

वृत्रासुर
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]

राजा चित्रकेतु का पुत्र मोह, पुत्र प्रकार, असुर कुल में जन्म :: वृत्रासुर के धर्मोपदेश से चकित हुए परीक्षित जी ने शुकदेव जी से पूछा था कि ऐसे भयंकर इन्द्र शत्रु के मुँह से इतनी उच्च ज्ञान और धर्म की बातें कैसे निकलीं? ऐसी निर्मल भक्ति तो उन देवताओं में भी नहीं दिखाई देती जो प्रभु के चरण कमलों तक भी पहुँच जाते हैं, वे भी भौतिक सुखों की माँग में प्रभु मिलन के दिव्य सुख को भूले जाते हैं, तब यह तो एक असुर था? तब शुकदेव जी ने चित्रकेतु का पुत्रमोह और वृत्रासुर के पूर्व जन्म की कथा कहना शुरू किया।
शुकदेव जी बोले :- हे राजन! सूरसेन नामक प्रदेश में चित्रकेतु नामक राजा थे। वे धर्मानुसार राज्य काज करते थे और उनकी प्रजा सुखी रहती थी। उनकी अनेक रानियां थीं, किन्तु संतान सुख न था, जिसके कारण वे उदास रहते थे। एक बार ब्रह्मा जी पुत्र अंगिरा उनके यहाँ पधारे। राजा ने पूरी विनम्रता से उनका स्वागत किया और वे प्रसन्न हुए। अनके चरणों में बैठे राजा से उन्होंने पूछा, हे राजन। आपके राज्य में प्रजा सुखी है, किन्तु जो राजा अपने मन को न बाँध सके वह राज्य को कैसे सम्हालेगा? आपका मन अशांत लगता है, इसका क्या कारण है ?
राजा चित्रकेतु ने उनसे निवेदन किया, महर्षि में पुत्र हीन हूँ, इस राज्य को कौन सम्भालेगा? आपकी कृपा से एक पुत्र मिल जाए तो बहुत अच्छा होगा।
ऋषि अंगिरा ने कहा, हे राजन्! पुत्र वाले भी उतने ही दुखी हैं, जितने पुत्रहीन। पुत्र मोह बहुत प्रबल है। जो भी हो रहा है, वो प्रभु की इच्छा है, जो भी होता है वो भी ईश्वरेच्छा है। लेकिन फिर भी यदि तुम भाग्य बदलना चाहते हो तो कोशिश कर लो। यद्यपि ऐसा होगा नहीं। बल्कि जो भी क्षणिक सुख मिलेगा वह दुःख जरूर देगा। वो दुःख आपके क्षणिक सुख से ज्यादा भी हो सकता है।
राजा चित्रकेतु ने कहा महाराज में पुत्र के लिए कितने भी दुःख झेलने को तैयार हूँ, मुझ पर कृपा करें।
ऋषि ने कहा, ठीक है, परमेश्वर कृपा करेंगे तेरे ऊपर, पुत्र पैदा होगा। ऋषिवर ने राजा को एक दिव्य पेय दिया जिसे राजा ने अपनी प्रियतमा पत्नी कृतद्युति को दिया। ऋषिवर लौट गए। राजा के सौभाग्य और ऋषिवर के आशीर्वाद से शीघ्र ही वे एक पुत्र की माता बनीं।
राजा चित्रकेतु की प्रसन्नता का ठिकाना न था। वे अपने पुत्र में ऐसे खो गए कि अपने अन्य कर्तव्य भूलने लगे। वे सदा अपने पुत्र के साथ उसकी माता के कक्ष में समय बिताना पसंद करते।
जिससे अन्य रानियों को उनका एक रानी के साथ अधिक प्रेम देख कर ईर्ष्या होने लगी। ईर्ष्या से उनकी बुद्धि का नाश हुआ और एक दिन सब रानियों ने मिल कर बालक राजकुमार को जहर दे दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। जब सोता हुआ राजकुमार बहुत देर तक न जाएगा तो माँ को चिंता हुई और उसने सेविका को बालक को लाने भेजा। यह जान कर कि बालक मृत है, माँ सुध-बुध खो बैठी। राजा रानी और पूरा राज्य शोक विषाद में डूब गया। जिन रानियों ने यह किया था वे भी खूब रोतीं और दुखी होने का आभास करातीं, जबकि वे भली प्रकार जानती थीं कि सच क्या है।
कुछ समय बाद महर्षि अंगिरा जी ने जान लिया कि राजा शोक से मृत्यु के निकट हैं तो वे श्री देवर्षि नारद जी सहित फिर से वहाँ आये।
देवऋषि, तेरा पुत्र जहाँ चला गया है, वहाँ से लौट कर नहीं आ सकता। शोक रहित हो जा। तेरे शोक करने से तेरी सुनवाई नहीं होने वाली। राजा फूट फूट कर रोते रहे।
ऐसे समय में राजा को एक ही शिकायत थी उनकी कि यदि लेना ही था तो दिया क्यों?
चित्रकेतु का पुत्रमोह :: देवर्षि नारद ने राजा को समझाया कि पुत्र चार प्रकार के होते हैं।
(1). पिछले जन्म का वैरी, अपना वैर चुकाने के लिए पैदा होता है, उसे शत्रु पुत्र कहा जाता है।
(2). पिछले जन्म का ऋण दाता। अपना ऋण वसूल करने आया है। हिसाब-किताब पूरा होता है, जीवन भर का दुख दे कर चला जाता है, यह दूसरी तरह का पुत्र।
(3). तीसरे तरह के पुत्र उदासीन पुत्र। विवाह से पहले माँ-बाप के विवाह होते ही माँ बाप से अलग हो जाते हैं। अब मेरी और आपकी निभ नहीं सकती। पशुवत पुत्र बन जाते हैं।
(4). चौथे प्रकार के पुत्र सेवक पुत्र होते हैं। माता-पिता में परमात्मा को देखने वाले, सेवक पुत्र। सेवा करने वाले। उनके लिए, माता पिता की सेवा, परमात्मा की सेवा। माता-पिता की सेवा हर एक की क़िस्मत में नहीं है। कोई कोई भाग्यवान है, जिसको यह सेवा मिलती है। उसकी साधना की यात्रा बहुत तेज गति से आगे चलती है। घर बैठे भगवान् की उपासना करता है।
राजन तेरा पुत्र शत्रु पुत्र था । शत्रुता निभाने आया था, चला गया। महर्षि अंगीरा इसी अनहोनी को टाल रहे थे। पर तू न माना।
समझाने के बावजूद भी राजा रोए जा रहा है। माने शोक से बाहर नहीं निकल पा रहा।
नारद जी ने अपनी शक्ति से उस जीवात्मा का आह्वान किया जो पुत्र बन कर आया था।
नारद जी बोले, हे शुभ जीव-आत्मन, आपकी जय हो। जरा अपने माता और पिता को देखिये, जो आपके बिना कितने शोक संतप्त हैं। आप अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए हैं, आपका जीवन काल अभी शेष है। आप इस देह में पुनः प्रवेश करें और उस जीवन काल तक इन्हे सुख दें।
जीवात्मा ने माता-पिता को पहचानने से इन्कार कर दिया। कौन पिता किसका पिता? देवर्षि क्या कह रहे हो आप? न जाने मेरे कितने जन्म हो चुके हैं। कितने पिता! मैं नहीं पहचानता यह कौन है! किस-किस को पहचानूँ? मेरे आज तक कितने माई-बाप हो चुके हुए हैं। किसको किसकी पहचान रहती है? मैं इस समय विशुद्ध आत्मा हूँ। मेरा माई-बाप कोई नहीं है। मेरा माई-बाप परमात्मा है। सभी शरीरों से सम्बंध टूट गगा। कितनी लाख योनियाँ आदमी भुगत चुका है, उतने ही माँ-बाप। कभी चिड़िया में माँ-बाप, कभी कौआ में माँ-बाप, कभी हिरण में कभी पेड़ पौधों में इत्यादि, इत्यादि।
देवर्षि नारद कहा, हे राजन! तुमने सुन लिया।
राजा चित्रकेतु ,हाँ देवर्षि! यह अपने आप बोल रहा है। जिसके लिए मैं रो रहा हूँ , जिसके लिए मैं बिलख रहा हूँ वह मुझे पहचानने से इंकार कर रहा है। जो पहला आघात था, उससे बाहर निकला। जिस शोक सागर में पहले डूबा हुआ था तो परमात्मा ने उसे दूसरे शोक सागर में डाल कर पहले से बाहर निकाला। अब समझा कि पुत्र मोह केवल मन का भ्रम है। सत्य सनातन तो केवल परमात्मा है।
जो माता पिता अपने पुत्र को पुत्री को इस जन्म में सुसंस्कारी नहीं बनाते, उन्हें मानव जन्म का महत्व नहीं समझाते, उनको संसारी बना कर उनके शत्रु समान व्यवहार करते हैं, तो अगले जन्म में उनके बच्चे शत्रु व वैरी पुत्र पैदा होते हैं उनके घर।
अत: संतान का सुख भी अपने ही कर्मों के अनुसार मिलता है।
जीवात्मा की बात सुनकर चित्रकेतु का मोहभंग हुआ. नारद जी ने राजा को नारायण मन्त्र की दीक्षा दी। चित्रकेतु ने मंत्र का अखंड जप करके नारायण को प्रसन्न किया; भगवान् ने दर्शन देकर एक दिव्य विमान दिया। चित्रकेतु भगवद् दर्शन से चैतन्य होकर सिद्धलोक आदि में भी विचरण करते रहतेथे।
राजा चित्रकेतु को माता पार्वती का श्राप और उस श्राप से राजा चित्रकेतु का असुर कुल में जन्म लेना :- एक बार वह दिव्य विमान में बैठकर कैलाश के ऊपर से गुजर रहे थे कि उनकी नज़र शिव जी पर पड़ी। महादेव सिद्ध आत्माओं को उपदेश दे रहे थे। माता पार्वती उनकी गोद में बैठी थीं। यह देख चित्रकेतु हँसे और कहा, सिद्धों की सभा में महादेव स्त्री का आलिंगन किए बैठे हैं! आश्चर्य है कि इन ज्ञानियों ने भी इन्हें ऐसे अमर्यादित कार्य से नहीं रोका!
महादेव ने तो अनदेखी कर दी लेकिन माता पार्वती को क्रोध हो आया, उन्होंने चित्रकेतु को शाप दिया; जिसकी निंदा की योग्यता स्वयं श्रीहरि में नहीं तुम उसकी निंदा करते हो। तुम असुर कुल में चले जाओ।
चित्रकेतु माता पार्वती के पास आए और प्रणाम कर कहा, माता मैंने मूर्खता में आपका अपमान किया. इसका दंड मिलना ही चाहिए। मैं इस शाप को भी श्रीहरि की कृपा की तरह लेता हूँ।
महादेव ने माता जी से कहा, यह हरि भक्त है। हरी भक्तों को किसी भी जीव से भय नहीं होता। नारायण भक्तों के हृदय में निवास करते हैं।
शुकदेव जी परीक्षित से बोले, हे राजन! चित्रकेतु में इतनी शक्ति थी कि वह इस शाप पर क्रोधित होकर माता को शापित कर सकते थे किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। वही चित्रकेतु जगदंबा के शाप के कारण वृत्रासुर हुए। नारायण नाम को धारण करने के कारण उनमें पूर्वजन्म का ज्ञान शेष था। इंद्र के साथ शत्रुता भी वह नारायण का आदेश समझकर निभा रहे थे।[श्रीमद्भागवत महापुराण 6.15]
एक बार असुरों ने चढ़ाई कर दी और देवता हार गये। ब्रह्मा जी की सम्मति से देवताओं ने त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप को पुरोहित बनाया। विश्वरूप को ‘नारायण कवच’ का ज्ञान था। उसके प्रभाव से बलवान होकर इन्द्र ने असुरों को पराजित किया किंतु विश्वरूप की माता असुर-कन्या थीं। इन्द्र को संदेह हुआ कि विश्वरूप प्रत्यक्ष तो हमारी सहायता करते हैं पर गुप्त रूप से असुरों को भी हविर्भाग पहुँचाते हैं। इस संदेह से इन्द्र ने विश्वरूप को मार डाला। पुत्र की मृत्यु से दुःखी त्वष्टा ने इन्द्र से बदला लेने के लिए उसका शत्रु उत्पन्न हो, ऐसा संकल्प करके अभिचार यज्ञ किया। उस यज्ञ से अत्यंत भयंकर वृत्र का जन्म हुआ। यह वृत्रासुर पूर्वजन्म में भगवान के ‘अनंत’ स्वरूप का परम भक्त चित्रकेतु नामक राजा था। माता पार्वती के शाप से उसे यह असुर देह मिली थी। असुर होने पर भी पूर्वजन्म के अभ्यास से वृत्र की भगवद्भक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती ही गयी।
साठ हजार वर्ष कठोर तप करके वृत्रासुर ने अमित शक्ति प्राप्त की। वह तीनों लोकों को जीतकर उनके ऐश्वर्य का उपभोग करने लगा। वृत्र असुर था, उसका शरीर असुर जैसा था किंतु उसका हृदय निष्पाप था। उसनें वैराग्य था और भगवान् की निर्मल-निष्काम प्रेमरूपा भक्ति थी। भोगों की नश्वरता वह जानता था। एक बार संयोगवश वह देवताओं से हार गया। तब असुरों के आचार्य शुक्र उसके पास आये। उस समय आचार्य को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वृत्र के मुख पर राज्यच्युत होने का तथा पराजय का कोई खेद नहीं है। उन्होंने इसका कारण पूछा। उस महान असुर ने कहा, "भगवन्! सत्य और तप के प्रभाव से मैं जीवों के जन्म-मृत्यु तथा सुख-दुःख के रहस्य को जान गया हूँ। इससे मुझे किसी भी अवस्था में हर्ष या शोक नहीं होता। भगवान् ने कृपा करके मुझे अपने तत्त्व का ज्ञान करा दिया है, इससे जीवों के आवागमन तथा भोगों के मिलने-न मिलने में मुझे विकार नहीं होता। मैंने घोर तप करके ऐश्वर्य पाया और फिर अपने कर्मों से ही उसका नाश कर दिया। मुझे उस ऐश्वर्य के जाने का तनिक भी शोक नहीं है। इन्द्र से युद्ध करते समय मैंने अपने स्वामी श्रीहरि के दर्शन किये थे। मैं आपसे और कोई इच्छा न करके यही प्रार्थना करता हूँ कि किस कर्म से, किस प्रकार भगवान् की प्राप्ति हो, यह आप मुझे उपदेश करें"।
शुक्राचार्य ने वृत्र की भगवद्भक्ति की प्रशंसा की। उसी समय सनकादि कुमार वहाँ घूमते हुए आ पहुँचे। शुक्राचार्य तथा वृत्र ने उनका आदरपूर्वक पूजन किया। शुक्राचार्य के पूछने पर सनत्कुमार जी ने कहा, "जो भगवान् सम्पूर्ण विश्व में स्थित हैं, जो सृष्टि, पालन तथा संहार के परम कारण हैं, वे श्री नारायण शास्त्रज्ञान, उग्र तप और यज्ञ के द्वारा नहीं मिलते। मन सहित सब इन्द्रियों को सांसारिक विषयों से हटाकर उनमें लगाने से ही वे प्राप्त होते हैं। जो निरंतर दृढ़तर प्रयास से निष्काम भाव पूर्वक भगवान् को प्रसन्न करने के लिए कर्तव्य-कर्म करते हैं और शम-दम आदि साधनों के करके चित्त शुद्धि प्राप्त कर लेते हैं, वे ही इस आवागमन चक्र से छूटते हैं। प्रबल प्रयत्न करने वाला पुरुष एक जन्म में भी हृदय को शुद्ध कर लेता है। बुद्धि के विषयासक्ति आदि दोष बार-बार के महान प्रयत्न से नष्ट हो जाते हैं। निर्मल हृदय पुरुष ज्ञान दृष्टि से सबको नारायण स्वरूप देखते हैं। इस समदृष्टि से वे ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाते हैं। जो इऩ्द्रियों को संयत करके सुख-दुःख में सम रहते हैं, जो निर्मल मन से परम पवित्र भगवद्भक्ति को जानना चाहते हैं, वे ब्रह्म साक्षात्कार करके दुर्लभ मोक्षस्वरूप अविनाशी परब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं"।
वृत्रासुर अब दृढ़ निश्चय से सर्वत्र, सबमें भगवान का अनुभव करने लगा। इन्द्रादि देवताओं ने उसे मारने का बहुत प्रयत्न किया पर वे सफल न हुए। मारने वालों के तेज को वह हरण कर लेता था और अस्त्र-शस्त्र निगल जाता था तब देवताओं ने भगवान् श्री हरी की शरण ली और भगवान् की बहुत सी ज्ञानमयी स्तुति की। भगवान् ने प्रकट होकर कहा, “देवताओ! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। मेरे प्रसन्न होने पर जीव को कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता किंतु जिनकी बुद्धि अनन्य भाव से मुझमें लगी है, जो मेरे तत्त्व को जानते हैं, वे मुझे छोड़कर और कुछ नहीं चाहते"।
दयामय भगवान् देवताओं पर प्रसन्न थे, फिर भी वे भगवान् को सर्वदा के लिए पाने की प्रार्थना नहीं कर रहे थे। अपार कृपासिंधु प्रभु ने देख लिया कि ये विषयाभिलाषी ही हैं। प्रभु को अपने परम भक्त वृत्र को असुर-शरीर से मुक्त करके अपने पास बुलाना था, अतः उन्होंने इन्द्र से कहा, "अच्छा, तुम महर्षि दधीचि के पास जाकर उनसे उनका शरीर माँग लो। उनकी हड्डियों से बने वज्र के द्वारा तुम असुरराज वृत्र को मार सकोगे"।
इन्द्र के माँगने पर महर्षि दधीचि ने योग द्वारा शरीर छोड़ दिया। विश्वकर्मा ने उनकी हड्डियों से वज्र बनाया। वज्र लेकर ऐरावत पर सवार हो बड़ी भारी सेना के साथ देवराज इन्द्र ने वृत्र पर आक्रमण किया। इस प्रकार इन्द्र को अपने सामने देखकर वह महामना असुर तनिक भी घबराया या डरा नहीं। वह निर्भय, निश्चल हँसता हुआ युद्ध करने लगा। उसने ऐरावत पर एक गदा मारी तो ऐरावत रक्त वमन करता अट्ठाईस हाथ पीछे चला गया। अपने शत्रु को ऐसे संकट में पड़ा देख वृत्र उलटा आश्वासन और प्रोत्साहन देते हुए बोला, "इन्द्र! घबराओ मत! अपने इस अमोघ वज्र से मुझे मारो। भगवान् की सच्ची कृपा मुझ पर है। मैं अपने मन को भगवान् के चरण कमलों में लगाकर तुम्हारे वज्र द्वारा इस शरीर के बंधन से छूटकर योगियों के लिए भी दुष्प्राप्य परम धाम को प्राप्त कर लूँगा। हे इन्द्र! जिनकी बुद्धि भगवान् में लगी है, उन श्रीहरि के भक्तों को स्वर्ग, पृथ्वी या पाताल की संपत्ति भगवान् कभी नहीं देते क्योंकि ये संपत्तियाँ राग-द्वेष, उद्वेग-आवेग, आधि-व्याधि, मद-मोह, अभिमान-क्षोभ, व्यसन-विवाद, परिश्रम-क्लेश आदि को ही जन्म देती हैं। अपने पर निर्भर अबोध शिशु को माता-पिता कभी अपने हाथों क्या विष दे सकते हैं? मेरे स्वामी दयामय हैं, वे अपने प्रियजन को विषय रूप विष न देकर उसके अर्थ, धर्म, काम संबंधी प्रयत्न का ही नाश कर देते हैं। मुझ पर भगवान् की कृपा है, इसी से तो मेरे ऐश्वर्य को उन्होंने छीन लिया और तुम्हें वज्र देकर भेजा कि तुम इस शरीर से मुझे छुड़ाकर उनके चरणों में पहुँचा दो। परंतु इन्द्र! तुम्हारा दुर्भाग्य है। तुम पर प्रभु की कृपा नहीं है, इसी से अर्थ, धर्म, काम के प्रयत्न में तुम लगे हो। भगवान् की कृपा का रहस्य तो उनके निष्किंचन भक्त ही जानते हैं"।
असुरराज वृत्र भगवान् की कृपा का अनुभव करके भावमग्न हो गया। वह भगवान् को प्रत्यक्ष देखता हुआ-सा प्रार्थना करने लगा, "हरे! मैं मरकर भी तुम्हारे चरणों के आश्रय में रहूँ, तुम्हारा ही दास बनूँ। मेरा मन तुम्हारे ही गुणों का सदा स्मरण करता रहे, मेरी वाणी तुम्हारे ही गुण-कीर्तन में लगी रहे, मेरा शरीर तुम्हारी सेवा करता रहे। मेरे समर्थ स्वामी! मुझे स्वर्ग, ब्रह्मा का पद, सार्वभौम राज्य, पाताल का स्वामित्व, योगसिद्धि और मोक्ष भी नहीं चाहिए। मैं तो चाहता हूँ कि पक्षियों के जिन बच्चों के अभी पंख न निकले हों, वे जैसे भोजन लाने गयी हुई अपनी माता के आने की उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं, जैसे रस्सी से बँधे भूख से व्याकुल छोटे बछड़े अपनी माता गौ का स्तन पीने के लिए उतावले रहते हैं, जैसे पतिव्रता स्त्री दूर-देश गये अपने पति का दर्शन पाने को उत्कंठित रहती है, वैसे ही आपके दर्शन के लिए मेरे प्राण व्याकुल रहें। इस संसारचक्र में मैं अपने कर्मों से जहाँ भी जाऊँ, वहीं आपके भक्तों से मेरी मित्रता हो आपकी माया से जो यह देह-गेह, स्त्री-पुत्रादि में आसक्ति है, वह मेरे चित्त का स्पर्श न करे"।
प्रार्थना करते-करते वृत्र ध्यानमग्न हो गया। कुछ देर में सावधान होने पर वह इन्द्र की ओर त्रिशूल उठाकर दौड़ा। इन्द्र ने वज्र से वृत्र की वह दाहिनी भुजा काट दी। वृत्र ने फिर परिघ (भाला) उठाकर बायें हाथ से इन्द्र की ठोढ़ी पर मारा। इस आघात से इन्द्र के हाथ से वज्र गिर पड़ा और वे लज्जित हो गये । इन्द्र को लज्जित देख असुर वृत्र ने हँसकर कहा, "शक्र! यह खेद करने का समय नहीं है। वज्र हाथ से गिर गया तो क्या हुआ, उसे उठा लो और सावधानी से मुझ पर चलाओ। सभी जीव सर्व-समर्थ भगवान् के वश में हैं। सबको सर्वत्र विजय नहीं मिलती। कठपुतली के समान सभी जीव भगवान् के हाथ के यंत्र हैं । जो लोग नहीं जानते कि ईश्वर के अनुग्रह के बिना प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, पंचभूत, इन्द्रियाँ, मन आदि कुछ नहीं कर सकते, वे लोग ही अज्ञानवश पराधीन देह को स्वाधीन मानते हैं। प्राणियों का उत्पत्ति विनाश काल की प्रेरणा से ही होता है। जैसे प्रारब्ध एवं काल की प्रेरणा से बिना चाहे दुःख, अपयश, दरिद्रता मिलती है, उसी प्रकार भाग्य से ही लक्ष्मी, आयु, यश और ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं। जब ऐसी बात है, तब यश-अपयश, जय-पराजय, सुख-दुःख, जीवन-मरण के लिए कोई क्यों हर्ष-विषाद करे। सुख-दुःख तो गुणों के कार्य हैं और सत्त्व, रज, तम, ये तीनों गुण प्रकृति के हैं, आत्मा के नहीं। जो अपने को तीनों गुणों का साक्षी जानता है, वह सुख-दुःख से लिप्त नहीं होता"।
इन्द्र ने वृत्रासुर के निष्कपट दिव्य भाव की प्रशंसा की, "दानवेन्द्र! तुम तो सिद्धावस्था को प्राप्त हो गये हो। तुम सबको मोहित करने वाली भगवान् की माया से पार हो चुके हो। आश्चर्य की बात है कि रजोगुणी स्वभाव होने पर भी तुमने अपने चित्त को दृढ़ता से सत्वमूर्ति भगवान् वासुदेव में लगा रखा है। तुम्हारा स्वर्गादि के भोगों में अनासक्त होना ठीक ही है। आनंद सिंधु भगवान् की भक्ति के अमृतसागर में जो विहार कर रहा है, उसे स्वर्गादि सुख जैसे नन्हें गड्ढों में भरे खारे गंदे जल से प्रयोजन भी क्या"!
इसके बाद वृत्र ने मुख फैलाकर ऐरावत सहित इन्द्र को ऐसे निगल लिया, जैसे कोई बड़ा अजगर हाथी को निगल ले। निगले जाने पर भी इन्द्र ‘नारायण कवच’ के प्रभाव से मरे नहीं। वज्र से असुर का पेट फाड़कर वे निकल आये और फिर उसी वज्र से उन्होंने उस दानव का सिर काट डाला। वृत्र के शरीर से एक दिव्य ज्योति निकली, जो भगवान् के स्वरूप में लीन हो गयी।
वृत्रासुर को उसके पिता त्वष्टा ने इंद्र को मारने के लिए यज्ञ करके उत्पन्न किया,क्योंकि इंद्र ने उसके पुत्र विश्वरूप का वध कर दिया था। अग्नि में त्वाष्टा ने उच्चारण किया, "हे इंद्र के शत्रु! तुम्हारी अभिवृद्धि हो, तुम अविलंब अपने शत्रु का वध करो"। परंतु मंत्र उच्चारण में त्रुटि रह गईl छोटे स्वर की जगह दीर्घ स्वर का उच्चारण किया। वह "हे इंद्र के शत्रु" का उच्चारण करना चाहते थे; परंतु देर तक उच्चारण करने के कारण मंत्र का अर्थ बदल गया, बदला हुआ अर्थ निकला, "इंद्र जो शत्रु है" इसलिए इंद्र का शत्रु प्रकट नहीं हुआl उसके स्थान पर वृत्रासुर का शरीर प्रकट हुआ, जिसका शत्रु इंद्र था और वृद्धि हुई "इंद्र जो शत्रु है" कीl यज्ञ करना एक विज्ञान हैl यह बहुत सावधानी से किया जाता हैl त्रुटि रहने पर उल्टा फल या मन वांछित फल नहीं मिलता। जैसे मिसाइल बनाने में या दागने में कोई गलती रह जाए तो मिसाइल अपने गंतव्य स्थान पर नहीं जाती या रास्ते में ही फट जाती है या उड़ती ही नहीं।[श्रीमद भागवतम स्वामीप्रभुपाद 6.9.11]
यज्ञ की दक्षिण अग्नि से उत्पन्न त्वष्टा का पुत्र जले हुए पहाड़ जैसा काला था, विशालकाय था, वह प्रतिदिन शरीर के सब ओर से एक बाण जितना बढ़ जाता था। उसने सारे लोकों को घेर लिया। इस कारण उसका नाम वृत्रासुर हुआ। देवताओं ने उस पर अपने-अपने शस्त्रों से प्रहार किया परंतु वह सभी शस्त्रों को निगल गया। वह भाग गए और अपने हृदय में स्थित आदि पुरुष श्री नारायण की शरण में गए।
नारायण द्वारा देवताओं को समझाया गया कि वृत्रासुर का अंत महर्षि दधीचि की हड्डियों से बने वज़्र से ही होगा। महान ऋषि ने अपनी हड्डियों का दान देवताओं को दे दिया जिससे उन्होंने वज्र का निर्माण क्या। वृत्रासुर को पता लग गया कि भगवान् स्वयं इंद्र की ओर है जिससे इंद्र की जीत सुनिश्चित है। असुर ने भगवान् से प्रार्थना की कि वह भगवान् को छोड़कर स्वर्ग ,ब्रह्म लोक, धरती का राज प्रशासन, योग की सिद्धियां तथा मोक्ष को भी नहीं चाहता। उसने भगवान् से प्रार्थना की कि वह जिस जगह रहे उसे भगवान के प्रेमियों का संग मिलता रहे और जहां माया बध्य जीव हो ऐसी जगह भगवान उसे नहीं भेजें। युद्ध के दौरान इंद्र का वज्र नीचे गिर गया था, जिससे इंद्र बहुत लज्जित हुआ l परंतु वृत्रासुर की यह महानता ही है कि उसने इंद्र से कहा कि इंद्र वज्र उठा ले और अपने शत्रु को मार दे और इंद्र से बोला, "पुरुषोत्तम भगवान् के अलावा किसी की भी बार-बार विजय होना निश्चित नहीं है, अलग-अलग प्रकार की योनि प्राप्त करने वाले जीव कभी विजयी होते हैं कभी परास्त"। असुर होते हुए भी इतना ज्ञान था l प्रायः असुरों में ऐसा ज्ञान नहीं होता है l जब मृत्यु का योग आया तब वृत्तासुर इंद्र के हाथों मारा गया, यूं तो इंद्र ने उसकी कोख फाड़ दी थी, परंतु मृत्यु उसकी एक साल बाद हुई। सबके देखते-देखते वृत्रासुर भगवान् में लीन हो गया, भगवान् के स्वरुप में चला गया। इंद्र-वृत्रासुर युद्ध के संबंध में श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर का मत है कि वृत्रासुर ने जब हाथी समेत इंद्र को निगल लिया तब उसने सोचा कि मैंने इंद्र को मार डाला है। इस कारण से वह समाधि में चला गया, क्योंकि उसने सोचा कि अब लड़ने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। उसे भगवान् के परम धाम जाना चाहिए। इसका लाभ उठा कर इंद्र ने वृत्रासुर का पेट फाड़ डाला और वृत्रासुर की समाधि के कारण इन्द्र बाहर निकल आया। वृत्रासुर क्योंकि समाधि में लीन था, इसलिए इंद्र उसकी गर्दन को सुगमता से नहीं काट पाया, गर्दन इतनी कठोर थी कि इंद्र को उसे काटने में पूरे 360 दिन लग गए। वास्तव में इंद्र ने वृत्रा सुर के उस शरीर के टुकड़े टुकड़े किए जिसको वृत्रासुर स्वयं ने त्याग दिया था, इस प्रकार इंद्र के हाथों नहीं मारा गया। अपनी मूल चेतना में ही भगवान् संकर्षण के परम धाम चला गया। [श्रीमद् भागवतम् स्वामी प्रभुपाद-इस्कॉन द्वारा टीका 6.12.31-35 ]
वृत्रासुर में ऐसा ज्ञान कहाँ से आया? यह अनेक जन्मों की साधना से और विशेषकर नारद जी से प्राप्त हुआ। नारद जी ने गर्भ में ही प्रहलाद को भगवत-भक्त बना दिया था, डाकू को महान संत वाल्मीकि और वृत्रासुर को ज्ञानी। इसे समझाने हेतु परमहंस सुखदेव ने अपने पिता, नारद जी और देवल से सुना इतिहास सुनाया। चित्रकेतु नाम का एक चक्रवर्ती सम्राट शूरसेन प्रदेश में राज्य करता था l उसके राज्य में पृथ्वी सारी आवश्यक वस्तुएं उत्पन्न करती थी। ऐसा राजा युधिष्ठिर के राज में भी था। ऐसा देखने में आता है कि जब राजा धर्म अनुसार चलता है, सदाचारी होता है तो वर्षा भी उचित मात्रा, उचित समय, में होती है और धरती से अन्न, फल आदि भी वांछित मात्रा में पैदा होते हैं। प्रजा, पृथ्वी बादल आदि में एक संतुलन होता है। यह संतुलन आवश्यक भी है सृष्टि चक्र के लिए जैसा कि गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने भी कहा है।

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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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