दक्ष प्रजापति
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
सर्वप्रथम इन्होंने दस सहस्त्र हर्यश्व नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये सब समान स्वभाव के थे। पिता की आज्ञा से ये सृष्टि के निमित्त तप में प्रवृत्त हुए, परंतु देवर्षि नारद ने उपदेश देकर उन्हें विरक्त बना दिया।
दूसरी बार एक सहस्त्र शबलाश्व (सरलाश्व) नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये भी देवर्षि के उपदेश से यति हो गये। दक्ष को रोष आया। उन्होंने देवर्षि को शाप दे दिया कि तुम दो घड़ी से अधिक कहीं स्थिर न रह सकोगे। भगवान् ब्रह्मा ने प्रजापति को शान्त किया। अब मानसिक सृष्टि से वे उपरत हुए।
प्रजापति दक्ष की पत्नियाँ :- उनका पहला विवाह स्वायंभुव मनु की तृतीय पुत्री प्रसूति से हुआ। उन्होंने प्रजापति वीरण की कन्या असिकी-वीरणी दूसरी पत्नी बनाया। प्रसूति से दक्ष की 24 कन्याएं थीं और वीरणी से 60 कन्याएं। इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियां थीं। इनमें 10 धर्म को, 13 महर्षि कश्यप को, 27 चंद्रमा को, एक पितरों को, एक अग्नि को और एक भगवान् शिव को ब्याही गयीं। महर्षि कश्यप को विवाहित 13 कन्याओं से ही जगत के समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। वे लोकमाताएँ कही जाती हैं। समस्त दैत्य, गंधर्व, अप्सराएं, पक्षी, पशु सब सृष्टि इन्हीं कन्याओं से उत्पन्न हुई। दक्ष की ये सभी कन्याएं, देवी, यक्षिणी, पिशाचिनी आदि कहलाईं। उक्त कन्याओं और इनकी पुत्रियों को ही किसी न किसी रूप में पूजा जाता है।
अदिति से आदित्य (देवता), दिति से दैत्य, दनु से दानव, काष्ठा से अश्व आदि, अरिष्ठा से गंधर्व, सुरसा से राक्षस, इला से वृक्ष, मुनि से अप्सरागण, क्रोधवशा से सर्प, ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि, सुरभि से गौ और महिष, सरमा से श्वापद (हिंस्त्र पशु) और तिमि से यादोगण (जल-जंतु) आदि उत्पन्न हुए।
प्रसूति से दक्ष की 24 पुत्रियाँ :- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, सिद्धि, कीर्ति, ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनुसूया, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा।
पुत्रियों के पति के नाम :- पर्वत राजा दक्ष ने अपनी 13 पुत्रियों का विवाह धर्म से किया। ये 13 पुत्रियाँ हैं :- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, सिद्धि और कीर्ति। धर्म से वीरणी की 10 कन्याओं का विवाह हुआ। मरुवती, वसु, जामी, लंबा, भानु, अरुंधती, संकल्प, महूर्त, संध्या और विश्वा।
इसके बाद ख्याति का विवाह महर्षि भृगु से, सती का विवाह रुद्र (भगवान् शिव) से, सम्भूति का विवाह महर्षि मरीचि से, स्मृति का विवाह महर्षि अंगीरस से, प्रीति का विवाह महर्षि पुलत्स्य से, सन्नति का कृत से, अनुसूया का महर्षि अत्रि से, ऊर्जा का महर्षि वशिष्ठ से, स्वाहा का अग्नि से और स्वधा का पितृस से हुआ।
इसमें सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध रुद्र-भगवान् शिव से विवाह किया। माँ पार्वती और भगवान् शिव के दो पुत्र और एक पुत्री हैं। पुत्र-गणेश, कार्तिकेय और पुत्री वनलता।
वीरणी से दक्ष की साठ पुत्रियाँ :- मरुवती, वसु, जामी, लंबा, भानु, अरुंधती, संकल्प, महूर्त, संध्या, विश्वा, अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवषा, तामरा, सुरभि, सरमा, तिमि, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी, रति, स्वरूपा, भूता, स्वधा, अर्चि, दिशाना, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी।
चंद्रमा से 27 कन्याओं का विवाह :- कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी। इन्हें नक्षत्र कन्या भी कहा जाता है। हालांकि अभिजीत को मिलाकर कुल 28 नक्षत्र माने गए हैं। उक्त नक्षत्रों के नाम इन कन्याओं के नाम पर ही रखे गए हैं।
9 कन्याओं का विवाह :- रति का विवाह कामदेव से, स्वरूपा का भूत से, स्वधा का अंगिरा प्रजापति से, अर्चि और दिशाना का कृशश्वा से, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी का तार्क्ष्य कश्यप से।
इनमें से विनीता से गरूड़ और अरुण, कद्रू से नाग, पतंगी से पतंग और यामिनी से शलभ उत्पन्न हुए।
भगवान् शिव से विवाद करके दक्ष ने उन्हें यज्ञ में भाग नहीं दिया। पिता के यज्ञ में रुद्र के भाग न देखकर माता सती ने योगाग्नि से शरीर छोड़ दिया। भगवान् शिव पत्नी के देहत्याग से रुष्ट हुए। उन्होंने वीरभद्र को भेजा। वीरभद्र ने दक्ष का मस्तक दक्षिणाग्नि में हवन कर दिया। देवताओं की प्रार्थना पर तुष्ट होकर भगवान् शिव ने सद्योजात प्राणी के सिर से दक्ष को जीवन का वरदान दिया। बकरे का मस्तक तत्काल मिल सका। तबसे प्रजापति दक्ष ‘अजमुख’ हो गए।
वीरभद्र के रोम-कूपों से अनेक रौम्य नामक गणेश्वर प्रकट हुए थे। वे विध्वंस कार्य में लगे हुए थे। दक्ष की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने अग्नि के समान ओजस्वी रूप में दर्शन दिये और उसकी मनोकामना जानकर यज्ञ के नष्ट-भ्रष्ट तत्त्वों को पुन: ठीक कर दिया।
दक्ष ने एक हज़ार आठ नामों (शिव सहस्त्र नाम स्तोत्र) से भगवान् शिव की आराधना की और उनकी शरण ग्रहण की। भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर उसे एक हज़ार अश्वमेध यज्ञों, एक सौ वाजपेय यज्ञों तथा पाशुपत् व्रत का फल प्रदान किया।
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प्रचेता दक्ष का नारद जी को शाप ::
परीक्षित जी ने पूछा :- गुरुदेव! प्रचेता दक्ष का क्या हुआ? जो प्राचीनवर्हि के पौत्र हैं।
शुकदेव जी बोले :- राजन! मैंने तुम्हें बताया कि प्राचीनवर्हि के 10 पुत्र हुए। जो प्रचेता कहलाते हैं। इनका विवाह पारुषी कन्या से हुआ। जिससे दक्ष नाम का पुत्र हुआ और प्रचेताओं ने दक्ष को राजा बनाकर वन की ओर चले गए।
जब प्रचेता दक्ष राजा बने तो सबसे पहले तपस्या की, भगवान् प्रसन्न हुए और “असिक्नी” नाम की कन्या को सौंपकर बोले पुत्र अब तुम इसे पत्नी रूप में स्वीकार करो और सृष्टि विस्तार करो। इतना कह भगवान अंतर्धान हो गए।
शुक देव जी कहते हैं :- राजन! इस प्रकार कालांतर में प्रचेता दक्ष ने 10 हजार पुत्र उतपन्न किए और उन पुत्रों से भी कहा पुत्रो! अब तुम भी विवाह कर सृष्टि का विस्तार करने में मेरी मदद करो। तब उन पुत्रों ने कहा अवश्य पिताजी, परंतु सबसे पहले हम तपस्या करना चाहते हैं और इतना कह, वे सभी वन की ओर चल पड़े।
रास्ते में ही नारद जी से भेंट हो गई। नारदजी बोले :- पुत्रो! तुम सब एक साथ कहाँ जा रहे हो? उन दक्ष पुत्रों ने देवर्षि को प्रणाम किया और बोले :- महाराज हम सभी तपस्या करने जा रहे हैं। उसके बाद पिताजी के आदेशानुसार विवाह करके सृष्टि विस्तार में सहयोग करेंगे।
नारद जी बोले :- वाह क्या बढ़िया कार्य पाया है, तुम लोगों ने, क्या तुम्हारा जन्म मात्र संतानोत्पत्ति के लिए हुआ है? नहीं तुम्हारा यह जन्म तो उस परमात्मा के सानिध्य प्राप्ति के लिए है जिसके लिए सन्त, महात्मा तरसते है। उपदेश पा कर दक्ष के सभी 10 हजार पुत्र ईश्वर मार्ग की ओर चले गए।
दक्ष को जब इस बात का ज्ञान हुआ कि नारद जी ने मेरे पुत्रों को कर्तव्य पथ से विमुख कर दिया तो फिर से उन्होंने एक हजार पुत्र उत्पन्न किए। नारद जी ने उनको भी मोक्ष का रास्ता बताया। जब फिर इस बात का पता चला तो दक्ष ने नारद जी को शाप दे दिया।
अहो असाधो साधुनां साधुलिंगेन नास्त्वया।
असाध्वकार्यर्भकाणां भिक्षोर्मार्ग: प्रदर्शित:॥
अरे असाधू! तू तो साधू कहलाने के लायक ही नहीं है, तू मेरे भोले-भाले बच्चों को भिखमंगो का मार्ग बताता है। जा मैं तुझे शाप देता हूँ कि तुम कहीं भी स्थिर न बैठ सको, इस लोका-लोक में भटकते रहो।[श्री मद्भागवत महापुराण 36.5.6]
शुकदेव जी कहते हैं, नारद जी दक्ष के इस शाप को स्वीकार कर के अंतर्ध्यान हो गए। अब इस बार दक्ष ने 60 कन्याएं उत्पन्न करी, दक्ष ने इनमें से 10 कन्याएँ धर्म को 13 कश्यप ऋषि को सत्ताइस चंद्र देव को, दो भूत को, दो अंगिरा को, दो कृशाश्व को और शेष चार तार्क्ष्य नाम धारी कश्यप को व्याही।
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