Sunday, May 10, 2015

SHUKRACHARY-SON OF BHRAGU शुक्राचार्य :: भृगु पुत्र

शुक्राचार्य
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः॥10.37॥
श्री शुक्र मंत्र :: हिमकुंद मृणालाभं दैत्यानां परमं गुरूम् सर्वशास्त्र प्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम्।
वृष्णि वंशियों में वासुदेव पुत्र श्री कृष्ण और पाण्डवों में अर्जुन में हूँ। मुनियों में वेद व्यास और कवियों में कवि शुक्राचार्य भी में ही हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.37] 
I am Shri Krashn, the son of Vasu Dev among the Vrashni clan, Arjun among the Pandavs, Ved Vyas among the saints and Shukrachary among the poets.


भगवान् श्री कृष्ण ने स्वयं को वृष्णि वंश में उत्पन्न विभूति कहा है, न कि अवतार जो कि वे हैं। पाण्डवों में अर्जुन उनकी एक श्रेष्ठ मूर्ति हैं। वेद का चार भागों में विभाजन, पुराण, उपपुराण और महाभारत रचना उनकी श्रेष्ठतम विभूतियाँ हैं, जो कि जन कल्याण की लिए प्रकाशित की गई हैं। धर्म से जुड़ी हुई कोई भी रचना व्यास जी की देन ही मानी जानी चाहिए। शुक्राचार्य को कवि के रूप में उनकी विभूति समझना चाहिए।

The Almighty revealed that HE as the son of  Vasu Dev Ji, in the Vrashni Vanshi-clan & was HIS excellent creation, along with Arjun who took incarnation in the Pandu clan. It might make the purpose of HIS incarnation to Arjun and all those who were listening to HIM delivering the sermon in the battle field of Kurukshetr; clear. Still there are people who do not realise the excellence of the composition of Gita as the Supreme guide for the Kali Yug by Muni Ved Vyas Ji Maha Raj, who was one of HIS incarnations and excellent among the composers. To compare the poets, HE makes it clear that Shukrachary is HIS supreme form as a poet. Therefore, Veds, Puran, Up Puran, Vedant and Maha Bharat should not be considered poetic creations, since they reveal history, science, purpose of life, movement of soul in various incarnations, birth-death etc. Gita has been translated into almost all languages of the world. 
It has been discovered that the translation is inappropriate & not up to the mark in most all cases, sending wrong notions-messages among the masses. Some times, the interpretations too are wrong and misleading.
Its clear that the Bhagwan Shri Krashn & Arjun, both are two forms of the Almighty just like water in two pots.
दक्ष कन्या ख्याति से भृगु के पुत्र दाता (काव्य, शुक्र) हुए जिन्हें  राक्षसों के गुरु बनने के बाद शुक्राचार्य के नाम से जाना गया। दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति, जो योगशक्ति संपन्न तेजस्वी महिला थीं, दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को जीवित कर देती थीं, जिससे नाराज होकर भगवान् श्री हरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता व महर्षि भृगु जी पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया। इसी कारणवश शुक्राचार्य भगवान् विष्णु के शत्रु हो गए। भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है कि कवियों में वे शुक्र हैं अर्थात उन्होंने शुक्राचार्य को अपना ही एक रूप बताया है। परन्तु अंततोगत्वा उन्हें अपनी गलती का अहसास हो ही गया। राक्षसों को भगवान् शिव से प्राप्त मृत संजीवनी विद्या का दुरूपयोग करने पर भगवान् शिव ने इन्हें अपने मुँह रख लिया।  वहाँ से वे भगवान् शिव के उदर में चले गए। बहुत अनुनय-विनय करने पर भगवान् शिव ने उन्हें मूत्र मार्ग से उन्हें शुक्र के रूप में बाहर निकाला तो उनका नाम शुक्राचार्य पड़ गया। 
शुक्र के दो विवाह हुए थे। इनकी पहली स्त्री इन्द्र की पुत्री जयंती थी, जिसके गर्भ से देवयानी ने जन्म लिया था। देवयानी का विवाह चन्द्रवंशीय क्षत्रिय राजा ययाति से हुआ था और उसके पुत्र यदु और मर्क तुर्वसु थे। दूसरी स्त्री का नाम गोधा (शर्मिष्ठा) था जिसके गर्भ से त्वष्ट्र, वतुर्ण शंड और मक उत्पन्न हुए थे।
महर्षि  अंगिरा और भृगु  भगवान् ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। अंगिरा के पुत्र  का नाम जीव और भृगु के पुत्र का नाम काव्य था। दोनों बालक अत्यंत बुद्धिमान तथा समान आयु के थे। अपने पिताओं के समान उन दोनों में भी गहरा प्रेम था। इसलिए जब वे शिक्षा ग्रहण करने योग्य हुए तो भृगु ने निश्चय किया कि महर्षि अंगिरा ही दोनों को शिक्षा प्रदान करेंगे। अतः काव्य अंगिरा ऋषि के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करने लगा। किन्तु पुत्र मोहवश अंगिरा दोनों में भेद-भाव करने लगे। काव्य की अपेक्षा वे जीव की शिक्षा दीक्षा पर अधिक ध्यान देते थे। उन्होंने जीव को तो वेदों के गूढ़ रहस्यों से अवगत करवाया, परन्तु काव्य  को केवल उपरी ज्ञान देकर ही संतुष्ट हो गए। 
काव्य  गुरु के इस व्यवहार को सहन कर सके। एक योग्य शिष्य होने के कारण वह अपने गुरु का बहुत सम्मान करते थे। काव्य ने अंगिरा  निवेदन किया कि जिस प्रकार एक पिता के लिए उसकी दो संतानों में कोई अंतर नहीं होता, उसी प्रकार गुरु की दृष्टि में सभी शिष्य एक समान होने चाहिए। जब गुरु ही शिष्यों में भेदभाव करने लग जाए तो उसका यह व्यवहार कदापि धर्मानुकूल नहीं होता। गुरुवर  शिष्य भी पुत्र के समान होता है। इसलिए यदि जीव आपका पुत्र है तो मै भी आपके पुत्र के समान ही हूँ। कृप्या हम दोनों में कोई  भेदभाव न करें। 
अंगिरा ने काव्य  की बात अनसुनी कर दी और पहले के भांति दोनों को पृथक-पृथक पढ़ाते  रहे। अंततः काव्य आश्रम छोड़कर अपने घर लौट चले। 
मार्ग में गौतम मुनि का आश्रम था। काव्य  ने उनकी बौद्धिकता, विद्वता  और दयालुता के बारे में बहुत कुछ सुना हुआ था। ऐसे महान तपस्वी के दर्शन किये बिना चले जाना उन्हें उचित नहीं लगा। वह गौतम मुनि के पास गये और उनकी स्तुति करते हुए निवेदन किया कि हे मुनिवर! आप परम ज्ञानी और विद्वान् हैं। आपके ज्ञान की प्रसिद्धि दसों दिशाओं में गुंजायमान है। जीवन पथ पर भटकते हुए मनुष्यों ने आपके मार्गदर्शन का लाभ उठाकर सफलता प्राप्त की है। अतः मुनिवर! कृपया ज्ञान प्राप्ति के लिए योग्य गुरु के विषय में बताकर मेरा जीवन भी सार्थक करें। 
गौतम मुनि ने कहा कि हे वत्स! संसार में केवल भगवान् शिव ही एक मात्र योग्य गुरु हैं। वे ही सृष्टि के गूढ़ से गूढ़ रहस्यों को जानते हैं। उनके लिए कोई भी विद्या अछूती या अदृश्य नहीं है। वे चाहे तो मूर्ख को भी परमज्ञानी बना सकते हैं। उनकी पूजा आराधना मात्र से तुम उनकी कृपा दृष्टि प्राप्त कर सकते हो। भक्त वत्सल भगवान् शिव तुम्हारी सभी मनोकामनाए अवश्य पूर्ण करेंगे।  
काव्य के ह्रदय में भगवान् शिव से ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न हो गई। वह उसी समय गौतमी गंगा में स्नान करके भगवान्  शिव की आराधना करने लगा। अंततः प्रसन्न होकर भगवान् शिव  साक्षात् प्रकट हुए और वर माँगने के लिए कहा। 
काव्य कहा कि हे तीनों लोकों के स्वामी! आपसे कोई बात छिपी नहीं है। मेरी आराधना का उद्देश्य भी आप भली भांति जानते हैं। भगवन्! मेरे लिए आप आराध्य देव और गुरु दोनों ही हैं। कृप्या मुझे अपना शिष्य स्वीकार कर अनुगृहित करें। मुझे वह दिव्य ज्ञान प्रदान करें  जो परम तपस्वी के लिए भी दुर्लभ है। 
भगवान् शिव ने काव्य को वैदिक और लौकिक विद्या के साथ-साथ ही मृत संजीविनी विद्या भी प्रदान की, जिससे देवगण भी अनभिज्ञ थे। इस विद्या द्वारा काव्य को किसी भी मृत प्राणी को पुनरुज्जीवित करने की शक्ति प्राप्त हो गई। 
जिस स्थान पर भगवान् शिव ने शुक्राचार्य को दर्शन दिए थे, वह स्थान शुक्र तीर्थ कहलाया।
शुक्राचार्य महर्षि भृगु के पुत्र और भक्त प्रह्लाद के भानजे शुक्राचार्य। महर्षि भृगु की पहली पत्नी का नाम ख्याति था, जो उनके भाई दक्ष की कन्या थी। ख्याति से भृगु को दो पुत्र दाता और विधाता मिले और एक बेटी लक्ष्मी का जन्म हुआ। माता लक्ष्मी का विवाह उन्होंने भगवान् श्री हरी विष्णु से कर दिया था। भृगु के और भी पुत्र थे जैसे उशना, च्यवन आदि। 
शुक्राचार्य का वर्ण श्वेत है। इनका वाहन रथ है, उसमें अग्नि के समान आठ घोड़े जुते रहते हैं। रथ पर ध्वजाएं फहराती रहती हैं। इनका आयुध दण्ड है। शुक्र वृष और तुला राशि के स्वामी हैं तथा इनकी महादशा 20 वर्ष की होती है।[मत्स्य पुराण]
शुक्राचार्य महान ज्ञानी के साथ-साथ एक अच्छे नीतिकार भी थे। शुक्राचार्य की कही गई नीतियां आज भी बहुत महत्व रखती हैं। आचार्य शुक्राचार्य शुक्र नीति शास्त्र के प्रवर्तक थे। इनकी शुक्र नीति अब भी लोक में महत्वपूर्ण मानी जाती है।
शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था। इनके पुत्र शंद और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहाँ नीति शास्त्र का अध्यापन करते थे। ऋग्वेद में भृगुवंशी ऋषियों द्वारा रचित अनेक मंत्रों का वर्णन मिलता है, जिसमें वेन, सोमाहुति, स्यूमरश्मि, भार्गव, आर्वि आदि का नाम आता है।
दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति, जो योगशक्ति संपन्न तेजस्वी महिला थीं, दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को जीवित कर देती थीं जिससे नाराज होकर श्री हरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता व भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया।
जम्बूद्वीप के इलावर्त (रशिया) क्षे‍त्र में 12 बार देवासुर संग्राम हुआ। अंतिम बार हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद के पौत्र और विरोचन के पुत्र राजा बलि के साथ इंद्र का युद्ध हुआ और देवता हार गए तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया। इस जम्बूद्वीप के बीच के स्थान में था इलावर्त राज्य। अंतिम बार संभवत: शम्बासुर के साथ युद्ध हुआ था जिसमें राजा दशरथ ने भी भाग लिया था।
मृत संजीवनी  विद्या शुक्राचार्य को भगवान् शिव से प्राप्त हुई। इस विद्या द्वारा मृत शरीर को भी जीवित किया जा सकता है। शुक्राचार्य इस विद्या के माध्यम से युद्ध में आहत सैनिकों को स्वस्थ कर देते थे और मृतकों को तुरंत पुनर्जीवित कर देते थे। शुक्राचार्य ने रक्तबीज नामक राक्षस को महामृत्युंजय सिद्धि प्रदान कर युद्धभूमि में रक्त की बूंद से संपूर्ण देह की उत्पत्ति कराई थी।
महामृत्युंजय मंत्र के सिद्ध होने से भी यह संभव होता है। महर्षि वशिष्ठ, मार्कंडेय और गुरु द्रोणाचार्य महामृत्युंजय मंत्र के साधक और प्रयोगकर्ता थे। संजीवनी नामक एक जड़ी बूटी भी मिलती है जिसके प्रयोग से मृतक फिर से जी उठता है।
शुक्राचार्य ने आरंभ में अंगिरस ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया, किंतु जब वे (अंगिरस) अपने पुत्र बृहस्पति के प्रति पक्षपात दिखाने लगे तब इन्होंने अंगिरस का आश्रम छोड़कर गौतम ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया। गौतम ऋषि की सलाह पर ही शुक्राचार्य ने भगवान् शिव की आराधना कर मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके बल पर देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते।[मत्स्य पुराण]
जब विष्णु अवतार त्रिविक्रम वामन भगवान् श्री हरी विष्णु ने वामनावतार में जब राजा बलि से तीन पग भूमि माँगी तब शुक्राचार्य सूक्ष्म रूप में बलि के कमंडल में जाकर बैठ गए, जिससे कि पानी संकल्प हेतु बाहर न आए और बलि भूमि दान का संकल्प न ले सकें। तब वामन भगवान् ने बलि के कमंडल में एक तिनका डाला, जिससे शुक्राचार्य की एक आँख फूट गई। इसलिए इन्हें एकाक्ष यानी एक आँख वाला भी कहा जाता है।
गौतम ऋषि की सलाह पर ही शुक्राचार्य ने भगवान् शिव की आराधना कर मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके बल पर देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते।
मृत संजीवनी विद्या के कारण दानवों की संख्या बढ़ती गई और देवता असहाय हो गए। ऐसे में उन्होंने भगवान् शिव  की शरण ली। शुक्राचार्य द्वार मृत संजीवीनी का अनुचित प्रयोग करने के कारण भगवान् शिव को बहुत क्रोध आया। क्रोधवश उन्होंने शुक्राचार्य को पकड़कर निगल लिया। इसके बाद शुक्राचार्य भगवान् शिव की देह से शुक्ल कांति के रूप में मूत्र मार्ग से बाहर आए और शुक्र कहलाये और अपने पूर्ण स्वरूप को प्राप्त किया। तब उन्होंने प्रियवृत की पुत्री ऊर्जस्वती से विवाह कर अपना नया जीवन शुरू किया। उससे उन को चार पुत्र हुए।
इक्ष्वाकु वंश के राजा नहुष के छः पुत्र :- याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति तथा कृति। याति परमज्ञानी थे तथा राज्य, लक्ष्मी आदि से विरक्त रहते थे, इसलिए राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्यभिषक कर दिया।
दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा और गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी अपनी सखियों के साथ अपने उद्यान में घूम रही थी। शर्मिष्ठा अति सुन्दर राजपुत्री थी, तो देवयानी असुरों के महा गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी। दोनों एक दूसरे से सुंदरता के मामले में कम नहीं थी। वे सब की सब उस उद्यान के एक जलाशय में, अपने वस्त्र उतार कर स्नान करने लगीं।
उसी समय भगवान् शिव माँ पार्वती के साथ उधर से निकले। भगवान् शिव को आते देख वे सभी कन्याएं लज्जावश से बाहर निकलकर दौड़कर अपने-अपने वस्त्र पहनने लगीं। शीघ्रता में शर्मिष्ठा ने भूलवश देवयानी के वस्त्र पहन लिए। इस पर देवयानी अति क्रोधित होकर शर्मिष्ठा से बोली, रे शर्मिष्ठा! एक असुर पुत्री होकर तूने ब्राह्मण कन्या का वस्त्र धारण करने का साहस कैसे किया? तूने मेरे वस्त्र धारण करके मेरा अपमान किया है।
देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा अपने अपमान से तिलमिला गई और देवयानी के वस्त्र छीन कर उसे एक कुँए में धकेल दिया। देवयानी को कुँए में धकेल कर शर्मिष्ठा के चले जाने के पश्चात् राजा ययाति आखेट करते हुए वहाँ पर आ पहुँचे और अपनी प्यास बुझाने के लिए वे कुँएं क निकट गए तभी उन्होंने उस कुँए में वस्त्रहीन देवयानी को देखा।
जल्दी से उन्होंने देवयानी की देह को ढ़ँकने के लिए अपने वस्त्र दिए और उसको कुँए से बाहर निकाला। इस पर देवयानी ने प्रेमपूर्वक राजा ययाति से कहा, हे आर्य! आपने मेरा हाथ पकड़ा है अतः मैं आपको अपने पति रूप में स्वीकार करती हूँ। हे क्षत्रिय श्रेष्ठ! यद्यपि मैं ब्राह्मण पुत्री हूँ, किन्तु बृहस्पति के पुत्र कच के शाप के कारण मेरा विवाह ब्राह्मण कुमार के साथ नहीं हो सकता। इसलिए आप मुझे अपने प्रारब्ध का भोग समझ कर स्वीकार कीजिए। ययाति ने प्रसन्न होकर देवयानी के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
देवयानी वहाँ से अपने पिता शुक्राचार्य के पास आई तथा उनसे समस्त वृत्तांत कहा। शर्मिष्ठा के किए हुए कर्म पर शुक्राचार्य को अत्यन्त क्रोध आया और वे दैत्यों से विमुख हो गए। इस पर दैत्यराज वृषपर्वा अपने गुरुदेव के पास आकर अनेक प्रकार से मान-मनोवल करने लगे।
बड़ी मुश्किल से शुक्राचार्य का क्रोध शान्त हुआ और वे बोले, "हे दैत्यराज! मैं आपसे किसी प्रकार से रुष्ठ नहीं हूँ, किन्तु मेरी पुत्री देवयानी अत्यन्त रुष्ट है। यदि तुम उसे प्रसन्न कर सको तो मैं पुनः तुम्हारा साथ देने लगूँगा"।
वृषपर्वा ने देवयानी को प्रसन्न करने के लिए उससे कहा, "हे पुत्री! तुम जो कुछ भी माँगोगी मैं तुम्हें वह प्रदान करूँगा"। देवयानी बोली, "हे दैत्यराज! मुझे आपकी पुत्री शर्मिष्ठा दासी के रूप में चाहिए"। अपने परिवार पर आए संकट को टालने के लिए शर्मिष्ठा ने देवयानी की दासी बनना स्वीकार कर लिया।
शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया। शर्मिष्ठा भी देवयानी के साथ उसकी दासी के रूप में ययाति के भवन में आ गई। देवयानी के पुत्रवती होने पर शर्मिष्ठा ने भी पुत्र की कामना से राजा ययाति से प्रणय निवेदन किया जिसे ययाति ने स्वीकार कर लिया। राजा ययाति के देवयानी से दो पुत्र यदु तथा तुवर्सु और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र द्रुह्यु, अनु तथा पुरु हुए।
बाद में जब देवयानी को ययाति तथा शर्मिष्ठा के संबंध के विषय में पता चला तो वह क्रोधित होकर अपने पिता के पास चली गई। शुक्राचार्य ने राजा ययाति को बुलवाकर कहा, रे ययाति! तू स्त्री लम्पट है। इसलिए मैं तुझे शाप देता हूँ तुझे तत्काल वृद्धावस्था प्राप्त हो।
उनके शाप से भयभीत हो राजा ययाति गिड़गिड़ाते हुए बोले, हे दैत्य गुरु! आपकी पुत्री के साथ विषय भोग करते हुए अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शाप के कारण तो आपकी पुत्री का भी अहित है। तब कुछ विचार कर के शुक्रचार्य जी ने कहा, अच्छा! यदि कोई तुझे प्रसन्नतापूर्वक अपनी यौवनावस्था दे तो तुम उसके साथ अपनी वृद्धावस्था को बदल सकते हो।
इसके पश्चात् राजा ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र से कहा, वत्स यदु! तुम अपने नाना के द्वारा दी गई मेरी इस वृद्धावस्था को लेकर अपनी युवावस्था मुझे दे दो। इस पर यदु बोला, हे पिताजी! असमय में आई वृद्धावस्था को लेकर मैं जीवित नहीं रहना चाहता। इसलिये मैं आपकी वृद्धावस्था को नहीं ले सकता।
ययाति ने अपने शेष पुत्रों से भी इसी प्रकार की माँग की, लेकिन सभी ने कन्नी काट ली। लेकिन सबसे छोटे पुत्र पुरु ने पिता की माँग को स्वीकार कर लिया।
पुनः युवा हो जाने पर राजा ययाति ने यदु से कहा, तूने ज्येष्ठ पुत्र होकर भी अपने पिता के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण नहीं किया। अतः मैं तुझे राज्याधिकार से वंचित करके अपना राज्य पुरु को देता हूँ। मैं तुझे शाप भी देता हूँ कि तुझ से चला वंश-संतति सदैव राजवंशियों के द्वारा बहिष्कृत रहेगा।
शुक्राचार्य को श्रेष्ठ संगीतज्ञ और कवि होने का भी गौरव प्राप्त है। भागवत पुराण के अनुसार भृगु ऋषि के कवि नाम के पुत्र भी हुए जो कालान्तर में शुक्राचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए। महाभारत के अनुसार शुक्राचार्य औषधियों, मन्त्रों तथा रसों के भी ज्ञाता हैं। इनकी सामर्थ्य अद्भुत है। इन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति अपने शिष्य असुरों को दे दी और स्वयं तपस्वी-जीवन ही स्वीकार किया।
शुक्राचार्य को भगवान् शिव ने निगल लिया तो कवि (शुक्राचार्य) ने भगवान् शिव की स्तुति प्रारंभ कर दी जिससे प्रसन्न हो कर भगवान् शिव ने उन को बाहर निकलने कि अनुमति दे दी। जब वे एक दिव्य वर्ष तक महादेव के उदर में ही विचरते रहे, लेकिन कोई छोर न मिलने पर वे पुनः भगवान् शिव स्तुति करने लगे। तब भगवान् शिव ने हंस कर कहा कि मेरे उदर में होने के कारण तुम मेरे पुत्र हो गए हो अतः मेरे शिश्न से बाहर आ जाओ। आज से समस्त चराचर जगत में तुम शुक्र के नाम से ही जाने जाओगे। शुक्रत्व पाकर भार्गव भगवान् शिव  के शिश्न से निकल आए। तब से कवि शुक्राचार्य के नाम से विख्यात हुए।[वामन पुराण]
जब राजा बलि को सुतल लोक का राज बना दिया गया था तब शुक्राचार्य भी उनके साथ चले गए थे। शुक्राचार्य अपने पौत्र और्व के पास अरब में आ गए और दस वर्ष तक वहाँ रहे।
शुक्राचार्य के पौत्र का नाम और्व-अर्व या हर्ब था, जिसका अपभ्रंश होते होते अरब हो गया। 
अमंत्रं अक्षरं नास्ति, नास्ति मूलं अनौषधं।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ:॥
कोई अक्षर ऐसा नहीं है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरू होता हो, कोई ऐसा मूल (जड़) नहीं है, जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नहीं होता, उसको काम में लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं।[शुक्र नीति]
    
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा

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