Thursday, July 19, 2018

GANESH GEETA गणेश गीता

GANESH GEETA गणेश गीता
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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 "ॐ गं गणपतये नमः" 
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्। 
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
देवराज इंद्र समेत सारे देवी देवता, सिंदूरा दैत्य के अत्याचार से परेशान थे। जब ब्रह्मा जी से सिंदूरा से मुक्ति का उपाय पूछा गया तो उन्होने गणपति की शरण में जाने को कहा। सभी देवताओं ने गणपति से प्रार्थना की कि वे उन्हें दैत्य सिंदूरा के अत्याचारों से मुक्ति दिलायें। देवताओं और ऋषियों की आराधना से गणपति महाराज प्रसन्न हो गये और उन्होंने माँ जगदंबा के घर गजानन रुप में अवतार लिया।
राजा वरेण्य की पत्नी पुष्पिका के घर भी एक बालक ने जन्म लिया। लेकिन प्रसव की पीड़ा से रानी मूर्छित हो गईं और उनके पुत्र को राक्षसी उठा ले गई। ठीक इसी समय भगवान् शिव के गणों ने गजानन को रानी पुष्पिका के पास पहुँचा दिया। क्योंकि गणपति ने कभी राजा वरेण्य की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया था कि वह उनके यहाँ पुत्र रूप में जन्म लेंगे।
जब रानी पुष्पिका की मूर्छा टूटी तो वो चतुर्भुज गजमुख गणपति के इस रूप को देखकर डर गईं। राजा वरेण्य के पास यह सूचना पहुँचाई गई कि ऐसा बालक पैदा होना राज्य के लिये अशुभ होगा। बस राजा वरेण्य ने गणपति को जंगल में छोड़ दिया। जंगल में इस शिशु गणपति के शरीर पर मिले शुभ लक्षणों को देखकर महर्षि पराशर उन्हें अपने आश्रम में ले लाये। पराशर ऋषि और उनकी पत्नी वत्सला ने गणपति का पालन पोषण किया। 
राजा वरेण्य को ज्ञात हुआ कि जिस बालक को उन्होने जंगल में छोड़ा था, वह कोई और नहीं बल्कि गणपति हैं। पश्चाताप स्वरूप उन्होंने गणपति से प्रार्थना की कि अज्ञानवश वे उनके स्वरूप को पहचान नहीं पाये और क्षमा याचना की। करुणामूर्ति गजानन पिता वरेण्य की प्रार्थना सुनकर बहुत प्रसन्न हुये और उन्होंने राजा को कृपापूर्वक अपने पूर्वजन्म के वरदान का स्मरण कराया। 
गजानन ने पिता वरेण्य से स्वधाम-यात्रा की आज्ञा माँगी। स्वधाम-गमन की बात सुनकर राजा वरेण्य व्याकुल हो उठे अश्रुपूर्ण नेत्र और अत्यंत दीनता से प्रार्थना करते हुए बोले "कृपामय! मेरा अज्ञान दूरकर मुझे मुक्ति का मार्ग प्रदान करे"। वरेण्य की दीनता से प्रसन्न होकर भगवान् गजानन ने उन्हें ज्ञानोपदेश प्रदान किया जो अमृतोपदेश गणेश-गीता के नाम से विख्यात है। 
गणेश गीता :: 
श्रीमद्भगवद्गीता के 18 अध्यायों में 700 श्लोक हैं और गणेशगीता’ के 11 अध्यायों में 414 श्लोक हैं।
साँख्य सारार्थ नामक प्रथम अध्याय में गणपति ने योग का उपदेश दिया और राजा वरेण्य को शाँति का मार्ग बतलाया है।
कर्मयोग नामक दूसरे अध्याय में गणपति  ने कर्म के मर्म का उपदेश दिया है।
विज्ञानयोग नामक तीसरे अध्याय में अपने अवतार-धारण करने का रहस्य बताया है।
वैधसंन्यासयोग नाम वाले चौथे अध्याय में योगाभ्यास तथा प्राणायाम से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण बातें बतलाई गई हैं।
योगवृत्तिप्रशंसनयोग नामक पांचवें अध्याय में योगाभ्यास के अनुकूल-प्रतिकूल देश, काल, पात्र की चर्चा है।
बुद्धियोग नाम के छठे अध्याय में गणपति  कि अपने किसी सत्कर्म के प्रभाव से ही मनुष्य में मुझे (ईश्वर को) जानने की इच्छा उत्पन्न होती है। जिसका जैसा भाव होता है, उसके अनुरूप ही मैं उसकी इच्छा पूर्ण करता हूँ। अंतकाल में मेरी (भगवान को पाने की) इच्छा करने वाला मुझ में ही लीन हो जाता है। मेरे तत्व को समझने वाले भक्तों का योग-क्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ।
उपासनायोग नामक सातवें अध्याय में भक्तियोग का वर्णन है।
विश्वरूपदर्शनयोग नाम के आठवें अध्याय में गणपति ने अपने विराट रूप का दर्शन कराया।
नौवें अध्याय में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान तथा सत्व, रज, तम तीनों गुणों का परिचय दिया गया है।
उपदेश योग नामक दसवें अध्याय में दैवी, आसुरी और राक्षसी तीनों प्रकार की प्रकृतियों के लक्षण बतलाए गए हैं। गजानन कहते हैं, "काम, क्रोध, लोभ और दंभ" ये चार नरकों के महाद्वार हैं, अत: इन्हें त्याग देना चाहिए तथा दैवी प्रकृति को अपनाकर मोक्ष पाने का यत्न करना चाहिए।
त्रिविध वस्तु विवेक-निरूपण योग नामक अंतिम ग्यारहवें अध्याय में कायिक, वाचिक तथा मानसिक भेद से तप के तीन प्रकार बताए गए हैं।
जिस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता और श्री गणेशगीता का आरंभ भिन्न-भिन्न स्थितियों में हुआ था, उसी तरह इन दोनों गीताओं को सुनने के परिणाम भी अलग-अलग हैं। अर्जुन अपने क्षात्र धर्म के अनुसार युद्ध करने के लिए उद्यत हो गये, जबकि राजा वरेण्य राजगद्दी त्यागकर वन में तपस्या हेतु प्रस्थान कर गये और मोक्ष प्राप्त किया। 
जिस प्रकार जल, जल में मिलने पर जल ही हो जाता है, उसी प्रकार गणपति  का चिंतन करते हुए राजा वरेण्य भी ब्रह्मलीन हो गए। जो मनुष्य भक्ति, निष्ठा के साथ प्रभु का स्मरण-चिन्तन करता है वह उन्हीं में लीन हो जाता है। 

 
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