Monday, February 2, 2015

BHAGWAN SHRI KRASHN भगवान् श्री कृष्ण

BHAGWAN SHRI KRASHN
भगवान् श्री कृष्ण 
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com
ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं नीराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
सच्चिदानंदरूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः॥
सच्चिदानन्द भगवान् श्री कृष्ण को हम नमस्कार करते हैं, जो जगत की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय के हेतु तथा आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक; इन तीनों प्रकार के तापों का नाश करने वाले हैं।
श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय!
हे आकर्षक तत्व मेरे प्रभो! इन्द्रियों को वशीभूत करो, दुःखों का हरण करो, समस्त बुराईयों का बध करो, मैं सेवक हूँ आप स्वामी, मैं जीव हूँ। आप ब्रह्म, प्रभो! मेरे प्राणों के आप रक्षक हैं।
There is not even a single day in India, which is not connected with some festivity, religious ceremony or fasting for the devout Hindu. Shri Krashn Janmashtami is one of the 5 major festival in India i.e., Holi, Raksha Bandhan, Deepawali, Dashhara and Shri Krashn Janm Ashtami. Kumbh and Shiv Ratri too are most auspicious and important events.

Vigils are held until midnight all over the country by the devotees to break the fast after mid-night, after viewing the Moon. This festival is associated with eating of fruits, so that people of all ages can observe it, easily. However, a number of sweets are also prepared at home to offer to the Almighty. The temples are tastefully decorated and visuals are used to demonstrate the life of the Almighty.
Some people decorate their kids in Bal Krashn attire, having people feather in the crown (मुकुट).
VIGIL :: विशेष प्रयोजन से रात भर जागते रहने की अवधि; रात्रि-जागरण, रतजगा; a period when one stay awake all night for a special purpose. 
R
AS LEELA-SHRI KRASHN LEELA :: The tradition of Ras Leela is very popular in western Uttar Pradesh, north-eastern states such as Manipur and Assam and in parts of Rajasthan and Gujarat. It is acted out by numerous teams of amateur artists, cheered on by their local communities and these drama-dance plays begin a few days before each Janmashtami.

Various acts of Bhagwan Shri Krashn's life are enacted over a make shift stage in front of the local audience, specifically in the villages of Northern region of India.
पूरे भारत वर्ष में धूम-धाम से मनाया जाने वाला "श्री कृष्ण जन्माष्टमी" हिन्दुओं का एक विशिष्ट त्यौहार है, जो कि भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है। भगवान् श्री कृष्ण परब्रह्म परमेश्वर के पूर्णावतार हैं। इसे भगवान् श्री कृष्ण के जन्म दिन के रूप में मनाते हैं। जन्माष्टमी को गोकुलाष्टमी, कृष्णाष्टमी, श्री जयंती के नाम से भी जाना जाता है। महाराष्ट्र में जन्माष्टमी दही-हाँडी के लिए विख्यात है। इस पवित्र-पावन अवसर पर मंदिरों में भव्य समारोह किये जाते हैं। जगह-जगह 
भगवान् श्री कृष्ण की झाँकियाँ सजाई जाती हैं तथा रास लीला का आयोजन किया जाता है। मथुरा और वृन्दावन जहाँ भगवान् श्री कृष्ण ने अपना बचपन बिताया था, वहाँ की जन्माष्टमी विश्व प्रसिद्द है। जन्माष्टमी के दिन लोग दिन भर व्रत रहते हैं तथा आधी रात में भगवान् श्री कृष्ण के जन्मोत्सव को मनाकर व्रत तोड़ते हैं। सभी जगह कीर्तन एवं भजन का आयोजन किया जाता है।
भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी  तिथि को मध्यरात्रि को रोहिणी नक्षत्र में भगवान् श्री कृष्ण का जन्म हुआ था।[भविष्य पुराण]
भगवान् श्री कृष्ण ने देवकी और वसुदेव को तीसरी बार उनके पुत्र के रूप में जन्म लेकर अपना वचन पूरा किया।
भगवान् श्री कृष्ण ने माँ देवकी से कहा ::  अब सफल मनोरथ श्री भगवान् ने कहा, देवि! स्वायम्भुव मन्वन्तर में जब तुम्हारा पहला जन्म हुआ था, उस समय तुम्हारा नाम था पृश्चि और ये वसुदेव सुतपा नाम के प्रजापति थे। तुम दोनों के हृदय बड़े ही शुद्ध थे। जब ब्रह्मा जी ने तुम दोनों को सन्तान उत्पन्न करने की आज्ञा दी, तब तुम लोगों ने इन्द्रियों का दमन करके उत्कृष्ट तपस्या की। तुम दोनों ने वर्षा, वायु, घाम, शीत, उष्ण आदि काल के विभिन्न गुणों को सहन किया और प्राणायाम के द्वारा अपने मन के मल धो डाले। तुम दोनों कभी सूखे पत्ते खा लेते और कभी हवा पीकर ही रह जाते। तुम्हारा चित्त बड़ा शान्त था। इस प्रकार तुम लोगों ने मुझ से अभीष्ट वस्तु प्राप्त करने की इच्छा से मेरी आराधना की। मुझ में चित्त लगाकर ऐसा परम दुष्कर और घोर तप करते-करते देवताओं के बारह हजार वर्ष बीत गये।  
पुण्यमयी देवि! उस समय मैं तुम दोनों पर प्रसन्न हुआ क्योंकि तुम दोनों ने तपस्या, श्रद्धा और प्रेम मयी भक्ति से अपने हृदय में नित्य-निरन्तर मेरी भावना की थी। उस समय तुम दोनों की अभिलाषा पूर्ण करने के लिये वर देने वालों का राजा मैं इसी रूप से तुम्हारे सामने प्रकट हुआ। जब मैंने कहा कि "तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझ से माँग लो", तब तुम दोनों ने मेरे-जैसा पुत्र माँगा। उस समय तक विषय-भोगों से तुम लोगों का कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था। तुम्हारे कोई सन्तान भी न थी; इसलिये मेरी माया से मोहित होकर तुम दोनों ने मुझ से मोक्ष नहीं माँगा।
तुम्हें मेरे-जैसा पुत्र होने का वर प्राप्त हो गया और मैं वहाँ से चला गया। अब सफल मनोरथ होकर तुम लोग विषयों का भोग करने लगे। मैंने देखा कि संसार में शील-स्वभाव, उदारता तथा अन्य गुणों में मेरे जैसा दूसरा कोई नहीं है; इसलिये मैं ही तुम दोनों का पुत्र हुआ और उस समय मैं पृश्निगर्भ के नाम से विख्यात हुआ। फिर दूसरे जन्म में तुम हुईं अदिति और वसुदेव हुए कश्यप। उस समय भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ। मेरा नाम था उपेन्द्र। शरीर छोटा होने के कारण लोग मुझे वामन भी कहते थे।
सती देवकी! तुम्हारे इस तीसरे जन्म में भी मैं उसी रूप से फिर तुम्हारा पुत्र हुआ हूँ। क्योंकि मेरे मुँह से तीन बार तथास्तु निकला, इसलिये मैनें तीन बार तुम्हारे पुत्र रूप में अवतार लिया। मेरी वाणी सर्वदा सत्य होती है। मैंने तुम्हें अपना यह रूप इसलिये दिखला दिया है कि तुम्हें मेरे पूर्व अवतारों का स्मरण हो जाये। यदि मैं ऐसा नहीं करता, तो केवल मनुष्य-शरीर से मेरे अवतार की पहचान नहीं हो पाती। तुम दोनों मेरे प्रति पुत्र भाव तथा निरन्तर ब्रह्मभाव रखना। इस प्रकार वात्सल्य-स्नेह और चिन्तन के द्वारा तुम्हें मेरे परम पद की प्राप्ति होगी।[श्रीमद्भागवत 3.10.32-45]
श्री शुकदेव जी कहते हैं :- भगवान् इतना कहकर चुप हो गये। अब उन्होंने अपनी योग माया से पिता-माता के देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया[श्रीमद्भागवत 3.10.46]
तब वसुदेवजी ने भगवान् की प्रेरणा से अपने पुत्र को लेकर सूतिका गृहसे बाहर निकलने की इच्छा की। उसी समय नन्दपनी यशोदा के गर्भ से उस योग माया का जन्म हुआ, जो भगवान्‌ की शक्ति होने के कारण उनके समान ही जन्म रहित है[श्रीमद्भागवत 3.10.47]
उनका पालन-पोषण माता यशोदा और नंद बाबा ने किया  था। मथुरा सहित पूरे भारत वर्ष में यह महापर्व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। मथुरा और द्वारका में तो इस पर्व की विशेष महत्ता है।
भगवान् श्री कृष्ण बचपन से ही बेहद नटखट और शरारती थे। माखन उन्हें बेहद प्रिय था, जिसे वह मटकी से चुरा कर खाते थे। भगवान् श्री कृष्ण की इसी लीला को उनके जन्मोत्सव पर पुन: ताजा किया जाता है। देश के कई भागों में इस दिन मटकी फोड़ने का कार्यक्रम भी आयोजित किया जाता है।
भारत अधिकाँश प्रतिष्ठित दूरदर्शन चैनल इसका मथुरा और द्वारका से सीधा प्रसारण करते हैं। 
जन्माष्टमी पर भक्तों को दिन भर उपवास रखना चाहिए और रात्रि के 11 बजे स्नान आदि से पवित्र हो कर घर के एकांत पवित्र कमरे में, उत्तर-पूर्व दिशा की ओर आम की लकड़ी के सिंहासन पर, लाल वस्त्र बिछाकर, उस पर राधा-कृष्ण की तस्वीर स्थापित करना चाहिए। इसके उपरान्त नंदलाल की पूजा करना चाहिए। इस दिन जो श्रद्धा भक्त पूर्वक जन्माष्टमी के महात्म्य को पढ़ता, सुनता और सुनाता है, इस लोक में सारे सुखों को भोगकर वैकुण्ठ धाम को जाता है।
भगवान् श्री कृष्ण का जीवन परिचय :: 3,228 ई.पू., श्री कृष्ण संवत् में श्रीमुख संवत्सर, भाद्रपद कृष्ण अष्टमी, 21 जुलाई, बुधवार के दिन मथुरा में कंस के कारागार में माता देवकी के गर्भ से जन्म लिया, उनके पिता वसुदेव जी थे। उसी दिन वासुदेव ने उन्हें नन्द-यशोदा जी के घर गोकुल में छोड़ा।
(1). मात्र 6 दिन की उम्र में भाद्रपद कृष्ण की चतुर्दशी, 27 जुलाई, मंगलवार, षष्ठी-स्नान के दिन कंस की राक्षसी पूतना का वध कर दिया।
(2). 1 साल, 5 माह, 20 दिन की उम्र में माघ शुक्ल चतुर्दशी के दिन अन्नप्राशन संस्कार हुआ।
(3). 1 साल की आयु त्रिणिवर्त का वध किया।
(4). 2 वर्ष की आयु में महर्षि गर्गाचार्य ने नामकरण संस्कार किया।
(5). 2 वर्ष 6 माह की उम्र में यमलार्जुन (नलकूबर और मणिग्रीव) का उद्धार किया।
(6). 2 वर्ष, 10 माह की उम्र में गोकुल से वृन्दावन चले गये।
(7). 4 वर्ष की आयु में वत्सासुर और बकासुर नामक राक्षसों का वध किया।
(8). 5 वर्ष की आयु में अघासुर का वध किया।
(9). 5 साल की उम्र में ब्रह्मा जी का गर्व भंग किया।
(10). 5 वर्ष की आयु में कालिया नाग का मर्दन और दावाग्नि का पान किया। 
(11). 5 वर्ष, 3 माह की आयु में यमुना में गोपियों का चीर-हरण किया।
(12). 5 साल 8 माह की आयु में यज्ञ पत्नियों पर कृपा की।
(13). 7 वर्ष, 2 माह, 7 दिन की आयु में गोवर्धन को अपनी उँगली पर धारण कर देवराज इन्द्र का घमंड भंग किया। 
1(4). 7 वर्ष, 2 माह, 14 दिन का उम्र में में श्री कृष्ण का एक नाम ‘गोविन्द’ पड़ा।
(15) 7 वर्ष, 2 माह, 18 दिन की आयु में नन्द जी को वरुण लोक से छुड़ाकर लाये।
(16). 8 वर्ष, 1 माह, 21 दिन की आयु में गोपियों के साथ  नृत्य किया।
(17). 8 वर्ष, 6 माह, 5 दिन की आयु में सुदर्शन गन्धर्व का उद्धार किया।
(18). 8 वर्ष, 6 माह, 21 दिन की उम्र में शंखचूड़ दैत्य का वध किया।
(19). 9 वर्ष की आयु में अरिष्टासुर (वृषभासुर) और केशी दैत्य का वध करने से ‘केशव’ पड़ा।
(20). 10 वर्ष, 2 माह, 20 दिन की आयु में मथुरा नगरी में कंस का वध किया एवं कंस के पिता उग्रसेन को मथुरा के सिंहासन दोबारा बैठाया।
(21). 11 वर्ष की उम्र में अवन्तिका में संदीपनी मुनि के गुरुकुल में 126 दिनों में छः अंगों सहित संपूर्ण वेदों, गजशिक्षा, अश्वशिक्षा और धनुर्वेद (कुल 64 कलाओं) का ज्ञान प्राप्त किया, पञ्चजन दैत्य का वध एवं पाञ्चजन्य शंख को धारण किया। 
(22). 12 वर्ष की आयु में उपनयन (यज्ञोपवीत) संस्कार हुआ।
(23). 12 से 28 वर्ष की आयु तक मथुरा में जरासन्ध को 17 बार पराजित किया।
(24). 28 वर्ष की आयु में रत्नाकर (सिंधु सागर) पर द्वारका नगरी की स्थापना की एवं इसी उम्र में मथुरा में कालयवन की सेना का संहार किया।
(25). 29 से 37 वर्ष की आयु में रुक्मिणी हरण, द्वारका में रुक्मिणी से विवाह, स्यमन्तक मणि प्रकरण, जाम्बवती, सत्यभामा एवं कालिन्दी से विवाह, केकय देश की कन्या भद्रा से विवाह, मद्र देश की कन्या लक्ष्मणा से विवाह। इसी आयु में प्राग्ज्योतिषपुर में नरकासुर का वध, नरकासुर की कैद से 16 हजार 100 कन्याओं को मुक्तकर द्वारका भेजा, अमरावती में इन्द्र से अदिति के कुण्डल प्राप्त किए, इन्द्रादि देवताओं को जीतकर पारिजात वृक्ष (कल्पवृक्ष) द्वारका लाए, नरकासुर से छुड़ायी गयी 16,100 कन्याओं से द्वारका में विवाह, शोणितपुर में बाणासुर से युद्ध, उषा और अनिरुद्ध के साथ द्वारका लौटे एवं पौण्ड्रक, काशीराज, उसके पुत्र सुदक्षिण और कृत्या का वध कर काशी दहन किया।
(26). 38 वर्ष 4 माह 17 दिन की आयु में द्रौपदी स्वयंवर में पांचाल राज्य में उपस्थित हुए। 
(27). 39 व 45 वर्ष की आयु में विश्वकर्मा के द्वारा पाण्डवों के लिए इन्द्रप्रस्थ का निर्माण करवाया।
(28). 71 वर्ष की आयु में सुभद्रा हरण में अर्जुन की सहायता की।
(29). 73 वर्ष की उम्र में इन्द्रप्रस्थ में खाण्डव वन दाह में अग्नि और अर्जुन की सहायता, मय दानव को सभा-भवन निर्माण के लिए आदेश भी दिया।
(30). 75 साल की उम्र में धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ के निमित्त इन्द्रप्रस्थ में आगमन हुआ।
(31). 75 वर्ष 2 माह 20 दिन की आयु में जरासन्ध के वध में भीम की सहायता की।
(32). 75 वर्ष 3 माह की आयु में जरासन्ध के कारागार से 20,800 राजाओं को मुक्त किया, मगध के सिंहासन पर जरासन्ध-पुत्र सहदेव का राज्याभिषेक किया।
(33). 75 वर्ष 6 माह 9 दिन की आयु में शिशुपाल का वध किया।
(35). 75 वर्ष 7 माह की आयु में द्वारका में शिशुपाल के भाई शाल्व का वध किया।
(36). 75 वर्ष 10 माह 24 दिन की उम्र में प्रथम द्यूत क्रीड़ा में द्रौपदी (चीर हरण) की लाज बचाई। 
(37). 75 वर्ष 11 माह की आयु में वन में पाण्डवों से भेंट, सुभद्रा और अभिमन्यु को साथ लेकर द्वारका प्रस्थान किया।
(38). 89 वर्ष 1 माह 17 दिन की आयु में अभिमन्यु और उत्तरा के विवाह में बारात लेकर विराटनगर पहुँचे।
(39). 89 वर्ष 2 माह की उम्र में विराट की राजसभा में कौरवों के अत्याचारों और पाण्डवों के धर्म-व्यवहार का वर्णन करते हुए किसी सुयोग्य दूत को हस्तिनापुर भेजने का प्रस्ताव, द्रुपद को सौंपकर द्वारका-प्रस्थान, द्वारका में दुर्योधन और अर्जुन, दोनों की सहायता की स्वीकृति, अर्जुन का सारथी-कर्म स्वीकार करना किया। 
(40). 89 वर्ष 2 माह 8 दिन की उम्र में पाण्डवों का सन्धि-प्रस्ताव लेकर हस्तिनापुर गयें।
(41). 89 वर्ष 3 माह 17 दिन की आयु में कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को ‘भगवद्गीता’ का उपदेश देने के बाद महाभारत युद्ध में अर्जुन के सारथी बन युद्ध में पाण्डवों की अनेक प्रकार से सहायता की। 
(42). 89 वर्ष 4 माह 8 दिन की उम्र में अश्वत्थामा को 3,000 वर्षों तक जंगल में भटकने का श्राप दिया एवं इसी उम्र में गान्धारी का श्राप स्वीकार किया।
(43). 89 वर्ष 7 माह 7 दिन की आयु में धर्मराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करवाया।
(44). 91-92 वर्ष की आयु में धर्मराज युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ में सम्मिलित हुए।
(45). 125 वर्ष 4 माह की उम्र में द्वारका में यदुवंश कुल का विनाश हुआ एवं 125 वर्ष 5 माह की उम्र में उद्धव जी को उपदेश दिया।
(46). 125 वर्ष, 5 माह 21 दिन की आयु में दोपहर 2 बजकर 27 मिनट 30 सेकंड पर प्रभास क्षेत्र में स्वर्गारोहण और उसी के बाद कलियुग का प्रारम्भ हुआ।
यह घटनाक्रम द्वापर युग का है जब मनुष्यों की सामान्य आयु 200 वर्ष होती थी।
जन्माष्टमी व्रत :: जो जातक जन्माष्टमी व्रत रखता है, उस करोड़ों एकादशी करने का पुण्य प्राप्त होता है और उसके रोग-शोक दूर हो जाते हैं।
जन्माष्टमी को रात्रि जागरण करके, ध्यान-जप आदि का विशेष महत्त्व है। 
ब्रह्मा जी माता सरस्वती को कहते हैं और भगवान् श्री कृष्ण अपने भक्त  उद्धव को बताते हैं कि जो जन्माष्टमी का व्रत रखता है, उसे करोड़ों एकादशी करने का पुण्य प्राप्त होता है और उसके रोग शोक दूर हो जाते हैं। 
धर्मराज सावित्री देवी को कहते हैं कि जन्माष्टमी का व्रत 100 जन्मों के पापों से मुक्ति दिलाने वाला है।
उपवास से भूख प्यास आदि कष्ट सहने की आदत पड़ जाती है, जिससे जातक का संकल्प बल बढ़ जाता है। इंद्रियों के संयम से संकल्प की सिध्दि होती है, आत्म विश्वास बढ़ता है, जिससे व्यक्ति लौकिक फायदे अच्छी तरह से प्राप्त कर सकता है। 
बालक, अति कमजोर  तथा बूढ़े लोग अनुकूलता के अनुसार थोड़ा फल आदि खाएं। 
जन्माष्टमी का व्रत अकाल मृत्यु नहीं होने देता है।[भविष्य पुराण] 
जो जातक जन्माष्टमी का व्रत करते हैं, उनके घर में गर्भपात नहीं होता। बच्चा ठीक से पेट में रहता है और ठीक समय बालक का जन्म होता है। 
जन्माष्टमी के दिनों में मिलने वाला पंजरी का प्रसाद वायु नाशक होता है। उसमें अजवाइन जीरा व गुड़ पड़ता है। 
ये मौसम मंदागिनी का भी है। उपवास रखने से मंदगिनी दूर होगी और शरीर मे जो अनावश्यक द्रव पड़े है, उपवास करने से वे खींच कर जठर में आकर स्वाहा हो जाएंगे। 
जन्माष्टमी के दिन किया हुआ जप अनन्त गुना फल देता है।
भगवान् श्री कृष्ण के 108 नाम ::
(1). अचला :- भगवान।
(2). अच्युत :- अचूक प्रभु, या जिसने कभी भूल ना की हो।
(3 अद्भुतह :- अद्भुत प्रभु।
(4). आदिदेव :- देवताओं के स्वामी।
(5). अदित्या :- देवी अदिति के पुत्र।
(6). अजंमा :- जिनकी शक्ति असीम और अनंत हो।
(7). अजया :- जीवन और मृत्यु के विजेता।
(8). अक्षरा :- अविनाशी प्रभु।
(9). अम्रुत :- अमृत जैसा स्वरूप वाले।
(10). अनादिह :- सर्वप्रथम हैं जो।
(11). आनंद सागर :- कृपा करने वाले
(12). अनंता :- अंतहीन देव
(13). अनंतजित :- हमेशा विजयी होने वाले।
(14). अनया :- जिनका कोई स्वामी न हो।
(15). अनिरुद्ध :- जिनका अवरोध न किया जा सके।
(16). अपराजीत :- जिन्हें हराया न जा सके।
(17). अव्युक्ता :- मणिभ की तरह स्पष्ट।
(18). बालगोपाल :-  भगवान कृष्ण का बाल रूप।
(19). बलि :- सर्व शक्तिमान।
(20). चतुर्भुज :- चार भुजाओं वाले प्रभु।
(21). दानवेंद्रो :- वरदान देने वाले।
(22). दयालु :- करुणा के भंडार।
(23). दयानिधि :- सब पर दया करने वाले।
(24). देवाधिदेव :- देवों के देव
(25). देवकीनंदन :- देवकी के लाल (पुत्र)।
(26). देवेश :-  ईश्वरों के भी ईश्वर
(27). धर्माध्यक्ष :- धर्म के स्वामी
(28). द्वारकाधीश :- द्वारका के अधिपति।
(29). गोपाल  :- ग्वालों के साथ खेलने वाले।
(30). गोपालप्रिया :- ग्वालों के प्रिय
(31). गोविंदा :- गाय, प्रकृति, भूमि को चाहने वाले।
(32). ज्ञानेश्वर :- ज्ञान के भगवान
(33). हरि :- प्रकृति के देवता।
(34). हिरंयगर्भा :- सबसे शक्तिशाली प्रजापति।
(35). ऋषिकेश :- सभी इंद्रियों के दाता।
(36). जगद्गुरु :- ब्रह्मांड के गुरु
(37). जगदिशा :- सभी के रक्षक
(38). जगन्नाथ :- ब्रह्मांड के ईश्वर।
(39). जनार्धना :- सभी को वरदान देने वाले।
(40). जयंतह :- सभी दुश्मनों को पराजित करने वाले।
(41). ज्योतिरादित्या :- जिनमें सूर्य की चमक है।
(42). कमलनाथ :- देवी लक्ष्मी की प्रभु
(43). कमलनयन :- जिनके कमल के समान नेत्र हैं।
(44). कामसांतक :- कंस का वध करने वाले।
(45). कंजलोचन :- जिनके कमल के समान नेत्र हैं।
(46). केशव :- बहुत लंबे और सुंदर बाल-घने केशों वाले।
(47). कृष्ण :- सांवले रंग वाले।
(48). लक्ष्मीकांत :- देवी लक्ष्मी की प्रभु।
(49). लोकाध्यक्ष :- तीनों लोक के स्वामी।
(50). मदन :- प्रेम के प्रतीक।
(51). माधव :- ज्ञान के भंडार।
(52). मधुसूदन :- मधु-कैटव दानवों का वध करने वाले।
(53). महेंद्र :- इन्द्र के स्वामी।
(54). मनमोहन : सबका मन मोह लेने वाले।
(55). मनोहर :- बहुत ही सुंदर रूप रंग वाले प्रभु।
(56). मयूर :- मुकुट पर मोर- पंख धारण करने वाले भगवान।
(57). मोहन :- सभी को आकर्षित करने वाले।
(58). मुरली :- बांसुरी बजाने वाले प्रभु।
(59). मुरलीधर :- मुरली धारण करने वाले।
(60). मुरलीमनोहर :- मुरली बजाकर मोहने वाले।
(61). नंद्गोपाल :- नंद बाबा के पुत्र।
(62). नारायन :- सबको शरण में लेने वाले।
(63). निरंजन :- सर्वोत्तम।
(64). निर्गुण :- जिनमें कोई अवगुण नहीं।
(65). पद्महस्ता :- जिनके कमल की तरह हाथ हैं।
(66). पद्मनाभ :- जिनकी कमल के आकार की नाभि हो।
(67). परब्रह्मन :- परम सत्य।
(68). परमात्मा :- सभी प्राणियों के प्रभु।
(69). परमपुरुष :- श्रेष्ठ व्यक्तित्व वाले।
(70). पार्थसार्थी :- अर्जुन के सारथी।
(71). प्रजापती :- सभी प्राणियों के नाथ।
(72). पुंण्य :- निर्मल व्यक्तित्व।
(73). पुर्शोत्तम :- उत्तम पुरुष।
(74). रविलोचन :- सूर्य जिनका नेत्र है।
(75). सहस्राकाश : हजार आंख वाले प्रभु।
(76). सहस्रजित :- हजारों को जीतने वाले।
(77). सहस्रपात :- जिनके हजारों पैर हों।
(78). साक्षी :- समस्त देवों के गवाह।
(79). सनातन :- जिनका कभी अंत न हो।
(80). सर्वजन :- सब कुछ जानने वाले।
(81). सर्वपालक :- सभी का पालन करने वाले।
(82). सर्वेश्वर :- समस्त देवों से ऊंचे।
(83). सत्यवचन :- सत्य कहने वाले।
(84). सत्यव्त :- श्रेष्ठ व्यक्तित्व वाले देव।
(85). शंतह  : शांत भाव वाले।
(86). श्रेष्ट : महान।
(87). श्रीकांत :- अद्भुत सौंदर्य के स्वामी।
(88). श्याम :- जिनका रंग सांवला हो।
(89). श्याम सुंदर :- सांवले रंग में भी सुंदर दिखने वाले।
(90). सुदर्शन :- रूपवान।
(91). सुमेध :- सर्वज्ञानी।
(92). सुरेशम :- सभी जीव- जंतुओं के देव।
(93). स्वर्ग पति :- स्वर्ग के राजा।
(94). त्रिविक्रम :- तीनों लोकों के विजेता। 
(95). उपेंद्र :- इन्द्र के भाई।
(96). वैकुंठनाथ :- स्वर्ग के रहने वाले।
(97). वर्धमानह :- जिनका कोई आकार न हो।
(98). वासुदेव :- सभी जगह विद्यमान रहने वाले।
(99). विष्णु :- भगवान विष्णु के स्वरूप।
(100). विश्वदक्शिनह :- निपुण और कुशल।
(101). विश्वकर्मा :- ब्रह्मांड के निर्माता
(102). विश्वमूर्ति :- पूरे ब्रह्मांड का रूप।
(103). विश्वरुपा :- ब्रह्मांड- हित के लिए रूप धारण करने वाले।
(104). विश्वात्मा :- ब्रह्मांड की आत्मा।
(105). वृषपर्व :- धर्म के भगवान।
(106). यदवेंद्रा :- यादव वंश के मुखिया।
(107). योगि :- प्रमुख गुरु।
(108). योगिनाम्पति :- योगियों के स्वामी।
भगवान् श्री कृष्ण :: 
(1). भगवान् श्री कृष्ण के खड्ग का नाम नंदक, गदा का नाम कौमौदकी और शंख का नाम पांचजन्य था, जो कि गुलाबी रंग का था।
(2). भगवान् श्री कृष्ण के परमधाम गमन के समय ना तो उनका एक भी केश श्वेत था और ना ही उनके शरीर पर कोई झुर्री थीं।
(3). भगवान् श्री कृष्ण के धनुष का नाम शारंग व मुख्य आयुध चक्र का नाम सुदर्शन था। वह लौकिक, दिव्यास्त्र व देवास्त्र तीनों रूपों में कार्य कर सकता था, उसकी बराबरी के विध्वंसक केवल दो अस्त्र और थे पाशुपतास्त्र (शिव, कॄष्ण और अर्जुन के पास थे) और प्रस्वपास्त्र ( शिव, वसुगण, भीष्म और कृष्ण के पास थे)।
(4). भगवान् श्री कृष्ण की परदादी मारिषा व सौतेली माँ रोहिणी (बलराम की माँ) नाग जन जाति की थीं।
(5). भगवान् श्री कृष्ण से जेल में बदली गई यशोदा पुत्री का नाम एकानंशा था, जो आज विंध्य वासिनी देवी के नाम से पूजी जातीं हैं।
(6). भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेमिका राधा का वर्णन महाभारत, हरिवंशपुराण, विष्णु पुराण व भागवत पुराण में नहीं है। उनका उल्लेख ब्रह्म वैवर्त पुराण, गीत गोविंद व प्रचलित जन श्रुतियों में रहा है।
(7). जैन परंपरा के मुताबिक, भगवान् श्री कॄष्ण के चचेरे भाई तीर्थंकर नेमिनाथ थे, जो हिंदु परंपरा में घोर अंगिरस के नाम से प्रसिद्ध हैं।
(8). भगवान् श्री कृष्ण अंतिम वर्षों को छोड़कर कभी भी द्वारिका में 6 महीने से अधिक नहीं रहे।
(9). भगवान् श्री कृष्ण ने अपनी औपचारिक शिक्षा उज्जैन के संदीपनी आश्रम में मात्र कुछ महीनों में पूरी कर ली थी।
(10). ऐसा माना जाता है कि घोर अंगिरस अर्थात नेमिनाथ के यहाँ रहकर भी उन्होंने साधना की थी।
(11). भगवान् श्री कृष्ण ने द्वंद युद्ध आदि का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था। डांडिया रास का प्रारम्भ भी उन्होंने ही किया था।
(12). कलारीपट्टु का प्रथम आचार्य कृष्ण को माना जाता है। इसी कारण नारायणी सेना भारत की सबसे भयंकर प्रहारक सेना बन गई थी।
(13). भगवान्  श्री कृष्ण के रथ का नाम जैत्र था और उनके सारथी का नाम दारुक, बाहुक था। उनके घोड़ों (अश्वों) के नाम थे शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक।
(14). भगवान् श्री कृष्ण की त्वचा का रंग मेघ श्यामल था और उनके शरीर से एक मादक गंध निकलती थी।
(15). भगवान् श्री कृष्ण की माँस पेशियाँ मृदु परंतु युद्ध के समय विस्तॄत हो जातीं थीं, इसलिए सामान्यतः लड़कियों के समान दिखने वाला उनका लावण्यमय शरीर युद्ध के समय अत्यंत कठोर दिखाई देने लगता था ठीक ऐसे ही लक्षण कर्ण व द्रौपदी के शरीर में देखने को मिलते थे।
(16). जनसामान्य में यह भ्रांति स्थापित है कि अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे, परन्तु वास्तव में भगवान् श्री कृष्ण इस विधा में भी सर्वश्रेष्ठ थे और ऐसा सिद्ध हुआ मद्र राजकुमारी लक्ष्मणा के स्वयंवर में जिसकी प्रतियोगिता द्रौपदी स्वयंवर के ही समान परंतु और कठिन थी।
(17). यहाँ कर्ण व अर्जुन दोंनों असफल हो गए और तब भगवान् श्री कॄष्ण ने लक्ष्यवेध कर लक्ष्मणा की इच्छा पूरी की, जो पहले से ही उन्हें अपना पति मान चुकीं थीं।
(18). भगवान् श्री युद्ध कृष्ण ने कई अभियान और युद्धों का संचालन किया था, परंतु इनमे तीन सर्वाधिक भयंकर थे। (17.1). महाभारत, (17.2) जरासंध और कालयवन के विरुद्ध (17.3). नरकासुर के विरुद्ध। 
(19). भगवान् श्री कृष्ण ने केवल 16 वर्ष की आयु में विश्व प्रसिद्ध चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्लों का वध किया। मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया।
(20). भगवान् श्री कृष्ण ने असम में बाणासुर से युद्ध के समय भगवान् शिव से युद्ध के समय माहेश्वर ज्वर के विरुद्ध वैष्णव ज्वर का प्रयोग कर विश्व का प्रथम जीवाणु युद्ध किया था।
(21). भगवान् श्री कृष्ण के जीवन का सबसे भयानक द्वंद्व युद्ध सुभुद्रा की प्रतिज्ञा के कारण अर्जुन के साथ हुआ था, जिसमें दोनों ने अपने अपने सबसे विनाशक शस्त्र क्रमशः सुदर्शन चक्र और पाशुपतास्त्र निकाल लिए थे। बाद में देवताओं के हस्तक्षेप से दोनों शांत हुए।
(22). भगवान् श्री कृष्ण ने 2 नगरों की स्थापना की थी द्वारिका (पूर्व में कुशावती) और पांडव पुत्रों के द्वारा इंद्र प्रस्थ (पूर्व में खांडव प्रस्थ)।
(23). भगवान् श्री कृष्ण ने कलारिपट्टू की नींव रखी जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुई।
(24). भगवान् श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवतगीता के रूप में आध्यात्मिकता की वैज्ञानिक व्याख्या दी, जो मानवता के लिए आशा का सबसे बड़ा संदेश थी, है और सदैव रहेगी।
पाण्डवों के दूत भगवान् श्री कृष्ण :: पाण्डवों के वनवास के बारह वर्ष और अज्ञातवास का एक वर्ष व्यतीत हो गया। दुर्योधन ने कहा कि मैंने पाण्डवों का अज्ञातवास भंग के दिया है, अतः उन्हें फिर से 12 वर्ष के लिए वनवास के लिए जाना होगा। भीष्म पितामह, आचार्य द्रोण और आचार्य कृपाचार्य ने कहा कि इस समय 4 कलैंडर प्रचिलित हैं और उन चारों के अनुसार पाण्डवों का वनवास पूरा हो गया है; अतः उनका राज्य उनको वापस लौटा देना चाहिए, परन्तु दुर्योधन ने उनकी एक न सुनी और बगैर युद्ध के एक इंच भूमि भी देने से इंकार कर दिया। 
पुत्र मोह से ग्रसित दृष्टि विहीन धृतराष्ट्र ने संजय को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजा। संजय ने युधिष्ठर को बार-बार वैराग्य धर्म का उपदेश दिया कि तुम्हारी यदि जय भी हो जाए तो इससे क्या लाभ होगा, कुल का नाश हो जाएगा। भगवान् श्री कृष्ण ने कहा :- पांडव अपना अधिकार क्यों छोड़े? यह वैराग्य धर्म का उपदेश उस समय कहाँ गया था, जब छल से शकुनि ने युधिष्टिर का राज्य छिना था?! 
भगवान् श्री कृष्ण पांडवों की ओर से दूत बनकर कौरवों की राजधानी हस्तिनापुर पहुँचे। दुर्योधन ने वहाँ उनका शाही स्वागत करने का प्रयत्न किया। उन्हें उसने भोजन के लिए आमंत्रित किया, परन्तु भगवान् श्री कृष्ण ने वह निमंत्रण स्वीकार नहीं किया। दुर्योधन बोला :- "जनार्दन, आपके लिए अन्न, फल, वस्त्र तथा शैय्या आदि जो वस्तुएँ प्राप्त की गई, आपने उन्हें ग्रहण क्यों नहीं किया? आपने हमारी प्रेमपूर्वक समर्पित पूजा ग्रहण क्यों नहीं की"? 
भगवान् श्री कृष्ण ने उस समय जवाब दिया :- भोजन खिलाने में दो भाव काम करते हैं। एक दया और दूसरी प्रीति-सम प्रीति। 
भोज्यानयन्नामि आपद्रभोज्यानि वा पुनः? 
दया दीन को दिखाई जाती है, सो हम दीन-दरिद्र नहीं हैं। जिस काम के लिए हम आए हैं, पहले वह सिद्ध हो जाए तो हम भोजन भी कर लेंगे। आप अपने ही भाइयों से द्वेश क्यों करते हैं? आप हमें क्या खिलाइएगा? उनका धार्मिक पक्ष है, आपका अधार्मिक, सो जो उनसे द्वेष करता है, वह हमसे भी द्वेष करता है। एक बात हमेशा याद रखो :- 
"जो द्वेष करता है, उसका अन्न कभी ना खाओ और द्वेष रखने वाले को खिलाना भी नहीं चाहिए" :- 
द्विषन्नं नैव भौक्तव्यं द्विषन्तं नैव भोजयेत्। 
भगवान् श्री कृष्ण ने इसी कारण दुर्योधन का राजसी आतिथ्य भी स्वीकार नहीं किया, जबकि सरल विदुर जी का सादा रुखा-सूखा अन्न स्वीकार किया। 
दयाहीन लोगों का भोजन खाने से अच्छा है कि मनुष्य किसी निर्धन के यहाँ भोजन कर ले।
स्यमन्तक मणि :: भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन चंद्रमा का दर्शन मिथ्या कलंक देने वाला होता है। इसलिए इस दिन चंद्र दर्शन करना मना होता है। इस चतुर्थी को कलंक चौथ के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि भगवान् श्री कृष्ण भी इस तिथि पर चंद्र दर्शन करने के पश्चात मिथ्या कलंक के भागी बने। यदि अज्ञानता वश इस दिन चन्द्र दर्शन हो जाय तो भगवान् श्री कृष्ण की इस कथा का श्रवण, पाठ या स्मरण करें।
सत्राजित भगवान् सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। भगवान् सूर्य ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमंतक मणि दी थी। सत्राजित उस मणि को गले में धारण कर ऐसा चमकने लगा, मानों स्वयं सूर्य ही हो।
जब सत्राजित द्वारका आया, तब अत्यन्त तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके। दूर से ही उसे देखकर लोगों की आँखें उसके तेज से चौंधिया गईं। लोगों ने समझा कि कदाचित स्वयं भगवान् सूर्य आ रहे हैं। उन लोगों ने भगवान् श्री कृष्ण के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी। उस समय भगवान् श्री कृष्ण चौसर खेल रहे थे। अपनी चमकीली किरणों से लोगों के नेत्रों को चौंधियाते हुए प्रचण्ड रश्मि भगवान् सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं। सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकी में आपकी प्राप्ति का मार्ग ढूँढते रहते हैं, किन्तु उसे पाते नहीं। आज आपको यदुवंश में छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्य नारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं।
अनजान पुरूषों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान् श्री कृष्ण हँसने लगे। उन्होंने कहा, "अरे, ये सूर्यदेव नहीं हैं। यह तो सत्राजित है, जो मणि के कारण इतना चमक रहा है"। इसके बाद सत्राजित अपने समृद्ध घर में चला आया। घर पर उसके शुभागमन के उपलक्ष्य में मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों द्वारा स्यमंतक मणि को देव मन्दिर में स्थापित कर दिया। वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना दिया करती थी और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी, वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीड़ा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था। 
एक बार भगवान् श्री कृष्ण ने सत्राजित से कहा तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो। परन्तु वह इतना अर्थ लोलुप-लोभी था कि भगवान्  की आज्ञा का उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया।
एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया। वहाँ एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया। वह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेश कर ही रहा था कि मणि के लिए ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला। उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर अपनी पुत्री जामवन्ती को खेलने के लिए दे दी। 
अपने भाई प्रसेन के न लौटने से उसके भाई सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ। वह कहने लगा, "बहुत सम्भव है श्री कृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो, क्योंकि वह मणि गले में डालकर वन में गया था"। सत्राजित की यह बात सुनकर लोग आपस में काना-फूँसी करने लगे। जब भगवान् श्री कृष्ण ने सुना कि यह कलंक का टीका मेरे सिर लगाया गया है, तब वे बहाने से नगर के कुछ सभ्य पुरूषों को साथ लेकर प्रसेन को ढूँढने के लिए वन में गये। वहाँ खोजते-खोजते लोगों ने देखा कि घोर जंगल में सिंह ने प्रसेन और उसके घोड़े को मार डाला है। जब वे लोग सिंह के पैरों का चिन्ह देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगों ने यह भी देखा कि पर्वत पर रीछ ने सिंह को भी मार डाला है।
भगवान् श्री कृष्ण ने सब लोगों को बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकार से भरी हुई ऋक्षराज की भयंकर गुफा में प्रवेश किया। भगवान् श्री कृष्ण ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमन्तक को बच्चों का खिलौना बना दिया गया है। उस गुफा में एक अपरिचित मनुष्य को देखकर धाय भयभीत की भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये। 
जाम्बवान उस समय कुपित हो रहे थे। उन्हें भगवान् की महिमा, उनके प्रभाव का पता न चला। उन्होंने एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान्  श्री कृष्ण से युद्ध करने लगे। जिस प्रकार माँस के लिये दो बाज आपस में लड़ते हैं, वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान् श्री कृष्ण और जाम्बवान आपस में घमासान युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार किया, फिर शिलाओं का तत्पश्चात वे वृक्ष उखाड़कर एक दूसरे पर फेंकने लगे। अन्त में उनमें बाहुयुद्ध होने लगा। 
वज्र-प्रहार के समान कठोर घूँसों की चोट से जाम्बवान के शरीर की एक-एक गाँठ टूट गयी। उत्साह जाता रहा। शरीर पसीने से लथपथ हो गया। तब उन्होंने अत्यंत विस्मित-चकित होकर भगवान् श्री कृष्ण से कहा, "प्रभो! मैं जान गया। आप ही समस्त प्राणियों के स्वामी, रक्षक, पुराण पुरूष भगवान् श्री हरी  विष्णु हैं। आप ही सबके प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीर बल हैं। आप विश्व के रचयिता ब्रह्मा आदि को भी बनाने वाले हैं। बनाये हुए पदार्थों में भी सत्तारूप से आप ही विराजमान हैं। काल के कितने भी अवयव है, उनके नियामक परम काल आप ही हैं और शरीर भेद से भिन्न-भिन्न प्रतीयमान अन्तरात्माओं के परम आत्मा भी आप ही हैं"। प्रभो! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रों में तनिक सा क्रोध का भाव लेकर तिरछी दृष्टि से समुद्र की ओर देखा था। उस समय समुद्र के अन्दर रहने वाल बड़े-बड़े नाक (घड़ियाल) और मगरमच्छ क्षुब्ध हो गये थे और समुद्र ने आपको मार्ग दे दिया था। तब आपने उस पर सेतु बाँधकर सुन्दर यश की स्थापना की तथा लंका का विध्वंस किया। आपके बाणों से कट-कटकर राक्षसों के सिर पृथ्वी पर लोट रहे थे। अवश्य ही आप मेरे वे ही राम जी श्री कृष्ण के रूप में आये हैं। 
जब ऋक्षराज जाम्बवान ने भगवान् को पहचान लिया, तब कमलनयन भगवान् श्री कृष्ण ने अपने परम कल्याणकारी शीतल कर-कमल को उनके शरीर पर फेर दिया और फिर अहैतुकी कृपा से भरकर प्रेम गम्भीर वाणी से अपने भक्त जाम्बवान जी से कहा, "ऋक्षराज! हम मणि के लिए ही तुम्हारी इस गुफा में आये हैं। इस मणि के द्वारा मैं अपने पर लगे झूठे कलंक को मिटाना चाहता हूँ"। भगवान्  के ऐसा कहने पर जाम्बवान बड़े आनन्द से उनकी पूजा करने के लिए अपनी कन्या कुमारी जाम्बवती को मणि के साथ उनके चरणों में समर्पित कर दिया। 
भगवान्  श्री कृष्ण जिन लोगों को गुफा के बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिन तक उनकी प्रतीक्षा की। परन्तु जब उन्होंने देखा कि अब तक वे गुफा से नहीं निकले, तब वे अत्यंत दुःखी होकर द्वारका लौट गये। वहाँ जब माता देवकी, रूक्मणि, वसुदेव जी तथा अन्य सम्बन्धियों और कुटुम्बियों को यह मालूम हुआ कि भगवान् श्री कृष्ण गुफा से नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ। सभी द्वारकावासी अत्यंत दुःखित होकर सत्राजित को भला बुरा कहने लगे और भगवान् श्री कृष्ण की प्राप्ति के लिए महामाया दुर्गा देवी की शरण गये, उनकी उपासना करने लगे। उनकी उपासना से दुर्गा देवी प्रसन्न हुईं और उन्होंने आशीर्वाद दिया।
उसी समय उनके बीच में मणि और अपनी नववधू जाम्बवती के साथ सफल मनोरथ होकर भगवान् श्री कृष्ण सबको प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये। सभी द्वारका वासी भगवान् श्री कृष्ण को पत्नी के साथ और गले में मणि धारण किये हुए देखकर परमानन्द में मग्न हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो। 
तदनन्तर भगवान् ने सत्राजित को राजसभा में महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित को सौंप दी। सत्राजित अत्यंत लज्जित हो गया। मणि तो उसने ले ली, परन्तु उसका मुँह नीचे की ओर लटक गया। अपने अपराध पर उसे बड़ा पश्चाताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा। उसके मन की आँखों के सामने निरन्तर अपना अपराध नाचता रहता। बलवान के साथ विरोध करने के कारण वह भयभीत भी हो गया था। 
अब वह यही सोचता रहता कि मैं अपने अपराध का प्राश्चित कैसे करूँ? मुझ पर भगवान् श्री कृष्ण कैसे प्रसन्न हों? मैं ऐसा कौन सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसे नहीं। सचमुच मैं अदूरदर्शी, क्षुद्र हूँ। धन के लोभ से मैं बड़ी मूढ़ता का काम कर बैठा। अब मैं रमणियों में रत्न के समान अपनी कन्या सत्याभामा और वह स्यमंतक मणि दोनों ही श्री कृष्ण को दे दूँ। यह उपाय बहुत अच्छा है। इसी से मेरे अपराध का प्राश्चित हो सकता है और कोई उपाय नहीं है। 
सत्राजित ने अपनी विवेक बुद्धि से ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिए उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमन्तक मणि दोनों ही ले जाकर भगवान् श्री कृष्ण को अर्पण कर दीं। सत्यभामा शील स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि सदगुणों से सम्पन्न थी। बहुत से लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिले और उन लोगों ने उन्हें माँगा भी था। परन्तु अब भगवान् श्री कृष्ण ने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया। भगवान् श्री कृष्ण ने सत्राजित से कहा, "हम स्यमन्तक मणि न लेंगे। आप सूर्य भगवान् के भक्त हैं, इसलिए वह आपके ही पास रहे। हम तो केवल उसके फल के अर्थात उससे निकले हुए सोने के अधिकारी हैं। वही आप हमें दे दिया करें"।
रण छोड़ जी ESCAPIST OF WAR :: Kal Yawan attacked Mathura. Bhagwan Shri Krashn left the battle field and started running to mountain caves. Kal Yawan too followed HIM into the cave where Maha Raj Muchu Kund was sleeping under the impact of the boon granted by Dev Raj Indr, that whosoever would wake him up, will be turned into ashes. Bhagwan Shri Krashn covered Muchu Kund with his Pitambar-cloth, HE used to keep over his shoulders. Unaware of the fact Muchu Kund tried to find out who woke him up. Kal Yawan saw Muchu Kund sleeping and struck him with his leg, thinking him to be Shri Krashn, seeing the Pitambar over his body. Having disturbed Muchu Kund woke up and turned Kal Yawan into ashes, immediately. The cave was filled with bright cool-soothing, pleasant light, blue in colour and Bhagwan Krashn revealed HIMSELF to Muchu Kund. Muchu Kund Ji recognised HIM at once and bowed over HIS feet. He was advised to start meditation-asceticism, till he survived. Since, none of his relatives was left, over the earth, to which he agreed. Millions of years had passed since, he had participated in the demigods verses demons-giants war.
It was tactical withdrawal from the war to perish the enemy.
भगवान् श्री कृष्ण चरणारविन्द ::
 
कृष्ण के चरण कमल का स्मरण मात्र करने से व्यक्ति को समस्त आध्यात्मिक एवं भौतिक सम्पत्ति, सौभाग्य, सौंदर्य और सगुण की प्राप्ति होती है। ये नलिन चरण सर्वलीला धाम हैं। भगवान् श्री कृष्ण के चरणारविन्द हमारा सर्वस्व हो जायें।[गोविन्द लीलामृत] 
भगवान् श्री कृष्ण का दायाँ चरण :: श्री श्याम सुन्दर के दाँये चरण में ग्यारह मंगल चिन्ह हैं। 
(1). जौ :: जौ-यव का दाना व्यक्त करता है कि भक्त जन राधा-कृष्ण के पदार विन्दो की सेवा कर समस्त भोग, ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं। एक बार उनका पदाश्रय प्राप्त कर लेने पर भक्त की अनेकानेक जन्म-मरण की यात्रा घट कर जौ के दानों के समान बहुत छोटी हो जाती है।  
(2).चक्र :: यह चिन्ह सूचित करता है कि राधा-कृष्ण के चरण कमलों का ध्यान काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मात्सर्य रूपी छ: शत्रुओं का नाश करता है। ये तेजस तत्व का प्रतीक हैं, जिसके द्वारा राधा-गोविंद भक्तों के अंतःकरण से पाप तिमिर को छिन्न-भिन्न कर देते हैं। 
(3). छत्र :: छत्र यह सिद्ध करता है कि भगवान् श्री कृष्ण चरणों की शरण ग्रहण करने वाले भक्त भौतिक कष्टों की अविराम वर्षा से बचे रहते हैं। 
(4). उर्ध्व रेखा :: जो भक्त इस प्रकार राधा-श्याम के पद कमलों से इस प्रकार लिपटे रहते हैं,  मानो वे उनकी जीवन रेखा हो, वे दिव्य धाम को जाएँगे। 
(5). कमल :: सरस सरसिज राधा-गोविंद के चरणविंदों का ध्यान करने वाले मधुकर सदृश भक्तों के मन में ईश्वरीय प्रेम हेतु लोभ उत्पन्न करता है। 
(6). ध्वज :: ध्वज भगवान् श्री कृष्ण के भक्तों को भय से बचाता और उन भक्तों की सुरक्षा करता है जो उनके चरणों में ध्यान लगाते हैं। यह विजय का प्रतीक है। 
(7). अंकुश :: अंकुश इस बात का घोतक है कि राधा-गोविन्द के चरणों का ध्यान भक्तों के मन रूपी गज को वश में करता है, उसे सही मार्ग दिखाता है।
(8). वज्र :: वज्र यह बताता है कि भगवान् श्री कृष्ण के पाद-पंकज का ध्यान भक्तों के पूर्व पापों के कर्म फलों रूपी पर्वतों को चूर्ण-चूर्ण कर देता है। 
(9). अष्टकोण :: यह बताता है जो व्यक्ति भगवान् श्री कृष्ण के चरणों की आराधना करते हैं, वे अष्ट दशाओं से सुरक्षित रहते हैं। 
(10). स्वास्तिक :: जो व्यक्ति भगवान् श्री कृष्ण के चरणों को अपने मन में संजो के रखता है, उसका कभी अमंगल नहीं होता। 
(11). चार जंबू फल :: वैदिक स्रष्टि वर्णन के अनुसार जंबू द्वीप के निवासियों के लिए भगवान् श्री कृष्ण के राजीव चरण ही एक मात्र आराध्य विषय हैं।
श्री श्याम सुन्दर के बाँये चरण में आठ शुभ चिन्ह हैं :-  
(12). शंख :: शंख विजय का प्रतीक है। यह बताता है कि राधा-गोविंद के चरण कमलों की  शरण ग्रहण करने वाले व्यक्ति सदैव दुख से बचे रहते हैं और अभय दान प्राप्त करते हैं। 
(13). आकाश :: यह दर्शाता है भगवान् श्री कृष्ण के चरण सर्वत्र विघमान हैं। भगवान् श्री कृष्ण हर वस्तु के भीतर हैं। 
(14). धनुष :: यह चिन्ह सूचित करता है कि एक भक्त का मन जब भगवान् श्री कृष्ण के चरण रूपी लक्ष्य से टकराता है, तब उसके फलस्वरूप प्रेम अत्यधिक बढ़ जाता है। 
(15). गौखुर :: यह इस बात का सूचक है कि जो व्यक्ति भगवान् श्री कृष्ण के चरणारविंदों की पूर्ण शरण लेता है, उसके लिए भव सागर गो खुर के चिन्ह में विघमान पानी के समान छोटा एवं नगण्य हो जाता है। वह भवसागर को सहज ही पार कर लेता है। 
(16). चार कलश :: भगवान् श्री कृष्ण के चरण कमल, शुद्ध सुधारस का स्वर्ण कलश धारण किये हैं और शरणागत जीव अबाध रूप से उस सुधा रस का पान करता है। 
(17). त्रिभुज :: भगवान् श्री कृष्ण के चरणों की शरण ग्रहण करने वाले भक्त त्रिभुज  की तीन भुजाओं द्वारा त्रितापों और त्रिगुण रूपी जाल से बच जाते हैं।
(18). अर्धचंद्र :: यह बताता है कि जिस प्रकार भगवान् शिव आदि देवताओं ने राधा गोविन्द के चरणार विन्दों के तलवों से अपने शीश को शोभित किया है; इसी प्रकार जो भक्त इस प्रकार राधा और कृष्ण के पदाम्बुजों द्वारा अपने शीश को सुसज्जित करते हैं, वे भगवान् शिव के समान भगवान् श्री कृष्ण के महान भक्त बन जाते हैं। 
(19). मीन :: जिस प्रकार मछली जल के बिना नहीं रह सकती, उसी प्रकार भक्तगण क्षण भर भी राधा-श्याम सुन्दर के चरणाम्बुजों के बिना नहीं रह सकते। 
इस प्रकार भगवान् श्री कृष्ण के दोनों चरणों में उन्नीस शुभ चिन्ह हैं।
जरासंध का मथुरा पर आक्रमण :: कंस की मृत्यु के पश्चात उसका ससुर जरासन्ध बहुत ही क्रोधित था। उसने भगवान् श्री कृष्ण और  बलराम जी को मारने हेतु मथुरा पर 17 बार आक्रमण किया। 
प्रत्येक पराजय के बाद वह अपने विचारों का समर्थंन करने वाले तमाम राजाओं से सम्पर्क करता और उनसे गठजोड़ करता और मथुरा पर हमला करता, मगर भगवान् श्री कृष्ण पूरी सेना को मार देते, मात्र जरासन्ध को ही छोड़ देते।
यह सब देख बलराम जी बहुत क्रोधित हुये और श्री कृष्ण से कहा, "बार-बार जरासन्ध हारने के बाद पृथ्वी के कोनों-कोनों से दुष्टों के साथ महागठबंधन कर हम पर आक्रमण कर रहा है और तुम पूरी सेना को मार देते हो किन्तु असली खुराफात करने वाले को ही छोड़ दे रहे हो"!?
तब हँसते हुए भगवान् श्री कृष्ण ने बलराम जी को समझाया, "हे भ्राता श्री मैं जरासन्ध को बार-बार जान बूझकर इसलिए छोड़ दे रहा हूँ, ताकि ये जरासन्ध पूरी पृथ्वी से दुष्टों के साथ महागठबंधन करता है और मेरे पास लाता है और मैं बहुत ही आसानी से एक ही जगह रहकर धरती के सभी दुष्टों को मार रहा हूँ। नहीं तो मुझे इन दुष्टों को मारने के लिए पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाना पड़ता और बिल में से खोज-खोज कर निकाल निकाल कर मारना पड़ता और बहुत कष्ट झेलना पड़ता। दुष्ट दलन का मेरा यह कार्य जरासन्ध ने बहुत आसान कर दिया है"।
जब सभी दुष्टों को मार डालुँगा तो सबसे आखिरी में इसे भी खत्म कर ही दूँगा,  चिन्ता न करो भ्राता श्री"।
कोकिलावन में शनि देव को भगवान् श्री कृष्ण के दर्शन :: जब श्री कृष्ण ने अवतार ग्रहण किया तो सभी देवी-देवता उनके दर्शन करने नन्द गाँव पधारे। कृष्ण भक्त शनिदेव भी देवताओं संग श्री कृष्ण के दर्शन करने नन्द गाँव पहुँचे। परन्तु माता यशोदा ने उन्हें नंदलाल के दर्शन करने से मना कर दिया, क्योंकि माता यशोदा को डर था कि शनि देव कि वक्र दृष्टि कहीं कान्हा पर न पड़ जाए। 
शनिदेव को यह अच्छा नहीं लगा और वो निराश होकर नन्द गाँव के पास जंगल में आकर तपस्या करने लगे। शनिदेव का मानना था कि परब्रह्म परमेश्वर श्री कृष्ण ने ही तो उन्हें न्यायाधीश बनाकर पापियों को दण्डित करने का कार्य सोंपा है तथा सज्जनों, सत-पुरुषों, भगवत भक्तों का शनिदेव सदैव कल्याण करते है।
भगवान् श्री कृष्ण शनि देव कि तपस्या से द्रवित हो गए और शनि देव के सामने कोयल के रूप में प्रकट हो कर कहा, "हे शनि देव! आप निःसंदेह अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित हो और आप के ही कारण पापियों, अत्याचारियों, कुकर्मिओं का दमन होता है और परोक्ष रूप से कर्म-परायण, सज्जनों, सत-पुरुषों, भगवत भक्तों का कल्याण होता है।  
आप धर्म-परायण प्राणियों के लिए ही तो कुकर्मिओं का दमन करके उन्हें भी कर्तव्य परायण बनाते हो, आप का ह्रदय तो पिता की तरह सभी कर्तव्य निष्ठ प्राणियों के लिए द्रवित रहता है और उन्हीं की रक्षा के लिए आप एक सजग और बलवान पिता कि तरह सदैव उनके अनिष्ट स्वरूप दुष्टों को दण्ड देते रहते हैं। 
हे शनि देव! मैं आप से एक भेद खोलना चाहता हूँ कि यह बृज-क्षेत्र मुझे परम प्रिय है और मैं इस पवित्र भूमि को सदैव आप जैसे सशक्त-रक्षक और पापिओं को दण्ड देने में सक्षम कर्तव्य-परायण शनि देव की क्षत्र-छाया में रखना चाहता हूँ। इसलिए, हे शनि देव! आप मेरी इस इच्छा को सम्मान देते हुए इसी स्थान पर सदैव निवास करो, क्योंकि मैं यहाँ कोयल के रूप में आप से मिला हूँ, इसी लिए आज से यह पवित्र स्थान “कोकिलावन” के नाम से विख्यात होगा। यहाँ कोयल के मधुर स्वर सदैव गूँजते रहेंगे। आप मेरे इस बृज प्रदेश में आने वाले हर प्राणी पर नम्र रहें साथ ही कोकिलावन में आने वाला आप के साथ-साथ मेरी भी कृपा का पात्र होगा।

 

 

 

 

 


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WORSHIP OF COWS BY BHAGWAN SHRI KRASHN IN GAU LOK :: Kam Dhenu-Surbhi, (& Nandini) is prayed-worshipped by Bhagwan Shri Krashn in the Gau Lok. She is revered in the heavens and the Patal-the netherworld. Surbhi inhabits the lowest realm of Patal (Nether World, पाताल),  known as Rasa Tal(रसातल).
Surbhi lives in the abode of Varun Dev the deity of water, as well. Her flowing sweet milk constitutes Kshirod or the Kshir Sagar, the cosmic ocean of milk. This milk has six flavours and has the essence of all the best things of the earth. She went to Mount Kaelash and worshipped Brahma Ji for 10,000 years. The pleased Brahma Ji conferred goddess-hood on her and decreed that all people would worship her and her children-cows.
She has four daughters :- The Dikpalis-the guardian cow goddesses of the heavenly quarters; Sharbhi in the east, Harshika in the south, Subhadra in the west and Dhenu in the north.
Bhagwan Shiv cursed her, for suggesting to have found the end of the ling of aura-Shiv Ling by Brahma Ji; that her off springs would eat filth in Kali Yug. The cows were cursed by Maa Sita as well to eat waste during Kali Yug.
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)

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