Sunday, May 10, 2015

SHUKRACHARY-SON OF BHRAGU शुक्राचार्य :: भृगु पुत्र

शुक्राचार्य
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः॥10.37॥
श्री शुक्र मंत्र :: हिमकुंद मृणालाभं दैत्यानां परमं गुरूम् सर्वशास्त्र प्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम्।
वृष्णि वंशियों में वासुदेव पुत्र श्री कृष्ण और पाण्डवों में अर्जुन में हूँ। मुनियों में वेद व्यास और कवियों में कवि शुक्राचार्य भी में ही हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.37] 
I am Shri Krashn, the son of Vasu Dev among the Vrashni clan, Arjun among the Pandavs, Ved Vyas among the saints and Shukrachary among the poets.


भगवान् श्री कृष्ण ने स्वयं को वृष्णि वंश में उत्पन्न विभूति कहा है, न कि अवतार जो कि वे हैं। पाण्डवों में अर्जुन उनकी एक श्रेष्ठ मूर्ति हैं। वेद का चार भागों में विभाजन, पुराण, उपपुराण और महाभारत रचना उनकी श्रेष्ठतम विभूतियाँ हैं, जो कि जन कल्याण की लिए प्रकाशित की गई हैं। धर्म से जुड़ी हुई कोई भी रचना व्यास जी की देन ही मानी जानी चाहिए। शुक्राचार्य को कवि के रूप में उनकी विभूति समझना चाहिए।

The Almighty revealed that HE as the son of  Vasu Dev Ji, in the Vrashni Vanshi-clan & was HIS excellent creation, along with Arjun who took incarnation in the Pandu clan. It might make the purpose of HIS incarnation to Arjun and all those who were listening to HIM delivering the sermon in the battle field of Kurukshetr; clear. Still there are people who do not realise the excellence of the composition of Gita as the Supreme guide for the Kali Yug by Muni Ved Vyas Ji Maha Raj, who was one of HIS incarnations and excellent among the composers. To compare the poets, HE makes it clear that Shukrachary is HIS supreme form as a poet. Therefore, Veds, Puran, Up Puran, Vedant and Maha Bharat should not be considered poetic creations, since they reveal history, science, purpose of life, movement of soul in various incarnations, birth-death etc. Gita has been translated into almost all languages of the world. 
It has been discovered that the translation is inappropriate & not up to the mark in most all cases, sending wrong notions-messages among the masses. Some times, the interpretations too are wrong and misleading.
Its clear that the Bhagwan Shri Krashn & Arjun, both are two forms of the Almighty just like water in two pots.
दक्ष कन्या ख्याति से भृगु के पुत्र दाता (काव्य, शुक्र) हुए जिन्हें  राक्षसों के गुरु बनने के बाद शुक्राचार्य के नाम से जाना गया। दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति, जो योगशक्ति संपन्न तेजस्वी महिला थीं, दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को जीवित कर देती थीं, जिससे नाराज होकर भगवान् श्री हरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता व महर्षि भृगु जी पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया। इसी कारणवश शुक्राचार्य भगवान् विष्णु के शत्रु हो गए। भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है कि कवियों में वे शुक्र हैं अर्थात उन्होंने शुक्राचार्य को अपना ही एक रूप बताया है। परन्तु अंततोगत्वा उन्हें अपनी गलती का अहसास हो ही गया। राक्षसों को भगवान् शिव से प्राप्त मृत संजीवनी विद्या का दुरूपयोग करने पर भगवान् शिव ने इन्हें अपने मुँह रख लिया।  वहाँ से वे भगवान् शिव के उदर में चले गए। बहुत अनुनय-विनय करने पर भगवान् शिव ने उन्हें मूत्र मार्ग से उन्हें शुक्र के रूप में बाहर निकाला तो उनका नाम शुक्राचार्य पड़ गया। 
शुक्र के दो विवाह हुए थे। इनकी पहली स्त्री इन्द्र की पुत्री जयंती थी, जिसके गर्भ से देवयानी ने जन्म लिया था। देवयानी का विवाह चन्द्रवंशीय क्षत्रिय राजा ययाति से हुआ था और उसके पुत्र यदु और मर्क तुर्वसु थे। दूसरी स्त्री का नाम गोधा (शर्मिष्ठा) था जिसके गर्भ से त्वष्ट्र, वतुर्ण शंड और मक उत्पन्न हुए थे।
महर्षि  अंगिरा और भृगु  भगवान् ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। अंगिरा के पुत्र  का नाम जीव और भृगु के पुत्र का नाम काव्य था। दोनों बालक अत्यंत बुद्धिमान तथा समान आयु के थे। अपने पिताओं के समान उन दोनों में भी गहरा प्रेम था। इसलिए जब वे शिक्षा ग्रहण करने योग्य हुए तो भृगु ने निश्चय किया कि महर्षि अंगिरा ही दोनों को शिक्षा प्रदान करेंगे। अतः काव्य अंगिरा ऋषि के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करने लगा। किन्तु पुत्र मोहवश अंगिरा दोनों में भेद-भाव करने लगे। काव्य की अपेक्षा वे जीव की शिक्षा दीक्षा पर अधिक ध्यान देते थे। उन्होंने जीव को तो वेदों के गूढ़ रहस्यों से अवगत करवाया, परन्तु काव्य  को केवल उपरी ज्ञान देकर ही संतुष्ट हो गए। 
काव्य  गुरु के इस व्यवहार को सहन कर सके। एक योग्य शिष्य होने के कारण वह अपने गुरु का बहुत सम्मान करते थे। काव्य ने अंगिरा  निवेदन किया कि जिस प्रकार एक पिता के लिए उसकी दो संतानों में कोई अंतर नहीं होता, उसी प्रकार गुरु की दृष्टि में सभी शिष्य एक समान होने चाहिए। जब गुरु ही शिष्यों में भेदभाव करने लग जाए तो उसका यह व्यवहार कदापि धर्मानुकूल नहीं होता। गुरुवर  शिष्य भी पुत्र के समान होता है। इसलिए यदि जीव आपका पुत्र है तो मै भी आपके पुत्र के समान ही हूँ। कृप्या हम दोनों में कोई  भेदभाव न करें। 
अंगिरा ने काव्य  की बात अनसुनी कर दी और पहले के भांति दोनों को पृथक-पृथक पढ़ाते  रहे। अंततः काव्य आश्रम छोड़कर अपने घर लौट चले। 
मार्ग में गौतम मुनि का आश्रम था। काव्य  ने उनकी बौद्धिकता, विद्वता  और दयालुता के बारे में बहुत कुछ सुना हुआ था। ऐसे महान तपस्वी के दर्शन किये बिना चले जाना उन्हें उचित नहीं लगा। वह गौतम मुनि के पास गये और उनकी स्तुति करते हुए निवेदन किया कि हे मुनिवर! आप परम ज्ञानी और विद्वान् हैं। आपके ज्ञान की प्रसिद्धि दसों दिशाओं में गुंजायमान है। जीवन पथ पर भटकते हुए मनुष्यों ने आपके मार्गदर्शन का लाभ उठाकर सफलता प्राप्त की है। अतः मुनिवर! कृपया ज्ञान प्राप्ति के लिए योग्य गुरु के विषय में बताकर मेरा जीवन भी सार्थक करें। 
गौतम मुनि ने कहा कि हे वत्स! संसार में केवल भगवान् शिव ही एक मात्र योग्य गुरु हैं। वे ही सृष्टि के गूढ़ से गूढ़ रहस्यों को जानते हैं। उनके लिए कोई भी विद्या अछूती या अदृश्य नहीं है। वे चाहे तो मूर्ख को भी परमज्ञानी बना सकते हैं। उनकी पूजा आराधना मात्र से तुम उनकी कृपा दृष्टि प्राप्त कर सकते हो। भक्त वत्सल भगवान् शिव तुम्हारी सभी मनोकामनाए अवश्य पूर्ण करेंगे।  
काव्य के ह्रदय में भगवान् शिव से ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न हो गई। वह उसी समय गौतमी गंगा में स्नान करके भगवान्  शिव की आराधना करने लगा। अंततः प्रसन्न होकर भगवान् शिव  साक्षात् प्रकट हुए और वर माँगने के लिए कहा। 
काव्य कहा कि हे तीनों लोकों के स्वामी! आपसे कोई बात छिपी नहीं है। मेरी आराधना का उद्देश्य भी आप भली भांति जानते हैं। भगवन्! मेरे लिए आप आराध्य देव और गुरु दोनों ही हैं। कृप्या मुझे अपना शिष्य स्वीकार कर अनुगृहित करें। मुझे वह दिव्य ज्ञान प्रदान करें  जो परम तपस्वी के लिए भी दुर्लभ है। 
भगवान् शिव ने काव्य को वैदिक और लौकिक विद्या के साथ-साथ ही मृत संजीविनी विद्या भी प्रदान की, जिससे देवगण भी अनभिज्ञ थे। इस विद्या द्वारा काव्य को किसी भी मृत प्राणी को पुनरुज्जीवित करने की शक्ति प्राप्त हो गई। 
जिस स्थान पर भगवान् शिव ने शुक्राचार्य को दर्शन दिए थे, वह स्थान शुक्र तीर्थ कहलाया।
शुक्राचार्य महर्षि भृगु के पुत्र और भक्त प्रह्लाद के भानजे शुक्राचार्य। महर्षि भृगु की पहली पत्नी का नाम ख्याति था, जो उनके भाई दक्ष की कन्या थी। ख्याति से भृगु को दो पुत्र दाता और विधाता मिले और एक बेटी लक्ष्मी का जन्म हुआ। माता लक्ष्मी का विवाह उन्होंने भगवान् श्री हरी विष्णु से कर दिया था। भृगु के और भी पुत्र थे जैसे उशना, च्यवन आदि। 
शुक्राचार्य का वर्ण श्वेत है। इनका वाहन रथ है, उसमें अग्नि के समान आठ घोड़े जुते रहते हैं। रथ पर ध्वजाएं फहराती रहती हैं। इनका आयुध दण्ड है। शुक्र वृष और तुला राशि के स्वामी हैं तथा इनकी महादशा 20 वर्ष की होती है।[मत्स्य पुराण]
शुक्राचार्य महान ज्ञानी के साथ-साथ एक अच्छे नीतिकार भी थे। शुक्राचार्य की कही गई नीतियां आज भी बहुत महत्व रखती हैं। आचार्य शुक्राचार्य शुक्र नीति शास्त्र के प्रवर्तक थे। इनकी शुक्र नीति अब भी लोक में महत्वपूर्ण मानी जाती है।
शुक्राचार्य की कन्या का नाम देवयानी तथा पुत्र का नाम शंद और अमर्क था। इनके पुत्र शंद और अमर्क हिरण्यकशिपु के यहाँ नीति शास्त्र का अध्यापन करते थे। ऋग्वेद में भृगुवंशी ऋषियों द्वारा रचित अनेक मंत्रों का वर्णन मिलता है, जिसमें वेन, सोमाहुति, स्यूमरश्मि, भार्गव, आर्वि आदि का नाम आता है।
दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति, जो योगशक्ति संपन्न तेजस्वी महिला थीं, दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को जीवित कर देती थीं जिससे नाराज होकर श्री हरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता व भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया।
जम्बूद्वीप के इलावर्त (रशिया) क्षे‍त्र में 12 बार देवासुर संग्राम हुआ। अंतिम बार हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद के पौत्र और विरोचन के पुत्र राजा बलि के साथ इंद्र का युद्ध हुआ और देवता हार गए तब संपूर्ण जम्बूद्वीप पर असुरों का राज हो गया। इस जम्बूद्वीप के बीच के स्थान में था इलावर्त राज्य। अंतिम बार संभवत: शम्बासुर के साथ युद्ध हुआ था जिसमें राजा दशरथ ने भी भाग लिया था।
मृत संजीवनी  विद्या शुक्राचार्य को भगवान् शिव से प्राप्त हुई। इस विद्या द्वारा मृत शरीर को भी जीवित किया जा सकता है। शुक्राचार्य इस विद्या के माध्यम से युद्ध में आहत सैनिकों को स्वस्थ कर देते थे और मृतकों को तुरंत पुनर्जीवित कर देते थे। शुक्राचार्य ने रक्तबीज नामक राक्षस को महामृत्युंजय सिद्धि प्रदान कर युद्धभूमि में रक्त की बूंद से संपूर्ण देह की उत्पत्ति कराई थी।
महामृत्युंजय मंत्र के सिद्ध होने से भी यह संभव होता है। महर्षि वशिष्ठ, मार्कंडेय और गुरु द्रोणाचार्य महामृत्युंजय मंत्र के साधक और प्रयोगकर्ता थे। संजीवनी नामक एक जड़ी बूटी भी मिलती है जिसके प्रयोग से मृतक फिर से जी उठता है।
शुक्राचार्य ने आरंभ में अंगिरस ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया, किंतु जब वे (अंगिरस) अपने पुत्र बृहस्पति के प्रति पक्षपात दिखाने लगे तब इन्होंने अंगिरस का आश्रम छोड़कर गौतम ऋषि का शिष्यत्व ग्रहण किया। गौतम ऋषि की सलाह पर ही शुक्राचार्य ने भगवान् शिव की आराधना कर मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके बल पर देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते।[मत्स्य पुराण]
जब विष्णु अवतार त्रिविक्रम वामन भगवान् श्री हरी विष्णु ने वामनावतार में जब राजा बलि से तीन पग भूमि माँगी तब शुक्राचार्य सूक्ष्म रूप में बलि के कमंडल में जाकर बैठ गए, जिससे कि पानी संकल्प हेतु बाहर न आए और बलि भूमि दान का संकल्प न ले सकें। तब वामन भगवान् ने बलि के कमंडल में एक तिनका डाला, जिससे शुक्राचार्य की एक आँख फूट गई। इसलिए इन्हें एकाक्ष यानी एक आँख वाला भी कहा जाता है।
गौतम ऋषि की सलाह पर ही शुक्राचार्य ने भगवान् शिव की आराधना कर मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की जिसके बल पर देवासुर संग्राम में असुर अनेक बार जीते।
मृत संजीवनी विद्या के कारण दानवों की संख्या बढ़ती गई और देवता असहाय हो गए। ऐसे में उन्होंने भगवान् शिव  की शरण ली। शुक्राचार्य द्वार मृत संजीवीनी का अनुचित प्रयोग करने के कारण भगवान् शिव को बहुत क्रोध आया। क्रोधवश उन्होंने शुक्राचार्य को पकड़कर निगल लिया। इसके बाद शुक्राचार्य भगवान् शिव की देह से शुक्ल कांति के रूप में मूत्र मार्ग से बाहर आए और शुक्र कहलाये और अपने पूर्ण स्वरूप को प्राप्त किया। तब उन्होंने प्रियवृत की पुत्री ऊर्जस्वती से विवाह कर अपना नया जीवन शुरू किया। उससे उन को चार पुत्र हुए।
इक्ष्वाकु वंश के राजा नहुष के छः पुत्र :- याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति तथा कृति। याति परमज्ञानी थे तथा राज्य, लक्ष्मी आदि से विरक्त रहते थे, इसलिए राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्यभिषक कर दिया।
दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा और गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी अपनी सखियों के साथ अपने उद्यान में घूम रही थी। शर्मिष्ठा अति सुन्दर राजपुत्री थी, तो देवयानी असुरों के महा गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी। दोनों एक दूसरे से सुंदरता के मामले में कम नहीं थी। वे सब की सब उस उद्यान के एक जलाशय में, अपने वस्त्र उतार कर स्नान करने लगीं।
उसी समय भगवान् शिव माँ पार्वती के साथ उधर से निकले। भगवान् शिव को आते देख वे सभी कन्याएं लज्जावश से बाहर निकलकर दौड़कर अपने-अपने वस्त्र पहनने लगीं। शीघ्रता में शर्मिष्ठा ने भूलवश देवयानी के वस्त्र पहन लिए। इस पर देवयानी अति क्रोधित होकर शर्मिष्ठा से बोली, रे शर्मिष्ठा! एक असुर पुत्री होकर तूने ब्राह्मण कन्या का वस्त्र धारण करने का साहस कैसे किया? तूने मेरे वस्त्र धारण करके मेरा अपमान किया है।
देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा अपने अपमान से तिलमिला गई और देवयानी के वस्त्र छीन कर उसे एक कुँए में धकेल दिया। देवयानी को कुँए में धकेल कर शर्मिष्ठा के चले जाने के पश्चात् राजा ययाति आखेट करते हुए वहाँ पर आ पहुँचे और अपनी प्यास बुझाने के लिए वे कुँएं क निकट गए तभी उन्होंने उस कुँए में वस्त्रहीन देवयानी को देखा।
जल्दी से उन्होंने देवयानी की देह को ढ़ँकने के लिए अपने वस्त्र दिए और उसको कुँए से बाहर निकाला। इस पर देवयानी ने प्रेमपूर्वक राजा ययाति से कहा, हे आर्य! आपने मेरा हाथ पकड़ा है अतः मैं आपको अपने पति रूप में स्वीकार करती हूँ। हे क्षत्रिय श्रेष्ठ! यद्यपि मैं ब्राह्मण पुत्री हूँ, किन्तु बृहस्पति के पुत्र कच के शाप के कारण मेरा विवाह ब्राह्मण कुमार के साथ नहीं हो सकता। इसलिए आप मुझे अपने प्रारब्ध का भोग समझ कर स्वीकार कीजिए। ययाति ने प्रसन्न होकर देवयानी के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
देवयानी वहाँ से अपने पिता शुक्राचार्य के पास आई तथा उनसे समस्त वृत्तांत कहा। शर्मिष्ठा के किए हुए कर्म पर शुक्राचार्य को अत्यन्त क्रोध आया और वे दैत्यों से विमुख हो गए। इस पर दैत्यराज वृषपर्वा अपने गुरुदेव के पास आकर अनेक प्रकार से मान-मनोवल करने लगे।
बड़ी मुश्किल से शुक्राचार्य का क्रोध शान्त हुआ और वे बोले, "हे दैत्यराज! मैं आपसे किसी प्रकार से रुष्ठ नहीं हूँ, किन्तु मेरी पुत्री देवयानी अत्यन्त रुष्ट है। यदि तुम उसे प्रसन्न कर सको तो मैं पुनः तुम्हारा साथ देने लगूँगा"।
वृषपर्वा ने देवयानी को प्रसन्न करने के लिए उससे कहा, "हे पुत्री! तुम जो कुछ भी माँगोगी मैं तुम्हें वह प्रदान करूँगा"। देवयानी बोली, "हे दैत्यराज! मुझे आपकी पुत्री शर्मिष्ठा दासी के रूप में चाहिए"। अपने परिवार पर आए संकट को टालने के लिए शर्मिष्ठा ने देवयानी की दासी बनना स्वीकार कर लिया।
शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया। शर्मिष्ठा भी देवयानी के साथ उसकी दासी के रूप में ययाति के भवन में आ गई। देवयानी के पुत्रवती होने पर शर्मिष्ठा ने भी पुत्र की कामना से राजा ययाति से प्रणय निवेदन किया जिसे ययाति ने स्वीकार कर लिया। राजा ययाति के देवयानी से दो पुत्र यदु तथा तुवर्सु और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र द्रुह्यु, अनु तथा पुरु हुए।
बाद में जब देवयानी को ययाति तथा शर्मिष्ठा के संबंध के विषय में पता चला तो वह क्रोधित होकर अपने पिता के पास चली गई। शुक्राचार्य ने राजा ययाति को बुलवाकर कहा, रे ययाति! तू स्त्री लम्पट है। इसलिए मैं तुझे शाप देता हूँ तुझे तत्काल वृद्धावस्था प्राप्त हो।
उनके शाप से भयभीत हो राजा ययाति गिड़गिड़ाते हुए बोले, हे दैत्य गुरु! आपकी पुत्री के साथ विषय भोग करते हुए अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शाप के कारण तो आपकी पुत्री का भी अहित है। तब कुछ विचार कर के शुक्रचार्य जी ने कहा, अच्छा! यदि कोई तुझे प्रसन्नतापूर्वक अपनी यौवनावस्था दे तो तुम उसके साथ अपनी वृद्धावस्था को बदल सकते हो।
इसके पश्चात् राजा ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र से कहा, वत्स यदु! तुम अपने नाना के द्वारा दी गई मेरी इस वृद्धावस्था को लेकर अपनी युवावस्था मुझे दे दो। इस पर यदु बोला, हे पिताजी! असमय में आई वृद्धावस्था को लेकर मैं जीवित नहीं रहना चाहता। इसलिये मैं आपकी वृद्धावस्था को नहीं ले सकता।
ययाति ने अपने शेष पुत्रों से भी इसी प्रकार की माँग की, लेकिन सभी ने कन्नी काट ली। लेकिन सबसे छोटे पुत्र पुरु ने पिता की माँग को स्वीकार कर लिया।
पुनः युवा हो जाने पर राजा ययाति ने यदु से कहा, तूने ज्येष्ठ पुत्र होकर भी अपने पिता के प्रति अपने कर्तव्य को पूर्ण नहीं किया। अतः मैं तुझे राज्याधिकार से वंचित करके अपना राज्य पुरु को देता हूँ। मैं तुझे शाप भी देता हूँ कि तुझ से चला वंश-संतति सदैव राजवंशियों के द्वारा बहिष्कृत रहेगा।
शुक्राचार्य को श्रेष्ठ संगीतज्ञ और कवि होने का भी गौरव प्राप्त है। भागवत पुराण के अनुसार भृगु ऋषि के कवि नाम के पुत्र भी हुए जो कालान्तर में शुक्राचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए। महाभारत के अनुसार शुक्राचार्य औषधियों, मन्त्रों तथा रसों के भी ज्ञाता हैं। इनकी सामर्थ्य अद्भुत है। इन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति अपने शिष्य असुरों को दे दी और स्वयं तपस्वी-जीवन ही स्वीकार किया।
शुक्राचार्य को भगवान् शिव ने निगल लिया तो कवि (शुक्राचार्य) ने भगवान् शिव की स्तुति प्रारंभ कर दी जिससे प्रसन्न हो कर भगवान् शिव ने उन को बाहर निकलने कि अनुमति दे दी। जब वे एक दिव्य वर्ष तक महादेव के उदर में ही विचरते रहे, लेकिन कोई छोर न मिलने पर वे पुनः भगवान् शिव स्तुति करने लगे। तब भगवान् शिव ने हंस कर कहा कि मेरे उदर में होने के कारण तुम मेरे पुत्र हो गए हो अतः मेरे शिश्न से बाहर आ जाओ। आज से समस्त चराचर जगत में तुम शुक्र के नाम से ही जाने जाओगे। शुक्रत्व पाकर भार्गव भगवान् शिव  के शिश्न से निकल आए। तब से कवि शुक्राचार्य के नाम से विख्यात हुए।[वामन पुराण]
जब राजा बलि को सुतल लोक का राज बना दिया गया था तब शुक्राचार्य भी उनके साथ चले गए थे। शुक्राचार्य अपने पौत्र और्व के पास अरब में आ गए और दस वर्ष तक वहाँ रहे।
शुक्राचार्य के पौत्र का नाम और्व-अर्व या हर्ब था, जिसका अपभ्रंश होते होते अरब हो गया। 
अमंत्रं अक्षरं नास्ति, नास्ति मूलं अनौषधं।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ:॥
कोई अक्षर ऐसा नहीं है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरू होता हो, कोई ऐसा मूल (जड़) नहीं है, जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नहीं होता, उसको काम में लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं।[शुक्र नीति]
    
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा

Friday, May 8, 2015

BHRAGU-BRAHMA JI'S SON :: ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु (ब्रह्मा 1)

ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
मरीचि मत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
प्रचेतसं  वशिष्ठन् च भृगुं नारदमेव च॥
मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वशिष्ठ, भृगु और नारद ये दस महर्षि  हैं।[मनु स्मृति 1.35]   
Marichi, Atri, Angira, Pulasty, Pulah, Kratu, Pracheta, Vashishth, Bhragu and Narad are 10 Mahrishi.
प्रचेता दक्ष प्रजापति के पिता थे। 
प्रचेता वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि के भाई थे। प्रचेता का एक नाम वरुण भी है और वरुण ब्रह्मा जी के पुत्र थे। बाल्मीकि वरुण अर्थात् प्रचेता के 10वें पुत्र थे।[मनुस्मृति]
बाल्मीकि के पिता का नाम वरुण और माँ का नाम चार्षणी था। वह अपने माता-पिता के दसवें पुत्र थे। उनके भाई ज्योतिषाचार्य भृगु ऋषि थे। महर्षि बाल्मीकि के पिता वरुण महर्षि कश्यप और अदिति के नौवीं सन्तान थे। वरुण का एक नाम प्रचेता भी है, इसलिए बाल्मीकि प्राचेतस नाम से भी विख्यात हैं। 
महर्षि भृगु अपने माता-पिता से सहोदर दो भाई थे। उनके बड़े भाई का नाम अंगिरा ऋषि था। जिनके पुत्र बृहस्पति हुए जो देवगणों के पुरोहित-देवगुरू के रूप में जाने जाते हैं। महर्षि भृगु द्वारा रचित ज्योतिष ग्रंथ ‘भृगु संहिता’ के लोकार्पण एवं गंगा सरयू नदियों के संगम के अवसर पर जीवन दायिनी गँगा नदी के संरक्षण और याज्ञिक परम्परा से महर्षि भृगु ने अपने शिष्य दर्दर के सम्मान में ददरी मेला प्रारम्भ किया।
महर्षि भृगु की दो पत्नियों का उल्लेख आर्ष ग्रन्थों में मिलता है। इनकी पहली पत्नी दैत्यों के अधिपति हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या थी। जिनसे उनके दो पुत्र क्रमशः काव्य-शुक्र और त्वष्टा-विश्वकर्मा का जन्म हुआ। सुषानगर (ब्रह्मलोक) में पैदा हुए महर्षि भृगु के दोनों पुत्र विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। बड़े पुत्र काव्य-शुक्र खगोल ज्योतिष, यज्ञ कर्म काण्डों के निष्णात विद्वान हुए। मातृकुल में उनको आचार्य की उपाधि मिली। ये जगत में शुक्राचार्य के नाम से विख्यात हुए। दूसरे पुत्र त्वष्टा-विश्वकर्मा वास्तु के निपुण शिल्पकार हुए। मातृकुल दैत्यवंश में उनको ‘मय’ के नाम से जाना गया। अपनी पारंगत शिल्प दक्षता से ये भी जगद्ख्यात हुए।
महर्षि भृगु की दूसरी पत्नी दानवों के अधिपति पुलोम ऋषि की पुत्री पौलमी थी। इनसे भी दो पुत्रों च्यवन और ऋचीक पैदा हुए। बड़े पुत्र च्यवन का विवाह मुनिवर ने गुजरात भड़ौंच (खम्भात की खाड़ी) के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से किया। भार्गव च्यवन और सुकन्या के विवाह के साथ ही भार्गवों का हिमालय के दक्षिण पदार्पण हुआ। च्यवन ऋषि खम्भात की खाड़ी के राजा बने और इस क्षेत्र को भृगुकच्छ-भृगु क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा। आज भी भड़ौच में नर्मदा के तट पर भृगु मन्दिर बना है।
महर्षि भृगु ने अपने दूसरे पुत्र ऋचीक का विवाह कान्य कुब्ज पति कौशिक राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ एक हजार श्याम कर्ण घोड़े दहेज में देकर किया। अब भार्गव ऋचीक भी हिमालय के दक्षिण गाधिपुरी का एक क्षेत्र (वर्तमान बागी बलिया जिला (उप्र) आ गये।
महर्षि भृगु के इस विमुक्त क्षेत्र में आने के कई कथानक आर्ष ग्रन्थों में मिलते हैं। पौराणिक, ऐतिहासिक आख्यानों के अनुसार ब्रह्मा-प्रचेता पुत्र भृगु द्वारा हिमालय के दक्षिण दैत्य, दानव और मानव जातियों के राजाओं के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर मेलजोल बढ़ाने से हिमालय के उत्तर की देव, गन्धर्व, यक्ष जातियों के नृवंशों में आक्रोश पनप रहा था। जिससे सभी लोग देवों के संरक्षक, ब्रह्मा जी के सबसे छोटे भाई विष्णु को दोष दे रहे थे। दूसरे बारहों आदित्यों में भार्गवों का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा था। इसी बीच महर्षि भृगु के श्वसुर दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने हिमालय के उत्तर के राज्यों पर चढ़ाई कर दिया। जिससे महर्षि भृगु के परिवार में विवाद होने लगा। महर्षि भृगु यह कह कर कि राज्य सीमा का विस्तार करना राजा का धर्म है, अपने श्वसुर का पक्ष ले रहे थे। इस विवाद में भगवान् श्री हरी विष्णु ने उनकी पहली पत्नी, हिरण्य कश्यप की पुत्री दिव्या देवी को मार डाला। 
इस विवाद का निपटारा महर्षि भृगु के परदादा और विष्णु के दादा मरीचि मुनि ने इस निर्णय के साथ किया कि भृगु हिमालय के दक्षिण जाकर रहे। उनके दिव्या देवी से उत्पन्न पुत्रों को सम्मान सहित पालन-पोषण की जिम्मेदारी देवगण उठायेंगे। परिवार की प्रतिष्ठा-मर्यादा की रक्षा के लिए भृगु जी को यह भी आदेश मिला कि वह श्री हरि विष्णु की आलोचना नहीं करेंगे। इस प्रकार महर्षि भृगु सुषानगर से अपनी दूसरी पत्नी पौलमी को साथ लेकर अपने छोटे पुत्र ऋचीक के पास गाधिपुरी (वर्तमान बलिया) आ गये।
महर्षि भृगु के इस क्षेत्र में आने दूसरा आख्यान कुछ धार्मिक ग्रन्थों, पुराणों में मिलता है। देवी भागवत के चतुर्थ स्कंध विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद्भागवत में खण्डों में बिखरे वर्णनों के अनुसार महर्षि भृगु प्रचेता-ब्रह्मा जी के पुत्र हैं, इनका विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्री ख्याति से हुआ था। जिनसे इनके दो पुत्र काव्य-शुक्र और त्वष्टा तथा एक पुत्री ‘श्री’ लक्ष्मी का जन्म हुआ। इनकी पुत्री ‘श्री’ का विवाह भगवान् श्री हरि विष्णु से हुआ। दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति जो योग शक्ति सम्पन्न तेजस्वी महिला थी; ने दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को वह अपने योगबल से जीवित कर देती थी। जिससे नाराज होकर भगवान् श्री हरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता, भृगुजी की पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया। अपनी पत्नी की हत्या होने की जानकारी होने पर महर्षि भृगु ने भगवान् श्री हरी विष्णु को शाप दिया कि तुम्हें स्त्री के पेट से बार-बार जन्म लेना पड़ेगा। उसके बाद महर्षि अपनी पत्नी ख्याति को अपने योगबल से जीवित कर गँगा तट पर आ गये और तमसा नदी की सृष्टि की।
BHRAGU-BRAHMA JI'S SON :: ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु (ब्रह्मा 1)
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मन्दराचल पर्वत पर हो रहे यज्ञ में ऋषि-मुनियों में इस बात पर विवाद छिड़ गया कि त्रिदेवों (ब्रह्मा-विष्णु-शंकर) में श्रेष्ठ देव कौन है? देवों की परीक्षा के लिए ऋषि-मुनियों ने महर्षि भृगु को परीक्षक नियुक्त किया।[पद्म पुराण, उपसंहार खण्ड]
त्रिदेवों की परीक्षा लेने के क्रम में महर्षि भृगु सबसे पहले भगवान् शिव के कैलाश (हिन्दूकुश पर्वत श्रृंखला के पश्चिम कोह सुलेमान जिसे अब ‘कुराकुरम’ कहते हैं) पहुॅचे उस समय भगवान् शिव अपनी पत्नी सती के साथ विहार कर रहे थे। नन्दी आदि रूद्रगणों ने महर्षि को प्रवेश द्वार पर ही रोक दिया। इनके द्वारा भगवान् शिव से मिलने की हठ करने पर रूद्रगणों ने महर्षि को अपमानित भी कर दिया। कुपित महर्षि भृगु ने भगवान् शिव को तमोगुणी घोषित करते हुए लिंग रूप में पूजित होने का शाप दिया।
यहाँ से महर्षि भृगु ब्रह्मलोक (सुषानगर, पर्शिया ईरान) ब्रह्माजी के पास पहुँचे। ब्रह्माजी अपने दरबार में विराज रहे थे। सभी देवगण उनके समक्ष बैठे हुए थे। भृगु जी को ब्रह्माजी ने बैठने तक को नहीं कहे। तब महर्षि भृगु ने ब्रह्मा जी को रजोगुणी घोषित करते हुए अपूज्य (जिसकी पूजा ही नहीं होगी) होने का शाप दिया। कैलाश और ब्रह्मलोक में मिले अपमान-तिरस्कार से क्षुभित महर्षि विष्णुलोक चल दिये।
भगवान् श्री हरि विष्णु क्षीर सागर (श्रीनार फारस की खाड़ी) में सर्पाकार सुन्दर नौका (शेषनाग) पर अपनी पत्नी लक्ष्मी-श्री के साथ विहार कर रहे थे। उस समय श्री विष्णु जी शयन कर रहे थे। महर्षि भृगु को लगा कि हमें आता देख विष्णु सोने का नाटक कर रहे हैं। उन्होंने अपने दाहिने पैर का आघात भगवान् श्री हरी विष्णु की छाती पर कर दिया। महर्षि के इस अशिष्ट आचरण पर विष्णु प्रिया लक्ष्मी जो श्री हरि के चरण दबा रही थी, कुपित हो उठी। लेकिन भगवान् श्री हरी विष्णु ने महर्षि का पैर पकड़ लिया और कहा भगवन्! मेरे कठोर वक्ष से आपके कोमल चरण में चोट तो नहीं लगी। महर्षि भृगु लज्जित भी हुए और प्रसन्न भी, उन्होंने भगवान् श्री हरि विष्णु को त्रिदेवों में श्रेष्ठ सतोगुणी घोषित कर दिया। 
त्रिदेवों की इस परीक्षा में जहाँ एक बहुत बड़ी सीख छिपी है। वहीं एक बहुत बड़ी कूटनीति भी छिपी थी। इस घटना से एक लोकोक्ति बनी।
क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।
का हरि को घट्यो गए, ज्यों भृगु मारि लात
इस घटना में कूटनीति यह थी कि हिमालय के उत्तर के नृवंशों का संगठन बनाकर रहने से श्री हरि विष्णु के नेतृत्व में सभी जातियां सभ्य, सुसंस्कृत बन उन्नति कर रही थी। वही हिमालय के दक्षिण का नृवंश समुदाय जिन्हें दैत्य-दानव, मरूत-रूद्र आदि नामों से जाना जाता था। परिश्रमी होने के बाद भी असंगठित, असभ्य जीवन जी रही थी। ये जातियां रूद्र शंकर को ही अपना नायक-देवता मानती थी। उनकी ही पूजा करती थी। हिमालय के दक्षिण में देवकुल नायक श्रीविष्णु को प्रतिष्ठापित करने के लिए महर्षि भृगु ही सबसे उपयुक्त माध्यम थे। उनकी एक पत्नी दैत्यकुल से थी, तो दूसरी दानव कुल से थी और उनके पुत्रों शुक्राचार्यों, त्वष्टा-मय-विश्वकर्मा तथा भृगुकच्छ (गुजरात) में च्यवन तथा गाधिपुरी (उ.प्र.) में ऋचीक का बहुत मान-सम्मान था। इस त्रिदेव परीक्षा के बाद हिमालय के दक्षिण में श्रीहरि विष्णु की प्रतिष्ठा स्थापित होने लगी। विशेष रूप से राजाओं के अभिषेक में श्री विष्णु का नाम लेना हिमालय पारस्य देवों की कृपा प्राप्ति और मान्यता मिलना माना जाने लगा। 
पुराणों में वर्णित आख्यान के अनुसार त्रिदेवों की परीक्षा में विष्णु वक्ष पर पद प्रहार करने वाले महर्षि भृगु को दण्डाचार्य मरीचि ऋषि ने पश्चाताप का निर्देश दिया। जिसके लिए भृगुजी को एक सूखे बाँस की छड़ी में कोंपले फूट पड़े और आपके कमर से मृगछाल पृथ्वी पर गिर पड़े। वही धरा सबसे पवित्र होगी वहीं आप विष्णु सहस्त्र नाम का जप करेंगे तब आपके इस पाप का मोचन होगा।
मन्दराचल से चलते हुए जब महर्षि भृगु विमुक्त क्षेत्र (वर्तमान बलिया जिला उप्र) के गंगा तट पर पहुँचे तो उनकी मृगछाल गिर पड़ी और छड़ी में कोंपले फूट पड़ी। जहाँ उन्होंने तपस्या करना प्रारम्भ कर दिया। कालान्तर में यह भू-भाग महर्षि के नाम से भृगुक्षेत्र कहा जाने लगा और वर्तमान में बागी बलिया (उप्र) (जो कि स्वतंत्रता संग्राम में प्रथम आजाद जिला है) नाम से जाना जाता है।
महर्षि भृगु जीवन से जुड़े ऐतिहासिक, पौराणिक और धार्मिक सभी पक्षों पर प्रकाश डालने के पीछे मेरा सीधा मन्तव्य है कि पाठक स्वविवेक का प्रयोग कर सकें। हमारे धार्मिक ग्रन्थों में हमारे मनीषियों के वर्णन तो प्रचुर है, परन्तु उसी प्रचुरता से उसमें कल्पित घटनाओं को भी जोड़ा गया है। उनके जीवन को महिमामण्डित करने के लिए हमारे पटुविद्वान उनकी ऐतिहासिकता से खिलवाड़ किए हैं, जिसके कारण वैश्विक स्तर पर अनेक बार अपमानजनक स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
महर्षि भृगु ने इस भू-भाग पर (वर्तमान बलिया जिला(उप्र) आने के बाद यहाँ के जंगलों को साफ कराया। यहाँ मात्र पशुओं के आखेट पर जीवन यापन कर रहे जनसामान्य को खेती करना सिखाया। यहाँ गुरूकुल की स्थापना करके लोगों को पढ़ना-लिखना सिखाया। उस कालखण्ड में इस भू-भाग को नरभक्षी मानवों का निवास माना जाता था। उन्हें सभ्य, सुसंस्कृत मानव बनानें का कार्य महर्षि द्वारा किया गया।
भृगु संहिता :: महर्षि भृगु के परिवारिक जीवन से अपरिचित जन भी महर्षि द्वारा प्रणीत ज्योतिष-खगोल के महान ग्रंथ भृगु संहिता के बारे में जानते है। इस नाम से अनेक पुस्तके आज भी साहित्य विक्रेताओं के यहाॅ बिकती हुई दिखाई देती है।
महर्षि ने भृगु संहिता ग्रंथ की रचना अपनी दीर्घकालीन निवास की कर्म भूमि विमुक्त भूमि बलिया में ही किया था। इस सन्दर्भ दो बातें ध्यान देने की है। पहली बात यह है कि अपनी जन्मभूमि ब्रह्मलोक (सुषानगर) में निवास काल में उनका जीवन झंझावातों से भरा हुआ था। अपनी पत्नी दिव्या देवी की मृत्यु से व्यथित और त्रिदेवों की परीक्षा के उपरान्त जन्म भूमि से निष्कासित महर्षि को उसी समय शान्ति से जीवन व्यतीत करने का अवसर मिला जब वह विमुक्त भूमि में आये। भृगुकच्छ गुजरात में पहुॅचने के समय तक उनकी ख्याति चतुर्दिक फैल चुकी थी। क्योंकि उस समय तक उनके भृगु संहिता को भी प्रसिद्धि मिल चुकी थी और उनके शिष्य दर्दर द्वारा भृगुक्षेत्र में गँगा-सरयू के संगम कराने की बात भी पूरा आर्यवर्त जान चुका था। आख्यानों के अनुसार खम्भात की खाड़ी में महर्षि के पहुॅचने पर उनका राजसी अभिनन्दन किया गया था, तथा वैदिक विद्वान ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन करते हुए उन्हे आत्मज्ञानी ज्योतिष के प्रकाण्ड पण्डित के रूप में उनकी अभ्यर्थना की थी। जिससे यह बात प्रमाणित होती है कि महर्षि द्वारा भृगु संहिता की रचना सुषानगर से निष्कासन के बाद और गुजरात के भृगुकच्छ जाने से पहले की गई थी।
महर्षि की इस संहिता द्वारा किसी भी जातक के तीन जन्मों का फल निकाला जा सकता है। इस ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करने वाले सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुद्ध, बृहस्पति,शुक्र शनि आदि ग्रहों और नक्षत्रों पर आधारित वैदिक गणित के इस वैज्ञानिक ग्रंथ के माध्यम से जीवन और कृषि के लिए वर्षा आदि की भी भविष्यवाणियां की जाती थी।
महर्षि के कालखण्ड में कागज और छपाई की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। ऋचाओं को कंठस्थ कराया जाता था और इसकी व्यवहारिक जानकारी शलाकाओं के माध्यम से शिष्यों को दी जाती थी। कालान्तर में जब लिखने की विधा विकसित हुई और उसके संसाधन मसि भोजपत्र ताड़पत्र आदि का विकास हुआ, तब कुछ विद्वानों ने इन ऋचाओं को लिपिबद्ध करने का काम किया।
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्। 
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥
महर्षियों में भृगु और वाणियों-शब्दों में एक अक्षर प्रणव मैं हूँ। सम्पूर्ण यज्ञों में जप यज्ञ, स्थिर रहने वालों में हिमालय मैं हूँ।[श्रीमद्भगवद्गीता 10.25]  
Bhagwan Shri Krashn said that HE is Bhragu amongest the great sages and ॐ-OM (monosyllable cosmic sound) amongest the words-speeches. Amongest the Yagy-ritualistic performances with sacrifices in Agni-fire, HE is Jap Yagy-spiritual recitation of Mantr-lyrics, rhythms and HE is Himalay mountain amongest the stationery-fixed objects.
परमात्मा ने भृगु, अत्रि और मरीचि आदि महृषियों में भृगु को अपनी विभूति इसलिये कहा है, क्योंकि उन्होंने ही परीक्षा करके बताया कि त्रिदेवों :- ब्रह्मा, विष्णु और महेश में, भगवान् विष्णु ही श्रेष्ठतम हैं। भगवान् विष्णु भृगु के चरण-चिन्हों को अपने वक्ष पर भृगुलता नाम से धारण किये हुए हैं। सबसे पहले तीन मात्रा वाला प्रणव प्रकट हुआ। तत्पश्चात त्रिपदा गायत्री और उससे वेद, वेदों से शास्त्र, पुराण आदि सम्पूर्ण वाङ्गमय जगत प्रकट हुआ। इसी प्रकार यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाओं को प्रणव के उच्चारण से ही प्रारम्भ किये जाने से परमात्मा शब्दों में प्रणव हैं। भगवन्नाम जप एक ऐसा यज्ञ है, जिसमें किसी पदार्थ या विधि-विधान की आवश्यकता नहीं है। अतः यह यज्ञों में, गलती-त्रुटि की गुंजाइश-संभावना न होने से श्रेष्ठतम और प्रभु की विभूति है। हिमालय पर्वत ऋषि-मुनियों की तप स्थली, पवित्र नदियों गँगा, यमुना का उद्गम, नर-नरायण की आदि स्थान बद्रीनाथ, केदारनाथ, कैलाश आदि का प्रमुख पवित्र स्थल होने से स्थिरों में प्रभु की विभूति है। 
Out of the Mahrishis born as the sons of Bhawan Brahma, Bhragu is entitled to be the supreme, since it was he who testified that Bhagwan Vishnu was superior amongest the Tri Dev :- Brahma, Vishnu & Mahesh. In this process he struck the chest of Bhagwan Vishnu with his foot, which was held by Bhagwan Shri Hari Vishnu and HE jokingly closed numerous eyes present in his foot granting him enlightenment & attracted curse of Maa Laxmi that his decedents would never have sufficient money to survive-subsistence. The Almighty recognise him as his Ultimate form as a sage. HE is wearing the marks of Bhragu's foot over his chest as Bhragu Lata. ॐ OM (primordial sound) is the syllable which appeared before evolution followed by Gayatri-divine prayer, which resulted into the appearance of Veds, Purans, scriptures, history etc. Therefore, the God is calling it to be HIS excellent character-quality, form. The recitation of the names of the God is free from procedure, methodology, sacrifices etc. Hence, it is considered to be the best form of prayer-worship, as there is rare-minimum chance of mistakes connected with sequence, offerings etc. Himalay-Everest is the place which is liked by the sages-ascetics to perform Yog, worship, prayers being isolates. Pious rivers like Ganga, Yamuna, Sahastr Dhara, appear here. Bhagwan Nar-Narayan are still practicing asceticism there, at Badri Nath. Bhagwan Shankar occupies Kaelash with Maa Parwati as his abode. Maa Bhagwati Parwati took incarnation as the daughter of Himalay. Gangotri & Yamunotri (Char Dhams) too are located here. It continues to supply water throughout the year into rivers like Saraswati, Brahm Putr etc. It results into rains in the entire northern region of India and controls the climate throughout the world. It is the highest mountain in the world. This is the reason the God is calling it his Supreme-Ultimate form.
वेद-पुराणों में भगवान् ब्रह्मा के मानस पुत्रों का वर्णन है। वे दिव्य सृष्टि के अंग थे। महाप्रलय, भगवान् ब्रह्मा जी के दिन-कल्प की शुरुआत में उनका उदय होता है। वेदों, पुराणों इतिहास को वे ही पुनः प्रकट करते हैं। ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु का श्रुतियों में विशेष स्थान है। उनके के बड़े भाई का नाम अंगिरा था। अत्रि, मरीचि, दक्ष, वशिष्ठ, पुलस्त्य, नारद, कर्दम, स्वायंभुव मनु, कृतु, पुलह, सनकादि ऋषि इनके भाई हैं। उन्हें भगवान् विष्णु के श्वसुर और भगवान् शिव के साढू के रूप में भी जाना जाता है। महर्षि भृगु को भी सप्तर्षि मंडल में स्थान प्राप्त है। भृगु मुनि की पहली पत्नी दिव्या देवी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप और उनकी पुत्री रेणुका के पति भगवान् विष्णु में वर्चस्व की जंग छिड गई। इस लडाई में महर्षि भृगु ने पत्न्नी के पिता दैत्यराज हिरण्य कश्यप का साथ दिया। क्रोधित भगवान् विष्णु जी ने सौतेली सास दिव्या देवी को मार डाला। 
AUTHOR OF ASTROLOGY-BHRAGU भृगुसंहिता के रचयिता-भृगु :: भृगु संहिता त्रिकाल अर्थात् भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों का समान रूप से प्रामाणिक ब्योरा देती है। भृगु संहिता महर्षि भृगु और उनके पुत्र शुक्राचार्य के बीच संपन्न हुए वार्तालाप के रूप में एक दुर्लभ ग्रंथ है। उसकी भाषा शैली गीता में भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के मध्य हुए संवाद जैसी है। हर बार आचार्य शुक्र एक ही सवाल पूछते हैं :- 
वद् नाथ दयासिंधो जन्मलग्नषुभाषुभम्। 
येन विज्ञानमात्रेण त्रिकालज्ञो भविष्यति 
भार्गव वंश के मूल पुरुष महर्षि भृगु थे जिनको जन सामान्य ॠचाओं के रचिता, भृगुसंहिता के रचनाकार, यज्ञों में ब्रह्मा बनने वाले ब्राह्मण और त्रिदेवों की परीक्षा में भगवान् विष्णु की छाती पर लात मारने वाले मुनि के नाते जानता है। 
महर्षि भृगु के भी दो विवाह हुए, इनकी पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्य कश्यप की पुत्री दिव्या थी और दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी थी। पहली पत्नी दिव्या से भृगु मुनि के दो पुत्र हुए, जिनके नाम शुक्र और त्वष्टा रखे गए। भार्गवों में आगे चलकर आचार्य बनने के बाद शुक्र को शुक्राचार्य के नाम से और त्वष्टा को शिल्पकार बनने के बाद विश्वकर्मा के नाम से जाना गया। इन्हीं भृगु मुनि के पुत्रों को उनके मातृवंश अर्थात दैत्यकुल में शुक्र को काव्य एवं त्वष्टा को मय के नाम से जाना गया है। भृगु मुनि की दूसरी पत्नी पौलमी की तीन संताने हुईं। दो पुत्र च्यवन और ॠचीक तथा एक पुत्री हुई जिसका नाम रेणुका था। च्यवन ॠषि का विवाह शर्याति की पुत्री सुकन्या के साथ हुआ। ॠचीक का विवाह महर्षि भृगु ने राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ एक हजार श्यामकर्ण घोड़े दहेज में लेकर किया। पुत्री रेणुका का विवाह भृगु मुनि उस समय विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य) के साथ किया।
मन्दराचल पर्वत पर हो रहे यज्ञ में महर्षि भृगु को त्रिदेवों की परीक्षा लेने के लिए निर्णायक चुना गया। भगवान् शिव की परीक्षा के लिए जब भृगु कैलाश पर्वत पर पहुँचे तो उस समय भगवान् शिव माता  पार्वती के साथ विहार कर रहे थे। शिव गणों ने महर्षि को उनसे मिलने नहीं दिया। महर्षि भृगु ने भगवान् शिव को तमोगुणी मानते हुए शाप दे दिया कि आज से आपके लिंग की ही पूजा होगी। भगवान् शिव आदि देव हैं। उन पर किसी के किसी भी श्राप का असर नहीं होता, अपितु श्राप देने वाला स्वयं ही मुसीबत में फँस जाता है। 
महर्षि भृगु अपने पिता भगवान् ब्रह्मा के ब्रह्म लोक पहुँचे। वहाँ इनके माता-पिता दोनों साथ बैठे थे। जिन्होंने सोचा पुत्र ही तो है, मिलने के लिए आया होगा। महर्षि का सत्कार नहीं हुआ। तब नाराज होकर इन्होंने भगवान् ब्रह्मा को रजोगुणी घोषित करते हुए शाप दिया कि आपकी कहीं  पूजा नही होगी। श्राप देने वाला व्यक्ति अपने सृजित पुण्य नष्ट कर लेता है। अतः कैसी भी परिस्थिति क्यों न हो मनुष्य को किसी को भी कभी भी श्राप या बद्दुआ नहीं देनी चाहिए और ना ही किसी बुरा सोचना-करना चाहिये। श्राप को होनी-प्रारब्ध समझकर ग्रहण कर लेने से अपने संचित पुण्यकर्म मनुष्य की रक्षा करते हैं। 
क्रोध में  तमतमाए महर्षि भगवान् विष्णु के श्री धाम पहुँचे। वहाँ भगवान् श्री हरी विष्णु क्षीर सागर में योग निद्रा में  थे और माता लक्ष्मी उनके पैर दबा रही थीं। क्रोधित महर्षि ने परीक्षा लेने के लिए उनकी छाती पर पैर से प्रहार किया। भगवान् विष्णु ने महर्षि का पैर पकड़ लिया और पूछा कि मेरे कठोर वक्ष से आपके पैर में चोट तो नहीं लगी। महर्षि  के पैर में तीसरी आँख थी जिससे उन्हें भविष्य का ज्ञान हो जाता था। भगवान् विष्णु उनकी इन्तजार कर ही रहे थे। उन्होंने मौके का फायदा उठाकर, उनकी तीसरी आँख मूँद दी। महर्षि  को इसका भान-आभास भी नहीं हुआ। परन्तु माँ लक्ष्मी ने उन्हें श्राप दे दिया कि उनके वंश में उत्पन्न ब्राह्मण दरिद्र ही रहें। देवी लक्ष्मी को भृगु का ऐसा करना नहीं भाया और उन्होंने ब्राह्मण समाज को श्राप दे दिया कि उनके वंश-खानदान में मेरा (लक्ष्मी का) वास नहीं होगा और वे दरिद्र बनकर इधर उधर भटकते रहेंगे।
महर्षि भृगु बोले के मैंने यह कार्य देवताओं के कहने पर त्रिदेवों की परीक्षा लेने के लिये किया था। मैंने इसकी माफ़ी भी मान ली है, पर आपने तो मेरे साथ साथ पूरे भार्गव वंश को श्राप दे दिया। अब जो होना था वो हो गया पर मैं अपने ब्राह्मण समाज के लिए ज्योतिष ग्रन्थ का निर्माण करूँगा और जिसके आधार पर वे समस्त प्राणियों के भूत, भविष्य और वर्तमान के बारे में बता सकेंगे और दक्षिणा के रूप में धन प्राप्त कर पाएँगे और मेरे ग्रन्थ के ज्ञाता किसी भी ब्राह्मण के घर में लक्ष्मी की कमी नहीं आएगी। 
भृगु की परीक्षा का आधार पर देवताओं ने देवों में भगवान् श्री हरी विष्णु को सर्वश्रेष्ठ घोषित कर किया। यद्यपि आदि देव भगवान् महादेव ही इस ब्रह्माण्ड में सृष्टि के मूल हैं। भगवान् शिव की आयु 8 परार्ध, भगवान् ब्रह्मा की आयु 4 परार्ध और भगवान् विष्णु की आयु  परार्ध है। 
कुछ समय पश्चात् महर्षि भृगु ने ज्योतिष ग्रन्थ लिख दिया; परन्तु इसके पश्चात् भृगु को घमण्ड हो गया और वो भगवान् शिव के धाम में चले गए और घमण्ड में माता पार्वती से कहा कि मैंने ऐसा ग्रन्थ लिखा है जिससे किसी भी मनुष्य  का भूत, भविष्य और वर्तमान मालूम किया जा सकता है। माँ क्रोधित हो गयीं और उन्होंने भृगु को श्राप दे दिया कि तुम मेरे आवास में बिना अनुमति के अन्दर आ गए और अपनी विद्या पर इतना घमण्ड कर रहे हो। इसलिए तुम्हारी सारी  भविष्य वाणियाँ सच नहीं होगी। 
महर्षि के परीक्षा के इस ढ़ंग से नाराज मरीचि ॠषि ने इनको प्रायश्चित करने के लिए धर्मारण्य में तपस्या करके दोषमुक्त होने के लिए गँगा तट पर जाने का आदेश दिया। भृगु अपनी दूसरी पत्नी पौलमी को लेकर वहाँ आ गए। यहाँ पर उन्होने गुरुकुल स्थापित किया। उस समय यहाँ के लोग खेती करना नही जानते थे। महर्षि भृगु ने उनको खेती करने के लिए जंगल साफ़ कराकर खेती करना सिखाया। यहीं रहकर उन्होने ज्योतिष के महान ग्रन्थ भृगु संहिता की रचना की। कालान्तर में अपनी ज्योतिष गणना से जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि इस समय यहाँ प्रवाहित हो रही गँगा नदी का पानी कुछ समय बाद सूख जाएगा तब उन्होने अपने शिष्य दर्दर को भेज कर उस समय अयोध्या तक ही प्रवाहित हो रही सरयू नदी की धारा को वहाँ मंगाकर गंगा-सरयू का संगम कराया।
भृगु संहिता ज्योतिष का आदि ग्रंथ है अपार श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है। 
महर्षि पराशर के ग्रंथ बृहत्पाराषरहोराषास्त्र में महर्षि भृगु को ही ज्योतिष शास्त्र का आदि प्रवर्तक कहा गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भृगु नामक एक प्रकांड ज्योतिषी हुए हैं। इस तरह भृगु ऐसे भविष्यवक्ता और त्रिकालज्ञ थे। 
भृगु संहिता में दृषेत शब्द बहुत बार आया है और संस्कृत के इस शब्द का अर्थ या प्रयोग देखने, दिखाई देने और दर्षित होने के संदर्भ में किया जाता है। इससे लगता है कि महर्षि भृगु को भूत और भविष्य स्पष्ट दिखाई देता था। इसमें पूर्वजन्म का विवरण भी है। एक जगह पर आचार्य शुक्र महर्षि भृगु से पूछते हैं :- 
पूर्वजन्मकृतं पापं कीदृक्चैव तपोबल। 
तद् वदस्य दयासिंधो येन भूयत्रिकालज्ञः 
अधिकांष स्थलों पर पूर्वजन्म, वर्तमान जन्म तथा आने वाले जन्म का हाल भी दिया गया है। कुछ मामलों में यहांँ तक कहा गया है कि कोई व्यक्ति भृगु संहिता कब, कहाँ, किस प्रयोजन से विश्वास या अविश्वास के साथ सुनेगा। पत्नी की कुंडली के बिना ही सिर्फ पति की कुंडली के आधार पर पत्नी के बारे में व्यापक विवेचन व उसके सही होने की पुष्टि अनेक विद्वानों ने की है। भृगु संहिता में गणनाओं का उल्लेख करते समय वर्ष, महिने और दिन का भी जिक्र आता है। कुछ कुंडलियों में प्रश्नकाल के आधार भी पर गणनाएँ गईं हैं। कहीं-कहीं प्रश्नकर्ता के जन्म स्थान, निवास स्थान, पिता तथा उनके नामों के पहले अक्षरों का भी विवरण मिलता है। 
पितृव्यष्च सुखं पूर्ण नागत्रिंषतषत कवेः। 
सम्यक् ब्रूमि फलं तत्र पितृव्यष्च महतरम्
यह अनुमान लगाना असंभव है कि भृगु संहिता कितने पृष्ठों की है और इसका आकार क्या है। यह दुर्लभ ग्रंथ अरबों वर्ष पूर्व भोजपत्र पर लिखा गया था। प्राचीन अनमोल ग्रंथों को नालंदा विष्वविद्यालय में जला दिया गया था। अब भी कुछ दुर्लभ पांडुलिपियाँ उपलब्ध हैं, जिनमें भृगु संहिता, षंख संहिता, सुश्रुत संहिता, चरक संहिता, रावण संहिता आदि सुरक्षित हैं। इनमें भृगु संहिता इतनी विशाल है कि उसे उठाना भी कठिन है।
भृगु संहिता नाम पर अनेकों प्रकाशकों ने पुस्तकें प्रकाशित की हैं जो कि अप्रमाणिक, अनुपयोगी हैं। 
भृगु की  तीन पत्नियाँ :- ख्या‍ति, दिव्या और पौलमी। पहली पत्नी का नाम ख्याति था, जो दक्ष कन्या थी। ख्याति से भृगु को दो पुत्र दाता और विधाता (काव्य शुक्र और त्वष्टा-विश्वकर्मा) तथा एक पुत्री श्री लक्ष्मी का जन्म हुआ। घटनाक्रम एवं नामों में कल्प-मन्वन्तरों के कारण अंतर आता है।[देवी भागवत के चतुर्थ स्कंध, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद् भागवत] लक्ष्मी का विवाह उन्होंने भगवान् विष्णु से कर दिया था।
आचार्य बनने के बाद शुक्र को शुक्राचार्य के नाम से और त्वष्टा को शिल्पकार बनने के बाद विश्वकर्मा के नाम से जाना गया। 
दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति, जो योगशक्ति संपन्न तेजस्वी महिला थीं, दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को जीवित कर देती थीं, जिससे नाराज होकर भगवान् श्री हरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता व महर्षि भृगु जी पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया।
दूसरी पत्नी पौलमी :- उनके ऋचीक व च्यवन नामक दो पुत्र और रेणुका नामक पुत्री उत्पन्न हुई। भगवान् परशुराम महर्षि भृगु के प्रपौत्र, वैदिक ऋषि ऋचीक के पौत्र, जमदग्नि के पुत्र परशुराम थे। रेणुका का विवाह विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य) से किया।
जब महर्षि च्यवन उसके गर्भ में थे, तब भृगु की अनुपस्थिति में एक दिन अवसर पाकर दंस (पुलोमासर) पौलमी का हरण करके ले गया। शोक और दुख के कारण पौलमी का गर्भपात हो गया और शिशु पृथ्वी पर गिर पड़ा, इस कारण यह च्यवन (गिरा हुआ) कहलाया। इस घटना से दंस पौलमी को छोड़कर चला गया, तत्पश्चात पौलमी दुख से रोती हुई शिशु (च्यवन) को गोद में उठाकर पुन: आश्रम को लौटी। पौलमी के गर्भ से 5 और पुत्र बताए गए हैं।
भृगु पुत्र धाता के आयती नाम की स्त्री से प्राण, प्राण के धोतिमान और धोतिमान के वर्तमान नामक पुत्र हुए। विधाता के नीति नाम की स्त्री से मृकंड, मृकंड के मार्कण्डेय और उनसे वेद श्री नाम के पुत्र हुए। 
भृगु के और भी पुत्र थे जैसे उशना, च्यवन आदि। ऋग्वेद में भृगुवंशी ऋषियों द्वारा रचित अनेक मंत्रों का वर्णन मिलता है जिसमें वेन, सोमाहुति, स्यूमरश्मि, भार्गव, आर्वि आदि का नाम आता है। भार्गवों को अग्नि पूजक माना गया है। दाशराज्ञ युद्ध के समय भृगु मौजूद थे।
शुक्राचार्य :- शुक्र के दो विवाह हुए थे। इनकी पहली स्त्री इन्द्र की पुत्री जयंती थी, जिसके गर्भ से देवयानी ने जन्म लिया था। देवयानी का विवाह चन्द्रवंशीय क्षत्रिय राजा ययाति से हुआ था और उसके पुत्र यदु और मर्क तुर्वसु थे। दूसरी स्त्री का नाम गोधा (शर्मिष्ठा) था जिसके गर्भ से त्वष्ट्र, वतुर्ण शंड और मक उत्पन्न हुए थे।
च्यवन ऋषि :: शौनक जी अत्यंत प्रसन्न हुए और बोले :- हे सूत कुमार! मुझे महर्षि भार्गव की कथा भी विस्तार से सुनाइए मैं उत्सुक हो रहा हूँ।
महर्षि शौनक का बारह वर्षीय सत्र वाला गुरुकुल उस नैमिषारण्य में चल रहा था।चारों ओर मेला सा लगा था, बड़ी चहल-पहल दिखाई देती थी। ब्राह्मणों, बटुकों सहित अत्यंत कठोर ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले ऋषि गण वहाँ शिक्षा और तपस्या में लीन रहते थे। एक दिवस भ्रमण करते हुए लोमहर्षण के पुत्र सूतकुमार उग्रश्रवा का वहाँ पर आगमन हुआ। वह पुराणों के ज्ञाता थे तथा पुराणों की कथा कहने में कुशल भी। ऋषिगण उन्हें जानते थे। उन सब ने उग्रश्रवा जी को घेर लिया तथा कथा सुनाने का आग्रह करने लगे।
उग्रश्रवा जी ने ऋषियों का अभिवादन किया और हाथ जोड़कर बोले :- हे परम पूज्य ऋषिगण आप ही बताएँ कि आप सभी कौन सा प्रसंग सुनना चाहते हैं।
ऋषियों ने कहा :- हे कमलनयन सूत नंदन हम सब आपको देखकर आपसे बहुत सारे कथा प्रसंग सुनने के लिए अति उत्साहित हैं, परन्तु हमारे पूज्य कुलपति महर्षि शौनक जी अभी अग्नि की उपासना में तथा यज्ञादि कार्य में व्यस्त हैं, जैसे ही वे उपस्थित होते हैं, आप उनके कहने के अनुसार कथा सुनाइएगा। तत्पश्चात द्विजश्रेष्ठ विप्रशिरोमणि शौनक जी वैदिक स्तुतियों के कार्य का संपादन करके वहाँ पधारे और सुख पूर्वक विराजमान हो गए। शौनक जी ने कहा :- हे लोमहर्षण कुमार! मुझे मालूम है कि आप के प्रतापी पिता ने सब पुराणों आदि का भली प्रकार अध्ययन किया था, क्या आप भी उन सभी दिव्य कथाओं और राजर्षियों और ब्रह्मर्षियों के वंशो की कथावलियों के बारे में जानते हैं? यदि हाँ, तो कृपया सर्वप्रथम भृगुवंश का वर्णन करने वाली कथा कहिए।
हम सभी बहुत आतुरता के साथ आप के वचनों को सुनने के लिए उद्यत हैं।
सौतिपुत्र उग्रश्रवा ने कहा :- "मान्यवर मुझे मेरे पिता महर्षि वैशंपायन और महान श्रेष्ठ ब्राह्मणों से कथा के रूप में जो कुछ भी सुनने को मिला है और जो कुछ भी मुझे ज्ञात है वह सब मैं आपको वर्णन करता हूँ"
हे भृगुनंदन! मैं आपको सबसे पहले भृगुवंश का बखान करता हूं तथा आपके परम प्रतापी भार्गव वंश का भी परिचय देता हूँ। इस अद्भुत वृतांत को ध्यानपूर्वक सुनिए।
स्वयंभू ब्रह्मा जी ने वरुण के यज्ञ में महर्षि भृगु को अग्नि से उत्पन्न किया था। इनके अत्यंत गुणवान व प्रतापी पुत्र ऋषि च्यवन थे, जिन्हें भार्गव ऋषि भी कहते हैं। उनके पुत्र थे, धर्मात्मा प्रमति।
प्रमति और अप्सरा घृताची के गर्भ से रुरू का जन्म हुआ था और रुरु के पुत्र शनक थे, जो प्रमद्दरा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। वह वेदों के पारंगत विद्वान और बड़े धर्मात्मा थे और आपके पिता भी।
शौनक जी बोले :- परन्तु  हे सूतपुत्र! मुझे पूरी कथा विस्तार से सुनने की उत्कंठा हो रही है मुझे बताइए कि महात्मा भार्गव का नाम च्यवन कैसे हुआ?
उग्रश्रवा जी ने ऋषिवर की तीव्र उत्कंठा भाँप ली और कहा :- "हे महात्मन! भृगु की पत्नी का नाम पुलोमा था, जो अत्यंत शीलवान और धर्मपरायणा पतिव्रता नारी थी"।
वह अपने पति को अत्यंत प्रिय थी तथा उसके गर्भ में महर्षि भृगु का पुत्र पल रहा था।
एक बार महर्षि भृगु ऋषि स्नान हेतु जैसे ही आश्रम से बाहर निकले, एक पुलोमा नाम का ही राक्षस उनके आश्रम में घुस गया।
इस राक्षस की भी एक कथा है :- बाल्यकाल में भृगु पत्नी पुलोमा रो रही थी तब उसके पिता ने उसे डराने के लिए उसका नाम उसी के घर में छुपे पुलोमा नाम के राक्षस के नाम पर रख दिया और कहा कि वह रोना बंद नहीं करेगी तो उसका विवाह राक्षस के साथ कर देंगे।
यह वही राक्षस था जो मौका देखकर भृगु के आश्रम में घुस गया था और उसने बाल्यावस्था में ही बालिका पुलोमा को मन ही मन में अपनी पत्नी के रूप में वरण कर लिया था ।
आश्रम में प्रवेश करते ही उस राक्षस की कुदृष्टि भृगु पत्नी पुलोमा पर पड़ी और वह कामदेव के वशीभूत होकर अपनी सुध-बुध खो बैठा।
वह राक्षस भृगुपत्नी को अपनी पत्नी मानता था, सो उसे हरण करके ले जाना चाहता था। इसके लिए उसके मन में एक कुटिल योजना ने जन्म ले लिया। वैसे भी जब कोई गलत कार्य करने लगता है तो उसे सत्य ठहराने के लिए और औचित्य की खोज भी कर ही लेता है।
राक्षस पुलोमा ने भृगु के आश्रम में ही अग्निहोत्र में अग्निदेव को प्रज्वलित होते हुए देखा और भृगुपत्नी के समक्ष ही अग्निदेव से प्रश्न किया :- "हे अग्नि देवता ! सत्य की शपथ लेकर बताएँ, कि यह पहले से मेरी पत्नी है या नहीं"?
क्या इसके पिता ने भृगु के साथ विवाह के पूर्व ही मुझे विवाह हेतु नहीं सौंप दिया था?
मैंने तो इसे वर्षों पूर्व ही वरण कर लिया था। आप तो परम ज्ञानी और सत्य का साथ देने वाले देवता हैं। कृप्या सत्य का साथ दीजिए। अग्निदेव बहुत दु:खी हुए। क्योंकि सत्य कहना अत्यंत कठिन था और असत्य का साथ वह दे नहीं सकते थे।
अतः धीरे से उन्होंने कहा :- "हे दानवराज! यह सत्य है कि पुलोमा का वरण तुम्हीं ने पहले किया परंतु इसके पिता ने विधिपूर्वक मंत्रोच्चार करते हुए इसका विवाह भृगु के साथ ही किया है"।
पुलोमा अग्निदेव का वचन सुनकर बहुत दुखी हो गई कि इस दानव ने पहले ही उसका वरण किया था।
राक्षस ने इतना सुनकर भृगु पत्नी का अपहरण कर लिया।
उग्रश्रवा जी तनिक रुक कर बोले :- हे महात्मन! हे ऋषिवर! तब भृगु पत्नी के गर्भ में पल रहा वह बालक राक्षस के इस कुकृत्य से क्रोध में भर गया और माता के गर्भ से च्युत होकर बाहर निकल आया और उसने अपने अपूर्व तेज से राक्षस को भस्म कर दिया।
च्युत होकर बाहर निकले बालक का नाम इसीलिए च्यवन हुआ।
माता पुलोमा तब अपने पुत्र च्यवन को लेकर ब्रह्मा जी के पास पहुँची और उसके आँसुओं की बाढ़ से नदी बन गई, जो वसुधरा कहलाई।
जैसे ही महर्षि भृगु को सब बातें पता चली तो अग्निदेव की कही बातों को सुनकर भृगु ने अग्निदेव को सर्वभक्षी होने का श्राप दे दिया। बाद में ब्रह्मा जी ने अग्निदेव को श्राप से मुक्ति दी और कहा कि तुम्हारा सारा शरीर सर्वभक्षी नहीं होगा और केवल तुम्हारी ज्वालाएँ और चिताग्नि ही सर्वक्षण करेगी तथा यज्ञ कार्यों में आहुति के रूप में सभी देवताओं के भाग के रूप में तुम्हें हविष्य अवश्य प्राप्त होगा और तुम्हारे स्पर्श से सभी वस्तुएं शुद्ध हो जाएँगी।
हे महर्षि शौनक देव जी! यही भार्गव च्यवन ऋषि के जन्म का वृतांत है, उग्रश्रवा ने हाथ जोड़ कर मुस्कुराते हुए कहा।
मुनिवर ने गुजरात के भड़ौंच (खम्भात की खाड़ी) के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से विवाह किया। भार्गव च्यवन और सुकन्या के विवाह के साथ ही भार्गवों का हिमालय के दक्षिण में पदार्पण हुआ। च्यवन ऋषि खम्भात की खाड़ी के राजा बने और इस क्षेत्र को भृगुकच्छ-भृगु क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा।
सुकन्या से च्यवन को अप्नुवान नाम का पुत्र मिला। द‍धीच इन्हीं के भाई थे। इनका दूसरा नाम आत्मवान भी था। इनकी पत्नी नाहुषी से और्व का जन्म हुआ।[और्व कुल का वर्णन ब्राह्मण ग्रंथों में, ऋग्वेद में 8.10.2.4 पर, तैत्तरेय संहिता 7.1.8.1, पंच ब्राह्मण 21.10.6, विष्णुधर्म 1.32 तथा महाभारत अनुच्छेद 56 आदि में प्राप्त है]
ऋचीक :- पुराणों के अनुसार महर्षि ऋचीक, जिनका विवाह राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ हुआ था, के पुत्र जमदग्नि ऋषि हुए। जमदग्नि का विवाह अयोध्या की राजकुमारी रेणुका से हुआ जिनसे परशुराम का जन्म हुआ।
च्यवन ऋषि :: भृगु मुनि के पुत्र च्यवन महान तपस्वी थे। एक बार वे तप करने बैठे तो तप करते-करते उन्हें हजारों वर्ष व्यतीत हो गये। यहाँ तक कि उनके शरीर में दीमक-मिट्टी चढ़ गई और लता-पत्तों ने उनके शरीर को ढँक लिया। उन्हीं दिनों राजा शर्याति अपनी चार हजार रानियों और एकमात्र रूपवती पुत्री सुकन्या के साथ इस वन में आये। सुकन्या अपनी सहेलियों के साथ घूमते हुये दीमक-मिट्टी एवं लता-पत्तों से ढँके हुये तप करते च्यवन के पास पहुँच गई। उसने देखा कि दीमक-मिट्टी के टीले में दो गोल-गोल छिद्र दिखाई पड़ रहे हैं जो कि वास्तव में च्यवन ऋषि की आँखें थीं। सुकन्या ने कौतूहलवश उन छिद्रों में काँटे गड़ा दिये। काँटों के गड़ते ही उन छिद्रों से रुधिर बहने लगा। जिसे देखकर सुकन्या भयभीत हो चुपचाप वहाँ से चली गई।
आँखों में काँटे गड़ जाने के कारण च्यवन ऋषि अन्धे हो गये। अपने अन्धे हो जाने पर उन्हें बड़ा क्रोध आया और उन्होंने तत्काल शर्याति की सेना का मल-मूत्र रुक जाने का शाप दे दिया। राजा शर्याति ने इस घटना से अत्यन्त क्षुब्ध होकर पूछा कि क्या किसी ने च्यवन ऋषि को किसी प्रकार का कष्ट दिया है? उनके इस प्रकार पूछने पर सुकन्या ने सारी बातें अपने पिता को बता दी। राजा शर्याति ने तत्काल च्यवन ऋषि के पास पहुँच कर क्षमायाचना की। च्यवन ऋषि बोले कि राजन्! तुम्हारी कन्या ने भयंकर अपराध किया है। यदि तुम मेरे शाप से मुक्त होना चाहते हो तो तुम्हें अपनी कन्या का विवाह मेरे साथ करना होगा। इस प्रकार सुकन्या का विवाह च्यवन ऋषि से हो गया।
सुकन्या अत्यन्त पतिव्रता थी। अन्धे च्यवन ऋषि की सेवा करते हुये अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। हठात् एक दिन च्यवन ऋषि के आश्रम में दोनों अश्‍वनीकुमार आ पहुँचे। सुकन्या ने उनका यथोचित आदर-सत्कार एवं पूजन किया। अश्‍वनी कुमार बोले, "कल्याणी! हम देवताओं के वैद्य हैं। तुम्हारी सेवा से प्रसन्न होकर हम तुम्हारे पति की आँखों में पुनः दीप्ति प्रदान कर उन्हें यौवन भी प्रदान कर रहे हैं। तुम अपने पति को हमारे साथ सरोवर तक जाने के लिये कहो।" च्यवन ऋषि को साथ लेकर दोनों अश्‍वनीकुमारों ने सरोवर में डुबकी लगाई। डुबकी लगाकर निकलते ही च्यवन ऋषि की आँखें ठीक हो गईं और वे अश्‍वनी कुमार जैसे ही युवक बन गये। उनका रूप-रंग, आकृति आदि बिल्कुल अश्‍वनीकुमारों जैसा हो गया। उन्होंने सुकन्या से कहा कि देवि! तुम हममें से अपने पति को पहचान कर उसे अपने आश्रम ले जाओ। इस पर सुकन्या ने अपनी तेज बुद्धि और पातिव्रत धर्म से अपने पति को पहचान कर उनका हाथ पकड़ लिया। सुकन्या की तेज बुद्धि और पातिव्रत धर्म से अश्‍वनी कुमार अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन दोनों को आशीर्वाद देकर वहाँ से चले गये।
जब राजा शर्याति को च्यवन ऋषि की आँखें ठीक होने नये यौवन प्राप्त करने का समाचार मिला तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्होंने च्यवन ऋषि से मिलकर उनसे यज्ञ कराने की बात की। च्यवन ऋषि ने उन्हें यज्ञ की दीक्षा दी। उस यज्ञ में जब अश्‍वनीकुमारों को भाग दिया जाने लगा तब देवराज इन्द्र ने आपत्ति की कि अश्‍वनीकुमार देवताओं के चिकित्सक हैं, इसलिये उन्हें यज्ञ का भाग लेने की पात्रता नहीं है। किन्तु च्यवन ऋषि इन्द्र की बातों को अनसुना कर अश्‍वनी कुमारों को सोमरस देने लगे। इससे क्रोधित होकर इन्द्र ने उन पर वज्र का प्रहार किया लेकिन ऋषि ने अपने तपोबल से वज्र को बीच में ही रोककर एक भयानक राक्षस उत्पन्न कर दिया। वह राक्षस इन्द्र को निगलने के लिये दौड़ पड़ा। इन्द्र ने भयभीत होकर अश्‍वनीकुमारों को यज्ञ का भाग देना स्वीकार कर लिया और च्यवन ऋषि ने उस राक्षस को भस्म करके इन्द्र को उसके कष्ट से मुक्ति दिला दी।
विश्वामित्र :- गाधि के एक विश्वविख्‍यात पुत्र हुए जिनका नाम विश्वामित्र था जिनकी गुरु वशिष्ठ से प्रतिद्वंद्विता थी। परशुराम को शास्त्रों की शिक्षा दादा ऋचीक, पिता जमदग्नि तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा अपने पिता के मामा राजर्षि विश्वामित्र और भगवान् शंकर से प्राप्त हुई। च्यवन ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से विवाह किया।
मरीचि के पुत्र कश्यप की पत्नी अदिति से भी एक अन्य भृगु उत्त्पन्न हुए जो उनके ज्येष्ठ पुत्र थे। ये अपने माता-पिता से सहोदर दो भाई थे। आपके बड़े भाई का नाम अंगिरा ऋषि था। इनके पुत्र बृहस्पति जी हुए, जो देवगणों के पुरोहित-देव गुरु के रूप में जाने जाते हैं।
भृगु ने ही भृगु संहिता, भृगु स्मृति, भृगु संहिता-ज्योतिष, भृगु संहिता-शिल्प, भृगु सूत्र, भृगु उपनिषद, भृगु गीता आदि की रचना की। 

Photoभृगु ने ही भृगु संहिता, भृगु स्मृति,  भृगु संहिता-ज्योतिष, भृगु संहिता-शिल्प, भृगु सूत्र, भृगु उपनिषद, भृगु गीता आदि की रचना की। 
भृगु संहिता त्रिकाल अर्थात् भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों का समान रूप से प्रामाणिक ब्योरा देती है। भृगु संहिता महर्षि भृगु और उनके पुत्र शुक्राचार्य के बीच संपन्न हुए वार्तालाप के रूप में एक दुर्लभ ग्रंथ है। उसकी भाषा शैली गीता में भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के मध्य हुए संवाद जैसी है। हर बार आचार्य शुक्र एक ही सवाल पूछते हैं :-
वद् नाथ दयासिंधो जन्मलग्नषुभाषुभम्।
येन विज्ञानमात्रेण त्रिकालज्ञो भविष्यति॥  
भार्गव वंश के मूल पुरुष महर्षि भृगु थे जिनको जन सामान्य ॠचाओं के रचिता, भृगुसंहिता के रचनाकार, यज्ञों में  ब्रह्मा बनने वाले ब्राह्मण और त्रिदेवों की परीक्षा में भगवान् विष्णु की छाती पर लात मारने वाले मुनि के नाते जानता है। महर्षि भृगु का जन्म प्रचेता ब्रह्म-दक्ष प्रजापति की पत्नी वीरणी के गर्भ से हुआ था। अपनी माता से सहोदर ये दो भाई थे। इनके बड़े भाई का नाम अंगिरा था। इनके पिता प्रचेता ब्रह्मा की दो पत्नियाँ थीं। 
महर्षि भृगु के भी दो विवाह हुए, इनकी पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्य कश्यप की पुत्री दिव्या थी और दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी थी। पहली पत्नी दिव्या से भृगु मुनि के दो पुत्र हुए,जिनके नाम शुक्र और त्वष्टा रखे गए। भार्गवों में आगे चलकर आचार्य बनने के बाद शुक्र को शुक्राचार्य के नाम से और त्वष्टा को शिल्पकार बनने के बाद विश्वकर्मा के नाम से जाना गया। इन्हीं भृगु मुनि के पुत्रों को उनके मातृवंश अर्थात दैत्यकुल में शुक्र को काव्य एवं त्वष्टा को मय के नाम से जाना गया है। भृगु मुनि की दूसरी पत्नी पौलमी की तीन संताने हुईं। दो पुत्र च्यवन और ॠचीक तथा एक पुत्री हुई जिसका नाम रेणुका था। च्यवन ॠषि का विवाह शर्याति की पुत्री सुकन्या के साथ हुआ। ॠचीक का विवाह महर्षि भृगु ने राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ एक हजार श्यामकर्ण घोड़े दहेज में लेकर किया। पुत्री रेणुका का विवाह भृगु मुनि उस समय विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य) के साथ किया।
भृगु मुनि की पहली पत्नी दिव्या देवी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप और उनकी पुत्री रेणुका के पति भगवान् विष्णु में वर्चस्व की जंग छिड गई। इस लडाई में  महर्षि भृगु ने पत्न्नी के पिता दैत्यराज हिरण्य कश्यप का साथ दिया। क्रोधित भगवान् विष्णु जी ने सौतेली सास दिव्या देवी को मार डाला। इस पारिवारिक झगड़े को आगे  बढ़ने से रोकने के लिए महर्षि भृगु के पितामह ॠषि मरीचि ने भृगु को नगर से बाहर चले जाने की सलाह दिया और वह धर्मारण्य में  आ गए।
मन्दराचल पर्वत पर हो रहे यज्ञ में महर्षि भृगु को त्रिदेवों की परीक्षा लेने के लिए निर्णायक चुना गया। भगवान् शिव की परीक्षा के लिए जब भृगु कैलाश पर्वत पर पहुँचे तो उस समय भगवान् शिव माता  पार्वती के साथ विहार कर रहे थे। शिव गणों ने महर्षि को उनसे मिलने नहीं दिया। महर्षि भृगु ने भगवान् शिव को तमोगुणी मानते हुए शाप दे दिया कि आज से आपके लिंग की ही पूजा होगी। भगवान् शिव आदि देव हैं। उन पर किसी के किसी भी श्राप का असर नहीं होता, अपितु श्राप देने वाला स्वयं ही मुसीबत में फँस जाता है।
महर्षि भृगु अपने पिता भगवान् ब्रह्मा के ब्रह्मलोक पहुँचे। वहाँ इनके माता-पिता दोनों साथ बैठे थे। जिन्होंने सोचा पुत्र ही तो है, मिलने के लिए आया होगा। महर्षि का सत्कार नहीं हुआ। तब नाराज होकर इन्होंने भगवान् ब्रह्मा को रजो गुणी घोषित करते हुए शाप दिया कि आपकी कहीं पूजा नही होगी। 
श्राप देने वाला व्यक्ति अपने सृजित पुण्य नष्ट कर लेता है। अतः कैसी भी परिस्थिति क्यों न हो मनुष्य को किसी को भी कभी भी श्राप या बद्दुआ नहीं देनी चाहिए और ना ही किसी बुरा सोचना-करना चाहिये। श्राप को होनी-प्रारब्ध समझकर ग्रहण कर लेने  और पलटकर श्राप देने से अपने संचित पुण्यकर्म मनुष्य की रक्षा करते हैं। 
क्रोध में  तमतमाए महर्षि भगवान् विष्णु के श्री धाम पहुँचे। वहाँ भगवान् श्री हरी विष्णु क्षीर सागर में योग निद्रा में   थे और माता लक्ष्मी उनके पैर दबा रही थीं। क्रोधित महर्षि ने परीक्षा लेने के लिए उनकी छाती पर पैर से प्रहार किया। भगवान् विष्णु ने महर्षि का पैर पकड़ लिया और पूछा कि मेरे कठोर वक्ष से आपके पैर में चोट तो नहीं लगी। महर्षि  के पैर में तीसरी आँख थी जिससे उन्हें भविष्य का ज्ञान हो जाता था। भगवान् विष्णु उनकी इन्तजार कर ही रहे थे। उन्होंने मौके का फायदा उठाकर, उनकी तीसरी आँख मूँद दी। महर्षि  को इसका भान-आभास भी नहीं हुआ। परन्तु माँ लक्ष्मी ने उन्हें श्राप दे दिया कि उनके वंश में उत्पन्न ब्राह्मण दरिद्र ही रहें। देवी लक्ष्मी को भृगु का  ऐसा करना नहीं भाया और उन्होंने ब्राह्मण समाज को श्राप दे दिया कि उनके वंश-खानदान में मेरा (लक्ष्मी का) वास नहीं होगा और वे दरिद्र बनकर इधर उधर भटकते रहेंगे।
महर्षि भृगु बोले के मैंने यह कार्य देवताओं के कहने पर त्रिदेवों की परीक्षा लेने के लिये किया था। मैंने इसकी माफ़ी भी मान ली है, पर आपने तो मेरे साथ साथ पूरे भार्गव वंश को श्राप दे दिया। अब जो होना था वो हो गया पर मैं अपने ब्राह्मण समाज के लिए ज्योतिष ग्रन्थ का निर्माण करूँगा और जिसके आधार पर वे समस्त प्राणियों के भूत, भविष्य और वर्तमान के बारे में बता सकेंगे और दक्षिणा के रूप में धन प्राप्त कर पाएँगे और मेरे ग्रन्थ के ज्ञात किसी भी ब्राह्मण के घर में लक्ष्मी की कमी नहीं आएगी। 
भृगु की परीक्षा का आधार पर देवताओं ने देवों में भगवान् श्री हरी विष्णु को सर्वश्रेष्ठ घोषित कर किया। यद्यपि आदि देव भगवान् महादेव ही इस ब्रह्माण्ड में श्रष्टि के मूल हैं। भगवान् शिव की आयु 8 परार्ध तथा भवान ब्रह्मा और भगवान् विष्णु की आयु 2-2 परार्ध है। 
कुछ समय पश्च्यात महर्षि भृगु ने ज्योतिष ग्रन्थ लिख दिया परन्तु इसके पश्चात् भृगु को घमण्ड हो गया और वो भगवान् शिव के धाम में चले गए और घमण्ड में माता पार्वती से कहा कि मैंने ऐसा ग्रन्थ लिखा है जिससे किसी भी मनुष्य  का भूत, भविष्य और वर्तमान मालूम किया जा सकता है। माँ क्रोधित हो गयीं और उन्होंने भृगु को श्राप दे दिया कि तुम मेरे आवास में बिना अनुमति के अन्दर आ गए और अपनी विद्या पर इतना घमण्ड कर रहे हो। इसलिए तुम्हारी सारी  भविष्य वाणियाँ सच नहीं होगी।
महर्षि के परीक्षा के इस ढ़ंग से नाराज मरीचि ॠषि ने इनको प्रायश्चित करने के लिए धर्मारण्य में तपस्या करके दोषमुक्त होने के लिए गंगातट पर जाने का आदेश दिया। भृगु अपनी दूसरी पत्नी पौलमी को लेकर वहाँ आ गए। यहाँ पर उन्होने गुरुकुल स्थापित किया। उस समय यहाँ के लोग खेती करना नही जानते थे। महर्षि भृगु ने उनको खेती करने के लिए जंगल साफ़ कराकर खेती करना सिखाया। यहीं रहकर उन्होने ज्योतिष के महान ग्रन्थ भृगुसंहिता की रचना की। कालान्तर में अपनी ज्योतिष गणना से जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि इस समय यहाँ प्रवाहित हो रही गँगा नदी का पानी कुछ समय बाद सूख जाएगा तब उन्होने अपने शिष्य दर्दर को भेज कर उस समय अयोध्या तक ही प्रवाहित हो रही सरयू नदी की धारा को वहाँ मंगाकर गंगा-सरयू का संगम कराया।
भृगु संहिता ज्योतिष का आदि ग्रंथ है अपार श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है। 
महर्षि पराशर के ग्रंथ बृहत्पाराषरहोराषास्त्र में महर्षि भृगु को ही ज्योतिष शास्त्र का आदि प्रवर्तक कहा  गया है।इससे स्पष्ट हो जाता है कि भृगु नामक एक प्रकांड ज्योतिषी हुए हैं। इस तरह भृगु ऐसे भविष्यवक्ता और त्रिकालज्ञ थे।
भृगु संहिता में दृषेत शब्द बहुत बार आया है और संस्कृत के इस शब्द का अर्थ या प्रयोग देखने, दिखाई देने और दर्षित होने के संदर्भ में किया जाता है। इससे लगता है कि महर्षि भृगु को भूत और भविष्य स्पष्ट दिखाई देता था। इसमें पूर्वजन्म का विवरण भी है। एक जगह पर आचार्य शुक्र महर्षि भृगु से पूछते हैं :- 
पूर्वजन्मकृतं पापं कीदृक्चैव तपोबल। 
तद् वदस्य दयासिंधो येन भूयत्रिकालज्ञः॥ 
अधिकांष स्थलों पर पूर्वजन्म, वर्तमान जन्म तथा आने वाले जन्म का हाल भी दिया गया है। कुछ मामलों में यहांँ तक कहा गया है कि कोई व्यक्ति भृगु संहिता कब, कहाँ, किस प्रयोजन से विश्वास या अविश्वास के साथ सुनेगा। पत्नी की कुंडली के बिना ही सिर्फ पति की कुंडली के आधार पर पत्नी के बारे में व्यापक विवेचन व उसके सही होने की पुष्टि अनेक विद्वानों ने की है। भृगु संहिता में गणनाओं का उल्लेख करते समय वर्ष, महिने और दिन का भी जिक्र आता है। कुछ कुंडलियों में प्रश्नकाल के आधार भी पर गणनाएँ गईं हैं। कहीं-कहीं प्रश्नकर्ता के जन्म स्थान, निवास स्थान, पिता तथा उनके नामों के पहले अक्षरों का भी विवरण मिलता है।
पितृव्यष्च सुखं पूर्ण नागत्रिंषतषत कवेः। 
सम्यक् ब्रूमि फलं तत्र पितृव्यष्च महतरम्॥ 
यह अनुमान लगाना असंभव है कि भृगु संहिता कितने पृष्ठों की है और इसका आकार क्या है। यह दुर्लभ ग्रंथ अरबों वर्ष पूर्व भोजपत्र पर लिखा गया था। प्राचीन अनमोल ग्रंथों को नालंदा विष्वविद्यालय में जला दिया गया था। अब भी कुछ दुर्लभ पांडुलिपियाँ उपलब्ध हैं जिनमें भृगु संहिता, षंख संहिता, सुश्रुत संहिता, चरक संहिता, रावण संहिता आदि सुरक्षित हैं। इनमें भृगु संहिता इतनी विशाल है कि उसे उठाना भी कठिन है।
भृगु संहिता नाम पर अनेकों प्रकाशकों ने पुस्तकें प्रकाशित की हैं जो कि अप्रमाणिक, अनुपयोगी हैं। 
There are several names which are significant in astrology like Dev Rishi Narad, Ravan, Samudr (Ocean) and Bhagwan Kartikey. Almost all sages-saints of the status of Bhawan were blessed with insight, intuition and peep into future.


 
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Thursday, May 7, 2015

DAKSH PRAJAPTI दक्ष प्रजापति :: ब्रह्मा (1) BRAHMA

दक्ष प्रजापति
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
प्रजापति दक्ष भगवान् ब्रह्मा के दक्षिण अंगुष्ठ से उत्पन्न हुए। सृष्टा की आज्ञा से वे प्रजा की सृष्टि करने में लगे। 
सर्वप्रथम इन्होंने दस सहस्त्र हर्यश्व नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये सब समान स्वभाव के थे। पिता की आज्ञा से ये सृष्टि के निमित्त तप में प्रवृत्त हुए, परंतु देवर्षि नारद ने उपदेश देकर उन्हें विरक्त बना दिया।
दूसरी बार एक सहस्त्र शबलाश्व (सरलाश्व) नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये भी देवर्षि के उपदेश से यति हो गये। दक्ष को रोष आया। उन्होंने देवर्षि को शाप दे दिया कि तुम दो घड़ी से अधिक कहीं स्थिर न रह सकोगे। भगवान्  ब्रह्मा ने प्रजापति को शान्त किया। अब मानसिक सृष्टि से वे उपरत हुए।
प्रजापति दक्ष की पत्नियाँ :- उनका पहला विवाह स्वायंभुव मनु की तृतीय पुत्री प्रसूति से हुआ। उन्होंने प्रजापति वीरण की कन्या असिकी-वीरणी दूसरी पत्नी बनाया। प्रसूति से दक्ष की 24 कन्याएं थीं और वीरणी से 60 कन्याएं। इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियां थीं। इनमें 10 धर्म को, 13 महर्षि कश्यप को, 27 चंद्रमा को, एक पितरों को, एक अग्नि को और एक भगवान् शिव को ब्याही गयीं। महर्षि कश्यप को विवाहित 13 कन्याओं से ही जगत के समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। वे लोकमाताएँ कही जाती हैं। समस्त दैत्य, गंधर्व, अप्सराएं, पक्षी, पशु सब सृष्टि इन्हीं कन्याओं से उत्पन्न हुई। दक्ष की ये सभी कन्याएं, देवी, यक्षिणी, पिशाचिनी आदि कहलाईं। उक्त कन्याओं और इनकी पुत्रियों को ही किसी न किसी रूप में पूजा जाता है। 
अदिति से आदित्य (देवता), दिति से दैत्य, दनु से दानव, काष्ठा से अश्व आदि, अरिष्ठा से गंधर्व, सुरसा से राक्षस, इला से वृक्ष, मुनि से अप्सरागण, क्रोधवशा से सर्प, ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि, सुरभि से गौ और महिष, सरमा से श्वापद (हिंस्त्र पशु) और तिमि से यादोगण (जल-जंतु) आदि उत्पन्न हुए।
प्रसूति से दक्ष की 24 पुत्रियाँ :- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, सिद्धि, कीर्ति, ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनुसूया, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा।
पुत्रियों के पति के नाम :- पर्वत राजा दक्ष ने अपनी 13 पुत्रियों का विवाह धर्म से किया। ये 13 पुत्रियाँ हैं :- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, सिद्धि और कीर्ति। धर्म से वीरणी की 10 कन्याओं का विवाह हुआ। मरुवती, वसु, जामी, लंबा, भानु, अरुंधती, संकल्प, महूर्त, संध्या और विश्वा।
इसके बाद ख्याति का विवाह महर्षि भृगु से, सती का विवाह रुद्र (भगवान् शिव) से, सम्भूति का विवाह महर्षि मरीचि से, स्मृति का विवाह महर्षि अंगीरस से, प्रीति का विवाह महर्षि पुलत्स्य से, सन्नति का कृत से, अनुसूया का महर्षि अत्रि से, ऊर्जा का महर्षि वशिष्ठ से, स्वाहा का अग्नि से और स्वधा का पितृस से हुआ।
इसमें सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध रुद्र-भगवान् शिव से विवाह किया। माँ पार्वती और भगवान् शिव के दो पुत्र और एक पुत्री हैं। पुत्र-गणेश, कार्तिकेय और पुत्री वनलता।
वीरणी से दक्ष की साठ पुत्रियाँ :- मरुवती, वसु, जामी, लंबा, भानु, अरुंधती, संकल्प, महूर्त, संध्या, विश्वा, अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवषा, तामरा, सुरभि, सरमा, तिमि, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी, रति, स्वरूपा, भूता, स्वधा, अर्चि, दिशाना, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी।
चंद्रमा से 27 कन्याओं का विवाह :- कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी। इन्हें नक्षत्र कन्या भी कहा जाता है। हालांकि अभिजीत को मिलाकर कुल 28 नक्षत्र माने गए हैं। उक्त नक्षत्रों के नाम इन कन्याओं के नाम पर ही रखे गए हैं।
9 कन्याओं का विवाह :- रति का विवाह कामदेव से, स्वरूपा का भूत से, स्वधा का अंगिरा प्रजापति से, अर्चि और दिशाना का कृशश्वा से, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी का तार्क्ष्य कश्यप से। 
इनमें से विनीता से गरूड़ और अरुण, कद्रू से नाग, पतंगी से पतंग और यामिनी से शलभ उत्पन्न हुए।
भगवान् शिव से विवाद करके दक्ष ने उन्हें यज्ञ में भाग नहीं दिया। पिता के यज्ञ में रुद्र के भाग न देखकर माता सती ने योगाग्नि से शरीर छोड़ दिया। भगवान् शिव पत्नी के देहत्याग से रुष्ट हुए। उन्होंने वीरभद्र को भेजा। वीरभद्र ने दक्ष का मस्तक दक्षिणाग्नि में हवन कर दिया। देवताओं की प्रार्थना पर तुष्ट होकर भगवान् शिव ने सद्योजात प्राणी के सिर से दक्ष को जीवन का वरदान दिया। बकरे का मस्तक तत्काल मिल सका। तबसे प्रजापति दक्ष ‘अजमुख’ हो गए।
वीरभद्र के रोम-कूपों से अनेक रौम्य नामक गणेश्वर प्रकट हुए थे। वे विध्वंस कार्य में लगे हुए थे। दक्ष की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने अग्नि के समान ओजस्वी रूप में दर्शन दिये और उसकी मनोकामना जानकर यज्ञ के नष्ट-भ्रष्ट तत्त्वों को पुन: ठीक कर दिया।
दक्ष ने एक हज़ार आठ नामों (शिव सहस्त्र नाम स्तोत्र) से भगवान् शिव की आराधना की और उनकी शरण ग्रहण की। भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर उसे एक हज़ार अश्वमेध यज्ञों, एक सौ वाजपेय यज्ञों तथा पाशुपत् व्रत का फल प्रदान किया।
Please refer to :: MAHA KAL BHAGWAN SHIV भगवान् शिव santoshsuvichar.blogspot.com
प्रचेता दक्ष का नारद जी को शाप :: 
परीक्षित जी ने पूछा :- गुरुदेव! प्रचेता दक्ष का क्या हुआ? जो प्राचीनवर्हि के पौत्र हैं।
शुकदेव जी बोले :- राजन! मैंने तुम्हें बताया कि प्राचीनवर्हि के 10 पुत्र हुए। जो प्रचेता कहलाते हैं। इनका विवाह पारुषी कन्या से हुआ। जिससे दक्ष नाम का पुत्र हुआ और प्रचेताओं ने दक्ष को राजा बनाकर वन की ओर चले गए।
जब प्रचेता दक्ष राजा बने तो सबसे पहले तपस्या की, भगवान् प्रसन्न हुए और “असिक्नी” नाम की कन्या को सौंपकर बोले पुत्र अब तुम इसे पत्नी रूप में स्वीकार करो और सृष्टि विस्तार करो। इतना कह भगवान अंतर्धान हो गए।
शुक देव जी कहते हैं :- राजन! इस प्रकार कालांतर में प्रचेता दक्ष ने 10 हजार पुत्र उतपन्न किए और उन पुत्रों से भी कहा पुत्रो! अब तुम भी विवाह कर सृष्टि का विस्तार करने में मेरी मदद करो। तब उन पुत्रों ने कहा अवश्य पिताजी, परंतु सबसे पहले हम तपस्या करना चाहते हैं और इतना कह, वे सभी वन की ओर चल पड़े।
रास्ते में ही नारद जी से भेंट हो गई। नारदजी बोले :- पुत्रो! तुम सब एक साथ कहाँ जा रहे हो? उन दक्ष पुत्रों ने देवर्षि को प्रणाम किया और बोले :- महाराज हम सभी तपस्या करने जा रहे हैं। उसके बाद पिताजी के आदेशानुसार विवाह करके सृष्टि विस्तार में सहयोग करेंगे।
नारद जी बोले :- वाह क्या बढ़िया कार्य पाया है, तुम लोगों ने, क्या तुम्हारा जन्म मात्र संतानोत्पत्ति के लिए हुआ है? नहीं तुम्हारा यह जन्म तो उस परमात्मा के सानिध्य प्राप्ति के लिए है जिसके लिए सन्त, महात्मा तरसते है। उपदेश पा कर दक्ष के सभी 10 हजार पुत्र ईश्वर मार्ग की ओर चले गए।
दक्ष को जब इस बात का ज्ञान हुआ कि नारद जी ने मेरे पुत्रों को कर्तव्य पथ से विमुख कर दिया तो फिर से उन्होंने एक हजार पुत्र उत्पन्न किए। नारद जी ने उनको भी मोक्ष का रास्ता बताया। जब फिर इस बात का पता चला तो दक्ष ने नारद जी को शाप दे दिया।
अहो असाधो साधुनां साधुलिंगेन नास्त्वया। 
असाध्वकार्यर्भकाणां भिक्षोर्मार्ग: प्रदर्शित:॥
अरे असाधू! तू तो साधू कहलाने के लायक ही नहीं है, तू मेरे भोले-भाले बच्चों को भिखमंगो का मार्ग बताता है। जा मैं तुझे शाप देता हूँ कि तुम कहीं भी स्थिर न बैठ सको, इस लोका-लोक में भटकते रहो।[श्री मद्भागवत महापुराण​ 36.5.6]
शुकदेव जी कहते हैं, नारद जी दक्ष के इस शाप को स्वीकार कर के अंतर्ध्यान हो गए। अब इस बार दक्ष ने 60 कन्याएं उत्पन्न करी, दक्ष ने इनमें से 10 कन्याएँ धर्म को 13 कश्यप ऋषि को सत्ताइस चंद्र देव को, दो भूत को, दो अंगिरा को, दो कृशाश्व को और शेष चार तार्क्ष्य नाम धारी कश्यप को व्याही।
 
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संतोष महादेव-सिद्ध व्यास पीठ, बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा