Saturday, November 14, 2015

MAHARSHI AUGUST SON OF PULSTY महर्षि अगस्त :: पुलस्त्य के पुत्र

महर्षि अगस्त
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:। 
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]

महर्षि अगस्त्य को पुलस्त्य ऋषि का पुत्र माना जाता है। उनके भाई का नाम विश्रवा था जो रावण के पिता थे। पुलस्त्य ऋषि ब्रह्मा के पुत्र थे।
मित्र तथा वरुण नामक देवताओं का अमोघ तेज एक दिव्य यज्ञिय कलश में पुंजीभूत हुआ और उसी कलश के मध्य भाग से दिव्य तेज से सम्पन्न महर्षि अगस्त का प्रादुर्भाव हुआ।[ऋग्वेद]
एक यज्ञ सत्र में उर्वशी नामक स्वर्ग की अप्सरा भी सम्मिलित हुई थी। मित्र वरुण ने उसकी ओर देखा तो इतने आसक्त हुए कि अपने वीर्य को रोक नहीं पाये। उर्वशी ने उपहासात्मक मुस्कराहट बिखेर दी। मित्र और वरुण बहुत लज्जित हुए। कुंभ का स्थान, जल तथा कुंभ, सब ही अत्यंत पवित्र थे। यज्ञ के अंतराल में ही कुंभ में स्खलित वीर्य के कारण कुंभ से अगस्त्य, स्थल में वशिष्ठ तथा जल में मत्स्य का जन्म हुआ। उर्वशी इन तीनों की मानस जननी मानी गयी।
इल्वल और वातापि कथा :: वैशम्पायन जी कहते हैं कि हे जनमेजय! प्रचुर दक्षिणा देने वाले कुन्ती नन्दन राजा युधिष्ठिर ने गया से प्रस्थान किया और अगस्त्याश्रम में जाकर दुर्जय मणिमती नगरी में निवास किया। वहीं वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने महर्षि लोमश से पूछा कि हे ब्रह्मन्! अगस्त्य जी ने यहाँ वातापि को किस लिये नष्ट किया? मनुष्यों का विनाश करने वाले उस दैत्य का प्रभाव कैसा था और महात्मा अगस्त्य जी के मन में क्रोध का उदय कैसे हुआ?
लोमश जी ने कहा :- हे कौरव नन्दन! पूर्व काल की बात है, इस मणिमती नगरी में इल्वल नामक दैत्य रहता था वातापि उसी का छोटा भाई था। एक दिन दिति नन्दन इल्वल ने एक तपस्वी ब्राह्मण से कहा कि हे भगवन! आप मुझे ऐसा पुत्र दें, जो इन्द्र के समान पराक्रमी हो। उन ब्राह्मण देवता ने इल्वल को इन्द्र के समान पुत्र नहीं दिया। इससे वह असुर उन ब्राह्मण देवता पर बहुत कुपित हो उठा। राजन! तभी से इल्वल दैत्य क्रोध में भरकर ब्राह्मणों की हत्या करने लगा।
वह मायावी अपने भाई वातापि को माया से बकरा बना देता था। वातापि भी इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ था! अत: वह क्षण भर में मेंड़ा और बकरा बन जाता था। फिर इल्वल उस भेड़ या बकरे को पकाकर उसका माँस राँधता और किसी ब्राह्मण को खिला देता था। इसके बाद वह ब्राह्मण को मारने की इच्छा करता था। इल्वल में यह शक्ति थी कि वह जिस किसी भी यमलोक में गये हुए प्राणी को उसका नाम लेकर बुलाता, वह पुन: शरीर धारण करके जीवित दिखायी देने लगता था। हमेशाँ वातापि दैत्य को बकरा बनाकर इल्वल उसके माँस का संस्कार किया करता और किसी न किसी ब्राह्मण को वह माँस खिलाकर, पुन: अपने भाई को पुकारा करता। राजन! इल्वल की आवाज़ सुनकर वह अत्यन्त मायावी महादैत्य वातापि उस ब्राह्मण की पसली को फाड़कर हँसता हुआ निकल आता। राजन! इस प्रकार दुष्ट हृदय इल्वल दैत्य बार-बार ब्राह्मणों को भोजन कराकर, अपने भाई द्वारा उनकी हिंसा करा देता था।
एक बार अगस्त्य मुनि कहीं चले जा रहे थे। उन्होंने एक जगह अपने पितरों को देखा, जो एक गड्ढे में नीचे मुँह किये लटक रहे थे। तब उन लटकते हुए पितरों से अगस्त जी ने पूछा कि आप लोग यहाँ किसलिये नीचे मुँह किये काँपते हुए से लटक रहे हैं, तो यह सुनकर उन वेद वादी पितरों ने उत्तर दिया कि सन्तान परम्परा के लोप की सम्भावना के कारण हमारी यह दुर्दशा हो रही है। अपने पितरों की यह दुर्दशा देखने के बाद अगस्त मुनि ने विवाह करने का निश्चय किया।
उन्हीं दिनों विदर्भ नरेश भी सन्तान प्राप्ति के लिए कठिन तपस्या करने में लीन थे। छ: महीनों बाद रानी ने एक कन्या को जन्म दिया। राजा की खुशी का ठिकाना न रहा। उन्होंने ब्राह्मणों से कहा कि उनकी तपस्या सफल हुई है और उन्हें एक कन्या रत्न की प्राप्ति हुई है।
उस अनुपम सुन्दरी बालिका का सौन्दर्य देखकर ब्राह्मण गण मुग्ध रह गये। यह बालिका लोपामुद्रा के नाम से प्रसिद्ध हुई। लोपामुद्रा बड़ी होकर अद्वितीय सुन्दरी और परम चरित्रवती के रूप में विकसित हुई। अगस्त्य मुनि राजा के पहुँचे और उन्होंने कहा कि मैं आपकी पुत्री से विवाह करना चाहता हूँ। राजा ये बात सुनकर चिन्ता में डूब गए। उसी समय लोपामुद्रा राजा के पास आयी। पिता जी, आप दुविधा में क्यों पड़ गये? मैं ॠषिवर से विवाह करने के लिए प्रस्तुत हूँ और फिर लोपामुद्रा और अगस्त्य ऋषि का विवाह सम्पन्न हो गया। विवाह के पश्चात् अगस्त्य ऋषि ने लोपामुद्रा से कहा कि तुम्हारे ये राजकीय वस्त्र ॠषि-पत्नी को शोभा नहीं देते। इनका परित्याग कर दो। जो आज्ञा, स्वामी! अब से मैं छाल, चर्म और वल्कल ही धारण करूँगी। कुछ समय बाद लोपामुद्रा ने कहा स्वामी मेरी एक इच्छा है। कहो, क्या इच्छा है तुम्हारी? हम ठहरे गृहस्थ! हमारे लिए धन से सम्पन्न होना कोई अपराध न होगा। प्रभु, मै उसी तरह रहना चाहती हूँ, जैसे अपने पिता के घर रहती थी। महर्षि अगस्त ने कहा कि वे धन-प्राप्ति के लिए प्रस्थान करते हैं और उन्होंने लोपामुद्रा से प्रतीक्षा करने को कहा।
अगस्त्य चल पड़े। वे राजा श्रुतर्वा के पास पहुँचे। माना जाता था कि वे अत्यन्त समृद्ध हैं। जब वे श्रुतर्वा के दरबार में पहुँचे तो महाराज श्रुतर्वा ने पूछा कि वे क्या सेवा कर सकते थे? अगस्त जी ने कहा कि वह उन्हें अपनी सामर्थ्य के अनुसार धन प्रदान करें। राजा ने बताया कि उसके पास देने को अतिरिक्त धन नहीं है। फिर भी जो था उसमें से अगस्त जी अपनी इच्छानुसार ले सकते थे। अगस्त्य जी नीतिवान थे। उन्होंने विचार किया कि अगर वे राजा से कुछ लेते तो दूसरों को उससे वंचित होना पड़ेता। उन्होंने श्रुतर्वा से कहा कि इस स्थिति में वे उससे कुछ नहीं ले सकते थे। उन्होंने श्रुतर्वा से राजा बृहदस्थ के पास चलने को कहा। लेकिन राजा बृहदस्थ के पास भी देने लायक़ अतिरिक्त धन नहीं था। शायद, राजा त्रसदस्यु कुछ सहायता कर सकें। अतः वे सब उनके पास चल पड़े। लेकिन जब वे लोग राजा त्रसदस्यु के यहाँ पहुँचे तो राजा त्रसदस्यु भी उनको धन देने में असमर्थ रहे। तीनों राजा एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। अन्त में उन्होंने समवेत स्वर में कहा कि यहाँ इल्वल नामक एक असुर रहता है, जिसके पास अथाह धन है। आइये, हम उसके पास चलें।
अगस्त्य तीनों राजाओं के साथ इल्वल के साम्राज्य में पहुँचे, वह उनके स्वागत के लिए तैयार बैठा था। आइये, आप सबका स्वागत है। मैंने आपके लिए विशेष भोजन तैयार करवाया है। तीनों राजाओं को आशंका हुई। हमें अगस्त्य ऋषि को सावधान कर देना चाहिए। जब उन्होंने ॠषि को बताया तो ॠषि ने कहा चिन्ता मत करो। मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा। अगस्त्य ने भोजन शुरू किया।
जब ॠषि अगस्त्य ने अन्तिम कौर ग्रहण किया तो इल्वल ने वातापि को आवाज़ दी। वातापि बाहर आओ। अब वह कैसे बाहर आ सकता है? मैं तो उसे खाकर पचा भी गया, महृषि अगस्त ने कहा। इल्वल ने अपनी हार स्वीकार कर ली। आपका किस उद्देश्य से आना हुआ? मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? हमें पता है कि तुम बड़े धनवान हो। इन राजाओं को और मुझे धन चाहिए। औरों को वंचित किए बिना जो भी दे सकते हो, हमें दे दो। इल्वल पल भर को चुप रहा। फिर उसने कहा कि मैं हर एक राजा को दस-दस हज़ार गायें और उतनी ही मुहरें दूँगा और अगस्त्य ॠषि को बीस हज़ार गायें और उतनी ही मुहरें दूँगा। इसके अलावा मैं उनकी सेवा में अपना सोने का रथ और घोड़े भी अर्पित कर दूँगा। आप ये सारी वस्तुएँ स्वीकार करें। इल्वल के घोड़े धरती पर वायु-वेग से दौड़ते थे। वे लोग पल-भर में ही अगस्त्य ऋषि के आश्रम पहुँच गये। ॠषि अगस्त्य लोपामुद्रा के पास गये और कहा कि लोपामुद्रा! जो तुम चाहती थीं, वह मैं ले आया। अब हम तुम्हारी इच्छानुसार जीवन बिताएंगे। कई वर्षों बाद लोपामुद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया और महृषि अगस्त ने अपने पूर्वजों को दिया हुआ वचन पूरा किया।
महर्षि अगस्त्य के भारतवर्ष में अनेक आश्रम हैं। इनमें से कुछ मुख्य आश्रम उत्तराखण्ड, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु में हैं। एक उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग नामक जिले के अगस्त मुनि नामक शहर में है। यहाँ महर्षि ने तप किया था तथा आतापी-वातापी नामक दो असुरों का वध किया था। मुनि के आश्रम के स्थान पर वर्तमान में एक मन्दिर है। आसपास के अनेक गाँवों में मुनि की इष्टदेव के रूप में मान्यता है। मन्दिर में मठाधीश निकटस्थ बेंजी नामक गाँव से हैं।
दूसरा आश्रम महाराष्ट्र के नागपुर जिले में है। यहाँ महर्षि ने रामायण काल में निवास किया था। भगवान् श्री राम के गुरु महर्षि वशिष्ठ तथा इनका आश्रम पास ही था। गुरु वशिष्ठ की आज्ञा से भगवान् श्री राम ने ऋषियों को सताने वाले असुरों का वध करने का प्रण लिया था। महर्षि अगस्त्य ने भगवान् श्री राम को इस कार्य हेतु कभी समाप्त न होने वाले तीरों वाला तरकश प्रदान किया था।
एक आश्रम तमिलनाडु के तिरुपति में है। विंध्याचल पर्वत जो कि महर्षि का शिष्य था, का घमण्ड बहुत बढ़ गया था तथा उसने अपनी ऊँचाई बहुत बढ़ा दी जिसके कारण सूर्य की रोशनी पृथ्वी के उत्तर भाग में-उत्तर भारत में पहुँचनी बन्द हो गई तथा प्राणियों में हाहाकार मच गया। सभी देवताओं ने महर्षि से अपने शिष्य को समझाने की प्रार्थना की। महर्षि ने विंध्याचल पर्वत से कहा कि उन्हें तप करने हेतु दक्षिण में जाना है, अतः उन्हें मार्ग दे। विंध्याचल महर्षि के चरणों में झुक गया, महर्षि ने उसे कहा कि वह उनके वापस आने तक झुका ही रहे तथा पर्वत को लाँघकर दक्षिण को चले गये। उसके पश्चात वहीं आश्रम बनाकर तप किया तथा वहीं रहने लगे।
एक आश्रम महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के अकोला में प्रवरा नदी के किनारे है। यहाँ महर्षि ने रामायण काल में निवास किया था। उनकी उपस्थिति में सभी प्राणी परस्पर दुश्मनी भूल गये थे।
महर्षि अगस्त्य केरल के निशस्त्र युद्ध शैली-कला कलरीपायट्टु की दक्षिणी शैली वर्मक्कलै के संस्थापक आचार्य एवं आदि गुरु हैं। वर्मक्कलै निःशस्त्र युद्ध कला शैली है। मान्यता के अनुसार भगवान् शिव ने अपने पुत्र मुरुगन-भगवान् कार्तिकेय को यह कला सिखायी तथा मुरुगन ने यह कला अगस्त जी को सिखायी। महर्षि अगस्त ने यह कला अन्य सिद्धों को सिखायी तथा तमिल में इस पर पुस्तकें भी लिखी। महर्षि अगस्त्य दक्षिणी चिकित्सा पद्धति सिद्ध वैद्यम् के जनक भी हैं। उनके द्वारा रचित अँगूठे की सहायता से भविष्य जानने की कला भी काफी प्रचलित है।
महर्षि अगस्त्य ने अपनी तपस्या से अनेक ऋचाओं के स्वरूपों का दर्शन किया था, इसलिये ये मन्त्र द्रष्टा ऋषि कहलाते हैं। ऋग्वेद के अनेक मन्त्र इनके द्वारा दृष्ट हैं। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 165 सूक्त से 191 तक के सूक्तों के द्रष्टा ऋषि महर्षि अगस्त्य हैं। साथ ही इनके पुत्र दृढच्युत तथा दृढच्युत के पुत्र इध्मवाह भी नवम मण्डल के 25वें तथा 26वें सूक्त के द्रष्टा ऋषि हैं। महर्षि अगस्त्य और लोपामुद्रा आज भी पूज्य और वन्द्य हैं, नक्षत्र-मण्डल में ये विद्यमान हैं। दूर्वाष्टमी आदि व्रतोपवासों में इन दम्पति की आराधना-उपासना की जाती है।
महर्षि अगस्त महा तेजस्वी तथा महातपा ऋषि थे। समुद्रस्थ राक्षसों के अत्याचार से घबराकर देवता लोग इनकी शरण में गये और अपना दु:ख कह सुनाया। फल यह हुआ कि ये सारा समुद्र पी गये, जिससे समुद्र स्थित सभी राक्षसों का विनाश हो गया।
भगवान् श्री राम वन गमन के समय इनके आश्रम पर पधारे थे। भगवान् श्री राम ने उनका ऋषि जीवन कृतार्थ किया। भक्ति की प्रेम मूर्ति महामुनि सुतीक्ष्ण इन्हीं अगस्त जी के शिष्य थे। अगस्त संहिता आदि अनेक ग्रन्थों का इन्होंने प्रणयन किया, जो तान्त्रिक साधकों के लिये महान् उपादेय है।
ELECRIC CELL विद्युत् ज्ञान :: काशी में उनका जन्मस्थल अगस्त्य कुण्ड के नाम से प्रसिद्ध है। उन्होंने विद्युत का ज्ञान विश्व को प्रदान किया। 
संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌।
छादयेच्छिखिग्रीवेन चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥
एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (मयूर ग्रीवा जैसा रंगवाला, नीला तूतिया Copper Sulphate) डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust, गीला काठ का बुरादा) लगाएं, ऊपर पारा (Mercury) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रा-वरुण शक्ति (Electricity) का उदय होगा।[अगस्त्य संहिता]  
ELCTROPLATING विद्युत लेपन ::
कृत्रिमस्वर्णरजतलेप: सत्कृतिरुच्यते। 
यवक्षारमयोधानौ सुशक्तजलसन्निधो॥ 
आच्छादयति तत्ताम्रं स्वर्णेन रजतेन वा। 
सुवर्णलिप्तं तत्ताम्रं शातकुंभमिति स्मृतम्‌॥
कृत्रिम स्वर्ण अथवा रजत के लेप को सत्कृति कहा जाता है। लोहे के पात्र में सुशक्त जल (तेजाब का घोल) इसका सान्निध्य पाते ही यवक्षार (सोने या चाँदी का नाइट्रेट) ताम्र को स्वर्ण या रजत से ढंक लेता है। स्वर्ण से लिप्त उस ताम्र को शातकुंभ अथवा स्वर्ण कहा जाता है।[अगस्त्य संहिता]
BATTERY विद्युत कोष :: 
अनने जलभंगोस्ति प्राणो दानेषु वायुषु। 
एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यकृत्स्मृत:॥
सौ कुंभों (उपरोक्त प्रकार से बने तथा श्रृंखला में जोड़े गए सौ सेलों) की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेंगे, तो पानी अपने रूप को बदलकर प्राणवायु (Oxygen)तथा उदान वायु (Hydrogen) में परिवर्तित हो जाएगा।[अगस्त्य संहिता] 
ELECTRIC CABLE विद्युत परिचालक-तार :: आधुनिक नौका चलन और विद्युत वहन, संदेश वहन आदि के लिए जो अनेक बारीक तारों की बनी मोटी केबल या डोर बनती है, वैसी प्राचीन काल में भी बनती थी, जिसे रज्जु कहते थे।
नवभिस्तस्न्नुभिः सूत्रं सूत्रैस्तु नवभिर्गुणः। 
गुर्णैस्तु नवभिपाशो रश्मिस्तैर्नवभिर्भवेत्। 
नवाष्टसप्तषड् संख्ये रश्मिभिर्रज्जवः स्मृताः
9 तारों का सूत्र बनता है। 9 सूत्रों का एक गुण, 9 गुणों का एक पाश, 9 पाशों से एक रश्मि और 9, 8, 7 या 6 रज्जु रश्मि मिलाकर एक रज्जु बनती है। 
BALLOONS आकाश में उड़ने वाले गर्म गुब्बारे :: महर्षि अगस्त्य ने गुब्बारों को आकाश में उड़ाने और विमान को संचालित करने की तकनीक का भी उल्लेख किया है।
वायुबंधक वस्त्रेण सुबध्दोयनमस्तके। 
उदानस्य लघुत्वेन विभ्यर्त्याकाशयानकम्
उदानवायु (Hydrogen) को वायु प्रति बन्धक वस्त्र में रोका जाए तो यह विमान विद्या में काम आता है, यानी वस्त्र में हाइड्रोजन पक्का-मज़बूती से बाँध दिया जाए तो उससे आकाश में उड़ा जा सकता है।
जलनौकेव यानं यद्विमानं व्योम्निकीर्तितं। 
कृमिकोषसमुदगतं कौषेयमिति कथ्यते। 
सूक्ष्मासूक्ष्मौ मृदुस्थलै औतप्रोतो यथाक्रमम्
वैतानत्वं च लघुता च कौषेयस्य गुणसंग्रहः। 
कौशेयछत्रं कर्तव्यं सारणा कुचनात्मकम्। 
छत्रं विमानाद्विगुणं आयामादौ प्रतिष्ठितम्
विमान वायु पर उसी तरह चलता है, जैसे जल में नाव चलती है। तत्पश्चात उन काव्य पंक्तियों में गुब्बारों और आकाश छत्र के लिए रेशमी वस्त्र सुयोग्य कहा गया है, क्योंकि वह बड़ा लचीला होता है।
ऐसा वस्त्र जिसमें वायु भरी जा सकती थी, का उपयोग गुब्बारों को उड़ाने में किया जाता था। 
क्षीकद्रुमकदबाभ्रा भयाक्षत्वश्जलैस्त्रिभिः। 
त्रिफलोदैस्ततस्तद्वत्पाषयुषैस्ततः स्ततः
संयम्य शर्करासूक्तिचूर्ण मिश्रितवारिणां। 
सुरसं कुट्टनं कृत्वा वासांसि स्त्रवयेत्सुधीः
रेशमी वस्त्र पर अंजीर, कटहल, आंब, अक्ष, कदम्ब, मीरा बोलेन वृक्ष के तीन प्रकार ओर दालें इनके रस या सत्व के लेप किए जाते हैं। तत्पश्चात सागर तट पर मिलने वाले शंख आदि और शर्करा का घोल यानी द्रव सीरा बनाकर वस्त्र को भिगोया जाता है, फिर उसे सुखाया जाता है। फिर इसमें उदान वायु-हाइड्रोजन भरकर उड़ा जा सकता है।[अगस्त्य संहिता] 
वैयाकरण अगस्त्य :: अगस्त्य तमिल भाषा के आद्य वैय्याकरण हैं। उन्हें दक्षिण में तमिल के पिता अगतियम, अगन्तियांगर के नाम से भी जाना जाता है, उनके व्याकरण को अगन्तियम कहा जाता है।  
ग्रंथकार परुनका द्वारा लिखित यह व्याकरण अगस्त्य व्याकरण के नाम से प्रख्यात है। यह कवि ऋषि अगस्त्य के ही अवतार माने जाते हैं। यह कवि शूद्र जाति में उत्पन्न हुए थे, इसलिए यह शूद्र वैयाकरण के नाम से प्रसिद्ध है। तमिल विद्वानों का कहना है कि यह ग्रंथ पाणिनि की अष्टाध्यायी के समान ही मान्य, प्राचीन तथा स्वतंत्र कृति है जिससे ग्रंथकार की शास्त्रीय विद्वता का पूर्ण परिचय उपलब्ध होता है।
 
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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