Tuesday, February 10, 2015

VED VYAS भगवान् वेद व्यास :: (BRAHMA JI, VASHISHTH, PARASHAR ब्रह्मा-1, ब्रह्म ऋषि वशिष्ठ, पराशर-1)

भगवान् वेद व्यास
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं कि मुनियों में व्यास मुनि मैं हूँ। भगवान् वेद व्यास जी भगवान् श्री हरि विष्णु जी के अंशावतार हैं तथा भगवान् के 24 अवतारों में उनकी गणना होती है। अष्ट चिरंजीवियों में शामिल भगवान् वेद व्यास जी ने समस्त वैदिक सनातन साहित्य का संकलन किया।
गुरु पूर्णिमा को उनका प्राकट्य हुआ। उनको गुरु मानकर उनकी आराधना की जाती है। गु अर्थात अंधकार या अज्ञान और रु अर्थात निरोधक। गुरु मनुष्य को अज्ञान तिमिर से उबारता और अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। गुरु भक्ति और देवभक्ति में समानता रखनी चाहिये। सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है। मोक्ष का मूल है गुरु कृपा। भगवान् शिव को प्रथम गुरु आदि गुरु माना गया है।
इनके पिता ऋषि पराशर तथा माता सत्यवती थीं। भगवान् वेद व्यास का नाम कृष्ण द्वैपायन है। श्याम वर्ण होने के कारण इनका नाम कृष्ण तथा एक द्वीप में जन्म लेने के कारण इनका नाम कृष्ण द्वैपायन पड़ा। गुरुओं में प्रथम पूज्य भगवान् वेद व्यास को माना गया है। वैदिक सनातन धर्म के विशद् साहित्य को संकलन करने का तथा एक सूत्र में पिरोने का जो महान कार्य
भगवान् वेद व्यास ने किया।
सृष्टि के आदिकाल में एक ही वेद था। महर्षि वेद व्यास जी ने इनके चार भाग ऋक्,यजु, साम तथा अथर्ववेद किए तथा वेदों का व्यास करने से वेद व्यास कहलाए। ब्रह्मा जी द्वारा रचित पुराण जो कि भगवान् की दिव्य लीलाओं का संग्रह है तथा जिसके शत कोटि मंत्र हैं, भगवान् वेद व्यास ने उस पुराण को 18 पुराणों में विभक्त कर भगवान् के दिव्य लीला संग्रह को समस्त प्राणी मात्र के लिए सुलभ कराया; जिनमें श्रीमद्भागवत महापुराण तथा शिव पुराण मुख्य हैं। इन 18 पुराणों के 4 लाख मंत्र हैं। भगवान् वेद व्यास ने ब्रह्म सूत्र काव्य तथा वेदांत सूत्र की रचना की। भगवान् वेद व्यास ने वेदार्थ को अपने प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ महाभारत के माध्यम से सम्पूर्ण प्राणीमात्र को सुलभ कराया जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्रदान करने वाला है। जिसे स्वयं योगीन्द्रों के महागुरु गौरीनंदन, प्रथम पूज्य  गणेश जी ने कलमबद्ध किया। भगवान् वेद व्यास बोलते गए तथा गणेश जी लिखते गए।
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥ 
भगवान् नारायण, उनके सखा नर, देवी सरस्वती तथा भगवान वेद व्यास जी का स्मरण कर ही धर्म ग्रंथों का अध्ययन प्रारंभ करना चाहिए।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
ज्ञान के समान पवित्र करने वाला अन्य कोई नहीं।
देव, द्विज, गुरु, प्राज्ञ पूजनं, सात्विक तप उच्यते।
देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन सात्विक तप कहलाता है। मानव शरीर को प्राप्त कर, स्वयं का उद्धार करना ही जीव का मुख्य लक्ष्य है। इस हेतु गुरु ही हमें ज्ञान प्रदान कर अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्रेन सेवया। 
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्व दर्शिन:॥ 
उस तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु हमें ज्ञानी जनों, गुरुजनों को प्रणाम कर, कपट भाव छोड़ उनसे प्रश्र पूछने चाहिएं तथा उनकी सेवा करनी चाहिए ताकि वे तत्वदर्शी, ज्ञानीजन, मानवजीवन से उद्धार कराने वाले तत्व ज्ञान का उपदेश करें। अध्यात्म जगत में अपना विशिष्ट स्थान रखने वाले श्रीमद्भागवत के प्रवक्ता महामुनि शुकदेव जी व्यास मुनि के पुत्र थे।
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः॥10.37॥
वृष्णि वंशियों में वासुदेव पुत्र श्री कृष्ण और पाण्डवों में अर्जुन में हूँ। मुनियों में वेद व्यास और कवियों में कवि शुक्राचार्य भी में ही हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.37] 
I am Shri Krashn, the son of Vasu Dev among the Vrashni clan, Arjun among the Pandavs, Ved Vyas among the saints and Shukrachary among the poets.
भगवान् श्री कृष्ण ने स्वयं को वृष्णि वंश में उत्पन्न विभूति कहा है, न कि अवतार जो कि वे हैं। पाण्डवों में अर्जुन उनकी एक श्रेष्ठ मूर्ति हैं। वेद का चार भागों में विभाजन, पुराण, उपपुराण और महाभारत रचना उनकी श्रेष्ठतम विभूतियाँ हैं, जो कि जन कल्याण की लिए प्रकाशित की गई हैं। धर्म से जुड़ी हुई कोई भी रचना व्यास जी की देन ही मानी जानी चाहिए। शुक्राचार्य को कवि के रूप में उनकी विभूति समझना चाहिए।
The Almighty revealed that HE as the son of  Vasu Dev Ji, in the Vrashnii-clan & was HIS excellent creation, along with Arjun who took incarnation in the Pandu clan. It might make the purpose of HIS incarnation to Arjun and all those who were listening to HIM delivering the sermon in the battle field of Kurukshetr; clear. Still there are people who do not realise the excellence of the composition of Gita as the Supreme guide for the Kali Yug by Muni Ved Vyas Ji Maha Raj, who was one of HIS incarnations and excellent among the composers. To compare the poets, HE makes it clear that Shukrachary is HIS supreme form as a poet. Therefore, Veds, Puran, Up Puran, Vedant and Maha Bharat should not be considered poetic creations, since they reveal history, science, purpose of life, movement of soul in various incarnations, birth-death etc. Gita has been translated into almost all languages of the world. 
It has been discovered that the translation is inappropriate & not up to the mark in most-all cases, sending wrong notions-messages, signals among the masses. Some times, the interpretations too are wrong and misleading. Some Muslims are will fully distorting this divine knowledge.
Its clear that the Bhagwan Shri Krashn & Arjun, both are two forms of the Almighty just like water in two pots.
महर्षि पराशर के पुत्र भगवान् वेद व्यास :: भगवान् वेदव्यास ऋषि पराशर के पुत्र थे। इनकी माता का नाम सत्यवती था। सत्यवती का नाम मत्स्यगंधा भी था, क्योंकि उनका जन्म मछली से हुआ था और उसके शरीर से मछली की गंध आती थी। उनका पालन-पोषण एक मल्लाह ने किया था। वह नाव खेने का कार्य करती थीं। एक बार जब पाराशर मुनि उसकी नाव में बैठ कर यमुना पार कर रहे थे तब दैवयोग से उनका सम्बन्ध सत्यवती से हो गया।
सत्यवती ने उनसे कहा कि हे मुनिवर! आप ब्रह्म  ज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या; अत: यह सम्बन्ध उचित नहीं है। पाराशर ऋषि ने कहा कि उनका कौमार्य नष्ट नहीं होगा और प्रसूति होने पर भी वे कुमारी ही रहेंगी। इसके उपरान्त सत्यवती के शरीर से आने वाली मछली की गंध, सुगन्ध में परिवर्तित हो गई। 
वहीं नदी के द्वीप पर ही सत्यवती को पुत्र की प्राप्ति हुई। भगवान् वेदव्यास जन्म लेते ही 8 वर्ष के बालक के समान हो गए। वो वेद वेदांगों में पारंगत थे।व्यास जी सांवले रंग के थे, जिस कारण इन्हें कृष्ण कहा गया तथा यमुना के बीच स्थित एक द्वीप में उत्पन्न होने के कारण यह 'द्वैपायन' कहलाये और कालांतर में वेदों का भाष्य करने के कारण वह वेदव्यास के नाम से विख्यात हुये। इस प्रकार पराशर जी के कुल में उत्पन्न हुई एक महान विभूति हैं, भगवान् वेद व्यास। 
यमुना जी के द्वीप में जन्म होने के कारण भगवान् वेद व्यास को द्वैपायन, सघन कृष्ण वर्ण के कारण कृष्ण, वेदों का विभाजन करने के कारण वेदव्यास तथा बदरी वन में तपस्या करने के कारण बादरायण कहा जाता है। इन्हें अंगों सहित सम्पूर्ण वेद, पुराण, इतिहास और परमात्म तत्व का ज्ञान, जन्म से ही था। अनादि पुराण को लुप्त होते देखकर तथा वेदों के गूढ़ रहस्यों को सर्वजन गम्य बनाने के उद्देश्य से भगवान् कृष्ण द्वैपायन ने महापुराणों सहित अनेक पुराण-संहिताओं का प्रणयन किया और विश्व साहित्य के अनुपम ग्रन्थ महाभारत की रचना की, जो अपने विषय-वैभव के कारण भारतीय संस्कृति का विश्वकोश कहा जाता है।
महाभारत पंचम वेद के नाम से प्रसिद्ध है। इन ग्रन्थ ने कलियुग में मनुष्यों द्वारा जीवन यापन करने का मार्ग प्रशस्त करता है और प्रशासन की बारीक नीतियों की व्याख्या करता है। श्रीमद्भागवत के रूप में भक्ति का सार सर्वस्व इन्होंने मानव मात्र को सुलभ कराया और ब्रह्मसूत्र के रूप में तत्वज्ञान का अनुपम ग्रन्थ प्रदान किया। व्यास-स्मृत्ति के द्वारा भगवान् वेद व्यास ने मनुष्योचित जीवनचर्या का उपदेश किया, जिसका फल लोक-परलोक की सिद्धि है।
व्यास जी ने विपत्ति ग्रस्त पाण्डवों की समय-समय पर पूरी सहायता करते की। इन्होंने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की, जिससे संजय ने महाभारत का युद्ध प्रत्यक्ष देखने के साथ-साथ परमात्मा श्री कृष्ण के मुखारविन्द से निःसृत श्रीमद्भगवद्गीता का भी श्रवण किया। बाद में भगवान् श्री कृष्ण के कहने पर उन्होंने श्रीमद्भागवत गीता का उपदेश गणेश जी महाराज को किया और उन्होंने इसे लिपिबद्ध किया। 
महर्षि व्यास की शक्ति अलौकिक थी। महाभारत युद्ध के महाविनाश से धर्मराज युधिष्ठिर तथा पुत्र शोक से धृतराष्ट्र अत्यन्त व्याकुल और आतुर थे। उन्होंने व्यास जी से अपने मरे हुए कुटुम्बियों और का स्वजनों को देखने की इच्छा प्रकट की। महर्षि व्यास के आदेशानुसार धृतराष्ट्र आदि गंगा तट पर पहुँचे। व्यास जी ने गंगाजल में प्रवेश किया और दिवंगत योद्धाओं को पुकारा। जल में युद्ध काल जैसा कोलाहल सुनायी देने लगा। देखते ही देखते दोनों पक्षों के योद्धा निकल आये। सबके वेष-भूषा और वाहनादि पूर्ववत् थे। सभी ईर्ष्या-द्वेष से शून्य और दिव्य देहधारी थे। वे सभी लोग रात्रि में अपने पूर्व सम्बन्धियों से मिले और सूर्योदय से पूर्व भागीरथी गंगा में प्रवेश करके अपने के दिव्य लोकों को चले गये।
महर्षि व्यास अमर हैं। समय-समय पर प्रकट होकर ये अधिकारी पुरुषों को अपना दर्शन देकर कृतार्थ किया करते हैं। आद्य शंकराचार्य, सुरेश्वराचार्य एवं मध्वाचार्य आदि को उनके दर्शन हुए थे।
This statue was given to Prajapati Sutpa & his wife Prashni in Swayambhu Manvantar, by Brahma Ji. They worshipped Almighty and got the boon that the Almighty will take incarnations as their son. (1) Pranshni Garbh-their son, (2). Kashyap & Aditi, (3). Vasudev & Devki. Vasudev got this statue from Dhoumy and it was worshipped in Dwarka. From there it was brought to Trichy by Dev Gur Brahaspati.
महर्षि पाराशर :: महर्षि पाराशर शक्ति मुनि के पुत्र एवं महर्षि वशिष्ठ के पौत्र थे। उनकी माता का नाम अदृश्यन्ति था जो कि उथ्त्य मुनि  की पुत्री थी। उनकी पत्नी का नाम सत्यवती (काली, मत्स्यगन्धा, योजनगंधा) था। महर्षि पराशर का जन्म अपने पिता शक्ति की मृत्यु  के पश्चात् हुआ था तथापि गर्भावस्था में ही उन्होंने  पिता द्वारा कही गयी वेद की ऋचाएं कंठस्थ कर ली थीं। महर्षि पाराशर ने विध्याध्यं अपने पितामह महर्षि वशिष्ठ जी के पास रह कर पूरी की। वे वशिष्ठ जी को ही अपना पिता समजते थे। एक बार महर्षि पाराशर की माता जी ने महर्षि पाराशर जी से कहा कि हे पुत्र, जिसे तुम पिता समझते हो वो तुम्हारे पितामह हैं। महर्षि पाराशर जी के पूछने पर महर्षि पाराशर जी की माता ने समस्त जानकारी उन्हें करा दी की किस प्रकार तुम्हारे पिता को राक्षस ने तुम्हारे जन्म से पहले हुई मार डाला था।
पिता की मृत्यु का ज्ञान होने पर महर्षि पाराशर जी का क्रोधित होना स्वाभाविक था, उन्होंने सोचा की उनके पिता एवं पितामह के यशस्वी एवं ज्ञानी होने के कारण देवता उनका सम्मान करते हैं और उनका भक्षण एक राक्षस करे, यह सहन नहीं हो सकता। ऐसा विचार करके महर्षि पाराशर ने एक यज्ञ का आयोजन इस विचार से किया कि मैं अपनी पिता की मौत का बदला लुँगा और पृथ्वी से दानव कुलों का नाश कर दुँगा। 
उन्होंने राक्षसों के विनाश के लिए यज्ञ आरम्भ कर दिया। यज्ञ द्वारा राक्षस कुलों का सर्वनाश होते देख पुल्सत्य ऋषि ने अनुनय विनय कि “आप यह यज्ञ ना करें"। महर्षि पाराशर पुल्सत्य मुनि का बड़ा आदर करते थे, इसलिए महर्षि पाराशर ने उनकी, अपने पितामह एवम अन्य ऋषियों के वचनों का आदर करते हुए यज्ञ का विचार त्याग दिया। 
पुलस्त्य ऋषि ने महर्षि पाराशर को ये वरदान दिया, “वत्स पाराशर, पुराणों को संहिता बद्ध कर समस्त शास्त्रों के गूढ़ रहस्यों को आत्मसात कर समस्त शास्त्रों में पारंगत होओगे"।
महर्षि पाराशर का दिव्य जीवन जहाँ अत्यंत आलोकिक एवम अद्वितीय हैं, उन्होंने धर्म शास्त्र,  ज्योतिष, वास्तुकला, आयुर्वेद, नीति शास्त्र, विषयक ज्ञान मानव मात्र को दिया उनके द्वारा रचित ग्रन्थ व्रह्त्पराषर, होराशास्त्र  लघुपाराशरी, व्रह्त्पराशारी धरम संहिता, पाराशर धर्म संहिता, परशारोदितं, वास्तुशाश्त्रम, पाराशर संहिता (आयुर्वेद), पाराशर महापुराण, पाराशर नीतिशास्त्र आदि मानव मात्र के कल्याण मात्र के लिए रचित ग्रन्थ जग प्रसिद्ध हैं।
महर्षि पराशर द्वारा कलियुग का वर्णन :: जिज्ञासा प्रश्न को जन्म देती है, प्रश्न उत्तर की अपेक्षा करता है। जिज्ञासु अपनी शंका के निवारण के लिए समाधान के द्वार पर दस्तक देता है। ज्ञानी और शिष्य का संवाद ज्ञान का अक्षय भंडार बनकर भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित होता है। 
मैत्रेय और मुनि पराशर के मध्य जीव, जगत और  ब्रह्म को लेकर जो संवाद हुआ, वही विष्णु पुराण का संकलित रूप है। मनुष्य संसार में जन्म लेता है, जीता है और मृत्यु  को प्राप्त होता है। ऐसा क्यों होता है? क्या वह अमर नहीं बन सकता? 
यह प्रश्न अनादिकाल से अनुत्तरित ही रहा। इसका समाधान पाने को मैत्रेय पराशर मुनि से प्रश्न करते हैं। 
पराशर उत्तर देते हैं, "वत्स मैत्रेय, सृष्टि, स्थिति और लय-क्रमश: जन्म, अस्तित्व और मृत्यु के प्रतीक हैं। इनका आवर्तन अवश्यंभावी है। इस त्रिगुणात्मक रहस्य का ज्ञान प्राप्त करने के पूर्व तुम्हें काल-ज्ञान का परिचय पाना होगा।
उन्होंने कहा, ध्यान से सुनो, "मनुष्य के एक निमिष मात्र यानी पलक झपकने का समय मात्र है। पंद्रह निमिष एक काष्ठा कहलाता है। तीस काष्ठा एक कला है। 
पंद्रह कलाएं एक नाडिका है, दो नाडिकाएं एक मुहूर्त, तीस अहोरात्र एक मास होता है। बारह मास एक वर्ष होता है। मानव समाज का एक वर्ष देवताओं का एक अहोरात्र होता है। तीन सौ आठ वर्ष एक दिव्य वर्ष कहलाता है। बारह हजार दिव्य वर्ष एक चतुर्युगी (कृत त्रेता, द्वापर और कलियुग) होता है। एक हजार चतुर्युग मिलकर ब्रह्मा का एक दिन होता है। इसी को कल्प कहते हैं। एक कल्प में चौदह मनु होते हैं। कल्प में प्रलय होता है। इसको नैमित्तांतक प्रलय कहते हैं। 
प्रलय तीन प्रकार के होते हैं :- नैमित्तिक, प्राकृतिक और आत्यंतिक। 
इन प्रलयों का वृत्तांत मैं आगे सुनाऊंगा।
मैत्रेय ने पूछा, "गुरुदेव, आपने कहा था कि सतयुग  में ब्रह्मा सृष्टि रचते हैं और कलियुग में संहार  करते हैं। मैं सर्वप्रथम कलियुग का वृत्तांत सुनना चाहता हूँ, इसके स्वरूप का विवेचन कीजिए"।
मुनि पराशर थोड़ी देर के लिए विचारमग्न हुए, फिर बोले, "मैत्रेय, कलियुग में वर्णाश्रम धर्मो  का याने ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास  का पालन नहीं होगा। विधि पूर्वक धर्म बद्ध विवाह न होगे। गुरु और शिष्य का सम्बन्ध टूट जाएगा। दाम्पत्य जीवन में दरारें पड़ेंगी। पति-पत्नी के बीच कलह होंगे। यज्ञ-कर्म लुप्त हो जाएंगे। बलवान लोग निर्बलों पर अधिकार करेंगे। अत्याचार और अन्यायों का बोल-बाला होगा। धनी वर्ग सभी जातियों वाली कन्याओं से विवाह करेंगे। अपने पापों को धोने के लिए गुरु से दीक्षा लेंगे  और प्रायश्चित करवा लेंगे। 
छद्म वेषधारी गुरुओं के मुँह से जो शब्द निकलेंगे, वे ही शास्त्र माने जायेंगे।क्षुद्र देवताओं की पूजा होगी। आश्रमों के द्वार सब लोगों के लिए खुले रहेंगे। उपवास, तीर्थ-यात्रा,दान-पुण्य, पुराण-पाठ उत्तम धर्म के लक्षण माने जायेंगे।
यह कहकर पराशर मुनि पल भर मौन रहे, फिर बोले, "और सुनो, कलियुग की अनंत महिमा। स्त्रियाँ अपने केश-विन्यास पर अभिमान करेंगी। विविध प्रकार के प्रसाधनों से अपने को अलंकृत करेंगी। रत्न, मणि, मानिक, स्वर्ण और चाँदी के बिना अपने बालों को संवारेंगी। दरिद्र पति को त्याग देंगी।अधिक से अधिक धन देने वाले पुरुष को वे अपना पति मानेंगी। वही उनका स्वामी होगा। कुलीनता पर नारी-पुरुष का सम्बन्ध नहीं जुड़ेगा। स्त्रियों में स्वेच्छाचारिता-स्वछंन्दता बढ़ जाएगी। वे सुंदर पुरुष की कामना करेंगी। भोग-विलास को अपने जीवन का लक्ष्य मानेंगी"।
अब पुरुषों का वृत्तांत सुनो, "पुरुष थोड़ा से धन पर भी अभिमान करेगा। धन जोड़ने की प्रवृत्ति पुरुष वर्ग में बढ़ जाएगी। वे अपना धन सुख भोगने में पानी की तरह बहाएंगे। गृह-निर्माण में सारा धन खर्च करेंगे। अन्याय पूर्वक धन कमाने की चेष्टा करेंगे। उत्तम कार्यो में धन खर्च करने से विमुख होंगे। स्वार्थ की वृत्ति बढ़ेगी और परोपकार की भावना  लुप्त हो जाएगी! संक्षेप में समझाना हो तो यही कहना चाहुँगा कि पुरुष पैसे में परमात्मा के दर्शन करेंगे। सामाजिक दशा बद से बदतर होती जाएगी। जाति-पाँति के भेद-भाव मिट जायेंगे। शूद्र अपने को ब्राह्मण वर्ग के बराबर मानेंगे। दूध देने वाली गायों का ही संरक्षण होगा। धन-धान्य की स्थिति क्या बताई जाए। समय पर वर्षा न होगी। सर्वत्र अकाल का ताण्डव होगा। सूखा पड़ने से लोग भूख-प्यास से तड़प-तड़प कर मर जायेंगे। कंद-मूल और फलों से पेट भरने का प्रयास करेंगे। जनता दुख-दरिद्रता और रोगों का शिकार होगी। पौष्टिक आहार के अभाव में लोग अल्पायु में ही बूढ़े हो जायेंगे। पिंड दान न होगा, स्त्रियाँ अपने पति और बुजुर्गो के आदेशों का पालन नहीं करेंगी। रीति-रिवाज मिट जायेंगे।स्त्रियाँ झूठ बोलेंगी। दुराचारिणी होंगी। ब्रह्मचारी यम-नियम का पालन नहीं करेंगी। वानप्रस्थी नगर का भोजन पसंद करेंगे। साधु-संन्यासी अपने स्नेही जनों के प्रति पक्षपात पूर्ण व्यवहार करेंगे"।
ऐसी स्थिति में राजा-प्रजा की बात क्या होगी, सुन लो, "कलियुग की अपार महिमा यह है कि राजा कर वसूली के बहाने प्रजा को लूटेंगे मुसीबत में फँसी प्रजा की रक्षा नहीं करेंगे। गुंडे और चरित्र हीन लोगों का राज्य होगा। जो अपने पास ज्यादा रथ, हाथी और घोड़े रखता है, वही राजा माना जाएगा।विद्वान पुरुष और सज्जन धनहीन होने के कारण सेवक माने जायेंगे। वणिक वर्ग कृषि और वाणिज्य त्याग कर शिल्पकारी होंगे। वे भी शूद्र वृत्ति से अपना भरण पोषण करेंगे। पाखंडी लोग साधु-संन्यासी के वेष में भिक्षाटन करेंगे। वे समाज द्वारा सम्मानित होकर सर्वत्र पाखंड फैलायेंगे। राजा के द्वारा कर बढ़ाया जाएगा। कर-भार और अकाल से पीड़ित होकर लोग ऐसे देशों की शरण लेंगे जहाँ गेहूं और ज्वार ज्यादा पैदा होता है"।
यह सभी कुछ अभी से दिखाई दे रहा है, जबकि कलियुग के महज 5,000 साल ही व्यतीत हुए हैं। कलियुग 4,80,000 साल का है।
"वत्स! अब तम्हें कलि युगीन धर्म की बात सुनाता हूँ, "वैदिक धर्म नष्ट हो जाएगा। पाखंड का साम्राज्य फैलेगा। शास्त्र विरुद्ध तप और राजा के कुशासन से अधिक सँख्या में शिशुओं की मृत्यु होगी। प्रजा की आयु घट जाएगी। सात-आठ वर्ष की बालिका और दस-बारह वर्ष आयु के बालक की संतान होगी। बारह वर्ष की उम्र में बाल पकने लग जाएंगे। पूर्णायु बीस वर्ष की होगी। प्रजा की बुद्धि मंद पड़ जाएगी। दृष्टि दोष होगा"।
"गरुदेव, आपने कलियुग के लक्षण बताए, पर कलियुग के आगमन की पहचान कैसे हो? इस पर थोड़ा प्रकाश डालिए"। मैत्रेय ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की।
मुनि पराशर ने मंदहास करके कहा, "संसार में धर्म के लुप्त होने के साथ ही सर्वत्र युद्ध, हिंसा, अत्याचार, दुराचार, पाखंड आदि दिन-प्रतिदिन बढ़ते जायेंगे। इन लक्षणों को देख बुद्धिमान लोग समझ जायेंगे कि अब कलियुग अपने परे उत्कर्ष पर है। हाँ, उस हालत में पाखंडी लोग यह प्रश्न जरूर करेंगे कि देवताओं की पूजा और वेदाध्ययन से लाभ ही क्या है। सुनो, कलियुग के उत्तरार्ध में प्रकृति और मानव चरित्र में कैसे-कैसे परिवर्तन लक्षित होते हैं"।
"वर्षा कम होगी। अनाज कम होगा। फलों का रस फीका पड़ जाएगा। लोग सन के कपड़े पहनेंगे। चातुर्वर्णी लोग शूद्रों जैसा आचरण करेंगे। अनाज के दाने छोटे होंगे। गायों के दूध के स्थान पर बकरियों के दूध का प्रचलन होगा"।
"वत्स! कलियुग का महत्व कहाँ तक कहा जाए। परिवार में माता-पिता, भाई-बंधु, गुरुजनों के स्थान पर सास-सुसर, पत्नी और साले का प्रभुत्व होगा। स्वाध्याय समाप्त होगा। धर्म टिमटिमाते दीप के समान अल्प मात्रा में रह जाएगा। एक रहस्यपूर्ण बात सुन लो, इन सारी विकृतियों के बावजूद कलियुग की अपनी विशेष महिमा है। कृत युग में जहाँ जप, तप, व्रत, उपवास, तीर्थाटन, दान-पुण्य,सदाचरण और सत्य कर्मो से जो पुण्य प्राप्त होता था, वह कलियुग में थोड़े से प्रयत्न से ही संभव होगा"।
मैत्रेय ने विस्मय में आकर पूछा, "सो कैसे? कलियुग तो समस्त दुष्कृत्यों से भरा हुआ है"।
महर्षि पराशर मंदहास करके बोले, "सुनो, तपस्वियों में एक बार चर्चा चली।अल्प पुण्य के संपादन से महान फल की प्राप्ति कब होती है और उसका कारक कौन होता है"? 
परस्पर विचार-विनिमय के उपरांत भी वे किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पाए। अंत में यह निर्णय हुआ कि महर्षि व्यास से इस प्रश्न का समाधान प्राप्त करें। जब वे महर्षि के समीप पहुँचे तब व्यासजी गंगा जी में स्नान कर रहे थे। सभी मुनि गंगा के किनारे खड़े रहे। व्यास जी ने गंगाजल में एक बार गोता लगाया, जल से ऊपर उठते हुए बोले, "कलियुग श्रेष्ठ है"। फिर दूसरा गोता लगाया,कहा, "हे शूद्र,तुम्हीं श्रेष्ठ हो"। तीसरी बार डुबकी लगाकर बोले, "स्त्रियां धन्य हैं! साधु। साधु"। मुनि आश्चर्यचकित हो देखते रह गए।
व्यास जी नहा-धोकर किनारे आए,तब मुनियों के आगमन का कारण पूछा।मुनियों ने हाथ जोड़कर प्रणाम करके कहा, "महर्षि। वैसे हम लोग आपसे एक शंका का समाधान करने आए, परन्तु इस समय हम आपके इस कथन का आशय जानने को उत्सुक हैं। स्नान करते समय गोते लगाते हुए आपने कलियुग, शूद्र और स्त्रियों को श्रेष्ठ बताया। यह कैसे संभव है"?
व्यासजी ने गंभीर होकर कहा, "कृत युग में दस वर्ष तक जप-तप उपवास आदि करने पर जो फल मिल सकता है, वह त्रेतायुग में एक ही वर्ष में प्राप्त होता है। द्वापर युग में एक महीने में और कलियुग में एक ही दिन में प्राप्त होगा। कृतयुग में ध्यान योग से जो पुण्य हो सकता है, वहीं कलियुग में केवल श्री कृष्ण, श्री हरी विष्णु का नाम स्मरण मात्र से प्राप्त होता है। इसलिए मैंने कलियुग को श्रेष्ठ बताया। 
द्विजवर्ग धर्म च्युत होकर अनर्गल वार्तालाप, अनायास भोजन पाकर पतन के मार्ग पर होंगे। उन्हें संयम का पालन करना होगा। अन्न उपजाने वाला वर्ग द्विजों की सेवा करके यानी थोड़े परिश्रम से पुण्य-संपादन करके मोक्ष के अधिकारी हो जाते हैं। इसलिए मैंने शूद्र को श्रेष्ठ कहा"।
"स्त्रियाँ तो कलियुग में पति की सेवा करके परलोक को प्राप्त कर सकती हैं। इस कारण से मैंने स्त्रियों को श्रेष्ठ और साधु! साधु! कहा। मैं समझता हूँ कि अब आप लोगों की शंका का समाधान हो गया होगा"। 
ये शब्द कहकर महर्षि अपनी कुटी की ओर चल पड़े। मुनि वृंद महर्षि व्यास जी के दर्शन और उनकी वाणी से प्रसन्न हुए। उनकी पूजा करके अपने-अपने निवास को लौट गए।
महर्षि पराशर की कलियुग सम्बन्धी भविष्यवाणी सर्वथा सत्य सिद्ध हो रही है।
विशेष बात यह है कि पृथ्वी पर हर वक्त चारों युग मौजूद रहते हैं, मगर प्रधानता केवल एक की ही होती है। अतः हमें समय-समय पर कलियुग में भी दिव्य पुरुष, ज्ञानी, महात्माओं के दर्शन होते रहते हैं। 
शिव भक्त पराशर :: ब्रह्मा जी ने देवऋषि नारद को भगवान् शिव के छब्बीसवें अवतार की कथा सुनाई। भगवान् शिव का छब्बीसवाँ अवतार द्वापर में पराशर के रूप में हुआ। वे ब्रह्मा जी के प्रपौत्र थे तथा शक्ति मुनि से उत्पन्न हुए थे। उनके समान शिव भक्त कोई नही हुआ। 
व्यास पराशर ने वेद के (1). ऋक्, (2). यजु, (3). साम एवं (4). अथर्ववेद चार भाग किये तथा उनकी शाखाओं को बढ़ाया। तत्पश्चात अठारह पुराण बनाये, क्योंकि कलियुग के प्रवेश से सांसारिक जीवों की बुद्धि नष्ट हो गयी थी। उन्होंने वेद की रीतियाँ युक्ति पूर्वक पुराणों में इस प्रकार मिला दी, जिससे लोग प्रसन्न हो। जिस प्रकार की कोई वैद्य कड़वी औषधि न देकर मीठी औषधि द्वारा रोगी को प्रसन्न करता है। उन्होंने अन्य व्यासों की अपेक्षा जो कि पहले हुए थे, अधिक अच्छे पुराण बनाये। यद्यपि उन्होंने तथा व्यास (पराशर) ने अनेकों प्रकार के प्रयत्न किए, जिससे कि व्यासमत्त प्रसिद्ध हो परंतु उनका यत्न निष्फल हुआ और किसी ने भी पुराणों को न पढ़ा। तब व्यास पराशर ने चिंतित होकर शिव जी का ध्यान किया तथा स्तुति करते हुए उनसे कहा कि हे प्रभो! द्वापर युग व्यतीत हो गया तथा कलियुग आ गया। यद्यपि मैंने वेद के आशय पुराणों में प्रकट कर दिए, परंतु कलियुग के प्रभाव से इन्हें कोई नही समझता, प्रबृत्ति मार्ग को बढ़ रहा है, परंतु निब्रति की समाप्ति हो रही है। हे प्रभो! हे भक्तवत्सल!  किसी ने भी पुराणों को नहीं छूआ, अतः मेरा मत्त प्रसिद्ध नही होता इसलिए आप मेरी प्रार्थना सुनकर सहायता कीजिये तथा मेरे धर्म को दृढ़ कीजिये। आप अवतार लेकर मेरे मत की वृद्धि करें। हे नारद! मेरे प्रपौत्र व्यास पराशर की इस प्रार्थना को शिवजी ने स्वीकार कर लिया तथा छब्बीसवें द्वापर के अंत में और कलियुग के प्रारंभ में "सहिष्णु" नामक अवतार ग्रहण कर लिया तथा (1). उलूक, (2). विद्युत, (3). सम्बल तथा (4). अश्वलायन ये चार शिष्य उत्पन्न किये तथा उन्हें योग का ज्ञान सिखाया तथा उन्होंने योग को प्रकट किया। उस योग को संसारी जीवों ने बड़े यत्न से सीखा। फिर उन्होंने वेद एवं पुराणों से अच्छे धर्म एवं मत्त प्रकट किए। शिवजी के ये चार शिष्य आश्रम जानने वाले, योगाभ्यासी तथा निष्पाप हुए।  हे नारद! इस प्रकार  भगवान् शिव ने अपने इन चार शिष्यों सहित योग को प्रकट कर पुराणों को प्रसिद्ध किया तथा व्यास (पराशर) जी को प्रसन्न किया।
पराशर द्वारा रचित ग्रंथ :: पराशर ऋषि ने अनेक ग्रंथों की रचना की जिसमें से ज्योतिष के उपर लिखे गए उनके ग्रंथ बहुत ही महत्वपूर्ण रहे। इन्होंने फलित ज्योतिष सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। कलियुग में पराशर के समान कोई ज्योतिष शास्त्री नहीं हुए। 
एक बार महर्षि मैत्रेय ने आचार्य पराशर से विनती की कि ज्योतिष के तीन अंगों के बारे में उन्हें ज्ञान प्रदान करें। इसमें होरा, गणित और संहिता तीन अंग हैं जिसमें होरा सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। होरा शास्त्र की रचना महर्षि पराशर के द्वारा हुई है। 
ऋग्वेद के अनेक सूक्त इनके नाम पर हैं, इनके द्वारा रचित अनेक ग्रंथ ज्ञात होते हैं जिनमें से बृहत्पराशर होरा शास्त्र, लघुपाराशरी, बृहत्पाराशरीय धर्म संहिता, पराशरीय धर्म संहिता स्मृति, पराशर संहिता वैद्यक, पराशरीय पुराणम, पराशरौदितं नीतिशास्त्रम, पराशरोदितं, वास्तुशास्त्रम इत्यादि। कौटिल्य शास्त्र में भी महर्षि पराशर का वर्णन आता है।  
पराशर के द्वारा रचित बृहतपराशरहोरा शास्त्र में में राशिस्वरुप, लग्न विश्लेषण, षोडशवर्ग, राशिदृ्ष्टि, भावविवेचन, द्वादश भावों का फल निर्देश, प्रकाशग्रह, ग्रहस्फूट, कारक, कारकांश फल, विविध योग, रवियोग, राजयोग, दारिद्र योग, आयुर्दाय, मारकयोग, दशाफल, विशेष नक्षत्र, कालचक्र, ग्रहों की अन्तर्दशा, अष्टकवर्ग, त्रिकोणदशा, पिण्डसाधन, ग्रहशान्ति आदि का वर्णन किया गया है।
    
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 संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)