एक अंग्रेज सुप्रीटेंडेंट ने चंद्रशेखर आजाद की मौत के बाद उनकी वीरता की प्रशंसा करते हुए कहा था कि चंद्रशेखर आजाद पर तीन तरफ से गोलियाँ चल रही थीं, लेकिन इसके बाद भी उन्होंने जिस तरह मोर्चा संभाला और 5 अंग्रेज सिपाहियों को हताहत कर दिया था, वो अत्यंत उच्च कोटि के निशाने बाज थे। अगर मुठभेड़ की शुरुआत में ही चंद्रशेखर आजाद की जाँघ में गोली नहीं लगी होती तो शायद एक भी अंग्रेज सिपाही उस दिन जिंदा नहीं बचता।
शत्रु भी जिसके शौर्य की प्रशंसा कर रहे थे, मातृभूमि के प्रति जिसके समर्पण की चर्चा पूरे देश में होती थी, जिसकी बहादुरी के किस्से हिंदुस्तान के बच्चे-बच्चे की जुबान पर थे, उन महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की शव यात्रा में शामिल होने से इलाहाबाद के कांग्रेसियों ने ही इनकार कर दिया था।
उस समय के इलाहाबाद, यानि आज का प्रयागराज; इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में जिस जामुन के पेड़ के पीछे से चंद्रशेखर आजाद निशाना लगा रहे थे, उस जामुन के पेड़ की मिट्टी को लोग अपने घरों में ले जाकर रखते थे। उस जामुन के पेड़ की पत्तियों को तोड़कर लोगों ने अपने सीने से लगा लेते थे। चंद्रशेखर आजाद की मृ्त्यु के बाद वो जामुन का पेड़ भी अब लोगों को प्रेरणा दे रहा था। इसीलिए अंग्रेजों ने उस जामुन के पेड़ को ही कटवा दिया। लेकिन चंद्रशेखर आजाद के प्रति समर्पण का भाव देश के आम जनमानस में कभी कट नहीं सका।
जब इलाहाबाद (आज का प्रयागराज) की जनता अपने वीर चहेते क्रांतिकारी के शव के दर्शनों के लिए भारी मात्रा में जुट रही थी, लोगों ने दुख से अपने सिर की पगड़ी उतार दी, पैरों की खड़ाऊ और चप्पलें उताकर लोग नंगें पाँव चंद्रशेखर आजाद की शव यात्रा में शामिल हो रहे थे, उस समय शहर के काँग्रेसियों ने कहा कि हम अहिंसा के सिद्धांत को मानते हैं, इसलिए चंद्रशेखर आजाद जैसे हिंसक व्यक्ति की शव यात्रा में शामिल नहीं होंगे।
पुरुषोत्तम दास टंडन भी उस वक्त कांग्रेस के नेता थे और चंद्रशेखर आजाद के भक्त थे। उन्होंने शहर के कांग्रेसियों को समझाया कि अब जब चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु हो चुकी है और अब वो वीरगति को प्राप्त कर चुके हैं तो मृत्यु के बाद हिंसा और अहिंसा पर चर्चा करना ठीक नहीं है और सभी काँग्रेसियों को अंतिम यात्रा में शामिल होना चाहिए। आखिरकार बहुत समझाने-बुझाने और बाद में जनता का असीम समर्पण देखने के बाद कुछ काँग्रेसी नेता और काँग्रेसी कार्यकर्ता डरते हुए चंद्रशेखर आजाद की शव यात्रा में शामिल होने को मजबूर हुए थे।
चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु साल 1,931 में हो गई थी, लेकिन उनकी माँ 1,951 तक जीवित रहीं। आजादी 1,947 में मिल गई थी, लेकिन आजादी के बाद 4 साल तक भी उनकी माँ जगरानी देवी को बहुत भारी कष्ट उठाने पड़े थे। माता जगरानी देवी को भरोसा ही नहीं था कि उनके बेटे की मौत हो गई है। वो लोगों की बात पर भरोसा नहीं करती थीं। इसलिए उन्होंने अपने मध्यमा अँगुली और अनामिका अँगुली को एक धागे से बाँध लिया था। बाद में पता चला कि उन्होंने ये मान्यता मानी थी कि जिस दिन उनका बेटा आएगा उसी दिन वो अपनी ये दोनों अँगुली धागे से खोलेंगी। लेकिन उनका बेटा कभी नहीं लौटा। वो तो देश के लिए अपने शरीर से आजाद हो गया था।
आजाद के परिवार के पास संपत्ति नहीं थी। गरीब ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ था। पिता की मृत्यु बहुत पहले ही हो चुकी थी। बेटा अंग्रेजों से लड़ता हुआ बलिदान हो चुका था। उनकी माँआजादी के बाद भी पड़ोस के घरों में लोगों के गेहूँ साफ करके और बर्तन माँजकर किसी तरह अपना गुजारा चला रही थीं।
किसी काँग्रेसी लीडर ने कभी आजाद की माँ की सुध नहीं ली। जो लोग जेलों में बंद होकर किताबें लिखने का गौरव प्राप्त करते थे और बाद में प्रधानमंत्री बन गए उन लोगों ने भी कभी चंद्रशेखर आजाद की माँ के लिए कुछ नहीं किया। वो एक स्वाभिमानी बेटे की माँ थीं। बेटे से भी ज्यादा स्वाभिमानी रही होंगी। किसी की भीख पर जिंदा नहीं रहना चाहती थीं।
अमर बलिदानी भगत सिंह की फाँसी का बदला लेने के लिए भारत की आज़ादी के क्रांतिकारी इतिहास की सबसे तरुण बालाएं शांति घोष और सुनीति चौधरी ने 14 दिसम्बर, 1,931 को त्रिपुरा के कोमिल्ला के जिला मजिस्ट्रेट CGB स्टीवन को गोली मार दी। ये लड़कियाँ केवल 14 साल की थीं।
दोनों CGB स्टीवन के बंगले पर तैराकी क्लब के लिए प्रार्थना पत्र लेकर गई और जैसे ही स्टीवन सामने आया दोनों ने रिवोल्वर निकाल कर स्टीवन पर ताबड़ तोड़ गोलियाँ बरसा दीं और स्टीवन वहीँ ढेर हो गया।
शांति घोष :- शांति घोष 22 नवम्बर 1,916 को कलकत्ता में पैदा हुई थीं। उनके पिता देवेन्द्र नाथ घोष मूल रूप से बारीसाल जिले के निवासी और कोमिल्ला कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे। उनकी देशभक्ति की भावना ने शांति को कम उम्र से ही प्रभावित किया।
शांति की हस्ताक्षरित पुस्तक पर प्रसिद्द क्रांतिकारी बिमल प्रतिभा देबी ने लिखा "बंकिम की आनंद मठ की शांति जैसी बनना"। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने लिखा, "नारीत्व की रक्षा के लिए, तुम हथियार उठाओ, हे माताओ"! इन सब के आशीर्वाद ने युवा शांति को प्रेरित किया और उसने स्वयं को उस मिशन के लिए तैयार किया।
जब वह फज़ुनिस्सा गर्ल्स स्कूल की छात्रा थी तो अपनी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी के माध्यम से युगांतर पार्टी में शामिल हुई और क्रांतिकारी कार्यों के लिए आवश्यक प्रशिक्षण लिया और जल्द ही वह दिन आया जब उन्होंने अपना युवा जीवन मुस्कुराते हुए बहादुरी से मातृभूमि को समर्पित कर दिया।
लाखों देशवासियों की प्रशंसा और स्नेह को साथ लेकर शांति अपनी साथी सुनीति के साथ आजीवन कारावास के लिए चली गयीं।
जेल में शांति और सुनीति को कुछ समय अलग रखा गया। यह एकांत कारावास चौदह साल की लड़कियों के लिए दुखी कर देने वाला था। 28 मार्च 1,989 को श्रीमती शांति घोष (दास) का स्वर्गवास हो गया।
सुनीति चौधरी :- क्रान्तिपुत्री कही जा सकें वाली सुनीति चौधरी, स्वतंत्रता संग्राम में एक असाधारण भूमिका निभाने वाली का जन्म मई 22, 1,917 पूर्वी बंगाल के त्रिपुरा जिले के इब्राहिमपुर गाँव में एक साधारण हिन्दु मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता चौधरी उमाचरण सरकारी सेवा में थे और माँ सुरस सुन्दरी चौधरी, एक शांत और पवित्र विचारों वाली औरत थी जिन्होंने सुनीति के तूफानी कैरियर पर एक गहरा प्रभाव छोड़ा।
जब वह छोटी लड़की स्कूल में थी तो उसके दो बड़े भाई कॉलेज में क्रांतिकारी आन्दोलन में थे। सुनीति युगांतर पार्टी में अपनी सहपाठी प्रफुल्ल नलिनी द्वारा भर्ती की गई थीं। कोमिल्ला में सुनीति छात्राओं के स्वयं सेवी कोर की कप्तान थीं। उनके शाही अंदाज और नेतृत्व करने के तरीके ने जिले के क्रांतिकारी नेताओं का ध्यान खींचा।
सुनीति को गुप्त राइफल ट्रेनिंग और हथियार (छुरा) चलाने के लिए चुना गया था। इसके तुरन्त बाद वह अपनी सहपाठी शांति घोष के साथ एक प्रत्यक्ष कार्रवाई के लिए चयनित हुई और यह निर्णय लिया गया कि उन्हें सामने आना ही चाहिए।
सुनीति के रिवोल्वर की पहली गोली से ही वो मर गया था। इसके बाद उन लड़कियों को गिरफ्तार कर किया गया और निर्दयता से पीटा गया। कोर्ट में और जेल में वो लड़कियाँ खुश रहती थीं। गाती रहती थी और हँसती रहती थीं। उन्हें एक शहीद की तरह मरने की उम्मीद थी, लेकिन उनके नाबालिग होने ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा दिलाई।
1,994 में सुनीति चौधरी (घोष) का स्वर्गवास हुआ।
गोपाल पाठ (मुखर्जी) :: जिन्ना ने अपने डायरेक्ट एक्शन डे के लिए कोलकाता (कलकत्ता) को चुना क्योंकि वह चाहते था कि कोलकाता पाकिस्तान में शामिल हो। कोलकाता उस समय भारत का एक प्रमुख व्यापारिक शहर था और जिन्ना कोलकाता को खोना नहीं चाहते था।
कोलकाता को हिंदू मुक्त बनाने का मिशन सुहरावर्दी को दिया गया था, जो बंगाल के मुख्यमंत्री और जिन्ना के प्रति वफादार था।
उस समय 1,946 में कलकत्ता में 64% हिन्दु और 33% मुसलमान थे।
सुहरावर्दी ने 16 अगस्त को अपनी योजना को अंजाम देना शुरू किया, उसके द्वारा एक हड़ताल की घोषणा की गई और सभी मुसलमानों ने अपनी दुकानें बंद कर दीं और मस्सिद में इकट्ठा हो गए। रमजान का शुक्रवार और 18वाँ दिन था। और नमाज के बाद हिंदुओं को कुचलने लगी मुस्लिम भीड़।
जैसा कि सुहरावर्दी को उम्मीद थी, हिंदुओं ने कोई प्रतिरोध नहीं दिखाया और आसानी से मुस्लिम भीड़ के आगे घुटने टेक दिए।
सुहरावर्दी ने मुस्लिम भीड़ को आश्वासन दिया कि उसने पुलिस को निर्देश दिया है कि वह उनके मिशन में आड़े न आए।
लोहे की छड़ों, तलवारों और अन्य खतरनाक हथियारों से लैस लाखों मुसलमानों की भीड़ कलकत्ता के कई हिस्सों और आसपास के इलाकों में फैल गई।
पहले मुस्लिम लीग कार्यालय के पास हथियारों और हथियारों की एक हिन्दु दुकान पर हमला किया गया। उसे लूट लिया गया और जलाकर राख कर दिया गया। मालिक और उसके कर्मचारियों के सिर काट दिए गए। हिंदुओं को सब्जियों की तरह काटा गया। हिन्दु महिलाओं और युवा लड़कियों का अपहरण कर लिया गया और उन्हें सेक्स स्लेव के रूप में ले जाया गया।
16 अगस्त को हजारों हिन्दु मारे गए और हिन्दु महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया।
17 अगस्त को भी हत्याएं जारी रहीं। 600 हिन्दु मजदूरों जिनमें ज्यादातर उड़ीसा से थे, उनका सर केसोराम कॉटन मिल्स लिचुबगन में काट दिया गया।
कोलकाता में नरसंहार का डांस चल रहा था। कोलकाता से हिन्दु भाग रहे थे, सुहरावर्दी को 19 अगस्त तक अपनी जीत का आश्वासन दिया गया था। 17 अगस्त तक हजारों हिन्दु मारे जा चुके थे।
लेकिन 18 अगस्त को, एक हिन्दु ने मुस्लिम अत्याचार का विरोध करने का फैसला किया। वह एक बंगाली ब्राह्मण थे और उनका नाम गोपाल मुखर्जी था। उसके दोस्त उसे पाठ कहते थे, क्योंकि वह मीट की दुकान चलाता थे।
वह कोलकाता के बोबाजार इलाके में मलंगा लेन में रहते थे।
गोपाल उस समय 33 वर्ष के थे और एक कट्टर राष्ट्रवादी और सुभाष चंद्र बोस के दृढ़ अनुयायी और गाँधी के अहिंसा के सिद्धांत की आलोचना करते थे।
गोपाल गली-गली संस्था भारत जाति वाहिनी चलाते थे। उनकी टीम में 500-700 लोग थे जो कि अच्छी तरह से प्रशिक्षित पहलवान थे।
18 अगस्त को गोपाल ने फैसला किया कि वे भागेंगे नहीं और मुसलमानों पर जवाबी हमला करेंगे।
उसने अपने पहलवानों को बुलाया, उन्हें हथियार दिए। एक मारवाड़ी व्यवसायी ने उसे वित्त देने का फैसला किया और उसे पर्याप्त धन दिया। उनकी योजना सबसे पहले जवाबी हमलों से हिन्दु क्षेत्रों को सुरक्षित करने की थी। उनके शब्द थे, "प्रत्येक मारे गये हिन्दु के लिए 10 मुसलमानों को मारो"।
मुस्लिम लीग के पास लाखों जिहादी थे, जबकि गोपाल के पास केवल कुछ सौ लड़ाके थे, लेकिन उन्होंने एक योजना बनाई और कोलकाता को मुस्लिम शहर बनने से बचाने के लिए अंत तक लड़ने का फैसला किया।
उन्होंने नियम बनाए कि मुसलमानों की तरह वे किसी भी महिला और बच्चों को नहीं छुएंगे।
गोपाल के पास खुद 2 पिस्टल थी जो उसे आजाद हिंद फौज से मिली थी। 18 अगस्त की दोपहर से, गोपाल के नेतृत्व में हिंदुओं ने वापस लड़ना शुरू कर दिया।
18 तारीख को जब मुसलमान हिंदुओं को मारने के लिए हिन्दु कॉलोनी में आए, तो उनका स्वागत गोपाल की टीम ने किया।
गोपाल की टीम ने हिन्दुओं को मारने के लिए आए हर मुस्लिम डकैत को मार डाला और 19 तारीख तक उन्होंने सभी हिन्दु उपनिवेशों को सुरक्षित कर लिया।
सुहरावर्दी के लिए यह पूरी तरह से आश्चर्य चकित करने वाली घटना थी। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि हिन्दु इस तरह से विरोध करेंगे।
जब 19 अगस्त तक उन्होंने हिन्दु क्षेत्रों को सुरक्षित कर लिया था, तो उनका बदला 20 अगस्त से शुरू हो गया था।
उन्होंने 16 और 17 अगस्त को हिंदुओं को मारने वाले सभी जेहादियों को चिह्नित किया और 20 अगस्त को उन पर हमला किया।
19 तारीख तक सभी हिंदुओं तक यह संदेश पहुँचा कि गोपाल के नेतृत्व में हिन्दु मुसलमानों से लड़ रहे हैं।
तो 21 अगस्त तक बहुत सारे हिन्दु उसके साथ हो चुके थे, सभी मुसलमानों से बदला लेने लगे।
उन्होंने 2 दिनों में इतने मुसलमानों को मार डाला, कि मुसलमानों की मौत हिन्दुओं की मौत से ज्यादा हो गई। 22 अगस्त तक खेल बदल चुका था। मुसलमान कोलकाता से भाग रहे थे।
सुहरावर्दी ने अपनी हार स्वीकार कर ली और कांग्रेस नेताओं से अनुरोध किया कि वे गोपाल पांडा को रोकने का अनुरोध करें, जो मुसलमानों के लिए यमराज बन गए थे।
गोपाल इस शर्त पर तैयार हो गया कि सभी मुसलमान उसे अपने हथियार सौंप दें, जिसे सुहरावर्दी ने स्वीकार कर लिया।
कोलकाता पर कब्जा करने की जिन्ना की योजना 22 अगस्त तक चकनाचूर हो गई थी। कोलकाता में भगवा झंडा फहरा रहा था।
कोलकाता के बाद गोपाल ने अपने संगठन को भंग नहीं किया और बंगाल के हिन्दुओं को बचाते रहे।
जब सब कुछ खत्म हो गया, जैसे ही एक फीचर फिल्म के अंत में पुलिस आती है, गाँधी ने गोपाल से मुलाकात की और अहिंसा और हिंदू-मुस्लिम एकता के अपने पाठों को लेकर उनसे अपने शास्त्रों (हथियार) को आत्मसमर्पण करने के लिए कहा।
गोपाल के शब्द थे, "गाँधी ने मुझे दो बार बुलाया, मैं नहीं गया। तीसरी बार, कुछ स्थानीय कांग्रेसी नेताओं ने मुझसे कहा कि मुझे कम से कम अपने कुछ हथियार जमा करने चाहिए। मैं वहाँ से चला गया। मैंने देखा कि लोग आ रहे हैं और हथियार जमा कर रहे हैं, जो किसी के काम के नहीं थे, आउट-ऑफ-ऑर्डर पिस्टल, उस तरह की चीजें।
तब गाँधी के सचिव ने मुझसे कहा, "गोपाल, तुम गाँधीजी को हथियार क्यों नहीं सौंप देते"?
मैंने उत्तर दिया, "इन भुजाओं से मैंने अपने क्षेत्र की महिलाओं को बचाया, मैंने लोगों को बचाया। मैं उन्हें सरेंडर नहीं करूंगा। मैंने कहा, महान कलकत्ता हत्याकांड के दौरान गाँधीजी कहाँ थे"। तब वह कहाँ थे जब हिन्दु मारे जा रहे थे? भले ही मैंने किसी को मारने के लिए कील का इस्तेमाल किया हो, मैं उस कील को भी नहीं छोड़ूंगा।
सुहरावर्दी ने कहा, "जब हिन्दु वापस लड़ने का मन बनाते हैं, तो वे दुनिया में सबसे घातक हो जाते हैं"।
गोपाल पाठ और श्यामा प्रसाद मुखर्जी दो महान नायक थे, जिन्होंने बंगाल के हिन्दुओं को जेहादी मुस्लिम डकैतों से बचाया था।
PARTITION OF INDIA-A CURSE ON HINDUS :: More than 30 lakh people were butchered by the Muslims. Infants were killed women were raped & abducted. Property, cash & jewellery were looted by the Muslims. All sorts of insult resulted for the Hindu population. The select committee selected Patel but Gandhi appointed Nehru-a devout Muslima as the Prime Minister.
GANDHI-THE BRITISH ARMY RECRUITMENT AGENT :: The British were always lenient to Gandhi & Nehru. Here is the reason.
28 जुलाई 1,914 को शुरू हुए प्रथम विश्व युद्ध में मात्र 6 दिन बाद, 4 अगस्त 1914 के दिन, भारतीय गुलाम सेना को, युद्ध में झोंक दिया गया।
ब्रिटेन की सत्ता के गुलाम भारतीय राजाओं और नबाबों को अपनी-अपनी सैना ब्रिटेन की रक्षा के लिये भेजनी पड़ी थी। मालिक का देश खतरे में था उसे बचाना भी जरूरी था; ताकि अंग्रेज जिन्दा रह कर भारत पर राज करता रहे और राजाओं की भी सत्ता कायम रहे, इतनी बड़ी मदद पाकर अंग्रेज जिन्दा रहे भी और प्रथम विश्व युद्ध के बाद 28 साल तक राज भी करते रहे। आम भारतीय नागरिक का खून चूसते रहे और उन्हें अपने पैरो तले रोंधते भी रहे और मारते भी रहे।
ये गुलाम लोग और कर भी क्या सकते थे मालिक का हुक्म जो था।
हुक्म अदूली का मतलब उस समय अपना राज-ताज और सिहासन गंवाना होता था। हुक्म नहीं मानने वाले राजाओं और नबाबों से अंग्रेज उनकी सत्ता छीन लिया करते थे और अपमानित और दंडित भी करते थे।
भारतीय राजाओ और कोंग्रेसीयों ने ब्रिटेन और ब्रिटेन की राज सत्ता को बचाने के लिए, रात-दिन, दिलो-जान, एक करके तन-मन और धन से बहुत मदद की थी।
बेचारे कोंग्रेसियों के बापू ने तो यहाँ तक कह दिया था कि ब्रिटेन की बर्बादी की शर्त पर हमें आजादी नहीं चाहिये।
कोंग्रेसियों के बापू ने तो गाँव-गाँव घूम कर नौजवानों को फौज में भर्ती होने के लिये प्रेरित किया था। 11 साल के लड़कों को फौज में भर्ती करना-करने एक आम बात थी।
ये ही गाँधी अहिंसा की बात करता था, यानि यहाँ इसके हिसाब से युद्ध में हिंसा नहीं होती थी।
भारत उन दिनों आज से कहीं बड़ा था। पाकिस्तान और बांग्लादेश ही नहीं, श्री लंका और म्यांमार (बर्मा) भी ब्रिटिश भारत का हिस्सा हुआ करते थे, तब भी, सेना में भर्ती के लिए अंग्रेजों की पसंद उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी भारत के सिख, मुसलमान और हिंदू क्षत्रिय ही होते थे।
उनके बीच से सैनिक व असैनिक किस्म के कुल मिलाकर लगभग 15 लाख लोग भर्ती किए गए थे। अगस्त 1,914 और दिसंबर 1,919 के बीच उनमें से 6,21,224 लड़ने-भिड़ने के लिए और 4,74,789 दूसरे सहायक कामों के लिए अन्य देशों में भेजे गए। इस दौरान एशिया, अफ्रीका और यूरोप के विभिन्न मोर्चों पर कुल मिलाकर करीब आठ लाख भारतीय सैनिक जी-जान से लड़े इनमें 74,187 मृत या लापता घोषित किए गए और 69, 214 घायल हुए।
मेरे दादा पण्डित हरगुलाल को महज 11 साल की उम्र में सेना में भर्ती किया गया और उन्हें 102 देशों में मोर्चे पर भेजा गया।
इस लड़ाई में भारत का योगदान सैनिकों व असैनिक कर्मियों तक ही सीमित नहीं था। भारतीय जनता के पैसों से 1,70,000 पशु और 3,70,000 टन के बराबर रसद भी मोर्चों पर भेजी गई।
लड़ाई का खर्च चलाने के लिए गुलाम भारत की अंग्रेज सरकार ने लंदन की सरकार को 10 करोड़ पाउन्ड अलग से दिए भारत की गरीब जनता का यह पैसा कभी लौटाया नहीं गया और मिलने के नाम पर पैदल सैनिकों को केवल 11 रुपये मासिक वेतन मिलता था।
13,000 भारतीय सैनिकों को बहादुरी के पदक मिले और 12 को विक्टोरिया क्रॉस भी मिला मगर किसी भारतीय को कोई ऊँचा अफसर नहीं बनाया गया न कभी यह माना गया कि भारी संख्या में जान लेवा हथियारों वाली औद्योगिक युद्ध पद्धति से और यूरोप की बर्फीली ठंड से अपरिचित भारतीय सैनिकों के खून-पसीने के बिना इतिहास के उस पहले विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की हालत बड़ी खस्ता हो जाती।
गाँधीवादी सेक्यूलर बुर्के में अंग्रेजियत के कुकर्म छुपाने में ही सहायक रही कांग्रेस पार्टी की आज तक की कुल व मुख्य उपलब्धि।
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DEATH SENTRENCE TO FREEDOM FIGHTERS-APOSTER |
1,915 के आखिर तक फ्रांस और बेल्जियम वाले मोर्चों पर के लगभग सभी भारतीय पैदल सैनिक तुर्की के उस्मानी साम्राज्य वाले मध्यपूर्व में भेज दिये गए। केवल दो घुड़सवार डिविजन 1,918 तक यूरोप में रहे। तुर्की भी नवंबर 1,914 से मध्यवर्ती शक्तियों की ओर से युद्ध में कूद पड़ा था।
भारतीय सैनिक यूरोप की कड़ाके की ठंड सह नहीं पाते थे। मध्यपूर्व के अरब देशों में यूरोप जैसी ठंड नहीं पड़ती। वे भारत से बहुत दूर भी नहीं हैं, इसलिए भारत से वहां रसद पहुँचाना भी आसान था।
यूरोप के बाद उस्मानी साम्राज्य ही मुख्य रणभूमि बन गया था। इसलिए कुल मिलाकर 5,88,717 भारतीय सैनिक और 2,93,152 असैनिक कर्मी वहां के विभिन्न मोर्चों पर भेजे गए ब्रिटेन, फ्रांस और रूस का मित्रराष्ट्र-गुट तुर्क साम्राज्य की राजधानी कोंस्तांतिनोपल पर, जिसे अब इस्तांबूल कहा जाता है, कब्जा करने की सोच रहा था। इस उद्देश्य से ब्रिटिश और फ्रांसीसी युद्धपोतों ने, 19 फरवरी, 1,915 को, तुर्की के गालीपोली प्रायद्वीप के तटवर्ती भाग पर- जिसे दर्रेदानियल (डार्डेनल्स) जलडमरूमध्य के नाम से भी जाना जाता है- गोले बरसाए। लेकिन न तो इस गोलाबारी से और न बाद की गोलीबारियों से इच्छित सफलता मिल पाई, इसलिए तय हुआ कि गाली-पोली में पैदल सैनिकों को उतारा जाए। 25 अप्रैल, 1,915 को भारी गोलाबारी के बाद वहाँ ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के सैनिक उतारे गए। पर वे भी तेजी से आगे नहीं बढ़ पा रहे थे।
उनकी सहायता के लिए भेजे गए करीब 3,000 भारतीय सैनिकों में से आधे से अधिक मारे गए।
गाली-पोली अभियान अंततः विफल हो गया। जिस तुर्क कमांडर की सूझ-बूझ के आगे मित्र राष्ट्रों की एक न चली, उसका नाम था गाजी मुस्तफा कमाल पाशा। युद्ध में पराजय के कारण उस्मानी साम्राज्य के विघटन के बाद वही वर्तमान तुर्की का राष्ट्रपिता और पहला राष्ट्रपति कमाल अतातुर्क कहलाया। 1919-20 में 27 देशों के पेरिस सम्मेलन द्वारा रची गई वर्साई संधि ने उस्मानी व ऑस्ट्रियाई-हंगेरियाई साम्राज्य का अंत कर दिया और यूरोप सहित मध्यपूर्व के नक्शे को भी एकदम से बदल दिया।
मध्यपूर्व में भेजे गए भारतीय सैनिकों में से 60 प्रतिशत मेसोपोटैमिया (वर्तमान इराक) में और 10 प्रतिशत मिस्र तथा फिलिस्तीन में लड़े। इन देशों में वे लड़ाई से अधिक बीमारियों से मरे।
उनके पत्रों के आधार पर इतिहासकार डेविड ओमिसी का कहना है, सामान्य भारतीय सैनिक ब्रिटिश सम्राट के प्रति अपनी निष्ठा जताने और अपनी जाति की इज्जत बचाने की भावना से प्रेरित होकर लड़ता था।
जिस के फलस्वरूप सन 1,919 में विश्व युद्ध खत्म होने के 28 साल बाद तक हमारी छाती पर मुूँग दलते रहे, हम पर शासन भी करते रहे और इन 28 सालों में हमारे बहुत से देश भक्त और क्रांतिकारियों को मारते भी रहे।
जलियांवाला बाग हत्या काण्ड और हमारे बहुत से देश भक्तों को भी इस 28 साल के दौर में अंग्रेजों ने मारा, जिन में लाला लाजपत राय और भगतसिंह तो सबसे प्रमुख नाम है।
जिस ब्रिटेन की राज सत्ता में कभी सूर्य अस्त नहीं होता था पर उस की पूरी सैना कुल 7 लाख ही थी। ब्रिटेन का नामोनिशान मिट जाता अगर उसे भारतीय राजाओं की 13 लाख सैना मदद करने नहीं पहुँचती।
प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन की तरफ से पूरी दुनियाँ में हर मोर्चे पर भारतीय सैनायें लड़ी थी।
भारतीय सैना के सैनिक उस युद्ध में 1.5 लाख फ्रांस में, 6 लाख मेसोपोटेमिया, (वर्तमान इराक) में 1.5 लाख फिलिस्तीन और मिस्र में और 4 लाख सैनिक इंग्लेंड के विभिन्न मोर्चो पर लड़ाई लड़े थे।
एक बात और भी याद रखने की है की उस समय यानि आज से 100 साल पहले राजस्थानी राजाओं की फोज में सिर्फ क्षत्रिय ही सैनिक हुआ करते थे, जो कि बहादुरी के लिये पुरे जगत में प्रसिद्ध थे और उन्होंने अपनी बहादुरी इस प्रथम विश्व युद्ध में दिखाई भी थी।
उस समय भारतीय राजाओं ने कुल 13 लाख सैनिक,करीब 2 लाख पशु यानि ऊँठ और घोड़े और 37 लाख टन रसद सामग्री भी भेजी थी।
अगर उस भयंकर युद्ध में भारत से इतनी बड़ी मदद नही मिलती तो ब्रिटेन की हार निश्चित थी और शायद हम 1,915 में ही हम आजाद हो गये होते।
सन 1,915 से सन 1,947 के बीच के समय में अंग्रेजों ने हमारे कितने क्रन्तिकारी देश भक्तों को गोलियों से और झूठे मुकदमों में फँसा कर फाँसी देकर मारा।
इस प्रथम विश्व युद्ध में भारत के करीब 90 हजार सैनिक मारे गये जिन सभी के नाम आज भी दिल्ली के इण्डिया गेट पर लिखे हुए हैं।
प्रथम विश्वयुद्ध में 1 करोड 10 लाख भारतीय सैनिक मारे गये थे।