Friday, October 30, 2015

BHAGWAN PARSHU RAM भगवान् परशुराम

BHAGWAN PARSHU RAM
भगवान् परशुराम
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
भगवान् परशुराम  का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। उन्होंने अहंकारी और धृष्ट हैहय वंशी तथा अन्य क्षत्रियों का पृथ्वी से 21 बार संहार किया। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी सन्तानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे। वे सदा बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं करते थे। उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना था। वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु पक्षियों, वृक्षों, फल फूल औए समूची प्रकृति के लिए जीवन्त रहे। उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है, नाकि अपनी प्रजा से आज्ञा पालन करवाना। उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है।
भगवान् नारायण ने ही भृगुवंश में परशुराम जी के रूप में अवतार धारण किया था। परशुराम जी ने जंभासुर का मस्तक विदीर्ण किया। शतदुंदभि को मारा। सौ वर्षों तक सौम नामक विमान पर बैठे हुए शाल्व से युद्ध करते रहे; किंतु गीत गाती हुई नग्निका (कन्या) कुमारियों के मुँह से यह सुनकर कि शाल्व का वध प्रद्युम्न और साँब को साथ लेकर भगवान् विष्णु करेंगे, उन्हें विश्वास हो गया और वन में जाकर अपने अस्त्र शस्त्र इत्यादि पानी में डुबोकर कृष्णावतार की प्रतीक्षा में तपस्या करने लगे।
उन्होंने अधिकांश विद्याएँ अपनी बाल्यावस्था में ही अपनी माता से ग्रहण की थीं। वे पशु-पक्षियों की बोली समझते थे और उनसे बात कर सकते थे। खूँख्वार वनैले पशु भी उनके स्पर्श मात्र से ही विनम्र बन जाते थे।
प्राचीन काल में कन्नौज में गाधि नामक महाबली राजा अपने राज्य का परित्याग करके वन में चले गये। वहाँ उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। गाधि ने ऋचीक से कहा कि कन्या की याचना करते हुए; उनके कुल में एक सहस्र पांडुबर्णी अश्व, जिनके कान एक ओर से काल हों, शुल्क स्वरूप दिये जाते हैं, अतः वे शर्ते पूरी करें। ऋचीक ने वरुण देवता से उस प्रकार के एक सहस्र घोड़े प्राप्त कर शुल्क स्वरूप प्रदान किये। सत्यवती के विवाह के पश्‍चात् वहाँ भृगु ऋषि ने आकर अपनी पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्‍वसुर को प्रसन्न देखकर, उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हों, तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करे और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग-अलग सेवन करना। सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु ने अपने पुत्र वधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है, तो उसने अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। उनके घर विश्वामित्र ने जन्म लिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योगशक्‍ति से भृगु को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्र वधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगी। सत्यवती ने भृगु से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम थे :- रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्‍वानस और परशुराम।
भगवान् परशुराम का जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। वे भगवान् विष्णु के आवेशावतार हैं। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और भगवान् शिव द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये।
परशुराम जी ने शिवाराधन की। नियम का पालन करते हुए उन्होंने भगवान् शिव को प्रसन्न कर लिया। भगवान्  शिव ने उन्हें दैत्यों का हनन करने की आज्ञा दी। परशुराम जी ने शत्रुओं से युद्ध किया तथा उनका वध किया। किंतु इस प्रक्रिया में परशुराम जी का शरीर क्षत-विक्षत हो गया। भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर कहा कि शरीर पर जितने प्रहार हुए हैं, उतना ही अधिक देवदत्व उन्हें प्राप्त होगा। वे मानवेतर होते जायेंगे। तदुपरान्त भगवान् शिव ने परशुराम जी को अनेक दिव्यास्त्र प्रदान किये, जिनमें से एक दिव्य धनुर्वेद परशुराम जी ने कर्ण पर प्रसन्न होकर, उसे  प्रदान किया।
उनकी आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान् शिव के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। भगवान् शिव से उन्हें भगवान् श्री कृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्र तीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान्  विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजो हरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वरदान दिया।
वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त "शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र" भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है :-
ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।
उन्होंने युद्ध की शिक्षा केवल ब्राह्मणों को ही देने का निश्चय किया था तथापि माता गँगा के पुत्र देवव्रत को उन्होंने शस्त्र और शास्त्र का पूरा ज्ञान प्रदान किया। 
भीष्म पितामह और आचार्य द्रोण गुरु भाई थे। द्रोणाचार्य द्वारा शिक्षा दिये जाने से इंकार करने पर सूर्य पुत्र कर्ण उनके पास गया और स्वयं को ब्राह्मण बताकर उसने भगवान् परशुराम जी से शिक्षा ग्रहण की। भगवान् परशुराम ने उसके तेज को देखकर ही शिष्य के रूप में स्वीकार किया था। जब परशुराम जी उसकी जाँघ पर सिर रखकर सो रहे थे, तब एक कीड़े के काटने से उसकी जाँघ से खून निकला, जो कि परशुराम जी के ऊपर गिरा, जिससे उनकी नींद खुल गई। उन्होंने कहा कि इतना कष्ट तो केवल एक क्षत्रिय ही झेल सकता था, अतः उन्होंने कर्ण से अपना वर्ण बताने को कहा। उसकी गलत ब्यानी से रुष्ट होकर, उन्होंने कर्ण को श्राप दिया कि उनकी प्रदान की गई विद्या उसके काम उस समय नहीं आएगी, जब उसे उसकी सबसे अधिक जरूरत होगी।
श्रीमद्भागवत में दृष्टान्त है कि गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा तट पर जल लेने गई रेणुका आसक्त हो गयी और कुछ देर तक वहीं रुक गयीं। हवन काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्नि ने अपनी पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचार करने के दण्ड स्वरूप सभी पुत्रों को माता रेणुका का वध करने की आज्ञा दी।
अन्य भाइयों द्वारा ऐसा दुस्साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम जी ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेद एवं उन्हें बचाने हेतु आगे आये अपने समस्त भाइयों का वध कर डाला। उनके इस कार्य से प्रसन्न जमदग्नि ने जब उनसे वर माँगने का आग्रह किया तो परशुराम जी ने उन सभी के पुनर्जीवित होने एवं उनके द्वारा वध किए जाने सम्बन्धी स्मृति नष्ट हो जाने का ही वर माँगा, जिसको जमदग्नि ने पूरा किया। 
सहस्त्रार्जुन एक चन्द्रवंशी राजा था, जिसके पूर्वज थे महिष्मन्त। महिष्मन्त ने ही नर्मदा के किनारे महिष्मती नामक नगर बसाया था। इन्हीं के कुल में आगे चलकर दुर्दुम के उपरान्त कनक के चार पुत्रों में सबसे बड़े कृतवीर्य ने महिष्मती के सिंहासन को सम्हाला। भार्गव वंशी ब्राह्मण इनके राज पुरोहित थे। भार्गव प्रमुख जमदग्नि ॠषि (परशुराम जी के पिता) से कृतवीर्य के मधुर सम्बन्ध थे। कृतवीर्य के पुत्र का नाम भी अर्जुन था। कृतवीर्य का पुत्र होने के कारण ही उन्हें कार्त्तवीर्यार्जुन भी कहा जाता है।
श्रीमद्भागवत महापुराण :: रेणुका के गर्भ से जमदग्नि ऋषि के वसुमान आदि कई पुत्र हुए। उनमें सबसे छोटे परशुराम जी थे। उनका यश सारे संसार में प्रसिद्ध है। हैहयवंश का अन्त करने के लिये स्वयं भगवान् ने ही परशुराम के रूप में अंशावतार ग्रहण किया था। उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियहीन कर दिया। यद्यपि क्षत्रियों ने उनका थोड़ा-सा ही अपराध किया था, फिर भी वे लोग बड़े दुष्ट, ब्राह्मणों के द्रोही-अभक्त, रजोगुणी और विशेष करके तमोगुणी हो रहे थे। यही कारण था कि वे पृथ्वी के ऊपर भार स्वरूप हो गये थे और इसी के फलस्वरूप भगवान् परशुराम ने उनका नाश करके पृथ्वी का भार उतार दिया।
राजा परीक्षित ने पूछा :- भगवन! अवश्य ही उस समय के क्षत्रिय विषयलोलुप हो गये थे; परन्तु उन्होंने परशुराम जी का ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया, जिसके कारण उन्होंने बार-बार क्षत्रियों के वंश का संहार किया।
श्री शुकदेवजी कहने लगे :- परीक्षित! उन दिनों हैहयवंश का अधिपति था, अर्जुन। वह एक श्रेष्ठ क्षत्रिय था। उसने अनेकों प्रकार की सेवा-शुश्रूषा करके भगवान् नारायण के अंशावतार दत्तात्रेय जी को प्रसन्न कर लिया और उनसे एक हज़ार भुजाएँ तथा कोई भी शत्रु युद्ध में पराजित न कर सके, यह वरदान प्राप्त कर लिया। साथ ही इन्द्रियों का अबाध बल, अतुल सम्पत्ति, तेजस्विता, वीरता, कीर्ति और शारीरिक बल भी उसने उनकी कृपा से प्राप्त कर लिये थे। वह योगेश्वर हो गया था। उसमें ऐसा ऐश्वर्य था कि वह सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्थूल से स्थूल रूप धारण कर लेता था। उसे सभी सिद्धियाँ प्राप्त थीं। वह संसार में वायु की तरह सब जगह बेरोक-टोक विचरा करता। एक बार गले में वैजयन्ती माला पहने, सहस्त्रबाहु अर्जुन बहुत सी सुन्दरी स्त्रियों के साथ नर्मदा नदी में जल-विहार कर रहा था। उस समय मदोन्मत्त सहस्त्रबाहु ने अपनी बाँहों से नदी का प्रवाह रोक दिया। दशमुख रावण का शिविर भी वहीं कहीं पास में ही था। नदी की धारा उलटी बहने लगी, जिससे उसका शिविर डूबने लगा। रावण अपने को बहुत बड़ा वीर तो मानता ही था, इसलिये सहस्त्रार्जुन का यह पराक्रम उससे सहन नहीं हुआ। जब रावण सहस्त्रबाहु अर्जुन के पास जाकर बुरा भला कहने लगा, तब उसने स्त्रियों के सामने ही खेल-खेल में रावण को पकड़ लिया और अपनी राजधानी माहिष्मती में ले जाकर बंदर के समान कैद कर लिया। पुलस्त्य जी के कहने से सहस्त्रबाहु ने रावण को छोड़ा था।
महिष्मती नगर के राजा सहस्त्रार्जुन क्षत्रिय समाज के हैहय वंश के राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक के पुत्र थे। सहस्त्रार्जुन का वास्तविक नाम अर्जुन था। उन्होने दत्तात्रेय जी को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की। दत्तात्रेय जी उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उसे वरदान माँगने को कहा तो उसने उनसे 10,000 हाथों का के बल का आशीर्वाद प्राप्त किया। इसके बाद उसका नाम अर्जुन से सहस्त्रार्जुन पड़ा। इसे सहस्त्राबाहु और राजा कार्तवीर्य पुत्र होने के कारण कार्तेय वीर भी कहा जाता है।
सहस्त्रार्जुन अपने घमंड में चूर होकर धर्म की सभी सीमाओं को लांघ चुका था। उसके अत्याचार व अनाचार से जनता त्रस्त हो चुकी थी। वेद-पुराण और धार्मिक ग्रंथों को मिथ्या बताकर ब्राह्मण का अपमान करना, ऋषियों के आश्रम को नष्ट करना, उनका अकारण वध करना, निरीह प्रजा पर निरंतर अत्याचार करना, अपने मनोरंजन के लिए मद में चूर होकर, अबला स्त्रियों के सतीत्व को भी नष्ट करना शुरू कर दिया था, (वर्तमान काल के मुसलमानों की तरह)। 
ऋषि वशिष्ठ से शाप का भाजन बनने के कारण सहस्त्रार्जुन की मति मारी गई थी। वन में आखेट करते हुए, अपनी पूरी सेना के साथ झाड़-झंकाड़ पार करता हुआ, वह जमदग्नि मुनि के आश्रम जा पहुँचा। महर्षि जमदग्रि ने सहस्त्रार्जुन को आश्रम का मेहमान समझकर स्वागत सत्कार में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऋषि जमदग्रि के पास देवराज इन्द्र से प्राप्त दिव्य गुणों वाली कामधेनु नामक अदभुत गाय थी। महर्षि ने उस गाय के मदद से कुछ ही पलों में देखते ही देखते पूरी सेना के भोजन का प्रबंध कर दिया। कामधेनु के ऐसे विलक्षण गुणों को देखकर सहस्त्रार्जुन को ऋषि के आगे अपना राजसी सुख कम लगने लगा। उसके मन में ऐसी अद्भुत गाय को पाने की लालसा जागी। उसने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु को माँगा। किंतु ऋषि जमदग्नि ने कामधेनु को आश्रम के प्रबंधन और जीवन के भरण-पोषण का एकमात्र जरिया बताकर कामधेनु को देने से इंकार कर दिया। इस पर सहस्त्रार्जुन ने क्रोधित होकर ऋषि जमदग्नि के आश्रम को उजाड़ दिया और काम धेनु को ले जाने लगा। काम धेनु सहस्त्रार्जुन के हाथों से छूट कर स्वर्ग की ओर चली गईं।
जब भगवान् परशुराम को यह बात पता चली तो उन्होंने पिता के सम्मान के खातिर काम धेनु वापस लाने की सोची और सहस्त्रार्जुन से उन्होंने युद्ध किया। युद्ध में सहस्त्रार्जुन की सभी भुजाएँ कट गईं और वह मारा गया।
सहस्त्रार्जुन के पुत्र जयध्वज, शूरसेन, शूर, वृष और कृष्ण ने प्रतिशोध स्वरूप परशुराम की अनुपस्थिति में उनके ध्यानस्थ पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं। इस काण्ड से कुपित परशुराम जी ने पूरे वेग से महिष्मती नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक पूरे इक्कीस बार इस पृथ्वी से क्षत्रियों का विनाश किया। यही नहीं उन्होंने हैहय वंशी क्षत्रियों के रुधिर से स्थलत पंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर भर दिये और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका।
जमदग्नि मुनि ने कहा :- राम! तुम बड़े वीर हो; परन्तु सर्वदेवमय नरदेव का तुमने व्यर्थ ही वध किया। बेटा! हम लोग ब्राह्मण हैं। क्षमा के प्रभाव से ही हम संसार में पूजनीय हुए हैं। और तो क्या, सबके दादा ब्रह्मा जी भी क्षमा के बल से ही ब्रह्म पद को प्राप्त हुए हैं। ब्राह्मणों की शोभा क्षमा के द्वारा ही सूर्य की प्रभा के समान चमक उठती है। सर्वशक्तिमान भगवान् श्री हरि भी क्षमावानों पर ही शीघ्र प्रसन्न होते हैं। बेटा! सार्वभौम राजा का वध ब्राह्मण की हत्या से भी बढ़कर है। जाओ, भगवान् का स्मरण करते हुए तीर्थों का सेवन करके अपने पापों को धो डालो। तीर्थाटन के पश्चात उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। ऋत्विजों को दक्षिणा में पृथ्वी प्रदान की। परशुराम जी ने अपने जीवनकाल में अनेक यज्ञ किये थे। यज्ञ करने के लिए उन्होंने बत्तीस हाथ ऊँची सोने की वेदी बनवायी थी। महर्षि कश्यप ने दक्षिण में पृथ्वी सहित उस वेदी को ले लिया। परशुराम जी ने समुद्र पीछे हटाकर गिरिश्रेष्ठ महेंद्र पर निवास किया। ब्राह्मणों ने कश्यप की आज्ञा से उस वेदी को खंड-खंड करके बाँट लिया, अतः वे ब्राह्मण जिन्होंने वेदी को परस्पर बाँट लिया था, खांडवायन कहलाये। तत्पश्चात परशुराम जी ने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे।
कैलाश स्थित भगवान् शिव के अन्त:पुर में प्रवेश करते समय गणेश जी द्वारा रोके जाने पर परशुराम जी ने बलपूर्वक अन्दर जाने की चेष्ठा की। तब गणपति ने उन्हें स्तम्भित कर अपनी सूँड में लपेटकर समस्त लोकों का भ्रमण कराते हुए गोलोक में भगवान् श्री कृष्ण का दर्शन कराके भूतल पर पटक दिया। चेतनावस्था में आने पर कुपित परशुराम जी द्वारा किए गए फरसे के प्रहार से गणेश जी का एक दाँत टूट गया, जिससे वे एकदन्त कहलाये [ब्रह्मवैवर्त पुराण]
देव शिल्पी विश्वकर्मा जी ने अत्यन्त श्रेष्ठ कोटि के दो धनुषों का निर्माण किया था। उनमें से एक तो देवताओं ने भगवान् शिव को अर्पित कर दिया था और दूसरा भगवान् श्री हरी विष्णु को। देवताओं के यह पूछने पर कि भगवान् शिव और भगवान् विष्णु में कौन श्रेष्ठ है, ब्रह्मा जी ने मतभेद पैदा कर दिया। फलस्वरूप भगवान् विष्णु की धनुष टंकार के सम्मुख भगवान् शिव का धनुष शिथिल पड़ गया था। अतः पराक्रम की वास्तविक परीक्षा इसी धनुष से हो सकती थी। शान्त होने पर भगवान् शिव ने अपना धनुष विदेह वंशज देवरात को और भगवान् विष्णु ने अपना धनुष भृगुवंशी ऋचीक को धरोहर के रूप में दिया था, जो कि परशुराम जी को प्राप्त हुआ।
उन्होंने त्रेतायुग में रामावतार के समय भगवान् शिव का धनुष भंग होने पर आकाश-मार्ग द्वारा मिथिलापुरी पहुँच कर प्रथम तो स्वयं को विश्व-विदित क्षत्रिय कुल द्रोही बताते हुए
"बहुत भाँति तिन्ह आँख दिखाये" 
और क्रोधान्ध हो 
"सुनहु राम जेहि शिव धनु तोरा, सहस बाहु सम सो रिपु मोरा"
तक कहा। परशुराम जी ने उनके पराक्रम की परीक्षा लेनी चाही और उन्हें क्षत्रिय संहारक दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा। भगवान् श्री राम के ऐसा कर लेने पर उन्हें धनुष पर एक दिव्य बाण चढ़ाकर दिखाने के लिए कहा। भगवान् श्री राम ने वह बाण चढ़ाकर परशुराम जी के तेज़ पर छोड़ दिया। बाण उनके तेज़ को छीनकर पुनः भगवान् श्री राम के पास लौट आया।संशय मिटते ही परशुराम जी ने वैष्णव धनुष भगवान् श्री राम को सौंप दिया और क्षमा याचना करते हुए 
"अनुचित बहुत कहेउ अज्ञाता, क्षमहु क्षमा मन्दिर दोउ भ्राता"
और
"कह जय जय जय रघुकुलकेतू, भृगुपति गये वनहिं तप हेतू"
भगवान् श्री राम ने परशुराम जी को दिव्य दृष्टि दी। जिससे उन्होंने भगवान् श्री राम के यथार्थ स्वरूप के दर्शन किये। परशुराम जी एक वर्ष तक लज्जित, तेज हीन तथा अभिमान शून्य होकर तपस्या में लगे रहे। तदनंतर पितरों से प्रेरणा पाकर उन्होंने वधूसर नामक नदी के तीर्थ पर स्नान करके अपना तेज़ पुनः प्राप्त किया।[रामचरित मानस]
दशरथ नन्दन भगवान् श्री राम ने जमदग्नि कुमार परशुराम जी का पूजन किया और परशुराम जी ने भगवान् श्री राम की परिक्रमा कर आश्रम की ओर प्रस्थान किया। जाते-जाते भी उन्होंने भगवान् श्री राम से उनके भक्तों का सतत सान्निध्य एवं चरणार विन्दों के प्रति सुदृढ भक्ति की ही याचना की थी।[वाल्मीकि रामायण] 
भीष्म पितामह द्वारा स्वीकार न किये जाने के कारण अंबा प्रतिशोध वश सहायता माँगने के लिये परशुराम जी के पास आयी। तब सहायता का आश्वासन देते हुए उन्होंने भीष्म को युद्ध के लिये ललकारा। उन दोनों के बीच 23 दिनों तक घमासान युद्ध चला। किन्तु अपने पिता द्वारा इच्छा मृत्यु के वरदान स्वरुप परशुराम जी उन्हें हरा न सके।[महाभारत] 
परशुराम जी अपने जीवन भर की कमाई ब्राह्मणों को दान कर रहे थे, तब द्रोणाचार्य उनके पास पहुँचे। किन्तु दुर्भाग्यवश वे तब तक सब कुछ दान कर चुके थे। तब परशुराम ने दयाभाव से द्रोणचार्य से कोई भी अस्त्र-शस्त्र चुनने के लिये कहा। तब चतुर द्रोणाचार्य ने कहा कि मैं आपके सभी अस्त्र शस्त्र उनके मन्त्रों सहित चाहता हूँ ताकि जब भी उनकी आवश्यकता हो, प्रयोग किया जा सके। परशुरामजी ने कहा :-"एवमस्तु!" अर्थात् ऐसा ही हो। इससे द्रोणाचार्य शस्त्र विद्या में निपुण हो गये।
परशुराम जी, भगवान विष्णु के दसवें अवतार कल्कि के गुरु होंगे और उन्हें युद्ध की शिक्षा देंगे। वे ही कल्कि को भगवान् शिव की तपस्या करके उनके दिव्यास्त्र को प्राप्त करने के लिये कहेंगे।[कल्कि पुराण]
भगवान् परशुराम शस्त्र विद्या के श्रेष्ठ जानकार थे। परशुराम जी ने केरल के मार्शल आर्ट कलरीपायट्टु की उत्तरी शैली वदक्कन कलरी के संस्थापक आचार्य एवं आदि गुरु हैं। वदक्कन कलरी अस्त्र-शस्त्रों की प्रमुखता वाली शैली है।
असम राज्य की उत्तरी-पूर्वी सीमा में जहाँ ब्रह्मपुत्र नदी भारत में प्रवेश करती है, वहीं परशुराम कुण्ड है, जहाँ तप करके उन्होंने भगवान् शिव से परशु प्राप्त किया था। वहीं पर उसे विसर्जित भी किया। परशुराम जी भी सात चिरंजीवियों में से एक हैं। इनका पाठ करने से दीर्घायु प्राप्त होती है। परशुराम कुंड नामक तीर्थस्थान में पाँच कुंड बने हुए हैं। परशुराम जी ने समस्त क्षत्रियों का संहार करके उन कुंडों की स्थापना की थी तथा अपने पितरों से वर प्राप्त किया था कि क्षत्रिय संहार के पाप से मुक्त हो जायेंगे।
भगवान् परशुराम द्वारा क्षत्रियों का 21 बार संहार :- 
Jamdagni's cow :-  Sahastr Bahu (Thousand-armed) Haehay king, Kart Veery Arjun, destroyed Jamdagni's hermitage and captured the calf of Kam Dhenu. To retrieve the calf, Jamdagni's son Bhagwan Parshu Ram slew the king, whose sons in turn killed Jamdagni. Parshu Ram then destroyed the Kshatriy (warrior, marshal castes) race 21 times and his father was resurrected by divine grace.
भगवान् परशुराम, भगवान् विष्णु के छठे अवतार हैं। उन्होंने तत्कालीन अत्याचारी और निरंकुश क्षत्रियों का 21 बार संहार किया। महिष्मती नगर के राजा सहस्त्रार्जुन क्षत्रिय समाज के हैहय वंश के राजा कार्तवीर्य और रानी कौशिक के पुत्र थे। सहस्त्रार्जुन का वास्तविक नाम अर्जुन था। उन्होंने दत्तात्रेय-दत्तत्राई को प्रसन्न करने के लिए घोर तपस्या की। दत्तत्राई उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उसे वरदान माँगने को कहा तो उसने दत्तत्राई से 10,000 हाथों का आशीर्वाद प्राप्त किया। इसके बाद उसका नाम अर्जुन से सहस्त्रार्जुन पड़ा इसे सहस्त्राबाहू और राजा कार्तवीर्य पुत्र होने के कारण कार्तेयवीर-कार्तवीर्य भी कहा जाता है। 
वो घमंड में चूर होकर धर्म की सभी सीमाओं को लांघ गया। उसके अत्याचार व अनाचार से जनता त्रस्त हो चुकी थी। वेद-पुराण और धार्मिक ग्रंथों को मिथ्या बताकर ब्राह्मण का अपमान करना, ऋषियों के आश्रम को नष्ट करना, उनका अकारण वध करना, निरीह प्रजा पर निरंतर अत्याचार करना, यहाँ तक की उसने अपने मनोरंजन के लिए मद में चूर होकर अबला स्त्रियों के सतीत्व को भी नष्ट करना शुरू कर दिया था। 
भगवान् परशुराम के पिता, जमदग्नि ऋषि के पास कामधेनु थी। महिष्मति पुरी  का राजा सहस्त्रबाहु अर्जुन उनके आश्रम में पहुँचे तो महर्षि ने उनका यथोचित स्वागत किया। उसने महर्षि से कामधेनु माँगी। जब महर्षि ने कामधेनु देने में असमर्थता व्यक्त की तो सहस्त्रार्जुन ने बल पूर्वक कामधेनु को आश्रम से ले गया। जब परशुराम आश्रम लौटे तब महर्षि ने उन्हें बताया कि सहस्त्रार्जुन कामधेनु को ले गया है। परशुराम जी उसी क्षण सहस्त्रार्जुन के महल को गये और उसे कामधेनु लौटाने के लिये कहा। सहस्त्रार्जुन ने कहा कि वह गाय वापस नहीं करेगा। ऊसने अपने सैनिकों को आदेश दे दिया, परशुराम जी को पकड़ कर कैद कर लिया जाये। परशुराम ने क्रोध में भरकर सभी सैनिकों को मार दिया। सहस्त्रार्जुन अपने सभी सैनिकों और पुत्रों सहित परशुराम से युद्ध करने लगा।
सहस्त्रार्जुन को दत्तात्रेय भगवान का आशीर्वाद प्राप्त था कि उसे पृथ्वी पर उसे कोई क्षत्रिय राजा हरा नहीं सकता एवं युद्ध के समय उसके हजारों हाथ होंगे। अत: वह अपने हजारों बाहु के साथ लड़ने लगा। सहस्त्रार्जुन और  भगवान् परशुराम का युद्ध हुआ। भगवान् परशुराम के प्रचण्ड बल के आगे सहस्त्रार्जुन बौना साबित हुआ। भगवान् परशुराम ने दुष्ट सहस्त्रार्जुन की हजारों भुजाएं और धड़ परशु से काटकर उसका वध कर दिया।
परशुराम जी ने उसके अधिकांश सैनिकों व पुत्रों को मार डाला। इसके बाद परशुराम कामधेनु को लेकर आश्रम लौट आये। महर्षि जमदग्नि ने कहा कि परशुराम जी को प्रायश्चित करना होगा। परशुराम तीर्थ यात्रा पर चले गये।
जब सहस्त्रार्जुन के बचे हुए पुत्रों को जब पता चला कि परशुराम तीर्थ यात्रा पर गये हैं तो वे सब बदला लेने के लिये आश्रम पहुँचे। उस समय आश्रम में केवल माता रेणूका और महर्षि जमदग्नि थे। सहस्त्रार्जुन पुत्रों ने आश्रम के सभी ऋषियों का वध करते हुए, आश्रम को जला डाला। उन्होंने ध्यानमग्न महर्षि जमदग्नि का सिर काट दिया और माता रेणुका को मारने लगे। माता रेणुका ने अपने पुत्र परशुराम को पुकारा। परशुराम जी माता की पुकार सुनकर आश्रम पहुँचे तो उन्होंने माता को विलाप करते देखा और माता के समीप ही पिता का कटा सिर और उनके शरीर पर 21 घाव देखे। भगवान् परशुराम बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शपथ ली कि वह हैहय वंश का ही सर्वनाश ही करेंगे बल्कि समस्त क्षत्रिय वंशों का संहार कर भूमि को क्षत्रिय विहीन कर देंगे। भगवान् परशुराम ने  21  बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करके उनके रक्त से समन्त पंचक क्षेत्र के पाँच सरोवरों को भर कर अपने संकल्प को पूरा किया। महर्षि ऋचीक ने स्वयं प्रकट होकर भगवान् परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका तब जाकर किसी तरह भूलोक पर क्षत्रियों का विनाश रुका। तत्पश्चात भगवान् परशुराम ने अपने पितरों के श्राद्ध क्रिया की एवं उनके आज्ञानुसार अश्वमेध और विश्वजीत यज्ञ किया। अपने पिता का शरीर भाईयों के पास छोड़कर, सहस्त्रार्जुन के महल में गये। वहाँ परशुराम जी ने सहस्त्रार्जुन के बचे हुये पुत्रों को मार डाला। आश्रम लौट कर वे पिता के शरीर को लेकर कुरुक्षेत्र गये और वहाँ पर मंत्र शक्ति से पिता के सिर को जोड़कर उन्हें जीवित कर दिया और उन्हें सप्तऋषि मंडल में सातवें ऋषि के रूप में स्थापित कर दिया।
    
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)