Sunday, January 18, 2015

RAJA JANAK विदेह राजा जनक :: RAMAYAN (5) रामायण

RAJA  JANAK
विदेह राजा जनक
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com
ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
मिथिला पुरी के राजा जनक को विदेह कहा जाता है। निर्लिप्त जनक एक विद्वान और धर्म परायण राजा थे। उनके दरबार में धर्म संसद और गोष्ठियों का नियमित आयोजन होता था। वे एक सद्पुरुष, न्यायप्रिय, जीवों पर दया करने वाले और प्रजा पालक थे। अभ्यागत, साधु-संतों को भोजन खिलाकर स्वयं भोजन करते थे। एक दिन एक महात्मा ने राजा जनक से पूछा कि क्या उन्होंने किसी को अपना गुरु धारण किया है? राजा का उत्तर नकारात्मक था। उन्होंने कहा कि उनके पास एक दिव्य शिव धनुष था, जिसकी वे नियम बद्ध पूजा किया करते थे। महात्मा ने राजा जनक से कहा कि वे अविलम्ब किसी तेजस्वी विद्वान, महात्मा-ऋषि, तत्वज्ञानी  को अपना गुरु बनायें। जीवन में कल्याण और भक्ति की सफलता हेतु गुरु के मार्ग दर्शन की नितान्त आवश्यकता होती है। धार्मिक, सत्य वचन, दयावान, दानशील व्यक्ति को भी सन्मार्ग दिखने वाले की जरूरत होती है। राजा जनक को उनकी बात में तत्व नज़र आया। गुरु धारण करने के लिए उन्होंने मन्त्रियों से सलाह-मशविरा किया। एक धर्म सभा का आयोजन किया गया और दूर-दूर तक विद्वान प्रकाण्ड पण्डितों  को निमन्त्रण भेजा गया। उस सभा में ऋषि, मुनि, पंडित, वेदाचार्य बुलाए गये। सभी देशों से विद्वान और वेदाचार्य आए और ऋषि महात्मा पधारे। राजा जनक का गुरु होना एक महान सम्मान का विषय था। अतः सभी उस पद के लिये लालायित थे। पदेच्छा रखने वाले पूर्ण तैयारी के साथ पधारे। राजा जनक ने सबका स्वागत किया और प्रार्थना की वे एक गुरु धारण करना चाहते हैं; परन्तु इसके लिए कुछ शर्त भी हैं। वे उसी को अपना गुरु, सलाहकार, पथ प्रदर्शक बनायेंगे जो उन्हें घोड़े पर चढ़ते समय रकाब के ऊपर पैर रखने पर काठी पर बैठने से पूर्व ही ज्ञान कराए! अतः आगन्तुक सब विद्वानों, वेदाचार्यों और ब्राह्मणों में से जिस किसी को भी स्वयं पर पूर्णत: विश्वास हो तो वह आगे आए और चन्दन की चौकी पर विराजमान हो कर उन्हें ज्ञान प्रदान करे। ऐसा न कर पाने पर प्रार्थी दण्ड का भागी होगा। अतः केवल योग्य, बुद्धि बल से संपन्न व्यक्ति ही आगे आये। यह प्रार्थना करके राजा जनक अपने आसन ग्रहण किया। सभी विद्वान और ब्राह्मण राजा जनक की अनोखी शर्त सुनकर एक दूसरे की तरफ देखने लगे। अपने-अपने मन में विचार करने लगे कि ऐसा कौन सा तरीका है जो राजा जनक को इतने कम समय में ज्ञान करा सके। सब के दिलों-दिमाग में एक संग्राम शुरू हो गया। सारी सभा में सन्नाटा छा गया। राजा जनक का गुरु बनना, मान्यता और आदर हासिल करना बहुत ही कठिन कार्य था। सब सोचते और देखते ही रह गये। चन्दन की चौकी की ओर कोई न बढ़ा। यह देखकर राजा जनक को बहुत निराशा हुई। वे विचार करने लगे कि क्या संसार विद्वान से रहित हो गया है!?  राजा ने खड़े हो कर सभा में उपस्थित हर एक विद्वान के चेहरे की ओर देखा। लेकिन किसी ने आँख नहीं मिलाई। उसी समय सभा में एक ब्राह्मण का प्रवेश हुआ, जिनका शरीर टेढ़ा-मेढ़ा था। उनको देखते ही सारे सभासद, मेहमान और प्रार्थी गण हँसने लगे। यह देखकर ब्राह्मण ने कहा कि क्या वे विद्वानों की सभा में न आकर एक चर्म कारों की मंडी में आ गए हैं?! राजा सहित हर किसी की हँसी पर लगाम लग गयी। वे अष्टावक्र जी थे; जिनका शरीर उनके पिता के श्रापवश वक्र हो गया था। उन्होंने माँ के गर्भ में ही अपने पिता को श्लोक का गलत उच्चारण करने पर आगाह किया था। उन्हें पद लालसा, लालच, लोभ कदापि नहीं था। सभा में निस्तब्धता छा गई। 
उन्होंने कहा कि भरी सभा में ऐसा कोई ज्ञानी नहीं, कोई राजा का गुरु बनने की योग्यता रखता हो। उन्होंने राजा को भी अज्ञानियों को विज्ञ सभा में आमन्त्रित करने के लिये फटकारा। उन्होंने प्रश्न किया कि ज्ञान का संबंध किस से है? आत्मा, मस्तिष्क या शरीर से? उन्होंने सुन्दर शरीर वाले, तिलक धारी, ऊँचे कुल और अच्छे वस्त्रों में सुशोभित विद्वानों को ललकारा। शरीर कर्माधीन, ईश्वर की रचित माया है। तन का अभिमान उचित नहीं है। ज्ञान का अभिमान भी अनुचित ही है।
राजा जनक ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया और उस घटना के लिए क्षमा प्रार्थना की। राजा ने हवा से बातें करने वाला घोड़ा मँगवाया। अष्टावक्र जी घोड़े का निरीक्षण किया। उन्होंने राजा से संकल्प कराया कि वे दक्षिणा में तन, मन या धन में से कोई एक देंगे। राजा ने स्वीकार तो किया, मगर सोच में पड़ गये कि क्या दक्षिणा दें। उन्होंने रानी के सामने अपने समस्या रखी। रानी ने कहा कि यदि धन दान किया तो दुःख प्राप्त होगा, गरीबी आएगी, यदि तन दान किया तो कष्ट उठाना पड़ेगा, अच्छा यही है कि राजा मन को दक्षिणा में दे दें। मन को देने से कोई कष्ट नहीं होगा। उन्होंने सभा में पहुँचकर  हाथ जोड़ कर विनम्रता से अष्टावक्र को कहा कि गुरु दक्षिणा में मन अर्पण करते हैं। उनके मन पर अष्टावक्र जी का अधिकार उन्होंने स्वीकार किया। अष्टावक्र जी ने राजा से घोड़े पर चढ़ने की तैयारी करने को कहा। अष्टावक्र जी ने कहा कि यदि आपका मन मेरा है तो मेरा कहना अवश्य मानेगा। अष्टावक्र जी की आज्ञा से सभा में बैठे सब हैरान हो गए कि यह कैसी दक्षिणा है! राजा घोड़े के ऊपर चढ़ने लगा, अभी रकाब में पैर रखा ही था कि अष्टावक्र जी बोले कि हे राजन! मेरे मन की इच्छा नहीं है कि आप घोड़े के ऊपर चढ़ो। यह सुनकर राजा ने उसी समय रकाब से पैर उठा कर धरती पर रख लिए तथा अष्टावक्र जी की ओर देखने लगे। घोड़े के ऊपर चढ़ने की उसकी मन की इच्छा दूर हो गई। तभी अष्टावक्र जी ने दूसरी बार कहा कि हे राजन! मेरा मन चाहता है कि आप लिबास उतार दें। राजा जनक उसी समय वस्त्र उतारने लगे तो उसको ज्ञान हुआ कि मन पर काबू पाना, मन के पीछे स्वयं न लगना ही सुखों का ज्ञान है। मन भटकता रहता है। राजा जनक ने उसी समय अष्टावक्र जी के चरणों में माथा झुका दिया और कहा कि वे उनके गुरु हुए। उसी समय खुशी से मंगलाचार होने लगे। यज्ञ शुरू हो गया। बड़े-बड़े ब्राह्मणों ने अष्टावक्र जी की विद्वता को स्वीकार किया। अष्टावक्र जी और राजा जनक के संवाद को अष्टावक्र गीता के नाम से जाना जाता है। राजा का माया मोह, बंधन कट गए। मोह-माया, लोभ, अहंकार तथा वासना, काम का आवेग भी उसके मन की इच्छा अनुसार हो गया। 
Please refer to :: ASHTAWAKR GEETA अष्टावक्र गीता santoshkipathshala.blogspot.com
Mithila also known as Mithilanchal, Tirhut and Tirabhukti is a geographical and cultural region located in the Indian subcontinent, comprising Tirhut, Darbhanga, Kosi, Purnia, Munger, Bhagalpur and Santhal Pargana divisions of India and some adjoining districts of Nepal. The native language is known as Maethili and its speakers are referred to as Maethils. The majority of the Mithila region falls within modern day India, more specifically in the state of Bihar. Mithila is bounded in the north by the Himalay and in the south, west and east by the Ganga, Gandaki and Maha Nanda respectively. It extends into the south-eastern Terai of Nepal. This region was also called Tirabhukti-the ancient name of Tirhut.
The kings of Mithila were called Janak. The most famous Janak was Seer Dhwaj Janak, father of Mata Sita. 
The region was also known as Videh. The kingdom of Videh is mentioned for the first time in Yajur Ved Sanhita. Mithila, is mentioned in the Brahmans, the Purans (described in detail in Brahad Vishnu Puran) and various epics such as the Ramayan and the Maha Bharat.
Bhishm Pitamah described Maha Raj Janak to Yudhistar as Videh-one who had conquered, over powered all worldly bonds, ties, attachment and had absolute control over his senses. His original name was Jan Dev but he was popularly called as Janak. He was an intellectual and performed his duties with great deliberation. He was universal in his thoughts and extremely spiritual despite being a king of great repute. While performing Yagy (Hawan, Agni Hotr, holy sacrifices in holy fire) or doing charity or even while ruling the country, he was in a kind of trance or blissful Samadhi (Staunch meditation).[Shanti Parv-Maha Bharat]

    
Contents of these above mentioned blogs are covered under copyright and anti piracy laws. Republishing needs written permission from the author. ALL RIGHTS ARE RESERVED WITH THE AUTHOR.
संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)