Tuesday, February 17, 2015

SUK DEV SON OF VED VYAS भगवान् वेदव्यास के पुत्र श्री शुकदेव जी महाराज

 
भगवान् वेदव्यास के पुत्र श्री शुकदेव जी महाराज
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं नीराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
माता पार्वती और भगवान् शिव आकाश मार्ग से नंदी महाराज के ऊपर सवार हो कर भ्रमण कर रहे थे। तभी माता ने उनके गले में लटकी मुँड माला के बारे में पूछा तो भगवान् शिव ने बताया कि माता ने अनेक जन्म प्राप्त किये और उनकी पत्नी बनी। शरीर छोड़ने के बाद उनके कपालों को भगवान् शिव ने अपने गले में माला बनाकर धारण कर रक्खा था।  माता ने उनसे पुनर्जन्म न हो इसका उपाय पूछा तो उन्होंने अमर कथा का रहस्य बताया। भगवान् शिव ने माता पार्वती को अमर करने के लिये उन्हें हिमालय की निर्जन गुफा में अमर कथा सुनानी शुरु की और कहा कि वे बीच-बीच में हुंकारा भर्ती जायें। मगर इस दौरान माता को नींद ने आ घेरा। हुंकारे की आवाज आती रही और कथा भी चलती रही। कथा खत्म हुई तो भगवान् ने देखा कि माता तो सो रहीं हैं। तो फिर हुंकारा किसने भरा। भगवान् ने एक तोता-शुक देखा और सारी बात समझ गये। जब इस धराधाम पर भगवान् श्री कृष्ण और माता राधा का अवतरण हुआ, तो राधा जी का यह क्रीडा शुक भी ग्वाल-बालों के साथ इस धराधाम पर चला आया था।  
तोता अमर कथा सुन चुका था। भगवान् शिव ने उसे मारने के लिये तीनों लोकों में उसका पीछा किया। अंत में तोता महर्षि व्यास आश्रम में आया। उसी समय भगवान् वेद व्यास की पत्नी वटिका ने जम्हाई ली और तोता उनके खुले हुए मुँह में जा घुसा। 
भगवान् शिव ने उसे मारना चाहा तो व्यास जी ने कहा कि अमर कथा सुन लेने के बाद उसे मारा नहीं जा सकता था। भगवान् शिव लौट गये।
इस कथा के प्रभाव से वह अमलात्मा शुक ब्रह्मनिष्ठ होकर व्यास पत्नी के गर्भ में बारह वर्षों तक निवास करता रहा। जब व्यास जी ने दिव्य दृष्टि से इस गर्भस्थ शिशु को देखा तो उन्होंने पूछा कि वह बाहर क्यों नहीं आता!? शिशु ने कहा कि बाहर आते ही उसे सांसारिक माया घेर लेगी। हाँ, यदि भगवान् श्री कृष्ण आकर यह आश्वासन दें कि उस पर माया का प्रभाव नहीं होगा, तब वह बाहर प्रकट हो जायेगा। भगवान्  श्री कृष्ण के आश्वासन पर यही शुक व्यास जी के अयोनिज पुत्र के रूप में प्रकट हुए। 
गर्भ में ही इन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था। 
शुकदेवजन्मते ही भगवान् श्री कृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम करके, इन्होंने तपस्या के लिये जंगल की राह ली। व्यास जी इन्हें पुकारते रहे किन्तु इन्होंने उस पर कोई ध्यान न दिया। 
तब भगवान् वेद व्यास ने श्रीमद्भागवत की श्री कृष्ण लीला का एक श्लोक बनाकर उसका आधा भाग अपने शिष्यों को गाने के लिये कहा तो वे उसे गाते हुए जंगल में समिधा चुनते हुए गाते रहे, जिसे शुकदेव जी ने सुना :-
बर्हापीडम नटवरवपु: कर्णयो: कर्निकारम... 
विभ्रदवासः कनककपिषम वैजयंतीम च मालाम... 
रंध्रान वेणोंरधरसुधया पूरयन गोपवृन्दै:
वृंदारन्यम स्वपदरमणं प्राविशत गीतकीर्तिः
भगवान् श्री कृष्ण ग्वालबालों के साथ वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं, उनके सिर पर मयूर पिच्छ है और कानों पर कनेर के पीले-पीले पुष्प, शरीर पर सुनहरा पीताम्बर और गले में पाँच प्रकार के सुगन्धित पुष्पों की बनी वैजयंती माला है, रंगमच पर अभिनय करते हुए श्रेष्ठ नटका-सा क्या ही सुन्दर वेष है! वाँसुरी के छिद्रों को वे अपने अधरामृत से भर रहे हैं! उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन कीर्ति का गान कर रहे है!
अहो बकी यं स्तनकालकूटं,जिघांसायापाययदप्यसाध्वी
लेभे गतिं धात्र्युचिंता ततोन्यं,कं वा दयालुं शरणं व्रजेम"
पापिनी पूतना ने अपने स्तनों में हलाहल विष लगाकर भगवान् श्री कृष्ण को मार डालने की नियत से उन्हें दूध पिलाया तो उसको भी भगवान् ने वह परम गति दी जो माँ को मिलनी चाहिये! उन भगवान् श्री कृष्ण के अतिरिक्त और कौन दयालु है, जिसकी शरण ग्रहण करें!? 
तभी शुकदेव जी ने भी उस श्लोक को सुन लिया। श्री कृष्ण लीला के अद्भुत आकर्षण से बँधकर शुकदेव जी अपने पिता श्री व्यास जी के पास लौट आये। फिर उन्होंने श्रीमद्भागवत महापुराण के अठारह हज़ार श्लोकों का विधिवत अध्ययन किया। इन्होंने इस परमहंस संहिता का सप्ताह-पाठ महाराज परीक्षित को सुनाया, जिसके दिव्य प्रभाव से परीक्षित जी ने मृत्यु को भी जीत लिया और भगवान् के मंगलमय धाम के सच्चे अधिकारी बने। 
वेद व्यास जी ने शुकदेव जी को स्थल मार्ग से तत्व ज्ञान की प्राप्ति के लिये राजा जनक के पास जाने को कहा। उन्होंने निर्देश दिया कि योग का सहारा लेकर आकाश मार्ग से न जायें। शुकदेव जी महाराज परम तत्वज्ञानी महाराज जनक के पास पहुँचे तो द्वारपालों ने उन्हें द्वार पर ही रोक दिया। सात दिनों तक ऐसे ही खड़े रहे। किसी ने उनसे अंदर आने को नहीं कहा, बैठने को आसन नहीं दिया, कोई मान सम्मान नहीं, सात दिन बाद विदेह जीवन मुक्त महाराज जनक ने उन्हें अपने महलों में बुलाया, मखमल के गद्दों पर सुलाया, 56 भोग उन्हें खिलाये। महाराज जनक ने देखा कि पहले के सात दिनों में जब उन्हें बाहर खड़ा रखा गया था तब और अब जब खूब मान सम्मान दिया दोनों में ही शुकदेव जी समान हैं। उन्हें हर्ष या शोक कुछ भी नहीं है। 
उन्हें फूलों से भरे बगीचे में एक झूले पर बैठाया, दोनों ओर से युवतियों को उनसे सटा कर बैठाया, परन्तु उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। महाराज जनक ने उन्हें ब्रह्मज्ञान प्रदान किया। महाराज जनक ने कहा कि आप में मान-सम्मान, हर्ष-शोक का काम-क्रोध का, कोई भी भेद नहीं है। वास्तव में आप परम हंस हैं। 
वेद व्यास जी पुत्र वियोग से व्यथित होकर उनके पीछे भागने लगे। वे ब्रह्मज्ञान के ज्ञाता होकर भी वे माया से मोहित होकर पुत्र के पीछे दौड़ पड़े। दौड़ते-दौड़ते शुकदेव जी एक तालाब के किनारे से गुजरे। वहाँ कुछ गन्दर्भ कन्याएँ  नहा रही थीं, शुकदेव जी को देखकर भी वे विचलित नहीं हुईं और नहाने में लगी रहीं। वेद व्यास जी वहाँ पहुँचे तो युवतियाँ अपने कपड़े संभालने लगीं। भगवान् वेद व्यास ने आश्चर्य से पूछा कि तुम कैसा व्यवहार कर रही हो, एक युवक गुजरा तो तुम्हें कोई लाज महसूस नहीं हुई और मैं वृद्ध हूँ, तुम्हारे पिता जैसा हूँ, तुम मुझसे लाज कर रही हो, भाग रही हो!
युवतियों ने उत्तर दिया कि महर्षि का पुत्र माया से मुक्त है, उनकी नजर में स्त्री पुरुष का भेद ही नहीं है। लेकिन उनकी दृष्टि में अभी स्त्री पुरुष का भेद था। उनमें अभी भी मोह और माया थी, इसलिए वे अपने ब्रह्मतत्व के ज्ञाता पुत्र के पीछे भाग रहे थे। भगवान् वेद व्यास को युवतियों की बात समझ में आ गई। 
शुकदेव जी महाराज ने जगत के प्राणियों पर कृपा करके भगवतत्व को प्रकाशित करने वाले श्री मद्भागवत महापुराण का विस्तार किया। अपनी परम निष्काम की अतृप्त लीला-कथा-निष्ठा को राजा परीक्षित को सुनाया जिससे वह परम पद को प्राप्त हो गया। उन्होंने संदेश दिया कि प्रत्येक को लीला-कथा में सदैव निमग्न रहना चाहिए। यदि वे श्रीमद्भागवत की कथा परीक्षित को न सुनाते तो वह लोक भगवत्कथा ज्ञान से शून्य ही रहता। श्रीमद्भागवत भगवान्  श्रीकृष्ण की वाङ्मयी मूर्ति है। इस पुराण के रूप में भगवान् के स्वरूप का वर्णन किया गया है। यह भगवान् का सगुण-साकार दिव्य विग्रह ही है। इसके श्रवण से ज्ञान उत्पन्न होता है, ज्ञान से योग में प्रवृत्ति होती है और योग से मुक्ति की प्राप्ति होती है। अत: लीलाकथा रस वैचित्र्य से ओत-प्रोत भगवत्लीला कथा के साक्षात्पुराण साकार स्वरूप श्रीमद्भागवत महापुराण के विषय में जब  शौनकादि महर्षियों ने यह सुना कि इस कथा का गुणगान शुकदेव जी ने किया है तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि व्यास-नंदन शुकदेव तो महायोगी समदर्शी, विकल्पशून्य, एकान्तमति और अविद्यारूप निद्रा से जगे हुए थे।
इससे शौनकादि मुनियों के प्रश्न का समाधान हो जाता है कि शुकदेव जी आत्माराम होने पर भी इस भगवत-कथा में प्रवृत्त हुए। उन्होंने बताया कि "भक्ति का प्रमुख तत्व प्रभु के श्री चरणों में प्रेम है"। भक्त का भगवान् के प्रति होने वाला गाढ़ा आकर्षण ‘राग’ कहलाता है जिसमें योग-वियोग की वृत्ति विद्यमान रहती है। प्रेम वृत्ति की सर्वोच्च स्थिति आत्म-समर्पण में प्रकट होती है जहां सौंदर्य के महासमुद्र भगवान् श्री कृष्ण में वह गोपी भाव बनकर अविछिन्न रूप में प्रवाहित होती रहती है। अत: भक्त को यदि उस रस को प्राप्त करना है तो स्वयं  को रसिक बनाना होगा। महर्षि शांडिल्य ने इसे प्राण शक्ति तथा देवर्षि नारद परम प्रेमरूपा मानते हैं। श्री शुकदेव जी वृत्रासुर के प्रसंग में स्पष्ट करते हैं कि आदर्श भक्त को कैसा होना चाहिए और उसकी एकाग्रता, अनन्यता तथा प्रेम की प्रगाढ़ता कैसी होनी चाहिए। जिन लोगों की प्रवृत्ति परमेश्वर में लीन रहती है, उनमें कामनाएँ उत्पन्न होने पर भी सांसारिक भोगों की प्रवृत्ति नहीं होती। भगवद्विषयक रति वह अंगार है जो मन के बीज को भून डालता है। शुकदेव जी ने स्पष्ट किया कि माधुर्य भाव का तात्पर्य निजेद्रिंय सुख की कामना नहीं है, वह तो भगवान् श्री कृष्ण के सुख के लिए है। उन्होंने अनुभव किया कि शुद्ध माधुर्य वृन्दावन में है, मथुरा ऐश्वर्य लीला की भूमि है। शुकदेव जी ने परीक्षित को बताया कि कुब्जा दासी ने अपने लिए विषय सुख माँगा। इसलिए वह दुर्बुद्धि थी। रास में पधारी हुई गोपियों को देखकर वह कहते हैं कि गोपियों ने अपने प्यारे श्याम सुन्दर के लिए सारी कामनाएँ, सारे भोग छोड़ दिए। श्री शुकदेव जी स्वयं निकुञ्ज सेवी थे। भुशुण्डि रामायण में उन्हें सखी रूप में प्रस्तुत किया गया है।
अत: शुकदेव जी का मानना था कि मधुरोपासना को भावदृष्टि से श्रेष्ठ साधना समझना चाहिए। वेणुगीत की पृष्ठभूमि में भी गोपियों के भाव जगत में विहार का चित्रण शुकदेव जी ने किया। योग में वियोग तथा वियोग में योग की भावना इस माधुर्योपासना का मुख्य आधार है। वस्तुत: ध्यान योग की सिद्धि ही कृष्ण वियोग का फल है। भगवान् वेद व्यास ने श्रीमद्भागवत में श्री राधा का नामोल्लेख नहीं किया। राधा का नाम संकेतिति मात्र है। इसका कारण व्यास जी स्वयं जानते थे कि राधा जी उनके पुत्र शुकदेव जी की परम गुरु एवं आराध्या हैं। उनका नामोल्लेख होता तो शुकदेव जी को समाधि लग जाती। प्रेम विह्वलता में वे मूर्छित हो जाते तो फिर भागवती कथा कैसे आगे बढ़ती और कैसे होता राजा परीक्षित का उद्धार, जो पूर्णरूप से उनका शरणार्थी था। कथाकार शुकदेव जी को छह  माह की मूर्छा आ जाती और शापित परीक्षित पर तक्षक नाग अपना काम पूरा कर लेता। परीक्षित के बहाने कैसे होती कोटि-कोटिजनों को मृत्यु से निर्भयता की प्राप्ति। अत: शुकदेव जी महाराज भगवत् लीला-कथा रस से ओत-प्रोत थे, वे लीला-कथाओं के प्रबुद्ध  प्रवक्ता तथा आदर्श भक्ति के अग्रणी थे।
    
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)

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