Friday, February 5, 2021

प्रचेता

प्रचेता ::
मरीचि मत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
प्रचेतसं  वशिष्ठन् च भृगुं नारदमेव च॥
मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वशिष्ठ, भृगु और नारद ये दस महर्षि  हैं।[मनु स्मृति 1.35]   
Marichi, Atri, Angira, Pulasty, Pulah, Kratu, Pracheta, Vashishth, Bhragu and Narad are 10 Mahrishi.
प्रचेता दक्ष प्रजापति के पिता थे। 
प्रचेता वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि के भाई थे। प्रचेता का एक नाम वरुण भी है और वरुण ब्रह्मा जी के पुत्र थे। वाल्मीकि वरुण अर्थात् प्रचेता के 10वें पुत्र थे।[मनुस्मृति]
वाल्मीकि के पिता का नाम वरुण और माँ का नाम चार्षणी था। वह अपने माता-पिता के दसवें पुत्र थे। उनके भाई ज्योतिषाचार्य भृगु ऋषि थे। महर्षि बाल्मीकि के पिता वरुण महर्षि कश्यप और अदिति के नौवीं सन्तान थे। वरुण का एक नाम प्रचेता भी है, इसलिए बाल्मीकि प्राचेतस नाम से भी विख्यात हैं। 


प्रचेताओं की कथा महाराज पृथु के वंश में बर्हिषद् नाम के प्रसिद्ध राजा हुए ये राजा का नीतिपूर्वक पालन करने वाले परम पुण्यात्मा थे। इन्होंने इतने अधिक यज्ञ किये हैं कि सारा भूमण्ड़ल ही यज्ञमण्ड़ल बन गया है। इसी से ये प्राचीनबर्हि नाम प्रसिद्ध हुए इन्होंने भगवान ब्रम्हाजी के कहने से समुद्र की कन्या शतद्रुति से विवाह किया। शतद्रुति के गर्भ से प्राचीनबर्हि के प्रचेता नाम के दस पुत्र हुए। प्रचेतागण जब वयस्क हुए तो पिता ने उन्हें विवाह करके संतान उत्पन्न करने की आज्ञा दी। भगवान के अनुग्रह के बिना उत्तम संतान का होना कठिन हैं। यह सोचकर वह भगवान की प्रशन्नता के लिए वन में तप करने के लिए पश्चिम दिशा में जाने लगा मार्ग में समुद्र के समीप उन्हें एक दिव्य सरोवर दिखाई दिया।
उसमें सुंदर कमल खिले थे तथा उसका जल अत्यन्त निर्मल था वहाँ विभिन्न वाद्दों के साथ गन्धर्वों का मनोहर गान हो रहा था। अचानक प्रचेताओं ने देखा कि उस सरोवर से देवधिदेव भगवान शंकर अपने प्रमुख गणों के साथ निकल रहें थे। उन्हें देखकर प्रचेताओं ने उन्हें भावपुर्वक प्रणाम किया। भगवान शंकर ने कहा तुम लोग राजा प्राचीनबर्हि के पुत्र हो और तुम्हारे मन में भगवान की आराधना करने की इच्छा हैं। इसलिए तुम्हारे ऊपर अनुग्रह करने के लिए ही तुम्हें दर्शन दिया हैं. क्योकि मुझे भगवान और भक्त दोनों प्रिय हैं। अत: तुम लोगों को भगवान की प्राप्ति कराने वाला एक स्तोत्र बताता हुँ। इसका जप करने से तुम्हारा कल्याण हो जाएगा। ऐसा कहकर भगवान शंकर ने प्रचेताओं को वह पवित्र स्तोत्र बतलाया। 
प्रचेताओं ने समुद्र के अंदर कटिपर्यन्त जल में खड़े होकर उस पवित्र स्तोत्र का जप करते हुए दस हजार वर्षों तक तप किया। उनकी तपस्या से प्रशन्न भगवान हरि प्रकट हुए उन्होंने प्रचेताओं से कहा राजपुत्रो तुम लोग बड़े ही प्रेम से भगवदाराधन एक ही धर्म का आचरण कर रहे हो। तुम्हारे इस सख्यभाव से हम बहुत प्रसन्न हैं। जो मनुष्य प्रतिदिन संध्या के समय तुम्हारा स्मरण करेगा, उसका भ्राताओं में तथा समस्त प्राणियों तुम्हारे ही समान प्रेम उत्पन्न होगा तुम्हें ब्रम्हा के समान एक लोक प्रसिद्ध पुत्र उत्पन्न होगा जो अपनी संतानों के द्वारा इस त्रिलोकी को भर देगा। भगवान इन वाक्यों को सुनकर प्रचेतागण कृतज्ञता से भर गये। उन लोगों ने भगवान की अनेक प्रकार से स्तुति करते हुए कहा- प्रभो हमारे लिए तो आपकी प्रसन्नता ही सब कुछ हैं। आपके चरणों का सांनिध्य प्राप्त हो जाने के बाद मनुष्य के लिए कुछ भी असम्भव नही रहता हम तो आपसे इतना ही चाहते हैं। कि हम कि हम जहाँ भी रहें वहाँ आपके चरणों में भक्ति बनी रहे और आपके भक्तों का संग प्राप्त रहे। प्रचेताओं के प्रेम भरे इस विनय को सुनकर भगवान बड़े संतुष्ट हुए और तथास्तु कहकर अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर प्रचेताओं ने ब्रम्हाजी के कहने से वृक्षों की दी हुई मारिषा नामक कन्या से विवाह किया मारिषा के गर्भ से ब्रम्हाजी के मानस पुत्र दक्षप्रजापति नें पुन: जन्म धारण किया ब्रम्हाजी ने जब दक्ष को कार्य सौंपा तब प्रचेतागण अपनी भार्या मारिषा को पुत्र के अधीन करके वन को चले गये और देवर्षि नारद से उपदेश लेकर भगवान के चरणों में ध्यान करते हुए भगवद्धाम को प्राप्त हुए।
प्रचेता दक्ष का नारद जी को शाप :: लकड़ियों की कितनी भी बड़ी राशि क्यों न हो आग की एक चिंगारी उसे जलाकर राख कर देती है। बस इसी प्रकार प्रभू का एक नाम बड़े से बड़े पाप को जलाकर भस्म कर देता है।
परीक्षित जी ने पूछा- गुरुदेव! प्रचेता दक्ष का क्या हुआ? जो प्राचीनवर्हि के पौत्र हैं।
शुकदेव जी बोले- राजन! मैं ने तुम्हें बताया कि जो प्राचीनवर्हि थे उनके 10 पुत्र हुए। यही तो प्रचेता कहलाते हैं। इनका विवाह पारुषी कन्या से हुआ। जिससे दक्ष नाम का पुत्र हुआ और प्रचेताओं ने दक्ष को राजा बनाकर वन की ओर चले गए।
जब प्रचेता दक्ष राजा बने तो सबसे पहले तपस्या की, भगवान प्रसन्न हुए और “असिक्नी” नाम की कन्या को सौंपकर बोले पुत्र अब तुम इसे पत्नी रूप में स्वीकार करो और सृष्टि विस्तार करो। इतना कह भगवान अंतर्धान हो गए।
शुकदेवजी कहते हैं- राजन! इस प्रकार कालांतर में प्रचेता दक्ष ने 10 हजार पुत्र उतपन्न किए और उन पुत्रों से भी कहा पुत्रो अब तुम भी विवाह कर सृष्टि का विस्तार करने में मेरी मदद करो। तब उन पुत्रों ने कहा अवश्य पिताजी, परंतु सबसे पहले हम तपस्या करना चाहते हैं और इतना कह, वे सभी वन की ओर चल पड़े।
रास्ते में ही नारद जी से भेंट हो गई। नारदजी बोले- पुत्रो तुम सब एक साथ कहां जा रहे हो? उन दक्ष पुत्रों ने देवर्षि को प्रणाम किया और बोले- महाराज हैम सभी तपस्या करने जा रहे हैं। उसके बाद पिताजी के आदेशानुसार विवाह करके सृष्टि विस्तार में सहयोग करेंगे।
नारद जी बोले- वाह क्या बढ़िया कार्य पाया है तुम लोगों ने, क्या तुम्हारा जन्म मात्र संतानोत्पत्ति के लिए हुआ है? नहीं तुम्हारा यह जन्म तो उस परमात्मा के सानिध्य प्राप्ति के लिए है जिसके लिए सन्त, महात्मा तरसते है। उपदेश पा कर दक्ष के सभी 10 हजार पुत्र ईश्वर मार्ग की ओर चले गए।
दक्ष को जब इस बात का ज्ञान हुआ कि नारदजी ने मेरे पुत्रों को कर्तव्य पथ से विमुख कर दिया तो फिर से उन्होंने एक हजार पुत्र उत्पन्न किए। नारद जी ने उनको भी मोक्ष का रास्ता बताया। जब फिर इस बात का पता चला तो दक्ष ने नारद जी को शाप दे दिया।
अहो असाधो साधुनां साधुलिंगेन नास्त्वया। 
असाध्वकार्यर्भकाणां भिक्षोर्मार्ग: प्रदर्शित:
अरे असाधू तू तो साधू कहलाने के लायक ही नहीं है, तू मेरे भोले भाले बच्चों को भिखमंगो का मार्ग बताता है। जा मैं तुझे शाप देता हूँ, कि तुम कहीं भी स्थिर न बैठ सको, इस लोकालोक में भटकते रहो।[श्री मद्भागवत महापुराण​ 36.5.6]
शुकदेवजी कहते हैं, नारदजी दक्ष के इस शाप को स्वीकार कर के अंतर्ध्यान हो गए। अब इस बार दक्ष ने 60 कन्याएं उत्पन्न करी, दक्ष ने इनमे से 10 कन्याएं धर्म को 13 कश्यप ऋषि को सत्ताइस चंद्रमा को, दो भूत को, दो अंगिरा को, दो कृशाश्व को और शेष चार तार्क्ष्य नाम धारी कश्यप को व्याही।

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