Friday, December 31, 2021

XXX राज ऋषि विश्वामित्र

राज ऋषि विश्वामित्र
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
विश्वामित्र अत्रिवंशी ययाति कुल से हैं। उनका स्थान सप्तऋषियों में है। 
वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत।
विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्॥
सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं :- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।[विष्णु पुराण]
कुशिक वंश में  उत्पन्न चन्द्रवंशी महाराज गाधि को सत्यवती नामक एक श्रेष्ठ कन्या हुई। जिसका विवाह मुनि भृगु पुत्र ऋचीक के साथ सम्पन हुआ। ऋचीका ने पति की सेवा की जिससे प्रसन्न उन्होंने अभिमंत्रित चरु सत्यवती को प्रदान करते हुए कहा, "देवि! यह दिव्य चरु दो भागों में विभक्त है। इसके भक्षण से तुम्हें यथेष्ट पुत्र की प्राप्ति होगी। इसका एक भाग तुम ग्रहण करना और दूसरा भाग अपनी माता को दे देना। इससे तुम्हें एक श्रेष्ठ महातपस्वी पुत्र प्राप्त होगा और तुम्हारी माता को क्षत्रिय शक्ति सम्पन्न  तेजस्वी पुत्र होगा"। सत्यवती यह दोनों चरु-भाग प्राप्त कर बड़ी प्रसन्न हुई।
अपनी श्रेष्ठ पत्नी सत्यवती को ऐसा निर्देश देकर महर्षि ऋचीक तपस्या के लिये अरण्य में चले गये इसी समय महाराज गाधि भी तीर्थ दर्शन के प्रसंगवश अपनी कन्या सत्यवती का समाचार जानने आश्रम में आये। इधर सत्यवती ने पति द्वारा प्राप्त चरु के दोनों भाग माता अपनी माँ दे दिये और दैवयोग से माता द्वारा चरु-भक्षण में विपर्यय हो गया। जो भाग सत्यवती को प्राप्त होना था, उसे माता ने ग्रहण कर लिया और जो भाग माता के लिये उद्दिष्ट था, उसे सत्यवती ने ग्रहण कर लिया। ऋषि-निर्मित चरु का प्रभाव अक्षुण्ण था, अमोघ था। चरु के प्रभाव से गाधिपत्नी तथा देवी सत्यवती दोनों में गर्भ के चिह्न स्पष्ट होने लगे।
इधर ऋचीक मुनि ने योग बल से जान लिया कि चरु भक्षण में विपर्यय हो गया है। यह जानकर सत्यवती निराश हो गयीं, परन्तु मुनि ने उन्हें आश्वस्त किया। यथा समय सत्यवती की परम्परा में पुत्र रूप में जमदग्नि पैदा हुए और उन्हीं के पुत्र परशुराम हुए। दूसरी ओर गाधि पत्नी ने चरु के प्रभाव से दिव्य ब्रह्मशक्ति-सम्पन्न महर्षि विश्वामित्र को पुत्र  रूप में प्राप्त किया। 
महर्षि विश्वामित्र के अनेक पुत्र-पौत्र हुए, जिनसे कुशिक वंश विख्यात हुआ। ये गोत्रकार ऋषियों में परिगणित हैं। आज भी सप्तर्षियों में स्थित होकर महर्षि विश्वामित्र जगत के कल्याण में निरत हैं।[पुराण, महाभारत]
उन्होंने ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हेतु तपस्या की। भूख लगने पर चाण्डाल के घर में घुसकर सूअर का माँस चुराकर खाया। राजा हरिश्चन्द्र को परीक्षा के बहाने पीड़ित किया। तपस्या भंगकर शकुन्तला पैदा की। त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेजने का प्रयास किया। गुरु वशिष्ठ से अकारण वैर किया। भगवान् श्री राम और लक्ष्मण जी को लेकर जंगलों में राक्षसों का वध कराया। भगवान् श्री राम  लक्ष्मण को लेकर माता सीता स्वयंवर में गये जहाँ राजा जनक की पुत्रियों का विवाह राजा दशरथ के  सम्पन्न हुआ। एक महान तपस्वी के रूप में उन्होंने ब्रह्मऋषि पद प्राप्ति का सफल प्रयास किया मगर मोक्ष या ईश्वर भक्ति की इच्छा नहीं की।
वशिष्ठ जी के कहने पर ही महाराज दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। विश्वामित्र ने इनके 100 पुत्रों को मार दिया था, फिर भी इन्होंने विश्वामित्र को माफ कर दिया। विश्वामित्र की उनके साथ जन्मजात शत्रुता थी। एक समय में तो इन दोनों ने कुक्कुट-मुर्गे के रूप में भी युद्ध किया। विश्वामित्र उनसे स्पर्धा के कारण ही ब्रह्मऋषि बनना चाहते थे।
वैश्वामित्र मण्डल का वैशिष्ट्य :: वेद की महिमा अनन्त है। विश्वामित्र के द्वारा दृष्ट यह तृतीय मण्डल विशेष महत्त्व का है, क्योंकि इसी तृतीय मण्डल में ब्रह्म गायत्री का जो मूल मन्त्र है, वह उपलब्ध होता है। इस ब्रह्म गायत्री मन्त्र के मुख्य द्रष्टा तथा उपदेष्टा आचार्य महर्षि विश्वामित्र ही हैं। ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के 62वें सूक्त का दसवां मन्त्र 'गायत्री मन्त्र' के नाम से विख्यात है, जो इस प्रकार है :-
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥
गायत्री को वेद माता कहा जाता है। 
ये मन्त्रष्टा ऋषि कहलाते हैं। वेद के दस मण्डलों में तृतीय मण्डल, जिसमें 62 सूक्त हैं, इन सभी सूक्तों के द्रष्टा ऋषि विश्वामित्र ही है। इसीलिये तृतीय मण्डल 'वैश्वामित्र मण्डल' कहलाता है। इस मण्डल में इन्द्र, अदिति, अग्निपूजा, उषा, अश्विनी तथा ऋभु आदि देवताओं की स्तुतियाँ हैं और अनेक ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म आदि की बातें विकृत हैं, अनेक मन्त्रों में गो-महिमा का वर्णन है। तृतीय मण्डल के साथ ही प्रथम, नवम तथा दशम मण्डल की कतिपय ऋचा के दृष्टा विश्वामित्र के मधुच्छन्दा आदि अनेक पुत्र हुए हैं।
 
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xxx ब्रह्मऋषि वशिष्ठ

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ब्रह्मऋषि वशिष्ठ
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By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
उनका स्थान सप्तऋषियों में है। 
वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत।
विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्॥
सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं :- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।[विष्णु पुराण]
महर्षि वशिष्ठ ब्रह्मा जी के पुत्र हैं। ऋग्वेद के मंत्र द्रष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक वशिष्ठ सप्त ऋषियों में से एक हैं। वेद वक्ताओं में वशिष्ठ ऋग्वेद के 7वें मण्डल के प्रणेता हैं तथा 9वें मंडल में भी इनके वंशधरों के अनेक मंत्र हैं।
वशिष्ठ जी की मुख्यत: दो पत्नियाँ हैं। पहली अरुंधती और दूसरी उर्जा। उर्जा प्रजापति दक्ष की तो अरुंधती कर्दम ऋषि की कन्या थी। अतः वे भगवान् शिव के साढू तथा माता सती के बहनोई हैं। उन्होंने ही श्राद्धदेव मनु (वैवस्तवत मनु) को परामर्ष देकर उनका राज्य उनके पुत्रों को बँटवाकर दिलाया था। उनकी पत्नी अरुंधती वैदिक कर्मों में उनकी सहभागिनी हैं।
उनका वर्णन इक्क्षवाकु के काल, राजा हरिशचंद्र के काल, राजा दिलीप के काल में, राजा दशरथ के काल में और महाभारत काल में मिलता है।वही ब्रह्मा जी के मानस पुत्र, मित्रावरुण के पुत्र, अग्नि के पुत्र हैं। इस प्रकार उनका बारह बार प्राकट्य है। 
इक्क्षवाकु वंशी त्रिशुंकी के काल में हुए उन्हें वशिष्ठ देवराज के रूप में जाना गया कहते थे। कार्तवीर्य सहस्रबाहु के समय में हुए उन्हें वशिष्ठ अपव कहते थे। अयोध्या के राजा बाहु के समय में हुए उन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (प्रथम) कहा जाता था। राजा सौदास के समय उन्हें वशिष्ठ श्रेष्ठ भाज कहा गया। सौदास ही आगे जाकर राजा कल्माषपाद कहलाए। राजा दिलीप के समय हुए उन्हें वशिष्ठ अथर्वनिधि (द्वितीय) कहा जाता था। भगवान् श्री राम के समय में हुए उन्हें महर्षि वशिष्ठ कहते थे और महाभारत काल में उनको महर्षि पराशर के पिता के रूप में जाना गया। 
उन्होंने जन्म के समय ही ब्रह्मा जी कहा कि उन्हें शरीर त्याग करना है। ब्रह्मा जी ने उन्हें बताया कि भगवान् श्री राम के अवतार काल में उनकी अहम भूमिका उनके गुरु के रूप में होगी तो उन्होने जीवन को स्वीकार कर लिया।वशिष्ठ मैत्रावरुण, वशिष्ठ शक्ति, वशिष्ठ सुवर्चस के रूप में भी उनको जाना जाता है। 
महाराज दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ उनके चारों पुत्रों के गुरु-शिक्षक भी थे। वशिष्ठ जी के कहने पर ही महाराज दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। विश्वामित्र ने इनके 100 पुत्रों को मार दिया था, फिर भी इन्होंने विश्वामित्र को माफ कर दिया। विश्वामित्र की उनके साथ जन्मजात शत्रुता थी। एक समय में तो इन दोनों ने कुक्कुट-मुर्गे के रूप में भी युद्ध किया। विश्वामित्र उनसे स्पर्धा के कारण ही ब्रह्मऋषि बनना चाहते थे। 
ब्रह्मऋषि वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रा-वरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।
उनकी सन्तानों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य अपने कर्मों के आधीन पहचाने जाते हैं। 
महाराज इक्ष्वाकु ने 100 रात्रि का कठोर तप करके भगवान् सूर्य नारायण की सिद्धि प्राप्त थी की और वशिष्ठ जी को अपना गुरु बनाकर उनके उपदेश से अपना पृथक राज्य और राजधानी अयोध्यापुरी स्थिपित कराई और वे प्राय: वहीं रहने लगे। वशिष्‍ठ जी ही पुष्कर में प्रजापति ब्रह्मा के यज्ञ के आचार्य रहे थे।
भगवान् श्री राम के अवतार काल में उन्होंने अयोध्या के राज पुरोहित के पद पर कार्य किया था। उन्होंने ही दशरथ को पुत्रेष्ठि यज्ञ कराया जिसमें गोकर्ण पुरोहित थे। भगवान् श्री राम के जात कर्म, चौल, यज्ञोपवीत, विवाह संस्कार आदि उन्होंने ही सम्पन्न कराये। महाराज श्री राम की राज्याभिषेक की पूरी व्यवस्था इन्हीं के द्वारा सम्पन्न हुई।
महाभारत के काल में वशिष्ठ जी के पुत्र शक्ति मुनि और पौत्र पराशर हुए। महर्षि वेद व्यास उनके प्रपौत्र हैं।
इसके वंश में क्रमश: प्रमुख लोग हुए :- (1). देवराज, (2). आपव, (3). अथर्वनिधि, (4). वारुणि, (5). श्रेष्ठभाज्, (6). सुवर्चस्, (7). शक्ति और (8). मैत्रावरुणि। एक अल्प शाखा भी है, जो जातुकर्ण नाम से है।[वायु, ब्रह्मांड एवं लिंग, मत्स्य पुराण] 
वशिष्ठ वंश के रचित अनेक ग्रन्थ अभी उपलब्ध हैं। जैसे वशिष्ठ संहिता, वशिष्ठ कल्प, वशिष्ठ शिक्षा, वशिष्ठ तंत्र, वशिष्ठ पुराण, वशिष्ठ स्मृति, वशिष्ठ श्राद्ध कल्प, आदि इनमें प्रमुख हैं।
Kak Bhushundi narrated the story of RAM JANM to the saints-sages-Rishi and Muni,  at Shuk Tal, near Meerut in UP-INDIA. He told that all these events were seen by him, happening six times earlier as well, in different Manvantr. He specifically said that the cosmic events are cyclical in nature. In fact, all the events were forecasts, made by Mahrishi Balmiki much before the advent, in the from of Balmiki Ramayan (arrival of Ram). Brahma Ji directed Vashishth Rishi not to reject the embodiment, since he was assigned the task of educating-enlightenment of the incarnation.
काक भुशुण्डी जी ने भगवान् श्री राम के जन्म की इस पावन कथा को ऋषि-मुनियों को शुक ताल पर बारम्बार सुनाया था। उन्होंने यह सब घटना क्रम पहले भी छः कल्पों-मन्वन्तरों में देखा था और इस बात की परीक्षा भी ली थी कि भगवान् विष्णु ने ही साक्षात रामावतार ग्रहण किया था। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि इस प्रकार का घटनाक्रम माला के घूमते हुए बीजों की तरह पुनः-पुनः घटित होता रहता है। जब वशिष्ठ ऋषि ने अपने काया-कलेवर से मुक्ति की प्राप्ति चाहि तो उन्हें ब्रह्मा जी ने यह कहकर रोका कि अभी उनका दायित्व शेष है और उन्हें अपने अवतार काल में भगवान् राम के गुरु का पदभार ग्रहण करना है।
Vashishth's cow :: Vishwamitr with his army arrived at the hermitage of sage Vashishth. The sage welcomed him and offered a huge banquet to the army, that was produced by Sabla-a Kam Dhenu. Vishwamitr asked the sage to part with Sabla and instead offered thousand of ordinary cows, elephants, horses and jewels in return. However, the sage refused to part with Sabla, who was necessary for the performance of the sacred rituals and charity by the sage. Agitated, Vishwamitr seized Sabla by force, but she returned to her master, fighting the king's men. She hinted Vashishth to order her to destroy the king's army and the sage followed her wish. Intensely, she produced Pahlav warriors, who were slain by Vishwamitr's army. So, she produced warriors of Shak-Yavan lineage. From her mouth, emerged the Kambhoj, from her udder Barvaras, from her hind Yavans and Shaks, and from pores on her skin, Harits, Kirats and other foreign warriors. Together, the army of Sabla killed Vishwamitr's army and all his sons. This event led to a great rivalry between Vashishth and Vishwamitr, who renounced his kingdom and became a great sage to defeat Vashishth.
 
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Thursday, December 30, 2021

RAKSHA BANDHAN रक्षा बन्धन

रक्षा बन्धन 
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
रक्षा बन्धन :: श्रावणी, उपाकर्म, ऋषि तर्पण,  वेद स्वाध्याय, यज्ञोपवीत धारण पर्व, वेद जयन्ती।
(1).  श्रावणी :- "श्रावण" शब्द का अर्थ  सुनना और श्रावणी जिसका अर्थ होता है, सुनाये जाने वाली। जिसमें वेदों की वाणी को सुना जाये। वह "श्रावणी" कहलाती है अर्थात् जिसमें निरन्तर वेदों का श्रवण और स्वाध्याय और प्रवचन होता रहे, वह श्रावणी है। इस लिए इस महीने का नाम ही श्रवण -सावन मास है। 
(2). उपाकर्म :- जिसमें ईश्वर और वेद के समीप ले जाने वाले यज्ञ कर्मादि श्रेष्ठ कार्य किये जायें वह "उपाकर्म" कहाता है। यह समय धर्म पुस्तकें पढ़ने का उपकरण था। जनता को ऋषि-मुनियों, समाज के विद्वानों के समीप ले आना।
(3).  ऋषि तर्पण :-  जिस कर्म के द्वारा ऋषि मुनियों का और आचार्य, पुरोहित, पंडित जो विशेषकर वेदों के विद्वान है उनका तर्पण किया जाता है उन्हें यथेष्ट दान देना अर्थात् उनके वचनों को सुनकर उनका सम्मान करना ही ऋषि तर्पण कहाता है।
(4).  वेद स्वाध्याय :- स्वाध्याय (वेदों को पढ़ना)भारत की संस्कृति का प्रधान अंग है। 
श्रावण माह में ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यासी, ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र सभी को वेदों का स्वाध्याय में लगने का आदेश है। 
(5).  यज्ञोपवीत धारण :- इस समय जिन लोगों ने यज्ञोपवीत नहीं धारण किया हुआ है, उन्हें नया यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए अर्थात इस बात का संकल्प करना चाहिए कि वे अज्ञान, अंधकार से बाहर निकलेंगे और और ज्ञानवान होकर परिवार, समाज, राष्ट्र को प्रकाशित करेंगे। जिन लोगों ने यज्ञोपवीत धारण किया हुआ है, उन्हें पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर नया धारण करना चाहिए। अर्थात् इस बात का संकल्प करना चाहिए कि वह अपने जीवन में स्वाध्याय और यज्ञ को कभी नहीं छोडेंगे। विशेषकर यज्ञोपवीत में तीन धागे होते है वे तीन ऋणों के प्रतीक है। ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृ ऋण। मनुष्य को इन तीनों ऋणों का बोध हो और अपना कर्तव्य निभाता रहे यही उद्देश्य है।
(6). रक्षा बन्धन :- रक्षाबंधन का पर्व भारत की संस्कृति से जुड़ा पर्व है। राजपूत काल में अबलाओं द्वारा अपनी रक्षा के लिए वीरों के हाथ में राखी बांधने की परिपाटी का प्रचार हुआ। जिस किसी वीर क्षत्रियों को कोई अबाला राखी भेजकर अपना राखी बंद भाई बना लेती थी वो उसकी रक्षा करना अपना कर्तव्य समझता था। इतिहास में ऐसी बहुत सारी घटनाएं दर्ज है जहां पर भाइयों ने अपने प्राणों की आहुति दे कर बहनों की रक्षा की है। इस दृष्टि से यह त्यौहार भारत की संस्कृति के आध्यात्मिक पथ पर गहरा प्रकाश डालता है।
(7). वेद जयन्ती :- यह दिन इतना पवित्र है कि सृष्टि के आदि में परम् पिता परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषियों को उनकी हृदय बेदी में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान प्रकट कराया और फिर  इन ऋषियों ने ब्रह्मा आदि ऋषियों के सुनाया। इस प्रकार वेद ज्ञान सृष्टि के आदि में जगत प्रसिद्ध हुआ और श्रुति कहलाया।

    
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)

GREAT PERSONALITIES OF INDIA भारत की विभूतियाँ

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भारत की विभूतियाँ
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By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
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रानी रासमणि :: ये कलकत्ता के जमींदार की विधवा थीं। 1,793 से 1,863 तक के जीवन काल में, रानी रास्मणी जी ने अनेकों महान कार्य किये। रानी रासमणि जी कैवर्त जाति की थी, जो आजकल अनुसूचित जाति में सम्मिलित है।
इनके जनसाधारण हेतु महान कार्य :- 
(1). हावड़ा में गँगा नदी पर पुल बनाकर कलकत्ता शहर बसाया। 
(2). अंग्रेजों को ना तो नदी पर टैक्स वसूलने दिया और ना ही दुर्गा पूजा की यात्रा को रोकने दिया।
(3).  कलकत्ता में "दक्षिणेश्वर मंदिर" बनवाया।
(4).  कलकत्ता में गँगा नदी पर बाबू घाट और नीमतला घाट बनवाए। 
(5).  श्रीनगर में "शंकराचार्य मंदिर" का पुनरोद्धार करवाया।
(6).  मथुरा में "श्री कृष्ण जन्मभूमि" की दीवार बनवाई।
(7).  ढाका में मुस्लिम नवाब से 2,000 हिंदुओं की स्वतंत्रता खरीदी।
(8).  रामेश्वरम से श्रीलंका के मंदिरों के लिए "नौका सेवा" आरम्भ करवाई।
(9).  कलकत्ता का "क्रिकेट स्टेडियम" इनके द्वारा दान दी गई भूमि पर बना है। 
(10).  "सुवर्णरेखा नदी" से पुरी तक सड़क बनाई।
(11).  "प्रेसिडेंसी कॉलेज" और "नेशनल लाइब्रेरी" के लिए धन दिया।
गणितज्ञ लीलावती :: उन्होंने बीजगणित की रचना की थी। दसवीं सदी की बात है, दक्षिण भारत में भास्कराचार्य नामक गणित और ज्योतिष विद्या के एक बहुत बड़े पंडित थे। उनकी कन्या का नाम लीलावती था। वही उनकी एकमात्र संतान थी। उन्होंने ज्यो‍तिष की गणना से जान लिया कि वह विवाह के थोड़े दिनों के ही बाद विधवा हो जाएगी।
उन्होंने बहुत कुछ सोचने के बाद ऐसा लग्न खोज निकाला, जिसमें विवाह होने पर कन्या विधवा न हो। विवाह की तिथि निश्चित हो गई। जलघड़ी से ही समय देखने का काम लिया जाता था।
एक बड़े कटोरे में छोटा-सा छेद कर पानी के घड़े में छोड़ दिया जाता था। सूराख के पानी से जब कटोरा भर जाता और पानी में डूब जाता था, तब एक घड़ी होती थी।
पर विधाता का ही सोचा होता है। लीलावती सोलह श्रृंगार किए सजकर बैठी थी, सब लोग उस शुभ लग्न की प्रतीक्षा कर रहे थे कि एक मोती लीलावती के आभूषण से टूटकर कटोरे में गिर पड़ा और सूराख बंद हो गया; शुभ लग्न बीत गया और किसी को पता तक न चला।
विवाह दूसरे लग्न पर ही करना पड़ा। लीलावती विधवा हो गई, पिता और पुत्री के धैर्य का बाँध टूट गया। लीलावती अपने पिता के घर में ही रहने लगी।
पुत्री का वैधव्य-दु:ख दूर करने के लिए भास्कराचार्य ने उसे गणित पढ़ाना प्रारम्भ किया। उसने भी गणित के अध्ययन में ही शेष जीवन की उपयोगिता समझी।
थोड़े ही दिनों में वह उक्त विषय में विदुषी हो गई। पाटी-गणित, बीजगणित और ज्योतिष विषय का एक ग्रंथ सिद्धांत शिरोमणि भास्कराचार्य ने बनाया है। इसमें गणित का अधिकांश भाग लीलावती की रचना है।
पाटी गणित के अंश का नाम ही भास्कराचार्य ने अपनी कन्या को अमर कर देने के लिए लीलावती रखा है।
भास्कराचार्य ने अपनी बेटी लीलावती को गणित सिखाने के लिए गणित के ऐसे सूत्र निकाले थे जो काव्य में होते थे। वे सूत्र कंठस्थ करना होते थे।
उसके बाद उन सूत्रों का उपयोग करके गणित के प्रश्न हल करवाए जाते थे।कंठस्थ करने के पहले भास्कराचार्य लीलावती को सरल भाषा में, धीरे-धीरे समझा देते थे।वे बच्ची को प्यार से संबोधित करते चलते थे, “हिरन जैसे नयनों वाली प्यारी बिटिया लीलावती, ये जो सूत्र हैं"। बेटी को पढ़ाने की इसी शैली का उपयोग करके भास्कराचार्य ने गणित का एक महान ग्रंथ लिखा, उस ग्रंथ का नाम ही उन्होंने लीलावती रख दिया।
आजकल गणित एक शुष्क विषय माना जाता है पर भास्कराचार्य का ग्रंथ लीलावती गणित को भी आनंद के साथ मनोरंजन, जिज्ञासा आदि का सम्मिश्रण करते हुए पढ़ाया जा सकता है। उदाहरण :- 
प्रश्न :: निर्मल कमलों के एक समूह के तृतीयांश, पंचमांश तथा षष्ठमांश से क्रमश: शिव, विष्णु और सूर्य की पूजा की, चतुर्थांश से पार्वती की और शेष छ: कमलों से गुरु चरणों की पूजा की गई।
अये, बाले लीलावती, शीघ्र बता कि उस कमल समूह में कुल कितने फूल थे?
उत्तर :- 120 कमल के फूल।
वर्ग और घन को समझाते हुए भास्कराचार्य कहते हैं, "अये बाले,लीलावती, वर्गाकार क्षेत्र और उसका क्षेत्रफल वर्ग कहलाता है"।
दो समान संख्याओं का गुणन भी वर्ग कहलाता है। इसी प्रकार तीन समान संख्याओं का गुणनफल घन है और बारह कोष्ठों और समान भुजाओं वाला ठोस भी घन है।
मूल शब्द संस्कृत में पेड़ या पौधे की जड़ के अर्थ में या व्यापक रूप में किसी वस्तु के कारण, उद्गम अर्थ में प्रयुक्त होता है।
इसलिए प्राचीन गणित में वर्ग मूल का अर्थ था "वर्ग का कारण या उद्गम अर्थात् वर्ग एक भुजा"।
इसी प्रकार घनमूल का अर्थ भी समझा जा सकता है। वर्ग तथा घनमूल निकालने की अनेक विधियाँ प्रचलित थीं।
सिद्धान्त शिरोमणि के चार भाग हैं :- (1). लीलावती, (2). बीजगणित, (3). ग्रह गणिताध्याय और (4) गोलाध्याय।
लीलावती में बड़े ही सरल और काव्यात्मक तरीके से गणित और खगोल शास्त्र के सूत्रों को समझाया गया है।
अकबर के दरबार के विद्वान फैजी ने सन् 1,587 में लीलावती का फारसी भाषा में अनुवाद किया।
अंग्रेजी में लीलावती का पहला अनुवाद जे. वेलर ने सन् 1,716 में किया।

    
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 संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)

Wednesday, December 29, 2021

भगवान् कार्तिकेय

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निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
भगवान् कार्तिकेय भगवान् शिव और माता पार्वती के सबसे बड़े पुत्र हैं। कार्तिकेय को देवताओं से सदैव युवा रहने का वरदान प्राप्त था। देव-दानव युद्ध में वे देवों के सेनापति थे। देवताओं ने अपना सेनापतित्व उन्हें प्रदान किया। तारकासुर उनके हाथों मारा गया। उनके शस्त्रों में प्रमुख धनुष और भाला हैं। माँ पार्वती द्वारा दी गयी उनकी शक्तियों से परिपूर्ण अस्त्र का नाम वेल है। उनकी सवारी मोर है।
कार्तिकेय-मुरुगन :: भगवान् शिव के पुत्र भगवान् कार्तिकेय को युद्ध और विजय के देवता, देव के सेनापति रूप में जाना जाता है। उन्हें स्कन्द, कुमार, पार्वती नन्दन, शिव सुत, गौरी पुत्र, षडानन आदि नामों से भी जाना जाता है।
भगवान् शिव का वीर्य सरकण्डों के ऊपर गिरा जिससे इनकी उत्पत्ति छ: बालकों के रूप में हुई। इनकी देखभाल कृतिकाओं ने की थी इसलिये इनका नाम कार्तिकेय पड़ा।
ये ऋषि जरत्कारू और राजा नहुष के बहनोई हैं और जरत्कारू और इनकी छोटी बहन मनसा देवी के पुत्र महर्षि आस्तिक के मामा।
छोटे भाई-बहन :- देवी अशोक सुन्दरी, अय्यपा, देवी ज्योति, देवी मनसा और गणपति जी महा राज। 
पत्नियाँ :- देवसेना और वल्ली। देवसेना देवराज इंद्र की पुत्री हैं, जिन्हें छठी माता के नाम से भी जाना जाता है। वल्ली एक आदिवासी राजा की पुत्री हैं।
कार्तिकेय के नाम :: कार्तिकेय, महासेन, शर (सरकंडा) जन्मा, षडानन, पार्वती नन्दन, स्कन्द, सेनानी, अग्निभू, गुह, बाहुलेय, तारकजित्, विशाख, शिखिवाहन, शक्तिश्वर, कुमार, क्रौंचदारण, थिरुचनदूर मुर्गा, देवदेव, विश्वेश, योगेश्वर, शिवात्मज, आदिदेव, विष्णु, महासेन, ईश्वर, परब्रह्म, स्वामिनाथ, अग्निभू, वल्लिवल्लभ, महारुद्र, ज्ञानगम्य, गुहा, सर्वेश्वर, प्रभु, भुतेश, शंकर, शिव, ब्रह्म, शिवसुत।
इनकी पूजा मुख्यत: भारत के दक्षिणी राज्यों और विशेषकर तमिल नाडु में की जाती है। श्री लंका, मलेशिया, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में भी इनके मन्दिर हैं। बातू गुफाएँ जो कि मलेशिया के गोम्बैक जिले में स्थित एक चूना पत्थर की पहाड़ी है, वहाँ, मुरुगन की विश्व में सर्वाधिक ऊँची प्रतिमा स्थित है, जिसकी ऊँचाई 42.7 मीटर (140 फिट) है।
मंत्र ::
ॐ कर्तिकेयाय विद्महे षष्ठीनाथाय: धीमहि तन्नो कार्तिकेय प्रचोदयात्।
भगवान् कार्तिकेय का जन्म :: भगवान् शिव के दिये वरदान के कारण अधर्मी दैत्य तारकासुर अत्यंत शक्तिशाली हो चुका था। वरदान के अनुसार केवल शिव पुत्र ही उसका वध कर सकता था और इसी कारण वह तीनों लोकों में हाहाकार मचा रहा था। इसीलिए सारे देवता भगवान् श्री हरी  विष्णु के पास जा पहुँचे। भगवान् श्री हरी विष्णु ने उन्हें सुझाव दिया की वे कैलाश जाकर भगवान् शिव से पुत्र उत्पन्न करने की विनती करें। भगवान् श्री हरी  विष्णु की बात सुनकर समस्त देवगण जब कैलाश पहुँचे तब उन्हें पता चला कि भगवान् शिव और माता पार्वती तो विवाह के पश्चात से ही देवदारु वन में एकांतवास के लिए जा चुके हैं। विवश व निराश देवता जब देवदारु वन जा पहुँचे तब उन्हें पता चला कि भगवान् शिव  और माता पार्वती वन में एक गुफा में निवास कर रहे हैं। देवताओं ने भगवान् शिव से मदद की गुहार लगाई, किंतु कोई लाभ नहीं हुआ, भोले भंडारी तो कामपाश में बँधकर अपनी अर्धांगिनी के साथ सम्भोग करने में रत थे। उनको जागृत करने के लिए अग्नि देव ने उनकी कामक्रीड़ा में विघ्न उत्पन्न करने की ठान ली। अग्निदेव जब गुफा के द्वार तक पहुँचे तब उन्होंने देखा की शिव शक्ति कामवासना में लीन होकर सहवास में तल्लीन थे, किंतु अग्निदेव के आने की आहट सुनकर वे दोनों सावधान हो गए। सम्भोग के समय परपुरुष को समीप पाकर देवी पार्वती ने लज्जा से अपना सुंदर मुख कमलपुष्प से ढक लिया। देवी का वह रूप लज्जा गौरी के नाम से प्रसिद्द हो गया। कामक्रीड़ा में मग्न शिव जी ने जब अग्निदेव को देखा तब उन्होने भी सम्भोग क्रीड़ा त्यागकर अग्निदेव के समक्ष आना पड़ा। लेकिन इतने में कामातुर शिवजी का अनजाने में ही वीर्यपात हो गया। अग्निदेव ने उस अमोघ वीर्य को कबूतर का रूप धारण करके ग्रहण कर लिया व तारकासुर से बचाने के लिए उसे लेकर जाने लगे। किंतु उस वीर्य का ताप इतना अधिक था की अग्निदेव से भी सहन नहीं हुआ। इस कारण उन्होंने उस अमोघ वीर्य को माँ गंगा को सौंप दिया। जब माँ गँगा उस दिव्य अंश को लेकर जाने लगी तब उसकी शक्ति से गँगा जल उबलने लगा। भयभीत माता गँगा ने उस दिव्य अंश को शरवण-सरकण्डों के वन में लाकर स्थापित कर दिया। किंतु गँगा जल में बहते-बहते वह दिव्य अंश छह भागों में विभाजित हो गया। भगवान् शिव के शरीर से उत्पन्न वीर्य के उन दिव्य अंशों से छह सुन्दर व सुकोमल शिशुओं का जन्म हुआ। उस वन में विहार करती छह कृतिका कन्याओं की दृष्टि जब उन बालकों पर पडी तब उनके मन में उन बालकों के प्रति मातृत्व भाव जागा। और वो सब उन बालकों को लेकर उनको अपना स्तनपान कराने लगी। उसके पश्चात वे सब उन बालकोँ को लेकर कृतिकालोक चली गई व उनका पालन पोषण करने लगीं। जब इन सबके बारे में नारद जी ने भगवान् शिव और माता पार्वती को बताया तब वे दोनों अपने पुत्र से मिलने के लिए व्याकुल हो उठे व कृतिका लोक के लिये चल पड़े। जब माँ पार्वती ने अपने छह पुत्रों को देखा तब वो मातृत्व भाव से भावुक हो उठी और उन्होंने उन बालकों को इतने ज़ोर से गले लगा लिया की वे छह शिशु एक ही शिशु बन गए जिसके छह शीश थे। तत्पश्चात शिव-पार्वती ने कृतिकाओं को सारी कहानी सुनाई और अपने पुत्र को लेकर कैलाश वापस आ गए। कृतिकाओं के द्वारा लालन पालन होने के कारण उस बालक का नाम कार्तिकेय पड़ गया। कार्तिकेय ने बड़ा होकर राक्षस तारकासुर का संहार किया।[स्कंद पुराण]
दक्षिण भारत गमन कथा :- एक बार ऋषि नारद मुनि एक फल लेकर कैलाश गए दोनों गणेश और कार्तिकेय में फल को लेकर बहस हुई, जिस कारण प्रतियोगिता (पृथ्वी के तीन चक्कर लगाने) आयोजित की गयी जिस अनुसार विजेता को फल मिलेगा। जहाँ मुरूगन ने अपने वाहन मयूर से यात्रा शुरू की वहीं गणेश जी ने अपने माँ और पिता के चक्कर लगाकर फल खा लिया, जिस पर मुरूगन क्रोदित होकर कैलाश से दक्षिण भारत की ओर चले गए।
दक्षिण भारत में मन्दिर :- थिरुथनी, पलानी मुरूगन, शिवा सुबरमनीय स्वामी, रत्नागिरी, कुमुरकन्दन, थिरूपोरुर्कंसवामी, स्वामीनाथ स्वामी, थिरुपपरमकुनरम, पज़्हमुदिर्चोलाई, स्वामीमली, तिरुचेंदूर, मरुदमली, वेल्लिमलाई।
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः॥
हे पार्थ! पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति को मेरा स्वरूप समझो। सेनापतियों में कार्तिकेय और जलाशयों में समुद्र मैं हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.24]
The Almighty told Arjun that HE was the priest & adviser of the demigods-deities in the heaven in the form of Brahaspati. HE was the Supreme commander of the army of the demigods-celestial controllers, in the form of Bhagwan Kartikey and amongest the water reservoirs HE was the ocean.
धार्मिक क्रिया कर्म, रीति-रिवाज़, विधि-विधान के श्रेष्ठतम जानकर और देवताओं के मार्ग दर्शक देवगुरु बृहस्पति हैं। वे देवराज के कुल पुरोहित भी हैं। वे हर तरह से राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य से श्रेष्ठ हैं, अतः वे परमात्मा की विभूति हैं। स्कन्द-भगवान् कार्तिकेय भगवान् शिव के पुत्र और देव सेनापति हैं। उनके 6 मुँख और 12 हाथ हैं। वे अद्वितीय और संसार के श्रेष्ठतम सेनापति हैं, अतः प्रभु की विभूति हैं। संसार में जितने भी जलाशय हैं, उन सबमें समुद्र ही श्रेष्ठतम है। अतः वह परमात्मा की विभूति है। पृथ्वी पर बारिश, बर्फ, बादल, नदी, झील आदि का अस्तित्व उसी से है।
Dev Guru Brahaspati (Priest & adviser of demigods) is the Ultimate and enlightened philosopher & guide of the demigods. He is the family priest of Dev Raj Indr, as well. His advise is sought as and when there appear any difficulty-trouble in the heaven. He is much more versatile as compared to Shukrachary, the priest of the demons. He is authority on the traditions, trends, rituals, prayers etc., all over the universe. And hence, he is Ultimate and is a form of the Almighty. Bhagwan Kartikey is the Supreme commander of the army of the deities-demigods. He is blessed with 6 mouths and 12 hands. He is the elder son of Bhagwan Shiv and Maa Parwati-the divine Lords. He is an Ultimate expert of the warfare and hence a form of the Almighty. Ocean is the largest water body-reservoir over the earth and nurture the earth in the form of rains, rivers, lacks, clouds, ice etc. Due to this property, it is the Ultimate form of the God.
    
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xxx बृहस्पति

देव गुरु बृहस्पति
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
इन्हें तीक्ष्ण शृंग भी कहा गया है। धनुष बाण और सोने का परशु इनके हथियार थे और ताम्र रंग के घोड़े इनके रथ में जोते जाते थे। बृहस्पति का अत्यंत पराक्रमी बताया जाता है। इन्द्र को पराजित कर इन्होंने उनसे गायों को छुड़ाया था। युद्ध में अजय होने के कारण योद्धा लोग इनकी प्रार्थना करते थे। ये अत्यंत परोपकारी थे जो शुद्धाचारणवाले व्यक्ति को संकटों से छुड़ाते थे। इन्हें देवराज का गृह पुरोहित भी कहा गया है। इनके बिना यज्ञ-याग सफल नहीं होते।
ये अंगिरा ऋषि की सुरूपा नाम की पत्नी से पैदा हुए थे। तारा और शुभा इनकी दो पत्नियाँ थीं। सोम-चंद्र देव तारा को उठा ले गये। इस पर बृहस्पति और सोम में युद्ध ठन गया। ब्रह्मा जी के हस्तक्षेप करने पर सोम ने बृहस्पति की पत्नी को लौटाया। तारा ने बुध को जन्म दिया जो चंद्रवंशी राजाओं के पूर्वज कहलाये।
इन्होंने अपने भाई की गर्भवती पत्नी का साथ संभोग किया। इसके परिणाम स्वरूप उत्पन्न हुए विरथ नाम के पुत्र को देवराज ने महाराज भारत-कुरु वंश को समर्पित कर दिया।
दुष्यन्त और शकुंतला के पुत्र राजा भरत ने 27,000 साल तक शासन किया। उन्होंने अपने पुत्रों को अपने अनुरूप नहीं पाया तो, अपनी पत्नियों को यह बता दिया। उनकी पत्नियों ने अपने बच्चों को इस डर से मार डाला कि राजा कहीं उनको छोड़ न दें। इस प्रकार सम्राट भरत का कुरु-चन्द्र वंश, वितथ-विच्छिन्न होने लगा। तब उन्होंने सन्तान की प्राप्ति के लिये मरुत्स्तोम नामक यज्ञ किया। देवराज इंद्र और मरुद्गणों ने प्रसन्न होकर उन्हें विरथ नाम का पुत्र लाकर दिया। 
बृहस्पति ने अपने भाई उतथ्य की गर्भवती पत्नी के साथ जबरदस्ती मैथुन किया, जिससे विरथ का जन्म हुआ। बृहस्पति ने उसे अपना औरस और अपने भाई का क्षेत्रज अर्थात दोनों का पुत्र-द्वाज कहा (born out of two fathers) और भाई की पत्नी को उसका भरण-पोषण (भर) करने को कहा। बच्चे को माँ और बाप दोनों ने छोड़ दिया। वो बच्चा विरथ कहलाया। देवताओं के द्वारा नाम का ऐसा निर्वचन होने पर भी माँ, ममता ने ऐसा समझा कि वो विरथ अर्थात अन्याय से पैदा हुआ है। अतः उसके द्वारा भी छोड़ दिए जाने पर मरुद्गणों ने उसका पालन किया। भरत के वंश को बचाने के लिए विरथ को उसे लाकर दिया तो, भरत ने उसे अपना  दत्तक पुत्र स्वीकार किया।[श्री मद्भागवत 9.20.34-39]
Rishi Bhardwaj was the grand son of sage Brahaspati. His father's name was Shanyu (शंयु), who was the son of Dev Guru Brahaspati. Dev Guru Brahaspati was the son of Rishi Angira. Angira, Brahaspati and Bhardwaj are recognised as Trey Rishi. Mahrishi Angira, was the elder son of the creator Bhagwan Brahma. Brahma Ji took birth from the naval Lotus of the Nurturer Bhagwan Vishnu. Bhardwaj is the father of Guru Dronachary and grandfather of Ashwasthama. Dronachary was an incarnation of Dev Guru Brahaspati himself and Ashwatthama is an incarnation of Bhagwan Shiv. Bhardwaj is one of the most exalted Gotr of Brahmns in India.
Dev Guru Brahaspati entered into sexual intercourse with the wife of his younger brother, who already had intercourse with her husband. As a result of this relationship a male child was born, who was protected by the king of heaven, Dev Raj Indr. Bhardwaj literary means :- born out of two fathers. Bhardwaj Rishi and Virath (Bhrdwaj) are two entities. This son was later known as Virath (विरथ) and adopted by the mighty Emperor Bharat, who ruled the earth for 27,000 years. Bharat was the propagator of Chandr-Kuru Vansh clan, born out of the relationship of Dushyant and Shakuntla. One should not be confused with this Bhardwaj, later called Virath with Bhardwaj Rishi, the progenitor, (ancestor, forefather, मूलपुरुष, पुरखा, अग्रगामी, प्रजनक) of Bhardwaj clan. Virath led to the progress of Kuru Vansh, till Mahrishi Ved Vyas led to the birth of Dhrat Rashtr, Pandu and Vidur Ji.
बृहस्पति के संवर्त और उतथ्य नाम के दो भाई थे। संवर्त के साथ बृहस्पति का हमेशा झगड़ा रहता था।[महाभारत]
देवों और दानवों के युद्ध में जब देव पराजित हो गए और दानव देवों को कष्ट देने लगे तो बृहस्पति ने शुक्राचार्य का रूप धारणकर दानवों का मर्दन किया और नास्तिक मत का प्रचार कर उन्हें धर्मभ्रष्ट किया।[पद्मपुराण]
बृहस्पति ने धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र और वास्तुशास्त्र पर ग्रंथ लिखे। आजकल 80 श्लोक प्रमाण उनकी एक स्मृति (बृहस्पति स्मृति) उपलब्ध है।
ये स्वर्ण मुकुट तथा गले में सुंदर माला धारण किये रहते हैं। ये पीले वस्त्र पहने हुए कमल आसन पर आसीन रहते हैं तथा चार हाथों वाले हैं। इनके चार हाथों में स्वर्ण निर्मित दण्ड, रुद्राक्ष माला, पात्र और वरद मुद्रा शोभा पाती है। प्राचीन ऋग्वेद में बताया गया है कि बृहस्पति बहुत सुन्दर हैं। ये सोने से बने महल में निवास करते है। इनका वाहन स्वर्ण निर्मित रथ है, जो सूर्य के समान दीप्तिमान है एवं जिसमें सभी सुख सुविधाएं सम्पन्न हैं। उस रथ में वायु वेग वाले पीतवर्णी आठ घोड़े तत्पर रहते हैं।
देवगुरु बृहस्पति की तीन पत्नियाँ हैं जिनमें से ज्येष्ठ पत्नी का नाम शुभा और कनिष्ठ का तारा या तारका तथा तीसरी का नाम ममता है। शुभा से इनके सात कन्याएं उत्पन्न हुईं हैं, जिनके नाम इस प्रकार से हैं :- भानुमती, राका, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनीवाली और हविष्मती। इसके उपरांत तारका से सात पुत्र और एक कन्या उत्पन्न हुईं। उनकी तीसरी पत्नी से भारद्वाज और कच नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। कच ने ही शुक्राचार्य से मृत सनजीवनी विद्या ग्रहण की।
इनकी एक अन्य पत्नी जौहरा से यहूदियों का प्रादुर्भाव हुआ। बृहस्पति के अधिदेवता इंद्र और प्रत्यधि देवता ब्रह्मा हैं। 
बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र तथा देवताओं के पुरोहित हैं। ये अपने प्रकृष्ट ज्ञान से देवताओं को उनका यज्ञ भाग या हवि प्राप्त करा देते हैं। असुर एवं दैत्य यज्ञ में विघ्न डालकर देवताओं को क्षीण कर हराने का प्रयास करते रहते हैं। इसी का उपाय देवगुरु बृहस्पति रक्षोघ्र मंत्रों का प्रयोग कर देवताओं का पोषण एवं रक्षण करने में करते हैं तथा दैत्यों से देवताओं की रक्षा करते हैं।[महाभारत, आदिपर्व]
देवगुरु बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र और देवताओं के पुरोहित हैं। इन्होंने प्रभास तीर्थ में भगवान् शिव की कठोर तपस्या की थी, जिससे प्रसन्न होकर प्रभु ने उन्हें देवगुरु का पद प्राप्त का वर दिया था। इनका वर्ण पीला है तथा ये पीले वस्त्र धारण करते हैं। यह कमल के आसन पर विराजमान हैं तथा इनके हाथों में क्रमश: दंड, रुद्राक्ष की माला, पात्र और वर मुद्रा है। इनका वाहन रथ है, जो सोने का बना हुआ है और सूर्य के समान प्रकाशमान है। उसमें वायुगति वाले पीले रंग के आठ घोड़े जुते हुए हैं। ये अपने भक्तों पर प्रसन्न होकर उन्हें सम्पत्ति तथा बुद्धि प्रदान करते हैं। 
ये बृहस्पति ग्रह के स्वामी हैं। बृहस्पति प्रत्येक राशि में एक-एक साल तक रहते हैं। वक्रगति होने पर अन्तर आता है। ये मीन और धनु राशि के स्वामी हैं। 
मंत्र :: बृहस्पतये नमः। ॐ गुं गुरुभ्यो नमः। 
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः॥
हे पार्थ! पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति को मेरा स्वरूप समझो। सेनापतियों में कार्तिकेय और जलाशयों में समुद्र मैं हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.24]
The Almighty told Arjun that HE was the priest & adviser of the demigods-deities in the heaven in the form of Brahaspati. HE was the Supreme commander of the army of the demigods-celestial controllers, in the form of Bhagwan Kartikey and amongest the water reservoirs HE was the ocean.
धार्मिक क्रिया कर्म, रीति-रिवाज़, विधि-विधान के श्रेष्ठतम जानकर और देवताओं के मार्ग दर्शक देवगुरु बृहस्पति हैं। वे देवराज के कुल पुरोहित भी हैं। वे हर तरह से राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य से श्रेष्ठ हैं, अतः वे परमात्मा की विभूति हैं। स्कन्द-भगवान् कार्तिकेय भगवान् शिव के पुत्र और देव सेनापति हैं। उनके 6 मुँख और 12 हाथ हैं। वे अद्वितीय और संसार के श्रेष्ठतम सेनापति हैं, अतः प्रभु की विभूति हैं। संसार में जितने भी जलाशय हैं, उन सबमें समुद्र ही श्रेष्ठतम है। अतः वह परमात्मा की विभूति है। पृथ्वी पर बारिश, बर्फ, बादल, नदी, झील आदि का अस्तित्व उसी से है।
Dev Guru Brahspati (Priest & adviser of demigods) is the Ultimate and enlightened philosopher & guide of the demigods. He is the family priest of Dev Raj Indr, as well. His advise is sought as and when there appear any difficulty-trouble in the heaven. He is much more versatile as compared to Shukrachary, the priest of the demons. He is authority on the traditions, trends, rituals, prayers etc., all over the universe. And hence, he is Ultimate and is a form of the Almighty. Bhagwan Kartikey is the Supreme commander of the army of the deities-demigods. He is blessed with 6 mouths and 12 hands. He is the elder son of Bhagwan Shiv and Maa Parwati-the divine Lords. He is an Ultimate expert of the warfare and hence a form of the Almighty. Ocean is the largest water body-reservoir over the earth and nurture the earth in the form of rains, rivers, lacks, clouds, ice etc. Due to this property, it is the Ultimate form of the God.
    
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Sunday, September 19, 2021

FIGHT FOR FREEDOM आज़ादी की लड़ाई

आज़ादी की लड़ाई
FIGHT FOR FREEDOM
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
Swadeshi Andolan led to closing down of British cotton mills and Spinning mills of Yorkshire & Lancashire. The trading floors of the cotton exchange in Manchester experienced deep trouble. The labourers had no job. Britain had experienced a big jolt due to this.
After bearing multiple burdens of World War II (1,939 to 1,945), Great Britain was totally drained of its resources and finances. Revenue accruing from other countries under British rule was grossly inadequate. Revenue from India was zero, because the Britishers had already squeezed, looted, plundered and bled India for 2 centuries. India was now a liability as Britain had to spend from their meagre treasury to govern India.
The British government then decided to get rid of the liability called India, simply by setting it free. They made the formal announcement in early 1,947.
Jinnah made up his mind to carve a separate Muslim state out of the British Indian empire and Nehru was in full agreement. Gandhi was against partition and he repeatedly urged both Jinnah and Nehru to reconsider, but to no avail.
FREEDOM FIGHTERS
Initially the freedom struggle started from 1,857. Millions of Hindus sacrificed their lives. Majority of them remain unnoticed. The British selected the weakest of them all to transfer power in 1947. They divided India and created Pakistan. Again millions of Hindus were killed in India and Pakistan. Gandhi begun fast as soon as Hindus retaliated but remained silent our their slaughter. He did this earlier as when Hindus were butchered in Bangal. He always supported Muslims, specially Nehru who used Pandit as surname, with his name to befool innocent Hindus, though a Muslim.
आजादी के पूर्व के दिनों में भारतीयों को ब्रिटिश अधिकारियों के कार्यालय
में प्रतीक्षा करते समय कुर्सी पर बैठने की अनुमति नहीं थी।
Prior to British, the Muslims killed millions of Hindus and compelled them to convert to Islam. The British did convert Hindus to Christianity. The game of conversion is still on. The converts are enjoying the benefits of reservation, a curse on Sawarn Hindus.











 

 

 






 

 

 

 

 

 

 

आज़ादी की लड़ाई :: रानी लक्ष्मीबाई से लेकर नेता जी सुभाषचंद्र बोस तक, 90 साल लंबे स्वतन्त्रता संग्राम में चंद्रशेखर आज़ाद भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव, रोशन सिंह, बिस्मिल अशफ़ाकउल्लाह सरीखे असंख्य अमर बलिदानियों समेत लगभग 7 लाख हिन्दुस्तानियों ने अंग्रेजों की बंदूकों की गोली खा कर या फांसी के फंदे को चूमकर अपने प्राणों का बलिदान दिया। 
रानी लक्ष्मीबाई
उन 7 लाख बलिदानियों में एक भी कांग्रेसी नेता शामिल नहीं था। लेकिन आज़ादी के बाद 67 सालों तक इस देश की कई पीढ़ियों को लगातार यह पढ़ाया, रटाया गया, "दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल"! 
रानी लक्ष्मीबाई, से लेकर नेता जी सुभाषचंद्र बोस तक जिन 7 लाख बलिदानियों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया, क्या अंग्रेजों से वो बिना खड्ग, बिना ढाल के लड़ रहे थे!?
नेताजी सुभाषचंद्र बोस और उनकी जिस आज़ाद हिंद फौज को केवल सारा देश ही नहीं पूरी दुनिया जानती है, उनकी वह फौज चरखा नहीं चलाती थी। सूत नहीं कातती थी। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में अमर बलिदानी चंद्रशेखर आज़ाद जितने प्रसिद्ध हैं, उतना ही प्रसिद्ध उनका माउज़र भी है। भगतसिंह, उधम सिंह और मदनलाल ढींगरा ने अंग्रेज आतातायियों की खोपड़ी पर चरखा और सूत की गठरी पटक कर उनको मौत के घाट नहीं उतारा था। उन्हें परलोक पहुँचाने का पुण्य भगतसिंह, उधम सिंह और मदनलाल ढींगरा की पिस्तौलों से बरसी बारूद के धमाकों ने किया था। अतः पूरे देश की आँखों में 67 साल तक सफेद झूठ की यह धूल क्यों झोंकी गयी, "दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल"! किसी भी आज़ाद देश की आज़ाद सरकार अपने देश, अपने देशवासियों के साथ ऐसा छल फरेब, ऐसी धोखाधड़ी नहीं करती है। 
किसी देश को आज़ादी मिलने के बाद उस देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी किसी व्यक्ति को भीख में नहीं दी जाती। लेकिन यह सर्वज्ञात तथ्य है कि नेहरू को वह कुर्सी भीख में ही दी गयी थी। तत्कालीन कांग्रेस की सभी 15 राज्य कमेटियों में से 12 राज्य कमेटियों ने 25 अप्रैल 1,946 को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में नेहरू नहीं सरदार पटेल के नाम का प्रस्ताव रखा था। शेष तीन राज्य कमेटियों ने किसी भी नाम का प्रस्ताव नहीं रखा था। लेकिन मोहनदास करमचंद गाँधी ने कितने शातिर हथकंडों दांवपेंचों के द्वारा नेहरू को प्रधानमंत्री का पद भीख में दे दिया था, इसका विस्तार से वर्णन 25 अप्रैल 1,946 को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की उस बैठक में उपस्थित रहे आचार्य जेबी कृपलानी ने अपनी किताब "गांधी हिज लाइफ एंड थॉट्स" में तथा मौलाना आज़ाद ने अपने किताब "इंडिया विंस फ्रीडम" में किया है। 
25 अप्रैल 1,946 को कांग्रेस कार्यसमिति की वह बैठक जब हुई थी उस समय कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना आज़ाद ही था। 15 अगस्त 1,947 को देश जब आज़ाद हुआ था उस समय कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी आचार्य जेबी कृपलानी के ही पास थी। 
किसी आज़ाद देश की आज़ाद सरकार का प्रधानमंत्री देश की आज़ादी की लड़ाई में अपने प्राणों का बलिदान करने वाले नेता जी सुभाष चन्द्र बोस, चन्द्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह सरीखे ज्ञात अज्ञात 7 लाख बलिदानियों की उपेक्षा तिरस्कार अपमान नहीं करता है। उन बलिदानियों के बजाय देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान "भारत रत्न" से खुद को खुद ही सम्मानित नहीं करता। लेकिन नेहरू ने यही कुकर्म किया था। 
किसी आज़ाद देश की आज़ाद सरकार के शासनकाल में विश्वविख्यात क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद की बेसहारा विधवा माँ जगरानी देवी, जंगलों में लकड़ियाँ बीन कर, गोबर के उपले बनाकर बेच के अपना पेट भरने को मजबूर नहीं होती। अमर शहीद ऊधम सिंह का पौत्र अपनी दो वक्त की रोटी के लिए अपने सिर पर ईंटें ढोने की मजदूरी करने के लिए मजबूर नहीं होता। लेकिन नेहरू के शासनकाल में यह जघन्य पाप हुआ। लगातार 3 सालों तक यह पाप हुआ, तब तक हुआ जब तक कि जगरानी देवी जी की 1,950 में मृत्यु नहीं हो गयी। शहीद ऊधम सिंह का पौत्र तो कांग्रेस शासनकाल में भी सिर पर ईंटें ढोने की मजदूरी ही कर रहा था। 
जिसकी बहन आज़ादी की लड़ाई में जेल जाने का ढोंग कर के जेल के सुपरिंटेंडेंट के साथ उसकी कार में बैठकर अंग्रेज़ी फिल्में देखने के लिए सिनेमा हॉल जाया करती थी। अपनी उस बहन को किसी आज़ाद देश की आज़ाद सरकार का प्रधानमंत्री भारत का हाईकमिश्नर, राजदूत बनाकर लंदन मॉस्को वाशिंगटन समेत दुनिया के कई देशों में सम्मानित कराने का पाप नहीं करता। लेकिन नेहरू ने आज़ादी की लड़ाई के नाम पर देश के साथ यह घृणित दगाबाजी करने वाली अपनी उस बहन के लिए देश के साथ यह पाप किया था। किसी आज़ाद देश की आज़ाद सरकार का प्रधानमंत्री क्या सरकारी खजाने से करोड़ों की रकम खर्च कर के अपनी माँ के नाम पर मेडिकल कॉलेज समेत दर्जनों संस्थान बनवाता है? नेहरू ने ऐसा ही किया। लेकिन उसी नेहरू के शासनकाल में अमर बलिदानी चन्द्रशेखर आज़ाद की माँ की 2 फुट की प्रतिमा अपने पैसों से लगाने की कोशिश जब कुछ देशभक्तों ने की तो उसी प्रधानमंत्री नेहरू की सरकार ने पुलिस की गोलियों की बरसात कर के तीन देशभक्तों को मौत के घाट उतरवा दिया, दर्जनों को अधमरा कर के अस्पताल भिजवा दिया। आज़ादी मिलने के बाद यह सरकारी पाप हुआ। खुलेआम बेखौफ हुआ। नेहरू एक ऐसा शख्स था जिसने एक मुसलमान होते हुए भी खुद को पण्डित बताकर पूरी हिन्दु कौम को धोख़ा दिया। 
किसी आज़ाद देश की आज़ाद सरकार के शासनकाल में आज़ाद, भगत, बिस्मिल, अशफाक सरीखे महान क्रंरिकरियों को सरकारी पाठ्य पुस्तकों में आतंकवादी नहीं लिखा जाता। लेकिन यह पाप इस देश में हुआ डंके की चोट पर, खुले आम बेखौफ हुआ।
किसी आज़ाद देश की आज़ाद सरकार के शासनकाल में बटुकेश्वर दत्त सरीखे महान क्रांतिकारी से सरकार उसके क्रांतिकारी होने का प्रमाणपत्र माँगने का दुस्साहस, पाप नहीं कर सकती। लेकिन आज़ादी मिलने के बाद यह पाप हुआ। नेहरू के शासनकाल में ही हुआ।
आज़ाद भगत अशफ़ाक़ के घनिष्ठ साथी सहयोगी रहे बटुकेश्वर दत्त, मन्मथनाथ गुप्त, दुर्गा भाभी, शचींद्र नाथ बख्शी, शचींद्र नाथ सान्याल, रामकृष्ण खत्री सरीखे दर्जनों महान क्रांतिकारियों में से किसी एक को भी पद्मश्री सरीखे सम्मान के योग्य भी नहीं समझे जाने का कुकर्म किया गया।
MANIBEN-SARDAR PATEL'S DAUGHTER :: She was Sardar's only Daughter. When only 16, she switched to Khadi and worked in Gandhi Ashram. When 17 she put all her Gold Bangles, Earrings Gold Wrist Watch and all other Ornaments & Jewelleries in a Bundle of Cloth and obtaining her Father's nod, deposited them in Gandhi Ashram, for the cause of Freedom. All the garments Sardar used to wear after 1,921 were woven out of the yarn made by Maniben. Unlike Nehru's Daughter Indira, Maniben was a Freedom Fighter, who actively participated in the Non-cooperation Movement.
In 1,928, in the Bardauli Satyagraha she helped out Satyagrahis in Camps. She was Arrested and Jailed in 1,930 in the Salt Satyagraha. Thereafter, she was Arrested and Jailed on several occasions.
Defying the Ban in Bardauli, she was Arrested in 1,932 and again re-arrested for defying the Ban in Kheda and Sentenced to 15 months Imprisonment. For arousing people in the villages of Rajkot was Arrested again in 1,938.
Gandhi complimented the girl, saying that he had not seen another daughter like Maniben.
Under Gandhi's selective disobedience, Maniben was arrested in 1,940 and was released from Belgaum jail in May 1,941. When she again wanted to Court Arrest, Gandhi had prevented this frail girl for her ill-health.
She got Arrested during Quit India 1,942 with Kasturba Gandhi and was released in March 1,944 and again re-arrested in May 1,944 in Bardauli and was sent to Surat Jail & then to Yarvada Jail.
She didn't marry and served her Father till  Sardar Died in 1,950.
Sardar Patel had no Bank Balance or Property.
Even though he had substantial earnings as a very Successful Lawyer, he gave up everything after plunging into the Freedom Movement.
He used to say :- THOSE IN POLITICS SHOULD NOT HOLD PROPERTY, AND I HOLD NONE. Today, every politician in India may think Sardar was a Big Fool.
When Sardar died, he kept nothing for his daughter. With Sardar no more, she had to vacate the house. With no roof over her head and no money, Maniben had to fend for herself. 
Obeying Sardar's parting instruction, Maniben had gone to Nehru to hand over a bag and a book, in 1,950. Dutifully, she took an appointment with PM Nehru, she handed over the bag and the book to Nehru in person.
The book was an Account Book. The Bag contained Rupees Thirty Five Lakhs. 
After delivering both to Nehru, she waited a while. Nehru did not thank her. Nehru didn't enquire what she would do. Nehru didn't ask where she would stay. Nehru didn't ask if she had any money on her. Nehru didn't ask if she was in need of any assistance or help. Nehru didn't ask, if he could do anything for her. Nehru, not to speak of sympathy, had shown absolutely no interest in her. For him, after receiving the huge sum of Rs. 35 Lakhs, Maniben didn't exist. None knows, what happened to that money! Maniben went back to Ahmedabad to stay with a cousin the rest of her life.
She was not the only one who got this treatment from Nehru. Dr. Rajendra Prasad was given worst possible treatment by Nehru.
चंद्रशेखर आजाद :: नेहरू चन्द्र शेखर आज़ाद से मिलकर आया और अगले ही दिन उनपर पुलिस ने हमला कर दिया। जब चंद्रशेखर आजाद की शव यात्रा निकली, देश की जनता नंगे पैर, नंगे सिर चल रही थी, लेकिन काँग्रेसियों ने शव यात्रा में शामिल होने से इनकार कर दिया था 
एक अंग्रेज सुप्रीटेंडेंट ने चंद्रशेखर आजाद की मौत के बाद उनकी वीरता की प्रशंसा करते हुए कहा था कि चंद्रशेखर आजाद पर तीन तरफ से गोलियाँ चल रही थीं, लेकिन इसके बाद भी उन्होंने जिस तरह मोर्चा संभाला और 5 अंग्रेज सिपाहियों को हताहत कर दिया था, वो अत्यंत उच्च कोटि के निशाने बाज थे। अगर मुठभेड़ की शुरुआत में ही चंद्रशेखर आजाद की जाँघ में गोली नहीं लगी होती तो शायद एक भी अंग्रेज सिपाही उस दिन जिंदा नहीं बचता।   
शत्रु भी जिसके शौर्य की प्रशंसा कर रहे थे, मातृभूमि के प्रति जिसके समर्पण की चर्चा पूरे देश में होती थी, जिसकी बहादुरी के किस्से हिंदुस्तान के बच्चे-बच्चे की जुबान पर थे, उन महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की शव यात्रा में शामिल होने से इलाहाबाद के कांग्रेसियों ने ही इनकार कर दिया था।  
उस समय के इलाहाबाद, यानि आज का प्रयागराज; इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में जिस जामुन के पेड़ के पीछे से चंद्रशेखर आजाद निशाना लगा रहे थे, उस जामुन के पेड़ की मिट्टी को लोग अपने घरों में ले जाकर रखते थे। उस जामुन के पेड़ की पत्तियों को तोड़कर लोगों ने अपने सीने से लगा लेते थे। चंद्रशेखर आजाद की मृ्त्यु के बाद वो जामुन का पेड़ भी अब लोगों को प्रेरणा दे रहा था। इसीलिए अंग्रेजों ने उस जामुन के पेड़ को ही कटवा दिया। लेकिन चंद्रशेखर आजाद के प्रति समर्पण का भाव देश के आम जनमानस में कभी कट नहीं सका।   
 जब इलाहाबाद (आज का प्रयागराज) की जनता अपने वीर चहेते क्रांतिकारी के शव के दर्शनों के लिए भारी मात्रा में जुट रही थी, लोगों ने दुख से अपने सिर की पगड़ी उतार दी, पैरों की खड़ाऊ और चप्पलें उताकर लोग नंगें पाँव चंद्रशेखर आजाद की शव यात्रा में शामिल हो रहे थे, उस समय शहर के काँग्रेसियों ने कहा कि हम अहिंसा के सिद्धांत को मानते हैं, इसलिए चंद्रशेखर आजाद जैसे हिंसक व्यक्ति की शव यात्रा में शामिल नहीं होंगे।  
 पुरुषोत्तम दास टंडन भी उस वक्त कांग्रेस के नेता थे और चंद्रशेखर आजाद के भक्त थे। उन्होंने शहर के कांग्रेसियों को समझाया कि अब जब चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु हो चुकी है और अब वो वीरगति को प्राप्त कर चुके हैं तो मृत्यु के बाद हिंसा और अहिंसा पर चर्चा करना ठीक नहीं है और सभी काँग्रेसियों को अंतिम यात्रा में शामिल होना चाहिए। आखिरकार बहुत समझाने-बुझाने और बाद में जनता का असीम समर्पण देखने के बाद कुछ काँग्रेसी नेता और काँग्रेसी कार्यकर्ता डरते हुए चंद्रशेखर आजाद की शव यात्रा में शामिल होने को मजबूर हुए थे।  
चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु साल 1,931 में हो गई थी, लेकिन उनकी माँ 1,951 तक जीवित रहीं। आजादी 1,947 में मिल गई थी, लेकिन आजादी के बाद 4 साल तक भी उनकी माँ जगरानी देवी को बहुत भारी कष्ट उठाने पड़े थे। माता जगरानी देवी को भरोसा ही नहीं था कि उनके बेटे की मौत हो गई है। वो लोगों की बात पर भरोसा नहीं करती थीं। इसलिए उन्होंने अपने मध्यमा अँगुली और अनामिका अँगुली को एक धागे से बाँध लिया था। बाद में पता चला कि उन्होंने ये मान्यता मानी थी कि जिस दिन उनका बेटा आएगा उसी दिन वो अपनी ये दोनों अँगुली धागे से खोलेंगी। लेकिन उनका बेटा कभी नहीं लौटा। वो तो देश के लिए अपने शरीर से आजाद हो गया था।    
आजाद के परिवार के पास संपत्ति नहीं थी। गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ था। पिता की मृत्यु बहुत पहले ही हो चुकी थी। बेटा अंग्रेजों से लड़ता हुआ बलिदान हो चुका था। उनकी  माँआजादी के बाद भी पड़ोस के घरों में लोगों के गेहूँ साफ करके और बर्तन माँजकर किसी तरह अपना गुजारा चला रही थीं।  
किसी काँग्रेसी लीडर ने कभी आजाद की माँ की सुध नहीं ली। जो लोग जेलों में बंद होकर किताबें लिखने का गौरव प्राप्त करते थे और बाद में प्रधानमंत्री बन गए उन लोगों ने भी कभी चंद्रशेखर आजाद की माँ के लिए कुछ नहीं किया। वो एक स्वाभिमानी बेटे की माँ थीं। बेटे से भी ज्यादा स्वाभिमानी रही होंगी। किसी की भीख पर जिंदा नहीं रहना चाहती थीं।
शांति घोष और सुनीति चौधरी :: 
14 साल की 2 बच्चियों ने भगत सिंह का बदला क्रूर स्टीवेंस को मार कर लिया था।
अमर बलिदानी भगत सिंह की फाँसी का बदला लेने के लिए भारत की आज़ादी के क्रांतिकारी इतिहास की सबसे तरुण बालाएं शांति घोष और सुनीति चौधरी ने 14 दिसम्बर, 1,931 को त्रिपुरा के कोमिल्ला के जिला मजिस्ट्रेट CGB स्टीवन को गोली मार दी। ये लड़कियाँ केवल 14 साल की थीं।
दोनों CGB स्टीवन के बंगले पर तैराकी क्लब के लिए प्रार्थना पत्र लेकर गई और जैसे ही स्टीवन सामने आया दोनों ने रिवोल्वर निकाल कर स्टीवन पर ताबड़ तोड़ गोलियाँ बरसा दीं और स्टीवन वहीँ ढेर हो गया। 
शांति घोष :- शांति घोष 22 नवम्बर 1,916 को कलकत्ता में पैदा हुई थीं। उनके पिता देवेन्द्र नाथ घोष मूल रूप से बारीसाल जिले के निवासी और कोमिल्ला कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे। उनकी देशभक्ति की भावना ने शांति को कम उम्र से ही प्रभावित किया।
शांति की हस्ताक्षरित पुस्तक पर प्रसिद्द क्रांतिकारी बिमल प्रतिभा देबी ने लिखा "बंकिम की आनंद मठ की शांति जैसी बनना"। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने लिखा, "नारीत्व की रक्षा के लिए, तुम हथियार उठाओ, हे माताओ"! इन सब के आशीर्वाद ने युवा शांति को प्रेरित किया और उसने स्वयं को उस मिशन के लिए तैयार किया। 
जब वह फज़ुनिस्सा गर्ल्स स्कूल की छात्रा थी तो अपनी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी के माध्यम से युगांतर पार्टी में शामिल हुई और क्रांतिकारी कार्यों के लिए आवश्यक प्रशिक्षण लिया और जल्द ही वह दिन आया जब उन्होंने अपना युवा जीवन मुस्कुराते हुए बहादुरी से मातृभूमि को समर्पित कर दिया। 
लाखों देशवासियों की प्रशंसा और स्नेह को साथ लेकर शांति अपनी साथी सुनीति के साथ आजीवन कारावास के लिए चली गयीं।
जेल में शांति और सुनीति को कुछ समय अलग रखा गया। यह एकांत कारावास चौदह साल की लड़कियों के लिए दुखी कर देने वाला था। 28 मार्च 1,989 को श्रीमती शांति घोष (दास) का स्वर्गवास हो गया। 
सुनीति चौधरी :- क्रान्तिपुत्री कही जा सकें वाली सुनीति चौधरी, स्वतंत्रता संग्राम में एक असाधारण भूमिका निभाने वाली का जन्म मई 22, 1,917 पूर्वी बंगाल के त्रिपुरा जिले के इब्राहिमपुर गाँव में एक साधारण हिन्दु मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता चौधरी उमाचरण सरकारी सेवा में थे और माँ सुरस सुन्दरी चौधरी, एक शांत और पवित्र विचारों वाली औरत थी जिन्होंने सुनीति के तूफानी कैरियर पर एक गहरा प्रभाव छोड़ा।
जब वह छोटी लड़की स्कूल में थी तो उसके दो बड़े भाई कॉलेज में क्रांतिकारी आन्दोलन में थे। सुनीति युगांतर पार्टी में अपनी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी द्वारा भर्ती की गई थीं। कोमिल्ला में सुनीति छात्राओं के स्वयं सेवी कोर की कप्तान थीं। उनके शाही अंदाज और नेतृत्व करने के तरीके ने जिले के क्रांतिकारी नेताओं का ध्यान खींचा। 
सुनीति को गुप्त राइफल ट्रेनिंग और हथियार (छुरा) चलाने के लिए चुना गया था। इसके तुरन्त बाद वह अपनी सहपाठी शांति घोष के साथ एक प्रत्यक्ष कार्रवाई के लिए चयनित हुई और यह निर्णय लिया गया कि उन्हें सामने आना ही चाहिए। 
सुनीति के रिवोल्वर की पहली गोली से ही वो मर गया था।  इसके बाद उन लड़कियों को गिरफ्तार कर किया गया और निर्दयता से पीटा गया। कोर्ट में और जेल में वो लड़कियाँ खुश रहती थीं। गाती रहती थी और हँसती रहती थीं। उन्हें एक शहीद की तरह मरने की उम्मीद थी, लेकिन उनके नाबालिग होने ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा दिलाई। 
1,994 में सुनीति चौधरी (घोष) का स्वर्गवास हुआ।
गोपाल पाठ (मुखर्जी) :: जिन्ना ने अपने डायरेक्ट एक्शन डे के लिए कोलकाता (कलकत्ता) को चुना क्योंकि वह चाहते था कि कोलकाता पाकिस्तान में शामिल हो।  कोलकाता उस समय भारत का एक प्रमुख व्यापारिक शहर था और जिन्ना कोलकाता को खोना नहीं चाहते था। 
कोलकाता को हिंदू मुक्त बनाने का मिशन सुहरावर्दी को दिया गया था, जो बंगाल के मुख्यमंत्री और जिन्ना के प्रति वफादार था।
उस समय 1,946 में कलकत्ता में 64% हिन्दु और 33% मुसलमान थे।
सुहरावर्दी ने 16 अगस्त को अपनी योजना को अंजाम देना शुरू किया, उसके द्वारा एक हड़ताल की घोषणा की गई और सभी मुसलमानों ने अपनी दुकानें बंद कर दीं और मस्सिद में इकट्ठा हो गए। रमजान का शुक्रवार और 18वाँ दिन था। और नमाज के बाद हिंदुओं को कुचलने लगी मुस्लिम भीड़। 
जैसा कि सुहरावर्दी को उम्मीद थी, हिंदुओं ने कोई प्रतिरोध नहीं दिखाया और आसानी से मुस्लिम भीड़ के आगे घुटने टेक दिए।
सुहरावर्दी ने मुस्लिम भीड़ को आश्वासन दिया कि उसने पुलिस को निर्देश दिया है कि वह उनके मिशन में आड़े न आए।
लोहे की छड़ों, तलवारों और अन्य खतरनाक हथियारों से लैस लाखों मुसलमानों की भीड़ कलकत्ता के कई हिस्सों और आसपास के इलाकों में फैल गई।
पहले मुस्लिम लीग कार्यालय के पास हथियारों और हथियारों की एक हिन्दु दुकान पर हमला किया गया। उसे लूट लिया गया और जलाकर राख कर दिया गया। मालिक और उसके कर्मचारियों के सिर काट दिए गए।  हिंदुओं को सब्जियों की तरह काटा गया। हिन्दु महिलाओं और युवा लड़कियों का अपहरण कर लिया गया और उन्हें सेक्स स्लेव के रूप में ले जाया गया।
16 अगस्त को हजारों हिन्दु मारे गए और हिन्दु महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया।
17 अगस्त को भी हत्याएं जारी रहीं। 600 हिन्दु मजदूरों जिनमें ज्यादातर उड़ीसा से थे, उनका सर केसोराम कॉटन मिल्स लिचुबगन में काट दिया गया।
कोलकाता में नरसंहार का डांस चल रहा था। कोलकाता से हिन्दु भाग रहे थे, सुहरावर्दी को 19 अगस्त तक अपनी जीत का आश्वासन दिया गया था। 17 अगस्त तक हजारों हिन्दु मारे जा चुके थे।
लेकिन 18 अगस्त को, एक हिन्दु ने मुस्लिम अत्याचार का विरोध करने का फैसला किया। वह एक बंगाली ब्राह्मण थे और उनका नाम गोपाल मुखर्जी था।  उसके दोस्त उसे पाठ कहते थे, क्योंकि वह मीट की दुकान चलाता थे।
वह कोलकाता के बोबाजार इलाके में मलंगा लेन में रहते थे।
गोपाल उस समय 33 वर्ष के थे और एक कट्टर राष्ट्रवादी और सुभाष चंद्र बोस के दृढ़ अनुयायी और गाँधी के अहिंसा के सिद्धांत की आलोचना करते थे।
गोपाल गली-गली संस्था भारत जाति वाहिनी चलाते थे। उनकी टीम में 500-700 लोग थे जो कि अच्छी तरह से प्रशिक्षित पहलवान थे।
18 अगस्त को गोपाल ने फैसला किया कि वे भागेंगे नहीं और मुसलमानों पर जवाबी हमला करेंगे।
उसने अपने पहलवानों को बुलाया, उन्हें हथियार दिए। एक मारवाड़ी व्यवसायी ने उसे वित्त देने का फैसला किया और उसे पर्याप्त धन दिया। उनकी योजना सबसे पहले जवाबी हमलों से हिन्दु क्षेत्रों को सुरक्षित करने की थी। उनके शब्द थे, "प्रत्येक मारे गये हिन्दु  के लिए 10 मुसलमानों को मारो"। 
मुस्लिम लीग के पास लाखों जिहादी थे, जबकि गोपाल के पास केवल कुछ सौ लड़ाके थे, लेकिन उन्होंने एक योजना बनाई और कोलकाता को मुस्लिम शहर बनने से बचाने के लिए अंत तक लड़ने का फैसला किया।
उन्होंने नियम बनाए कि मुसलमानों की तरह वे किसी भी  महिला और बच्चों को नहीं छुएंगे।
गोपाल के पास खुद 2 पिस्टल थी जो उसे आजाद हिंद फौज से मिली थी। 18 अगस्त की दोपहर से, गोपाल के नेतृत्व में हिंदुओं ने वापस लड़ना शुरू कर दिया।
18 तारीख को जब मुसलमान हिंदुओं को मारने के लिए हिन्दु कॉलोनी में आए, तो उनका स्वागत गोपाल की टीम ने किया।
गोपाल की टीम ने हिन्दुओं को मारने के लिए आए हर मुस्लिम डकैत को मार डाला और 19 तारीख तक उन्होंने सभी हिन्दु उपनिवेशों को सुरक्षित कर लिया।
सुहरावर्दी के लिए यह पूरी तरह से आश्चर्य चकित करने वाली घटना थी। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि हिन्दु इस तरह से विरोध करेंगे।
जब 19 अगस्त तक उन्होंने हिन्दु क्षेत्रों को सुरक्षित कर लिया था, तो उनका बदला 20 अगस्त से शुरू हो गया था।
उन्होंने 16 और 17 अगस्त को हिंदुओं को मारने वाले सभी जेहादियों को चिह्नित किया और 20 अगस्त को उन पर हमला किया।
19 तारीख तक सभी हिंदुओं तक यह संदेश पहुँचा कि गोपाल के नेतृत्व में हिन्दु मुसलमानों से लड़ रहे हैं। 
तो 21 अगस्त तक बहुत सारे हिन्दु उसके साथ हो चुके थे, सभी मुसलमानों से बदला लेने लगे।
उन्होंने 2 दिनों में इतने मुसलमानों को मार डाला, कि मुसलमानों की मौत हिन्दुओं की मौत से ज्यादा हो गई। 22 अगस्त तक खेल बदल चुका था। मुसलमान कोलकाता से भाग रहे थे।
सुहरावर्दी ने अपनी हार स्वीकार कर ली और कांग्रेस नेताओं से अनुरोध किया कि वे गोपाल पांडा को रोकने का अनुरोध करें, जो मुसलमानों के लिए यमराज बन गए थे।
गोपाल इस शर्त पर तैयार हो गया कि सभी मुसलमान उसे अपने हथियार सौंप दें, जिसे सुहरावर्दी ने स्वीकार कर लिया।
कोलकाता पर कब्जा करने की जिन्ना की योजना 22 अगस्त तक चकनाचूर हो गई थी। कोलकाता में भगवा झंडा फहरा रहा था।
कोलकाता के बाद गोपाल ने अपने संगठन को भंग नहीं किया और बंगाल के हिन्दुओं को बचाते रहे।
जब सब कुछ खत्म हो गया, जैसे ही एक फीचर फिल्म के अंत में पुलिस आती है, गाँधी ने गोपाल से मुलाकात की और अहिंसा और हिंदू-मुस्लिम एकता के अपने पाठों को लेकर उनसे अपने शास्त्रों (हथियार) को आत्मसमर्पण करने के लिए कहा।
गोपाल के शब्द थे, "गाँधी ने मुझे दो बार बुलाया, मैं नहीं गया।  तीसरी बार, कुछ स्थानीय कांग्रेसी नेताओं ने मुझसे कहा कि मुझे कम से कम अपने कुछ हथियार जमा करने चाहिए। मैं वहाँ से चला गया।  मैंने देखा कि लोग आ रहे हैं और हथियार जमा कर रहे हैं, जो किसी के काम के नहीं थे, आउट-ऑफ-ऑर्डर पिस्टल, उस तरह की चीजें। 
तब गाँधी के सचिव ने मुझसे कहा, "गोपाल, तुम गाँधीजी को हथियार क्यों नहीं सौंप देते"?
मैंने उत्तर दिया, "इन भुजाओं से मैंने अपने क्षेत्र की महिलाओं को बचाया, मैंने लोगों को बचाया।  मैं उन्हें सरेंडर नहीं करूंगा। मैंने कहा, महान कलकत्ता हत्याकांड के दौरान गाँधीजी कहाँ थे"। तब वह कहाँ थे जब हिन्दु मारे जा रहे थे? भले ही मैंने किसी को मारने के लिए कील का इस्तेमाल किया हो, मैं उस कील को भी नहीं छोड़ूंगा। 
सुहरावर्दी ने कहा, "जब हिन्दु वापस लड़ने का मन बनाते हैं, तो वे दुनिया में सबसे घातक हो जाते हैं"।
गोपाल पाठ और श्यामा प्रसाद मुखर्जी दो महान नायक थे, जिन्होंने बंगाल के हिन्दुओं को जेहादी मुस्लिम डकैतों से बचाया था।
PARTITION OF INDIA-A CURSE ON HINDUS :: More than 30 lakh people were butchered by the Muslims. Infants were killed women were raped & abducted. Property, cash & jewellery were looted by the Muslims. All sorts of insult resulted for the Hindu population. The select committee selected Patel but Gandhi appointed Nehru-a devout Muslima as the Prime Minister.

 

 

 

GANDHI-THE BRITISH ARMY RECRUITMENT AGENT :: The British were always lenient to Gandhi & Nehru. Here is the reason.
28 जुलाई 1,914 को शुरू हुए प्रथम विश्व युद्ध में मात्र 6 दिन बाद, 4 अगस्त 1914 के दिन, भारतीय गुलाम सेना को, युद्ध में झोंक दिया गया। 
ब्रिटेन की सत्ता के गुलाम भारतीय राजाओं और नबाबों को अपनी-अपनी सैना ब्रिटेन की रक्षा के लिये भेजनी पड़ी थी। मालिक का देश खतरे में था उसे बचाना भी जरूरी था; ताकि अंग्रेज जिन्दा रह कर भारत पर राज करता रहे और राजाओं की भी सत्ता कायम रहे, इतनी बड़ी मदद पाकर अंग्रेज जिन्दा रहे भी और प्रथम विश्व युद्ध के बाद 28 साल तक राज भी करते रहे।  आम भारतीय नागरिक का खून चूसते रहे और उन्हें अपने पैरो तले रोंधते भी रहे और मारते भी रहे।
ये गुलाम लोग और कर भी क्या सकते थे मालिक का हुक्म जो था।
हुक्म अदूली का मतलब उस समय अपना राज-ताज और सिहासन गंवाना होता था। हुक्म नहीं मानने वाले राजाओं और नबाबों से अंग्रेज उनकी सत्ता छीन लिया करते थे और अपमानित और दंडित भी करते थे।
भारतीय राजाओ और कोंग्रेसीयों ने ब्रिटेन और ब्रिटेन की राज सत्ता को बचाने के लिए, रात-दिन, दिलो-जान, एक करके तन-मन और धन से बहुत मदद की थी।
बेचारे कोंग्रेसियों के बापू ने तो यहाँ तक कह दिया था कि ब्रिटेन की बर्बादी की शर्त पर हमें आजादी नहीं चाहिये।
कोंग्रेसियों के बापू ने तो गाँव-गाँव घूम कर नौजवानों को फौज में भर्ती होने के लिये प्रेरित किया था। 11 साल के लड़कों को फौज में भर्ती करना-करने एक आम बात थी। 
ये ही गाँधी अहिंसा की बात करता था, यानि यहाँ इसके हिसाब से युद्ध में हिंसा नहीं होती थी।
भारत उन दिनों आज से कहीं बड़ा था। पाकिस्तान और बांग्लादेश ही नहीं, श्री लंका और म्यांमार (बर्मा) भी ब्रिटिश भारत का हिस्सा हुआ करते थे, तब भी, सेना में भर्ती के लिए अंग्रेजों की पसंद उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी भारत के सिख, मुसलमान और हिंदू क्षत्रिय ही होते थे।
उनके बीच से सैनिक व असैनिक किस्म के कुल मिलाकर लगभग 15 लाख लोग भर्ती किए गए थे। अगस्त 1,914 और दिसंबर 1,919 के बीच उनमें से 6,21,224 लड़ने-भिड़ने के लिए और 4,74,789 दूसरे सहायक कामों के लिए अन्य देशों में भेजे गए। इस दौरान एशिया, अफ्रीका और यूरोप के विभिन्न मोर्चों पर कुल मिलाकर करीब आठ लाख भारतीय सैनिक जी-जान से लड़े इनमें 74,187 मृत या लापता घोषित किए गए और 69, 214 घायल हुए। 
मेरे दादा पण्डित हरगुलाल को महज 11 साल की उम्र में सेना में भर्ती किया गया और उन्हें 102 देशों में मोर्चे पर भेजा गया।
इस लड़ाई में भारत का योगदान सैनिकों व असैनिक कर्मियों तक ही सीमित नहीं था। भारतीय जनता के पैसों से 1,70,000 पशु और 3,70,000 टन के बराबर रसद भी मोर्चों पर भेजी गई।
लड़ाई का खर्च चलाने के लिए गुलाम भारत की अंग्रेज सरकार ने लंदन की सरकार को 10 करोड़ पाउन्ड अलग से दिए भारत की गरीब जनता का यह पैसा कभी लौटाया नहीं गया और मिलने के नाम पर पैदल सैनिकों को केवल 11 रुपये मासिक वेतन मिलता था।
13,000 भारतीय सैनिकों को बहादुरी के पदक मिले और 12 को विक्टोरिया क्रॉस भी मिला मगर किसी भारतीय को कोई ऊँचा अफसर नहीं बनाया गया न कभी यह माना गया कि भारी संख्या में जान लेवा हथियारों वाली औद्योगिक युद्ध पद्धति से और यूरोप की बर्फीली ठंड से अपरिचित भारतीय सैनिकों के खून-पसीने के बिना इतिहास के उस पहले विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की हालत बड़ी खस्ता हो जाती।
गाँधीवादी सेक्यूलर बुर्के में अंग्रेजियत के कुकर्म छुपाने में ही सहायक रही कांग्रेस पार्टी की आज तक की कुल व मुख्य उपलब्धि।
DEATH SENTRENCE TO
 FREEDOM
 FIGHTERS-APOSTER
1,915 के आखिर तक फ्रांस और बेल्जियम वाले मोर्चों पर के लगभग सभी भारतीय पैदल सैनिक तुर्की के उस्मानी साम्राज्य वाले मध्यपूर्व में भेज दिये गए। केवल दो घुड़सवार डिविजन 1,918 तक यूरोप में रहे। तुर्की भी नवंबर 1,914 से मध्यवर्ती शक्तियों की ओर से युद्ध में कूद पड़ा था। 
भारतीय सैनिक यूरोप की कड़ाके की ठंड सह नहीं पाते थे। मध्यपूर्व के अरब देशों में यूरोप जैसी ठंड नहीं पड़ती। वे भारत से बहुत दूर भी नहीं हैं, इसलिए भारत से वहां रसद पहुँचाना भी आसान था। 
यूरोप के बाद उस्मानी साम्राज्य ही मुख्य रणभूमि बन गया था। इसलिए कुल मिलाकर 5,88,717 भारतीय सैनिक और 2,93,152 असैनिक कर्मी वहां के विभिन्न मोर्चों पर भेजे गए ब्रिटेन, फ्रांस और रूस का मित्रराष्ट्र-गुट तुर्क साम्राज्य की राजधानी कोंस्तांतिनोपल पर, जिसे अब इस्तांबूल कहा जाता है, कब्जा करने की सोच रहा था। इस उद्देश्य से ब्रिटिश और फ्रांसीसी युद्धपोतों ने, 19 फरवरी, 1,915 को, तुर्की के गालीपोली प्रायद्वीप के तटवर्ती भाग पर- जिसे दर्रेदानियल (डार्डेनल्स) जलडमरूमध्य के नाम से भी जाना जाता है- गोले बरसाए। लेकिन न तो इस गोलाबारी से और न बाद की गोलीबारियों से इच्छित सफलता मिल पाई, इसलिए तय हुआ कि गाली-पोली में पैदल सैनिकों को उतारा जाए। 25 अप्रैल, 1,915 को भारी गोलाबारी के बाद वहाँ ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के सैनिक उतारे गए। पर वे भी तेजी से आगे नहीं बढ़ पा रहे थे। 
उनकी सहायता के लिए भेजे गए करीब 3,000 भारतीय सैनिकों में से आधे से अधिक मारे गए। 
गाली-पोली अभियान अंततः विफल हो गया। जिस तुर्क कमांडर की सूझ-बूझ के आगे मित्र राष्ट्रों की एक न चली, उसका नाम था गाजी मुस्तफा कमाल पाशा। युद्ध में पराजय के कारण उस्मानी साम्राज्य के विघटन के बाद वही वर्तमान तुर्की का राष्ट्रपिता और पहला राष्ट्रपति कमाल अतातुर्क कहलाया। 1919-20 में 27 देशों के पेरिस सम्मेलन द्वारा रची गई वर्साई संधि ने उस्मानी व ऑस्ट्रियाई-हंगेरियाई साम्राज्य का अंत कर दिया और यूरोप सहित मध्यपूर्व के नक्शे को भी एकदम से बदल दिया। 
मध्यपूर्व में भेजे गए भारतीय सैनिकों में से 60 प्रतिशत मेसोपोटैमिया (वर्तमान इराक) में और 10 प्रतिशत मिस्र तथा फिलिस्तीन में लड़े। इन देशों में वे लड़ाई से अधिक बीमारियों से मरे। 
उनके पत्रों के आधार पर इतिहासकार डेविड ओमिसी का कहना है, सामान्य भारतीय सैनिक ब्रिटिश सम्राट के प्रति अपनी निष्ठा जताने और अपनी जाति की इज्जत बचाने की भावना से प्रेरित होकर लड़ता था।
जिस के फलस्वरूप सन 1,919 में विश्व युद्ध खत्म होने के 28 साल बाद तक हमारी छाती पर मुूँग दलते रहे, हम पर शासन भी करते रहे और इन 28 सालों में हमारे बहुत से देश भक्त और क्रांतिकारियों को मारते भी रहे।
जलियांवाला बाग हत्या काण्ड और हमारे बहुत से देश भक्तों को भी इस 28 साल के दौर में अंग्रेजों ने मारा, जिन में लाला लाजपत राय और भगतसिंह तो सबसे प्रमुख नाम है।
जिस ब्रिटेन की राज सत्ता में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था पर उस की पूरी सैना कुल 7 लाख ही थी। ब्रिटेन का नामोनिशान मिट जाता अगर उसे भारतीय राजाओं की 13 लाख सैना मदद करने नहीं पहुँचती।
प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन की तरफ से पूरी दुनियाँ में हर मोर्चे पर भारतीय सैनायें लड़ी थी।
भारतीय सैना के सैनिक उस युद्ध में 1.5 लाख फ्रांस में, 6 लाख मेसोपोटेमिया, (वर्तमान इराक) में 1.5 लाख फिलिस्तीन और मिस्र में और 4 लाख सैनिक इंग्लेंड के विभिन्न मोर्चो पर लड़ाई लड़े थे।
एक बात और भी याद रखने की है की उस समय यानि आज से 100 साल पहले राजस्थानी राजाओं की फोज में सिर्फ क्षत्रिय ही सैनिक हुआ करते थे, जो कि बहादुरी के लिये पुरे जगत में प्रसिद्ध थे और उन्होंने अपनी बहादुरी इस प्रथम विश्व युद्ध में दिखाई भी थी।
उस समय भारतीय राजाओं ने कुल 13 लाख सैनिक,करीब 2 लाख पशु यानि ऊँठ और घोड़े और 37 लाख टन रसद सामग्री भी भेजी थी।
अगर उस भयंकर युद्ध में भारत से इतनी बड़ी मदद नही मिलती तो ब्रिटेन की हार निश्चित थी और शायद हम 1,915 में ही हम आजाद हो गये होते।
सन 1,915 से सन 1,947 के बीच के समय में अंग्रेजों ने हमारे कितने क्रन्तिकारी देश भक्तों को गोलियों से और झूठे मुकदमों में फँसा कर फाँसी देकर मारा।
इस प्रथम विश्व युद्ध में भारत के करीब 90 हजार सैनिक मारे गये जिन सभी के नाम आज भी दिल्ली के इण्डिया गेट पर लिखे हुए हैं।  
प्रथम विश्वयुद्ध में 1 करोड 10 लाख भारतीय सैनिक मारे गये थे। 

    
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ 
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