Thursday, May 10, 2018

STORIES FROM INDIAN HISTORY भारत के इतिहास की लघु कथाएँ

भारत के इतिहास की लघु कथाएँ
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
भारत विभाजन :: सन् 1,946-47 में  भारत के विभाजन के समय आसाम के सिलहट जिले को गोपीनाथ बोरदोलोई ने भारत में मिलाने की बात रखी। जनमत संग्रह किया जाना तय किया गया। वोटिंग के दिन सारे मुसलमान सवेरे ही लाइनों में लग गये लेकिन हिंदु लाखों थे, पर वे दोपहर तक सोने और ताश खेलने के बाद तीन बजे पोलिंग बूथ बूथ गए। उस समय लम्बी-लम्बी लाईनें लग चुकी थीं। आधे हिंदुओं की भीड़ तो दूर से ही लंबी-लंबी लाइनें देखती रही ओर आधे हिंदु लंबी-लंबी लाईनों में लगने से बचते रहे और बिना वोट डाले वापस घर आ गये। करीब पचपन हजार वोटों से सिलहट जिला पाकिस्तान में चला गया। पूरे सिलहट जिले में लगभग एक लाख हिंदु वोट ही नहीं डाल सके। मुसलमानों के सारे वोट पड़े और हिंदुओं के एक चौथाई वोट ही पड़े जिससे सिलहट जिला पाकिस्तान में चला गया। फिर जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन के पैगाम पर हिंदुओं की बहन बेटियों की आबरू लूटी गई, उनका माल छीन लिया गया और सिलहट जिला के हिन्दू दुर्दशा भोगते हुए इस दुनिया से चले गये।
लेकिन तब से आज तक हिंदु सुधरा नहीं है। मोदी जैसे हिंदुवादी नेता भी इस चार बीबी और 98-107 बच्चों वालों को मुफ्त राशन देते हैं जबकि हिन्दु परिवार में ज्यादा से ज्यादा चार लोगों को ही मुफ्त राशन नसीब होता है।
गोरा-बादल :: गौरा और बादल ऐसे ही दो शूरवीरों के नाम है, जिनके पराक्रम से राजस्थान की मिट्टी बलिदानी है।  
गौरा ओर बदल दोनों चाचा भतीजे जालोर के चौहान वंश से सम्बन्ध रखते थे।
मुहणोत नैणसी के प्रसिद्ध काव्य मारवाड़ रा परगना री विगत में इन दो वीरों के बारे पुख्ता जानकारी मिलती है। रिश्ते में चाचा और भतीजा लगने वाले ये दो वीर जालौर के चौहान वंश से संबंध रखते थे, जो रानी पद्मिनी की विवाह के बाद चितौड़ के राजा रतन सिंह के राज्य का हिस्सा बन गए थे।
ये दोनों इतने पराक्रमी थे कि दुश्मन उनके नाम से ही काँपते थे। एक तरफ जहां चाचा गोरा दुश्मनों के लिए काल के सामान थे, वहीं दूसरी तरफ उनका भतीजा बादल दुश्मनों के संहार के आगे मृत्यु तक को शून्य समझता था। मेवाड़ के राजा रतन सिंह ने उन्हें अपनी सेना की बागडोर दे रखी थी।
खिलजी की नजर मेवाड़ की राज्य पर थी लेकिन वह युद्ध में राजपूतों को नहीं हरा सका तो उसने कूटनीतिक चाल चली, मित्रता का बहाना बनाकर रावल रतनसिंह को मिलने के लिए बुलाया और धोके से उनको बंदी बना लिया और वहीं से सन्देश भिजवाया कि रावल को तभी आजाद किया जायेगा, जब रानी पद्मिनी उसके पास भेजी जाएगी।
इस तरह के धोखे और सन्देश के बाद राजपूत क्रोधित हो उठे, लेकिन रानी पद्मिनी ने धीरज व चतुराई से काम लेने का आग्रह किया। रानी ने गोरा-बादल से मिलकर अलाउद्दीन को उसी तरह जबाब देने की रणनीति अपनाई जैसा अलाउद्दीन ने किया था। रणनीति के तहत खिलजी को सन्देश भिजवाया गया कि रानी आने को तैयार है, पर उसकी दासियाँ भी साथ आएगी।
खिलजी सुनकर आन्दित हो गया। रानी पद्मिनी की पालकियां आई, पर उनमें रानी की जगह वेश बदलकर गोरा बैठा था। दासियों की जगह पालकियों में चुने हुए वीर राजपूत थे। खिलजी के पास सूचना भिजवाई गई कि रानी पहले रावल रत्नसिंह से मिलेंगी। खिलजी ने बेफिक्र होकर अनुमति दे दी। रानी की पालकी जिसमें गोरा बैठा था, रावल रत्नसिंह के तम्बू में भेजी गई।
गोरा ने रत्नसिंह को घोड़े पर बैठा तुरंत रवाना कर और पालकियों में बैठे राजपूत खिलजी के सैनिकों पर टूट पड़े। राजपूतों के इस अचानक हमले से खिलजी की सेना हक्की-बक्की रहा गई वो कुछ समझ आती उससे पहले ही राजपूतों ने रतनसिंह को सुरक्षित अपने दुर्ग पहुँचा दिया, हर तरफ कोहराम मच गया, गोरा और बादल काल की तरह दुश्मनों पर टूट पड़े और अंत में दोनों वीरो की भांति लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

महारानी नाग्निका सातकर्णी :: विश्व की पहली साम्राज्ञी, सातवाहन ब्राह्मण वंश की महारानी नाग्निका सातकर्णी भारत ही नहीं अपितु पूरे विश्व की पहली साम्राज्ञी शासिका बनी थीं।
पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल के बाद लगभग 518 वर्षों तक सात वाहन (शालि वाहन) राजवंश का समृद्ध इतिहास मिलता है, इसी वंश की तीसरी पीढ़ी की राज-शासिका थीं, नाग्निका।
नाग्निका सम्राट सिमुक सातवाहन की पुत्रवधू तथा सातकर्णी की पत्नी थीं, युवावस्था में ही  सातकर्णी का निधन हो जाने से वह राज्य-कार्यभार सँभालने लगीं। सातवाहन काल में शासन का केंद्र वृहद् महाराष्ट्र था, जिसमें कर्णाटक-कोंकण तक सम्मिलित थे; जिसकी राजधानी प्रतिष्ठान-पैठण थी। 
सातवाहन काल में सीरिया, बेबीलोनिया के आसुरी शक्तिओं का प्रभाव था यह इतने क्रूर थे कि जहाँ भी जाते थे, लूटपाट मचाते थे, संस्कृति को नष्ट करना इनका मूल उद्देश्य होता था।
जब  सातकर्णि शालिवाहन सम्राट का युद्ध में निधन हुआ तो आसुरी शक्ति के प्रभाव से शालिवाहन साम्राज्य को भी नुकसान हुआ। 
राष्ट्रनिर्माण हो जाने पर राष्ट्र विकास की संकल्पना को पूर्ण करते समय प्रथम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य सीमा रक्षण का होता है, जिसमें चूक होना विनाश का बुलावा होता है।
आज भी इन बातों पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है, राज्य सबल, सुन्दर, विकसित और सम्पन्न तभी हो सकेगा जब राष्ट्र निर्भय होगा।
हम शान्तिप्रिय हैं, और हम अहिंसा के पुजारी हैं इसका कोई, मनमाना अर्थ न निकाल ले इसलिए हमें अपने राष्ट्र को सामर्थ्यशाली साधन सम्पन्न बनाना, राष्ट्रसेना सुरक्षित, सुसज्जित और प्रशिक्षित होनी चाहिए।
इसी वैचारिकता को आत्म सात करते हुए महारानी नाग्निका ने कहा :- "भविष्य में हम अपने राष्ट्र में अन्तरिम और बाह्य कैसे भी विद्रोह अथवा आक्रमण को क्षमा नहीं करेंगे"।
महामन्त्री सुशर्मा, आप इस समाचार को त्वरित प्रसारित करने की व्यवस्था कीजिए, महारानी नाग्निका ने गर्जना की।
वीरांगना साम्राज्ञी नाग्निका सातकर्णि ने शालिवाहन साम्राज्य और वैदिक हिन्दु संस्कृति के सूर्य को कभी अस्त नहीं होने दिया।
साम्राज्ञी  नाग्निका के समय 781-764 (ई.पूर्व) 6 युद्ध हुये अस्सीरिया मेसोपोटामिया (Mesopotamia, Assyria) के असुरों के खिलाफ शाल्मनेसेर चतुर्थ 773 (ई.पूर्व) और आशूर निरारि पंचम 755 (ई.पूर्व) यह असुर प्रजाति के थे। यह जिस राज्य में कदम रखते थे वहाँ के नारियों को यह अपना निशाना बनाते थे, दर्दनाक शारीरिक यातनाओं से गुजरना पड़ता था ना केवल धन लूटते थे, अपितु संस्कृति का विनाश कर देते थे।
मेसोपोटमिया के ये दस्यु, लुटेरे असुर दल लाखों की संख्या में सेना लेकर आते थे। नाग्निका के राज्य शासन की राजधानी महाराष्ट्र थी। इन्होंने कई लड़ाईयाँ लड़ीं। शाल्मनेसेर चतुर्थ के साथ प्रथम लड़ाई लड़ी गई थी, जहाँ इतिहासकार रोबर्ट वालमन ने अपनी पुस्तक वर्ल्ड फर्स्ट वारियर में लिखा हैं "साम्राज्ञी नागनिका ने अरब तक राज्य विस्तार की थी उनके तलवार के आगे 157 विदेशी असुरों ने घुटने टेक दिये थे"।
शुभांगी भदभदे नाम की इतिहासकार साम्राज्ञी नाग्निका नामक उपन्यास में लिखती हैं, "असुर, निरारि पंचम की 1,36,000 संख्या वाली दानव शक्ति  को नाग्निका ने भारत की पुण्यभूमि से बहुत बुरी तरह खदेड़ दिया था"।
 नाग्निका के मृत्यु के पश्चात भी इन विदेशियों की हिम्मत नहीं हो पायी दोबारा आर्यावर्त पे आक्रमण करने की। नाग्निका बेबीलोनिया, मेसोपोटमिया और अरबी हमलावरों को भारत से ना केवल खदेड़ती थीं, अपितु उनका पूर्णरूप से विनाश कर देती थीं, ताकि ये बर्बर आक्रमणकारी दोबारा भारत पर आक्रमण करने का सोच भी ना सकें। यह प्रसिद्ध लड़ाइयाँ कर्णाटक-कोंकण पैठण में लड़ी गयी थीं।
नाग्निका ना केवल एक कुशल महारानी साथ ही साथ एक विलक्षण, रण कौशलिनी, युद्ध के 49 कला से निपुण शासिका थी।
 शत्रुओं के बल और दर्प (घमण्ड) का अन्त तो करती थीं, साथ ही साथ अगर ज़रूरत होती थी तो शत्रु का पूर्णरूप से नाश कर देती थीं।
नाग्निका सातकर्णि अतिकुशल राजनीतिज्ञ भी थीं। उन्होंने राजनीति के बल पर घोर विरोधी राज्य को भी बिना युद्ध लड़े एक छत्र शासन में ले आई थीं। विश्व की पहली साम्राज्ञी नाग्निका सातकर्णि पहली शासिका थीं, जिन्होंने युद्ध में नेतृत्व करते हुए खुद भी युद्ध लड़ी थी, असुर दलों के विरुद्ध और अरब तक राज्य विस्तार की थी।
यह बात 782 (ई.पूर्व) की बात है। यह तब की बात हैं जब यूरोप में कोई शासिका बनना तो दूर घर से चौखट लांग कर जाने तक के लिए पूछना पड़ता था, तब हमारे भारत की नारी साम्राज्ञी बन कर भारत का ध्वज लहराई थी।
नाग्निका विश्व की पहली महारानी थीं, जिनके नाम का सिक्का चलता था। 
हरि सिंह नलवा :: हरि सिंह नलवा का जन्म 1,791 में 28 अप्रैल को एक उप्पल जाट सिक्ख परिवार में गुजरांवाला पंजाब में हुआ था। इनके पिता का नाम गुरदयाल सिंह उप्प्पल और माँ का नाम धर्मा कौर था। बचपन में उन्हें घर के लोग प्यार से "हरिया" कहते थे। सात वर्ष की आयु में इनके पिता का देहांत हो गया। 
1,805 ई. के वसंतोत्सव पर एक प्रतिभा खोज प्रतियोगिता में, जिसे महाराजा रणजीत सिंह ने आयोजित किया था, हरि सिंह नलवा ने भाला चलाने, तीर चलाने तथा अन्य प्रतियोगिताओं में अपनी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया। इससे प्रभावित होकर महाराजा रणजीत सिंह ने उन्हें अपनी सेना में भर्ती कर लिया। शीघ्र ही वे महाराजा रणजीत सिंह के विश्वासपात्र सेनानायकों में से एक बन गये।
रणजीत सिंह एक बार जंगल में शिकार खेलने गये। उनके साथ कुछ सैनिक और हरी सिंह नलवा थे। उसी समय एक विशाल आकार के बाघ ने उन पर हमला कर दिया। जिस समय डर के मारे सभी दहशत में थे, हरी सिंह मुकाबले को सामने आए। इस खतरनाक मुठभेड़ में हरी सिंह ने बाघ के जबड़ों को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर उसके मुँह को बीच में से चीर डाला। उसकी इस बहादुरी को देख कर रणजीत सिंह ने कहा, "तुम तो राजा नल जैसे वीर हो", तभी से वो नलवा के नाम से प्रसिद्ध हो गये। नलवा महाराजा रणजीत सिंह के सेनाध्यक्ष थे। महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में 1,807 ई. से लेकर 1,837 ई. तक हरि सिंह नलवा लगातार अफगानों से लोहा लेते रहे। अफगानों के खिलाफ जटिल लड़ाई जीतकर उन्होंने कसूर, मुल्तान, कश्मीर और पेशावर में सिख शासन की स्थापना की थी। अहमदशाह अब्दाली के पश्चात् तैमूर लंग के काल में अफ़ग़ानिस्तान विस्तृत तथा अखंडित था। इसमें कश्मीर, लाहौर, पेशावर, कंधार तथा मुल्तान भी थे । हेरात, कलात, बलूचिस्तान, फारस आदि पर उसका प्रभुत्व था। हरि सिंह नलवा ने इनमें से अनेक प्रदेशों को जीतकर महाराजा रणजीत सिंह के अधीन ला दिया। उन्होंने 1,813 ई. में अटक, 1,818 ई. में मुल्तान, 1819 ई. में कश्मीर तथा 1823 ई. में पेशावर की जीत में विशेष योगदान दिया।
सरदार हरि सिंह नलवा ने अपने अभियानों द्वारा सिन्धु नदी के पार अफगान साम्राज्य के एक बड़े भाग पर अधिकार करके सिख साम्राज्य की उत्तर पश्चिम सीमांत को विस्तार किया था। नलवे की सेनाओं ने अफ़गानों को खैबर दर्रे के उस ओर खदेड़ कर इतिहास की धारा ही बदल दी। ख़ैबर दर्रा पश्चिम से भारत में प्रवेश करने का एक महत्वपूर्ण मार्ग है। ख़ैबर दर्रे से होकर ही 500 ईसा पूर्व में यूनानियों के भारत पर आक्रमण करने और लूटपात करने की प्रक्रिया शुरू हुई। इसी दर्रे से होकर यूनानी, हूण, शक, अरब, तुर्क, पठान और मुगल लगभग एक हजार वर्ष तक भारत पर आक्रमण करते रहे। तैमूर लंग, बाबर और नादिरशाह की सेनाओं के हाथों भारत बेहद पीड़ित हुआ था। हरि सिंह नलवा ने ख़ैबर दर्रे का मार्ग बंद करके इस ऐतिहासिक अपमानजनक प्रक्रिया का पूर्ण रूप से अन्त कर दिया था। हरि सिंह ने अफगानों को पछाड़ कर निम्नलिखित विजयों में भाग लिया :- सियालकोट (1,802), कसूर (1,807), मुल्तान (1,818), कश्मीर (1,819), पखली और दमतौर (1,821-22), पेशावर (1,834) और ख़ैबर हिल्स में जमरौद (1,836)। हरि सिंह नलवा कश्मीर और पेशावर के गवर्नर बनाये गये। कश्मीर में उन्होने एक नया सिक्का ढाला जो 'हरि सिन्गी' के नाम से जाना गया। यह सिक्का आज भी संग्रहालयों में प्रदर्शित है।
मुल्तान विजय में हरिसिंह नलवा की प्रमुख भूमिका रही। महाराजा रणजीत सिंह के आह्वान पर वे आत्म-बलिदानी दस्ते में सबसे आगे रहे। यहाँ युद्ध में हरि सिंह नलवा ने सेना का नेतृत्व किया। हरि सिंह नलवा से यहाँ का शासक इतना भयभीत हुआ कि वह पेशावर छोड़कर भाग गया। अगले दस वर्षों तक हरि सिंह के नेतृत्व में पेशावर पर महाराजा रणजीत सिंह का आधिपत्य बना रहा, पर यदा-कदा टकराव भी होते रहे। इस पर पूर्णत: विजय 6 मई, 1,834 को स्थापित हुई । 
अप्रैल 1836 में, जब पूरी अफगान सेना ने जमरौद पर हमला किया था, अचानक प्राण घातक घायल होने पर नलवा ने अपने नुमायंदे महान सिंह को आदेश दिया कि जब तक सहायता के लिये नयी सेना का आगमन ना हो जाये उनकी मृत्यु की घोषणा ना की जाये जिससे कि सैनिक हतोत्साहित ना हो और वीरता से डटे रहे। हरि सिंह नलवा की उपस्थिति के डर से अफगान सेना दस दिनों तक पीछे हटी रही। एक प्रतिष्ठित योद्धा के रूप में नलवा अपने पठान दुश्मनों के सम्मान के भी अधिकारी बने ।
"चुप हो जा वरना हरि सिंह आ जाएगा"
वर्तमान पाकिस्तान और काबुल में माँए अपने बच्चे को ये कहकर चुप कराती थी कि "चुप सा, हरि राघले" यानी चुप हो जा वरना हरि सिंह आ जाएगा। 
नलवे के डर से पठान पहनने लगे थे सलवार-कमीज। आज जिसे पठानी सूट कहा जाता है वह दरअसल महिलाओं की सलवार-कमीज है। 
नलवा के नेतृत्व में महाराजा रणजीत सिंह की सेना 1,820 में फ्रंटियर में आयी थी। तब नलवा की फौज ने बहुत आसानी से पठानों पर जीत हासिल कर ली थी। लिखित इतिहास में यही एक ऐसा वक्त है, जब पठान महाराजा रणजीत सिंह के शासन के गुलाम हो गए थे। उस वक्त जिसने भी सिखों का विरोध किया उनको बेरहमी से कुचल दिया गया। तब ये बात बहुत प्रचलित हो गई थी कि सिख तीन लोगों की जान नहीं लेते हैं, पहला स्त्रियाँ, दूसरा बच्चे और तीसरा बुजुर्ग। बस क्या था, तभी से पठान पंजाबी महिलाओं के द्वारा पहना जाने वाला सलवार कमीज पहनने लगे। यानि एक ऐसा वक्त आया जब महिलाएं और पुरुष एक जैसे ही कपड़े पहनने लगे। इसके बाद सिख भी उन पठानों को मारने से परहेज करने लगे जिन्होंने महिलाओं के सलवार धारण कर लिये । जिन पठानों को दुनिया का सबसे बेहतरीन लड़ाकू माना जाता है उन पठानों में भी हरि सिंह नलवा के नाम का जबरदस्त खौफ था। इतना खौफ़ था कि जहाँगीरिया किले के पास जब पठानों के साथ युद्ध हुआ तब पठान यह कहते हुए सुने गये, "तौबा-तौबा, खुदा खुद खालसा शुद" अर्थात खुदा माफ करे, खुदा स्वयं खालसा हो गये हैं।
1,837 में जब राजा रणजीत सिंह अपने बेटे की शादी में व्यस्त थे, तब सरदार हरि सिंह नलवा उत्तर पश्चिम सीमा की रक्षा कर रहे थे। ऐसा कहा जाता है कि नलवा ने राजा रणजीत सिंह से जमरौद के किले की ओर बढ़ी सेना भेजने की माँग की थी लेकिन एक महीने तक मदद के लिए कोई सेना नहीं पहुँची। सरदार हरि सिंह अपने मुठ्ठी भर सैनिकों के साथ वीरता पूर्वक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। 
उन्होने सिख साम्राज्य की सीमा को सिन्धु नदी के परे ले जाकर खैबर दर्रे के मुहाने तक पहुँचा दिया। हरि सिंह की मृत्यु के समय सिख साम्राज्य की पश्चिमी सीमा जमरुद तक पहुँच चुकी थी। हरी सिंह की मृत्यु से सिख साम्राज्य को एक बड़ा झटका लगा और महाराजा रणजीत सिंह काबुल को अपने कब्ज़े में लेने का सपना पूरा नहीं कर पाए। अफ़ग़ान लड़ाके जिनके चलते काबुल को 'साम्राज्यों की कब्रगाह' कहा जाता था। उनके सामने हरि सिंह ने 20 लड़ाइयां लड़ी थी और सबमें जीत हासिल की थी। इसी के चलते महाराजा रणजीत सिंह बड़े चाव से हरि सिंह के जीत के किस्से सबको सुनाया करते थे। इतना ही नहीं उन्होंने कश्मीर से शॉल माँगकर उन पर इन लड़ाइयों को पेंट करवाया था। एक शाल की कीमत तब 5 हजार रूपये हुआ करती थी। हरि सिंह नलवा की आख़िरी इच्छा को ध्यान में रखते हुए कि उनकी राख को लाहौर में कुश्ती के उसी अखाड़े में मिला दिया गया, जिसमें उन्होंने अपनी जिंदगी की पहली लड़ाई जीती थी। 1,892 में पेशावर के एक हिन्दु बाबू गज्जू मल्ल कपूर ने उनकी स्मृति में किले के अन्दर एक स्मारक बनवाया।
चंगेज खान और बुखारा :: जब चंगेज खान ने बुखारा की घेराबंदी की, तब उसने एक बार में ही शहर को नहीं रौंदा था, बल्कि उसने एक तरकीब अपनाई, उसने बुखारा शहर के लोगों के नाम एक खत लिखा, "वह लोग जो हमारा देंगे उनकी जान बख़्श दी जाएगी"। ये खबर सुनकर बुखारा शहर के लोग दो हिस्सों में बट गए थे। इनमें से एक गिरोह ने चंगेज खान की बात मानने से इनकार कर दिया, जबकि दूसरा चंगेज़ खान की बात से सहमत हो गया।
इसके बाद चंगेज खान ने अपने साथ हुए लोगों  को खबर पहुँचाई कि "अगर वह लोग उसके मुख़ालिफ़ हुए लोगों से लड़ने में उसकी मदद करते हैं तो हम आपका शहर आपको सौंप देंगे"।
ये खबर सुनकर उन लोगों ने चंगेज़ खान के आदेश का पालन किया और बुखारा शहर में अपने ही लोगों के बीच भयंकर जंग छिड़ गई। आखिर में, चंगेज खान के समर्थकों की जीत हुई।
लेकिन जीतने वाले गिरोह के होश तब उड़ गए जब चंगेज़ खान की फौज ने उन पर हमला बोल दिया और उनका क़त्ल ए आम शुरू कर दिया और फिर चंगेज खान ने ये शब्द कहे, "अगर ये लोग सच्चे और वफादार होते, तो उन्होंने हमारे लिए अपने भाइयों को धोखा नहीं दिया होता, जबकि हम उनके लिए अजनबी थे"।[अरब इतिहासकार इब्न अल-अथिर 1,160-1,234]
नरपिशाच बख्तियार खिलजी (1). :: तुर्की का सैन्य कमांडर बख्तियार खिलजी गंभीर रूप से बीमार पड़ गया। सारे हकीम हार गए परंतु बीमारी का पता नहीं चल पाया। खिलजी दिनों दिन कमजोर पड़ता गया और उसने बिस्तर पकड़ लिया। उसे लगा कि अब उसके आखिरी दिन आ गए हैं।
एक दिन उससे मिलने आए एक बुज़ुर्ग ने सलाह दी कि दूर भारत के मगध साम्राज्य में अवस्थित नालंदा महाविद्यालय के एक ज्ञानी राहुल शीलभद्र को एक बार दिखा लें, वे आपको ठीक कर देंगे। खिलजी तैयार नहीं हुआ। उसने कहा कि मैं किसी काफ़िर के हाथ की दवा नहीं ले सकता हूँ, चाहे मर क्यों न जाऊं। 
मगर बीबी बच्चों की जिद के आगे झुक गया। राहुल शीलभद्र जी तुर्की आए। खिलजी ने उनसे कहा कि दूर से ही देखो मुझे छूना मत क्योंकि तुम काफिर हो और दवा मैं लूंगा नहीं। राहुल शीलभद्र जी ने उसका चेहरा देखा, शरीर का मुआयना किया, बलगम से भरे बर्तन को देखा, सांसों के उतार चढ़ाव का अध्ययन किया और बाहर चले गए।
फिर लौटे और पूछा कि कुरान पढ़ते हैं? 
खिलजी ने कहा दिन रात पढ़ते हैं। पन्ने कैसे पलटते हैं? उंगलियों से जीभ को छूकर सफे पलटते हैं। 
शीलभद्र जी ने खिलजी को एक कुरान भेंट किया और कहा कि आज से आप इसे पढ़ें और राहुल शीलभद्र जी वापस भारत लौट आए।
दूसरे दिन से ही खिलजी की तबीयत ठीक होने लगी और एक हफ्ते में वह भला चंगा हो गया। राहुल शीलभद्र जी ने कुरान के पन्नों पर दवा लगा दी थी जिसे उंगलियों से जीभ तक पढ़ने के दौरान पहुँचाने का अनोखा तरीका अपनाया गया था।
खिलजी अचंभित था मगर उससे भी ज्यादा ईर्ष्या और जलन से मरा जा रहा था कि आखिर एक काफिर मुस्लिम से ज्यादा काबिल कैसे हो गया!? 
अगले ही साल 1,193 में उसने सेना तैयार की और जा पहुँचा नालंदा महाविद्यालय मगध क्षेत्र। पूरी दुनिया का सबसे बड़ा ज्ञान और विज्ञान का केंद्र। जहाँ 10,000 छात्र और 1,000 शिक्षक एक बड़े परिसर में रहते थे। जहाँ एक तीन मंजिला इमारत में विशालकाय पुस्तकालय था, जिसमें एक करोड़ पुस्तकें, पांडुलिपियाँ एवं ग्रंथ थे।
खिलजी जब वहाँ पहुँचा तो शिक्षक और छात्र उसके स्वागत में बाहर आए, क्योंकि उन्हें लगा कि वह कृतज्ञता व्यक्त करने आया है। 
खिलजी ने उन्हें देखा और मुस्कुराया और तलवार से भिक्षु श्रेष्ठ की गर्दन काट दी (क्योंकि वह पूरी तैयारी के साथ आया था)। फिर हजारों छात्र और शिक्षक गाजर मूली की तरह काट डाले गए (क्योंकि कि वह सब अचानक हुए हमले से अनभिज्ञ थे)। खिलजी ने फिर ज्ञान विज्ञान के केंद्र पुस्तकालय में आग लगा दी। कहा जाता है कि पूरे तीन महीने तक पुस्तकें जलती रहीं।
खिलजी चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था कि तुम काफिरों की हिम्मत कैसे हुई इतनी पुस्तकें पांडुलिपियां इकट्ठा करने की? बस एक कुरान रहेगा धरती पर बाकी सब को नष्ट कर दूंगा।
पूरे नालंदा को तहस नहस कर जब वह लौटा तो रास्ते में विक्रम शिला विश्वविद्यालय को भी जलाते हुए लौटा। मगध क्षेत्र के बाहर बंगाल में वह रूक गया और वहाँ खिलजी साम्राज्य की स्थापना की।
जब वह लद्दाख क्षेत्र होते हुए तिब्बत पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था तभी एक रात उसके एक कमांडर ने उसकी निद्रा में हत्या कर दी। आज भी बंगाल के पश्चिमी दिनाजपुर में उसकी कब्र है जहाँउसे दफनाया गया था।
उसी दुर्दांत हत्यारे के नाम पर बिहार में बख्तियारपुर नामक जगह है, जहाँ रेलवे जंक्शन भी है जहाँ से नालंदा की ट्रेन जाती है।
तब से अब तक कुछ नहीं बदला। आज भी उस क्रूर विदेशी आक्रांता के नाम पर बसाये गये शहर और स्टेशन का नाम तक नहीं बदला गया क्योंकि वहाँ काँग्रेस, लालू, नितीश जैसे धर्म निरपेक्ष नेता शासन चलाते हैं।
(2). बख्तियार खिलज़ी :: बख्तियार खिलज़ी नालंदा विश्वविद्यालय को जलाकर कामरूप (असम) पहुँचा। राजा पृथु ने उसका एक भी सिपाही को ब्रह्मपुत्र पार नहीं करने दी। 
27 मार्च 1,206 को असम की धरती पर हुई लड़ाई मानव अस्मिता के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। यह एक ऐसी लड़ाई थी जिसमें किसी फौज़ के फौज़ी लड़ने आए तो 12 हज़ार हों और जिन्दा बचे सिर्फ सौ। ऐसी मिसाल दुनिया  भर के इतिहास में संभवतः कहीं नहीं है। 
आज भी गौहाटी के पास वो शिलालेख मौजूद है जिस पर इस लड़ाई के बारे में लिखा है। मुहम्मद बख्तियार खिलज़ी बिहार बंगाल के कई राजाओं को जीतते हुए असम की तरफ बढ़ रहा था। उसने नालंदा विश्वविद्यालय को जला दिया था और हजारों बौद्ध, जैन और हिन्दू विद्वानों का कत्ल कर दिया था। नालंदा विवि में विश्व की अनमोल पुस्तकें, पाण्डुलिपियाँ, अभिलेख आदि जलकर खाक हो गये थे। यह खिलज़ी मूलतः अफगानिस्तान का रहने वाला था और मुहम्मद गोरी व कुतुबुद्दीन एबक का रिश्तेदार था। बाद के दौर का अलाउद्दीन खिलज़ी भी उसी का रिश्तेदार था।
खिलज़ी नालंदा को खाक में मिलाकर असम के रास्ते तिब्बत जाना चाहता था। तिब्बत उस वक्त चीन, मंगोलिया, भारत, अरब व सुदूर पूर्व के देशों के बीच व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र था तो खिलज़ी इस पर कब्जा जमाना चाहता था, लेकिन उसका रास्ता रोके खड़े थे, असम के राजा पृथु जिन्हें राजा बरथू भी कहा जाता था।
गौहाटी के पास दोनों के बीच युद्ध हुआ। राजा पृथु ने सौगन्ध खाई कि किसी भी सूरत में वो खिलज़ी को ब्रह्मपुत्र नदी पार कर तिब्बत की और नहीं जाने देंगे। उन्होने व उनके आदिवासी यौद्धाओं नें जहर बुझे तीरों, खुकरी, बरछी और छोटी लेकिन घातक तलवारों से  खिलज़ी की सेना को बुरी तरह से काटा। खिलज़ी खुद और कई सिपाही जंगल में भागे, पहाड़ों में भागे लेकिन असम वाले तो जन्मजात यौद्धा थे। आज भी दुनिया में उनसे बचकर कोई नहीं भाग सकता। उन्होने उन भगोडों खिलज़ियों को अपने पतले लेकिन जहरीले तीरों से बींध डाला। अन्त में खिलज़ी महज अपने 100 सैनिकों को बचाकर ज़मीन पर घुटनों के बल बैठकर क्षमा याचना करने लगा। 
राजा पृथु ने तब उसके सैनिकों को अपने पास बंदी बना लिया और खिलज़ी को अकेले को जिन्दा छोड़ दिया। उसे घोड़े पर लादा और कहा कि "तू वापस अफगानिस्तान लौट जा; रास्ते में जो भी मिले उसे कहना कि तूने नालंदा को जलाया था, फ़िर तुझे राजा पृथु मिल गया, बस इतना ही कहना लोगों से। 
खिलज़ी रास्ते भर इतना बेइज्जत हुआ कि जब वो वापस अपने ठिकाने पहुँचा तो उसकी दास्ताँ सुनकर उसके ही भतीजे अली मर्दान ने उसका सर काट दिया।
इस बख्तियार खिलज़ी के नाम पर बिहार में एक कस्बे का नाम बख्तियारपुर है और वहाँ रेलवे जंक्शन भी है, जबकि राजा पृथु के नाम के शिलालेख को ढूँढना पड़ता है। लेकिन जब अपने ही देश भारत का नाम भारत करने के लिए कोर्ट में याचिका लगानी पड़े तो समझा जा सकता है कि क्यों ऐसा होता होगा?!
कुतुबुद्दीन ऐबक की मौत :: कुतुबुद्दीन ऐबक ने राजपूताना में जम कर कहर बरपाया और उदयपुर के राजकुंवर कर्णसिंह को बंदी बनाकर लाहौर ले गया। कुंवर का शुभ्रक नामक एक स्वामिभक्त घोड़ा था, जो कुतुबुद्दीन को पसंद आ गया और वो उसे भी साथ ले गया। एक दिन कैद से भागने के प्रयास में कुँवर सा को सजा ए मौत सुनाई गई और सजा देने के लिए जन्नत बाग में लाया गया। 
यह तय हुआ कि राजकुंवर का सिर काटकर उससे पोलो (उस समय उस खेल का नाम और खेलने का तरीका कुछ और ही था) खेला जाएगा। कुतुबुद्दीन ख़ुद कुँवर सा के ही घोड़े शुभ्रक पर सवार होकर अपनी खिलाड़ी टोली के साथ जन्नत बाग में आया।
शुभ्रक ने जैसे ही कैदी अवस्था में राजकुंवर को देखा, उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे। 
जैसे ही सिर कलम करने के लिए कुँवर सा की जंजीरों को खोला गया, शुभ्रक ने उछलकर कुतुबुद्दीन को गिरा दिया और उसकी छाती पर अपने मजबूत पैरों से कई वार किए, जिससे कुतुबुद्दीन के प्राण पखेरू उड़ गए। 
मौके का फायदा उठाकर कुंवर सा सैनिकों से छूटे और शुभ्रक पर सवार हो गए। 
शुभ्रक ने हवा से बाजी लगा दी। लाहौर से उदयपुर बिना रुके दौड़ा और उदयपुर में महल के सामने आकर ही रुका। 
राजकुंवर घोड़े से उतरे और अपने प्रिय अश्व को पुचकारने के लिए हाथ बढ़ाया, तो पाया कि वह तो प्रतिमा बना खड़ा था, उसमें प्राण नहीं बचे थे।
सिर पर हाथ रखते ही शुभ्रक का निष्प्राण शरीर लुढक गया। 
फारसी की कई प्राचीन पुस्तकों में कुतुबुद्दीन ऐबक की मौत इसी तरह लिखी बताई गई है। 
The first ruler of the Slave Dynasty in Delhi Sultanate, Qutubuddin Aibak, died due to falling off from a running horse.
But is it really possible that an army general who first rode a horse at the age of 11 and fought countless battles riding horses, could die from falling off a running horse?
Real history vs false concocted story
When Qutubuddin Aibak looted Rajputana, he killed the King of Mewad and captured prince Karan Singh. Along with the looted wealth and the prince, he also took the prince's horse SHUBHRAK to Lahore.
In Lahore, Karan Singh tried to escape and got caught in the process. Qutubuddin gave an order to behead him, and to increase the disgrace, to play a polo match, using the dead prince's head as a ball.
On the day of the beheading, Qutubuddin arrived at the venue riding Shubhrak. The horse, on seeing his master Karan Singh, started prancing uncontrollably, resulting in Qutubuddin falling off the horse and Shubhrak fiercely kicking the fallen Qutubuddin. The powerful blows on the chest and head with the deadly hooves proved fatal. Qutubuddin Aibak died on the spot.
Everybody was stunned. Shubhrak ran towards Karan Singh and taking advantage of the chaos that followed, the prince jumped and mounted his gallant horse, who immediately took off, starting to run the most difficult race of his life.
It was almost a continuous run for a good 3 days, finally stopping at the gates of the kingdom of Mewad. When the prince dismounted from the saddle, Shubhrak stood still like a statue. Karan Singh lovingly rubbed his hands on the horse's head, but he was shocked when Shubhrak fell to the ground.
The mighty horse was successful in saving his master and escorting him safely to his kingdom before dying. 
सरदार मोहन सिंह ::
  इन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी के लिए लड़ाई लड़ी थी। युद्ध के बाद हिटलर ने उन्हें इनाम देना चाहा तो सरदार जी ने कहा कि हमें अच्छे से अच्छे हथियार दीजिए, क्योंकि हमें सुभाष चंद्र बोस जी जैसे देशभक्त के साथ अपने देश को आजाद करवाना है। हिटलर ने फिर उन्हें जो हथियार दिये, वही हथियार आजाद हिन्द फौज ने इस्तेमाल किए और सहीने माय में इस लड़ाई में र॔गून में 50 हजार से ज्यादा अंग्रेजी फौज के मारे जाने के बाद ही अंग्रेजो ने भारत छोड़ने का फैसला लिया था। सरदार मोहन सिंह जैसे महान योद्धा का नाम काँग्रेसी सरकारों ने भारत के इतिहास से गायब कर दिया।
अंग्रेजों का शासन ::
यह सत्य घटना 
प्रयाग में कुम्भ मेले की है। एक अंग्रेज़ अफसर अपने द्विभाषिये के साथ वहाँ आया। गंगा के किनारे एकत्रित अपार जन समूह को देख अंग्रेज़ चकरा गया। उसने द्विभाषिये से पूछा, "इतने लोग यहाँ क्यों इकट्टा हुए हैं"? द्विभाषिया बोला, "गँगा स्नान के लिये आये हैं, सर"। अंग्रेज़ बोला, "गँगा तो यहां रोज ही बहती है फिर आज ही इतनी भीड़ क्यों इकट्ठा हैं"? द्विभाषीया: - "सर! आज इनका कोई मुख्य स्नान पर्व होगा"। 
अंग्रेज़ :- " पता करो कौन सा पर्व है"? द्विभाषिये ने एक आदमी से पूछा तो पता चला कि आज बसंत पंचमी है।अंग्रेज़:- "इतने सारे लोगों को एक साथ कैसे मालूम हुआ कि आज ही बसंत पंचमी है"? द्विभाषिये ने जब लोगों से पुनः इस बारे में पूछा तो एक ने जेब से एक जंत्री निकाल कर दिया और बोला इसमें हमारे सभी तिथि त्योहारों की जानकारी है। अंग्रेज़ अपनी आगे की यात्रा स्थगित कर जंत्री लिखने वाले के घर पहुँचा। एक दड़बानुमा अंधेरा कमरा, कंधे पर लाल फटा हुआ गमछा, खुली पीठ, मैली कुचैली धोती पहने एक व्यक्ति दीपक की मद्धिम रोशनी में कुछ लिख रहा था। पूछने पर पता चला कि वो एक गरीब ब्राह्मण था जो जंत्री और पंचांग लिखकर परिवार का पेट भरता था। अंग्रेज़ ने अपने वायसराय को अगले ही क्षण एक पत्र लिखा :- "इंडिया पर सदा के लिए शासन करना है तो सर्वप्रथम ब्राह्मणों का समूल विनाश करना होगा, सर! क्योंकि जब एक दरिद्र और भूख से जर्जर ब्राह्मण इतनी क्षमता रखता है कि दो चार लाख लोगों को कभी भी इकट्टा कर सकता है तो सक्षम ब्राह्मण क्या कर सकते हैं, गहराई से विचार कीजिये सर"! 
इसी युक्ति पर आज भी सत्ता की चाह रखने वाले आरक्षणवादी, काफिर, धर्मनिरपेक्षवादी, मुसलमान, साम्यवादी, यहाँ तक कि खुद मोदी-अमित शाह  राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे सगठन और लोग भी चल रहे हैं, "अबाध शासन करना है तो बुद्धिजीवियों और राष्ट्रभक्तों का समूल उन्मूलन करना ही होगा"।
5 गद्दारों की असलियत :: जब दिल्ली में भगत सिंह  साथियों पर अंग्रेजों की अदालत में असेंबली में बम फेंकने का मुकद्दमा चला तो भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त के खिलाफ शोभा सिंह और शादी लाल ने गवाही दी थी। दोनों को वतन से की गई इस गद्दारी का इनाम भी मिला। दोनों को न सिर्फ सर की उपाधि दी गई बल्कि और भी कई दूसरे फायदे मिले। 
शोभा सिंह को दिल्ली में बेशुमार दौलत और करोड़ों के सरकारी निर्माण कार्यों के ठेके मिले आज बाराखम्बा रोड पर स्थित में गद्दार शोभा सिंह के मॉडर्न स्कूल में कतार लगती है बच्चों को प्रवेश नहीं मिलता।  
शादी लाल को बागपत के नजदीक अपार संपत्ति मिली। आज भी श्यामली में शादी लाल के वंशजों के पास चीनी मिल और शराब का कारखाना है। गद्दार शादीलाल और गद्दार  शोभा सिंह, भारतीय जनता की नजरों में सदा घृणा के पात्र थे, अब तक हैं और आगे भी रहेंगे। 
लेकिन शादी लाल को अपने गाँव वालों का ऐसा तिरस्कार झेलना पड़ा कि उसके मरने पर किसी भी दुकानदार ने अपनी दुकान से कफन का कपड़ा तक नहीं दिया। शादी लाल के लड़के उसका कफ़न दिल्ली से खरीद कर लाए तब जाकर उसका अंतिम संस्कार हो पाया था।
शोभा सिंह खुशनसीब रहा। उसे और उसके पिता सुजान सिंह; जिसके नाम पर पंजाब में कोट सुजान सिंह गाँव और दिल्ली में सुजान सिंह पार्क है, को राजधानी दिल्ली समेत देश के कई हिस्सों में हजारों एकड़ जमीन मिली और खूब पैसा भी खैरात-बक्शीश में मिला। शोभा सिंह के बेटे खुशवंत सिंह ने शौकिया तौर पर पत्रकारिता शुरु कर दी और बड़ी-बड़ी हस्तियों से संबंध बनाना शुरु कर दिया। सर शोभा सिंह के नाम से एक चैरिटबल ट्रस्ट भी बन गया जो अस्पतालों और दूसरी जगहों पर धर्मशालाएं आदि बनवाता तथा मैनेज करता है। 
खुशवंत सिंह ने अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर अपने पिता को एक देशभक्त दूरद्रष्टा और निर्माता साबित करने की भरसक कोशिश की। खुशवंत सिंह ने खुद को इतिहासकार भी साबित करने की भी कोशिश की और कई घटनाओं की अपने ढंग से व्याख्या भी की।खुशवंत सिंह ने भी माना है कि उसका पिता शोभा सिंह 8 अप्रैल 1929 को उस वक्त सेंट्रल असेंबली मे मौजूद था जहाँ भगत सिंह और उनके साथियों ने धुएं वाला बम फेंका था।बकौल खुशवंत सिह, बाद में शोभा सिंह ने यह गवाही दी, शोभा सिंह 1,978 तक जिंदा रहा और दिल्ली की हर छोटे बड़े काँग्रेसी आयोजन में वह बाकायदा आमंत्रित अतिथि की हैसियत से जाता था।हालांकि उसे कई जगह अपमानित भी होना पड़ा लेकिन उसने या उसके परिवार ने कभी इसकी फिक्र नहीं की। खुशवंत सिंह का ट्रस्ट हर साल सर शोभा सिंह मेमोरियल लेक्चर भी आयोजित करवाता है जिसमे बड़े-बड़े नेता और लेखक अपने विचार रखने आते हैं और शोभा सिंह की असलियत जाने बिना य़ा फिर जानबूझ कर अनजान बने रहकर उसकी तस्वीर पर फूल माला चढ़ा आते हैं। 
आज़ादी के दीवानों क विरुद्ध अन्य गवाह ये थे ::  
दिवान चन्द फ़ोर्गाट, जीवन लाल, नवीन जिंदल की बहन के पति का दादा और भूपेंद्र सिंह हुड्डा का दादा।  
दीवान चन्द फोर्गाट डी.एल.एफ. कम्पनी का संस्थापक था DLF ने अपनी पहली कालोनी रोहतक में काटी थी। इसकी इकलौती बेटी  के.पी.सिंह  को ब्याही और वो मालिक बन गया डी.एल.एफ.का।अब के.पी.सिंह की इकलौती बेटी कांगरेस के गुलाम नबी आज़ाद के बेटे सज्जाद नबी आज़ाद के साथ ब्याही गई है।
जीवन लाल मशहूर एटलस साईकल कम्पनी का मालिक था।
हुड्डा को तो आज किसी परिचय की जरुरत नहीं है हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री जिनकी कुर्सी जाने से आज वो इतना तिलमिला गए हैं कि उन्होंने जाट आंदोलन की आड़ में पूरा हरियाणा जला दिया। 
इससे वाड्रा, हुड्डा और DLF का सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है। नवीन जिंदल की कोयले की काली दुनिया का पता भी पड़ता है।
वीर सावरकर (1). :: नेहरू-गाँधी को जेल में 5 सितारा सुविधाएँ, लिखने के लिए कलम दवात दी जाती थीं। अंग्रेजी सरकार से, लाईब्रेरी खुलवाई जाती थी, "डिस्कवरी ऑफ इंडिया" लिखने के लिए। उधर सावरकर जी से तेल पेराया जाता था। बावजूद इसके उन्होंने नाखूनों, कीलों से जेल की दीवारों पर हजारों उत्कृष्ट रचनाएं दीं। 
सावरकर जी ने कहा था :-
      आ सिंधु-सिंधु पर्यन्ता, यस्य भारत भूमिका।
     पितृभू-पुण्यभू भुश्चेव सा वै हिंदू रीती स्मृता॥ 
हिन्दू वह है जो सिंधु नदी से समुद्र तक के भारतवर्ष को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि माने। इस विचारधारा को ही हिन्दुत्व नाम दिया गया है। इसका अर्थ स्पष्ट है। हिन्दुत्व यह अंग्रेजी शब्द रिलिजन के सन्दर्भ में प्रयोग होने वाला पर्यायवाची शब्द नहीं है। उस अर्थ में हिन्दुत्व यह धर्म ही नहीं है। यह तो इस देश को पुण्यभूमि मानने वाले लोगों की जीवन पद्धति है।
वीर सावरकर एक मात्र ऐसे क्रांतिकारी थे जिनको 11 वर्ष काला पानी की सज़ा हुई और दो -दो उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई गईं, जिस पर हँसते हुए माँ भारती के पावन सपूत ने कहा था कि "चलो ईसाईयों की सरकार ने दो उम्र क़ैद देकर यह मान लिया की हिंदुओं में पुनर्जन्म होता है"।
साथ ही सज़ा के दौरान उनको कठोर शारीरिक श्रम और भीषण यातनायें दी जाती थी जिनमे बैल की जगह ख़ुद कोल्हू में पेलकर तेल निकालना, नारियल के छिलके निकालना और रस्सी बनाना, ख़राब खाना पानी इत्यादि जिसकी वजह से उनको कई बीमारियों ने जकड़ लिया। उस समय अंग्रेज़ और भारत में तमाम बड़े नेता चाहते थे कि वे जेल में ही रहें।लेकिन अंग्रेज़ जानते थे कि अगर सावरकर की मृत्यु हो गई तो आज़ादी का आंदोलन इतना गति पकड़ेगा की रोकना असम्भव हो जाएगा।
इन सब से बचने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1913 में समझौता पत्र तैयार किया, जिसमें लिखा था" मैं (सावरकर) जेल से छूटने के बाद राज्य क्रांति और राजनीति से दूर रहूँगा" सावरकर भी जेल से बाहर निकालकर आना चाहते थे, ताकि क्रांति को हवा दे सकें इसलिए उन्होंने इस पर सहमति रखी और हस्ताक्षर किया और अपने साथ तमाम क्रांतिकारियों को बाहर निकाला, हालाँकि उनको जेल से छोड़ा नहीं गया। बाक़ी लोगों को रिहा कर दिया गया और उनका इलाज सुरु हो गया। तमाम तकलीफ़ों का सामना कर अंततः उन्हें 1921 में रिहा किया गया, लेकिन भारत पहुँचते ही दुबारा बंदी बना लिया गया। तीन वर्ष वह फिर जेल में रहे और उसके बाद निकले भी तो उन्हें 1937 तक हाउस अरेस्ट रखा गया कड़े पहरे में ताकि वह किसी से मिल न सकें क्यूँ की गोरे जानते थे की यह आदमी बाहर निकलेगा तो आंदोलन को तेज़ करेगा।
इसी तरह का एक पत्र अश्फ़ाक उल्लाह खान ने भी साइन किया था; लेकिन उन्हें फाँसी दे दी गई।
वीर सावरकर ने गाँधी-नेहरु और अम्बेडकर की तरह ही लंदन से वकालत पास की थी। लेकिन उस समय की प्रथा अनुसार वहाँ एक शपथ पत्र साइन करना पड़ता था कि "मैं आजीवन ब्रिटिश साम्राज्य और राजा का वफ़ादार रहूँगा"। जिसको पढ़ने के बाद सावरकर ने साइन करने से मना कर दिया, इसलिए उन्हें कभी बैरिस्टर की डिग्री न मिल सकी। बाक़ी लोगों को मिली थी, जिसका मतलब है कि उन्होंने साइन किया और वफ़ादारी तो छुपी नहीं है, किसी से की यह किसके वफ़ादार थे!?
क्या ऐसा व्यक्ति अंग्रेज़ी हुकूमत के सामने घुटने टेकेगा और अगर वह अंग्रेज़ी हुकूमत के वफ़ादार हो ही गए थे, तो रिहा करने के बाद भी हाउस अरेस्ट क्यों!?
उनकी इच्छा मृत्यु के बाद उनको बदनाम करने का काम नेहरु और बाक़ी लोगों के इशारे पर वामपंथी सत्ता पोषित इतिहासकारों द्वारा जानबूझकर किया गया, ताकि गाँधी-नेहरु ख़ानदान के अलावा कोई और नाम न रहे।
(2). वीर सावरकर :: वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी देशभक्त थे जिन्होंने 1901 में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया की मृत्यु पर नासिक में शोक सभा का विरोध किया और कहा कि वो हमारे शत्रु देश की रानी थी, हम शोक क्यूँ करें! उन्होंने एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह का उत्सव मनाने वालों को त्र्यम्बकेश्वर में बड़े बड़े पोस्टर लगाकर कहा था कि गुलामी का उत्सव मत मनाओ! विदेशी वस्त्रों की पहली होली पूना में 7 अक्तूबर 1905 को वीर सावरकर ने जलाई थी। वो पहले ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने विदेशी वस्त्रों का दहन किया, तब बाल गंगाधर तिलक ने अपने पत्र केसरी में उनको शिवाजी के समान बताकर उनकी प्रशंसा की थी जबकि इस घटना की दक्षिण अफ्रीका के अपने पत्र ‘इन्डियन ओपीनियन’ में गाँधी ने निंदा की थी। उनके द्वारा विदेशी वस्त्र दहन की इस प्रथम घटना के 16 वर्ष बाद गाँधी उनके मार्ग पर चले और 11 जुलाई 1921 को मुंबई के परेल में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया। वो पहले भारतीय थे जिनको 1905 में विदेशी वस्त्र दहन के कारण पुणे के फर्म्युसन कॉलेज से निकाल दिया गया और दस रूपये जुरमाना किया; इसके विरोध में हड़ताल हुई और स्वयं तिलक जी ने ‘केसरी’ पत्र में सावरकर के पक्ष में सम्पादकीय लिखा।वीर सावरकर ऐसे पहले बैरिस्टर थे जिन्होंने 1909 में ब्रिटेन में ग्रेज-इन परीक्षा पास करने के बाद ब्रिटेन के राजा के प्रति वफादार होने की शपथ नही ली, इस कारण उन्हें बैरिस्टर होने की उपाधि का पत्र कभी नही दिया गया। वो पहले ऐसे लेखक थे जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा ग़दर कहे जाने वाले संघर्ष को ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक ग्रन्थ लिखकर सिद्ध कर दिया। वो पहले ऐसे क्रांतिकारी लेखक थे जिनके लिखे ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ पुस्तक पर ब्रिटिश संसद ने प्रकाशित होने से पहले प्रतिबन्ध लगाया था। ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ विदेशों में छापा गया और भारत में भगत सिंह ने इसे छपवाया था जिसकी एक एक प्रति तीन-तीन सौ रूपये में बिकी थी। भारतीय क्रांतिकारियों और देशभक्तों के घरों में पुलिस को छापों में यही पुस्तक मिलती थी
वीर सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे जो समुद्री जहाज में बंदी बनाकर ब्रिटेन से भारत लाते समय आठ जुलाई 1910 को समुद्र में कूद पड़े थे और तैरकर फ्रांस पहुँचे। वो पहले क्रान्तिकारी थे जिनका मुकद्दमा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में चला, मगर ब्रिटेन और फ्रांस की मिलीभगत के कारण उनको न्याय नही मिला और बंदी बनाकर भारत लाया गया। वो विश्व के पहले क्रांतिकारी और भारत के पहले राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सरकार ने दो आजन्म कारावास की सजा सुनाई थी। वो पहले ऐसे देशभक्त थे जो दो जन्म कारावास की सजा सुनते ही हंसकर बोले :-“चलो, ईसाई सत्ता ने हिन्दु धर्म के पुनर्जन्म सिद्धांत को मान लिया”।वो पहले राजनैतिक बंदी थे जिन्होंने काला पानी की सजा के समय 10 साल से भी अधिक समय तक आजादी के लिए कोल्हू चलाकर 30 पोंड तेल प्रतिदिन निकाला। वही काला पानी में पहले ऐसे कैदी थे जिन्होंने काल कोठरी की दीवारों पर कंकर कोयले से कवितायें लिखी और 6,000 पंक्तियाँ याद रखीं। वो पहले देशभक्त लेखक थे, जिनकी लिखी हुई पुस्तकों पर आजादी के बाद कई वर्षों तक प्रतिबन्ध लगा रहा। वो ही पहले विद्वान लेखक थे जिन्होंने हिन्दु को परिभाषित करते हुए लिखा,
"आसिन्धु सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका; 
पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरितीस्मृतः"
समुद्र से हिमालय तक भारत भूमि जिसकी पितृभू है, जिसके पूर्वज यहीं पैदा हुए हैं व यही पुण्य भू है, जिसके तीर्थ भारत भूमि में ही हैं, वही हिन्दु हैं।
वीर सावरकर प्रथम राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सत्ता ने 30 वर्षों तक जेलों में रखा तथा आजादी के बाद 1948 में नेहरु सरकार ने गाँधी हत्या की आड़ में लाल किले में बंद रखा पर न्यायालय द्वारा आरोप झूठे पाए जाने के बाद ससम्मान रिहा कर दिया। देशी-विदेशी दोनों सरकारों को उनके राष्ट्रवादी विचारों से डर लगता था। वो पहले क्रांतिकारी थे जब उनका 26 फरवरी 1966 को उनका स्वर्गारोहण हुआ तब भारतीय संसद में कुछ सांसदों ने शोक प्रस्ताव रखा तो यह कहकर रोक दिया गया कि वे संसद सदस्य नही थे जबकि चर्चिल की मौत पर शोक मनाया गया था। वो पहले क्रांतिकारी राष्ट्रभक्त स्वातंत्र्य वीर थे जिनके मरणोपरांत 26 फरवरी 2003 को उसी संसद में मूर्ति लगी जिसमें कभी उनके निधन पर शोक प्रस्ताव भी रोका गया था। वे ही ऐसे पहले राष्ट्रवादी विचारक थे जिनके चित्र को संसद भवन में लगाने से रोकने के लिए कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने राष्ट्रपति को पत्र लिखा लेकिन राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने सुझाव पत्र नकार दिया और वीर सावरकर के चित्र अनावरण राष्ट्रपति ने अपने कर-कमलों से किया।
वीर सावरकर पहले ऐसे राष्ट्रभक्त हुए जिनके शिलालेख को अंडमान द्वीप की सेल्युलर जेल के कीर्ति स्तम्भ से UPA सरकार के मंत्री मणिशंकर अय्यर-देश के गद्दार, ने हटवा दिया था और उनकी जगह गाँधी का शिलालेख लगवा दिया। उन्होंने दस साल आजादी के लिए काला पानी में कोल्हू चलाया था जबकि गाँधी ने काला पानी की उस जेल में कभी दस मिनट चरखा तक नहीं चलाया। कैसी विचित्र बात है कि गाँधी और नेहरू को जेल में समस्त सुख-सुविधाएँ उपलब्ध होती थीं जैसे कि आजकल लालू आदि को मिलती हैं!
छत्रपति शंभाजी :: लोहे की सँडसी से उसकी जिव्हा को पकड़कर गर्म दहकती छुरी से  काटकर उस मिट्टी फेंक दिया गया जिसकी वंदना में उसने श्लोक रचे थे। 
अगले दिन लाल दहकती सलाखें उसके विशाल नेत्रों की ओर बढ़ीं और अगले ही पल वहाँ लाल-काले खून के थक्कों से भरे दो वीभत्स गड्ढे थे।
तीसरे दिन नाककान काट दिये गये। 
चौथे दिन उंगलियों के जोड़ तोड़े गये। 
पाँचवे दिन घुटने। 
हर दिन एक ही सवाल, "बोल इस्लाम कबूल करेगा"?
उसका भी हर रोज एक ही जवाब था सिर को गर्वीले झटके से ऊपर उठाना। नकार उच्चारण के लिये जिव्हा तो थी ही नहीं। 
छठवां दिन :- अब काटने तोड़ने के लिये कुछ बचा ही नहीं था और उन नरपिशाचों ने शरीर को दंरातीं से रेदना शुरू किया और फिर छिड़का नमक मिर्च का पानी। पूरा शरीर अग्निकुंड बन गया पर उस हठी हिंदू के हिंदुत्व का गर्व जस का तस ही था और होता भी क्यों नहीं उसमें खून दौड़ रहा था उसका जिसने एशिया के सबसे शक्तिशाली सम्राट के पैरों के नीचे से जमीन खींच ली थी-छत्रपति शिवाजी। 
हाँ, वह छत्रपति का ही खून था जो माटी में मिलकर माटी का कर्ज चुका रहा था। 
हाँ वह शेरदिल गर्वीला हिंदू छत्रपति शिवाजी का ही वंशज था-छत्रपति शंभाजी। 
तेरह दिन चली उन अमानुषिक यातनाओं के यंत्र भले औरंगजेब के थे परंतु उन्हें शंभाजी के शरीर में धंसाने वाले हाथ थे उनके अपने घर के सदस्य, उनके साले के।
गणोजी शिर्के, यही नाम था उस देशद्रोही का जिसने जागीर के लालच में संगमेश्वर का मार्ग बताकर शंभाजी को पकड़वाया था। उद्धव ठाकरे जयचंद, जफर और  गणोजी शिर्के एक ही जैसे व्यक्तित्व हैं। 
बटुकेश्वर दत्त :: बटुकेश्वर दत्त ने भगतसिंह के साथ दिल्ली असेंबली में बम फेंका था और गिरफ़्तारी दी थी। भगत सिंह को मौत की सजा दी गयी, मगर बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास के लिए काला पानी (अंडमान निकोबार) भेज दिया गया। वहाँ उन्हें भयंकर टी.बी. हो गई। भगतसिंह, राजगुरु सुखदेव को फाँसी होने की खबर जेल में बटुकेश्वर को मिली तो वो बहुत उदास हो गए।
1938 में उनकी रिहाई हुई और वो फिर से गाँधी के साथ आंदोलन में कूद पड़े लेकिन जल्द ही फिर से गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए और वो कई सालों तक जेल की यातनाएं झेलते रहे। 1947 में देश आजाद हुआ और बटुकेश्वर को रिहाई मिली। आज़ाद भारत में बटुकेश्वर नौकरी के लिए दर-दर भटकने लगे। कभी सिगरेट बेची तो कभी टूरिस्ट गाइड का काम करके पेट पाला। कभी बिस्किट बनाने का काम शुरू किया लेकिन सब में असफल रहे।
पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे। उसके लिए बटुकेश्वर दत्त ने भी आवेदन किया। परमिट के लिए जब पटना के कमिश्नर के सामने इस 50 साल के अधेड़ की पेशी हुई तो उनसे कहा गया कि वे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लेकर आएं। भगत सिंह के साथी की इतनी बड़ी बेइज़्ज़ती भारत में ही संभव है। बाद में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को जब यह बात पता चली तो कमिश्नर ने बटुकेश्वर से माफ़ी माँगी। 1963 में उन्हें विधान परिषद का सदस्य बना दिया गया। इसके बाद वो राजनीति की चकाचौंध से दूर गुमनामी में जीवन बिताते रहे। सरकार ने इनकी कोई सुध ना ली। 1964 में जीवन के अंतिम पड़ाव पर बटुकेश्वर दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में कैंसर से जूझ रहे थे तो उन्होंने अपने परिवार वालों से एक बात कही थी, "कभी सोचा ना था कि जिस दिल्ली में मैंने बम फोड़ा था उसी दिल्ली में एक दिन इस हालत में स्ट्रेचर पर पड़ा होऊंगा।" भगतसिंह की माँ से उन्होंने सिर्फ एक बात कही, "मेरी इच्छा है कि मेरा अंतिम संस्कार भगत की समाधि के पास ही किया जाए। उनकी हालत लगातार बिगड़ती गई। 17 जुलाई को वे कोमा में चले गये और 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर उनका देहांत हो गया। भारत पाकिस्तान सीमा के पास पंजाब के हुसैनीवाला स्थान पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की समाधि के साथ ये गुमनाम शख्स आज भी सोया हुआ है।
चिड़ावा निवासी-सेठ रामकृष्ण डालमिया :: नेहरू ने उन्हें झूठे मुकदमों में फँसाकर जेल भेज दिया तथा कौड़ी-कौड़ी का मोहताज़ बना दिया। डालमिया जी ने स्वामी करपात्री जी महाराज के साथ मिलकर गौहत्या एवम हिंदू कोड बिल पर प्रतिबंध लगाने के मुद्दे पर नेहरू से कड़ी टक्कर ले ली थी। नेहरू ने हिन्दू भावनाओं का दमन करते हुए गौहत्या पर प्रतिबंध नहीं  लगाया तथा हिन्दू कोड बिल भी पास कर दिया और प्रतिशोध स्वरूप हिंदूवादी सेठ डालमिया को जेल में भी डाल दिया तथा उनके उद्योग धंधों को बर्बाद कर दिया। बड़ी बेरहमी से मुकदमों में फंसाकर न केवल कई वर्षों तक जेल में सड़ाया बल्कि उन्हें कौड़ी-कौड़ी का मोहताज कर दिया। 
जिस व्यक्ति ने नेहरू के सामने सिर उठाया उसी को नेहरू ने मिट्टी में मिला दिया।
प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद और सुभाष बाबू के साथ उसके निर्मम व्यवहार के बारे में जग जाहिर है। 
रामकृष्ण डालमिया  राजस्थान के एक कस्बा चिड़ावा में एक गरीब अग्रवाल घर में पैदा हुए थे और मामूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद अपने मामा के पास कोलकाता चले गए थे। 
वहाँ पर बुलियन मार्केट में एक व्यवसाई के रूप में उन्होंने अपने व्यापारिक जीवन शुरु किया था। भाग्य ने डालमिया का साथ दिया और कुछ ही वर्षों के बाद वे देश के सबसे बड़े उद्योगपति बन गए। 
उनका औद्योगिक साम्राज्य देशभर में फैला हुआ था जिसमें समाचार पत्र, बैंक, बीमा कम्पनियां, विमान सेवाएं, सीमेंट, वस्त्र उद्योग, खाद्य पदार्थ आदि सैकड़ों उद्योग शामिल थे।
डालमिया सेठ के दोस्ताना रिश्ते देश के सभी बड़े-बड़े नेताओं से थी और वे उनकी खुले हाथ से आर्थिक सहायता किया करते थे। 
डालमिया एक कट्टर सनातनी हिन्दु थे और उनके विख्यातसंत स्वामी करपात्री जी महाराज से घनिष्ट संबंध थे। 
करपात्री जी महाराज ने 1,948 में एक राजनीतिक पार्टी राम राज्य परिषद स्थापित की थी।1952 के चुनाव में यह पार्टी लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी और उसने 18 सीटों पर विजय प्राप्त की। 
हिन्दु कोड बिल और गोवध पर प्रतिबंध लगाने के प्रश्न पर डालमिया से नेहरू की ठन गई। नेहरू जो वास्तव  मुसलमान था, हिन्दु कोड बिल पारित करवाना चाहते था जबकि स्वामी करपात्री जी महाराज और डालमिया सेठ इसके खिलाफ थे। 
हिन्दु कोड बिल और गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए स्वामी करपात्री जी महाराज ने देशव्यापी आंदोलन चलाया जिसमें डालमिया जी ने भरपूर आर्थिक सहायता दी। 
नेहरू के दबाव पर लोक सभा में हिन्दु कोड बिल पारित हुआ, जिसमें हिन्दु महिलाओं के लिए तलाक की व्यवस्था की गई थी। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद हिन्दु कोड बिल के सख्त खिलाफ थे, इसलिए उन्होंने इसे स्वीकृति देने से इनकार कर दिया। 
ज़िद्दी नेहरू ने इसे अपना अपमान समझा और इस विधेयक को संसद के दोनों सदनों से पुनः पारित करवाकर राष्ट्रपति के पास भिजवाया। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार राष्ट्रपति को इसकी स्वीकृति देनी पड़ी। 
इस घटना ने नेहरू को डालमिया का जानी दुश्मन बना दिया। नेहरू के इशारे पर डालमिया के खिलाफ कंपनियों में घोटाले के आरोपों को लोकसभा में जोरदार ढंग से उछाला गया। इन आरोपों के जांच के लिए एक विविन आयोग बना। बाद में यह मामला स्पेशल पुलिस इस्टैब्लिसमेंट को जांच के लिए सौंप दिया गया। 
नेहरू ने अपनी पूरी सरकार को डालमिया के खिलाफ लगा दिया। हर सरकारी विभाग ने प्रधानमंत्री के इशारे पर उन्हें परेशान और प्रताड़ित करना शुरू किया। उन्हें अनेक बेबुनियाद मामलों में फंसाया गया। 
नेहरू की कोप दृष्टि ने एक लाख करोड़ के मालिक डालमिया को दिवालिया बनाकर रख दिया। उन्हें टाइम्स ऑफ़ इंडिया और अनेक उद्योगों को औने-पौने दामों पर बेचना पड़ा।अदालत में मुकदमा चला और डालमिया को तीन साल कैद की सज़ा सुनाई गई। 
तबाह हाल और अपने समय के सबसे धनवान व्यक्ति डालमिया को नेहरू की वक्र दृष्टि के कारण जेल की काल कोठरी में दिन गुज़ारने पड़े। 
व्यक्तिगत जीवन में डालमिया बेहद धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। उन्होंने अच्छे दिनों में करोड़ों रुपये धार्मिक और सामाजिक कार्यों के लिए दान में दिये। इसके अतिरिक्त उन्होंने यह संकल्प भी लिया था कि जब तक इस देश में गोवध पर कानूनन प्रतिबंध नहीं लगेगा, वे अन्न ग्रहण नहीं करेंगे। उन्होंने इस संकल्प को अन्तिम साँस तक निभाया। गौवंश हत्या विरोध में 1,978 में उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।
मालाबार और आर्यसमाज :: 1921 में केरल में मोपला के दंगे हुए। मालाबार में रहने वाले मुसलमान जिन्हें मोपला कहा जाता था मस्जिद के मौलवी के आवाहन पर जन्नत के लालच में हथियार लेकर हिन्दू बस्तियों पर आक्रमण कर देते हैं। पहले इस्लाम ग्रहण करने का प्रलोभन दिया जाता हैं और हिन्दुओं की चोटी-जनेऊ को काट कर अपनी जिहादी पिपासा को शांत किया गया और जिस हिन्दु ने धर्मान्तरण से इंकार कर दिया उसे मार दिया गया, उसकी संपत्ति लूट ली गई और उसके घर को जला दिया गया। करीब 5,000 हिन्दुओं का कत्लेआम करने एवं हज़ारों हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित करने के बाद मालाबार में मुसलमानों ने समानांतर सरकार चलाई और अंग्रेज सरकार वहां नामोनिशान तक नहीं था। गांव के गांव का यही हाल था। अंत में अंग्रेजों की विशाल टुकड़ी मुसलमानों का मुकाबला करने मैदान में उतरी और इस्लामिक शरिया के इलाके को मुक्त किया गया। हिन्दुओं की व्यापक हानि हुई। उनकी धन सम्पत्ति लूट ली गई, उनके खेत जला दिए गए, उनके परिवार के सदस्यों को मार डाला गया एवं बचे खुचो को मुसलमान बना दिया गया था। त्रासदी इतनी व्यापक थी कि हिन्दुओं की लाशों से कुँए भर गए। केरल में हुई इस घटना की जानकारी अनेक हफ़्तों तक उत्तर भारत नहीं पहुँची। आर्यसमाज के शीर्घ नेताओं को लाहौर में जब इस घटना के विषय में मालूम चला तो पंडित ऋषिराम जी एवं महात्मा आनंद स्वामी जी को राहत सामग्री देकर सुदूर केरल भेजा गया। वहाँ पर उन्होंने आर्यसमाज की और से राहत शिविर की स्थापना करी जिसमें भोजन की व्यवस्था करी गई, जिन्हें जबरन मुसलमान बनाया गया था उन्हें शुद्ध कर वापिस से हिन्दु बनाया गया। आर्यसमाज के रिकार्ड्स के अनुसार करीब 5,000 हिन्दुओं को वापिस से शुद्ध किया गया। इस घटना का यह परिणाम हुआ की हिन्दु समाज में आर्यसमाज को धर्म रक्षक के रूप में पहचाना गया। जो लोग आर्यसमाज के द्वारा करी गई शुद्धि का विरोध करते थे वे भी आर्यसमाज के हितैषी एवं प्रशंसक बन गए। सुदूर दक्षिण में करीब 4,000 किलोमीटर दूर जाकर हिन्दु समाज के लिए जो सेवा करी उसके लिए मदन मोहन मालवीया जी, अनेक शंकराचार्यों, धर्माचार्यों आदि ने आर्यसमाज की प्रशंसा करी। समय की विडंबना देखिये केरल में 1947 के पश्चात बनी सेक्युलर कम्युनिस्ट सरकार ने मोपला के दंगों में अंग्रेजों द्वारा मारे गए मुसलमानों को क्रांतिकारी की परिभाषा देकर उन्हें स्वतंत्रता सैनानी की सुविधा जैसे पेंशन आदि देकर हिन्दुओं के जख्मों पर नमक लगाने का कार्य किया। आज भी केरल में उन अनेक मंदिरों में उन अवशेषों को जिनमें इस्लामिक दंगाइयों ने नष्ट किया था सुरक्षित रखा गया हैं ताकि आने वाली पीढ़ियां उस अत्याचार को भूल न सके।
आर्यसमाज द्वारा एक पुस्तक मालाबार और आर्यसमाज प्रकाशित की गई जिसमें मालाबार में हिन्दुओं पर हुए अत्याचार, कत्लेआम, राहत, शुद्धि आदि पर प्रामाणिक जानकारी देकर जनसाधारण को धर्म रक्षा के लिए संगठित होने की प्रेरणा दी गई। 
जामा मस्जिद (भद्रकाली-यमुना देवी मन्दिर) :: जामा मस्जिद के स्थान पर पहले माँ भद्र काली और यमुना देवी का मंदिर था। लालकिला शाहजहाँ के जन्म से सैंकड़ों साल पहले महाराज अनंगपाल तोमर द्वितीय द्वारा सन 1,060 में दिल्ली को बसाने के क्रम में ही उसे बनाया गया था, जो कि पाण्डु-अर्जुन के वंशज तथा महाराज पृथ्वीराज चौहान के नाना जी थे। लाल किले का असली नाम लाल कोट है। पुरानी दिल्ली में अन्य भग्नावेश अभी भी मौजूद हैं। शाहजहाँ का जन्म उनके सैकड़ों वर्ष बाद 1592 ईस्वीं में हुआ था। इसके पूरे साक्ष्य पृथ्वीराज रासो में मिलते हैं। किले के मुख्य द्वार के बाहर हाथी की मूर्ति अंकित है। इस्लाम मूर्ति का विरोधी है। राजपूत लोग हाथियों के प्रेम के लिए विख्यात थे। इसके अलावा लाल किले के महल में लगे वराह-सूअर  के मुँह वाले चार नल अभी भी हैं। यह भी इस्लाम विरोधी प्रतीक चिन्ह है। महाराज अनंगपाल तोमर द्वितीय माँ भद्र काली के उपासक थे तथा भगवान् श्री कृष्ण की पत्नी देवी यमनोत्री उनकी कुल देवी थीं। इन्हीं के लिये उन्होंने अपने आवास लाल कोट-लाल किला के निकट ठीक सामने ही पवित्र भगवे रंग के पत्थरों से भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था तथा प्रत्येक राज उत्सव उसी परिसर में हुआ करते था। यहाँ की इमारतों में उपस्थित अष्ट दलीय पुष्प, जंजीर, घंटियाँ, आदि वहाँ हिंदु परम्परा और वास्तुकला के प्रमाण हैं। मंदिरों को भगवा रंग के अनुरूप भगवा पत्थरों से बनाया जाता था, जबकि मुसलमानों की  इमारतें सफेद चूने से बनी होती थीं और उन पर हरे रंग का प्रयोग किया जाता था। दिल्ली के जामा मस्जिद में कोई भी मुस्लिम प्रतीक चिन्ह निर्माण काल से प्रयोग नहीं हुआ था। इस मस्जिद की बनावट इसके आकार वास्तु आदि हिंदुओं के भव्य मंदिर के अनुरुप हैं। शाहजहाँ 1,627 में अपने पिता की मृत्यु होने के बाद वह गद्दी पर बैठा उसने ऐसी इच्छा जाहिर की कि उसका दरबार ख़ुदा-भगवान् दरबार से ऊँचा हो। खुदा के घर का फर्श उसके तख्त और ताज से ऊपर हो, इसीलिए उसने महाराज अनंगपाल तोमर द्वितीय द्वारा स्थापित माँ भद्र काली तथा भगवान्  श्री कृष्ण की पत्नी देवी यमनोत्री, जो कि महाराज अनंगपाल कुल देवी थीं, की मूर्तियों को तुड़वा कर, मंदिर से जुड़ी हुई भोजला नामक छोटी सी पहाड़ी, जहाँ महाराज अनंगपाल राजकीय उत्सव के समय उत्सव देखने आने वालों के घोड़े बँधते थे, उसे भी मस्जिद परिसर में मिलाने के लिये चुना और 6 अक्टूबर 1,650 को मस्जिद को बनाने का काम शुरू हो गया। मस्जिद बनाने के लिए 5,000 मजदूरों ने छह साल तक काम किया। आखिरकार दस लाख के खर्च करके और हजारों टन पत्थर की मदद से माँ भद्र काली मंदिर के स्थान पर ये आलीशान मस्जिद बनवाई गयी। 80 मीटर लंबी और 27 मीटर चौड़ी इस मस्जिद में तीन गुंबद बनाए गए। साथ ही दोनों तरफ 41 फीट ऊँची मीनारें तामीर की गईं। इस मस्जिद में एक साथ 25 हजार लोग नमाज अदा कर सकते हैं। भगवान् श्री कृष्ण की पत्नी देवी “यमनोत्री” के नाम के कारण मुसलमान “य” की जगह “ज” शब्द का उच्चारण करते हैं। अत: मस्जिद ए जहाँनुमा रखा गया। जिसे लोगों ने फिर से जामा मस्जिद कहना शुरू कर दिया। मस्जिद के तैयार होते ही उज्बेकिस्तान के एक छोटे से शहर बुखारा के सैय्यद अब्दुल गफूर शाह को दिल्ली लाकर उन्हें यहाँ का इमाम घोषित किया गया और 24 जुलाई, 1,656 को जामा मस्जिद में पहली बार नमाज अदा की गई। इस नमाज में शाहजहाँ समेत सभी दरबारियों और दिल्ली के अवाम ने हिस्सा लिया। नमाज के बाद मुगल बादशाह ने इमाम अब्दुल गफूर को इमाम-ए-सल्तनत की पदवी दी और ये ऐलान भी किया कि उनका खानदान ही इस मस्जिद की इमामत करेंगे। उस दिन के बाद से आज तक दिल्ली की जामा मस्जिद में इमामत का सिलसिला बुखारी खानदान के नाम हो गया। सैय्यद अब्दुल गफूर के बाद सय्यद अब्दुल शकूर इमाम बने। इसके बाद सैय्यद अब्दुल रहीम, सैय्यद अब्दुल गफूर, सैय्यद अब्दुल रहमान, सैय्यद अब्दुल करीम, सैय्यद मीर जीवान शाह, सैय्यद मीर अहमद अली, सैय्यद मोहम्मद शाह, सैय्यद अहमद बुखारी और सैय्यद हमीद बुखारी इमाम बने। एक वक्त ऐसा भी था जब 1,857 के बाद अंग्रेजों ने जामा मस्जिद में नमाज पर पाबंदी लगा दी और मस्जिद में अंग्रेजी फौज के घोड़े बाँधे जाने लगे। आखिरकार 1,864 में मस्जिद को दोबारा नमाजियों के लिए खोल दिया गया। नमाजियों के साथ-साथ दुनिया के कई जाने माने लोगों ने जामा मस्जिद की जमीन पर सजदा अदा किया है। चाहे वो सऊदी अरब के बादशाह हों या फिर मिस्त्र के नासिर। कभी ईरान के शाह पहलवी तो कभी इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्नो, सबने यहाँ सिजदा किया। लेकिन इनमें से कोई भी यह नहीं जानता था कि जामा मस्जिद वास्तव में महाराज अनंगपाल तोमर द्वितीय स्थापित माँ भद्र काली तथा भगवान् श्री कृष्ण की पत्नी देवी यमनोत्री का मंदिर था जिसे शाहजहाँ जैसे विधर्मी, व्यभिचारी और अय्याश  ने तुड़वा कर जामा मस्जिद बनवाया था। 
इमाम का कोई क़ानूनी वज़ूद नहीं है। फिर भी विश्वनाथ सिंह की सरकार ने उसे 25 लाख रूपये जामा मस्जिद की मरम्मत, देख-रेख के लिये दिये, जिनको इस इमाम ने अपनी कोठी बनवाने में खर्च कर दिया। यह शख्श जब-तब भारत और हिंदु धर्म विरोधी भाषण देता रहता है जिन्हें वोटों की लालची, सरकार देख कर भी अनदेखा कर देती हैं। 
हजरत बल दरगाह और मोहम्मद पैगंबर की दाढ़ी का बाल :: कहते हैं, यहाँ मोहम्मद की दाढ़ी का एक बाल रखा हुआ है। इसे किसी के द्वारा कर्नाटक और फिर औरंगजेब के हाथों होते हुये हजरत बल दरगाह तक पहुँचाया गया। 26 दिसम्बर, 1963 को न जाने कैसे नबी का बाल चोरी हो गया।मुसलमान सड़कों पर आ गये, बांग्लादेश में दंगे शुरू हो गये। मुसलमानों ने हिन्दुओं के मन्दिर जला डाले। तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नन्दा ने फरवरी, 1964 में बताया  कि उस दंगे मे 29 हिन्दु मारे गये।  
नेहरू की सरकार हिल गयी। उसने तुरन्त ही उस समय के खुफिया चीफ बी.एन. मलिक और लाल बहादुर शास्त्री को बाल ढ़ूढ़ने के लिये कश्मीर भेजा। करीब नौ दिन तक पूरा कश्मीर सड़कों पर रहा, अचानक दसवें दिन 4 जनवरी को कश्मीर के मुख्यमंत्री शमशुद्दीन ने घोषणा की कि  हुजूर का बाल खोज लिया गया है। कश्मीर के मुल्ले खुशी से झूमने लगे, मिठाइयाँ बटने लगीं। एक जाने-माने अरबी मौलवी को पहचान के लिये बुलाया गया। उस मौलाना ने पहले तो कुछ देर तक उस बाल को बड़ी गौर से देखा, फिर चहककर बोला, "माशाल्लाह्, ये रसूल-ए-पाक सल्लल्लाहु अलैह वसल्लम की दाढ़ी का वही मुकद्दस बाल है"।  इतना सुनते ही वहाँ खड़े तमाम मुल्ले 'अल्लाह-हू-अकबर' के नारे लगाने लगे। उस मौलाना की पारखी नजर ने साढ़े तेरह सौ साल पहले दुनिया छोड़ चुके इंसान की दाढ़ी का बाल पहचान लिया। 
कुतुबुद्दीन ऐबक की मौत :: कुतुबुद्दीन ऐबक ने राजपूताना में जम कर कहर बरपाया और उदयपुर के 'राजकुंवर कर्णसिंह' को बंदी बनाकर लाहौर ले गया। कुंवर का 'शुभ्रक' नामक एक स्वामिभक्त घोड़ा था, जो कुतुबुद्दीन को पसंद आ गया और वो उसे भी साथ ले गया।
एक दिन कैद से भागने के प्रयास में कुँवर सा को सजा-ए-मौत सुनाई गई और सजा देने के लिए 'जन्नत बाग' में लाया गया। यह तय हुआ कि राजकुंवर का सिर काटकर उससे 'पोलो' (उस समय उस खेल का नाम और खेलने का तरीका कुछ और ही था) खेला जाएगा। कुतुबुद्दीन ख़ुद कुँवर सा के ही घोड़े 'शुभ्रक' पर सवार होकर अपनी खिलाड़ी टोली के साथ 'जन्नत बाग' में आया। 'शुभ्रक' ने जैसे ही कैदी अवस्था में राजकुंवर को देखा, उसकी आँखों से आँसू टपकने लगे। जैसे ही सिर कलम करने के लिए कुँवर सा की जंजीरों को खोला गया, तो 'शुभ्रक' से रहा नहीं गया; उसने उछलकर कुतुबुद्दीन को घोड़े से गिरा दिया और उसकी छाती पर अपने मजबूत पैरों से कई वार किए, जिससे कुतुबुद्दीन के प्राण पखेरू उड़ गए और सैनिक हतप्रभ-अचंभित होकर देखते रह गए। 
.मौके का फायदा उठाकर कुंवर सा सैनिकों से छूटे और 'शुभ्रक' पर सवार हो गए। 'शुभ्रक' ने हवा से बाजी लगा दी। लाहौर से उदयपुर बिना रुके दौडा और उदयपुर में महल के सामने आकर ही रुका। 
राजकुंवर घोड़े से उतरे और अपने प्रिय अश्व को पुचकारने के लिए हाथ बढ़ाया, तो पाया कि वह तो प्रतिमा बना खडा था, उसमें प्राण नहीं बचे थे।
सिर पर हाथ रखते ही 'शुभ्रक' का निष्प्राण शरीर लुढक गया। 
यह वर्णन अरबी-फ़ारसी की किताबों में दर्ज है।
MEDIEVAL INDIA :: Advent of Buddhism & Jainism resulted in psychological make up of the Indian masses not to repel the aggressor, invader, terrorists, intruders, looters. One after another kingdom adopted itself to non violence leading to cowardice, lack of bravery & valour. The invading Romans, Europeans, Muslims who could be vanished from the scene forever became stronger and stringer day by day and turned into a curse for the mankind-humanity, specially Indians. Non violence never meant failure to defend or to repel the intruders. One should never become a blind-dogmatic follower of sect and forget logic, reasoning. Here is a poem; a part of which was read in primary school. The medieval period of history illustrate courage, valour but lack of unity, false pride, lack of diplomacy nad harmony, self imposed high standards which should not have be followed under any circumstances. India had imprudent kings who led to the victory of Muslims in India. Rana Pratap was one of those brave defenders. His catechism coat, harness, protective covering-shield (जिरह बख्तर) are available in Ajmer museum which weighs around 100 kg. One can imagine the strength of the horse which carried its master over the back in the war field.
शौर्य और स्वाभिमान की साकार प्रतिमा महाराणा प्रताप की 488वीं जयन्ती पर प्रस्तुत श्यामनारायण पांडेय की काव्यकृति हल्दी घाटी का द्वादश सर्ग :: 
निर्बल बकरों से बाघ लड़े, भिड़ गये सिंह मृग–छौनों से। 
घोड़े गिर पड़े गिरे हाथी; पैदल बिछ गये बिछौनों से॥1॥
हाथी से हाथी जूझ पड़े, भिड़ गये सवार सवारों से। 
घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े; तलवार लड़ी तलवारों से॥2॥ 
हय–रूण्ड गिरे, गज–मुण्ड गिरे, कट–कट अवनी पर शुण्ड गिरे।
लड़ते–लड़ते अरि झुण्ड गिरे; भू पर हय विकल बितुण्ड गिरे॥3॥
क्षण महाप्रलय की बिजली सी, तलवार हाथ की तड़प–तड़प। 
हय, गज, रथ, पैदल भगा भगा; लेती थी बैरी वीर हड़प॥4॥
क्षण पेट फट गया घोड़े का, हो गया पतन कर कोड़े का। 
भू पर सातंक सवार गिरा; क्षण पता न था हय–जोड़े का॥5॥ 
चिंग्घाड़ भगा भय से हाथी, लेकर अंकुश पिलवान गिरा। 
झटका लग गया; फटी झालर, हौदा गिर गया, निशान गिरा॥6॥ 
कोई नत–मुख बेजान गिरा, करवट कोई उत्तान गिरा। 
रण–बीच अमित भीषणता से; लड़ते–लड़ते बलवान गिरा॥7॥ 
होती थी भीषण मार–काट, अतिशय रण से छाया था भय।
था हार–जीत का पता नहीं; क्षण इधर विजय क्षण उधर विजय॥8॥ 
कोई व्याकुल भर आह रहा, कोई था विकल कराह रहा।
लोहू से लथपथ लोथों पर; कोई चिल्ला अल्लाह रहा॥9॥ 
धड़ कहीं पड़ा, सिर कहीं पड़ा, कुछ भी उनकी पहचान नहीं।
शोणित का ऐसा वेग बढ़ा; मुरदे बह गये निशान नहीं॥10॥
मेवाड़–केसरी देख रहा, केवल रण का न तमाशा था।
वह दौड़–दौड़ करता था रण; वह मान–रक्त का प्यासा था॥11॥
चढ़कर चेतक पर घूम–घूम, करता सेना–रखवाली था।
ले महा मृत्यु को साथ–साथ; मानो प्रत्यक्ष कपाली था॥12॥
रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर, चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से; पड़ गया हवा को पाला था॥13॥
गिरता न कभी चेतक–तन पर, राणा प्रताप का कोड़ा था। 
वह दोड़ रहा अरि–मस्तक पर; या आसमान पर घोड़ा था॥14॥
जो तनिक हवा से बाग हिली, लेकर सवार उड़ जाता था।
राणा की पुतली फिरी नहीं; तब तक चेतक मुड़ जाता था॥15॥
कौशल दिखलाया चालों में, उड़ गया भयानक भालों में।
निभीर्क गया वह ढालों में; सरपट दौड़ा करवालों में॥16॥
है यहीं रहा, अब यहाँ नहीं, वह वहीं रहा है वहाँ नहीं।
थी जगह न कोई जहां नहीं; किस अरि–मस्तक पर कहां नहीं॥17॥
बढ़ते नद–सा वह लहर गया, वह गया गया फिर ठहर गया।
विकराल ब्रज–मय बादल–सा; अरि की सेना पर घहर गया॥18॥
भाला गिर गया, गिरा निषंग, हय–टापों से खन गया अंग।
वैरी–समाज रह गया दंग; घोड़े का ऐसा देख रंग॥19॥
चढ़ चेतक पर तलवार उठा, रखता था भूतल–पानी को।
राणा प्रताप सिर काट–काट; करता था सफल जवानी को॥20॥
कलकल बहती थी रण–गँगा, अरि–दल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी; चटपट उस पार लगाने को॥21॥
वैरी–दल को ललकार गिरी, वह नागिन–सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो-बचो; तलवार गिरी, तलवार गिरी॥22॥
पैदल से हय–दल गज–दल में, छिप–छप करती वह विकल गई!
क्षण कहां गई कुछ, पता न फिर; देखो चमचम वह निकल गई॥23॥
क्षण इधर गई, क्षण उधर गई, क्षण चढ़ी बाढ़–सी उतर गई।
था प्रलय, चमकती जिधर गई; क्षण शोर हो गया किधर गई॥24॥
क्या अजब विषैली नागिन थी, जिसके डसने में लहर नहीं।
उतरी तन से मिट गये वीर; फैला शरीर में जहर नहीं॥25॥
थी छुरी कहीं, तलवार कहीं, वह बरछी–असि खरधार कहीं।
वह आग कहीं अंगार कहीं; बिजली थी कहीं कटार कहीं॥26॥
लहराती थी सिर काट–काट, बल खाती थी भू पाट–पाट।
बिखराती अवयव बाट–बाट; तनती थी लोहू चाट–चाट॥27॥
सेना–नायक राणा के भी,  रण देख–देखकर चाह भरे।
मेवाड़–सिपाही लड़ते थे; दूने–तिगुने उत्साह भरे॥28॥
क्षण मार दिया कर कोड़े से, रण किया उतर कर घोड़े से।
राणा रण–कौशल दिखा दिया;  चढ़ गया उतर कर घोड़े से॥29॥
क्षण भीषण हलचल मचा–मचा, राणा–कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह; रण–चण्डी जीभ पसार बढ़ी॥30॥
वह हाथी–दल पर टूट पड़ा, मानो उस पर पवि छूट पड़ा।
कट गई वेग से भू, ऐसा; शोणित का नाला फूट पड़ा॥31॥
जो साहस कर बढ़ता उसको, केवल कटाक्ष से टोक दिया।
जो वीर बना नभ–बीच फेंक; बरछे पर उसको रोक दिया॥32॥
क्षण उछल गया अरि घोड़े पर, क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर।
वैरी–दल से लड़ते–लड़ते। क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर॥33॥
क्षण भर में गिरते रूण्डों से, मदमस्त जों के झुण्डों से।
घोड़ों से विकल वितुण्डों से; पट गई भूमि नर–मुण्डों से॥34॥
ऐसा रण राणा करता था, पर उसको था संतोष नहीं।
क्षण–क्षण आगे बढ़ता था वह; पर कम होता था रोष नहीं॥35॥
कहता था लड़ता मान कहाँ, मैं कर लूं रक्त–स्नान कहाँ।
जिस पर तय विजय हमारी है वह मुगलों का अभिमान कहां॥36॥
भाला कहता था मान कहां, घोड़ा कहता था मान कहाँ?
राणा की लोहित आंखों से; रव निकल रहा था मान कहां॥37॥
लड़ता अकबर सुल्तान कहाँ, वह कुल–कलंक है मान कहाँ?
राणा कहता था बार–बार; मैं करूं शत्रु–बलिदान कहाँ?॥38॥
तब तक प्रताप ने देख लिया, लड़ रहा मान था हाथी पर।
अकबर का चंचल साभिमान; उड़ता निशान था हाथी पर॥39॥
वह विजय–मन्त्र था पढ़ा रहा, अपने दल को था बढ़ा रहा।
वह भीषण समर–भवानी को; पग–पग पर बलि था चढ़ा रहा॥40॥
फिर रक्त देह का उबल उठा, जल उठा क्रोध की ज्वाला से।
घोड़ा से कहा बढ़ो आगे; बढ़ चलो कहा निज भाला से॥41॥
हय–नस नस में बिजली दौड़ी, राणा का घोड़ा लहर उठा।
शत–शत बिजली की आग लिये; वह प्रलय मेघ सा घहर उठा॥42॥
क्षय अमिट रोग, वह राजरोग, ज्वर सiन्नपात लकवा था वह।
था शोर बचो घोड़ा–रण से; कहता हय कौन, हवा था वह॥43॥
तनकर भाला भी बोल उठा, राणा मुझको विश्राम न दे।
बैरी का मुझसे हृदय गोभ; तू मुझे तनिक आराम न दे॥44॥
खाकर अरि–मस्तक जीने दे, बैरी–उर–माला सीने दे।
मुझको शोणित की प्यास लगी; बढ़ने दे, शोणित पीने दे॥45॥
मुरदों का ढेर लगा दूं मैं, अरि–सिंहासन थहरा दूं मैं।
राणा मुझको आज्ञा दे दे; शोणित सागर लहरा दूं मैं॥46॥
रंचक राणा ने देर न की, घोड़ा बढ़ आया हाथी पर।
वैरी–दल का सिर काट–काट; राणा चढ़ आया हाथी पर॥47॥
गिरि की चोटी पर चढ़कर, किरणों निहारती लाशें।
जिनमें कुछ तो मुरदे थे; कुछ की चलती थी सांसें॥48॥
वे देख–देख कर उनको, मुरझाती जाती पल–पल।
होता था स्वर्णिम नभ पर; पक्षी–क्रन्दन का कल–कल॥49॥
मुख छिपा लिया सूरज ने, जब रोक न सका रूलाई।
सावन की अन्धी रजनी; वारिद–मिस रोती आई॥50॥
देश के लिये मर मिटना, त्याग, आत्म बलिदान, गौरव और नैतिकता की शिक्षा ही काफी नहीं है। व्यक्ति को समाज में मिल-जुल कर रहना भी आना चाहिये। बुद्धि-विवेक, चतुराई, कूटनीति इस लिये होते हैं, ताकि उनकी सहायता से दुश्मन तो ध्वस्त किया जा सके। इन सबका मध्य कालीन भारत में घोर अभाव था। ज्यादातर राजा-रजवाड़े, ऐशो-आराम, राग-रंग में दुबे थे। करणी सेना ने देश में पद्मावत को लेकर घमासान मचा दिया, मगर उन मुसलमानों के खिलाफ कभी कुछ नहीं बोलते, जिन्होंने देश में कहीं न कहीं कोहराम मचाना ही मचाना है। पाटीदारों, गुजरों, जाटों को आरक्षण चाहिये, मगर उनके खिलाभ कभी नहीं बोलते, जिन्होंने उनका यह बुरा हाल कर रखा है कि स्वर्ण होते हुए भी आरक्षण की जरूरत पड़ गई!!!
महाराणा हैं अनन्य मातृभूमि के पुजारी, 
चतुरस्त्र फ़ैल उठा उनका प्रताप है। 
बप्पा श्री खुमाण औ हमीर वीर कुम्भा-यश, 
सांगा की परम्परा का लिया कर चाप है।
विकट प्रचण्ड बरिबण्ड है अखण्ड बना, 
भारतीय भूमि का हरा समग्र ताप है। 
चण्डी हृदयस्थ हुई रक्त अभिषेक किये, 
वीरों में सुरत्नमौलि रणाश्री प्रताप है।

FREE INDIA :: The myth-hype created by the congress that it had liberated the nation from the British do not stand in front of the proof available. 1942, Bharat Chhodo Andolan-Quit India Movement, had miserably failed. Japan was crushed. The British had won the World War (2). Hitler had committed suicide. But the British were gripped were fear due to the ever increasing influence of Indian national Army-Azad Hind Fauj. Its influence was clearly seen over the Indian  soldiers in the Indian Army. The British had under stood the might of the Indians. The British knew well that the army was trained by them themselves. There was a lot of difference between 1857 and 1947. There was every opportunity of a revolt and eliminating the whites from the soil.1857 army had no commoner-general. The army had no uniform, weapons or food to eat. The soldiers were bare foot. Bahadur Shah Zafar was a weak emperor whose influence was not seen even in Lal Quila-Red Fort.Hindus were dead against the Muslims and wanted to remove them due to their atrocities and anti Hindu acts.
The Britishers preferred to hand over the country to the weak leadership of Gandhi. Had Subhash been there in place of Gandhi, he would have vanished Britain from the world map, the British knew it well. Subhash was not killed in air crash as was claimed, since he made at least three speeches over the radio, the recording of which are still available after the crash. There is ample proof that he was in the custody of Russia under the influence of the British, when he was tortured. 
More than 17,32,000 Swarn Hindus were killed with equal number subjected to tortures and third degree.
Since then Muslim conspirators claimed to be Pandits and ruled India. A single family looted India for more 65 years. All round corruption prevailed, money was deposited in Swiss banks and the present government has miserably failed to bring back money back since many of its stalwarts too have accounts there. 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

Gandhi had mass following which resulted in success of Swadeshi movement, burning of imported cloths and paralysing of cloth mills in UK. He was successful in farmer agitation as well. But this man was equally responsible for tearing the caste fabrics of ancient India. Prior to him, the British deprived the traditional workers of their occupations. He was a lascivious person who never understood the polluted Muslim mentality and supported the Khilaphat Movement i.e., rule of Islam in India. At one point of time he worked as a agent of the British to enrol Indians in British army. The poverty stricken, tortured, deprived, enslaved Indians were badly in need of a leader and he successfully utilised the sentiment. He had never been a successful lawyer who badly needed rational thinking. He had a double line of had which showed that he had dual personality. Since the lines reached percussion he was on the extreme on both sides.
अमर सिंह :: मुग़ल बादशाह शाहजहाँ लाल किले में तख्त-ए-ताऊस पर बैठा हुआ था। दरबार का अपना सम्मोहन होता हैं और इस सम्मोहन को राजपूत वीर अमर सिंह राठौर ने अपनी पद चापों से भंग कर दिया। अमर सिंह राठौर शाहजहां के तख्त की तरफ आगे बढ़ रहे थे। तभी मुगलों के सेनापति सलावत खां ने उन्हें रोक दिया।
सलावत खां :- ठहर जाओ अमर सिंह जी, आप 8 दिन की छुट्टी पर गए थे और आज 16वें दिन तशरीफ़ लाए हैं। 
अमर सिंह :- मैं राजा हूँ। मेरे पास रियासत है फौज है, मैं किसी का गुलाम नहीं।
सलावत खां :- आप राजा थे। अब सिर्फ आप  हमारे सेनापति हैं, आप मेरे मातहत हैं। आप पर जुर्माना लगाया जाता हैं। शाम तक जुर्माने के सात लाख रुपए भिजवा दीजिएगा।
अमर सिंह :- अगर मैं जुर्माना ना दूँ।
सलावत खां :- (तख्त की तरफ देखते हुए) हुज़ूर, ये काफि़र आपके सामने हुकूम उदूली कर रहा हैं, अमर सिंह के कानों ने काफि़र शब्द सुना। उनका हाथ तलवार की मूँठ पर गया, तलवार बिजली की तरह निकली और सलावत खां की गर्दन पर गिरी, मुगलों के सेनापति सलावत खाँ का सिर जमीन पर आ गिरा। अकड़ कर बैठा सलावत खाँ का धड़ धम्म से नीचे गिर गया। दरबार में हड़कंप मच गया, वज़ीर फ़ौरन हरकत में आया और शाहजहाँ का हाथ पकड़कर उन्हें सीधे तख्त-ए-ताऊस के पीछे मौजूद कोठरी नुमा कमरे में ले गया। उसी कमरे में दुबक कर वहाँ मौजूद खिड़की की दरार से वज़ीर और बादशाह दरबार का मंज़र देखने लगे।
दरबार की हिफ़ाज़त में तैनात ढाई सौ सिपाहियों का पूरा दस्ता अमर सिंह पर टूट पड़ा था । देखते ही देखते अमर सिंह ने शेर की तरह सारे भेड़ियों का सफ़ाया कर दिया।
बादशाह :- हमारी 300 की फौज का सफ़ाया हो गया  या खुदा।
वज़ीर :- जी, जहाँपनाह।
बादशाह :- अमर सिंह बहुत बहादुर है, उसे किसी तरह समझा बुझाकर ले आओ, कहना, हमने माफ किया।
वज़ीर :- जी जहाँपनाह।
हुजूर, लेकिन आँखों पर यक़ीन नहीं होता। समझ में नहीं आता, अगर हिंदु इतना बहादुर है तो फिर गुलाम कैसे हो गया!?
बादशाह :- सवाल वाजिब है, जवाब कल पता चल जाएगा।
अगले दिन फिर बादशाह का दरबार सजा।
शाहजहाँ :- अमर सिंह का कुछ पता चला।
वजीर :- नहीं जहाँपनाह, अमर सिंह के पास जाने का जोखिम कोई नहीं उठाना चाहता हैं।
शाहजहाँ :- क्या कोई नहीं है जो अमर सिंह को यहाँ ला सके?
दरबार में अफ़ग़ानी, ईरानी, तुर्की, बड़े बड़े रुस्तम-ए-जमां मौजूद थे, लेकिन कल अमर सिंह के शौर्य को देखकर सबकी हिम्मत जवाब दे रही थी।
आखिर में एक राजपूत वीर आगे बढ़ा,  नाम था अर्जुन सिंह।
अर्जुन सिंह :- हुज़ूर आप हुक्म दें, मैं अभी अमर सिंह को ले आता हूँ।
बादशाह ने वज़ीर को अपने पास बुलाया और कान में कहा, यही तुम्हारे कल के सवाल का जवाब हैं।
हिंदु बहादुर है, लेकिन वह इसीलिए गुलाम हुआ। देखो, यही वजह हैं।
अर्जुन सिंह अमर सिंह के रिश्तेदार थे। अर्जुन सिंह ने अमर सिंह को धोखा देकर उनकी हत्या कर दी।
अमर सिंह नहीं रहे लेकिन उनका स्वाभिमान इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में प्रकाशित हैं। इतिहास में ऐसी बहुत सी कथाएँ हैं जिनसे सबक़ लेना आज भी बाकी है।
शाहजहाँ के दरबारी, इतिहासकार और यात्री अब्दुल हमीद लाहौरी की किताब बादशाहनामा से ली गईं है। यह सच्चाई है और हकीकत भी।

    
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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