great warrior. Duryodhan portrayed that Shaevy was related to him as well, but was siding with Pandavs.
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्‌: :: युधामन्यु और उत्तमौजा पंचाल देश के बड़े बलवान और वीर  योद्धा थे। उन्हें अर्जुन के रथ के पहियों की रक्षा लिये नियुक्त किया गया था। दुर्योधन इन दोनों को भी  नज़र में लाना चाहता था। अश्वत्थामा ने इन दोनों को भी सोते हुए-नींद में मारा था।
Yudhamanyu and Uttmouja were great-mighty warriors of Panchal (now Punjab). They were appointed to take care of-protect, Arjun's chariot's wheels. Duryodhan pointed them out to be the ones to be eliminated at the earliest. They were killed while sleeping with Pandavs sons, by Ashwatthama.
सौभद्र: :: भगवान् श्री कृष्ण की बहन सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु, चन्द्र देव के पुत्र का अवतार था। उसे चक्रव्यूह भेदना आता था। दुर्योधन ने आचार्य को चेताया कि वे उसे भी उतनी ही गम्भीरता से लें, एक बच्चे की तरह नहीं। अभिमन्यु को जयद्रथ आदि ने युद्धनीति के विरुद्ध घेर कर मारा। उसकी मृत्यु दुशासन के बेटे द्वारा सर पर गदा मारने से हुई।
Abhimanyu-son of Bhagwan Shri Krashn's sister Subhdra, was an incarnation of the son of Chandr Dev-Som. He knew how to demolish-penetrate Chakr Vyuh (cyclic formation-arrangements of battalions and columns of the army). He knew how to enter but unaware of the method to come out of it. He was killed by hatching a conspiracy by 7 stalwarts of the Kauravs army, under Jae Drath, by Dushasan's son by striking the mac over his head against settled practice of law. Later Bhagwan Shri Krashn allowed Pandavs to use practices and principles unaccepted-recognised as war fare. Duryodhan was aware of his might and warned Dron against him.
द्रौपदेयाश्च: :: द्रौपदी के 5 पुत्र प्रतिविंध्य, सुतसोम, श्रुतकर्मा, शतानीक और श्रुतसेन थे, जिन्हें वो इसलिए मरवाना चाहता था, क्योंकि द्रौपदी ने भरी सभा में उसका मजाक बनाया था। अश्वत्थामा ने इन पाँचोँ को युद्ध समाप्ति के बाद सोते हुए-नींद में मारा था।
Draupdadi's 5 sons Prativindhy, Sut Som, Shrut Karma, Shtaneek and Shrut Sen were killed by Ashwatthama while asleep. Duryodhan wanted to kill them to tease Draupadi, who had insulted him in the open court by calling him :- Blind-the son of blind."अंधे का अँधा"! 
सर्व एव महारथाः :: ये सभी शास्त्र और शास्त्र में प्रवीण और महारथी थे और अकेले ही दस हजार योद्धाओं के संचालन करने में समर्थ थे।
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च॥
आप-द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्राम विजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा।[श्रीमद्भगवद्गीता 1.8] 
Duryodhan continued describing the main warriors :- You-Achary Dron, Bheeshm Pitamah, Karn, Krapachary-who is a winner of wars (brother in law of Dron, maternal uncle of Ashwasthama and one who would not die-immortal like Ashwasthama), Ashwasthama, Vikarn-Duryodhan's brother and Bhurishrwa the son of Som Dutt, are the main stalwarts-leaders. Though a great warrior, he did not mention his name.
भवान्भीष्मश्च :: आप आचार्य द्रोण और भीष्म पितामह, सेना में सबसे विशिष्ठ और महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। पूरे संसार में उनके समकक्ष तीसरा कोई भी व्यक्ति नहीं था। दुर्योधन ने उनके कहा कि "अगर आप अपनी पूरी शक्ति-ताकत लगा कर युद्ध करें, तो देवता, राक्षस, यक्ष और मनुष्य आदि में कोई भी ऐसा नहीं है, जो आपके सामने ठहर सके"। उसको इस बात का भान-ज्ञान था कि दोनों ही उसके आचार-व्यवहार से खुश नहीं थे, बल्कि मजबूरी में उसका साथ दे रहे थे। पूरा संसार इस बात से विगत था कि भीष्म आबाल ब्रह्मचारी थे और उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान था। आचार्य की हत्या धृष्टद्युम्न ने तब की, जब उन्होंने शस्त्र त्याग दिये और भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने पर, माता गँगा के आदेशानुसार प्राण त्यागे।
Duryodhan said, "Both you and Bheeshm are the most important and significant person, who do not have a parallel in the whole world. If either of you fight with full force-strength deities, demons-Rakshas, Yaksh or the humans can not face-stand before you. You are famous-known all over the world". Bheeshm was an ascetic (celibate, chastity), since childhood, with the boon-blessing to "have death at his own will".
Dron was killed by Dhrashtdyumn and Bheeshm Pitamah left the human body when Sun turned to northern hemisphere-auspicious death, facing Bhagwan Shri Krashn. 
कर्णश्च :: कर्ण शूरवीर है और पांडव सेना को विजय करने को अकेला ही काफी है। उसके सामने अर्जुन कुछ भी नहीं। सूर्य पुत्र कर्ण जन्म से ही कवच और कुण्डल लेकर पैदा हुआ था, जिनके रहते उसको मारना सम्भव नहीं था। परन्तु उसे भगवान् परशुराम का श्राप भी था कि जिस वक्त उसे अस्त्र-शस्त्रों की अत्यधिक-सर्वाधिक आवश्यकता होगी, वो उसके काम नहीं आयेंगे। उसका वध अर्जुन द्वारा हुआ।
Karn is brave and sufficient to win the army of Pandavs. Arjun carries no weight against him. He-the son of Sun was born with Kavach (divine Armour) and Kundal (rings) it was not possible to kill him, till these two were on his body. He had the curse of Bhagwan Shri Parshu Ram that the weapons and the art of war-training, he obtained from Bhagwan Parshu Ram, will desert him, when he will need them the most. He had the curse of Maa Prathvi-earth as well. He was killed by Arjun. He donated the Kavach and Kundals-ear rings when Indr begged them as a Brahman, though he was warned in advance by his father, Sun. He promised to Kunti-his mother that she would have 5 sons, whatever the result of war. He was the greatest donor of his time.
कृपश्च समितिञ्जयः :: कृपाचार्य चिरंजीवी हैं और हमारे परम हितैषी हैं। वे पराक्रमी और अजेय हैं। दुर्योधन को कर्ण पर इन तीनों से ज्यादा विश्वास था।
Krapachary could not be killed, being immortal like Ashwatthama being beyond the limits of death. He described him as a great warrior and one who could not be defeated. Duryodhan relied more on Karn as compared to him.
Here a point needs elaboration that Dronachary, his brother in law Krapachary and son Ashwasthama could not not go against his will. He could influence Bheeshm as well. Therefore, Duryodhan took the option of pleasing Dronachary through flattery.
अश्वत्थामा :: चिरंजीवी हैं और बहुत ही शूरवीर हैं। उन्होंने अस्त्र-शस्त्र विद्या आपसे सीखी है। यद्यपि द्रोणाचार्य अपने पुत्र को अपने प्राणों से ज्यादा प्यार करते थे; तथापि उन्होंने उसे शिष्य के तौर पर अर्जुन से श्रेष्ठ नहीं पाया। ब्रह्मास्त्र का ज्ञान देते समय उन्होंने कहा कि किसी भी परिस्थिति में इसे मनुष्यों पर नहीं छोड़ना। अश्वत्थामा ने उसका चलाना तो सीख गया, परन्तु उसे लौटाना उसके लिए संभव नहीं था, क्योंकि वो सात्विक प्रवृति का पालन नहीं कर पाता था। उसने उस अस्त्र को अभिमन्यु की पत्नी के गर्भ पर छोड़ दिया। गर्भ की रक्षा भगवान् श्री कृष्ण ने की और अश्वत्थामा की मस्तक मणि निकाल ली गई।
Ashwatthama is immortal and a great warrior. He has learnt the art of war and weaponry from you. Though, Dron loved Ashwatthama more than his own life yet, he did not recognize him as virtuous learner-disciple as compared to Arjun. He imparted the knowledge of using Brahmastr to both of them, but cautioned them not to use it over the humans under any circumstances. He directed them to use restraint, even when it had to be used over any other species, due to its destructive powers. Ashwatthama was not righteous. He did not follow the Varnashram Dharm, meant for the Brahmans. He targeted Arjun with the desire to kill him and Arjun projected it just to hold Brahmastr launched by Ashwatthama. At this juncture Vyas Ji and Narad Ji came in between the two Brahmastr. Arjun recalled his Brahmastr but Ashwatthama failed to do it and redirected it to the womb of Abhimanuy's wife. Bhagwan Shri Krashn saved the unborn child. A jewel in the forehead of Ashwatthama was taken away from him and he was set free to roam over the earth.
विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च :: आप यह न समझें कि केवल पाण्डव ही धर्मात्मा हैं। हमारी सेना में भी मेरा भाई विकर्ण बड़ा धर्मात्मा और शूरवीर है। हमारे प्रपितामह शान्तनु के भाई बाहील्क के पौत्र तथा सोमदत्त के पुत्र भूरिश्र्वा भी बड़े धर्मात्मा हैं। इन्होंने भी बहुत बड़ी-बड़ी दक्षिणाओं वाले अनेक यज्ञ किये हैं। ये बड़े शूरवीर और महारथी हैं। दुर्योधन का भाव यह था कि उसकी सेना में दो चिरंजीवी तथा एक ऐसा व्यक्ति-भीष्म था, जिसे उसकी इच्छा के बगैर मारा नहीं जा सकता था।
Don't think that only the Pandavs have virtuous-righteous-pious people in their army, there is no dearth of virtuous people in our army. My brother Vikarn is a great warrior and religious-virtuous illustrious person. The grandson of the brother of our great grandfather Shantnu's brother Bahilk and the son of Bhurishrwa is also a very pious and religious person. He has  organised many Yagy-holy fire sacrifices with huge donations. He is a great warrior too.
तटस्थ दल :: विदर्भ, शाल्व, चीन, लौहित्य, शोणित, नेपाल, कोंकण, कर्नाटक, केरल, आन्ध्र, द्रविड़ आदि ने इस युद्ध में भाग नहीं लिया।
सेना विभाग :: पाण्डवों और कौरवों ने अपनी सेना के क्रमशः 7 और 11 विभाग अक्षौहिणी में किये। एक अक्षौहिणी में 21,870 रथ, 21,870 हाथी, 65,610 सवार और 1,09,350 पैदल सैनिक होते हैं। हर रथ में चार घोड़े और उनका सारथि होता है, हर हाथी पर उसका हाथीवान बैठता है और उसके पीछे उसका सहायक जो कुर्सी के पीछे से हाथी को अंकुश लगाता है, कुर्सी में उसका योद्धा धनुष-बाण से सुसज्जित होता है और उसके साथ उसके दो साथी होते हैं, जो भाले फेंकते हैं। तदनुसार जो लोग रथों और हाथियों पर सवार होते हैं, उनकी सँख्या 2,84,323 होती है। एक अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों-हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों की कुल सँख्या 6,34,243 होती है। इस प्रकार 18 अक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों-हाथियों, घोड़ों और मनुष्यों-की कुल सँख्या 1,14,16,374 होती है अर्थात 3,93,660 हाथी, 27,55,620 घोड़े, 82,67,094 मनुष्य।
महाभारत युद्ध में भाग लेने वाली कुल सेना  ::
कुल पैदल सैनिक :- 19,68,300,
कुल रथ सेना :- 3,93,660,
कुल हाथी सेना :- 3,93,660,
कुल घुड़सवार सेना :-  11,80,980,
कुल न्यूनतम सेना :- 39,06,600,
कुल अधिकतम सेना :-  1,14,16,374.
(323 ईसा पूर्व चन्द्रगुप्त की सेना में 30,000 रथ, 9,000 हाथी तथा 6,00,000 पैदल सैनिक थे।  कुल सेना उस समय 6,39,000 के आस पास थी)
हथियार और युद्ध सामग्री :: प्रास, ऋष्टि, तोमर, लोहमय कणप, चक्र, मुद्गर, नाराच, फरसे, गोफन, भुशुण्डी, शतघ्नी, धनुष-बाण, गदा, भाला, तलवार, परिघ, भिन्दिपाल, शक्ति, मुसल, कम्पन, चाप, दिव्यास्त्र, एक साथ कई बाण छोड़ने वाली यांत्रिक मशीनें। 
The weapons were more dangerous than the present arms, even more powerful than the atomic, hydrogen, neutron bomb of today. The scriptures contain the knowledge of these arms & ammunition in hand written books written with golden ink. The temples and ancient Brahman families traditionally pass on these books to their decedents.
योद्धाओं के पद :: युद्ध के अन्तर्गत योद्धाओं को महारथी, रथी, अतिरथी आदि नामों से उनकी बल, शक्ति, क्षमता का अनुरूप पुकारा जाता था। 
रथी RATHI :- 5,000 सैनिकों का संचालन करने में सक्षम-समर्थ ऐसे योद्धा थे, जिन्होंने युद्ध में हार कम ही देखी थी। ये ऐसे योद्धा थे जो किसी भी क्षण उत्साह और आवेश मे आकर बड़े से बड़े युद्ध का पासा पलट देने की क्षमता रखते थे। ये योद्धा अपने-अपने युद्ध कौशल में प्रवीण तथा श्रेष्ठ थे।
A warrior capable of attacking 5,000 warriors simultaneously.
Kaurav's side :- दुर्योधन, अलम्बुष, कृपाचार्य, जयद्रथ, सुदक्षिण, बृहद्वल, श्रुतायुध आदि वीर युद्ध कला में पूर्ण रुप से पारंगत और प्रवीण थे, परन्तु इनके पास  श्रेष्ठ दिव्यास्त्र नही थे। 
Sudakshin-the ruler of the Kamboj, Shakuni, King of Gandhar and maternal uncle of Kauravs,  Duryodhan’s son Lakshman and the son of Dushasan, Jay Drath, the king of the Sindhu and brother in law of Kauravs, all 99 brothers of Duryodhan, including Dushasan, were  Rathi. Duryodhan was a warrior equivalent to 8 Rathi.
Pandav's side :- उत्तमौजा, शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, शल्य, द्रुपद, द्रुपद के पुत्र, युधिष्टर, नकुल-सहदेव, भीम, घटोत्कच। 
Uttamauja,  Shikhandi, sons of Panchal-Drupad, Yudhishtar the son of Pandu and Kunti, Nakul and Sah Dev, Bhim is regarded as equivalent to 8 Rathi-however he was more powerful than Duryodhan with strength of 10,000 elephants.
अतिरथी ATI RATHI :- 60,000 सैनिकों का संचालन करने में सक्षम-समर्थ योद्धा जिसके अधीन 12 रथी होते थे। भीम, कर्ण, जरासंध, सात्यकि, कृतवर्मा, भूरिश्र्वा, अश्वत्थामा, अभिमन्यु।  
ये ऐसे योद्धा थे जिन्होने युद्ध में पराजय का सामना बहुत कम किया था। इनके पास भी दिव्यास्त्रों की कमी नहीं थी, परन्तु अति विशेष दिव्यास्त्र जैसे पाशुपत अस्त्र आदि की प्रधानता भी नहीं थी। ये सब युद्ध कला में पूर्ण रुप से पारंगत और प्रवीण थे तथा भारतवर्ष के कई जनपदों को युद्ध में परास्त कर चुके थे।
A warrior capable of contending with 12 Rathi class warriors or 60,000 warriors, simultaneously. 
Kaurav's side :- Bhoj, Krat Varma, Madr Naresh Shaly, Bhurishrava-the son of Som Datt, Krapachary, the son of Saradwat.
Pandav's side :- Satyaki of the Vrashni race-clan, Dhrasht Dhyumn-the divine son of Drupad, Kunti Bhoj-the maternal uncle of Pandavs, Ghatotkach-master of all illusions &  son of Bhim and Hidimba.
महारथी MAHA RATHI :- वह समर्थ योद्धा-सेनापति जिसके अधीन 7,20,000 सैनिकों का संचालन करने में सक्षम, जिसके अधीन 12 अतिरथी होते थे। भगवान् श्री कृष्ण, अर्जुन, भीष्म पितामह, बलराम जी, गुरु द्रोणाचार्य, भगदत्त ऐसे योद्धा थे, जो युद्ध में कभी पराजित नहीं हुए। इनके पास दिव्यास्त्रों की कमी नहीं थी और अपनी-अपनी युद्ध कला में पूर्ण रुप से पारंगत और प्रवीण तथा सबसे अच्छे थे। ये देवताओं को भी पराजित कर सकते थे जैसा कि अर्जुन और श्रीकृष्ण ने कई बार किया और यहाँ तक कि भगवान शिव को भी युद्ध में सन्तुष्ट किया। पितामह भीष्म ने भी परशुराम जी को पराजित किया था और भगदत्त तो इन्द्र का मित्र था, उसने भी अनेकों बार देवासुर संग्राम में देवताओं की सहायता की थी।
A commander-warrior capable of fighting 12 Ati Rathi class warriors or 7,20,000 warriors simultaneously and having complete mastery of all forms of weapons and combat skills.
Kaurav's side :- Alambhush, the Chief of Rakshas-demons, The ruler of Prag Jyotish Pur, Bhag Datt, Vrash Sen, the son of Karn, Guru Dron.
Ashwatthama is the son of guru Dron and an incarnation of Bhagwan Shiv. He was classified as a Maha Rathi but in reality he was peerless and had the traits of Bhagwan Shiv in battle field. Pitamah Bhishm believed that he had to be furious to unleash his full potential.
Karn was equivalent to 2 Maha Rathi.
Bhishm Pitamah, even though he never classified himself. Later it was revealed that Bhishm Pitamah was much more powerful than  to 2 Maha Rathi warriors.
Pandav's side :- Virat, Drupad-the King of Panchal (present Punjab till Lahore), Dhrast Ketu-the son of Sishu Pal, Chedi Raj. All sons of Draupadi were Maha Rathi, Abhimanyu-Arjun's son was  equivalent to 2 Maha Rathi.
Arjun was much more than 2 Maha Rathi, had he used the divine weapons acquired by him from heaven. He himself was Nar an incarnation of Bhagwan Vishnu and associate of Narayan in Badrikashrm. He had pleased Bhagwan Shiv and was capable of countering Ashwatthama as well, which he proved later by repelling Brahmastr used by Ashwatthama. He was under the protection of Hanuman Ji Maha Raj-an incarnation of Bhagwan Shiv, Bhawan Shri Krashn-the Almighty and Dev Raj Indr.
सैन्य संरचनाएँ :: प्राचीन काल में युद्ध में सेनापति के द्वारा सैन्य सञ्चालन हेतु व्यूह रचना की जाती थी ताकि शत्रु सेना में आसानी से प्रवेश किया जा सके तथा राजा और मुख्य सेनापतियों को बन्दी बनाया या मारा जा सके। इसमें अपनी सम्पूर्ण सेना को व्यूह के नाम या गुण वाली एक विशेष आकृति में व्यवस्थित किया जाता है। इस प्रकार की व्यूह रचना से छोटी से छोटी सी सेना भी विशालकाय लगने लगती हैं और बड़ी से बड़ी सेना का सामना कर सकती है, जैसा कि महाभारत के युद्ध में पाण्डवों की केवल 7 अक्षौहिणी सेना ने कौरवों की 11 अक्षौहिणी सेना का सामना करके, यह सिद्ध कर दिखाया। 
महाभारत युद्ध की तिथियाँ :: युद्ध के प्रथम दिन मृगशीरा नक्षत्र था। युद्ध आरम्भ होने के 13 वें दिन पुष्‍य नक्षत्र था। अश्‍विन और कार्तिक मास थे। भगवान्  श्री कृष्ण  रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग में रात 12 बजे उस वक्त शून्य काल में लगभग 3,112 ईसा पूर्व अर्थात आज से लगभग 5,129 वर्ष पूर्व प्रकट हुए थे। रामायण और महाभारत के घटनाक्रम में 17,50,000 वर्ष का भेद-अन्तर है।  
युद्धारम्भ :: अर्जुन ने भगवान् श्री कृष्ण से अपने रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में ले चलने को कहा ताकि वो दोनों सेनाओं और योद्धाओं का मूल्यांकन कर सकें। जब अर्जुन ने युद्ध क्षेत्र में अपने गुरु द्रोण, पितामह भीष्म एवं अन्य संबंधियों को देखा तो वे बहुत शोक ग्रस्त एवं उदास हो गये। उन्होंने भगवान् श्री कृष्ण से कहा कि जिनके हित के लिये वह युद्ध लड़ा जाना था, वे तो युद्ध क्षेत्र में उसी राजभोग की प्राप्ति के लिये उनके विपक्ष मे खड़े थे। उन्हें समाप्त करके सुख प्राप्ति किस काम की!? उन्होंने युद्ध की अनिच्छा प्रकट की और धनुष रखकर रथ के पिछले भाग में बैठ गये। भगवान् श्री कृष्ण ने तब योग में स्थित होकर उनके माध्यम से संसार को गीता का उपदेश दिया। 
Please refer to :: (1). SHRIMAD BHAGWAD GEETA (1) श्रीमद् भगवद्गीता "अथ प्रथमोS(2
).ध्याय:"(2).  SHRIMAD BHAGWAT GEETA (18) श्रीमद्भागवत गीता ***अथ अथाष्टादशोSध्याय:***(3).SIGNIFICANCE & EXTRACT OF GEETA गीता का महात्म्य व सारover santoshkipathshala.blogspot.com & hindutv.wordpress.com
संसार में जो आया है उसको एक ना एक दिन जाना ही पड़ेगा। यह शरीर और संसार दोनों नश्वर हैं, परन्तु इस शरीर के अन्दर रहने वाली आत्मा शरीर के मरने पर भी नहीं मरती। जिस तरह मनुष्य पुराने वस्त्र त्याग कर नये वस्त्र पहनता है, उसी प्रकार आत्मा भी पुराना शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करती है, इसको तुम ऐसे समझो कि यह सब प्रकृति तुम से करवा रहीं है तुम केवल निमित्त मात्र हो। भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग तीनों की शिक्षा दी जिसके परिणाम स्वरूप संसार दुष्टों के बोझ से मुक्त हो सका। 
घटनाक्रम ::
1st DAY पहला दिन :: पहले दिन की समाप्ति पर पाण्डव पक्ष को भारी हानि उठानी पड़ी। विराट नरेश के पुत्र उत्तर और श्वेत क्रमशः शल्य और भीष्म के द्वारा मारे गये। उनके कई सैनिकों का वध कर दिया गया। अर्जुन-धृष्टद्युम्न ने वज्र व्यूह का प्रयोग किया, जबकि भीष्म पितामह द्वारा सर्वतोमुखी दण्ड व्यूह का आयोजन किया गया। यह दिन कौरवों के उत्साह को बढ़ाने वाला था। इस दिन पाण्डव किसी भी मुख्य कौरव वीर को नहीं मार पाये।
VAJR FORMATION
IN MAHA BHARAT
WAR
VAJR VYUH (thunderbolt, diamond) वज्र व्यूह :: Vajr is the weapon used by Dev Raj Indr against the demons, made by Dev Shilpi Vishwkarma from the boons of Rishi Dadhichi who had swallowed all weapons (Astr, Shastr) of Demigods for their protection. The Vajr is essentially a type of club with a ribbed spherical head. The ribs may meet in a ball-shaped top or they may be separate and end in sharp points with which to stab. 
All Maha Rathi acquired the central square positions surrounded by the infantrymen on all sides. Dhrast Dhyumn was appointed the supreme commander of the army.
2nd DAY दूसरा दिन :: इस दिन पाण्डव पक्ष की अधिक क्षति नहीं हुई, द्रोणाचार्य ने धृष्टद्युम्न को कई बार हराया और उसके कई धनुष काट दिये, भीष्म द्वारा अर्जुन और भगवान् श्री कृष्ण को कई बार घायल किया गया, यह दिन कौरवों के लिये भारी पड़ा। इस दिन भीम का कलिंगों और निषादों से युद्ध हुआ तथा भीम द्वारा सहस्रों कलिंग और निषाद मारे गये। अर्जुन ने भी पितामह भीष्म को भीषण संहार मचाने से रोके रखा।
सेनापति धृष्टद्युम्न ने क्रौंच व्यूह और भीष्म पितामह ने गरुड़-व्यूह की रचना की।
KRAUNCH-HERON VYUH क्रौंच व्यूह :: Kraunch is a Bird with a sharp pointed beak. Pandav's arranged-organised their forces in Kraunch formation on the second day. Drupad was at the head and Kunti Bhoj was placed at the eye. The army of the Satyaki formed neck of the Kaunch bird. Bhim and Dhrast Dhyumn formed both the wings of the Vyuh. Bhim moved freely in and out of the formation and put Kaurav forces to a great loss. The sons of Draupadi and Satyaki were to guard the wings. The formation of the army phalanxes in this manner was very formidable.
Bhishm Pitamah also decided to arrange his army in Kraunch Vyuh. Bhurishrava and Shaly were to guard the wings. Som Datt, Ashwatthama, Krap and Krat Varma were positioned at different important place in the formation. 
GARUD (Eagle) VYUH FORMATION गरुड़ व्यूह :: Garud Ji is the carrier of Bhagwan Shri Hari Vishnu. Hanuman Ji brought Garud Ji to Shri Lanka when Bhagwan Shri Ram was tied by Nag Pash, who in turn torned away the Pash. Bhagwan Shri Krashn too fought a battle with Dev Raj Indr riding Garud Ji along with Saty Bhama. Eagle formation, rhomboid with far-extended wings.
Bhishm Pitamah organised his artillery on the second & third day of the war as per this formation-intricate web. He positioned himself at the beak. Dron and Krat Varma were the eyes. Krap and Ashwatthama were at the head. The Trigart Jay Drath with their armies made the neck. Duryodhan, his brothers, Vind and Anu Vind made the body. King of Kaushal, Brahad Bal constituted the tail.
3rd DAY तीसरा दिन :: इस दिन भीम ने घटोत्कच के साथ मिलकर दुर्योधन की सेना को युद्ध से भगा दिया। भीष्म पितामह ने दुर्योधन के ताने-उलाहने, उकसाने के बाद भीषण नर संहार किया। भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को भीष्म वध करने को कहा, परन्तु अर्जुन उत्साह पूर्वक युद्ध नहीं पाये, जिस वज़ह से भगवान् श्री कृष्ण ने स्वयं उन्हें मारने के लिये, रथ का पहिया उठाकर, अपनी शर्त-प्रतिज्ञा भंग करके, उद्धत हुए। ऐसा उन्होंने पितामह भीष्म को उनकी प्रतिज्ञा की निरर्थकता समझाने लिए किया। अर्जुन ने उन्हें पैर पकड़ कर रोका और कौरव सेना का भीषण संहार करते हुए, एक दिन में ही समस्त प्राच्य, सौवीर, क्षुद्रक और मालव क्षत्रिय गणों को मार गिराया। 
भीष्म पितामह ने गरुड़-व्यूह की रचना की। 
ARDH CHANDR (अर्धचन्द्र व्यूह LUNAR HALF CRESCENT) FORMATION :: Arjun adopted this arrangement in consultation with Dhrast Dhyumn. At the right end was Bhim occupied the right end. Along the elevation armies of Drupad and Virat were positioned. Neel, Dhrast Ketu, Dhrast Dhyumn and Shikhandi were placed next to them. Yudhishtar occupied the centre. Satyaki and five sons of Draupadi Abhimanyu were at left end, Ghatotkach and Kokaya brother was also present there. At the tip of it, Arjun had his Chariot driven by Bhagwan Shri Krashn.
4th  DAY चौथा दिन :: इस दिन कौरवों ने अर्जुन को अपने बाणों से ढक दिया, परन्तु अर्जुन ने सभी को मार भगाया। भीम ने तो इस दिन कौरव सेना में हाहाकार मचा दी, दुर्योधन ने अपनी गजसेना भीम को मारने के लिये भेजी परन्तु घटोत्कच की सहायता से भीम ने उन सबका नाश कर दिया और 14 कौरवों को भी मार गिराया, परन्तु राजा भगदत्त द्वारा जल्द ही भीम पर नियंत्रण पा लिया गया। बाद में भीष्म को भी अर्जुन और भीम ने भयंकर युद्ध कर कड़ी चुनौती दी। 
भीष्म पितामह ने सेनाओं को मंडल व्यूह में सुनियोजित किया और अर्जुन ने श्रीन्गातका व्यूह (कौरव सेना के मंडल व्यूह के प्रत्युत्तर में पांडवों द्वारा इस व्यूह को रचा गया था।) का आयोजन किया। इसी युद्ध में दूसरी बार भीष्म पितामह ने व्याल व्यूह और अर्जुन ने वज्र व्यूह का इस्तेमाल किया। 
5th DAY पाँचवाँ दिन :: भीष्म पितामह ने पाण्डव सेना को अपने बाणों से ढँक दिया। उन पर रोक लगाने के लिये क्रमशः अर्जुन और भीम ने उनसे भयंकर युद्ध किया। सात्यकि ने द्रोणाचार्य को भीषण संहार करने से रोके रखा। भीष्म पितामह द्वारा सात्यकि को युद्ध क्षेत्र से भगा दिया गया। भीष्म पितामह ने मकर व्यूह की रचना की और अर्जुन ने श्येन व्यूह के द्वारा इसका प्रतिकार किया।
6th DAY छठा दिन :: इस दिन भी दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध चला। युद्ध में बार-बार अपनी हार से दुर्योधन क्रोधित होता रहा और भीष्म पितामह उसे आश्वासन देते रहे। भीष्म पितामह द्वारा पांचाल सेना का भयंकर संहार किया गया। उन्होंने सेनाओं का आयोजन क्रौंच व्यूह में किया और पांडवों ने धृष्टद्युम्न के नेतृत्व में मकर व्यूह का प्रयोग किया। 
अभिमन्यु ने अपने क्षेत्र में सूचि व्यूह (Long line, needle formation) का आयोजन किया।
7th  DAY सातवाँ दिन :: अर्जुन कौरव सेना में भगदड़ मचा दी। धृष्टद्युम्न ने दुर्योधन को युद्ध में हरा दिया। अर्जुन पुत्र इरावान ने विन्द और अनुविन्द को हरा दिया। भगदत्त ने घटोत्कच को और नकुल सहदेव ने शल्य को युद्ध क्षेत्र से भगा दिया। भीष्म पितामह ने पाण्डव सेना का भयंकर संहार किया। भीष्म पितामह ने मंडल व्यूह और अर्जुन ने वज्र व्यूह की रचना की। 
MANDAL VYUH  (Cyclic, Galaxy) FORMATION :: Bhishm Pitamah organised the artillery as per Mandal Vyuh, positioning him self at its centre. It was circular formation & very difficult to penetrate. The Pandavs countered it by Vajr Vyuh.
8th DAY आठवाँ दिन :: भीष्म पितामह ने पाण्डव सेना का भयंकर संहार किया। भीमसेन ने धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध किया। राक्षस अम्बलुष ने अर्जुन पुत्र इरावान का वध किया। एक बार पुनः घटोत्कच ने दुर्योधन को अपनी माया द्वारा प्रताड़ित कर युद्ध से उसकी सेना को भगा दिया तो भीष्म पितामह की आज्ञा से भगदत्त ने घटोत्कच को हरा कर भीम, युधिष्ठिर व अन्य पाण्डव सैनिकों को पीछे ढकेल दिया। दिन के अंत तक भीमसेन ने धृतराष्ट्र के नौ और पुत्रों का वध कर दिया। भीष्म पितामह ने कुर्म व्यूह तथा अर्जुन ने त्रिशूल व्यूह की रचना की। कुछ काल पश्चात भीष्म पितामह ने सेनाओं को उर्मि व्यूह के अनुरूप सजाया तो अर्जुन ने भी व्यूह रचना बदल कर श्रीन्गातका व्यूह कर दी। 
9th  DAY नौवाँ दिन :: दुर्योधन ने भीष्म पितामह से कर्ण को युद्ध करने की आज्ञा देने के लिये या फिर पाण्डवों का वध करने के लिये आग्रह किया-दबाब डाला। भीष्म पितामह ने उसे आश्वासन देते हुए कहा कि अगले दिन या तो भगवान् श्री कृष्ण अपनी युद्ध मे शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा तोड़ेंगे अथवा वे किसी एक पाण्डव का वध अवश्य होगा। आखिरकार भीष्म पितामह के द्वारा भीषण नर संहार को रोकने के लिये भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी शर्त को एक तरफ रखते हुए रथ का पहिया उठा लिया। युद्ध में अर्जुन पितामह के प्रति अपने अत्यधिक लगाव और सम्मान के कारण कमजोर पड़ रहे थे तो पितामह को पिता शान्तनु का इच्छा मृत्यु का वरदान बचा रहा था। पितामह ने सर्वतोभद्र व्यूह की रचना की थी और जबाब में अर्जुन ने नक्षत्र मण्डल व्यूह का आयोजन किया था। 
SARTO BHADR (Safe from all sides) VYUH ::  The formation included square array in which the troops faced all the points of the compass. Pitamah Bhishm acquired the front, Guarded by Krap, Krat Varma, Shakuni, Jay Drath, Kamboj and sons of Dhratrashtr. Trigart were also present there.
The Pandavs arranged columns in Galaxy-constellation form. The Pandavs and sons of Draupadi were leading from the front. Shikhandi, Chekitan and Ghatotkach were holding important positions to defend. Abhimanyu, Kekaey brothers and Drupad were guarding the rear.
10th DAY दसवाँ दिन :: भीष्म पितामह ने भी पांचाल तथा मत्स्य सेना का भयंकर संहार किया तो भगवान् श्री कृष्ण के कहने पर अर्जुन ने शिखण्डी को आगे कर पितामह भीष्म के शरीर को बाणों से ढक दिया। अंत में अर्जुन के बाणों से विदीर्ण हो पितामह भीष्म बाणों की शय्या पर लेट गये। उनके गिरते ही युद्ध रोक दिया गया। पितामह भीष्म से उनकी मुत्यु का भगवान् श्री कृष्ण के साथ अर्जुन ने उनके शिविर में विगत रात्रि को पूछा था। पितामह ने असुर (Asur-Demons Formations) व्यूह की रचना की थी, जिसके जबाब में अर्जुन ने देव व्यूह रचना की थी।  
DEV (Demigods) VYUH देव व्यूह :: Pandavs countered Kauravs Asur Vyuh with it. In the lead was Shikhandi with Bhim and Arjun to protect his sides. Behind him were Abhimanyu and the children of Draupadi. Satyaki and Dhrast Dhyumn were with them. Virat and Drupad too had charge of the rest of the army. Kekey brothers, Dhrast Ketu and Ghatotkach were in their ranks. The Pandavs had the single pointed aim to disable-neutralise Bhishm Pitamah, since he could not be killed unless he desired for it. Shikhandi was made to stand in front of Arjun and under vow Pitamah avoided shooting at him, since he was fully aware of Shikhandi's previous birth and he still considered him a woman, who wanted to marry him.
यदि भगवान् श्री राम ताड़का को मार सकते हैं और लक्ष्मण जी सूर्पणखा  की नाक काट सकते हैं तो शिखण्डी का वध भीष्म पितामह को करना ही चाहिये था। जब भगवान् श्री कृष्ण अपनी प्रतिज्ञा भंग कर सकते हैं तो भीष्म पितामह को भी उनका अनुसरण करना था। समय के साथ-साथ मान्यतायें बदलती रहती हैं। 
11th DAY ग्यारहवाँ दिन :: कर्ण के कहने पर आचार्य द्रोण को सेनापति बनाया गया। कर्ण भी युद्ध क्षेत्र में आ गया, जिससे कौरवों का उत्साह कई गुणा बढ़ गया। दुर्योधन और शकुनि आचार्य द्रोण से कहा कि वे युधिष्ठिर को बन्दी बना लें तो युद्ध अपने आप खत्म हो जायेगा। जब दिन के अंत में आचार्य द्रोण युधिष्ठिर को युद्ध में हरा कर उसे बन्दी बनाने के लिये आगे बढे तो अर्जुन ने आगे बढ़कर अपने बाणों की वर्षा से उन्हे रोक दिया। कर्ण ने भी पाण्डव सेना का भारी संहार किया। कौरव पक्ष ने शकट व्यूह की रचना की।पाण्डवों ने क्रौंच व्यूह चुना। 
12th DAY बारहवाँ दिन :: पिछले दिन अर्जुन के कारण युधिष्ठिर को बन्दी न बना पाने के कारण शकुनि व दुर्योधन ने त्रिग‍र्त देश के राजा को अर्जुन से युद्ध कर, उन्हें वहीं व्यस्त रखने को कहा ताकि आचार्य द्रोण युधिष्ठिर को बंदी बना सकें। युधिष्टर को बंदी बना लिये जाने  अवस्था में युद्ध स्वतः ही समाप्त हो जाता। मगर भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन ने उनकी यह चाल भी विफल कर दी। आचार्य द्रोण ने गरुड़ व्यूह और अर्जुन ने अर्धचन्द्र व्यूह की रचना की।
13
th DAY तेरहवाँ दिन :: दुर्योधन ने राजा भगदत्त को अर्जुन को व्यस्त बनाये रखने को कहा। भगदत्त ने युद्ध में एक बार फिर से भीम को हरा दिया। भगदत्त ने अर्जुन के साथ भयंकर युद्ध करते हुए वैष्णवास्त्र का प्रयोग किया जो कि रथ पर सवार भगवान् श्री कृष्ण के कारण स्वतः ही निष्फल हो गया। अन्ततः अर्जुन ने भगदत्त का वध कर दिया।
आचार्य द्रोण ने युधिष्ठिर को बंदी बनाने के हेतु फिर से चक्र व्यूह की रचना की और अर्जुन को युद्ध क्षेत्र में अन्यत्र व्यस्त रखने का प्रयोजन किया। पाण्डव सेना में चक्र व्यूह को भेदना केवल अर्जुन को ही आता था। अभिमन्यु ने गर्भ में चक्र व्यूह में प्रवेश करना तब सीखा जब अर्जुन सुभद्रा को चक्र व्यूह की रचना और भेदन समझा रहे थे। उन्हें नींद आ जाने की वजह से अभिमन्यु उसमें घुसना तो सीख गये, परन्तु निकलना नहीं सीख पाये। युधिष्ठिर ने भीम आदि को उसके साथ भेजा, परन्तु चक्र व्यूह के द्वार पर वे सब के सब जयद्रथ द्वारा भगवान् शिव के वरदान के कारण रोक दिये गये। केवल अभिमन्यु ही प्रवेश कर पाये और कौरव महारथियों ने उनकी नियम विरुद्ध हत्या कर दी। अभिमन्यु का अन्याय पूर्ण तरीके से वध हुआ देख अर्जुन ने जयद्रथ का वध करने और ऐसा न कर पाने पर अग्नि समाधि लेने की प्रतिज्ञा की। 
CHAKR VYUH चक्र व्यूह :: Guru Dron arranged his army in wheel formation. Duryodhan occupied the centre. Jay Drath was positioned at the entrance. Warriors formed concentric circles.
It had six concentric circles under the six Maha Rathi & stalwarts (Karn, Dron, Ashwatthama, Dushashan, Shaly, Krapachary). Abhimanyu easily penetrated the first gate and caused turmoil in the Kaurav army fighting fiercely like his father. The stalwarts of Kauravs became ineffective against him and decided to kill him against the rules of war striking at him altogether.
Bhim, Yudhishtar, Shikhandi, Drupad, Dhrast Dhyumn, Virat, Nakul etc. failed to enter the composition. Jay Drath had obtained a boon from Bhagwan Shiv for his protection which he misused at this juncture and beheaded Abhimanyu.
14th DAY चौदहवाँ दिन :: अर्जुन की अग्नि समाधि वाली बात सुनकर कौरव उत्साहित हो गये और युद्ध में जयद्रथ को बचाने के लिये तत्पर हो गये। आचार्य द्रोण ने चक्र शकट व्यूह की रचना की और जयद्रथ को सेना के पिछले भाग मे छिपा दिया। भगवान् श्री कृष्ण ने माया से दिन में ही रात्रि का अँधेरा उत्पन्न कर दिया, जिससे उत्साहित होकर जयद्रथ सामने आ गया। अर्जुन ने जयद्रथ को मारकर उसका मस्तक उसके पिता की गोद में गिरा दिया। आचार्य द्रोण ने द्रुपद और विराट को मार दिया। 
पाण्डवों ने पद्म-कमल व्यूह, सूचि व्यूह और खड्ग सर्प व्यूह आयोजन किया।
Arjun was under oath to  kill Jay Drath. Guru Dron made a triple layered Vyuh. First was the Chakr Vyuh where he was standing himself. It opened in to the second Shakat Vyuh the charge of which was in the hands of Dur Marshan, the brave brother of Duryodhan. The third tier was the Suchi Mukh Vyuh (shaped like the mouth of a needle) with Karn, Bhurishrava, Ashwatthama, Shaly, Vrash Sen, Krap to guard it and Jay Drath was hidden at the very end of the Vyuh.
15th DAY पन्द्रहवाँ दिन :: पाण्डवों ने द्रोणाचार्य को अश्वत्थामा की मृत्यु का विश्वास दिला दिया, जिससे निराश हो आचार्य द्रोण रथ पर ही आसन लगा कर बैठ गये और धृष्टद्युम्न ने उनका सिर काट दिया। आचार्य ने पद्म व्यूह की रचना की थी।
16th DAY सोलहवाँ दिन :: कर्ण कौरव सेना का मुख्य सेनापति बनाया गया। उसने पाण्डव सेना का भयंकर संहार किया तथा नकुल-सहदेव को युद्ध में हरा दिया, मगर कुंती को दिये वचन का सम्मान करते हुए, उनके प्राण नहीं हरे। उसका अर्जुन के साथ भी भयंकर संग्राम हुआ। भीम ने दुःशासन का वध कर उसकी छाती का रक्त अंजलि में भरकर निकाला मगर पीया नहीं और उस रक्त को द्रौपदी के बालों में लगाया। कर्ण ने मकर व्यूह और अर्जुन ने अर्धचन्द्र व्यूह की रचना की।
17th DAY सत्रहवाँ दिन ::  कर्ण ने भीम और युधिष्ठिर को हरा कर कुंती को दिये वचन को स्मरण कर उनके प्राण नहीं लिये। अन्ततः अर्जुन ने कर्ण के रथ के पहिये के भूमि में धँस जाने पर, भगवान् श्री कृष्ण के कहने पर रथ के पहिये को निकाल रहे कर्ण का उसी अवस्था में वध कर दिया और  कौरव हताश हो गये। फिर शल्य को प्रधान सेनापति बनाया गया; परन्तु उनको भी युधिष्ठिर ने दिन के अंत में मार गिराया। कर्ण ने सूर्य व्यूह और अर्जुन ने महिष व्यूह की रचना की।
18th DAY अठारहवाँ दिन :: भीम ने दुर्योधन के बचे हुए भाइयों को मार गिराया। सहदेव ने शकुनि का नाश किया। अपनी पराजय हुई जान दुर्योधन एक तालाब मे छिप गया। पाण्डवों द्वारा ललकारे जाने पर वह भीम से गदा युद्ध के लिये बाहर आ गया। भगवान् श्री कृष्ण के इशारा किये जाने पर भीम ने दुर्योधन की जाँघ पर बार किया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई और युद्ध समाप्त हो गया। उसकी जाँघ गान्धारी के दृष्टि पात न होने के कारण वज्र के समान होने से रह गई थी। कौरव तो युद्ध की समस्त मर्यादायें अभिमन्यु की हत्या करके पाण्डवों को नियम पालन के दायित्व से पहले ही मुक्त कर चुके थे। दुर्योधन ने उनके प्रस्थान के बाद अश्वत्थामा और कृपाचार्य के आने के बाद मरने से पहले अश्वत्थामा को सेनापति नियुक्त कर दिया और अश्वत्थामा ने रात शिविर में घुसकर द्रौपदी के पुत्रों की हत्या कर दी। भगवान् शिव ने उन्हें ऐसा करने को प्रोत्साहित किया। भगवान् शिव तो पाण्डवों को भी नष्ट करना चाहते थे, मगर परमात्मा श्री कृष्ण के आगे उनकी एक भी नहीं चली। शल्य ने सर्वतो भद्र व्यूह का प्रयोग किया।
यतश्च भयमाशङ्केत्ततो विस्तारयेद् बलम्। 
पद्मेन चैव व्यूहेन निविशेत सदा स्वयम्॥
युद्ध मार्ग में राजा दण्ड व्यूह, शकट व्यूह, वराह व्यूह, सूचि व्यूह या गरुड़ व्यूह चले।[मनु स्मृति 7.188]
The king adopt Dand Vyuh, Shakat Vyuh, Varah Vyuh, Suchi Vyuh or Garud Vyuh, five types of formations of columns of army which ensures protection from the attack by the enemy if gets information of the invasion.
The troops may acquire staff formation (i.e. in an oblong), wagon (i.e. in a wedge), boar (i.e., in a rhombus), pin (i.e. in a long line) or like a Garud-Bhagwan Vishnu's carrier in the form of a bird, (i.e. in a rhomboid with far-extended wings).[मनु स्मृति 7.188-198]
ईशा उपनिषद श्लोक में व्यूह शब्द का प्रयोग भगवान् सूर्य की किरण रश्मियों के पुँज द्वारा ब्रह्माण्ड को प्रकाशित-आलोकित करने के संदर्भ में है। प्रजापति पुत्र भगवान् सूर्य से प्रार्थना की गई है कि वे संसार को प्रकाशित करें। 
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मिन्समूह।  
तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मिईशा उपनिषद 16॥ 
Vyuh is describing configuration-set up in which the rays of Sun moves to the universe. They keep on changing in form, causing eruptions, calamities, rains famine, disasters over the earth and other planets.
ARTILLERY COLUMNS  महाभारत युद्ध में व्यूह रचनाएँ :: महाभारत के 18 दिन के युद्ध में दोनों पक्ष के सेनापतियों द्वारा कई प्रकार के व्यूह बनाये गए जो निम्नलिखित हैं :-
(1). गरुड़-व्यूह Eagle or Hawk Formation, (2). क्रौंच व्यूह Heron Formation, (3). श्येन व्यूह, (4). सुपर्ण व्यूह, (5). सारंग व्यूह, (6). सर्प व्यूह Snake Formation, (7). खड्ग सर्प व्यूह Sword Formation, (8). शेषनाग व्यूह Shesh Nag Formation, (9). मकर व्यूह Makar-Crocodile (Alligator) formation (two triangles, with the apices joined), (10). कूर्म (कछुआ) व्यूह Tortoise or turtle formation, (11). वराह व्यूह*** Bore-Pig Formation, (12). महिष व्यूह, (13). त्रिशूल व्यूह, (14). चक्र व्यूह, Wheel or Discus Formation, (15). अर्धचन्द्र व्यूह, (16). उर्मि व्यूह-सागर व्यूह Oormi-Ocean Formation, (17). त्रिशूल व्यूह Trident Formation, (18). मंडल व्यूह, (19). वज्र व्यूह, Vajr Vyuh (Diamond or Thunderbolt formation), (20). चक्र शकट व्यूह, (21). शकट व्यूह**, Box or Cart formation, (22). सर्वतोभद्र व्यूह, (23). शृंग घटक व्यूह, Horned Formation, (24). चन्द्रकाल व्यूह Crescent or Curved blade Formation,  (25). कमल व्यूह, Lotus Formation,  (26). देव व्यूह Demigods-Deities-Divine Formation, (27). असुर व्यूह Demon Formation, (28). सूचि व्यूह Needle Formation, (29). श्रीन्गातका व्यूह, (30). चन्द्र कला, (31). माला व्यूह Garland-Rosary Formation, (32). मंगल ब्यूह,  (33). सूर्य व्यूह, (34). दण्ड व्यूह*, (35). गर्भ व्यूह,  (36). शंख व्यूह, (37). मंण्डलार्ध व्यूह, (38). हष्ट व्यूह Hand Formation, (39). नक्षत्र मण्डल व्यूह Galaxy Formation, (40). भोग व्यूह, (41). प्रणाल व्यूह, (42). मण्डलार्द्ध व्यूह, (43).मयूर व्यूह, (44). असह्म व्यूह, (45). असंहत व्यूह, (46). विजय व्यूह  Victory Formation.
HAWK FORMATION :: Arjun, Yudhishtar and Dhrast Dhyumn opted for Hawk formation of their Army. All the warriors of both sides were assigned to specific places in the formations with special responsibilities. Each formation was met by a counter formation by the other side. For instance, the Sarp-Serpent Vyuh was met with Garud-Eagle Vyuh. The Heron Formation was usually met with Garud or Eagle Formation.
Eagle is a Natural Enemy of Heron.
दण्ड* व्यूह Staff-Oblong Formation :: व्यूह-रचना, जो प्रायः डंडे के आकार की होती थी और जिसमें आगे बलाध्यक्ष, बीच में राजा, पीछे सेनापित, दोनों ओर हाथी, हाथियों के बगल में घोड़े और घोड़ों के बगल में पैदल सिपाही रहते थे; staff formation-in an oblong.
शकट** व्यूह Wagon in a wedge, Box, Cart Formation :: सैनिक व्यूह-रचना, जिसके दोनों पक्षों के बीच में सैनिकों की दोहरी पंक्तियाँ होती थीं; wagon-in a wedge, box or cart formation.
वराह व्यूह*** BORE SHAPED :: सैनिक व्यूह-रचना, जिसमें अगला भाग पतला और बीच का भाग चौड़ा रखा जाता था; वराह-सूअर की आकृति वाला। 
सूचि व्यूह :: सुईं के आकार वाला; Long line, needle formation.
संहतान्योधयेदल्पान्कामं विस्तारयेद् बहून्। 
सूच्या वज्रेण चैवैतान् व्यूहेन व्यूह्य योधयेत्॥[मनु स्मृति 7.191] 
यदि सैन्य सँख्या कम हो तो सबको एक साथ जुटाकर और सँख्या अधिक हो तो उसे फैलाकर सूची व्यूह रचकर उससे युद्ध करावे। 
In case the number of soldiers is less, they should move in a close formation while large army should be spreaded over large areas headed by individual commanders, in a pin-needle like formation.
Small units are normally meant for quick-fast actions like commandos, surgical strikes, guerrilla warfare.
गरुड़ व्यूह :: गरुड़ की आकृति वाला; Eagle formation, rhomboid with far-extended wings.
मकर व्यूह :: उसका मुख विस्तृत होने से वह पीछे की समस्त सेना की रक्षा करता है। 
शकट व्यूह :: यह पीछे की ओर से विस्तृत होता है।
वज्र व्यूह :: इसमें दोनों ओर विस्तृत मुख होते हैं।
सर्वतो भद्र व्यूह :: इसमें सभी दिशाओं की ओर सेना का मुख होता है।
महाभारत युद्ध में व्यूह रचनाएँ :: (1). गरुड़-व्यूह, (2). क्रौंच व्यूह, Heron formation, (3). श्येन व्यूह, (4). सुपर्ण (गरुड़) व्यूह, (5). सारंग व्यूह, (6). सर्प व्यूह, (7). खड्ग सर्प व्यूह, (8). शेषनाग व्यूह, (9). मकर व्यूह :- Makar-Crocodile formation,  Two triangles, with the apices joined, (10). कुर्म (कछुआ) व्यूह, (11). वराह व्यूह, (12). महिष व्यूह, (13). त्रिशूल व्यूह, (14). चक्र व्यूह, (15). अर्धचन्द्र व्यूह, (16). कमल व्यूह, (17). उर्मि व्यूह, (18). मंडल व्यूह, (19). वज्र व्यूह, (20). चक्रशकट व्यूह, (21). शकट व्यूह, (22). सर्वतोभद्र व्यूह, (23). शृंगघटक व्यूह, (24). चन्द्रकाल व्यूह, (25). कमल व्यूह, (26). देव व्यूह, (27). असुर व्यूह, (28). सूचि व्यूह, (29). श्रीन्गातका व्यूह, (30). चन्द्र कला, (31). माला व्यूह, (32). पद्म व्यूह, (33). सूर्य व्यूह, (34). दण्डव्यूह, (35). गर्भव्यूह, (36). शंखव्यूह, (37). मंण्डलार्ध व्यूह, (38). हष्ट व्यूह, (39). नक्षत्र मण्डल व्यूह, (40). भोग व्यूह, (41). प्रणाल व्यूह, (42). मण्डलार्द्ध व्यूह, (43). मयूर व्यूह, (44). मंगलब्यूह, (45). असह्मव्यूह, (46). असंहतव्यूह, (47). विजय व्यूह। 
महाभारत-कुरुक्षेत्र युद्ध के परिणाम :: महाभारत एवं अन्य पौराणिक ग्रंथों के अनुसार यह युद्ध भारत वंशियों के साथ-साथ अन्य कई महान वंशों तथा वैदिक ज्ञान विज्ञान ह्रास हो गया। 
यह युद्ध इतिहास का सबसे विध्वंसकारी और विनाशकारी युद्ध था। इस युद्ध के बाद भारत भूमि लम्बे समय तक वीर क्षत्रियों से विहीन रही। गांधारी के शापवश यादवों के वंश का भी विनाश हो गया। लगभग सभी यादव आपसी युद्ध में मारे गये, जिसके बाद भगवान् श्री कृष्ण ने भी इस धरती से प्रयाण किया।
इस युद्ध के समापन एवं भगवान् श्री कृष्ण के महाप्रयाण के साथ ही वैदिक सभ्यता और संस्कृति का ह्रास आरम्भ हुआ और  भारत से वैदिक ज्ञान और विज्ञान का लोप होने लगा और कलियुग का आरम्भ हो गया। 
जनपदों की अर्थव्यवस्था बहुत खराब हो गयी, भारत में गरीबी के साथ साथ अज्ञानता फैल गयी।
महा भारत युद्ध के बाद भारत में निरन्तर शतियों तक विदेशियों और मलेच्छों के आक्रमण होते रहे। कुरुवंश के अंतिम राजा क्षेमक भी मलेच्छों से युद्ध करते हुए मारे गये। जिसके बाद आर्यावर्त सब प्रकार से क्षीण हो गया।कलियुग के बढ़ते प्रभाव को देखकर तथा सरस्वती नदी के लुप्त हो जाने पर लगभग 88,000 ऋषि-मुनि हिमालय चले गये और इस प्रकार भारतवर्ष ऋषि-मुनियों के ज्ञान एवं विज्ञान से भी हीन हो गया।
समस्त ऋषि-मुनियों के चले जाने पर धर्म का ह्रास होने लगा। ढ़ोग-ढंकोसलों, पाखण्डों, नर-पशु बलि को ही धर्म कहा जाने लगा।  मूर्ख, अज्ञानी स्वयं को विद्वान् कहकर ऊटपटाँग व्यवस्थाएँ  देने लगे। वेदों की  व्यख्याएं की जाने लगीं, जो अभी भी जारी है। वेदों, शास्त्रों का उटपटांग रूपांतर, अनुवाद हो रहा है। मूर्ख लोग धर्म और राजनीति में अपना वर्चस्व बना रहे हैं।
यज्ञों का आयोजन दिखावे अपना कद बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। 
उच्च वर्ण मलेच्छों का आचरण कर रहे हैं। शूद्र, मूर्ख, अज्ञानी, अपराधी तत्व उच्च पदों पर आसीन हो रहे हैं। मुसलमानों और ईसाईयों ने देश को भृष्ट कर रखा है। 
कलियुग के प्रभाव से ब्राह्मण वर्ग भी नहीं बचा है। अधिकांश दूषित एवं भ्रष्ट हो गये हैं और मंत्रों का सही तरीके से उच्चारण करने की विधि तक नहीं जानते। इसी कारण वैदिक मंत्रों का दिव्य प्रभाव भी सीमित हो गया है। कुछ भ्रष्ट ब्राह्मणों ने समाज में कई कुरीतियाँ एवं प्रथाएँ चला दी हैं, जिनके परिणाम स्वरूप क्षुद्र एवं पिछड़े वर्ग ने स्वयं को दलित, पिछड़ा कहकर सर उठा रखा है। परन्तु कई ब्राह्मणों ने कठोर तप एवं नियमों का पालन करते हुए कलियुग के प्रभाव के बावजूद वैदिक सभ्यता को किसी न किसी अंश में जीवित रखा है। जिसके कारण आज भी ऋग्वेद एवं अन्य वैदिक ग्रंथ सहस्रों वर्षों बाद लगभग उसी रूप में उपलब्ध हैं। 
मानव जाति को भगवान् श्री कृष्ण के कंठ से प्रकट हुई ज्ञानरूपी वाणी श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में प्राप्त हुई। 
इस युद्ध के बाद युधिष्ठिर के राज्य-अभिषेक के साथ धरती पर धर्म के राज्य की स्थापना हुई।
VYUH RACHNA

 
 
 
 


 
 
 
 

 
 
 
 
 
 
 
 

 
 
 
 
 
 
 
 


 

 
Please refer to :: (10.6).STAFF, SNAKE, CIRCLE, DETACHED  ARRAY-VYUH;  KAUTILY ARTH SHASTR (10) कौटिल्य अर्थशास्त्र bhartiyshiksha.blogspot.com
अक्षौहिणी :: अक्षौहिणी सेना में योद्धाओं और पशुओं की गिनती का प्राचीन माप है। महाभारत के युद्ध में अठारह अक्षौहिणी सेना नष्ट हो गई थी। एक अक्षौहिणी सेना में 21,870 रथ, 21,870 हाथी, 65,610 घुड़सवार एवं 1,09,350 पैदल सैनिक होते थे।[महाभारत]
चतुरंगिणी सेना :: प्राचीन भारत में सेना के चार अँग होते थे :- हाथी, घोड़े, रथ और पैदल। जिस सेना में ये चारों अँग होते थे, वह चतुरंगिणी सेना कहलाती थी।
अक्षौहिणी सेना के चार विभाग :: (1). रथ (रथी), (2). गज (हाथी सवार), (3). घोड़े (घुड़सवार) और  सैनिक-पैदल सिपाही।  
इनका अनुपात :: रथ:गज:घुड़सवार:पैदल सनिक :: 1:1:3:5
इसके प्रत्येक भाग की सँख्या के अँकों का कुल जमा 18 आता है। एक घोडे पर एक सवार बैठा होगा, हाथी पर कम से कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है, एक फीलवान और दूसरा लडने वाला योद्धा, इसी प्रकार एक रथ में दो मनुष्य और चार घोड़े।   
महाभारत युद्ध की सेना के मनुष्यों की सँख्या कम से कम 46,81,920, घोड़ों की सँख्या 27,15,620 और इसी अनुपात में गजों की सँख्या थी।
 एक अक्षौहिणी सेना नौ भाग ::
पत्ति :: 1 गज + 1 रथ + 3 घोड़े + 5 पैदल सिपाही। 
सेनामुख :: (3 x पत्ति) = 3 गज + 3 रथ + 9 घोड़े + 15 पैदल सिपाही। 
गुल्म :: (3 x सेनामुख) = 9 गज + 9 रथ + 27 घोड़े + 45 पैदल सिपाही। 
गण :: (3 x गुल्म) = 27 गज + 27 रथ + 81 घोड़े + 135 पैदल सिपाही। 
वाहिनी :: (3 x गण) = 81 गज + 81 रथ + 243 घोड़े + 405 पैदल सिपाही। 
पृतना :- (3 x वाहिनी) = 243 गज + 243 रथ + 729 घोड़े + 1,215 पैदल सिपाही। 
चमू :: (3 x पृतना) = 729 गज + 729 रथ + 2,187 घोड़े + 3,645 पैदल सिपाही। 
अनीकिनी :: (3 x चमू) = 2,187 गज + 2,187 रथ + 6,561 घोड़े + 10,935 पैदल सिपाही। 
अक्षौहिणी :: (10 x अनीकिनी) = 21,870 गज + 21,870 रथ + 65,610 घोड़े + 1,09,350 पैदल सिपाही। 
एक अक्षौहिणी सेना :: गज = 21870, रथ = 21870, घुड़सवार = 65610, पैदल सिपाही = 109350. 
इसमें चारों अंगों के 21,8700 सैनिक बराबर-बराबर बँटे हुए होते थे। प्रत्येक इकाई का एक प्रमुख होता था।
पत्ती, सेनामुख, गुल्म तथा गण के नायक अर्धरथी हुआ करते थे।
वाहिनी, पृतना, चमु और अनीकिनी के नायक रथी हुआ करते थे।
एक अक्षौहिणी सेना का नायक अतिरथी होता था।
एक से अधिक अक्षौहिणी सेना का नायक सामान्यतः एक महारथी हुआ करता था।
पाण्डवों की सेना ::7 अक्षौहिणी। 
1,53,090 रथ, 1,53,090 गज, 4,59,270 अश्व, 7,65,270 पैदल सैनिक। 
कौरवों की सेना :: 11 अक्षौहिणी। 
2,40,570 रथ, 240570 गज, 7,21,710 घोड़े, 12,02,850 पैदल सैनिक। 
अक्षौहिणी हि सेना सा तदा यौधिष्ठिरं बलम्।
प्रविश्यान्तर्दधे राजन्सागरं कुनदी यथा॥
महाभारत के युद्घ में अठारह अक्षौहिणी सेना नष्ट हो गई थी।
अक्षौहिण्या: परीमाणं नराश्वरथदन्तिनाम्।
यथावच्चैव नो ब्रूहि सर्व हि विदितं तव॥ 
सौतिरूवाच :- अक्षौहिणी सेना में कितने पैदल, घोड़े, रथ और हाथी होते है? इसका हमें यथार्थ वर्णन सुनाइये, क्योंकि आपको सब कुछ ज्ञात है।[महाभारत आदिपर्व और सभापर्व] 
उग्रश्रवा जी ने कहा :- एक रथ, एक हाथी, पाँच पैदल सैनिक और तीन घोड़े। बस, इन्हीं को सेना के मर्मज्ञ विद्वानों ने पत्ति कहा है।
एको रथो गजश्चैको नरा: पंच पदातय:।
त्रयश्च तुरगास्तज्झै: पत्तिरित्यभिधीयते॥
इस पत्ति की तिगुनी सँख्या को विद्वान पुरुष सेनामुख कहते हैं। तीन सेनामुखों को एक गुल्म कहा जाता है। 
पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहु: सेनामुखं बुधा:।
त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते॥
तीन गुल्म का एक गण होता है, तीन गण की एक वाहिनी होती है और तीन वाहिनियों को सेना का रहस्य जानने वाले विद्वानों ने पृतना कहा है।
त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रय:।
स्मृतास्तिस्त्रस्तु वाहिन्य: पृतनेति विचक्षणै:॥
तीन पृतना की एक चमू, तीन चमू की एक अनीकिनी और दस अनीकिनी की एक अक्षौहिणी होती है। यह विद्वानों का कथन है।
चमूस्तु पृतनास्तिस्त्रस्तिस्त्रश्चम्वस्त्वनीकिनी।
अनीकिनीं दशगुणां प्राहुरक्षौहिणीं बुधा:॥
श्रेष्ठ ब्राह्मणो! गणित के तत्त्वज्ञ विद्वानों ने एक अक्षौहिणी सेना में रथों की सँख्या इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर (21,870) बतलायी है। हाथियों की सँख्या भी इतनी ही कहनी चाहिये।
अक्षौहिण्या: प्रसंख्याता रथानां द्विजसत्तमा:।
संख्या गणिततत्त्वज्ञै: सहस्त्राण्येकविंशति:॥
शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्च सप्तति:।
गजानां च परीमाणमेतदेव विनिर्दिशेत्॥
निष्पाप ब्राह्मणो! एक अक्षौहिणी में पैदल मनुष्यों की सँख्या एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास (1,09,350) जाननी चाहिये।
ज्ञेयं शतसहस्त्रं तु सहस्त्राणि नवैव तु।
नराणामपि पंचाशच्छतानि त्रीणि चानघा:॥
एक अक्षौहिणी सेना में घोड़ों की ठीक-ठीक सँख्या पैंसठ हजार छ: सौ दस (65,610) कही गयी है।
पंचषष्टिसहस्त्राणि तथाश्वानां शतानि च।
दशोत्तराणि षट् प्राहुर्यथावदिह संख्यया॥
तपोधनो! सँख्या का तत्त्व जानने वाले विद्वानों ने इसी को अक्षौहिणी कहा है, जिसे मैंने आप लोगों को विस्तारपूर्वक बताया है।
एतामक्षौहिणीं प्राहु: संख्यातत्त्वविदो जना:।
यां व: कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधना:॥
श्रेष्ठ ब्राह्मणो! इसी गणना के अनुसार कौरवों-पाण्डवों दोनों सेनाओं की संख्या अठारह अक्षौहिणी थी।
एतया संख्यया ह्यासन् कुरुपाण्डवसेनयो:।
अक्षौहिण्यो द्विजश्रेष्ठा: पिण्डिताष्टादशैव तु॥
अद्भुत कर्म करने वाले काल की प्रेरणा से समन्तपंचक क्षेत्र में कौरवों को निमित्त बनाकर इतनी सेनाएँ इकट्ठी हुई और वहीं नाश को प्राप्त हो गयीं।
समेतास्तत्र वै देशे तत्रैव निधनं गता:।
कौरवान् कारणं कृत्वा कालेनाद्भुतकर्मणा॥
RATHI रथी :: Rathi is an ancient unit which describes number soldiers in an army unit or column. 
The prayers sung in favour of Indr Dev, who is as broad as the ocean, excellent-at the top of all army commanders (supreme commander), master of all sorts of food grains and possesses Satvik Gun-divine qualities to enhances-boosts his powers.
अर्द्धरथी :: पत्ती, सेनामुख, गुल्म तथा गण के नायक। एक प्रशिक्षित योद्धा, जो एक से अधिक अस्त्र अथवा शस्त्रों का प्रयोग जानता हो तथा वो युद्ध में एक साथ 2,500 सशस्त्र योद्धाओं का सामना अकेले कर सकता हो। 
रथी :: वाहिनी, पृतना, चमु और अनीकिनी के नायक। एक ऐसा योद्धा जो दो अर्धरथियों या 5,000 सशस्त्र योद्धाओं का सामना एक साथ कर सके। इसके अतिरिक्त उसकी योग्यता एवं निपुणता कम से कम दो अस्त्र एवं दो शस्त्र चलाने में हो। 
अतिरथी :: अनेक अस्त्र एवं शस्त्रों को चलने में माहिर। युद्ध में 12 रथियों या 60,000 सशस्त्र योद्धाओं का सामना एक साथ कर सकता हो।  एक अक्षौहिणी सेना का नायक। 
महारथी :: सभी ज्ञात अस्त्र शस्त्रों को चलने में माहिर, दिव्यास्त्रों का ज्ञाता। 12 अतिरथियों अथवा 7,20,000 सशस्त्र योद्धाओं का सामना करने में समर्थ। ब्रह्मास्त्र का  ज्ञाता। एक से अधिक अक्षौहिणी सेना का नायक। 
अतिमहारथी :: 12 महारथी श्रेणी के योद्धाओं अर्थात 86,40,000 सशस्त्र योद्धाओं का सामना अकेले कर सकता हो साथ ही सभी प्रकार के दैवीय शक्तियों का ज्ञाता हो। वाराह, नृसिंह, राम, कृष्ण एवं कहीं-कहीं परशुराम को भी अतिमहारथी की श्रेणी में रखा जाता है। देवताओं में कार्तिकेय, गणेश तथा वैदिक युग में इंद्र, सूर्य, यम, अग्नि एवं वरुण को भी अतिमहारथी माना जाता है। आदिशक्ति की दस महाविद्याओं और रुद्रावतार विशेषकर वीरभद्र और हनुमान जी महाराज को भी अतिमहारथी कहा जाता है। मेघनाद की गिनती अतिमहारथियों में की जाती है, ऐसा कोई भी दिव्यास्त्र नहीं था जिसका ज्ञान उसे न था। वह ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र एवं पाशुपतास्त्र का ज्ञाता था। केवल पाशुपतास्त्र को छोड़ कर लक्ष्मण जी को भी समस्त दिव्यास्त्रों का ज्ञान था, अतः उन्हें भी  इस श्रेणी में रखा जाता है। 
महामहारथी :: 24 अतिमहारथियों अर्थात 20,73,60,000 सशस्त्र योद्धाओं का सामना करने  में समर्थ। दैवीय एवं महाशक्तियाँ का स्वामी। केवल त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु एवं रूद्र) एवं आदिशक्ति को ही इतना शक्तिशाली समझा जाता है।
सेना के छः भेद, बलाबल तथा छः अंग (अग्निपुराण) :: 
भगवान् श्री राम कहते हैं :- छः प्रकार की सेना को कवच आदि से संनद्ध एवं व्यूह बद्ध करके इष्ट देवताओं की तथा संग्राम सम्बन्धी दुर्गा आदि देवियों की पूजा करने के पश्चात् शत्रु पर चढ़ाई करे। मौल, भृत, श्रेणि, सुहृद्, शत्रु तथा आटविक इष्ट ये छः प्रकार के सैन्य*6(2) हैं।
**6(2)  मूलभूत पुरुष के सम्बन्धों से चली जाने वाली वंश परम्परागत सेना मौल कही गयी है। आजीविका देकर जिसका भरण-पोषण किया गया हो, यह भृत बल है। जनपद के अन्तर्गत जो व्यवसायियों तथा कारीगरों का संघ है, उनकी सेना श्रेणियल है। सहायता के लिये आये हुए मित्र की सेना सुहृद्बल है। अपनी दण्ड शक्ति से वश में की गई सेना शत्रुबल है तथा स्वमण्डल के अन्तर्गत अटवी (जंगल) का उपभोग करने वालों को आटविक कहते हैं। उनकी सेना आटविक बल है।
इनमें पर की अपेक्षा आदि पूर्व-पूर्व सेना श्रेष्ठ कही गयी है। इनका व्यसन भी इसी क्रम से गरिष्ठ माना गया है। पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथी सवार, ये सेना के चार अङ्ग हैं; किंतु मन्त्र और कोष, इन दो अङ्गों के साथ मिलकर सेना के छः अङ्ग हो जाते हैं।
नदी-दुर्ग, पर्वत-दुर्ग तथा वन-दुर्ग, इनमें जहाँ-जहाँ (सामन्त तथा आटविक आदि से) भय प्राप्त हो, वहाँ-वहाँ सेनापति संनद्ध एवं व्यूह बद्ध सेनाओं के साथ जाय। एक सेना नायक उत्कृष्ट वीर योद्धाओं के साथ आगे जाय (और मार्ग एवं सेना के लिये आवास स्थान का शोध करे) विजिगीषु राजा और उसका अन्तःपुर सेना के मध्यभाग में रहकर यात्रा करे। खजाना तथा फल्गु (असार एवं बेगार करने वालों की) सेना भी बीच में ही रहकर चले। स्वामी के अगल-बगल घुड़सवारों की सेना रहे। घुड़सवार सेना के उभय पार्श्वों में रथ सेना रहे। रथ सेना के दोनों तरफ हाथियों की सेना रहनी चाहिये। उसके दोनों बगल आटविकों (जंगली) लोगों) की सेना रहे। यात्रा काल में प्रधान एवं कुशल सेनापति स्वयं स्वामी के पीछे रहकर सबको आगे करके चले। थके-माँदे (हतोत्साह) सैनिकों धीरे-धीरे आश्वासन देता रहे। उसके साथकी
कुशल सनापात स्व स्वामक पछि रहकर सबका आगे करके चले। थके-माँदे (हतोत्साह) सैनिकोंको धीरे-धीरे आश्वासन देता रहे। उसके साथ की सारी सेना कमर कसकर युद्ध के लिये तैयार रहे। यदि आगे की ओर से शत्रु के आक्रमण का भय सम्भावित हो तो महान् मकर व्यूह की रचना करके आगे बढ़े। (यदि तिर्यग् दिशा से भय की सम्भावना हो तो) खुले या फैले पंख वाले श्येन पक्षी के आकार की व्यूह रचना करके चले। (यदि एक आदमी के ही चलने योग्य पगडंडी-मार्ग से यात्रा करते समय सामने से भय हो तो) सूची-व्यूह की रचना करके चले तथा उसके मुख भाग में वीर योद्धाओं को खड़ा करे। पीछे से भय हो तो शकट व्यूह की, पार्श्व भाग से भय हो तो वज्र व्यूह की
तथा सब ओर से भय होनेपर सर्वतो भद्र नामक व्यूह की रचना करे। 
मकर व्यूह :: उसका मुख विस्तृत होनेसे वह पीछे की समस्त सेनाकी रक्षा करता है। 
शकट व्यूह :: यह पीछे की ओर से विस्तृत होता है।
वज्र व्यूह :: इसमें दोनों ओर विस्तृत मुख होते हैं।
सर्वतो भद्र व्यूह :: इसमें सभी दिशाओं की ओर सेना का मुख होता है।
जो सेना पर्वत की कन्दरा, पर्वतीय दुर्गम स्थान एवं गहन वन में, नदी एवं घने वन से संकीर्ण पथ पर फँसी हो, जो विशाल मार्ग पर चलने से थकी हो, भूख-प्यास से पीड़ित हो, रोग, दुर्भिक्ष (अकाल) एवं महामारी से कष्ट पा रही हो, लुटेरों द्वारा भगायी गयी हो, कीचड़, धूल तथा पानी में फँस गयी हो, विक्षिप्त हो, एक-एक व्यक्ति के ही चलने का मार्ग होने से जो आगे न बढ़कर एक ही स्थान पर एकत्र हो गयी हो, सोयी हो, खाने-पीने में लगी हो, अयोग्य भूमि पर स्थित हो, बैठी सीनेमें लगी हो, अयोग्य भूमि पर स्थित हो, बैठी हो, चोर तथा अग्नि के भय से डरी हो, वर्षा और आँधी की चपेट में आ गयी हो तथा इसी तरह के अन्यान्य संकटों में फँस गयी हो, ऐसी अपनी सेना की तो सब ओर से रक्षा करे तथा शत्रु सेना को घातक प्रहार का निशाना बनाये।
जब आक्रमण के लक्ष्यभूत शत्रु की अपेक्षा विजिगीषु राजा देश-काल की अनुकूलता की दृष्टि से बढ़ा-चढ़ा हो तथा शत्रु की प्रकृति में फूट डाल दी गयी हो और अपना बल अधिक हो तो शत्रु के साथ प्रकाश युद्ध (घोषित या प्रकट संग्राम) छेड़ दे। यदि विपरीत स्थिति हो तो कूट-युद्ध (छिपी लड़ाई) करे-लड़े। जब शत्रु की सेना पूर्वोक्त बल व्यसन (सैन्य-संकट) के अवसरों या स्थानों में फँसकर व्याकुल हो तथा युद्ध के अयोग्य भूमि में स्थित हो और सेना सहित विजिगीषु अपने अनुकूल भूमि पर स्थित हो, तब वह शत्रु पर आक्रमण करके उसे मार गिराये। यदि शत्रु सैन्य अपने लिये अनुकूल भूमि में स्थित हो तो उसकी प्रकृतियों में भेदनीति द्वारा फूट डलवाकर, अवसर देख शत्रु का विनाश कर डाले।
जो युद्ध से भागकर या पीछे हटकर शत्रु को उसकी भूमि से बाहर खींच लाते हैं, ऐसे बनचरों (आटविकों) तथा अमित्र सैनिकों ने पाशभूत होकर जिसे प्रकृति प्रगह से (स्वभूमि या मण्डल से) दूर, परकीय भूमि में आकृष्ट कर लिया है, उस शत्रु को प्रकृष्ट वीर योद्धाओं द्वारा मरवा डाले। कुछ थोड़े से सैनिकों को सामने की ओर से युद्ध के लिये उद्यत दिखा दे और जब शत्रु के सैनिक उन्हीं को अपना लक्ष्य बनाने का निश्चय कर लें, तब पीछे से वेगशाली उत्कृष्ट वीरों की सेना के साथ पहुँचकर उन शत्रुओं का विनाश करे अथवा पीछे की ओर ही सेना एकत्र करके दिखाये और जब शत्रु-सैनिकों का ध्यान उधर ही खिंच जाय, तब सामने की ओर से शूरवीर बलवान् सेना द्वारा आक्रमण करके उन्हें नष्ट कर दे। सामने तथा पीछे की ओर से किये जाने वाले इन दो आक्रमणों द्वारा अगल-बगल से किये जानेवाले आक्रमणों की भी व्याख्या हो गयी अर्थात् बायीं ओर कुछ सेना दिखाकर दाहिनी ओर से और दाहिनी ओर सेना दिखाकर बायीं ओर से गुप्त रूप से आक्रमण करे। कूट युद्ध में ऐसा ही करना चाहिये। पहले दुष्यबल, अमित्रवल तथा आटविक बल, इन सबके साथ शत्रु सेना को लड़ाकर थका दे। जब शत्रु बल श्रान्त मन्द (हतोत्साह) और निरानन्द (मित्र रहित एवं निराश) हो जाय और अपनी सेना के वाहन थके न हों, उस दशा में आक्रमण करके शत्रु वर्ग को मार गिराये, अथवा दूष्य एवं अमित्र सेना को युद्ध से पीछे हटने या भागने का आदेश दे दे और जब शत्रु को यह विश्वास हो जाय कि मेरी जीत हो गयी, अतः वह ढीला पड़ जाय, तब मन्त्र बल का आश्रय ले प्रयत्न पूर्वक आक्रमण करके उसे मार डाले। स्कन्धावार (सेना के पड़ाव), पुर, ग्राम, सस्य समूह तथा गौओं के ब्रज (गोष्ठ), इन सब को लूटने का लोभ शत्रु सैनिकों के मन में उत्पन्न करा दे और जब उनका ध्यान बँट जाय तब स्वयं सावधान रहकर उन सबका संहार कर डाले, अथवा शत्रु राजा की गायों का अपहरण करके उन्हें दूसरी ओर (गायों को छुड़ाने वालों की ओर) खींचे और जब शत्रु सेना उस लक्ष्य की ओर बढ़े, तब उसे मार्ग में ही रोककर मार डाले, अथवा अपने ही ऊपर आक्रमण के भय से रात भर जागने के श्रम से दिन में सोयी हुई शत्रु सेना के सैनिक जब नींद से व्याकुल हों, उस समय उन पर धावा बोल कर मार डाले, अथवा रात में ही निश्चिन्त सोये हुए सैनिकों को तलवार हाथ में लिये हुए पुरुषों द्वारा मरवा दे।
जब सेना कूच कर चुकी हो तथा शत्रु ने मार्ग में ही घेरा डाल दिया हो तो उसके उस घेरे या अवरोध को नष्ट करने के लिये हाथियों को ही आगे-आगे ले चलना चाहिये। वन-दुर्ग में, जहाँ घोड़े भी प्रवेश न कर सकें, वहाँ हाथियों की ही सहायता से ही सेना का प्रवेश होता है। वे आगे के वृक्ष आदि को तोड़कर सैनिकों के प्रवेश के लिये मार्ग बना देते हैं। जहाँ सैनिकों की पंक्ति ठोस हो, वहाँ उसे तोड़ देना हाथियों का ही काम है तथा वहाँ व्यूह टूटने से सैनिक पंक्ति में दरार पड़ गयी वहाँ हाथियों के खड़े होने से छिद्र या दरार बंद हो जाती है। शत्रुओं में भय उत्पन्न करना, शत्रु के दुर्ग के द्वार को माथे की टक्कर देकर तोड़ गिराना, खजाने को सेना के साथ ले चलना तथा किसी उपस्थित भय से सेना की रक्षा करना ये सब हाथियों द्वारा सिद्ध होने वाले कर्म हैं।
अभिन्न सेना का भेदन और भिन्न सेना का संधान, ये दोनों कार्य (गज सेना की ही भाँति) रथ सेना के द्वारा भी साध्य हैं। वन में कहाँ उपद्रव है, कहाँ नहीं है, इसका पता लगाना, दिशाओं का शोध करना (दिशा का ठीक ज्ञान रखते हुए सेना को यथार्थ-सही दिशा की ओर ले चलना) तथा मार्ग का पता लगाना यह अश्व सेना का कार्य है। अपने पक्ष के वीवध*7 और आसार*8 की रक्षा, भागती हुई शत्रु सेना का शीघ्रतापूर्वक पीछा करना, संकट काल में शीघ्रतापूर्वक भाग निकलना, जल्दी से कार्य सिद्ध करना, अपनी सेना की जहाँ दयनीय दशा हो, वहाँ उसके पास पहुँचकर सहायता करना, शत्रु सेना के अग्रभाग पर आघात करना और तत्काल ही घूमकर उसके पिछले भाग पर भी प्रहार करना ये अश्व सेना के कार्य हैं। सर्वदा शस्त्र धारण किये रहना (तथा शस्त्रों को पहुँचाना), ये पैदल सेना के कार्य हैं। सेना की छावनी डालने के योग्य स्थान तथा मार्ग आदि की खोज करना विष्टि (बेगार) करने वाले लोगों का काम है।
*7 आगे जाती हुई सेनाको पीछे से बराबर वेतन और भोजन पहुँचाते रहने की जो व्यवस्था है, उसका नाम वीवध है।
*8 मित्र सेना को आसार कहते हैं।
जहाँ मोटे-मोटे ढूँठ, बाँबियाँ, वृक्ष और झाड़ियाँ हों, जहाँ काँटेदार वृक्ष न हों, किंतु भाग निकलने के लिये मार्ग हों तथा जो अधिक ऊँची-नीची न हो, ऐसी भूमि पैदल सेना के संचार योग्य बतायी गयी है। जहाँ वृक्ष और प्रस्तर खण्ड बहुत कम हों, जहाँ की दरारें शीघ्र लाँघने योग्य हों, जो भूमि मुलायम न होकर सख्त हो, जहाँ कंकड़ और कीचड़ न हो तथा जहाँ से निकलने के लिये मार्ग हो, वह भूमि अश्व संचार के योग्य होती है। जहाँ ढूँढ वृक्ष और खेत न हों तथा जहाँ पङ्क का सर्वथा अभाव हो, ऐसी भूमि रथ संचार के योग्य मानी गई है। जहाँ पैरों से रौंद डालने योग्य वृक्ष और काट देने योग्य लताएँ हों, कीचड़ न हो, गर्त या दरार न हों, जहाँ के पर्वत हाथियों के लिये गम्य हो, ऐसी भूमि ऊँची-नीची होने पर भी गज सेना के योग्य कही गयी है।
जो सैन्य अश्व आदि सेनाओं में भेद (दरार या छिद) पड़ जाने पर उन्हें ग्रहण करता-सहायता द्वारा अनुग्रहित बनाता है, उसे  प्रतिग्रह कहा गया है। उसे अवश्य संघटित करना चाहिये; क्योंकि वह भार को वहन या सहन करने में समर्थ होता है। प्रतिग्रह से शून्य व्यूह भिन्न सा दीखता है।
विजय की इच्छा रखने वाला बुद्धिमान् राजा प्रतिग्रह सेना के बिना युद्ध न करे। जहाँ राजा रहे, कर वहीं कोष रहना चाहिये; क्योंकि राजत्व कोष के ही अधीन होता है। विजयी योद्धाओं को उसी से पुरस्कार देना चाहिये। भला ऐसा कौन है, जो दाता के हित के लिये युद्ध न करेगा!? शत्रु पक्ष के राजा का वध करने पर योद्धा को एक लाख मुद्राएँ पुरस्कार में देनी चाहिये। राजकुमार का वध होने पर इससे आधा पुरस्कार देने की व्यवस्था रहनी चाहिये। सेनापति के मारे जाने पर भी उतना हो पुरस्कार देना उचित है। हाथी तथा रथ आदि का नाश करने पर भी उचित पुरस्कार देना आवश्यक है।
पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथी सवार ये सब सैनिक इस तरह से (अर्थात् एक-दूसरे से इतना अन्तर रखकर) युद्ध करें, जिससे उनके व्यायाम ( फैलाव तथा इतना अन्तर रखकर) युद्ध करें, जिससे उनक व्यायाम (अङ्गों फैलाव) तथा विनिवर्तन (विश्राम के लिये पीछे हटने) में किसी तरह की बाधा या रुकावट न हो। समस्त योद्धा पृथक्पृ-थक् रहकर युद्ध करें। घोल-मेल होकर जूझना संकुलावह (घमासान एवं रोमाञ्चकारी) होता है। यदि महासंकुल (घमासान युद्ध छिड़ जाय तो पैदल आदि असहाय सैनिक बड़े-बड़े हाथियों का आश्रय लें।
एक-एक घुड़सवार योद्धा के सामने तीन-तीन पैदल पुरुषों को प्रतियोद्धा अर्थात् अग्रगामी योद्धा बनाकर खड़ा करे। इसी रीति से पाँच-पाँच अश्व एक-एक हाथी के अग्रभाग में प्रतियोद्धा बनाये।
इनके सिवा हाथी के पादरक्षक भी उतने ही हों अर्थात् पाँच अश्व और पंद्रह पैदल। प्रतियोद्धा तो हाथी के आगे रहते हैं और पादरक्षक हाथी के पैरों के निकट खड़े होते हैं। यह एक हाथी के लिये व्यूह विधान कहा गया है। ऐसा ही विधान रथव्यूह के लिये भी समझना चाहिये।
एक गजव्यूह के लिये जो विधि कही गयी है, उसी के अनुसार नौ हाथियों का व्यूह बनाये। उसे अनीक जानना चाहिये। (इस प्रकार एक अनीक में पैंतालीस अश्व तथा एक सौ पैंतीस पैदल सैनिक प्रतियोद्धा होते हैं और इतने ही अश्व तथा पैदल पादरक्षक हुआ करते हैं।) एक अनीक से दूसरे अनोक की दूरी पाँच धनुष बतायी गयी है। इस प्रकार अनीक विभाग के द्वारा व्यूह-सम्पत्ति स्थापित करे।
व्यूह के मुख्यतः पाँच अङ्ग हैं। (1). उरस्य, (2). कक्ष, (3). पक्ष, इन तीनों को एक समान बताया जाता है। अर्थात् मध्यभाग में पूर्वोक्त रीति से नौ हाथियों द्वारा कल्पित एक अनीक सेना को उरस्य कहा गया है। उसके दोनों पार्श्वभागों में एक-एक अनीक की दो सेनाएँ कक्ष कहलाती हैं। कक्ष के बाह्यभाग में दोनों ओर जो एक-एक अनीक की दो सेनाएँ हैं, वे पक्ष कही जाती हैं। इस प्रकार इस पाँच अनीक सेना के व्यूहमें 45 हाथी, 225 अश्व, 675 पैदल सैनिक प्रतियोद्धा और इतने हो पादरक्षक होते हैं। इसी तरह उरस्य, कक्ष, पक्ष, मध्य, पृष्ठ, प्रतिग्रह तथा कोटि इन सात अङ्गों को लेकर व्यूह शास्त्र के विद्वानों ने व्यूह को सात अङ्गों से युक्त कहा है। 
एक-एक घुड़सवार योद्धा के सामने तीन-तीन पैदल पुरुषों को प्रतियोद्धा अर्थात् अग्रगामी योद्धा बनाकर खड़ा करे। इसी रीति से पाँच-पाँच अश्व एक-एक हाथी के अग्रभाग में प्रतियोद्धा बनाये।
इनके सिवा हाथी के पादरक्षक भी उतने ही हों अर्थात् पाँच अश्व और पंद्रह पैदल। प्रतियोद्धा तो हाथी के आगे रहते हैं और पादरक्षक हाथी के पैरों के निकट खड़े होते हैं। यह एक हाथी के लिये व्यूह विधान कहा गया है। ऐसा ही विधान रथव्यूह के लिये भी समझना चाहिये।
एक गजव्यूह के लिये जो विधि कही गयी है, उसी के अनुसार नौ हाथियों का व्यूह बनाये। उसे अनीक जानना चाहिये। (इस प्रकार एक अनीक में पैंतालीस अश्व तथा एक सौ पैंतीस पैदल सैनिक प्रतियोद्धा होते हैं और इतने ही अश्व तथा पैदल पादरक्षक हुआ करते हैं।) एक अनीक से दूसरे अनोक की दूरी पाँच धनुष बतायी गयी है। इस प्रकार अनीक विभाग के द्वारा व्यूह-सम्पत्ति स्थापित करे।
व्यूह के मुख्यतः पाँच अङ्ग हैं। (1). उरस्य, (2). कक्ष, (3). पक्ष, इन तीनों को एक समान बताया जाता है। अर्थात् मध्यभाग में पूर्वोक्त रीति से नौ हाथियों द्वारा कल्पित एक अनीक सेना को उरस्य कहा गया है। उसके दोनों पार्श्वभागों में एक-एक अनीक की दो सेनाएँ कक्ष कहलाती हैं। कक्ष के बाह्यभाग में दोनों ओर जो एक-एक अनीक की दो सेनाएँ हैं, वे पक्ष कही जाती हैं। इस प्रकार इस पाँच अनीक सेना के व्यूहमें 45 हाथी, 225 अश्व, 675 पैदल सैनिक प्रतियोद्धा और इतने हो पादरक्षक होते हैं। इसी तरह उरस्य, कक्ष, पक्ष, मध्य, पृष्ठ, प्रतिग्रह तथा कोटि इन सात अङ्गों को लेकर व्यूह शास्त्र के विद्वानों ने व्यूह को सात अङ्गों से युक्त कहा है।
 उरस्य, कक्ष, पक्ष तथा प्रतिग्रह आदि से युक्त यह व्यूह विभाग बृहस्पति के मत के अनुसार है। शुक्र के मत में यह व्यूह विभाग कक्ष और प्रकक्ष से रहित है। अर्थात् उनके मत में व्यूह के पाँच ही अङ्ग हैं।
सेनापति गण उत्कृष्ट वीर योद्धाओं से घिरे रहकर युद्ध के मैदान में खड़े हों। वे अभिन्न भावसे संघटित रहकर युद्ध करें और एक-दूसरे की रक्षा करते रहें।
सारहीन सेना को व्यूह के मध्य भाग में स्थापित करना चाहिये। युद्ध सम्बन्धी यन्त्र, आयुध और औषध आदि उपकरणों को सेना के पृष्ठ भाग में रखना उचित है।  युद्धका प्राण है, नायक-राजा या विजिगीषु। नायक के न रहने या मारे जाने पर युद्ध रत सेना मारी जाती है।
हृदय स्थान (मध्यभाग) में प्रचण्ड हाथियों को खड़ा करे। कक्ष स्थानों में रथ तथा पक्ष स्थानों में घोड़े स्थापित करे। यह मध्य भेदी व्यूह कहा गया है।
मध्य देश (वक्ष: स्थान) में घोड़ों की, कक्ष भागों में रथों की तथा दोनों पक्षों के स्थान में हाथियों की सेना खड़ी करे। यह अन्त भेदी व्यूह बताया गया है। रथ की जगह (अर्थात् कक्षों में) घोड़े दे दे तथा घोड़ों की जगह (मध्य देश में) पैदलों को खड़ा कर दे। यह अन्य प्रकार का अन्त भेदी व्यूह है। रथ के अभाव में व्यूह के भीतर सर्वत्र हाथियों की ही नियुक्ति करे (यह व्यामिश्र या घोल-मेल युद्ध के लिये उपयुक्त नीति है)।
रथ, पैदल, अश्व और हाथी, इन सबका विभाग करके व्यूह में नियोजन करे। यदि सेना का बाहुल्य हो तो वह व्यूह आवाप कहलाता है। मण्डल, असंहत, भोग तथा दण्ड, ये चार प्रकार के व्यूह प्रकृति व्यूह कहलाते हैं। पृथ्वी पर रखे
डंडे की भाँति बायें से दायें या दायें से बायें तक लंबी जो व्यूह रचना की जाती हो, उसका नाम दण्ड है। भोग (सर्प-शरीर) के समान यदि सेना की मोर्चेबंदी की गयी हो तो वह भोग नामक व्यूह है। इसमें सैनिकों का अन्वावर्तन होता है। गोलाकार खड़ी हुई सेना, जिसका सब ओर मुख हो अर्थात् जो सब ओर प्रहार कर सके, मण्डल नामक व्यूह से बद्ध कही गयी है। जिसमें अनीकों को बहुत दूर-दूर खड़ा किया गया हो, वह असंहत नामक व्यूह है।
दण्ड व्यूह के सत्रह भेद हैं :- प्रदर, दृढक, असा, चाप, चापकुक्षि, प्रतिष्ठ, सुप्रतिष्ठ, श्येन, विजय, संजय, विशाल विजय, सूची, स्थूणा कर्ण, चमू मुख, झषास्य, वलय तथा सुदुर्जय। जिसके पक्ष, कक्ष तथा उरस्य तीनों स्थानों के सैनिक सम स्थिति में हों, वह तो दण्ड प्रकृति है; परंतु यदि कक्ष भाग के सैनिक कुछ आगे की ओर निकले हों और शेष दो स्थानों के सैनिक भीतर की ओर दबे हों तो वह व्यूह शत्रु का प्रदरण (विदारण) करने के कारण प्रदर कहलाता है। यदि पूर्वोक्त दण्ड के कक्ष और पक्ष दोनों भीतर की ओर प्रविष्ट हों और केवल उरस्य भाग ही बाहर की ओर निकला हो तो वह दृढक कहा गया है। यदि दण्ड के दोनों पक्ष मात्र ही निकले हों तो उसका नाम असहा होता है। प्रदर, दृढक और असहा को क्रमशः विपरीत स्थिति में कर दिया जाय अर्थात् उनमें जिस भाग को अतिक्रान्त (निर्गत) किया गया हो, उसे प्रतिक्रान्त (अन्तः प्रविष्ट) कर दिया जाय तो तीन अन्य व्यूह चाप, चाप कुक्षि तथा प्रतिष्ठ नामक हो जाते हैं। यदि दोनों पंख निकले हों तथा उरस्य भीतर को ओर प्रविष्ट हो तो सुप्रतिष्ठित नामक व्यूह होता है। इसी को विपरीत स्थिति में कर देने पर श्येन व्यूह बन जाता है।
आगे बताये जानेवाले स्थूणा कर्ण ही जिस खड़े डंडे के आकार वाले दण्ड व्यूह के दोनों पक्ष हों, उसका नाम विजय है। (यह साढ़े तीन व्यूहों का संघ है। इसमें 17 अनीक सेनाएँ उपयोग में आती हैं।) दो चाप-व्यूह ही जिसके दोनों पक्ष हों, वह ढाई व्यूहों का संघ एवं तेरह अनीक सेना से युक्त व्यूह संजय कहलाता है। एक के ऊपर एक के क्रम से स्थापित दो स्थूणा कर्णों को विशाल विजय कहते हैं। ऊपर-ऊपर स्थापित पक्ष, कक्ष आदि के क्रम से जो दण्ड ऊर्ध्वगामी (सीधा खड़ा) होता है, वैसे लक्षण वाले व्यूह का नाम सूची है। जिसके दोनों पक्ष द्विगुणित हों, उस दण्ड व्यूह को स्थूणा कर्ण कहा गया है। जिसके तीन-तीन पक्ष निकले हों, वह चतुर्गुण पक्ष वाला ग्यारह अनीक से युक्त व्यूह चमू मुख नाम वाला है। इसके विपरीत लक्षणवाला अर्थात् जिसके तीन-तीन पक्ष प्रति क्रान्त (भीतर की ओर प्रविष्ट) हों, वह व्यूह झषास्य नाम धारण करता है। दो दण्ड व्यूह मिलकर दस अनीक सनाओं का एक वलय नामक व्यूह बनाते हैं। चार दण्ड व्यूहों के मेल से बीस अनीकों का एक दुर्जय नामक व्यूह बनता है। इस प्रकार क्रमश: इनके लक्षण कहे गये हैं।
गोमूत्रिका, अहिसंचारी, शकट, मकर तथा परिपतन्तिक, ये भोग के पाँच भेद कहे गये हैं। मार्ग में चलते समय गाय के मूत्र करने से जो रेखा बनती है उसकी आकति में सेना को खडी करना गोमूत्रिका व्यूह है। सर्प के संचरण-स्थान की रेखा जैसी आकृति वाला व्यूह अहि संचारी कहा गया है। जिसके कक्ष और पक्ष आगे-पीछे के क्रम से दण्ड व्यूह की भाँति ही स्थित हो, किंतु उरस्य की संख्या दुगुनी हो, वह शकट-व्यूह है। इसके विपरीत स्थिति में स्थित व्यूह मकर कहलाता है। इन दोनों व्यूहों में से किसी के भी मध्य भाग में हाथी और घोड़े आदि आवाप मिला दिये जायँ तो वह परिपतन्तिक नामक व्यूह होता है।
मण्डल-व्यूह के दो ही भेद हैं, सर्वतोभद्र तथा दुर्जय। जिस मण्डलाकार व्यूह का सब ओर मुख हो, उसे सर्वतोभद्र कहा गया है। इसमें पाँच अनीक सेना होती है। इसी में आवश्यकता वश उरस्य तथा दोनों कक्षों में एक-एक अनीक बढ़ा देने पर आठ अनीक का दुर्जय नामक व्यूह बन जाता है। अर्धचन्द्र, उद्धान तथा वज्र, ये असंहत के भेद हैं। इसी तरह कर्कटशृङ्गी, काकपादी और गोधिका भी असंहत के ही भेद हैं।अर्धचन्द्र तथा कर्कटशृङ्गी, ये तीन अनीकों के व्यूह हैं, उद्धान और काकपादी, ये चार अनीक सेनाओं से बनने वाले व्यूह हैं तथा वज्र एवं गोधिका, ये दो व्यूह पाँच अनीक सेनाओं के संघटन से सिद्ध होते हैं। अनीक की दृष्टि से तीन ही भेद होनेपर भी आकृति  में भेद होनेके कारण ये छः बताये गये हैं। दण्ड से सम्बन्ध रखने वाले 17, मण्डल के 2, असंहत के 6 और भोग के समराङ्गण में 5 भेद कहे गये हैं। 
पक्ष आदि अङ्गों में से किसी एक अङ्ग की सेना द्वारा शत्रु के व्यूह का भेदन करके शेष अनीकों द्वारा उसे घेर ले अथवा उरस्यगत अनीक से शत्रु के व्यूह पर आघात करके दोनों कोटियों (प्रपक्षों), द्वारा घेरे। शत्रु सेना की दोनों कोटियों (प्रपक्षों) पर अपने व्यूह के पक्षों द्वारा आक्रमण करके शत्रु के जघन (प्रोरस्य) भाग को अपने प्रतिग्रह तथा दोनों कोटियों द्वारा नष्ट करे। साथ ही, उरस्यगत सेना द्वारा शत्रु पक्ष को पीड़ा दे। 
व्यूह के जिस भाग में सारहीन सैनिक हों, जहाँ सेना में फूट या दरार पड़ गयी हो तथा जिस भाग में दूष्य (क्रुद्ध, लुब्ध आदि) सैनिक विद्यमान हों, वहीं-वहीं शत्रु सेना का संहार करे और अपने पक्ष के वैसे स्थानों को सबल बनाये। बलिष्ठ सेना को उससे भी अत्यन्त बलिष्ठ सेना द्वारा पीड़ित करे। निर्बल सैन्य दलको सबल सैन्य द्वारा दबाये। यदि शत्रु सेना संघटित भाव से स्थित हो तो प्रचण्ड गजसेना द्वारा उस शत्रु वाहिनी का विदारण करे।
 पक्ष, कक्ष और उरस्य, ये सम स्थिति में वर्तमान हों तो दण्ड व्यूह होता है। दण्ड का प्रयोग और स्थान व्यूह के चतुर्थ अङ्ग द्वारा प्रदर्शित करे। दण्ड के समान ही दोनों पक्ष यदि आगे की ओर निकले हों तो प्रदर या प्रदारक व्यूह बनता है। वही यदि पक्ष-कक्ष द्वारा अतिक्रान्त (आगे की ओर निकला) हो तो दृढ़ नामक व्यूह होता है। यदि दोनों पक्ष मात्र आगे की ओर निकले हों तो वह व्यूह असह्य नाम धारण करता है। कक्ष और पक्ष को नीचे स्थापित करके उरस्य द्वारा निर्गत व्यूह चाप कहलाता है। दो दण्ड मिलकर एक वलय व्यूह बनाते हैं। यह व्यूह शत्रु को विदीर्ण करने वाला होता है। चार लय व्यूहों के योग से एक दुर्जय व्यूह बनता जो शत्रु वाहिनी का मर्दन करने वाला होता है। क क्ष, पक्ष तथा उरस्य जब विषमभावसे स्थित हों तो भोग नामक व्यूह होता है। इसके पाँच भेद :- सर्पचारी, गोमूत्रिका, शकट, मकर और पतन्तिक हैं। सर्प संचरण की आकृति से सर्पचारी, गौमूत्र के आकार से गोमूत्रिका, शकट की सी आकृति से शकट तथा इसके विपरीत स्थिति से मकर व्यूह का सम्पादन होता है। यह भेदों सहित भोग व्यूह पूर्ण शत्रुओं का मर्दन करने वाला है। चक्रव्यूह, पद्मव्यूह आदि मण्डल के भेद-प्रभेद हैं। इसी प्रकार सर्वतोभद्र, वज्र, अक्षवर, काक, अर्धचन्द्र, शृङ्गार आदि व्यूह भी हैं। इनकी आकृति के ही अनुसार ये नाम रखे गये हैं। अपनी मौज के अनुसार व्यूह बनाने चाहिये। व्यूह शत्रु सेना को प्रगति को रोकने वाले होते हैं। 
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