Thursday, May 7, 2020

XXX MATA SATI & BHAGWAN SHIV माता सती और भगवान् शिव

MATA SATI & BHAGWAN SHIV
माता सती और भगवान् शिव 
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
 By :: Pt. Santosh  Bhardwaj 
dharmvidya.wordpress.com hindutv.wordpress.com jagatgurusantosh.wordpress.com santoshhastrekhashastr.wordpress.com bhagwatkathamrat.wordpress.com santoshkipathshala.blogspot.com santoshsuvichar.blogspot.com santoshkathasagar.blogspot.com bhartiyshiksha.blogspot.com santoshhindukosh.blogspot.com
माता सती जन्म कथा :: भगवान ब्रह्मा के दक्षिण अंगुष्ठ से प्रजापति दक्ष की उत्पत्ति हुई। दक्ष प्रजापति परम पिता ब्रह्मा के पुत्र थे, जो कश्मीर घाटी के हिमालय क्षेत्र में रहते थे। भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक प्रजापति दक्ष का पहला विवाह स्वायंभुव मनु और शतरूपा की तीसरी पुत्री प्रसूति से हुआ। प्रजापति दक्ष की दो पत्नियां थीं प्रसूति और वीरणी। दक्ष प्रजापति की कई पुत्रियाँ थीं। सभी पुत्रियाँ गुणवती थीं, परन्तु दक्ष के मन में संतोष नहीं था।
ब्रह्मा जी ने दक्ष प्रजापति से कहा! “पुत्र मैं तुम्हारे परम कल्याण की बात कह रहा हूँ। भगवान शिव ने 'पूर्णा परा प्रकृति' (देवी आदि शक्ति ) को पत्नी स्वरूप प्राप्त करने हेतु पूर्व में आराधना की थी। जिसके परिणाम स्वरूप देवी आदि शक्ति ने उन्हें वर प्रदान किया कि वे शिव को पति रूप में वरण करेंगी।' तुम उग्र तपस्या कर उन आदि शक्ति को प्रसन्न करो और उन्हें अपनी पुत्री रूप में प्राप्त करो, जिसके पश्चात उनका शिव जी से विवाह करना। परम-सौभाग्य से वह आदि शक्ति देवी जिसके यहाँ जन्म लेंगी उसका जीवन सफल हो जायेगा"।
प्रजापति दक्ष ने ब्रह्मा जी को आश्वासन दिया कि वह घोर साधना कर देवी आदि शक्ति को अपने पुत्री रूप में प्राप्त करेंगे। वे चाहते थे उनके घर में एक ऐसी पुत्री का जन्म हो, जो शक्ति-संपन्न हो। सर्व-विजयिनी हो। दक्ष एक ऐसी पुत्री के लिए तप करने लगे। प्रजापति दक्ष, देवी की आराधना हेतु तत्पर हुए तथा उपवासादी नाना व्रतों द्वारा कठोर तपस्या करते हुए, उन्होंने देवी आदि शक्ति की आराधना की। दक्ष की तपस्या से संतुष्ट हो देवी आदि शक्ति ने उन्हें दर्शन दिया! वे चार भुजाओं से युक्त एवं कृष्ण वर्ण की थीं तथा गले में मुंड-माला धारण किये हुए थीं। नील कमल के समान उनके नेत्र अत्यंत सुन्दर प्रतीत हो रहे थे तथा वे सिंह के पीठ पर विराजमान थीं। देवी आदि शक्ति ने दक्ष प्रजापति से तपस्या का कारण पूछा! साथ ही उन्हें मनोवांछित वर प्रदान करने का आश्वासन दिया। इस प्रकार देवी से आश्वासन पाने पर दक्ष ने उन्हें अपने यहाँ पुत्री रूप में जन्म धारण करने हेतु निवेदन किया।
देवी आदि शक्ति ने प्रजापति दक्ष से कहा “मैं तुम्हारे यहाँ जन्म धारण करूँगी तथा भगवान शिव की पत्नी बनूँगी, मैं तुम्हारी तपस्या से संतुष्ट हूँ। मैं तुम्हारे घर में तब तक रहूँगी जब तक कि तुम्हारा पुण्य क्षीण न हो और तुम्हारे द्वारा मेरे प्रति अनादर करने पर मैं पुनः अपनी यह आकृति धारण कर वापस अपने धाम को चली जाऊंगी।” इस प्रकार देवी दक्ष से कह कर माँ आदि शक्ति देवी भगवती अंतर्ध्यान हो गईं।
फलतः माँ भगवती आद्य शक्ति ने सती रूप में दक्ष प्रजापति के यहाँ जन्म लिया। दक्ष पत्नी प्रसूति ने एक कन्या को जन्म दिया तथा दसवें दिन सभी परिवार जनों ने एकत्रित हो, उस कन्या का नाम सती रखा।
जैसे जैसे सती की आयु बढ़ी, वैसे वैसे ही उसकी सुन्दरता और गुण भी बढने लगे। सती दक्ष की सभी पुत्रियों में अलौकिक थीं। उन्होंने बाल्यकाल में ही कई ऐसे अलौकिक कृत्य कर दिखाए थे, जिन्हें देखकर स्वयं दक्ष को भी विस्मय की लहरों में डूब जाना पड़ा।
प्रसूति से दक्ष की 24 कन्याएं थीं और वीरणी से 60 कन्याएँ। इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियाँ थीं। समस्त दैत्य, गंधर्व, अप्सराएँ, पक्षी, पशु सब सृष्टि इन्हीं कन्याओं से उत्पन्न हुई है। दक्ष की ये सभी कन्याएँ, देवी, यक्षिणी, पिशाचिनी आदि कहलाईं। उक्त कन्याओं और इनकी पुत्रियों को ही किसी न किसी रूप में पूजा जाता है। प्रसूति से दक्ष की 24 पुत्रियाँ :- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शाँति, सिद्धि, कीर्ति, ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनुसूया, ऊर्जा, स्वाहा, सती और स्वधा। पर्वत राजा दक्ष ने अपनी 13 पुत्रियों का विवाह धर्म से किया। ये 13 पुत्रियाँ हैं :- श्रद्धा ,लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शाँति, सिद्धि और कीर्ति। इसके बाद ख्याति का विवाह महर्षि भृगु से, सम्भूति का विवाह महर्षि मरीचि से, स्मृति का विवाह महर्षि अंगीरस से, प्रीति का विवाह महर्षि पुलत्स्य से, सन्नति का कृत से, अनुसूया का महर्षि अत्रि से, ऊर्जा का महर्षि वशिष्ठ से, स्वाहा का पितृस से हुआ।
जब सती विवाह योग्य हुई, तो दक्ष को उनके लिए वर की चिंता हुई। उन्होंने ब्रह्मा जी से परामर्श किया। ब्रह्मा जी ने कहा, "सती आद्या शक्ति का अवतार हैं। आद्या आदि शक्ति और शिव आदि पुरुष हैं। अतः सती के विवाह के लिए शिव ही योग्य और उचित वर हैं।" दक्ष प्रजापति ने ब्रह्मा जी की बात मानकर सती का विवाह भगवान् शिव के साथ कर दिया। सती कैलाश में जाकर भगवान् शिव के साथ रहने लगीं। यद्यपि भगवान् शिव के दक्ष के जामाता थे, किंतु एक ऐसी घटना घटी जिसके कारण दक्ष के हृदय में भगवान् शिव के प्रति बैर और विरोध पैदा हो गया। एक बार ब्रह्मा जी ने धर्म के निरूपण के लिए एक सभा का आयोजन किया था। सभी बड़े-बड़े देवता सभा में एकत्र थे। भगवान् शिव भी एक ओर बैठे थे। सभा मण्डल में दक्ष का आगमन हुआ। दक्ष के आगमन पर सभी देवता उठकर खड़े हो गए, पर भगवान् शिव खड़े नहीं हुए। उन्होंने दक्ष को प्रणाम भी नहीं किया। फलतः दक्ष ने अपमान का अनुभव किया। केवल यही नहीं, उनके हृदय में भगवान शिव के प्रति ईर्ष्या की आग जल उठी। वे उनसे बदला लेने के लिए समय और अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। भगवान् शिव को किसी के मान और किसी के अपमान से क्या मतलब? वे तो समदर्शी हैं। उन्हें तो चारों ओर अमृत दिखाई पड़ता है। जहां अमृत होता है, वहां कडुवाहट और कसैलेपन का क्या काम?
दक्ष प्रजापति और माता सती :: पूर्व काल में, समस्त महात्मा मुनि प्रयाग में एकत्रित हुए, वहांँ पर उन्होंने एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में तीनों लोकों के समस्त ज्ञानी-मुनिजन, देवर्षि, सिद्ध गण, प्रजापति इत्यादि सभी आयें। भगवान् शिव भी उस यज्ञ आयोजन पर पधारे थे, उन्हें आया हुए देख वहाँ पर उपस्थित समस्त गणों ने उन्हें प्रणाम किया। इसके पश्चात वहाँ पर दक्ष प्रजापति आये, उन दिनों वे तीनों लोकों के अधिपति थे, इस कारण सभी के सम्माननीय थे। परन्तु अपने इस गौरवपूर्ण पद के कारण, उन्हें बड़ा अहंकार भी था। उस समय उस अनुष्ठान में उपस्थित सभी ने नतमस्तक होकर उन्हें प्रमाण किया, परन्तु भगवान् शिव ने उनके सम्मुख मस्तक नहीं झुकाया, वे अपने आसन पर बैठे रहे। इस कारण दक्ष मन ही मन उन पर अप्रसन्न हुए, उन्हें क्रोध आ गया तथा बोले “सभी देवता, असुर, ब्राह्मण इत्यादि मेरा सत्कार करते हैं, मस्तक झुकाते हैं, परन्तु वह दुष्ट भूत-प्रेतों का स्वामी, श्मशान में निवास करने वाला शिव, मुझे प्रणाम क्यों नहीं करता ? इसके वेदोक्त कर्म लुप्त हो गए हैं, यह भूत और पिशाचों से सेवित हो मतवाला बन गया हैं तथा शास्त्रीय मार्ग को भूल कर, नीति-मार्ग को सर्वदा कलंकित किया करता हैं। इसके साथ रहने वाले गण पाखँडी, दुष्ट, पापाचारी होते हैं, स्वयं यह स्त्री में आसक्त रहने वाला तथा रति-कर्म में ही दक्ष हैं। यह रुद्र चारों वर्णों से पृथक तथा कुरूप हैं, इसे यज्ञ से बहिष्कृत कर दिया जाए। यह श्मशान में वास करने वाला तथा उत्तम कुल और जन्म से हीन हैं, देवताओं के साथ यह यज्ञ का भाग न पाए"।
दक्ष के कथन का अनुसरण कर भृगु आदि बहुत से महर्षि, शिव को दुष्ट मानकर उनकी निंदा करने लगे। दक्ष की बात सुनकर नंदी को बड़ा क्रोध आया तथा दक्ष से कहा! “दुर्बुद्धि दक्ष! तूने मेरे स्वामी को यज्ञ से बहिष्कृत क्यों किया? जिनके स्मरण मात्र से यज्ञ सफल और पवित्र हो जाते हैं, तूने उन शिव जी को कैसे श्राप दे दिया? ब्राह्मण जाति की चपलता से प्रेरित हो तूने इन्हें व्यर्थ ही श्राप दे दिया हैं, वे सर्वथा ही निर्दोष हैं"।
नंदी द्वारा इस प्रकार कहने पर दक्ष क्रोध के मारे आग-बबूला हो गया तथा उनके नेत्र चंचल हो गए और उन्होंने रुद्र गणों से कहा! “तुम सभी वेदों से बहिष्कृत हो जाओ, वैदिक मार्ग से भ्रष्ट तथा पाखण्ड में लग जाओ तथा शिष्टाचार से दूर रहो, सिर पर जटा और शरीर में भस्म एवं हड्डियों के आभूषण धारण कर मद्यपान में आसक्त रहो"।
इस पर नंदी अत्यंत रोष के वशीभूत हो गए और दक्ष को तत्काल इस प्रकार कहा, “तुझे शिव तत्व का ज्ञान बिलकुल भी नहीं हैं, भृगु आदि ऋषियों ने भी महेश्वर का उपहास किया हैं। भगवान् रुद्र से विमुख तेरे जैसे दुष्ट ब्राह्मणों को मैं श्राप देता हूँ! सभी वेद के तत्व ज्ञान से शून्य हो जाये, ब्राह्मण सर्वदा भोगो में तन्मय रहें तथा क्रोध, लोभ और मद से युक्त हो निर्लज्ज भिक्षुक बने रहें, दरिद्र रहें। सर्वदा दान लेने में ही लगे रहे, दूषित दान ग्रहण करने के कारण वे सभी नरक-गामी हों, उनमें से कुछ ब्राह्मण ब्रह्म-राक्षस हो। शिव को सामान्य समझने वाला दुष्ट दक्ष तत्व ज्ञान से विमुख हो जाये। यह आत्मज्ञान को भूल कर पशु के समान हो जाये तथा दक्ष धर्म-भ्रष्ट हो शीघ्र ही बकरे के मुख से युक्त हो जाये"।
क्रोध युक्त नंदी को भगवान् शिव ने समझाया, “तुम तो परम ज्ञानी हो, तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये, तुमने व्यर्थ ही ब्राह्मण कुल को श्राप दे डाला। वास्तव में मुझे किसी का श्राप छू ही नहीं सकता हैं; तुम्हें व्यर्थ उत्तेजित नहीं होना चाहिये। वेद मंत्राक्षरमय और सूक्तमय हैं, उसके प्रत्येक सूक्त में देहधारियों के आत्मा प्रतिष्ठित हैं, किसी की बुद्धि कितनी भी दूषित क्यों न हो वह कभी वेदों को श्राप नहीं दे सकता हैं। तुम सनकादिक सिद्धों को तत्व-ज्ञान का उपदेश देने वाले हो, शाँत हो जाओ"।
कल्प के आदि में भगवान् शिव ने, दक्ष के पिता भगवान् ब्रह्मा पाँच मस्तकों से एक मस्तक काट गया दिया, जिससे व्यर्थ की बातें होती थीं। दक्ष भगवान् शिव को ब्रह्म हत्या का दोषी मानने लगा।
यज्ञ शाला से आने के पश्चात प्रजापति दक्ष भगवान् शिव द्वारा अपने पिता ब्रह्म देव का मुख काटकर किये गए अपमान और यज्ञ शाला में स्वयं के हुए अपमान को याद कर ईर्ष्या और वैमनस्य भाव से मन ही मन भगवान् शिव को नीचा दिखाकर अपमानित करने पर विचार करने लगा।
अन्य कन्याओं का विवाह हुआ तो दक्ष को सती के विवाह की चिंता शुरू हुई। उसे ध्यान आया कि यह साक्षात् भगवती आदि शक्ति हैं। इन्होंने पूर्व से ही किसी और को पति बनाने का निश्चय कर रखा हैं। परन्तु दक्ष ने सोचा कि भगवान् शिव के अंश से उत्पन्न रुद्र उनके आज्ञाकारी हैं, उन्हें ससम्मान बुलाकर मैं अपनी इस सुन्दर कन्या उन्हें दे सकता हूँ।
तभी दक्ष के महल में तुलसी विवाह उत्सव पर तुलसी और भगवान् सालिगराम के विवाह का आयोजन किया गया। जिसमें माता सती ने रंगोली में भगवान् शिव की आकृति बना दी और उसमे खो गईं; जिसे देखदक्ष झल्ला उठा है। राजकुमारी सती को उनकी शिव भक्त दासी नेभगवान् शिव की महिमा बताई। देवताओं के आग्रह पर भगवान् शिव सती की रक्षा के लिए सती के समक्ष प्रकट हुए और सती की रक्षा की। भगवान् शिव को देख माता सती शिवमय हो गईं। माता सती ने भगवान् शिव से जुड़ाव सा महसूस किया। भगवान् शिव अंतर्ध्यान हो गए।
माता सती और भगवान् शिव :: माता सती और भगवान् शिव विवाह पश्चात हिमालय शिखर कैलाश में वास करने हेतु गए, जहाँ सभी देवता, महर्षि, नागों के प्रमुख, गन्धर्व, किन्नर, प्रजापति इत्यादि उत्सव मनाने हेतु गये। उनके साथ हिमालय-पत्नी मैना भी अपनी सखियों के संग गई। इस प्रमोद के अवसर पर सभी ने वहां उत्सव मनाया, सभी ने उन ‘शिव-सती’ दम्पती को प्रणाम किया, उन्होंने मनोहर नित्य प्रस्तुत किये तथा विशेष गाना-बजाना किया। अंततः शिव तथा सती ने वहांँ उत्सव मनाने वाले सभी गणों को प्रसन्नतापूर्वक विदाई दी, तत्पश्चात सभी वहाँ से चले गए।
हिमालय पत्नी मैना जब अपने निवास स्थान को लौटने लगी, तो उन्होंने उन परम सुंदरी मनोहर अंगों वाली सती को देख कर सोचा कि सती को जन्म देने वाली माता धन्य हैं, मैं भी आज से प्रतिदिन इन देवी से प्रार्थना करूँगी ताकि अगले जन्म में ये मेरी पुत्री बनें। ऐसा विचार कर, हिमालय पत्नी मैना ने माता सती की प्रतिदिन पूजा और आराधना करने लगी।
हिमालय पत्नी मैना ने महाष्टमी से उपवास आरंभ कर वर्ष पर्यंत भगवती सती के निमित्त व्रत प्रारंभ कर दिया, वे सती को पुत्री रूप में प्राप्त करना चाहती थीं। अंततः मैना के तपस्या से संतुष्ट हो देवी आदि-शक्ति ने उन्हें अगले जन्म में पुत्री होने का आशीर्वाद दिया।
एक दिन बुद्धिमान नंदी नाम के वृषभ भगवान् शिव के पास कैलाश गए, वैसे वे दक्ष के सेवक थे, परन्तु दधीचि मुनि के शिष्य होने के कारण परम शिव भक्त भी थे। उन्होंने भूमि पर लेट कर भगवान् शिव जी को दंडवत प्रणाम किया तथा बोले कि हे महादेव! मैं दक्ष का सेवक हूँ, परन्तु महर्षि मरीचि के शिष्य होने के कारण आप के सामर्थ्य को भली-भांति जनता हूँ। मैं आपको साक्षात आदि-पुरुष तथा माता सती को मूल प्रकृति आदि शक्ति के रूप में इस चराचर जगत की सृष्टि-स्थिति-प्रलय कर्ता मानता हूँ। इस प्रकार नंदी ने भगवान् शिव की भक्ति युक्त, गदगद वाणी से स्तुति कर, भगवान् शिव को संतुष्ट तथा प्रसन्न किया।
नंदी द्वारा स्तुति करने पर प्रसन्न हो भगवान् शिव उनसे बोले कि तुम्हारी मनोकामना क्या है, स्पष्ट बताओ, मैं उसे अवश्य पूर्ण करूँगा।
नंदी ने भगवान् शिव से कहा! “मैं चाहता हूँ कि आप की सेवा करता हुआ निरंतर आप के समीप रहूँ, मैं जहाँ भी रहूँ, आप के निरन्तर दर्शन करता रहूँ।”
तदनंतर, भगवान् शिव ने उन्हें अपना प्रधान अनुचर तथा प्रमथ-गणों का प्रधान नियुक्त कर दिया। भगवान् शिव ने नंदी को आज्ञा दी कि, मेरे निवास स्थान से कुछ दूर रहकर तुम सभी गणों के साथ पहरा दो, जब भी में तुम्हारा स्मरण करूँ तुम मरे पास आना तथा बिना आज्ञा के कोई भी मेरे पास ना आ पावें। इस प्रकार सभी प्रमथगण भगवान् शिव के निवास स्थान से कुछ दूर चले गए और पहरा देने लगे।
भगवती आदि शक्ति ने विचार किया कि कभी हिमालय पत्नी मैना ने भी उन्हें अपनी पुत्री रूप में प्राप्त करने का वचन माँगा था तथा उन्होंने उन्हें मनोवांछित वर प्रदान भी किया था। आब शीघ्र ही उनके पुत्री रूप में वे जन्म लेंगी इसमें कोई संशय नहीं हैं। दक्ष के पुण्य क्षीण होने के कारण देवी भगवती का उसके प्रति लगाव भी कम हो गया था। उन्होंने अपनी लीला कर प्रजापति द्वारा उत्पन्न देह तथा स्थान को छोड़ने का निश्चय कर लिया तथा हिमालय राज के घर जन्म ले, पुनः भगवान् शिव को पति स्वरूप में प्राप्त करने का निश्चय किया एवं उचित समय की प्रतीक्षा करने लगी।
भगवान् शिव, माता सती के साथ कैलाश में 25 वर्षों तक रहे और एक अद्भुत जीवन को जिया।
एक बार भगवान् शिव को राम कथा सुनने की इच्छा हुई तो उन्होंने सती से कहा चलो कुंभज ऋषि के आश्रम में चलते हैं। कुंभज ऋषि के आश्रम में पति-पत्नी पहुँचे। उन्होंने कहा मैं आपसे राम कथा सुनना चाहता हूं। भगवान् शिव आए तो कुंभज ऋषि खड़े हो गए उन्होंने भगवान् शिव को प्रणाम किया और बोले बैठिए मैं सुनाता हूँ। माता सती ने सोचा ये क्या बात हुई जो वक्ता हैं वो श्रोता को प्रणाम कर रहा है। श्रोता वक्ता को करता है यह तो समझ में आता है। तो जो खुद ही प्रणाम कर रहा है वो क्या राम कथा कैसे-और क्या सुनाएगा?! माता सती ने सोचा कि भगवान् शिव तो ऐसे ही भोलेनाथ हैं, किसी के भी साथ बैठ जाते हैं। यहाँ से माता सती के मन में विचारों का क्रम तर्कों के साथ चालू हो गया। ऋषि ने इतनी सुंदर राम कथा सुनाई कि भगवान् शिव आनंद विभोर हो गये। पर माता सती कथा नहीं सुन रही थीं। भगवान् शिव ने कथा सुनी और अपनी पत्नी को देखा कि वे कथा नहीं सुन रही थीं। वे इधर-उधर देख रही थीं।
जब दोनों पति-पत्नी कुंभज ऋषि के आश्रम से राम कथा सुनकर लौट रहे थे तब भगवान् श्री राम चंद्र की विरह लीला चल रही थी। रावण ने सीता का हरण कर लिया था और भगवान् श्री राम और लक्ष्मण उनकी खोज में दर दर भटक रहे थे। राम सीता के विरह में सामान्य व्यक्तियों की भाँती रो रहे थे।
यह देखकर भगवान् शिव ने कहा कि जिनकी कथा सुनकर हम आ रहे हैं, उनकी लीला चल रही है।भगवान् शिव ने उन्हें दूर से ही प्रणाम किया, जय सच्चिदानंद और जैसे ही उनको प्रणाम किया तो माता सती का माथा और ठनक गया कि ये पहले तो कथा सुनकर आए एक ऐसे ऋषि से जो वक्ता होकर श्रोता को प्रणाम कर रहे थे और अब ये मेरे पति देव इनको प्रणाम कर रहे हैं, रोते हुए राजकुमार को।
भगवान् शिव ने ये देख कर कहा, ‘सती आप समझ नहीं रही हैं, ये वही पर ब्रह्म परमेश्वर भगवान् श्री राम हैं जिनकी कथा हम सुनकर आए हैं। उनका अवतार हो चुका है और ये लीला चल रही है। मैं प्रणाम कर रहा हूँ, आप भी प्रणाम करिए। सती ने बोला, ‘मैं तो नहीं कर सकती प्रणाम। ये ब्रह्म हैं, मैं कैसे मान लूँ। मैं तो परीक्षा लूँगी।‘ वे सोचने लगीं, अयोध्या के नृपति दशरथ के पुत्र राम आदि पुरुष के अवतार कैसे हो सकते हैं? वे तो आजकल अपनी पत्नी सीता के वियोग में दंडक वन में उन्मत्त की भांति विचरण कर रहे हैं। वृक्ष और लताओं से उनका पता पूछते फिर रहे हैं। यदि वे आदि पुरुष के अवतार होते, तो क्या इस प्रकार आचरण करते? माता सती के मन में भगवान् राम की परीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हो चुका था। माता सती ने भगवान् शिव से कहा कि वो श्री राम की परीक्षा लेना चाहती है। भगवान् शिव ने उन्हें मना किया कि ये उचित नहीं है। लेकिन माता सती नहीं मानी। माता सती ने सोचा कि अगर मैंने सीता का वेश धर लिया तब ये जो राजकुमार हैं, सीता-सीता चिल्ला रहे हैं मुझे पहचान नहीं पाएँगे। माता सती ने माता सीता का रूप धरा और जाकर वन में ठीक उस जगह बैठ गयी जहाँ से भगवान् श्री राम और लक्ष्मण जी आने वाले थे। जैसे ही दोनों वहाँ से गुजरे तो उन्होंने माता सीता के रूप में माता सती को देखा। लक्ष्मण जी तो माता सती की इस माया के प्रभाव में आ गए और माता सीता रूपी माता सती को देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने जल्दी से आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम किया। तभी भगवान् श्री राम ने आगे बढ़कर माता सती को दंडवत प्रणाम किया। ये देख कर लक्ष्मण जी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। इससे पहले वे कुछ समझ पाते, भगवान् श्री राम ने हाथ जोड़ कर माता सीता रूपी माता सती से कहा कि ‘माता आप इस वन में क्या कर रही है? क्या आज महादेव ने आपको अकेले ही विचरने के लिए छोड़ दिया है? अगर आपके अपने इस पुत्र के लायक कोई सेवा हो तो बताइए। माता सती ने जब ऐसा सुना तो उनसे कुछ उत्तर देते न बना। वे अदृश्य हो गई और मन ही मन पश्चाताप करने लगीं कि उन्होंने व्यर्थ ही भगवान् श्री राम पर संदेह किया। भगवान् श्री राम सचमुच आदि पुरुष के अवतार हैं।
माता सती लौटकर आई और अपने भगवान् शिव के पास आकर बैठ गईं। भगवान् शिव ने पूछा कि देवी परीक्षा ले ली? तो माता सती ने, झूठ बोल दिया कि मैंने कोई परीक्षा नहीं ली। मैंने तो आप ही की तरह प्रणाम किया।
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं, कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं।[राम चरित मानस]
भगवान् शिव से क्या छुपा था। उन्हें पता चल गया कि माता सती ने माता सीता का रूप धर कर भगवान् श्री राम की परीक्षा ली थी। उन्होंने सोचा कि इन्होंने सबसे बड़ी गलती यह की कि ये माता सीता बन गई, मेरी माँ का रूप धर लिया तो अब मेरा इनसे दाम्पत्य नहीं चलेगा। मैं इनका मानसिक त्याग करता हूँ। अब उनके लिए सती को एक पत्नी के रूप में देख पाना संभव ही नहीं था। उसी क्षण से भगवान् शिव मन ही मन माता सती से विरक्त हो गए। उनके व्यवहार में आये परिवर्तन को देख कर थोड़े दिन तो माता सती सोचती रहीं कि ये तो रूठ गए, लंबे रूठ गए, दो-तीन दिन तो रूठते थे पहले भी, तो मना लेती थी पर इस बार तो स्थायी हो गया। तब चिंता होने लगी। ये तो सुन ही नहीं रहे हैं, ध्यान में चले गए। माता सती ने पिता मह ब्रह्मा जी से इसका कारण पूछा तो उन्होंने माता सती को उनकी गलती का एहसास कराया। ब्रह्मा जी ने कहा कि इस जन्म में तो अब भगवान् शिव किसी भी परिस्थिति में तुम्हें अपनी पत्नी के रूप में नहीं देख सकेंगे। माता सती दुख और पश्चाताप की लहरों में डूबने उतारने लगीं।
माता सती ने माता सीता जी का वेश धारण किया, यह जानकर भगवान् शिव के मन में विषाद उत्पन्न हो गया। उन्होंने सोचा कि यदि अब वे सती से प्रेम करते हैं तो यह धर्म विरुद्ध होगा क्योंकि सीता जी को वे माता के समान मानते थे। परंतु वे सती से बहुत प्रेम करते थे, इसलिए उन्हें त्याग भी नहीं सकते थे। तब उन्होंने मन ही मन प्रतिज्ञा की कि अब पति-पत्नी के रूप में उनका और सती का मिलन नहीं हो सकता परन्तु इस बारे में उन्होंने माता सती से प्रत्यक्ष में कुछ नहीं कहा। तत्पश्चात वे कैलाश लौट आए।
ये जानकार माता सती अत्यधिक दुखी हुईं, पर अब क्या हो सकता था। भगवान् शिव के मुख से निकली हुई बात असत्य कैसे हो सकती थी? भगवान् शिव समाधिस्थ हो गए। माता सती दुख और पश्चाताप की लहरों में डूबने उतारने लगीं।
भगवान् शिव और माता सती का अद्भुत प्रेम शास्त्रों में वर्णित है। इसका प्रमाण है माता सती के यज्ञ कुण्ड में कूदकर आत्मदाह करना और ‌माता सती के शव को उठाए क्रोधित भगवान् शिव का तांडव करना। हालांकि यह भी भगवान् शिव की लीला ही थी क्योंकि इससे 51 शक्ति पीठों की स्थापना हो गई।
भगवान् शिव ने माता सती को पहले ही बता दिया था कि उन्हें यह शरीर त्याग करना है। इसी समय उन्होंने माता सती को अपने गले में मौजूद मुंडों की माला का रहस्य भी बताया था।
एक बार नारद जी के उकसाने पर माता सती भगवान् शिव से जिद करके पूछने लगीं कि आपके गले में जो मुँड माला है, उसका रहस्य क्या है? जब काफी समझाने पर भी माता सती न मानी तो भगवान् शिव ने राज खोल ही दिया। भगवान् शिव ने माता सती से कहा कि इस मुँड माला में जितने भी मुँड हैं, वे सभी आपके हैं। माता सती इस बात को सुनकर हैरान रह गयी।
माता सती ने भगवान् शिव से पूछा, यह भला कैसे संभव है कि सभी मुँड मेरे हैं। इस पर भगवान् शिव बोले यह आपका 108 वाँ जन्म है। इससे पहले आप 107 बार जन्म लेकर शरीर त्याग चुकी हैं और ये सभी मुँड उन पूर्व जन्मों की निशानी है। इस माला में अभी एक मुँड की कमी है इसके बाद यह माला पूर्ण हो जाएगी। भगवान् शिव की इस बात को सुनकर माता सती ने भगवान् शिव से कहा कि मैं बार-बार जन्म लेकर शरीर त्याग करती हूँ, लेकिन आप शरीर त्याग नहीं करते!
भगवान् शिव हँसते हुए बोले कि मैं अमर कथा जानता हूँ इसलिए मुझे शरीर का त्याग नहीं करना पड़ता। इस पर माता सती ने भी अमर कथा जानने की इच्छा प्रकट की। भगवान् शिव जब माता सती को कथा सुनाने लगे तो उन्हें नींद आ गयी और वह कथा सुन नहीं पायी।
इसलिए उन्हें दक्ष के यज्ञ कुंड में कूदकर अपने शरीर का त्याग करना पड़ा। उसके पश्चात भगवान् शिव ने माता सती के मुँड को भी माला में गूँथ लिया। इस प्रकार 108 मुँड की माला तैयार हो गयी। माता सती ने अगला जन्म पार्वती के रूप में लिया। इस जन्म में माता पार्वती को अमरत्व प्राप्त हुआ और फिर उन्हें शरीर त्याग नहीं करना पड़ा।
दक्ष प्रजापति अपने दुर्भाग्य के कारण प्रतिदिन भगवान् शिव और माता सती की निंदा करते रहते थे। वे भगवान् शिव को सम्मान नहीं देते थे तथा उन दोनों का द्वेष परस्पर बढ़ता ही गया। एक बार देवर्षि नारद, दक्ष प्रजापति के पास गए और उनसे कहा कि तुम सर्वदा भगवान् शिव की निंदा करते रहते हो, इस निन्दात्मक व्यवहार के प्रतिफल में जो कुछ होने वाला हैं, उसे भी सुन लो। भगवान् शिव शीघ्र ही अपने गणो के साथ यहाँ आकर सब कुछ भस्म कर देंगे, हड्डियाँ बिखेर देंगे, तुम्हारा कुल सहित विनाश कर देंगे। मैंने तुम्हें यह स्नेह वश बता रहा हूँ, तुम अपने मंत्रियों से भली-भाँती विचार-विमर्श कर लो। यह कह नारद जी वहाँ से चले गए। तदनंतर, दक्ष ने अपने मंत्रियों को बुलवाकर, इस सन्दर्भ में अपने भय को प्रकट किया तथा कैसे इसका प्रतिरोध हो, इसका उपाय विचार करने हेतु कहा।
दक्ष की चिंता से अवगत हो, सभी मंत्री भयभीत हो गए। उन्होंने दक्ष को परामर्श दिया कि भगवान् शिव के साथ हम वैर नहीं कर सकते तथा इस संकट के निवारण हेतु हमें और कोई उपाय नहीं सूझ रहा। आप परम बुद्धिमान हैं तथा सब शास्त्रों के ज्ञाता हैं, आप ही इस समस्या के निवारण हेतु कोई प्रतिकारात्मक उपाय सोचें, हम सभी उसे सफल करने का प्रयास करेंगे।
दक्ष ने संकल्प किया कि मैं सभी देवताओं को आमंत्रित कर वृहस्पति श्रवा यज्ञ करूँगा! जिसके संरक्षक सर्व-विघ्न-निवारक यज्ञाधिपति भगवान् विष्णु स्वयं होंगे, जहाँ श्मशान वासी भगवान् शिव को नहीं बुलाया जायेगा। दक्ष यह देखना चाहते थे कि भूतपति शिव इस पुण्य कार्य में कैसे विघ्न डालेंगे। इस तथ्य में दक्ष के सभी मंत्रियों का भी मत था, तदनंतर वे क्षीरसागर के तट पर जाकर, अपने यज्ञ के संरक्षण हेतु भगवान् विष्णु से प्रार्थना करने लगे। दक्ष के प्रार्थना को स्वीकार करते हुए, भगवान् विष्णु उस यज्ञ के संरक्षण हेतु दक्ष की नगरी में आयें। दक्ष ने इन्द्रादि समस्त देवताओं सहित, देवर्षियों, ब्रह्म-ऋषियों, यक्षों, गन्धर्वों, किन्नरों, पितरों, ग्रह, नक्षत्र दैत्यों, दानवों, मनुष्यों इत्यादि सभी को निमंत्रण किया परन्तु भगवान् शिव तथा उनकी पत्नी सती को निमंत्रित नहीं किया और न ही उनसे सम्बन्ध रखने वाले किसी अन्य को। अगस्त्य, कश्यप, अत्रि, वामदेव, भृगु, दधीचि, व्यास जी, भारद्वाज, गौतम, पैल, पाराशर, गर्ग, भार्गव, ककुप, सित, सुमन्तु, त्रिक, कंक तथा वैशम्पायन ऋषि एवं और भी दूसरे मुनि सपरिवार दक्ष के यज्ञ अनुष्ठान में पधारे थे। दक्ष ने विश्वकर्मा से अनेक विशाल तथा दिव्य भवन का निर्माण करवा कर, अतिथियों के ठहरने हेतु प्रदान किया, अतिथियों का उन्होंने बहुत सत्कार किया। दक्ष का वह यज्ञ कनखल नामक स्थान में हो रहा था।
यज्ञ अनुष्ठान में उपस्थित समस्त लोगों से दक्ष ने निवेदन किया कि मैंने अपने इस यज्ञ महोत्सव में शिव तथा सती को निमंत्रित नहीं किया हैं, उन्हें यज्ञ का भाग नहीं प्राप्त होगा, परम पुरुष भगवान् विष्णु इस यज्ञ में उपस्थित हैं तथा स्वयं इस यज्ञ की रक्षा करेंगे। आप सभी किसी का भी भय न मान कर इस यज्ञ में सम्मिलित रहें। इस पर भी वहाँ उपस्थित देवता आदि आमंत्रित लोगों को भय हो रहा था, परन्तु जब उन्होंने सुना कि इस यज्ञ की रक्षा हेतु स्वयं यज्ञ-पुरुष भगवान् श्री विष्णु आये हैं, तो उनका भय दूर हो गया।
प्रजापति दक्ष ने यज्ञ में माता सती को छोड़ अपनी सभी कन्याओं को बुलवाया तथा वस्त्र-आभूषण इत्यादि आदि देकर उनका यथोचित सम्मान किया। उस यज्ञ में किसी भी पदार्थ की कमी नहीं थीं, तदनंतर दक्ष ने यज्ञ प्रारंभ किया, उस समय स्वयं पृथ्वी देवी यज्ञ-वेदी बनी तथा साक्षात् अग्निदेव यज्ञकुंड में विराजमान हुए।
स्वयं यज्ञ-भगवान् श्री हरी विष्णु उस यज्ञ में उपस्थित थे परन्तु, वहाँ दधीचि मुनि ने भगवान् शिव को न देखकर, प्रजापति दक्ष से पूछा कि आप के यज्ञ में सभी देवता अपने-अपने भाग को लेने हेतु साक्षात उपस्थित हैं। यहाँ सभी देवता आयें हैं, परन्तु यज्ञ पति भगवान् शिव नहीं दिखाई देते है। उनके बगैर कोई यज्ञ पूरा नहीं हो सकता।
प्रजापति दक्ष ने मुनिवर से कहा कि हे मुनि! मैंने इस शुभ अवसर पर शिव को निमंत्रित नहीं किया हैं, मेरी मान्यता हैं कि ऐसे पुण्य-कार्यों में शिव की उपस्थिति उचित नहीं हैं।
दधीचि मुनि ने कहा कि यह यज्ञ उन भगवान् शिव के बिना श्मशान तुल्य हैं। इस पर दक्ष को बड़ा क्रोध हुआ तथा उन्होंने दधीचि मुनि को अपशब्द कहे। मुनिराज ने उन्हें पुनः भगवान् शिव को ससम्मान बुला लेने का आग्रह किया। कई प्रकार के उदाहरण देकर उन्होंने भगवान् शिव के बिना सब निरर्थक है यह समझाने का प्रयास किया। दधीचि मुनि ने कहा कि जिस देश में नदी न हो, जिस यज्ञ में भगवान् शिव न हो, जिस नारी का कोई पति न हो, जिस गृहस्थ का कोई पुत्र न हो वह सब निरर्थक ही है। कुश के बिना संध्या तथा तिल के बिना पित्र-तर्पण, हवि के बिना कोई होम पूर्ण नहीं है। उसी प्रकार भगवान् शिव के बिना कोई यज्ञ पूर्ण नहीं है। जो विष्णु हैं, वही शिव हैं और शिव हैं, वही विष्णु हैं। इन दोनों में कोई भेद नहीं है। इन दोनों से किसी एक के प्रति भी जो कोई द्वेष रखता है तो वह द्वेष दोनों के ही प्रति है, ऐसा समझना चाहिये। भगवान् शिव के अपमान हेतु तुमने जो ये यज्ञ का आयोजन किया हैं, इस से तुम नष्ट हो जाओगे।
इस पर दक्ष ने कहा कि सम्पूर्ण जगत के पालक यज्ञ-पुरुष जनार्दन श्री हरी विष्णु जिसके रक्षक हों, वहाँ श्मशान में रहने वाला शिव मेरा कुछ अहित नहीं कर सकता। अगर वह अपने भूत-प्रेतों के साथ यहाँ आता है तो भगवान् विष्णु का चक्र उसके ही विनाश का कारण बनेगा। इस पर दधीचि मुनि ने दक्ष से कहा कि अविनाशी भगवान् विष्णु तुम्हारी तरह मूर्ख नहीं हैं, जो तुम्हारे लिए युद्ध करें। कुछ समय पश्चात तुम्हें यह स्वतः ही ज्ञात हो जायेगा।
यह सुनकर दक्ष और अधिक क्रोधित हो गया और अपने अनुचरों से कहा कि इस ब्राह्मण को दूर भगा दो। इस पर मुनि राज ने दक्ष से कहा कि तू क्या मुझे भगा रहा हैं, तेरा भाग्य तो पहले से ही तुझसे रूठ गया है, अब शीघ्र ही तेरा विनाश होगा, इस में कोई संदेह नहीं है। उस यज्ञ अनुष्ठान से दधीचि मुनि क्रोधित हो चेले गए। उनके साथ दुर्वासा, वामदेव, च्यवन एवं गौतम आदि ऋषि भी उस अनुष्ठान से चल दिए, क्योंकि वे भगवान् शिव तत्त्व के उपासक थे। इन सभी ऋषियों के जाने के पश्चात, उपस्थित ऋषियों से ही यज्ञ को पूर्ण करने का दक्ष ने निश्चय कर यज्ञ आरंभ किया। परिवार के सदस्यों द्वारा कहने पर भी दक्ष ने सती का अपनाम करना बंद नहीं किया, उसका पुण्य क्षीण हो चुका था। परिणामस्वरूप, वह माँ भगवती आदि शक्ति रूपा माता सती का अपमान करता ही जा रहा था।
अन्य सभी ऋषिगण बड़े उत्साह तथा हर्ष के साथ दक्ष के यज्ञ में जा रहें थे। माता सती ने गंधमादन पर्वत पर अपनी सखियों के संग क्रीड़ाएँ कर रहीं थीं। उन्होंने रोहिणी के संग चंद्रमा को आकाश मार्ग से जाते हुए देखा तथा अपनी सखी विजया से कहा कि जल्दी जाकर पूछ तो आ, ये चन्द्र देव रोहिणी के साथ कहा जा रहे हैं? तदनंतर विजया, चन्द्र देव के पास गई। चन्द्र देव ने उन्हें दक्ष के महा-यज्ञ का सारा वृतांत सुनाया। विजया, माता सती के पास आई और चन्द्र देव द्वारा जो कुछ कहा गया, वह सब कह सुनाया। यह सुनकर देवी सती को बड़ा विस्मय हुआ और वे भगवान् शिव के पास आईं।
यज्ञ अनुष्ठान से देवर्षि नारद, भगवान् शिव के पास आये और उन्होंने भगवान् शिव को बताया कि दक्ष ने अपने यज्ञ अनुष्ठान में केवल मात्र आप दोनों को छोड़ कर अन्य सभी को निमंत्रित किया हैं। उस अनुष्ठान में आपको न देखकर मैं दुःखी हुआ तथा आपको बताने आया हूँ कि आप लोगों का वहाँ जाना उचित है। आप अविलम्ब वहाँ जायें।
भगवान् शिव ने नारद जी से कहा कि हम दोनों के वहाँ जाने से कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होने वाला है, प्रजापति जैसे चाहें, अपना यज्ञ सम्पन्न करें।
नारद जी ने कहा कि आप का अपमान करके यदि वह यह यज्ञ पूर्ण कर लेगा तो इसमें आप की अवमानना होगी। यह समझते हुए कृपा कर आप वहाँ चल कर अपना यज्ञ भाग ग्रहण करें, अन्यथा उस यज्ञ में विघ्न उत्पन्न होगा।
भगवान् शिव ने कहा कि हे नारद! न तो ही मैं वहाँ जाऊंगा और न ही सती वहाँ जायेंगी। वहाँ जाने पर भी दक्ष हमें हमारा यज्ञ भाग नहीं देगा, तय है।
भगवान् शिव से इस प्रकार उत्तर पाकर नारद जी ने माता सती से कहा कि हे जगन्माता! आपको वहाँ अवश्य जाना चाहिये। कोई कन्या अपने पितृ गृह में किसी विशेष आयोजन के बारे में सुन कर कैसे वहाँ नहीं जा सकती है? आप की अन्य जितनी बहनें हैं, सभी अपने-अपने पतियों के साथ उस आयोजन में आई हैं। उस दक्ष ने आपको अभिमान वश नहीं बुलाया है। आप उनके इस अभिमान के नाश हेतु कोई उपाय करें। आपके पति-देव भगवान् शिव तो परम योगी हैं। इन्हें अपने मान या अपमान की कोई चिंता नहीं है। वे तो उस यज्ञ में जायेंगे नहीं और न ही कोई विघ्न उत्पन्न करेंगे। इतना कहकर नारद जी पुनः यज्ञ सभा में वापस आ गए।
नारद मुनि के वचन सुनकर, माता सती ने अपने पति भगवान् शिव से कहा कि मेरे पिता प्रजापति दक्ष विशाल यज्ञ का आयोजन किये हुए हैं। हम दोनों का उस में जाना उचित ही है। यदि हम वहाँ गए तो वे हमारा सम्मान ही करेंगे।
इस पर भगवान् शिव ने कहा कि तुम्हें ऐसे अहितकर बात मन में नहीं लानी चाहिये। बिन निमंत्रण के जाना मरण के समान ही है। तुम्हारे पिता को मेरा विद्याधर कुलो में स्वछंद विचरण करना अच्छा नहीं लगता है। मेरे अपमान के निमित्त ही उन्होंने इस यज्ञ का आयोजन किया है। मैं जाऊँ या तुम, हम दोनों का वहाँ पर कोई सम्मान नहीं होगा, यह तुम समझ लो। श्वसुर गृह में जामाता अधिक से अधिक सम्मान की आशा रखता है। यदि वहाँ जाने से अपमान होता है तो वह मृत्यु से भी बढ़ कर कष्टदायक होगा। अतः मैं तुम्हारे पिता के यहाँ नहीं जाऊँगा। वहाँ मेरा जाना तुम्हारे पिता को प्रिय नहीं होगा। तुम्हारे पिता मुझे दिन-रात, दीन-हीन तथा दरिद्र और दुःखी कहते रहते है। बिन बुलाये वहाँ जाने पर वे और अधिक कटु-वचन कहने लगेंगे। अपमान हेतु कौन बुद्धिमान श्वसुर गृह जाना उचित समझता है? बिना निमंत्रण के हम दोनों का वहाँ जाना कदापि उचित नहीं है।
भगवान् शिव द्वारा समझाने पर भी माता सती नहीं मानी और कहने लगीं कि आपने जो कुछ भी कहा, वह सब सत्य है। परन्तु ऐसा भी तो हो सकता है कि वहाँ हमारे जाने पर वे हमारा यथोचित सम्मान करें।
भगवान् शिव ने माता सती से कहा कि तुम्हारे पिता ऐसे नहीं हैं, वे हमारा सम्मान नहीं करेंगे। मेरा स्मरण आते ही दिन-रात वे मेरी निंदा करते हैं। यह केवल मात्र तुम्हारा भ्रम ही है।
माता सती ने कहा कि आप जायें या न जायें यह आपकी रुचि है। आप मुझे आज्ञा दीजिये। मैं अपने पिता के घर अवश्य जाऊँगी, पिता के घर जाने हेतु कन्या को आमंत्रण-निमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती। वहाँ यदि मेरा सम्मान हुआ तो मैं पिताजी से कहकर आप को भी यज्ञ भाग दिलाऊँगी और यदि पिता जी ने मेरे सम्मुख आपकी निंदा की तो उस यज्ञ का विध्वंस कर दूँगी।
भगवान् शिव ने पुनः माता सती से कहा कि तुम्हारा वहाँ जाना उचित नहीं है। वहांँ तुम्हारा सम्मान नहीं होगा। पिता द्वारा की गई निंदा तुम सहन नहीं कर पाओगी। जिसके कारण तुम्हें प्राण त्याग करना पड़ेगा, तुम अपने पिता का क्या अनिष्ट करोगी?
इस पर माता सती ने क्रोधित होकर भगवान् शिव से कहा कि मैं अपने पिता के घर जरूर जाऊँगी, फिर आप मुझे आज्ञा दें या न दें। भगवान् शिव ने माता सती से अपने पिता के यहाँ जाने का वास्तविक प्रयोजन पूछा और कहा कि अगर उन्हें अपने पति की निंदा सुनने का कोई प्रयोजन नहीं है तो वे क्यों ऐसे पुरुष के गृह जा रही हैं, जहाँ उनकी सर्वथा निंदा होती हो।
माता सती ने कहा कि मुझे आपकी निंदा सुनने में कोई रुचि नहीं हैं और न ही मैं आपके निंदा करने वाले के घर जाना चाहती हूँ। वास्तविकता तो यह हैं, यदि आपका प्रकार अपमान कर, मेरे पिताजी इस यज्ञ को सम्पूर्ण कर लेते हैं तो भविष्य में हमारे ऊपर कोई श्रद्धा नहीं रखेगा और न ही हमारे निमित्त आहुति ही डालेगा। आप आज्ञा दें या न दें, मैं वहाँ जाकर यथोचित सम्मान न पाने पर यज्ञ का विध्वंस कर दूंगी।
भगवान् शिव ने कहा कि मेरे इतने समझाने पर भी आप आज्ञा से बाहर होती जा रही हैं इसलिये जो आपकी इच्छा हो वही करें। आप मेरे आदेश की प्रतीक्षा क्यों कर रहीं हैं?
भगवान् शिव के ऐसा कहने पर दक्ष-पुत्री सती देवी अत्यंत क्रुद्ध हो गईं। उन्होंने सोचा कि जिनको कठिन तपस्या करने के पश्चात प्राप्त किया था, आज वो मेरा ही अपमान कर रहें हैं। अब मैं इन्हें अपना वास्तविक प्रभाव दिखाऊँगी।"
भगवान् शिव ने देखा कि माता सती के होंठ क्रोध से फड़क रहे हैं तथा नेत्र प्रलयाग्नि के समान लाल हो गए हैं, जिसे देखकर भयभीत होकर उन्होंने अपने नेत्रों को मूँद लिया। माता सती ने सहसा घोर अट्टहास किया, जिसके कारण उनके मुँह में लंबी-लम्बी दाढ़े दिखने लगीं। जिसे देख-सुन कर भगवान् शिव हतप्रभ हो गए। कुछ समय पश्चात उन्होंने जब अपनी आँखों को खोला तो, सामने देवी का भीम आकृति युक्त भयानक रूप दिखाई दे रहा था। देवी वृद्धावस्था के समान वर्ण वाली हो गई थीं। उनके केश खुले हुए थे, जिह्वा मुख से बाहर लपलपा रही थी। उनकी चार भुजाएँ थीं। उनके देह से प्रलयाग्नि के समान ज्वालाएँ निकल रही थीं। उनके रोम-रोम से स्वेद निकल रहा था। वे भयंकर डरावनी चीत्कार कर रहीं थीं तथा आभूषणों के रूप में केवल मुँड-मालाएं धारण किये हुए थीं। उनके मस्तक पर अर्ध चन्द्र शोभित था, शरीर से करोड़ों प्रचंड आभाएँ निकल रहीं थीं, उन्होंने चमकता हुआ मुकुट धारण कर रखा था। इस प्रकार के घोर भीमाकार भयानक रूप में, अट्टहास करते हुए देवी, भगवान् शिव के सम्मुख खड़ी हुई।
उन्हें इस प्रकार देख कर भगवान् शिव ने भयभीत हो भागने का मन बनाया। वे हतप्रभ हो इधर उधर दौड़ने लगे। माता सती ने भयानक अट्टहास करते हुए, निरुद्देश्य भागते हुए भगवान् शिव से कहा कि आप मुझसे डरिये नहीं। परन्तु भगवान् शिव डर के मारे इधर उधर भागते रहे। इस प्रकार भागते हुए अपने पति को देखकर, दसों दिशाओं में देवी अपने ही दस अवतारों में खड़ी हो गईं। भगवान् शिव जिस भी दिशा की ओर भागते, वे अपने एक अवतार में उनके सम्मुख खड़ी हो जातीं। इस तरह भागते-भागते जब भगवान् शिव को कोई स्थान नहीं मिला तो वे एक स्थान पर खड़े हो गए। इसके पश्चात उन्होंने जब अपनी आँखें खोलीं तो अपने सामने मनोहर मुख वाली श्यामा देवी को देखा। उनका मुख कमल के समान खिला हुआ था, दोनों पयोधर स्थूल तथा आँखें कमल के समान थीं। उनके केश खुले हुए थे, देवी करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान थीं, उनकी चार भुजाएं थीं। वे दक्षिण दिशा में सामने खड़ी थीं।
अत्यंत भयभीत हो विस्मय से भगवान् शिव ने उन देवी से पूछा कि आप कौन हैं, मेरी प्रिय सती कहा हैं?
माता सती ने भगवान् शिव से कहा कि आप मुझ सती को नहीं पहचान रहें है, ये सारे रूप जो आप देख रहे है; काली, तारा, त्रिपुरसुंदरी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, बगलामुखी, धूमावती, मातंगी एवं कमला, ये सब मेरे ही नाना नाम हैं। भगवान् शिव द्वारा उन नाना देवियों का परिचय पूछने पर देवी ने कहा कि ये जो आप के सम्मुख भीमाकार देवी हैं इनका नाम काली है। ऊपर की ओर जो श्याम-वर्णा देवी खड़ी हैं, वह तारा हैं, आपके दक्षिण में जो मस्तक-विहीन अति भयंकर देवी खड़ी हैं, वह छिन्नमस्ता हैं, आपके उत्तर में जो देवी खड़ी हैं, वह भुवनेश्वरी हैं, आपके पश्चिम दिशा में जो देवी खड़ी हैं, वह शत्रु विनाशिनी बगला मुखी’ देवी हैं, विधवा रूप में आपके आग्नेय कोण में धूमावती देवी खड़ी हैं, आपके नैऋत्य कोण में देवी त्रिपुर सुंदरी खड़ी हैं, आप के वायव्य कोण में जो देवी हैं, वह मातंगी हैं, आपके ईशान कोण में जो देवी खड़ी हैं, वह कमला हैं तथा आपके सामने भयंकर आकृति वाली मैं भैरवी खड़ी हूँ। अतः आप इनमें किसी से भी न डरें। यह सभी देवियाँ महाविद्याओं की श्रेणी में आती हैं, इनके साधक या उपासक पुरुषों को चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) तथा मनोकामनाएँ पूर्ण करने वाली हैं। आज मैं अपने पिता का अभिमान चूर्ण करने हेतु जाना चाहती हूँ, यदि आप न जाना चाहें, तो मुझे ही आज्ञा दें।
भगवान् शिव ने माता सती से कहा कि मैं अब आपको पूर्ण रूप से नहीं जान पाया हूँ। अतः पूर्व में प्रमाद या अज्ञान वश मैंने आपके विषय में जो भी कुछ अनुचित कहा हो, उसे क्षमा करें। आप आद्या परा विद्या हैं, सभी प्राणियों में आप व्याप्त हैं तथा स्वतंत्र परा-शक्ति हैं। आप का नियन्ता तथा निषेधक कौन हो सकता हैं? आपको रोक सकूँ, मुझमें ऐसा सामर्थ्य नहीं है। इस विषय में आपको जो अनुचित लगे आप वही करें।
इस प्रकार भगवान् शिव के कहने पर देवी उनसे बोलीं कि हे महेश्वर! सभी प्रमथ गणो के साथ आप यहीं कैलाश में ठहरें। मैं अपने पिता के यहाँ जा रही हूँ। भगवान् शिव को यह कह वह ऊपर खड़ी हुई तारा अकस्मात् एक रूप हो गई तथा अन्य अवतार अंतर्ध्यान हो गए। देवी ने प्रमथों को रथ लाने का आदेश दिया। वायु वेग से सहस्रों सिंहों से जुती हुई मनोरम देवी-रथ, जिसमें नाना प्रकार के अलंकार तथा रत्न जुड़े हुए थे, प्रमथ प्रधान द्वारा लाया गया। वह भयंकर रूप वाली काली देवी उस विशाल रथ में बैठ कर आपने पितृ गृह को चली, नंदी उस रथ के सारथी थे, इस कारण भगवान् शिव को सहसा धक्का सा लगा।
दक्ष यज्ञ मंडप में उस भयंकर रूप वाली देवी को देख कर सभी चंचल हो उठे, सभी भय से व्याकुल हो गए। सर्व प्रथम भयंकर रूप वाली देवी अपनी माता के पास गई, बहुत काल पश्चात आई हुई अपनी पुत्री को देख कर दक्ष-पत्नी प्रसूति बहुत प्रसन्न हुई तथा देवी से बोलीं कि तुम्हें आज इस घर में देख कर मेरा शोक समाप्त हो गया है। तुम स्वयं आद्या शक्ति हो। तुम्हारे दुर्बुद्धि पिता ने तुम्हारे पति भगवान् शिव की महिमा को न समझते हुए, उनसे द्वेष कर, यहाँ यज्ञ का योजन कर रहें हैं, जिसमें तुम्हें तथा तुम्हारे पति को निमंत्रित नहीं किया गया हैं। इस विषय में हम सभी परिवार वालों तथा बुद्धिमान ऋषियों ने उन्हें बहुत समझाया, परन्तु वे किसी की न माने।
माता सती ने अपनी माता से कहा कि मेरे पति भगवान् शिव का अनादर करने के निमित्त उन्होंने ये यज्ञ तो प्रारंभ कर लिया हैं, परन्तु मुझे यह नहीं लगता हैं कि यह यज्ञ निर्विघ्न समाप्त होगा। उनकी माता ने भी उन्हें ब्रह्म मुहूर्त में आयें हुए स्वप्न से अवगत कराया, जिसमें उन्होंने देखा की इस यज्ञ का विध्वंस, शिवगणों द्वारा हो गया हैं। इसके पश्चात माता सती ने अपनी माता को प्रणाम कर, अपने पिता के पास यज्ञ स्थल पर गईं।
उन भयंकर काली देवी को देख कर दक्ष सोचने लगा कि यह कैसी अद्भुत बात है। पहले तो सती स्वर्ण के वर्ण वाली गौर शरीर, सौम्य तथा सुन्दर थीं, आज वह श्याम वर्ण वाली कैसी हो गए हैं! सती इतनी भयंकर क्यों लग रही हैं? इसके केश क्यों खुले हैं? क्रोध से इसके नेत्र लाल क्यों हैं? इसकी दाढ़ें इतनी भयंकर क्यों लग रहीं हैं? इसने अपने शरीर में चीते का चर्म क्यों लपेट रखा हैं? इसकी चार भुजाएँ क्यों हो गई हैं? इस भयानक रूप में वह इस देव सभा में कैसे आ गई? सती ऐसे क्रुद्ध लग रही थीं, मानो वह क्षण भर में समस्त जगत का भक्षण कर देंगी। इसका अपमान कर हमने यह यज्ञ आयोजन किया हैं, मानो वह इसी का दंड देने हेतु यहाँ आई हो। प्रलय-काल में जो इन भगवान् ब्रह्मा एवं भगवान् विष्णु का भी संहार करती हैं, वह इस साधारण यज्ञ का विध्वंस कर दे तो भगवान् ब्रह्मा तथा भगवान् विष्णु क्या कर पायेंगे?
सती की इस भयंकर रूप को देख कर सभी यज्ञ-सभा में भय से काँप उठे। उन्हें देख कर सभी अपने कार्यों को छोड़ते हुए स्तब्ध हो गए। वहाँ बैठे अन्य देवता, दक्ष प्रजापति के भय से उन्हें प्रणाम नहीं कर पायें। समस्त देवताओं की ऐसी स्थिति देखकर, क्रोध से जलते नेत्रों वाली काली देवी से दक्ष ने कहा कि तू कौन हैं निर्लज्ज? किसकी पुत्री हैं? किसकी पत्नी हैं? यहाँ किस उद्देश्य से आई हैं? तू सती की तरह दिख रही है, क्या तू वास्तव में शिव के घर से आई मेरी कन्या सती हैं ?
इस पर सती ने कहा कि पिताजी, आपको क्या हुआ है? आप मुझे क्यों नहीं पहचान पा रहें हैं? आप मेरे पिता हैं और मैं आपकी पुत्री सती हूँ। मैं आपको प्रणाम करती हूँ।
दक्ष ने माता सती से कहा कि पुत्री, तुम्हारी यह क्या अवस्था हो गई हैं? तुम तो गौर वर्ण की थीं, दिव्य वस्त्र धारण करती थीं और आज तुम चीते का चर्म पहने भरी सभा में क्यों आई हो? तुम्हारे केश क्यों खुले हैं? तुम्हारे नेत्र इतने भयंकर क्यों प्रतीत हो रहें हैं? क्या शिव जैसे अयोग्य पति को पाकर तुम्हारी यह दशा हो गई है? या तुम्हें मैंने इस यज्ञ अनुष्ठान में नहीं आमंत्रित किया इसके कारण तुम अप्रसन्न हो? केवल शिव पत्नी होने के कारण मैंने तुम्हें इस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया हैं, ऐसा नहीं है कि तुमसे मेरा स्नेह नहीं है। तुमने अच्छा ही किया जो तुम स्वयं चली आईं। तुम्हारे निमित्त नाना अलंकार-वस्त्र इत्यादि रखे हुए हैं, इन्हें तुम स्वीकार करो! तुम तो मुझे अपने प्राणों की तरह प्रिय हो। कही तुम शिव जैसे अयोग्य पति पाकर दुःखी तो नहीं हो?
भगवान् शिव के सम्बन्ध में कटुवचन सुनकर माता सती के सभी अंग प्रज्वलित हो उठे और उन्होंने सोचा कि सभी देवताओं के साथ अपने पिता को यज्ञ सहित भस्म करने का मुझ में पर्याप्त सामर्थ्य है। परन्तु पितृ हत्या के भय से मैं ऐसा नहीं कर पा रहीं हूँ, परन्तु इन्हें सम्मोहित तो कर सकती हूँ।
ऐसा सोचकर सर्वप्रथम उन्होंने अपने समान आकृति वाली छाया-सती का निर्माण किया तथा उनसे कहा कि तू इस यज्ञ का विनाश कर दे। मेरे पिता के मुँह से शिव निंदा की बातें सुनकर, उन्हें नाना प्रकार की बातें कहना तथा अंततः इस प्रज्वलित अग्नि कुंड में अपने शरीर की आहुति दे देना। तुम पिताजी के अभिमान का इसी क्षण मर्दन कर दो, इसका समाचार जब भगवान् शिव को प्राप्त होगा तो वे अवश्य ही यहाँ आकर इस यज्ञ का विध्वंस कर देंगे। छाया सती से इस प्रकार कहकर, आदि शक्ति देवी स्वयं वहां से अंतर्ध्यान हो आकाश में चली गईं।
छाया सती ने दक्ष को चेतावनी दी कि वह देव सभा में बैठ कर शिव निंदा न करें नहीं तो वह उनकी जिह्वा हो काट कर फेंक देंगी।
दक्ष ने अपनी कन्या से कहा कि मेरे सम्मुख कभी उस शिव की प्रशंसा न करना। मैं उस दुराचारी श्मशान में रहने वाली, भूत-पति एवं बुद्धि-विहीन तेरे पति को अच्छी तरह जनता हूँ। तू अगर उसी के पास रहने में अपना सब सुख मानती है, तो तू वही रह! तू मेरे सामने उस भूत-पति भिक्षुक की स्तुति क्यों कर रही है?
छाया-सती ने कहा कि मैं आपको पुनः समझा रहीं हूँ। अगर अपना हित चाहते हो तो यह पाप-बुद्धि का त्याग करें तथा भगवान् शिव की सेवा में लग जाए। यदि प्रमाद-वश अभी भी भगवान् शिव की निंदा करते रहे तो वह यहाँ आकर इस यज्ञ सहित आपको विध्वस्त कर देंगे।
इस पर दक्ष ने कहा कि कुपुत्री, तू दुष्ट है! तू मेरे सामने से दूर हट जा। तेरी मृत्यु तो मेरे लिए उसी दिन हो गई थी, जिस दिन तूने शिव का वरण किया था। अब बार-बार मुझे अपने पति का स्मरण क्यों करा रही है? तेरा दुर्भाग्य है कि तुझे निकृष्ट पति मिला है। तुझे देख कर मेरा शरीर शोकाग्नि से संतप्त हो रहा है। हे दुरात्मिके! तू मेरी आँखों के सामने से दूर हो जा और अपने पति का व्यर्थ गुणगान न कर।
दक्ष के इस प्रकार कहने पर छाया सती क्रुद्ध हो कर भयानक रूप में परिवर्तित हो गई। उनका शरीर प्रलय के मेघों के समान काला पड़ गया था, तीन नेत्र क्रोध के मारे लाल अंगारों के समान लग रहे थे। उन्होंने अपना मुख पूर्णतः खोल दिया था, केश खुले पैरो तक लटक रहें थे। घोर क्रोध युक्त उस प्रदीप्त शरीर वाली माता सती ने अट्टहास करते हुए दक्ष से गंभीर वाणी में कहा कि अब मैं आप से दूर नहीं जाऊँगी, अपितु आपसे उत्पन्न इस शरीर को शीघ्र ही नष्ट कर दूँगी। देखते ही देखते वह छाया-सती क्रोध से लाल नेत्र कर, उस प्रज्वलित यज्ञकुंड में कूद गईं। उस क्षण पृथ्वी काँपने लगी तथा वायु भयंकर वेग से बहने लगी। पृथ्वी पर भयंकर उल्का-पात होने लगा। यज्ञ अग्नि की अग्नि बुझ गई, वह उपस्थित ब्राह्मणों ने नाना प्रयास कर पुनः जैसे-तैसे यज्ञ को आरंभ किया।
जैसे ही भगवान् शिव के 60,000 प्रमथों ने देखा कि माता सती ने यज्ञ कुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी, वे सभी अत्यंत रोष से भर गए। 20,000 प्रमथ गणों ने तो माता सती के साथ ही प्राण त्याग दिए। बाकी बचे हुए प्रमथ गणों ने दक्ष को मारने हेतु अपने अस्त्र-शास्त्र उठाये। उन आक्रमणकारी प्रमथों को देख कर भृगु ने यज्ञ में विघ्न उत्पन्न करने वालों के विनाश हेतु यजुर्मंत्र से दक्षिणाग्नि में आहुति दी। जिस से यज्ञ से ऋभु नाम के सहस्रों देवता प्रकट हुए। उन सब के हाथों में जलती हुई लकड़ियाँ थीं। उन ऋभुयों के संग प्रमथ गणों का भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें उन प्रमथ गणों की हार हुई।
यह सब देख वहाँ पर उपस्थित सभी देवता, ऋषि, मरुद्गणा, विश्वेदेव, लोकपाल इत्यादि सभी चुप रहें। वहांँ उपस्थित सभी को यह आभास हो गया था की, वहाँ पर कोई विकट विघ्न-संकट उत्पन्न होने वाला है। उनमें से कुछ एक ने भगवान् विष्णु से विघ्न के समाधान करने हेतु कोई उपाय करने हेतु कहा। वहाँ उपस्थित सभी अत्यधिक भयभीत हो गए और भगवान् शिव द्वारा उत्पन्न होने वाले विध्वंसात्मक प्रलय स्थित की कल्पना करने लगे।
देवर्षि नारद ने कैलाश जाकर भगवान् शिव से कहा कि हे महेश्वर! आप को प्रणाम है। आप की प्राणप्रिय माता सती ने अपने पिता के घर आप की निंदा सुनकर क्रोध-युक्त हो यज्ञकुंड में अपने देह का त्याग कर दिया है तथा यज्ञ पुनः आरंभ हो गया है। देवताओं ने आहुति लेना प्रारंभ कर दिया हैं। भृगु के मन्त्र बल के प्रताप से जो प्रमथ बच गए थे, वे सभी भगवान् शिव के पास गए और उन्होंने उन्हें उपस्थित परिस्थिति से अवगत करवाया।
नारद जी तथा प्रमथ गणों से यह समाचार सुनकर भगवान् शिव शोक प्रकट करते हुए रुदन करने लगे। वे घोर विलाप करने लगे तथा मन ही मन सोचने लगे कि हे सती! मुझे इस शोक-सागर में निमग्न कर तुम कहा चली गईं? अब मैं कैसे अपना जीवन धारण करूँगा? इसी कारण मैंने तुम्हें वहाँ जाने हेतु मना किया था, परन्तु तुम अपना क्रोध प्रकट करते हुए वहाँ गई तथा अंततः तुमने देह त्याग कर दिया।
इस प्रकार के नाना विलाप करते हुए भगवान् शिव के मुख तथा नेत्र क्रोध से लाल हो गए तथा उन्होंने रौद्र रूप धारण कर लिया। उनके रुद्र रूप से पृथ्वी के जीव ही क्या स्वयं पृथ्वी भी भयभीत हो गई। भगवान् शिव ने अपने सर से एक जटा उखड़ी और उसे रोष पूर्वक पर्वत के ऊपर दे मारा, इसके साथ ही उनके ऊपर के नेत्रों से एक बहुत चमकने वाली अग्नि प्रकट हुई। उनके जटा के पूर्व भाग से महा-भयंकर,वीरभद्र प्रकट हुए तथा जटा के दूसरे भाग से महाकाली उत्पन्न हुई, जो घोर भयंकर दिखाई दे रहीं थीं।
वीरभद्र ने प्रलय-काल के मृत्यु के समान विकराल रूप धारण किया, जिससे तीन नेत्रों से जलते हुए अंगारे निकल रहे थे, उनके समस्त शरीर से भस्म लिपटी हुई थीं, मस्तक पर जटाएं शोभित हो रहीं थीं।
उसने भगवान् शिव को प्रणाम कर तीन बार उनकी प्रदक्षिणा की तथा हाथ जोड़ कर बोला कि मैं क्या करूँ आज्ञा दीजिये? आप अगर आज्ञा दे तो मैं इंद्र को भी आप के सामने ले आऊँ, फिर भले ही भगवान् विष्णु उनकी सहायतार्थ क्यों न आयें।
भगवान् शिव ने वीरभद्र को अपने प्रमथों का प्रधान नियुक्त कर, शीघ्र ही दक्ष पुरी जाकर यज्ञ विध्वंस तथा साथ ही दक्ष का वध करने की भी आज्ञा दी। भगवान् शिव ने वीरभद्र को यह आदेश देकर, अपने निश्वास से हजारों गण प्रकट किये। वे सभी भयंकर कृत्य वाले तथा युद्ध में निपुण थे, किसी के हाथ में तलवार थीं तो किसी के हाथ में गदा, कोई मूसल, भाला, शूल इत्यादि अस्त्र उठाये हुए थे। वे सभी भगवान् शिव को प्रणाम कर वीरभद्र तथा महा-काली के साथ चल दिए और शीघ्र ही दक्ष-पुरी पहुँच गए।
काली, कात्यायनी, ईशानी, चामुंडा, मुंडनर्दिनी, भद्र-काली, भद्र, त्वरिता तथा वैष्णवी, इन नौ-दुर्गाओं के संग महाकाली, दक्ष के विनाश करने हेतु चली। उनके संग नाना डाकिनियाँ, शकिनियाँ, भूत, प्रमथ, गुह्यक, कुष्मांड, पर्पट, चटक, ब्रह्म-राक्षस, भैरव तथा क्षेत्र-पाल आदि सभी वीर भगवान् शिव की आज्ञानुसार दक्ष यज्ञ के विनाश हेतु चले। इस प्रकार जब वीरभद्र, महाकाली के संग इन समस्त वीरों ने प्रस्थान किया, तब दक्ष के यह देवताओं को नाना प्रकार के विविध उत्पात तथा अपशकुन होने लगे। वीरभद्र के दक्ष यज्ञ स्थल में पहुँच कर समस्त प्रमथों को आज्ञा दी ! यज्ञ को तत्काल विध्वस्त कर समस्त देवताओं को यहाँ से भगा दो। इसके पश्चात सभी प्रमथ गण यज्ञ विध्वंसक कार्य में लग गए।
दक्ष बहुत भयभीत हो गया और उसने यज्ञ संरक्षक भगवान् विष्णु से यज्ञ की रक्षा हेतु कुछ उपाय करने का निवेदन किया। भगवान् विष्णु ने दक्ष को बताया कि उससे बहुत बड़ी भूल हुई थी। उसे तत्व का ज्ञान नहीं है। इस प्रकार उन्हें देवाधिदेव की अवहेलना नहीं करनी चाहिये थी। उपस्थित संकट को टालने में कोई भी सक्षम नहीं हैं। शत्रु-मर्दक वीरभद्र, भगवान् रुद्र के क्रोधाग्नि से प्रकट हुए हैं। इस समय वे सभी रुद्र गणों के नायक हैं एवं अवश्य ही इस यज्ञ का विध्वंस कर देंगे। इस प्रकार भगवान् विष्णु के वचन सुनकर दक्ष घोर चिंता में डूब गए। तदनंतर, शिव गणों के साथ देवताओं का घोर युद्ध प्रारंभ हुआ, उस युद्ध में देवता पराजित होकर भाग गए। शिव गणों ने यज्ञ स्तूपों को उखाड़ कर दसों दिशाओं में फेंका और हव्य पात्रों को फोड़ दिया, प्रमथों ने देवताओं को प्रताड़ित करना प्रारंभ कर दिया तथा उन्होंने देखते ही देखते उस यज्ञ को पूर्णतः विध्वस्त कर दिया।
इस पर भगवान् विष्णु ने प्रमथों से कहा कि आप लोग यहाँ क्यों आयें हैं? आप लोग कौन हैं? शीघ्र बताइये।
इस पर वीरभद्र ने कहा कि हम लोग भगवान् शिव की अवमानना करने के कारण इस यज्ञ को विध्वंस करने हेतु भेजे गए हैं। वीरभद्र ने प्रमथों को आदेश दिया कि! कही से भी भगवान् शिव से द्वेष करने वाले दुराचारी दक्ष को पकड़ लायें। इस पर प्रमथ गण दक्ष को इधर उधर ढूँढने लगे। उनके रास्ते में जो भी आया उन्होंने उसे पकड़ कर मारा-पीटा। प्रमथों ने पूषा को पकड़ कर उसके दाँत तोड़ दिए और अग्नि-देवता को बल पूर्वक पकड़ कर जिह्वा काट डाली। अर्यमा की बाहु काट दी गई, अंगीरा ऋषि के ओष्ट काट डाले, भृगु ऋषि की दाड़ी नोच ली। उन प्रमथों ने वेद-पाठी ब्राह्मणों को कहा कि आप लोग डरे नहीं और यहाँ से चले जायें। देवराज इंद्र मोर बनकर का एक पर्वत पर जा छुपे और वहीं से सब घटनाएँ देखने लगे।
उन प्रमथ गणों द्वारा इस प्रकार उत्पात मचाने पर भगवान् विष्णु ने विचार किया कि मंदबुद्धि दक्ष ने भगवान् शिव से द्वेष वश इस यज्ञ का आयोजन किया। उसे अगर इसका फल न मिला तो वेद-वचन निष्फल हो जायेगा। भगवान् शिव से द्वेष होने पर मेरे साथ भी द्वेष हो जाता है, मैं ही विष्णु हूँ और मैं ही शिव। हम दोनों में कोई भेद नहीं है। शिव का निंदक मेरा निंदक हैं, विष्णु रूप में मैं इसका रक्षक बनूँगा तथा शिव रूप में इसका विनाशक। अतः मैं कृत्रिम भाव से दिखने मात्र के लिए युद्ध करूँगा और अन्तः में हार मान कर रुद्र रूप में उसका संहार करूँगा। यह संकल्प कर उन शंख चक्र धारी भगवान् विष्णु ने प्रमथों द्वारा किये जा रहे कार्य को रोका। इस पर वीरभद्र ने भगवान् विष्णु से कहा कि आप इस महा-यज्ञ के रक्षक हैं। आप ही बताये वह दुराचारी, शिव निंदक दक्ष इस समय कहाँ छिपा बैठा हैं? या तो आप स्वयं उसे लाकर मुझे सौंप दीजिये या मुझ से युद्ध करें। आप तो परम शिव भक्त हैं, परन्तु आज आप भी भगवान् शिव के द्रोही से मिल गए हैं।
भगवान् विष्णु ने वीरभद्र से कहा कि मैं तुम से युद्ध करूँगा, मुझे युद्ध में जीतकर तुम दक्ष को ले जा सकते हो, मैं तुम्हारा बल देखुँगा। यह कहा कर भगवान् विष्णु ने गणों पर धनुष से बाणों की वर्षा की जिसके कारण बहुत से गण क्षत-विक्षत होकर मूर्छित हो गिर पड़े। इसके पश्चात भगवान् विष्णु तथा वीरभद्र में युद्ध हुआ, दोनों ने एक दूसरे पर गदा से प्रहार किया, दोनों में नाना अस्त्र-शस्त्रों से महा घोर युद्ध हुआ। वीरभद्र तथा भगवान् विष्णु के घोर युद्ध के समय आकाशवाणी हुई वीरभद्र कि युद्ध में क्रुद्ध हो तुम आपने आप को क्यों भूल रहे हो? तुम जानते नहीं हो की जो भगवान् विष्णु है वही भगवान् शिव हैं, इनमें किसी प्रकार का भेद नहीं हैं।
तदनंतर, वीरभद्र ने भगवान् विष्णु को प्रणाम किया तथा दक्ष को पकड़ कर बोलज़ कि प्रजापति जिस मुख से तुमने भगवान् शिव की निंदा की हैं मैं उस मुख पर ही प्रहार करूँगा। वीरभद्र ने दक्ष के मस्तक को उसके देह से अलग कर दिया तथा अग्नि में मस्तक की आहुति दे दी एवं जो भगवान् शिव निंदा सुनकर प्रसन्न होते थे, उनके भी जिह्वा और कान कट डाले।
भगवान् शिव प्रचंड आँधी की भांति कनखल जा पहुँचे। सती के जले हुए शरीर को देखकर भगवान् शिव अपने आपको भूल गए। माता सती के प्रेम और उनकी भक्ति ने भगवान् शिव के मन को व्याकुल कर दिया। भगवान् शिव के मन को व्याकुल कर दिया, जिन्होंने काम पर भी विजय प्राप्त की थी और जो सारी सृष्टि को नष्ट करने की क्षमता रखते थे। वे माता सती के प्रेम में खो गए, बेसुध हो गए।
भगवान् शिव ने उन्मत की भाँति माता सती के जले हिए शरीर को कंधे पर रख लिया। वे सभी दिशाओं में भ्रमण करने लगे। शिव ने सती का शव बाँहों में उठा लिया और दूसरी बार तीव्र अभिलाषा से भर उठे, पहली बार अभिलाषा तब जगी जब माता सती मर गयी थी और फिर जब माता सती मरी नहीं थी। माता सती की ढीली बाँहें इधर-उधर लटक रही थीं। उनके पीछे और नीचे टकराती हुई। भगवान् शिव की आँखों से आग और तेजाब के आँसू बह रहे थे।
देवता दहल गये। अगर आग और तेजाब के ये आँसू इसी तरह गिरते रहे तो स्वर्ग और धरती जल जायेंगे और हम भुन जाएँगे। सो उन्होंने शनि देव से विनती की कि शनि देवता भगवान् शिव के इस क्रोध को अपने प्याले में ग्रहण करें।
माता सती का शव अनश्वर है, इसलिए हमें उनके अंगों का विच्छेद कर देना चाहिए! देवताओं ने राय की।
शनि देव का पात्र बहुत छोटा था, उसमें भगवान् शिव के अग्निअश्रु नहीं समा सके। वे आँसू धरती के सागरों में गिरे और वैतरणी में चले गये।
भगवान् शिव और सती के इस अलौकिक प्रेम को देखकर पृथ्वी रुक गई, हवा रूक गई, जल का प्रवाह ठहर गया और रुक गईं देवताओं की साँसे। सृष्टि व्याकुल हो उठी, सृष्टि के प्राणी पाहिमाम-पाहिमाम पुकारने लगे। इस भयानक संकट को देखकर पालक के रूप में भगवान् विष्णु आगे बढे, वे भगवान् शिव की बेसुधी में अपने चक्र से माता सती के एक एक अंग को काट कर गिराने लगे, कट-कट कर माता सती के अंग पृथ्वी पर इक्यावन स्थानों पर गिरे। इस तरह से माता सती का पूरा शरीर बिखर गया। भगवान् शिव एक बार फिर जोगी हो गये। अपनी खाली बाँहें देखकर और इधर-उधर ब्रह्माण्ड में घूमने लगे।
धरती पर जिन इक्यावन स्थानों पर माता सती के अंग कट-कट गिरे थे, वे ही स्थान आज शक्ति पीठ हैं। आज भी उन स्थानों में माता सती का पूजन होता हैं, उपासना होती है।
कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान् ब्रह्मा ने भगवान् शिव को समझाया कि यह केवल उनका भ्रम ही है कि माता सती का देह-पात हो गया हैं, जगन्माता ब्रह्मा-स्वरूपा देवी इस जगत में विद्यमान हैं। माता सती ने तो छाया सती को उस यज्ञ में खड़ा किया था, छाया सती यज्ञ में प्रविष्ट हुई, वास्तविक रूप से उस समय देवी सती आकाश में उपस्थित थीं। आप तो विधि के संरक्षक हैं, कृपा कर आप वहाँ उपस्थित हो यज्ञ को समाप्त करवाएँ।
अंततः भगवान् शिव, भगवान् ब्रह्मा के साथ दक्ष के निवास स्थान गए, जहाँ पर यज्ञ अनुष्ठान हो रहा था। तदनंतर, भगवान् ब्रह्मा ने भगवान् शिव से यज्ञ को पुनः आरंभ करने की अनुमतिमाँगी, इस पर भगवान् शिव ने वीरभद्र को आज्ञा दी की वह यज्ञ को पुनः प्रारंभ करने की व्यवस्था करें। भगवान् शिव से आज्ञा पाकर वीरभद्र ने अपने गणों को हटने की आज्ञा दी तथा बंदी देवताओं को भी मुक्त कर दिया गया। भगवान् ब्रह्मा ने पुनः भगवान् शिव से दक्ष को भी जीवन दान देने का अनुरोध किया। भगवान् शिव ने यज्ञ पशुओं में से एक बकरे का मस्तक मँगवाया तथा उसे दक्ष के धड़ के साथ जोड़ दिया गया, जिससे वह पुनः जीवित हो गया। इसी विद्या के कारण भगवान् शिव को वैध-नाथ भी कहा जाता है। भगवान् शिव ने दक्ष के देह के संग बकरे का मस्तक तथा गणेश जी के देह के संग हाथी का मस्तक जोड़ा था।भगवान् ब्रह्मा के कहने पर, यज्ञ छोड़ कर भागे हुए यजमान निर्भीक होकर पुनः उस यज्ञ अनुष्ठान में आयें तथा उसमें भगवान् शिव को भी यज्ञ भाग देकर यज्ञ को निर्विघ्न समाप्त किया गया।
इसके पश्चात बकरे के मस्तक से युक्त दक्ष ने भगवान् शिव से क्षमा याचना की तथा नाना प्रकार से उनकी स्तुति की, अंततः उन्होंने शिव-तत्व को ससम्मान स्वीकार किया।
भगवान् शिव द्वारा माता सती का त्याग :: भगवान् शिव कैलाश में दिन-रात राम-राम कहा करते थे। माँ सती के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हो उठी। उन्होंने अवसर पाकर भगवान् शिव से प्रश्न किया, "आप राम-राम क्यों कहते हैं? राम कौन हैं?" भगवान् शिव ने उत्तर दिया :: भगवान् राम आदि पुरुष हैं, स्वयंभू हैं, मेरे आराध्य हैं। सगुण भी हैं, निर्गुण भी हैं।"भगवान् शिव ने कहा कि चूँकि श्री हरि विष्णु मनुष्य रूप में हैं; इसलिए एक साधारण मनुष्य की तरह हीं वे भी दुःख भोग रहे हैं। माता सती ने पूछा कि अगर विष्णु केवल एक मनुष्य के रूप में हैं तो क्या उनमें वो सारे दिव्य गुण हैं जो श्री हरि विष्णु में हैं? वे उन सारी कलाओं से युक्त हैं जो श्रीहरि विष्णु में हैं।
रावण ने माता सीता का हरण कर लिया और भगवान् श्री राम और लक्ष्मण उनकी खोज में दर दर भटक रहे थे। माता सती ने देखा कि भगवान् श्री राम विष्णु के अवतार होते हुए भी इतना कष्ट उठा रहे हैं; तो उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने भगवान् शिव से पूछा कि प्रभु भगवान् विष्णु किस पाप के कारण कष्ट भोग रहे हैं? वे सोचने लगीं, अयोध्या के नृपति दशरथ के पुत्र राम आदि पुरुष के अवतार कैसे हो सकते हैं? वे तो आजकल अपनी पत्नी सीता के वियोग में दंडक वन में उन्मत्तों की भांति विचरण कर रहे हैं। वृक्ष और लताओं से उनका पता पूछते फिर रहे हैं। यदि वे आदि पुरुष के अवतार होते, तो क्या इस प्रकार आचरण करते? माता सती को इस पर विश्वास नहीं हुआ। यह बात माँ सती के कंठ के नीचे बात उतरी नहीं।और वे भगवान् श्री राम की परीक्षा लेने वन में पहुँच गईं। माता सती के मन में भगवान् राम की परीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हुआ।
माता सती ने माता सीता का रूप धरा और भगवान् श्रीराम और श्री लक्ष्मण जी के सामने प्रकट हो गईं।भगवान् श्रीराम ने माता सती को दंडवत प्रणाम किया और हाथ जोड़ कर माता सीता रूपी माता सती से कहा कि माता आप इस घोर वन में क्या कर रही है? क्या आज महादेव ने आपको अकेले हीं विचरने के लिए छोड़ दिया है? अगर अपने इस पुत्र के लायक कोई सेवा हो तो बताइए। माता सती बहुत लज्जित हुई और अपने असली स्वरुप में आ गयी और दोनों को आशीर्वाद देकर वापस कैलाश चली गयी।
भगवान् शिव ने सोचा कि भले हीं माता सती ने अनजाने में हीं सीता का रूप धरा था किन्तु भगवान् शिव सीता को पुत्री के रूप के अतिरिक्त और किसी रूप में देख हीं नहीं सकते थे। अब उनके लिए सती को एक पत्नी के रूप में देख पाना संभव हीं नहीं था। उसी क्षण से भगवान् शिव मन हीं मन माता सती से विरक्त हो गए. उनके व्यहवार में आये परिवर्तन को देख कर सती ने अपने पितामह ब्रम्हा से इसका कारण पूछा तो उन्होंने सती को उनकी गलती का एहसास कराया। ब्रम्हदेव ने कहा कि इस जन्म में तो अब शिव किसी भी परिस्थिति में तुम्हे अपनी पत्नी के रूप में नहीं देख सकेंगे।
इसी कारण माता सती ने भी मन हीं मन अपने शरीर का त्याग कर दिया। जब उन्हें अपने पिता दक्ष द्वारा शिव के अपमान के बारे में पता चला तो उन्होंने यज्ञ में जाने की आज्ञा मांगी। भगवान् शिव ये भली भांति जानते थे कि माता सती अपने शरीर का त्याग करना चाहती हैं।
इसलिए उन्होंने सती को यज्ञ में न जाने की सलाह दी किन्तु माता सती हठ कर कर वहां चली गयी और जैसा कि पहले से तय था, उन्होंने वहां आत्मदाह कर लिया। इस प्रकार दक्ष का यज्ञ केवल सती के शरीर त्याग करने का कारण मात्र बन कर रह गया।
उन्हीं दिनों सती के पिता कनखल में बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे थे। उन्होंने यज्ञ में सभी देवताओं और मुनियों को आमन्त्रित किया था, किंतु भगवान् शिव को आमन्त्रित नहीं किया था, क्योंकि उनके मन में शिव जी के प्रति ईर्ष्या थी। सती को जब यह ज्ञात हुआ कि उसके पिता ने बहुत बड़े यज्ञ की रचना की है, तो उनका मन यज्ञ के समारोह में सम्मिलित होने के लिए बैचैन हो उठा।
माँ सती और शिव कैलाश पर्वत पर बैठे हुए परस्पर वार्तालाप कर रहे थे। उसी समय आकाश मार्ग से कई विमान कनखल की ओर जाते हुए दिखाई पड़े। सती ने उन विमानों को दिखकर भगवान् शिव से पूछा, "प्रभो, ये सभी विमान किसके है और कहां जा रहे हैं?" भगवान् शकंर ने उत्तर दिया, "आपके पिता ने यज्ञ की रचना की है। देवता और देवांगनाएं इन विमानों में बैठकर उसी यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए जा रहे हैं।" सती ने दूसरा प्रश्न किया, "क्या मेरे पिता ने आपको यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए नहीं बुलाया ?" भगवान् शंकर ने उत्तर दिया, "आपके पिता मुझसे बैर रखते हैं, फिर वे मुझे क्यों बुलाने लगे ?" सती मन ही मन सोचने लगीं, फिर बोलीं, "यज्ञ के अवसर पर अवश्य मेरी बहनें आएंगी। उनसे मिले हुए बहुत दिन हो गए। यदि आपकी अनुमति हो, तो मैं भी अपने पिता के घर जाना चाहती हूं। यज्ञ में सम्मिलित हो लूंगी और बहनों से भी मिलने का सुअवसर मिलेगा"। भगवान शिव ने उत्तर दिया, "इस समय वहां जाना उचित नहीं होगा। आपके पिता मुझसे जलते हैं, हो सकता है वे आपका भी अपमान करें। बिना बुलाए किसी के घर जाना उचित नहीं होता"।
भगवान् शिव ने उत्तर दिया, "हां, विवाहिता लड़की को बिना बुलाए पिता के घर नहीं जाना चाहिए, क्योंकि विवाह हो जाने पर लड़की अपने पति की हो जाती है। पिता के घर से उसका संबंध टूट जाता है"। किंतु सती पीहर जाने के लिए हठ करती रहीं। अपनी बात बार-बात दोहराती रहीं। उनकी इच्छा देखकर भगवान् शिव ने पीहर जाने की अनुमति दे दी। उनके साथ नन्दी और अन्य गणों को भी साथ जाने को कहा। सती अपने पिता के घर गईं, किंतु उनसे किसी ने भी प्रेमपूर्वक वार्तालाप नहीं किया। दक्ष ने उन्हें देखकर कहा, "तुम क्या यहाँ मेरा अपमान कराने आई हो? अपनी बहनों को तो देखो, वे किस प्रकार भांति-भांति के अलंकारों और सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित हैं। तुम्हारे शरीर पर मात्र बाघंबर है। तुम्हारा पति श्मशानवासी और भूतों का नायक है। वह तुम्हें बाघंबर छोड़कर और पहना ही क्या सकता है"। दक्ष के कथन से सती के हृदय में पश्चाताप का सागर उमड़ पड़ा। वे सोचने लगीं, "उन्होंने यहाँ आकर अच्छा नहीं किया। भगवान् ठीक ही कह रहे थे, बिना बुलाए पिता के घर भी नहीं जाना चाहिए। पर अब क्या हो सकता है? अब तो आ ही गई हूँ"।
पिता के कटु और अपमान जनक शब्द सुनकर भी सती मौन रहीं। वे उस यज्ञमंडल में गईं जहां सभी देवता और ॠषि-मुनि बैठे थे तथा यज्ञकुण्ड में धू-धू करती जलती हुई अग्नि में आहुतियां डाली जा रही थीं। सती ने यज्ञमंडप में सभी देवताओं के तो भाग देखे, किंतु भगवान् शिव का भाग नहीं देखा। वे भगवान् शिव का भाग न देखकर अपने पिता से बोलीं, "पितृश्रेष्ठ! यज्ञ में तो सबके भाग दिखाई पड़ रहे हैं, किंतु कैलाशपति का भाग नहीं है। आपने उनका भाग क्यों नहीं दिया ?" दक्ष ने गर्व से उत्तर दिया, "मै तुम्हारे पति कैलाश को देवता नहीं समझता। वह तो भूतों का स्वामी, नग्न रहने वाला और हड्डियों की माला धारण करने वाला है। वह देवताओं की पंक्ति में बैठने योग्य नहीं हैं। उसे कौन भाग देगा" ?
सती के नेत्र लाल हो उठे। उनकी भौंहे कुटिल हो गईं। उनका मुखमंडल प्रलय के सूर्य की भांति तेजोद्दीप्त हो उठा। उन्होंने पीड़ा से तिलमिलाते हुए कहा, "ओह! मैं इन शब्दों को कैसे सुन रहीं हूं, मुझे धिक्कार है। देवताओ, तुम्हें भी धिक्कार है! तुम भी उन कैलाशपति के लिए इन शब्दों को कैसे सुन रहे हो, जो मंगल के प्रतीक हैं और जो क्षण मात्र में संपूर्ण सृष्टि को नष्ट करने की शक्ति रखते हैं। वे मेरे स्वामी हैं। नारी के लिए उसका पति ही स्वर्ग होता है। जो नारी अपने पति के लिए अपमानजनक शब्दों को सुनती है, उसे नरक में जाना पड़ता है। पृथ्वी सुनो, आकाश सुनो और देवताओं, तुम भी सुनो! मेरे पिता ने मेरे स्वामी का अपमान किया है। मैं अब एक क्षण भी जीवित रहना नहीं चाहती"। सती अपने कथन को समाप्त करती हुई यज्ञ के कुण्ड में कूद पड़ी। जलती हुई आहुतियों के साथ उनका शरीर भी जलने लगा। यज्ञमंडप में खलबली पैदा हो गई, हाहाकार मच गया। भगवान् शिव को मालूम हुआ तो उन्होंने अपनी जटा उखाड़कर वीरभद्र को उत्पन्न किया और दक्ष यज्ञ का विध्वंस करने की आज्ञा दी। वीरभद्र के आते ही समस्त देवगण देवता उठकर खड़े हो गए। भगदड़ मच गई। वीरभद्र क्रोध से कांपने लगे और उछ्ल-उछल कर यज्ञ का विध्वंस करने लगे। देवता और ॠषि-मुनि भाग खड़े हुए। वीरभद्र ने देखते ही देखते दक्ष का मस्तक काटकर फेंक देया। समाचार भगवान् शिव के कानों में भी पड़ा। वे प्रचंड आंधी की भांति कनखल जा पहुंचे। सती के जले हुए शरीर को देखकर भगवान् शिव ने अपने आपको भूल गए। सती के प्रेम और उनकी भक्ति ने शंकर के मन को व्याकुल कर दिया। उन शंकर के मन को व्याकुल कर दिया, जिन्होंने काम पर भी विजय प्राप्त की थी और जो सारी सृष्टि को नष्ट करने की क्षमता रखते थे। वे सती के प्रेम में खो गए, बेसुध हो गए।
भगवान् शिव ने उन्मत की भांति सती के जले हिए शरीर को कंधे पर रख लिया। वे सभी दिशाओं में भ्रमण करने लगे। शिव और सती के इस अलौकिक प्रेम को देखकर पृथ्वी रुक गई, हवा रूक गई, जल का प्रवाह ठहर गया और रुक गईं देवताओं की सांसे। सृष्टि व्याकुल हो उठी, सृष्टि के प्राणी पुकारने लगे-पाहिमाम! पाहिमाम! भयानक संकट उपस्थित देखकर सृष्टि के पालक भगवान् विष्णु आगे बढ़े। वे भगवान् शिव की बेसुधी में अपने चक्र से सती के एक-एक अंग को काट-काट कर गिराने लगे। धरती पर इक्यावन स्थानों में सती के अंग कट-कटकर गिरे। जब सती के सारे अंग कट कर गिर गए, तो भगवान् शिव पुनः अपने आप में आए। जब वे अपने आप में आए, तो पुनः सृष्टि के सारे कार्य चलने लगे।
धरती पर जिन इक्यावन स्थानों में सती के अंग कट-कटकर गिरे थे, वे ही स्थान आज शक्ति के पीठ स्थान माने जाते हैं। आज भी उन स्थानों में सती का पूजन होता हैं, उपासना होती है। धन्य था भगवान् शिव और माँ भगवती सती का प्रेम। शिव और सती के प्रेम ने उन्हें अमर बना दिया है, वंदनीय बना दिया है।

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