Friday, December 31, 2021

XXX राज ऋषि विश्वामित्र

राज ऋषि विश्वामित्र
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
विश्वामित्र अत्रिवंशी ययाति कुल से हैं। उनका स्थान सप्तऋषियों में है। 
वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत।
विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्॥
सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं :- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।[विष्णु पुराण]
कुशिक वंश में  उत्पन्न चन्द्रवंशी महाराज गाधि को सत्यवती नामक एक श्रेष्ठ कन्या हुई। जिसका विवाह मुनि भृगु पुत्र ऋचीक के साथ सम्पन हुआ। ऋचीका ने पति की सेवा की जिससे प्रसन्न उन्होंने अभिमंत्रित चरु सत्यवती को प्रदान करते हुए कहा, "देवि! यह दिव्य चरु दो भागों में विभक्त है। इसके भक्षण से तुम्हें यथेष्ट पुत्र की प्राप्ति होगी। इसका एक भाग तुम ग्रहण करना और दूसरा भाग अपनी माता को दे देना। इससे तुम्हें एक श्रेष्ठ महातपस्वी पुत्र प्राप्त होगा और तुम्हारी माता को क्षत्रिय शक्ति सम्पन्न  तेजस्वी पुत्र होगा"। सत्यवती यह दोनों चरु-भाग प्राप्त कर बड़ी प्रसन्न हुई।
अपनी श्रेष्ठ पत्नी सत्यवती को ऐसा निर्देश देकर महर्षि ऋचीक तपस्या के लिये अरण्य में चले गये इसी समय महाराज गाधि भी तीर्थ दर्शन के प्रसंगवश अपनी कन्या सत्यवती का समाचार जानने आश्रम में आये। इधर सत्यवती ने पति द्वारा प्राप्त चरु के दोनों भाग माता अपनी माँ दे दिये और दैवयोग से माता द्वारा चरु-भक्षण में विपर्यय हो गया। जो भाग सत्यवती को प्राप्त होना था, उसे माता ने ग्रहण कर लिया और जो भाग माता के लिये उद्दिष्ट था, उसे सत्यवती ने ग्रहण कर लिया। ऋषि-निर्मित चरु का प्रभाव अक्षुण्ण था, अमोघ था। चरु के प्रभाव से गाधिपत्नी तथा देवी सत्यवती दोनों में गर्भ के चिह्न स्पष्ट होने लगे।
इधर ऋचीक मुनि ने योग बल से जान लिया कि चरु भक्षण में विपर्यय हो गया है। यह जानकर सत्यवती निराश हो गयीं, परन्तु मुनि ने उन्हें आश्वस्त किया। यथा समय सत्यवती की परम्परा में पुत्र रूप में जमदग्नि पैदा हुए और उन्हीं के पुत्र परशुराम हुए। दूसरी ओर गाधि पत्नी ने चरु के प्रभाव से दिव्य ब्रह्मशक्ति-सम्पन्न महर्षि विश्वामित्र को पुत्र  रूप में प्राप्त किया। 
महर्षि विश्वामित्र के अनेक पुत्र-पौत्र हुए, जिनसे कुशिक वंश विख्यात हुआ। ये गोत्रकार ऋषियों में परिगणित हैं। आज भी सप्तर्षियों में स्थित होकर महर्षि विश्वामित्र जगत के कल्याण में निरत हैं।[पुराण, महाभारत]
उन्होंने ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हेतु तपस्या की। भूख लगने पर चाण्डाल के घर में घुसकर सूअर का माँस चुराकर खाया। राजा हरिश्चन्द्र को परीक्षा के बहाने पीड़ित किया। तपस्या भंगकर शकुन्तला पैदा की। त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजने का प्रयास किया। गुरु वशिष्ठ से अकारण वैर किया। भगवान् श्री राम और लक्ष्मण जी को लेकर जंगलों में राक्षसों का वध कराया। भगवान् श्री राम  लक्ष्मण को लेकर माता सीता स्वयंवर में गये जहाँ राजा जनक की पुत्रियों का विवाह राजा दशरथ के  सम्पन्न हुआ। एक महान तपस्वी के रूप में उन्होंने ब्रह्मऋषि पद प्राप्ति का सफल प्रयास किया मगर मोक्ष या ईश्वर भक्ति की इच्छा नहीं की।
वशिष्ठ जी के कहने पर ही महाराज दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। विश्वामित्र ने इनके 100 पुत्रों को मार दिया था, फिर भी इन्होंने विश्वामित्र को माफ कर दिया। विश्वामित्र की उनके साथ जन्मजात शत्रुता थी। एक समय में तो इन दोनों ने कुक्कुट-मुर्गे के रूप में भी युद्ध किया। विश्वामित्र उनसे स्पर्धा के कारण ही ब्रह्मऋषि बनना चाहते थे।
वैश्वामित्र मण्डल का वैशिष्ट्य :: वेद की महिमा अनन्त है। विश्वामित्र के द्वारा दृष्ट यह तृतीय मण्डल विशेष महत्त्व का है, क्योंकि इसी तृतीय मण्डल में ब्रह्म गायत्री का जो मूल मन्त्र है, वह उपलब्ध होता है। इस ब्रह्म गायत्री मन्त्र के मुख्य द्रष्टा तथा उपदेष्टा आचार्य महर्षि विश्वामित्र ही हैं। ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के 62वें सूक्त का दसवां मन्त्र 'गायत्री मन्त्र' के नाम से विख्यात है, जो इस प्रकार है :-
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥
गायत्री को वेद माता कहा जाता है। 
ये मन्त्रष्टा ऋषि कहलाते हैं। वेद के दस मण्डलों में तृतीय मण्डल, जिसमें 62 सूक्त हैं, इन सभी सूक्तों के द्रष्टा ऋषि विश्वामित्र ही है। इसीलिये तृतीय मण्डल 'वैश्वामित्र मण्डल' कहलाता है। इस मण्डल में इन्द्र, अदिति, अग्निपूजा, उषा, अश्विनी तथा ऋभु आदि देवताओं की स्तुतियाँ हैं और अनेक ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म आदि की बातें विकृत हैं, अनेक मन्त्रों में गो-महिमा का वर्णन है। तृतीय मण्डल के साथ ही प्रथम, नवम तथा दशम मण्डल की कतिपय ऋचा के दृष्टा विश्वामित्र के मधुच्छन्दा आदि अनेक पुत्र हुए हैं।
 
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xxx ब्रह्मऋषि वशिष्ठ

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ब्रह्मऋषि वशिष्ठ
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By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
उनका स्थान सप्तऋषियों में है। 
वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत।
विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्॥
सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं :- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।[विष्णु पुराण]
महर्षि वशिष्ठ ब्रह्मा जी के पुत्र हैं। ऋग्वेद के मंत्र द्रष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक वशिष्ठ सप्त ऋषियों में से एक हैं। वेद वक्ताओं में वशिष्ठ ऋग्वेद के 7वें मण्डल के प्रणेता हैं तथा 9वें मंडल में भी इनके वंशधरों के अनेक मंत्र हैं।
वशिष्ठ जी की मुख्यत: दो पत्नियाँ हैं। पहली अरुंधती और दूसरी उर्जा। उर्जा प्रजापति दक्ष की तो अरुंधती कर्दम ऋषि की कन्या थी। अतः वे भगवान् शिव के साढू तथा माता सती के बहनोई हैं। उन्होंने ही श्राद्धदेव मनु (वैवस्तवत मनु) को परामर्ष देकर उनका राज्य उनके पुत्रों को बँटवाकर दिलाया था। उनकी पत्नी अरुंधती वैदिक कर्मों में उनकी सहभागिनी हैं।
उनका वर्णन इक्क्षवाकु के काल, राजा हरिशचंद्र के काल, राजा दिलीप के काल में, राजा दशरथ के काल में और महाभारत काल में मिलता है।वही ब्रह्मा जी के मानस पुत्र, मित्रावरुण के पुत्र, अग्नि के पुत्र हैं। इस प्रकार उनका बारह बार प्राकट्य है। 
इक्क्षवाकु वंशी त्रिशुंकी के काल में हुए उन्हें वशिष्ठ देवराज के रूप में जाना गया कहते थे। कार्तवीर्य सहस्रबाहु के समय में हुए उन्हें वशिष्ठ अपव कहते थे। अयोध्या के राजा बाहु के समय में हुए उन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (प्रथम) कहा जाता था। राजा सौदास के समय उन्हें वशिष्ठ श्रेष्ठ भाज कहा गया। सौदास ही आगे जाकर राजा कल्माषपाद कहलाए। राजा दिलीप के समय हुए उन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (द्वितीय) कहा जाता था। भगवान् श्री राम के समय में हुए उन्हें महर्षि वशिष्ठ कहते थे और महाभारत काल में उनको महर्षि पराशर के पिता के रूप में जाना गया। 
उन्होंने जन्म के समय ही ब्रह्मा जी कहा कि उन्हें शरीर त्याग करना है। ब्रह्मा जी ने उन्हें बताया कि भगवान् श्री राम के अवतार काल में उनकी अहम भूमिका उनके गुरु के रूप में होगी तो उन्होने जीवन को स्वीकार कर लिया।वशिष्ठ मैत्रावरुण, वशिष्ठ शक्ति, वशिष्ठ सुवर्चस के रूप में भी उनको जाना जाता है। 
महाराज दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ उनके चारों पुत्रों के गुरु-शिक्षक भी थे। वशिष्ठ जी के कहने पर ही महाराज दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। विश्वामित्र ने इनके 100 पुत्रों को मार दिया था, फिर भी इन्होंने विश्वामित्र को माफ कर दिया। विश्वामित्र की उनके साथ जन्मजात शत्रुता थी। एक समय में तो इन दोनों ने कुक्कुट-मुर्गे के रूप में भी युद्ध किया। विश्वामित्र उनसे स्पर्धा के कारण ही ब्रह्मऋषि बनना चाहते थे। 
ब्रह्मऋषि वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रा-वरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।
उनकी सन्तानों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य अपने कर्मों के आधीन पहचाने जाते हैं। 
महाराज इक्ष्वाकु ने 100 रात्रि का कठोर तप करके भगवान् सूर्य नारायण की सिद्धि प्राप्त थी की और वशिष्ठ जी को अपना गुरु बनाकर उनके उपदेश से अपना पृथक राज्य और राजधानी अयोध्यापुरी स्थिपित कराई और वे प्राय: वहीं रहने लगे। वशिष्‍ठ जी ही पुष्कर में प्रजापति ब्रह्मा के यज्ञ के आचार्य रहे थे।
भगवान् श्री राम के अवतार काल में उन्होंने अयोध्या के राज पुरोहित के पद पर कार्य किया था। उन्होंने ही दशरथ को पुत्रेष्ठि यज्ञ कराया जिसमें गोकर्ण पुरोहित थे। भगवान् श्री राम के जात कर्म, चौल, यज्ञोपवीत, विवाह संस्कार आदि उन्होंने ही सम्पन्न कराये। महाराज श्री राम की राज्याभिषेक की पूरी व्यवस्था इन्हीं के द्वारा सम्पन्न हुई।
महाभारत के काल में वशिष्ठ जी के पुत्र शक्ति मुनि और पौत्र पराशर हुए। महर्षि वेद व्यास उनके प्रपौत्र हैं।
इसके वंश में क्रमश: प्रमुख लोग हुए :- (1). देवराज, (2). आपव, (3). अथर्वनिधि, (4). वारुणि, (5). श्रेष्ठभाज्, (6). सुवर्चस्, (7). शक्ति और (8). मैत्रावरुणि। एक अल्प शाखा भी है, जो जातुकर्ण नाम से है।[वायु, ब्रह्मांड एवं लिंग, मत्स्य पुराण] 
वशिष्ठ वंश के रचित अनेक ग्रन्थ अभी उपलब्ध हैं। जैसे वशिष्ठ संहिता, वशिष्ठ कल्प, वशिष्ठ शिक्षा, वशिष्ठ तंत्र, वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ स्मृति, वशिष्ठ श्राद्ध कल्प, आदि इनमें प्रमुख हैं।
Kak Bhushundi narrated the story of RAM JANM to the saints-sages-Rishi and Muni,  at Shuk Tal, near Meerut in UP-INDIA. He told that all these events were seen by him, happening six times earlier as well, in different Manvantr. He specifically said that the cosmic events are cyclical in nature. In fact, all the events were forecasts, made by Mahrishi Balmiki much before the advent, in the from of Balmiki Ramayan (arrival of Ram). Brahma Ji directed Vashishth Rishi not to reject the embodiment, since he was assigned the task of educating-enlightenment of the incarnation.
काक भुशुण्डी जी ने भगवान् श्री राम के जन्म की इस पावन कथा को ऋषि-मुनियों को शुक ताल पर बारम्बार सुनाया था। उन्होंने यह सब घटना क्रम पहले भी छः कल्पों-मन्वन्तरों में देखा था और इस बात की परीक्षा भी ली थी कि भगवान् विष्णु ने ही साक्षात रामावतार ग्रहण किया था। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि इस प्रकार का घटनाक्रम माला के घूमते हुए बीजों की तरह पुनः-पुनः घटित होता रहता है। जब वशिष्ठ ऋषि ने अपने काया-कलेवर से मुक्ति की प्राप्ति चाहि तो उन्हें ब्रह्मा जी ने यह कहकर रोका कि अभी उनका दायित्व शेष है और उन्हें अपने अवतार काल में भगवान् राम के गुरु का पदभार ग्रहण करना है।
Vashishth's cow :: Vishwamitr with his army arrived at the hermitage of sage Vashishth. The sage welcomed him and offered a huge banquet to the army, that was produced by Sabla-a Kam Dhenu. Vishwamitr asked the sage to part with Sabla and instead offered thousand of ordinary cows, elephants, horses and jewels in return. However, the sage refused to part with Sabla, who was necessary for the performance of the sacred rituals and charity by the sage. Agitated, Vishwamitr seized Sabla by force, but she returned to her master, fighting the king's men. She hinted Vashishth to order her to destroy the king's army and the sage followed her wish. Intensely, she produced Pahlav warriors, who were slain by Vishwamitr's army. So, she produced warriors of Shak-Yavan lineage. From her mouth, emerged the Kambhoj, from her udder Barvaras, from her hind Yavans and Shaks, and from pores on her skin, Harits, Kirats and other foreign warriors. Together, the army of Sabla killed Vishwamitr's army and all his sons. This event led to a great rivalry between Vashishth and Vishwamitr, who renounced his kingdom and became a great sage to defeat Vashishth.
 
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Thursday, December 30, 2021

RAKSHA BANDHAN रक्षा बन्धन

रक्षा बन्धन 
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
रक्षा बन्धन :: श्रावणी, उपाकर्म, ऋषि तर्पण,  वेद स्वाध्याय, यज्ञोपवीत धारण पर्व, वेद जयन्ती।
(1).  श्रावणी :- "श्रावण" शब्द का अर्थ  सुनना और श्रावणी जिसका अर्थ होता है, सुनाये जाने वाली। जिसमें वेदों की वाणी को सुना जाये। वह "श्रावणी" कहलाती है अर्थात् जिसमें निरन्तर वेदों का श्रवण और स्वाध्याय और प्रवचन होता रहे, वह श्रावणी है। इस लिए इस महीने का नाम ही श्रवण -सावन मास है। 
(2). उपाकर्म :- जिसमें ईश्वर और वेद के समीप ले जाने वाले यज्ञ कर्मादि श्रेष्ठ कार्य किये जायें वह "उपाकर्म" कहाता है। यह समय धर्म पुस्तकें पढ़ने का उपकरण था। जनता को ऋषि-मुनियों, समाज के विद्वानों के समीप ले आना।
(3).  ऋषि तर्पण :-  जिस कर्म के द्वारा ऋषि मुनियों का और आचार्य, पुरोहित, पंडित जो विशेषकर वेदों के विद्वान है उनका तर्पण किया जाता है उन्हें यथेष्ट दान देना अर्थात् उनके वचनों को सुनकर उनका सम्मान करना ही ऋषि तर्पण कहाता है।
(4).  वेद स्वाध्याय :- स्वाध्याय (वेदों को पढ़ना)भारत की संस्कृति का प्रधान अंग है। 
श्रावण माह में ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यासी, ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र सभी को वेदों का स्वाध्याय में लगने का आदेश है। 
(5).  यज्ञोपवीत धारण :- इस समय जिन लोगों ने यज्ञोपवीत नहीं धारण किया हुआ है, उन्हें नया यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए अर्थात इस बात का संकल्प करना चाहिए कि वे अज्ञान, अंधकार से बाहर निकलेंगे और और ज्ञानवान होकर परिवार, समाज, राष्ट्र को प्रकाशित करेंगे। जिन लोगों ने यज्ञोपवीत धारण किया हुआ है, उन्हें पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर नया धारण करना चाहिए। अर्थात् इस बात का संकल्प करना चाहिए कि वह अपने जीवन में स्वाध्याय और यज्ञ को कभी नहीं छोडेंगे। विशेषकर यज्ञोपवीत में तीन धागे होते है वे तीन ऋणों के प्रतीक है। ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृ ऋण। मनुष्य को इन तीनों ऋणों का बोध हो और अपना कर्तव्य निभाता रहे यही उद्देश्य है।
(6). रक्षा बन्धन :- रक्षाबंधन का पर्व भारत की संस्कृति से जुड़ा पर्व है। राजपूत काल में अबलाओं द्वारा अपनी रक्षा के लिए वीरों के हाथ में राखी बांधने की परिपाटी का प्रचार हुआ। जिस किसी वीर क्षत्रियों को कोई अबाला राखी भेजकर अपना राखी बंद भाई बना लेती थी वो उसकी रक्षा करना अपना कर्तव्य समझता था। इतिहास में ऐसी बहुत सारी घटनाएं दर्ज है जहां पर भाइयों ने अपने प्राणों की आहुति दे कर बहनों की रक्षा की है। इस दृष्टि से यह त्यौहार भारत की संस्कृति के आध्यात्मिक पथ पर गहरा प्रकाश डालता है।
(7). वेद जयन्ती :- यह दिन इतना पवित्र है कि सृष्टि के आदि में परम् पिता परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषियों को उनकी हृदय बेदी में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान प्रकट कराया और फिर  इन ऋषियों ने ब्रह्मा आदि ऋषियों के सुनाया। इस प्रकार वेद ज्ञान सृष्टि के आदि में जगत प्रसिद्ध हुआ और श्रुति कहलाया।

    
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)

GREAT PERSONALITIES OF INDIA भारत की विभूतियाँ

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भारत की विभूतियाँ
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By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
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रानी रासमणि :: ये कलकत्ता के जमींदार की विधवा थीं। 1,793 से 1,863 तक के जीवन काल में, रानी रास्मणी जी ने अनेकों महान कार्य किये। रानी रासमणि जी कैवर्त जाति की थी, जो आजकल अनुसूचित जाति में सम्मिलित है।
इनके जनसाधारण हेतु महान कार्य :- 
(1). हावड़ा में गँगा नदी पर पुल बनाकर कलकत्ता शहर बसाया। 
(2). अंग्रेजों को ना तो नदी पर टैक्स वसूलने दिया और ना ही दुर्गा पूजा की यात्रा को रोकने दिया।
(3).  कलकत्ता में "दक्षिणेश्वर मंदिर" बनवाया।
(4).  कलकत्ता में गँगा नदी पर बाबू घाट और नीमतला घाट बनवाए। 
(5).  श्रीनगर में "शंकराचार्य मंदिर" का पुनरोद्धार करवाया।
(6).  मथुरा में "श्री कृष्ण जन्मभूमि" की दीवार बनवाई।
(7).  ढाका में मुस्लिम नवाब से 2,000 हिंदुओं की स्वतंत्रता खरीदी।
(8).  रामेश्वरम से श्रीलंका के मंदिरों के लिए "नौका सेवा" आरम्भ करवाई।
(9).  कलकत्ता का "क्रिकेट स्टेडियम" इनके द्वारा दान दी गई भूमि पर बना है। 
(10).  "सुवर्णरेखा नदी" से पुरी तक सड़क बनाई।
(11).  "प्रेसिडेंसी कॉलेज" और "नेशनल लाइब्रेरी" के लिए धन दिया।
गणितज्ञ लीलावती :: उन्होंने बीजगणित की रचना की थी। दसवीं सदी की बात है, दक्षिण भारत में भास्कराचार्य नामक गणित और ज्योतिष विद्या के एक बहुत बड़े पंडित थे। उनकी कन्या का नाम लीलावती था। वही उनकी एकमात्र संतान थी। उन्होंने ज्यो‍तिष की गणना से जान लिया कि वह विवाह के थोड़े दिनों के ही बाद विधवा हो जाएगी।
उन्होंने बहुत कुछ सोचने के बाद ऐसा लग्न खोज निकाला, जिसमें विवाह होने पर कन्या विधवा न हो। विवाह की तिथि निश्चित हो गई। जलघड़ी से ही समय देखने का काम लिया जाता था।
एक बड़े कटोरे में छोटा-सा छेद कर पानी के घड़े में छोड़ दिया जाता था। सूराख के पानी से जब कटोरा भर जाता और पानी में डूब जाता था, तब एक घड़ी होती थी।
पर विधाता का ही सोचा होता है। लीलावती सोलह श्रृंगार किए सजकर बैठी थी, सब लोग उस शुभ लग्न की प्रतीक्षा कर रहे थे कि एक मोती लीलावती के आभूषण से टूटकर कटोरे में गिर पड़ा और सूराख बंद हो गया; शुभ लग्न बीत गया और किसी को पता तक न चला।
विवाह दूसरे लग्न पर ही करना पड़ा। लीलावती विधवा हो गई, पिता और पुत्री के धैर्य का बाँध टूट गया। लीलावती अपने पिता के घर में ही रहने लगी।
पुत्री का वैधव्य-दु:ख दूर करने के लिए भास्कराचार्य ने उसे गणित पढ़ाना प्रारम्भ किया। उसने भी गणित के अध्ययन में ही शेष जीवन की उपयोगिता समझी।
थोड़े ही दिनों में वह उक्त विषय में विदुषी हो गई। पाटी-गणित, बीजगणित और ज्योतिष विषय का एक ग्रंथ सिद्धांत शिरोमणि भास्कराचार्य ने बनाया है। इसमें गणित का अधिकांश भाग लीलावती की रचना है।
पाटी गणित के अंश का नाम ही भास्कराचार्य ने अपनी कन्या को अमर कर देने के लिए लीलावती रखा है।
भास्कराचार्य ने अपनी बेटी लीलावती को गणित सिखाने के लिए गणित के ऐसे सूत्र निकाले थे जो काव्य में होते थे। वे सूत्र कंठस्थ करना होते थे।
उसके बाद उन सूत्रों का उपयोग करके गणित के प्रश्न हल करवाए जाते थे।कंठस्थ करने के पहले भास्कराचार्य लीलावती को सरल भाषा में, धीरे-धीरे समझा देते थे।वे बच्ची को प्यार से संबोधित करते चलते थे, “हिरन जैसे नयनों वाली प्यारी बिटिया लीलावती, ये जो सूत्र हैं"। बेटी को पढ़ाने की इसी शैली का उपयोग करके भास्कराचार्य ने गणित का एक महान ग्रंथ लिखा, उस ग्रंथ का नाम ही उन्होंने लीलावती रख दिया।
आजकल गणित एक शुष्क विषय माना जाता है पर भास्कराचार्य का ग्रंथ लीलावती गणित को भी आनंद के साथ मनोरंजन, जिज्ञासा आदि का सम्मिश्रण करते हुए पढ़ाया जा सकता है। उदाहरण :- 
प्रश्न :: निर्मल कमलों के एक समूह के तृतीयांश, पंचमांश तथा षष्ठमांश से क्रमश: शिव, विष्णु और सूर्य की पूजा की, चतुर्थांश से पार्वती की और शेष छ: कमलों से गुरु चरणों की पूजा की गई।
अये, बाले लीलावती, शीघ्र बता कि उस कमल समूह में कुल कितने फूल थे?
उत्तर :- 120 कमल के फूल।
वर्ग और घन को समझाते हुए भास्कराचार्य कहते हैं, "अये बाले,लीलावती, वर्गाकार क्षेत्र और उसका क्षेत्रफल वर्ग कहलाता है"।
दो समान संख्याओं का गुणन भी वर्ग कहलाता है। इसी प्रकार तीन समान संख्याओं का गुणनफल घन है और बारह कोष्ठों और समान भुजाओं वाला ठोस भी घन है।
मूल शब्द संस्कृत में पेड़ या पौधे की जड़ के अर्थ में या व्यापक रूप में किसी वस्तु के कारण, उद्गम अर्थ में प्रयुक्त होता है।
इसलिए प्राचीन गणित में वर्ग मूल का अर्थ था "वर्ग का कारण या उद्गम अर्थात् वर्ग एक भुजा"।
इसी प्रकार घनमूल का अर्थ भी समझा जा सकता है। वर्ग तथा घनमूल निकालने की अनेक विधियाँ प्रचलित थीं।
सिद्धान्त शिरोमणि के चार भाग हैं :- (1). लीलावती, (2). बीजगणित, (3). ग्रह गणिताध्याय और (4) गोलाध्याय।
लीलावती में बड़े ही सरल और काव्यात्मक तरीके से गणित और खगोल शास्त्र के सूत्रों को समझाया गया है।
अकबर के दरबार के विद्वान फैजी ने सन् 1,587 में लीलावती का फारसी भाषा में अनुवाद किया।
अंग्रेजी में लीलावती का पहला अनुवाद जे. वेलर ने सन् 1,716 में किया।

    
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 संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)

Wednesday, December 29, 2021

भगवान् कार्तिकेय

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निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
भगवान् कार्तिकेय भगवान् शिव और माता पार्वती के सबसे बड़े पुत्र हैं। कार्तिकेय को देवताओं से सदैव युवा रहने का वरदान प्राप्त था। देव-दानव युद्ध में वे देवों के सेनापति थे। देवताओं ने अपना सेनापतित्व उन्हें प्रदान किया। तारकासुर उनके हाथों मारा गया। उनके शस्त्रों में प्रमुख धनुष और भाला हैं। माँ पार्वती द्वारा दी गयी उनकी शक्तियों से परिपूर्ण अस्त्र का नाम वेल है। उनकी सवारी मोर है।
कार्तिकेय-मुरुगन :: भगवान् शिव के पुत्र भगवान् कार्तिकेय को युद्ध और विजय के देवता, देव के सेनापति रूप में जाना जाता है। उन्हें स्कन्द, कुमार, पार्वती नन्दन, शिव सुत, गौरी पुत्र, षडानन आदि नामों से भी जाना जाता है।
भगवान् शिव का वीर्य सरकण्डों के ऊपर गिरा जिससे इनकी उत्पत्ति छ: बालकों के रूप में हुई। इनकी देखभाल कृतिकाओं ने की थी इसलिये इनका नाम कार्तिकेय पड़ा।
ये ऋषि जरत्कारू और राजा नहुष के बहनोई हैं और जरत्कारू और इनकी छोटी बहन मनसा देवी के पुत्र महर्षि आस्तिक के मामा।
छोटे भाई-बहन :- देवी अशोक सुन्दरी, अय्यपा, देवी ज्योति, देवी मनसा और गणपति जी महा राज। 
पत्नियाँ :- देवसेना और वल्ली। देवसेना देवराज इंद्र की पुत्री हैं, जिन्हें छठी माता के नाम से भी जाना जाता है। वल्ली एक आदिवासी राजा की पुत्री हैं।
कार्तिकेय के नाम :: कार्तिकेय, महासेन, शर (सरकंडा) जन्मा, षडानन, पार्वती नन्दन, स्कन्द, सेनानी, अग्निभू, गुह, बाहुलेय, तारकजित्, विशाख, शिखिवाहन, शक्तिश्वर, कुमार, क्रौंचदारण, थिरुचनदूर मुर्गा, देवदेव, विश्वेश, योगेश्वर, शिवात्मज, आदिदेव, विष्णु, महासेन, ईश्वर, परब्रह्म, स्वामिनाथ, अग्निभू, वल्लिवल्लभ, महारुद्र, ज्ञानगम्य, गुहा, सर्वेश्वर, प्रभु, भुतेश, शंकर, शिव, ब्रह्म, शिवसुत।
इनकी पूजा मुख्यत: भारत के दक्षिणी राज्यों और विशेषकर तमिल नाडु में की जाती है। श्री लंका, मलेशिया, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में भी इनके मन्दिर हैं। बातू गुफाएँ जो कि मलेशिया के गोम्बैक जिले में स्थित एक चूना पत्थर की पहाड़ी है, वहाँ, मुरुगन की विश्व में सर्वाधिक ऊँची प्रतिमा स्थित है, जिसकी ऊँचाई 42.7 मीटर (140 फिट) है।
मंत्र ::
ॐ कर्तिकेयाय विद्महे षष्ठीनाथाय: धीमहि तन्नो कार्तिकेय प्रचोदयात्।
भगवान् कार्तिकेय का जन्म :: भगवान् शिव के दिये वरदान के कारण अधर्मी दैत्य तारकासुर अत्यंत शक्तिशाली हो चुका था। वरदान के अनुसार केवल शिव पुत्र ही उसका वध कर सकता था और इसी कारण वह तीनों लोकों में हाहाकार मचा रहा था। इसीलिए सारे देवता भगवान् श्री हरी  विष्णु के पास जा पहुँचे। भगवान् श्री हरी विष्णु ने उन्हें सुझाव दिया की वे कैलाश जाकर भगवान् शिव से पुत्र उत्पन्न करने की विनती करें। भगवान् श्री हरी  विष्णु की बात सुनकर समस्त देवगण जब कैलाश पहुँचे तब उन्हें पता चला कि भगवान् शिव और माता पार्वती तो विवाह के पश्चात से ही देवदारु वन में एकांतवास के लिए जा चुके हैं। विवश व निराश देवता जब देवदारु वन जा पहुँचे तब उन्हें पता चला कि भगवान् शिव  और माता पार्वती वन में एक गुफा में निवास कर रहे हैं। देवताओं ने भगवान् शिव से मदद की गुहार लगाई, किंतु कोई लाभ नहीं हुआ, भोले भंडारी तो कामपाश में बँधकर अपनी अर्धांगिनी के साथ सम्भोग करने में रत थे। उनको जागृत करने के लिए अग्नि देव ने उनकी कामक्रीड़ा में विघ्न उत्पन्न करने की ठान ली। अग्निदेव जब गुफा के द्वार तक पहुँचे तब उन्होंने देखा की शिव शक्ति कामवासना में लीन होकर सहवास में तल्लीन थे, किंतु अग्निदेव के आने की आहट सुनकर वे दोनों सावधान हो गए। सम्भोग के समय परपुरुष को समीप पाकर देवी पार्वती ने लज्जा से अपना सुंदर मुख कमलपुष्प से ढक लिया। देवी का वह रूप लज्जा गौरी के नाम से प्रसिद्द हो गया। कामक्रीड़ा में मग्न शिव जी ने जब अग्निदेव को देखा तब उन्होने भी सम्भोग क्रीड़ा त्यागकर अग्निदेव के समक्ष आना पड़ा। लेकिन इतने में कामातुर शिवजी का अनजाने में ही वीर्यपात हो गया। अग्निदेव ने उस अमोघ वीर्य को कबूतर का रूप धारण करके ग्रहण कर लिया व तारकासुर से बचाने के लिए उसे लेकर जाने लगे। किंतु उस वीर्य का ताप इतना अधिक था की अग्निदेव से भी सहन नहीं हुआ। इस कारण उन्होंने उस अमोघ वीर्य को माँ गंगा को सौंप दिया। जब माँ गँगा उस दिव्य अंश को लेकर जाने लगी तब उसकी शक्ति से गँगा जल उबलने लगा। भयभीत माता गँगा ने उस दिव्य अंश को शरवण-सरकण्डों के वन में लाकर स्थापित कर दिया। किंतु गँगा जल में बहते-बहते वह दिव्य अंश छह भागों में विभाजित हो गया। भगवान् शिव के शरीर से उत्पन्न वीर्य के उन दिव्य अंशों से छह सुन्दर व सुकोमल शिशुओं का जन्म हुआ। उस वन में विहार करती छह कृतिका कन्याओं की दृष्टि जब उन बालकों पर पडी तब उनके मन में उन बालकों के प्रति मातृत्व भाव जागा। और वो सब उन बालकों को लेकर उनको अपना स्तनपान कराने लगी। उसके पश्चात वे सब उन बालकोँ को लेकर कृतिकालोक चली गई व उनका पालन पोषण करने लगीं। जब इन सबके बारे में नारद जी ने भगवान् शिव और माता पार्वती को बताया तब वे दोनों अपने पुत्र से मिलने के लिए व्याकुल हो उठे व कृतिका लोक के लिये चल पड़े। जब माँ पार्वती ने अपने छह पुत्रों को देखा तब वो मातृत्व भाव से भावुक हो उठी और उन्होंने उन बालकों को इतने ज़ोर से गले लगा लिया की वे छह शिशु एक ही शिशु बन गए जिसके छह शीश थे। तत्पश्चात शिव-पार्वती ने कृतिकाओं को सारी कहानी सुनाई और अपने पुत्र को लेकर कैलाश वापस आ गए। कृतिकाओं के द्वारा लालन पालन होने के कारण उस बालक का नाम कार्तिकेय पड़ गया। कार्तिकेय ने बड़ा होकर राक्षस तारकासुर का संहार किया।[स्कंद पुराण]
दक्षिण भारत गमन कथा :- एक बार ऋषि नारद मुनि एक फल लेकर कैलाश गए दोनों गणेश और कार्तिकेय में फल को लेकर बहस हुई, जिस कारण प्रतियोगिता (पृथ्वी के तीन चक्कर लगाने) आयोजित की गयी जिस अनुसार विजेता को फल मिलेगा। जहाँ मुरूगन ने अपने वाहन मयूर से यात्रा शुरू की वहीं गणेश जी ने अपने माँ और पिता के चक्कर लगाकर फल खा लिया, जिस पर मुरूगन क्रोदित होकर कैलाश से दक्षिण भारत की ओर चले गए।
दक्षिण भारत में मन्दिर :- थिरुथनी, पलानी मुरूगन, शिवा सुबरमनीय स्वामी, रत्नागिरी, कुमुरकन्दन, थिरूपोरुर्कंसवामी, स्वामीनाथ स्वामी, थिरुपपरमकुनरम, पज़्हमुदिर्चोलाई, स्वामीमली, तिरुचेंदूर, मरुदमली, वेल्लिमलाई।
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः॥
हे पार्थ! पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति को मेरा स्वरूप समझो। सेनापतियों में कार्तिकेय और जलाशयों में समुद्र मैं हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.24]
The Almighty told Arjun that HE was the priest & adviser of the demigods-deities in the heaven in the form of Brahaspati. HE was the Supreme commander of the army of the demigods-celestial controllers, in the form of Bhagwan Kartikey and amongest the water reservoirs HE was the ocean.
धार्मिक क्रिया कर्म, रीति-रिवाज़, विधि-विधान के श्रेष्ठतम जानकर और देवताओं के मार्ग दर्शक देवगुरु बृहस्पति हैं। वे देवराज के कुल पुरोहित भी हैं। वे हर तरह से राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य से श्रेष्ठ हैं, अतः वे परमात्मा की विभूति हैं। स्कन्द-भगवान् कार्तिकेय भगवान् शिव के पुत्र और देव सेनापति हैं। उनके 6 मुँख और 12 हाथ हैं। वे अद्वितीय और संसार के श्रेष्ठतम सेनापति हैं, अतः प्रभु की विभूति हैं। संसार में जितने भी जलाशय हैं, उन सबमें समुद्र ही श्रेष्ठतम है। अतः वह परमात्मा की विभूति है। पृथ्वी पर बारिश, बर्फ, बादल, नदी, झील आदि का अस्तित्व उसी से है।
Dev Guru Brahaspati (Priest & adviser of demigods) is the Ultimate and enlightened philosopher & guide of the demigods. He is the family priest of Dev Raj Indr, as well. His advise is sought as and when there appear any difficulty-trouble in the heaven. He is much more versatile as compared to Shukrachary, the priest of the demons. He is authority on the traditions, trends, rituals, prayers etc., all over the universe. And hence, he is Ultimate and is a form of the Almighty. Bhagwan Kartikey is the Supreme commander of the army of the deities-demigods. He is blessed with 6 mouths and 12 hands. He is the elder son of Bhagwan Shiv and Maa Parwati-the divine Lords. He is an Ultimate expert of the warfare and hence a form of the Almighty. Ocean is the largest water body-reservoir over the earth and nurture the earth in the form of rains, rivers, lacks, clouds, ice etc. Due to this property, it is the Ultimate form of the God.
    
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xxx बृहस्पति

देव गुरु बृहस्पति
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
इन्हें तीक्ष्ण शृंग भी कहा गया है। धनुष बाण और सोने का परशु इनके हथियार थे और ताम्र रंग के घोड़े इनके रथ में जोते जाते थे। बृहस्पति का अत्यंत पराक्रमी बताया जाता है। इन्द्र को पराजित कर इन्होंने उनसे गायों को छुड़ाया था। युद्ध में अजय होने के कारण योद्धा लोग इनकी प्रार्थना करते थे। ये अत्यंत परोपकारी थे जो शुद्धाचारणवाले व्यक्ति को संकटों से छुड़ाते थे। इन्हें देवराज का गृह पुरोहित भी कहा गया है। इनके बिना यज्ञ-याग सफल नहीं होते।
ये अंगिरा ऋषि की सुरूपा नाम की पत्नी से पैदा हुए थे। तारा और शुभा इनकी दो पत्नियाँ थीं। सोम-चंद्र देव तारा को उठा ले गये। इस पर बृहस्पति और सोम में युद्ध ठन गया। ब्रह्मा जी के हस्तक्षेप करने पर सोम ने बृहस्पति की पत्नी को लौटाया। तारा ने बुध को जन्म दिया जो चंद्रवंशी राजाओं के पूर्वज कहलाये।
इन्होंने अपने भाई की गर्भवती पत्नी का साथ संभोग किया। इसके परिणाम स्वरूप उत्पन्न हुए विरथ नाम के पुत्र को देवराज ने महाराज भारत-कुरु वंश को समर्पित कर दिया।
दुष्यन्त और शकुंतला के पुत्र राजा भरत ने 27,000 साल तक शासन किया। उन्होंने अपने पुत्रों को अपने अनुरूप नहीं पाया तो, अपनी पत्नियों को यह बता दिया। उनकी पत्नियों ने अपने बच्चों को इस डर से मार डाला कि राजा कहीं उनको छोड़ न दें। इस प्रकार सम्राट भरत का कुरु-चन्द्र वंश, वितथ-विच्छिन्न होने लगा। तब उन्होंने सन्तान की प्राप्ति के लिये मरुत्स्तोम नामक यज्ञ किया। देवराज इंद्र और मरुद्गणों ने प्रसन्न होकर उन्हें विरथ नाम का पुत्र लाकर दिया। 
बृहस्पति ने अपने भाई उतथ्य की गर्भवती पत्नी के साथ जबरदस्ती मैथुन किया, जिससे विरथ का जन्म हुआ। बृहस्पति ने उसे अपना औरस और अपने भाई का क्षेत्रज अर्थात दोनों का पुत्र-द्वाज कहा (born out of two fathers) और भाई की पत्नी को उसका भरण-पोषण (भर) करने को कहा। बच्चे को माँ और बाप दोनों ने छोड़ दिया। वो बच्चा विरथ कहलाया। देवताओं के द्वारा नाम का ऐसा निर्वचन होने पर भी माँ, ममता ने ऐसा समझा कि वो विरथ अर्थात अन्याय से पैदा हुआ है। अतः उसके द्वारा भी छोड़ दिए जाने पर मरुद्गणों ने उसका पालन किया। भरत के वंश को बचाने के लिए विरथ को उसे लाकर दिया तो, भरत ने उसे अपना  दत्तक पुत्र स्वीकार किया।[श्री मद्भागवत 9.20.34-39]
Rishi Bhardwaj was the grand son of sage Brahaspati. His father's name was Shanyu (शंयु), who was the son of Dev Guru Brahaspati. Dev Guru Brahaspati was the son of Rishi Angira. Angira, Brahaspati and Bhardwaj are recognised as Trey Rishi. Mahrishi Angira, was the elder son of the creator Bhagwan Brahma. Brahma Ji took birth from the naval Lotus of the Nurturer Bhagwan Vishnu. Bhardwaj is the father of Guru Dronachary and grandfather of Ashwasthama. Dronachary was an incarnation of Dev Guru Brahaspati himself and Ashwatthama is an incarnation of Bhagwan Shiv. Bhardwaj is one of the most exalted Gotr of Brahmns in India.
Dev Guru Brahaspati entered into sexual intercourse with the wife of his younger brother, who already had intercourse with her husband. As a result of this relationship a male child was born, who was protected by the king of heaven, Dev Raj Indr. Bhardwaj literary means :- born out of two fathers. Bhardwaj Rishi and Virath (Bhrdwaj) are two entities. This son was later known as Virath (विरथ) and adopted by the mighty Emperor Bharat, who ruled the earth for 27,000 years. Bharat was the propagator of Chandr-Kuru Vansh clan, born out of the relationship of Dushyant and Shakuntla. One should not be confused with this Bhardwaj, later called Virath with Bhardwaj Rishi, the progenitor, (ancestor, forefather, मूलपुरुष, पुरखा, अग्रगामी, प्रजनक) of Bhardwaj clan. Virath led to the progress of Kuru Vansh, till Mahrishi Ved Vyas led to the birth of Dhrat Rashtr, Pandu and Vidur Ji.
बृहस्पति के संवर्त और उतथ्य नाम के दो भाई थे। संवर्त के साथ बृहस्पति का हमेशा झगड़ा रहता था।[महाभारत]
देवों और दानवों के युद्ध में जब देव पराजित हो गए और दानव देवों को कष्ट देने लगे तो बृहस्पति ने शुक्राचार्य का रूप धारणकर दानवों का मर्दन किया और नास्तिक मत का प्रचार कर उन्हें धर्मभ्रष्ट किया।[पद्मपुराण]
बृहस्पति ने धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र और वास्तुशास्त्र पर ग्रंथ लिखे। आजकल 80 श्लोक प्रमाण उनकी एक स्मृति (बृहस्पति स्मृति) उपलब्ध है।
ये स्वर्ण मुकुट तथा गले में सुंदर माला धारण किये रहते हैं। ये पीले वस्त्र पहने हुए कमल आसन पर आसीन रहते हैं तथा चार हाथों वाले हैं। इनके चार हाथों में स्वर्ण निर्मित दण्ड, रुद्राक्ष माला, पात्र और वरद मुद्रा शोभा पाती है। प्राचीन ऋग्वेद में बताया गया है कि बृहस्पति बहुत सुन्दर हैं। ये सोने से बने महल में निवास करते है। इनका वाहन स्वर्ण निर्मित रथ है, जो सूर्य के समान दीप्तिमान है एवं जिसमें सभी सुख सुविधाएं सम्पन्न हैं। उस रथ में वायु वेग वाले पीतवर्णी आठ घोड़े तत्पर रहते हैं।
देवगुरु बृहस्पति की तीन पत्नियाँ हैं जिनमें से ज्येष्ठ पत्नी का नाम शुभा और कनिष्ठ का तारा या तारका तथा तीसरी का नाम ममता है। शुभा से इनके सात कन्याएं उत्पन्न हुईं हैं, जिनके नाम इस प्रकार से हैं :- भानुमती, राका, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनीवाली और हविष्मती। इसके उपरांत तारका से सात पुत्र और एक कन्या उत्पन्न हुईं। उनकी तीसरी पत्नी से भारद्वाज और कच नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। कच ने ही शुक्राचार्य से मृत सनजीवनी विद्या ग्रहण की।
इनकी एक अन्य पत्नी जौहरा से यहूदियों का प्रादुर्भाव हुआ। बृहस्पति के अधिदेवता इंद्र और प्रत्यधि देवता ब्रह्मा हैं। 
बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र तथा देवताओं के पुरोहित हैं। ये अपने प्रकृष्ट ज्ञान से देवताओं को उनका यज्ञ भाग या हवि प्राप्त करा देते हैं। असुर एवं दैत्य यज्ञ में विघ्न डालकर देवताओं को क्षीण कर हराने का प्रयास करते रहते हैं। इसी का उपाय देवगुरु बृहस्पति रक्षोघ्र मंत्रों का प्रयोग कर देवताओं का पोषण एवं रक्षण करने में करते हैं तथा दैत्यों से देवताओं की रक्षा करते हैं।[महाभारत, आदिपर्व]
देवगुरु बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र और देवताओं के पुरोहित हैं। इन्होंने प्रभास तीर्थ में भगवान् शिव की कठोर तपस्या की थी, जिससे प्रसन्न होकर प्रभु ने उन्हें देवगुरु का पद प्राप्त का वर दिया था। इनका वर्ण पीला है तथा ये पीले वस्त्र धारण करते हैं। यह कमल के आसन पर विराजमान हैं तथा इनके हाथों में क्रमश: दंड, रुद्राक्ष की माला, पात्र और वर मुद्रा है। इनका वाहन रथ है, जो सोने का बना हुआ है और सूर्य के समान प्रकाशमान है। उसमें वायुगति वाले पीले रंग के आठ घोड़े जुते हुए हैं। ये अपने भक्तों पर प्रसन्न होकर उन्हें सम्पत्ति तथा बुद्धि प्रदान करते हैं। 
ये बृहस्पति ग्रह के स्वामी हैं। बृहस्पति प्रत्येक राशि में एक-एक साल तक रहते हैं। वक्रगति होने पर अन्तर आता है। ये मीन और धनु राशि के स्वामी हैं। 
मंत्र :: बृहस्पतये नमः। ॐ गुं गुरुभ्यो नमः। 
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः॥
हे पार्थ! पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति को मेरा स्वरूप समझो। सेनापतियों में कार्तिकेय और जलाशयों में समुद्र मैं हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.24]
The Almighty told Arjun that HE was the priest & adviser of the demigods-deities in the heaven in the form of Brahaspati. HE was the Supreme commander of the army of the demigods-celestial controllers, in the form of Bhagwan Kartikey and amongest the water reservoirs HE was the ocean.
धार्मिक क्रिया कर्म, रीति-रिवाज़, विधि-विधान के श्रेष्ठतम जानकर और देवताओं के मार्ग दर्शक देवगुरु बृहस्पति हैं। वे देवराज के कुल पुरोहित भी हैं। वे हर तरह से राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य से श्रेष्ठ हैं, अतः वे परमात्मा की विभूति हैं। स्कन्द-भगवान् कार्तिकेय भगवान् शिव के पुत्र और देव सेनापति हैं। उनके 6 मुँख और 12 हाथ हैं। वे अद्वितीय और संसार के श्रेष्ठतम सेनापति हैं, अतः प्रभु की विभूति हैं। संसार में जितने भी जलाशय हैं, उन सबमें समुद्र ही श्रेष्ठतम है। अतः वह परमात्मा की विभूति है। पृथ्वी पर बारिश, बर्फ, बादल, नदी, झील आदि का अस्तित्व उसी से है।
Dev Guru Brahspati (Priest & adviser of demigods) is the Ultimate and enlightened philosopher & guide of the demigods. He is the family priest of Dev Raj Indr, as well. His advise is sought as and when there appear any difficulty-trouble in the heaven. He is much more versatile as compared to Shukrachary, the priest of the demons. He is authority on the traditions, trends, rituals, prayers etc., all over the universe. And hence, he is Ultimate and is a form of the Almighty. Bhagwan Kartikey is the Supreme commander of the army of the deities-demigods. He is blessed with 6 mouths and 12 hands. He is the elder son of Bhagwan Shiv and Maa Parwati-the divine Lords. He is an Ultimate expert of the warfare and hence a form of the Almighty. Ocean is the largest water body-reservoir over the earth and nurture the earth in the form of rains, rivers, lacks, clouds, ice etc. Due to this property, it is the Ultimate form of the God.
    
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