Thursday, December 31, 2015

भगवती जागरण NIGHT VIGIL*

भगवती जागरण NIGHT VIGIL
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
भगवती जागरण हेतु तारा कथा NIGHT VIGIL FOR LISTENING THE STORY OF VIRTUOUS QUEEN TARA DEVOTED TO MAA BHAGWATI :: माता के जागरण में महारानी तारा देवी की कथा कहने व सुनने की परम्‍परा दिल्ली जैसे शहरों में पिछले कुछ सालों में देखी गई है। यह विशेषतः पाकिस्तान से आये व्यक्तियों-परिवारों में ज़्यादा प्रचलित है। बिना इस कथा के जागरण को पूरा नहीं माना जाता।
राजा स्‍पर्श माँ भगवती के पुजारी थे और रात-दिन महामाई की पूजा किया करते थे। माँ ने भी उन्हें राजपाट, धन-दौलत, ऐशो-आराम के सभी साधन दिये थे, कमी थी तो सिर्फ यह कि उनके घर में कोई संतान नही थी। यह गम उन्हें दिन-रात सताता था। वो माँ से यही प्रार्थना करते थे कि माँ उन्हें एक लाल बख्‍श दें, ताकि वे भी संतान का सुख भोग सकें। उनके  पीछे भी उनका नाम लेने वाला हो, उनका वंश  चलता रहे। माँ ने उसकी पुकार सुन ली। एक दिन माँ ने आकर राजा को स्‍वप्‍न में दर्शन दिये और कहा कि मैं उसकी तेरी भक्ति से बहुत प्रसन्‍न हूँ। उन्होंने राजा को दो पुत्रियाँ प्राप्त होने का वरदान दिया।
कुछ समय के बाद राजा के घर में एक कन्‍या ने जन्‍म लिया, राजा ने अपने राज दरबारियों को बुलाया, पण्डितों व ज्‍योतिषों को बुलाया और बच्‍ची की जन्‍म कुण्‍डली तैयार करने का आदेश दिया। पण्डित तथा ज्‍योतिषियों ने उस बच्‍ची की जन्‍म कुण्‍डली तैयार की और कहा कि वो कन्‍या तो साक्षात देवी है। यह कन्‍या जहाँ भी कदम रखेगी, वहाँ खुशियाँ ही खुशियाँ होंगी। कन्‍या भी भगवती की पुजारिन होगी। उस कन्‍या का नाम तारा रखा गया। थोड़े समय बाद राजा के घर वरदान के अनुसार एक और कन्‍या ने जन्‍म लिया। मंगलवार का दिन था।  पण्डितों और ज्‍योतिषियों ने जब जन्‍म कुण्‍डली तैयार की तो उदास हो गये। राजा ने उदासी का कारण पूछा तो वे कहने लगे कि वह कन्‍या राजा के लिये शुभ नहीं है। राजा ने उदास होकर ज्‍योतिषियों से पूछा कि उन्होंने ऐसे कौन से बुरे कर्म किये हैं, जो कि इस कन्‍या ने उनके घर में जन्‍म लिया!? उस समय ज्‍योतिषियों ने ज्‍योतिष से अनुमान लगाकर बताया कि वे दोनों कन्‍याएं; जिन्‍होंने उनके घर में जन्‍म लिया था, पूर्व जन्‍म में देवराज इन्‍द्र के दरबार की अप्‍सराएं थीं। उन्‍होंने सोचा कि वे भी मृत्‍युलोक में भ्रमण करें तथा देखें कि मृत्‍युलोक में लोग किस तरह रहते हैं। दोनो ने मृत्‍युलोक पर आकर एकादशी का व्रत रखा। बड़ी बहन का नाम तारा था तथा छोटी बहन का नाम रूक्‍मन। बड़ी बहन तारा ने अपनी छोटी बहन से कहा कि रूक्‍मन आज एकादशी का व्रत है, हम लोगों ने आज भोजन नहीं करना, अतः वो बाजार जाकर फल कुछ ले आये। रूक्‍मन बाजार फल लेने के लिये गई। वहाँ उसने मछली के पकोड़े बनते देखे। उसने अपने पैसों के तो पकोड़े खा लिये तथा तारा के लिये फल लेकर वापस आ गई और फल उसने तारा को दे दिये। तारा के पूछने पर उसने बताया कि उसने मछली के पकोड़े खा लिये हैं।
तारा ने उसको एकादशी के दिन माँस खाने के कारण शाप दिया कि वो निम्न योनियों में गिरे। छिपकली बनकर सारी उम्र ही कीड़े-मकोड़े खाती रहे। उसी देश में एक ऋषि गुरू गोरख अपने शिष्‍यों के साथ रहते थे। उनके शिष्‍यों में एक शिष्य तेज स्‍वभाव का तथा घमण्‍डी था। एक दिन वो घमण्‍डी शिष्‍य पानी का कमण्‍डल भरकर खुले स्‍थान में, एकान्‍त में, जाकर तपस्‍या पर बैठ गया। वो अपनी तपस्‍या में लीन था, उसी समय उधर से एक प्‍यासी कपिला गाय आ गई। उस ऋषि के पास पड़े कमण्‍डल में पानी पीने के लिए उसने मुँह डाला और सारा पानी पी गई। जब कपिता गाय ने मुँह बाहर निकाला तो खाली कमण्‍डल की आवाज सुनकर उस ऋषि की समाधि टूटी। उसने देखा कि गाय ने सारा पानी पी लिया था। ऋषि ने गुस्‍से में आ उस कपिला गाय को बहुत बुरी तरह चिमटे से मारा; जिससे वह गाय लहुलुहान हो गई। यह खबर गुरू गोरख को मिली तो उन्‍होंने कपिला गाय की हालत देखी। उन्होंने अपने उस शिष्य को बहुत बुरा-भला कहा और उसी वक्‍त आश्रम से निकाल दिया। गुरू गोरख ने गौ माता पर किये गये पाप से छुटकारा पाने के लिए कुछ समय बाद एक यज्ञ रचाया। इस यज्ञ का पता उस शिष्‍य को भी चल गया, जिसने कपिला गाय को मारा था। उसने सोचा कि वह अपने अपमान का बदला जरूर लेगा। यज्ञ शुरू होने उस शिष्य ने एक पक्षी का रूप धारण किया और चोंच में सर्प लेकर भण्‍डारे में फेंक दिया; जिसका किसी को पता न चला। वह छिपकली जो पिछले जन्‍म में तारा देवी की छोटी बहन थी तथा बहन के शाप को स्‍वीकार कर छिपकली बनी थी, सर्प का भण्‍डारे में गिरना देख रही थी। उसे त्‍याग व परोपकार की शिक्षा अब तक याद थी। वह भण्‍डारा होने तक घर की दीवार पर चिपकी समय की प्रतीक्षा करती रही। कई लोगों के प्राण बचाने हेतु उसने अपने प्राण न्‍योछावर कर लेने का मन ही मन निश्‍चय किया। जब खीर भण्‍डारे में दी जाने वाली थी, बाँटने वालों की आँखों के सामने ही वह छिपकली दीवार से कूदकर कढ़ाई में जा गिरी। लोग छिपकली को बुरा-भला कहते हुये खीर की कढ़ाई को खाली करने लगे तो उन्‍होंने उसमें मरे हुये सांप को देखा।  तब जाकर सबको मालूम हुआ कि छिपकली ने अपने प्राण देकर उन सबके प्राणों की रक्षा की थी। उपस्थित सभी सज्‍जनों और देवताओं ने उस छिपकली के लिए प्रार्थना की कि उसे सब योनियों में उत्‍तम मनुष्‍य जन्‍म प्राप्‍त हो तथा अन्‍त में वह मोक्ष को प्राप्‍त करे। तीसरे जन्‍म में वह छिपकली राजा स्‍पर्श के घर कन्‍या के रूप में जन्‍मी। दूसरी बहन तारा देवी ने फिर मनुष्‍य जन्‍म लेकर तारामती नाम से अयोध्‍या के प्रतापी राजा हरिश्‍चन्‍द्र के साथ विवाह किया।
राजा स्‍पर्श ने ज्‍योतिषियों से कन्‍या की कुण्‍डली बनवाई ज्‍योतिषियों ने राजा को बताया कि कन्‍या आपके लिये हानिकारक सिद्ध होगी, शकुन ठीक नहीं है। अत: वे उसे मरवा दें। राजा बोले कि लड़की को मारने का पाप बहुत बड़ा है। वे उस पाप का भागी नहीं बन सकते।
तब ज्‍योतिषियों ने विचार करके राय दी कि राजा उसे एक लकड़ी के सन्‍दूक में बन्द करके ऊपर से सोना-चांदी आदि जड़वा दें और फिर उस सन्‍दूक के भीतर लड़की को बन्‍द करके नदी में प्रवाहित करवा दें। सोने-चाँदी से जड़ा हुआ सन्‍दूक अवश्‍य ही कोई लालच में आकर निकाल लेगा और राजा को कन्या वध का पाप भी नहीं लगेगा। ऐसा ही किया गया और नदी में बहता हुआ सन्‍दूक काशी के समीप एक भंगी को दिखाई दिया तो वह सन्‍दूक को नदी से बाहर निकाल लाया।
उसने जब सन्‍दूक खोला तो सोने-चाँदी के अतिरिक्‍त अत्‍यन्‍त रूपवान कन्‍या दिखाई दी। उस भंगी के कोई संतान नहीं थी। उसने अपनी पत्‍नी को वह कन्‍या लाकर दी तो पत्‍नी की प्रसन्‍नता का ठिकाना न रहा। उसने अपनी संतान के समान ही बच्‍ची को छाती से लगा लिया। भगवती की कृपा से उसके स्‍तनों में दूध उतर आया, पति-पत्‍नी दोनों ने प्रेम से कन्‍या का नाम रूक्‍को रख दिया। रूक्‍को बड़ी हुई तो उसका विवाह हुआ। रूक्‍को की सास महाराजा हरिश्‍चन्‍द्र के घर सफाई आदि का काम करने जाया करती थी। एक दिन वह बीमार पड़ गई तो तो रूक्‍को महाराजा हरिश्‍चन्‍द्र के घर काम करने के लिये पहुँच गई। महाराज की पत्‍नी तारामती ने जब रूक्‍को को देखा तो वह अपने पूर्व जन्‍म के पुण्‍य से उसे पहचान गई। तारामती ने रूक्‍को से कहा कि वो उसके पास आकर बैठे। महारानी की बात सुनकर रूक्‍को बोली कि वो एक नीचि जाति की भंगिन है, भला वह रानी के पास कैसे बैठ सकती थी?
तब तारामती ने उसे बताया कि वह उसके पूर्व जन्‍म के सगी बहन थी। एकादशी का व्रत खंडित करने के कारण उसे छिपकली की योनि में जाना पड़ा। जो होना था वो तो हो चुका। अ‍ब उसे अपने वर्तमान जन्म को सुधारने का उपाय करना चाहिये और भगवती वैष्‍णों माता की सेवा करके अपना जन्‍म सफल बनाना चाहिये। यह सुनकर रूक्‍को को बड़ी प्रसन्‍नता हुई और जब उसने उपाय पूछा तो रानी ने बताया कि वैष्‍णों माता सब मनोरथों को पूरा करने वाली हैं। जो लोग श्रद्धापूर्वक माता का पूजन व जागरण करते हैं, उनकी सब मनोकाना पूर्ण होती हैं।
रूक्‍को ने प्रसन्‍न होकर माता की मनौती मानते हुये कहा कि यदि माता की  कृपा से उसे  एक पुत्र प्राप्‍त हो गया तो वो माता का पूजन व जागरण करायेगी। माता ने प्रार्थना को स्‍वीकार कर लिया। फलस्‍वरूप दसवें महीने उसके गर्भ से एक अत्‍यन्‍त सुन्‍दर बालक ने जन्‍म लिया; परन्‍तु दुर्भाग्‍यवश रूक्‍को को माता का पूजन-जागरण कराने का ध्‍यान न रहा। जब वह बालक पाँच वर्ष का हुआ तो एक दिन उसे माता (चेचक) निकल आई। रूक्‍को दु:खी होकर अपने पूर्वजन्‍म की बहन तारामती के पास आई और बच्‍चे की बीमारी का सब वृतान्‍त कह सुनाया। तब तारामती ने पूछा कि उससे माता के पूजन में कोई भूल तो नहीं हुई? इस पर रूक्‍को को छह वर्ष पहले की बात याद आ गई। उसने अपराध स्‍वीकार कर लिया। उसने फिर मन में निश्‍चय किया कि बच्‍चे को आराम आने पर जागरण अवश्‍य करवायेगी।
भगवती की कृपा से बच्‍चा दूसरे दिन ही ठीक हो गया। तब रूक्‍को ने देवी के मन्दिर में ही जाकर पंडित से कहा कि उसे अपने घर माता का जागरण करना है, अत: वे मंगलवार को उसके घर पधार कर कृतार्थ करें।
पंडित जी बोले कि वहीं पाँच रूपये देती जाये। पण्डित जी ने उसके नाम से मन्दिर में ही जागरण करवा देंगे। क्योंकि वह एक नीच जाति की स्‍त्री है, इसलिए वे उसके घर  में जाकर देवी का जागरण नहीं कर सकते। रूक्‍को ने कहा कि माता के दरबार में तो ऊँच-नीच का कोई विचार नहीं होता। वे तो सब भक्‍तों पर समान रूप से कृपा करती हैं। अत: उनको कोई एतराज नहीं होना चाहिए। इस पर पंडित ने आपस में विचार करके कहा कि यदि महारानी उसके जागरण में पधारें; तब तो वे भी स्‍वीकार कर लेंगे।
यह सुनकर रूक्‍को महारानी के पास गई और सब वृतान्‍त कर सुनाया। तारामती ने जागरण में सम्मिलित होना सहर्ष स्‍वीकार कर लिया। जिस समय रूक्‍को पंडितों से यह कहने के लिये गई महारानी जी जागरण में आवेंगी, उस समय सेन नाम का नाई वहाँ मौजूद था। उसने सब सुन लिया और महाराजा हरिश्‍चन्‍द्र को जाकर सूचना दी।
राजा को सेन नाई की बात पर विश्‍वास नहीं हुआ कि महारानी भंगियों के घर जागरण में नहीं जा सकती हैं। फिर भी परीक्षा लेने के लिये उसने रात को अपनी अँगुली पर थोड़ा सा चीरा लगा लिया, जिससे नींद न आए।***
रानी तारामती ने जब देखा कि जागरण का समय हो रहा है, परन्‍तु महाराज को नींद नहीं आ रही तो उसने माता वैष्‍णों देवी से मन ही मन प्रार्थना की कि माता, किसी उपाय से राजा को सुला दें ताकि वो जागरण में सम्मिलित हो सके।
राजा को नींद आ गई, तारामती रोशनदान से रस्‍सा बाँधकर महल से उतरीं और रूक्‍को के घर जा पहुँची। उस समय जल्‍दी के कारण रानी के हाथ से रेशमी रूमाल तथा पाँव का एक कंगन रास्‍ते में ही गिर गया। थोड़ी देर बाद राजा हरिश्‍चन्‍द्र की नींद खुल गई। वह भी रानी का पता लगाने निकल पड़े। उन्हें मार्ग में रानी का कंगन व रूमाल दिखा। राजा ने दोनों चीजें रास्‍ते से उठाकर अपने पास रख लीं और जहाँ जागरण हो रहा था, वहाँ जा पहुँचे और वह एक कोने में चुपचाप बैठकर दृश्‍य देखने लगे।
जब जागरण समाप्‍त हुआ तो सबने माता की अरदास की, उसके बाद प्रसाद बाँटा गया, रानी तारामती को जब प्रसाद मिला तो उन्होंने झोली में रख लिया।
यह देख लोगों ने पूछा कि उन्होंने वह प्रसाद क्‍यों नहीं खाया!?
यदि रानी प्रसाद नहीं खाएंगी तो कोई भी प्रसाद नहीं खाएगा। रानी बोली कि पंडितों ने प्रसाद  दिया, वह उन्होंने महाराज के लिए रख लिया था। अब उन्हें उनका प्रदान करें। प्रसाद ले तारा ने खा लिया। इसके बाद सब भक्‍तों ने माँ का प्रसाद खाया, इस प्रकार जागरण समाप्‍त करके, प्रसाद खाने के पश्‍चात् रानी तारामती महल की तरफ चलीं।
तब राजा ने आगे बढ़कर रास्‍ता रोक लिया और कहा कि रानी ने नीचों के घर का प्रसाद खाकर अपना धर्म भ्रष्‍ट कर लिया था। अब वे उन्हें अपने घर कैसे रखें? रानी ने तो कुल की मर्यादा व प्रतिष्‍ठा का भी ध्‍यान नहीं रखा। जो प्रसाद वे अपनी झोली में राजा के लिये लाई थीं; क्या उसे खिला कर वे राजा को भी अपवित्र करना चाहती थीं?
ऐसा कहते हुऐ जब राजा ने झोली की ओर देखा तो भगवती की कृपा से प्रसाद के स्‍थान पर उसमें चम्‍पा, गुलाब, गेंदे के फूल, कच्‍चे चावल और सुपारियां दिखाई दीं यह चमत्‍कार देख राजा आश्‍चर्यचकित रह गया, राजा हरिश्चंद्र रानी तारा को साथ ले महल लौट आए, वहीं रानी ने ज्‍वाला मैया की शक्ति से बिना माचिस या चकमक पत्‍थर की सहायता के राजा को अग्नि प्रज्‍वलित करके दिखाई, जिसे देखकर राजा का आश्‍चर्य और बढ़ गया।
रानी बोलीं  कि प्रत्‍यक्ष दर्शन पाने के लिऐ बहुत बड़ा त्‍याग होना चाहिए। यदि आप अपने पुत्र रोहिताश्‍व की बलि दे सकें तो आपको दुर्गा देवी के प्रत्‍यक्ष दर्शन हो जाएंगे। राजा के मन में तो देवी के दर्शन की लगन हो गई थी, राजा ने पुत्र मोह त्‍याग‍कर रोहिताश्‍व का सिर देवी को अर्पण कर दिया। ऐसी सच्‍ची श्रद्धा एवं विश्‍वास देख दुर्गा माता, सिंह पर सवार हो उसी समय प्रकट को गईं और राजा हरिश्‍चन्‍द्र दर्शन करके कृतार्थ हो गए, मरा हुआ पुत्र भी जीवित हो गया।
चमत्‍कार देख राजा हरिश्‍चन्‍द्र गदगद हो गये, उन्‍होंने विधि पूर्वक माता का पूजन करके अपराधों की क्षमा माँगी। सुखी रहने का आशीर्वाद दे माता अन्‍तर्ध्‍यान हो गईं। राजा ने तारा रानी की भक्ति की प्रशंसा करते हुऐ कहा कि वे रानी के  आचरण से अति प्रसन्‍न हैं। उनके धन्‍य भाग, जो वे उसे पत्‍नी रूप में प्राप्‍त हुईं।
आयुपर्यन्‍त सुख भोगने के पश्‍चात् राजा हरिश्‍चन्‍द्र, रानी तारा एवं रूक्‍मन भंगिन तीनों ही मनुष्‍य योनि से छूटकर देवलोक को प्राप्‍त हुये।
माता के जागरण में तारा रानी की कथा को जो मनुष्‍य भक्तिपूर्वक पढ़ता या सुनता है, उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, सुख-समृद्धि बढ़ती है, शत्रुओं का नाश होता है। इस कथा के बिना माता का जागरण पूरा नहीं माना जाता।
Till now I have not found this story in scriptures. If any one finds it, he many please give-forward the text and the source to me. I will be grateful to him.
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)
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Thursday, December 24, 2015

XXX दक्ष प्रजापति

दक्ष प्रजापति
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]  
प्रजापति दक्ष भगवान् ब्रह्मा के दक्षिणा अंगुष्ठ से उत्पन्न हुए। सृष्टा की आज्ञा से वे प्रजा की सृष्टि करने में लगे। 
सर्वप्रथम इन्होंने दस सहस्त्र हर्यश्व नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये सब समान स्वभाव के थे। पिता की आज्ञा से ये सृष्टि के निमित्त तप में प्रवृत्त हुए, परंतु देवर्षि नारद ने उपदेश देकर उन्हें विरक्त बना दिया।
दूसरी बार एक सहस्त्र शबलाश्व (सरलाश्व) नामक पुत्र उत्पन्न किये। ये भी देवर्षि के उपदेश से यति हो गये। दक्ष को रोष आया। उन्होंने देवर्षि को शाप दे दिया कि तुम दो घड़ी से अधिक कहीं स्थिर न रह सकोगे। भगवान्  ब्रह्मा ने प्रजापति को शान्त किया। अब मानसिक सृष्टि से वे उपरत हुए।
प्रजापति दक्ष की पत्नियाँ :- उनका पहला विवाह स्वायंभुव मनु की तृतीय पुत्री प्रसूति से हुआ। उन्होंने प्रजापति वीरण की कन्या असिकी-वीरणी दूसरी पत्नी बनाया। प्रसूति से दक्ष की 24 कन्याएं थीं और वीरणी से 60 कन्याएं। इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियां थीं। इनमें 10 धर्म को, 13 महर्षि कश्यप को, 27 चंद्रमा को, एक पितरों को, एक अग्नि को और एक भगवान् शंकर को ब्याही गयीं। महर्षि कश्यप को विवाहित 13 कन्याओं से ही जगत के समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। वे लोकमाताएँ कही जाती हैं। समस्त दैत्य, गंधर्व, अप्सराएं, पक्षी, पशु सब सृष्टि इन्हीं कन्याओं से उत्पन्न हुई। दक्ष की ये सभी कन्याएं, देवी, यक्षिणी, पिशाचिनी आदि कहलाईं। उक्त कन्याओं और इनकी पुत्रियों को ही किसी न किसी रूप में पूजा जाता है। 
अदिति से आदित्य (देवता), दिति से दैत्य, दनु से दानव, काष्ठा से अश्व आदि, अरिष्ठा से गंधर्व, सुरसा से राक्षस, इला से वृक्ष, मुनि से अप्सरागण, क्रोधवशा से सर्प, ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि, सुरभि से गौ और महिष, सरमा से श्वापद (हिंस्त्र पशु) और तिमि से यादोगण (जलजंतु) आदि उत्पन्न हुए। 
प्रसूति से दक्ष की 24 पुत्रियाँ :- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, सिद्धि, कीर्ति, ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनुसूया, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा।
पुत्रियों के पति के नाम :- पर्वत राजा दक्ष ने अपनी 13 पुत्रियों का विवाह धर्म से किया। ये 13 पुत्रियाँ हैं :- श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शांति, सिद्धि और कीर्ति। धर्म से वीरणी की 10 कन्याओं का विवाह हुआ। मरुवती, वसु, जामी, लंबा, भानु, अरुंधती, संकल्प, महूर्त, संध्या और विश्वा।
इसके बाद ख्याति का विवाह महर्षि भृगु से, सती का विवाह रुद्र (भगवान् शिव) से, सम्भूति का विवाह महर्षि मरीचि से, स्मृति का विवाह महर्षि अंगीरस से, प्रीति का विवाह महर्षि पुलत्स्य से, सन्नति का कृत से, अनुसूया का महर्षि अत्रि से, ऊर्जा का महर्षि वशिष्ठ से, स्वाहा का अग्नि से और स्वधा का पितृस से हुआ।
इसमें सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध रुद्र-भगवान् शिव से विवाह किया। माँ पार्वती और भगवान् शंकर के दो पुत्र और एक पुत्री हैं। पुत्र-गणेश, कार्तिकेय और पुत्री वनलता।
वीरणी से दक्ष की साठ पुत्रियाँ :- मरुवती, वसु, जामी, लंबा, भानु, अरुंधती, संकल्प, महूर्त, संध्या, विश्वा, अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवषा, तामरा, सुरभि, सरमा, तिमि, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी, रति, स्वरूपा, भूता, स्वधा, अर्चि, दिशाना, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी।
चंद्रमा से 27 कन्याओं का विवाह :- कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, सुन्रिता, पुष्य, अश्लेषा, मेघा, स्वाति, चित्रा, फाल्गुनी, हस्ता, राधा, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मुला, अषाढ़, अभिजीत, श्रावण, सर्विष्ठ, सताभिषक, प्रोष्ठपदस, रेवती, अश्वयुज, भरणी। इन्हें नक्षत्र कन्या भी कहा जाता है। हालांकि अभिजीत को मिलाकर कुल 28 नक्षत्र माने गए हैं। उक्त नक्षत्रों के नाम इन कन्याओं के नाम पर ही रखे गए हैं।
9 कन्याओं का विवाह :- रति का कामदेव से, स्वरूपा का भूत से, स्वधा का अंगिरा प्रजापति से, अर्चि और दिशाना का कृशश्वा से, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी का तार्क्ष्य कश्यप से। 
इनमें से विनीता से गरूड़ और अरुण, कद्रू से नाग, पतंगी से पतंग और यामिनी से शलभ उत्पन्न हुए।
भगवान् शंकर से विवाद करके दक्ष ने उन्हें यज्ञ में भाग नहीं दिया। पिता के यज्ञ में रुद्र के भाग न देखकर माता सती ने योगाग्नि से शरीर छोड़ दिया। भगवान् शंकर पत्नी के देहत्याग से रुष्ट हुए। उन्होंने वीरभद्र को भेजा। वीरभद्र ने दक्ष का मस्तक दक्षिणाग्नि में हवन कर दिया। देवताओं की प्रार्थना पर तुष्ट होकर भगवान् शंकर ने सद्योजात प्राणी के सिर से दक्ष को जीवन का वरदान दिया। बकरे का मस्तक तत्काल मिल सका। तबसे प्रजापति दक्ष ‘अजमुख’ हो गए।
वीरभद्र के रोम-कूपों से अनेक रौम्य नामक गणेश्वर प्रकट हुए थे। वे विध्वंस कार्य में लगे हुए थे। दक्ष की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने अग्नि के समान ओजस्वी रूप में दर्शन दिये और उसकी मनोकामना जानकर यज्ञ के नष्ट-भ्रष्ट तत्त्वों को पुन: ठीक कर दिया।
दक्ष ने एक हज़ार आठ नामों (शिव सहस्त्र नाम स्तोत्र) से भगवान् शिव की आराधना की और उनकी शरण ग्रहण की। भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर उसे एक हज़ार अश्वमेध यज्ञों, एक सौ वाजपेय यज्ञों तथा पाशुपत् व्रत का फल प्रदान किया।
प्रचेता दक्ष का नारद जी को शाप :: 
परीक्षित जी ने पूछा :- गुरुदेव! प्रचेता दक्ष का क्या हुआ? जो प्राचीनवर्हि के पौत्र हैं।
शुकदेव जी बोले :- राजन! मैंने तुम्हें बताया कि जो प्राचीनवर्हि थे, उनके 10 पुत्र हुए। यही तो प्रचेता कहलाते हैं। इनका विवाह पारुषी कन्या से हुआ। जिससे दक्ष नाम का पुत्र हुआ और प्रचेताओं ने दक्ष को राजा बनाकर वन की ओर चले गए।
जब प्रचेता दक्ष राजा बने तो सबसे पहले तपस्या की, भगवान् प्रसन्न हुए और “असिक्नी” नाम की कन्या को सौंपकर बोले पुत्र अब तुम इसे पत्नी रूप में स्वीकार करो और सृष्टि विस्तार करो। इतना कह भगवान अंतर्धान हो गए।
शुकदेवजी कहते हैं :- राजन! इस प्रकार कालांतर में प्रचेता दक्ष ने 10 हजार पुत्र उतपन्न किए और उन पुत्रों से भी कहा पुत्रो अब तुम भी विवाह कर सृष्टि का विस्तार करने में मेरी मदद करो। तब उन पुत्रों ने कहा अवश्य पिताजी, परंतु सबसे पहले हम तपस्या करना चाहते हैं और इतना कह, वे सभी वन की ओर चल पड़े।
रास्ते में ही नारद जी से भेंट हो गई। नारदजी बोले :- पुत्रो! तुम सब एक साथ कहां जा रहे हो? उन दक्ष पुत्रों ने देवर्षि को प्रणाम किया और बोले :- महाराज हम सभी तपस्या करने जा रहे हैं। उसके बाद पिताजी के आदेशानुसार विवाह करके सृष्टि विस्तार में सहयोग करेंगे।
नारद जी बोले :- वाह क्या बढ़िया कार्य पाया है, तुम लोगों ने, क्या तुम्हारा जन्म मात्र संतानोत्पत्ति के लिए हुआ है? नहीं तुम्हारा यह जन्म तो उस परमात्मा के सानिध्य प्राप्ति के लिए है जिसके लिए सन्त, महात्मा तरसते है। उपदेश पा कर दक्ष के सभी 10 हजार पुत्र ईश्वर मार्ग की ओर चले गए।
दक्ष को जब इस बात का ज्ञान हुआ कि नारद जी ने मेरे पुत्रों को कर्तव्य पथ से विमुख कर दिया तो फिर से उन्होंने एक हजार पुत्र उत्पन्न किए। नारद जी ने उनको भी मोक्ष का रास्ता बताया। जब फिर इस बात का पता चला तो दक्ष ने नारद जी को शाप दे दिया।
अहो असाधो साधुनां साधुलिंगेन नास्त्वया। 
असाध्वकार्यर्भकाणां भिक्षोर्मार्ग: प्रदर्शित:॥
अरे असाधू! तू तो साधू कहलाने के लायक ही नहीं है, तू मेरे भोले-भाले बच्चों को भिखमंगो का मार्ग बताता है। जा मैं तुझे शाप देता हूँ कि तुम कहीं भी स्थिर न बैठ सको, इस लोका-लोक में भटकते रहो।[श्री मद्भागवत महापुराण​ 36.5.6]
शुकदेव जी कहते हैं, नारद जी दक्ष के इस शाप को स्वीकार कर के अंतर्ध्यान हो गए। अब इस बार दक्ष ने 60 कन्याएं उत्पन्न करी, दक्ष ने इनमे से 10 कन्याएँ धर्म को 13 कश्यप ऋषि को सत्ताइस चंद्र देव को, दो भूत को, दो अंगिरा को, दो कृशाश्व को और शेष चार तार्क्ष्य नाम धारी कश्यप को व्याही।

 
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xxx ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु

ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु 
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM By :: Pt. Santosh Bhardwaj  
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वेद-पुराणों में भगवान् ब्रह्मा के मानस पुत्रों का वर्णन है। वे दिव्य सृष्टि के अंग थे। महाप्रलय, भगवान् ब्रह्मा जी के दिन-कल्प की शुरुआत में उनका उदय होता है। वेदों, पुराणों इतिहास को वे ही पुनः प्रकट करते हैं। ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु का श्रुतियों में विशेष स्थान है। उनके के बड़े भाई का नाम अंगिरा था। अत्रि, मरीचि, दक्ष, वशिष्ठ, पुलस्त्य, नारद, कर्दम, स्वायंभुव मनु, कृतु, पुलह, सनकादि ऋषि इनके भाई हैं। उन्हें भगवान् विष्णु के श्वसुर और भगवान् शिव के साढू के रूप में भी जाना जाता है। महर्षि भृगु को भी सप्तर्षि मंडल में स्थान प्राप्त है। भृगु मुनि की पहली पत्नी दिव्या देवी के पिता दैत्यराज हिरण्यकश्यप और उनकी पुत्री रेणुका के पति भगवान् विष्णु में वर्चस्व की जंग छिड गई। इस लडाई में महर्षि भृगु ने पत्न्नी के पिता दैत्यराज हिरण्य कश्यप का साथ दिया। क्रोधित भगवान् विष्णु जी ने सौतेली सास दिव्या देवी को मार डाला। 
AUTHOR OF ASTROLOGY-BHRAGU भृगुसंहिता के रचयिता-भृगु :: भृगु संहिता त्रिकाल अर्थात् भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों का समान रूप से प्रामाणिक ब्योरा देती है। भृगु संहिता महर्षि भृगु और उनके पुत्र शुक्राचार्य के बीच संपन्न हुए वार्तालाप के रूप में एक दुर्लभ ग्रंथ है। उसकी भाषा शैली गीता में भगवान् श्री कृष्ण और अर्जुन के मध्य हुए संवाद जैसी है। हर बार आचार्य शुक्र एक ही सवाल पूछते हैं :- 
वद् नाथ दयासिंधो जन्मलग्नषुभाषुभम्। 
येन विज्ञानमात्रेण त्रिकालज्ञो भविष्यति 
भार्गव वंश के मूल पुरुष महर्षि भृगु थे जिनको जन सामान्य ॠचाओं के रचिता, भृगुसंहिता के रचनाकार, यज्ञों में ब्रह्मा बनने वाले ब्राह्मण और त्रिदेवों की परीक्षा में भगवान् विष्णु की छाती पर लात मारने वाले मुनि के नाते जानता है। 
महर्षि भृगु के भी दो विवाह हुए, इनकी पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्य कश्यप की पुत्री दिव्या थी और दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी थी। पहली पत्नी दिव्या से भृगु मुनि के दो पुत्र हुए, जिनके नाम शुक्र और त्वष्टा रखे गए। भार्गवों में आगे चलकर आचार्य बनने के बाद शुक्र को शुक्राचार्य के नाम से और त्वष्टा को शिल्पकार बनने के बाद विश्वकर्मा के नाम से जाना गया। इन्हीं भृगु मुनि के पुत्रों को उनके मातृवंश अर्थात दैत्यकुल में शुक्र को काव्य एवं त्वष्टा को मय के नाम से जाना गया है। भृगु मुनि की दूसरी पत्नी पौलमी की तीन संताने हुईं। दो पुत्र च्यवन और ॠचीक तथा एक पुत्री हुई जिसका नाम रेणुका था। च्यवन ॠषि का विवाह शर्याति की पुत्री सुकन्या के साथ हुआ। ॠचीक का विवाह महर्षि भृगु ने राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ एक हजार श्यामकर्ण घोड़े दहेज में लेकर किया। पुत्री रेणुका का विवाह भृगु मुनि उस समय विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य) के साथ किया।
मन्दराचल पर्वत पर हो रहे यज्ञ में महर्षि भृगु को त्रिदेवों की परीक्षा लेने के लिए निर्णायक चुना गया। भगवान् शिव की परीक्षा के लिए जब भृगु कैलाश पर्वत पर पहुँचे तो उस समय भगवान् शिव माता  पार्वती के साथ विहार कर रहे थे। शिव गणों ने महर्षि को उनसे मिलने नहीं दिया। महर्षि भृगु ने भगवान् शिव को तमोगुणी मानते हुए शाप दे दिया कि आज से आपके लिंग की ही पूजा होगी। भगवान् शिव आदि देव हैं। उनपर किसी के किसी भी श्राप का असर नहीं होता, अपितु श्राप देने वाला स्वयं ही मुसीबत में फँस जाता है। 
महर्षि भृगु अपने पिता भगवान् ब्रह्मा के ब्रह्मलोक पहुँचे। वहाँ इनके माता-पिता दोनों साथ बैठे थे। जिन्होंने सोचा पुत्र ही तो है, मिलने के लिए आया होगा। महर्षि का सत्कार नहीं हुआ। तब नाराज होकर इन्होंने भगवान् ब्रह्मा को रजोगुणी घोषित करते हुए शाप दिया कि आपकी कहीं  पूजा नही होगी। श्राप देने वाला व्यक्ति अपने सृजित पुण्य नष्ट कर लेता है। अतः कैसी भी परिस्थिति क्यों न हो मनुष्य को किसी को भी कभी भी श्राप या बद्दुआ नहीं देनी चाहिए और ना ही किसी बुरा सोचना-करना चाहिये। श्राप को होनी-प्रारब्ध समझकर ग्रहण क्र लेने से अपने संचित पुण्यकर्म मनुष्य की रक्षा करते हैं। 
क्रोध में  तमतमाए महर्षि भगवान् विष्णु के श्री धाम पहुँचे। वहाँ भगवान् श्री हरी विष्णु क्षीर सागर में योग निद्रा में   थे और माता लक्ष्मी उनके पैर दबा रही थीं। क्रोधित महर्षि ने परीक्षा लेने के लिए उनकी छाती पर पैर से प्रहार किया। भगवान् विष्णु ने महर्षि का पैर पकड़ लिया और पूछा कि मेरे कठोर वक्ष से आपके पैर में चोट तो नहीं लगी। महर्षि  के पैर में तीसरी आँख थी जिससे उन्हें भविष्य का ज्ञान हो जाता था। भगवान् विष्णु उनकी इन्तजार कर ही रहे थे। उन्होंने मौके का फायदा उठाकर, उनकी तीसरी आँख मूँद दी। महर्षि  को इसका भान-आभास भी नहीं हुआ। परन्तु माँ लक्ष्मी ने उन्हें श्राप दे दिया कि उनके वंश में उत्पन्न ब्राह्मण दरिद्र ही रहें। देवी लक्ष्मी को भृगु का  ऐसा करना नहीं भाया और उन्होंने ब्राह्मण समाज को श्राप दे दिया कि उनके वंश-खानदान में मेरा (लक्ष्मी का) वास नहीं होगा और वे दरिद्र बनकर इधर उधर भटकते रहेंगे।
महर्षि भृगु बोले के मैंने यह कार्य देवताओं के कहने पर त्रिदेवों की परीक्षा लेने के लिये किया था। मैंने इसकी माफ़ी भी मान ली है, पर आपने तो मेरे साथ साथ पूरे भार्गव वंश को श्राप दे दिया। अब जो होना था वो हो गया पर मैं अपने ब्राह्मण समाज के लिए ज्योतिष ग्रन्थ का निर्माण करूँगा और जिसके आधार पर वे समस्त प्राणियों के भूत, भविष्य और वर्तमान के बारे में बता सकेंगे और दक्षिणा के रूप में धन प्राप्त कर पाएँगे और मेरे ग्रन्थ के ज्ञात किसी भी ब्राह्मण के घर में लक्ष्मी की कमी नहीं आएगी। 
भृगु की परीक्षा का आधार पर देवताओं ने देवों में भगवान् श्री हरी विष्णु को सर्वश्रेष्ठ घोषित कर किया। यद्यपि आदि देव भगवान् महादेव ही इस ब्रह्माण्ड में श्रष्टि के मूल हैं। भगवान् शिव की आयु 8 परार्ध तथा भगवान् ब्रह्मा और भगवान् विष्णु की आयु 2-2 परार्ध है। 
कुछ समय पश्च्यात महर्षि भृगु ने ज्योतिष ग्रन्थ लिख दिया परन्तु इसके पश्चात् भृगु को घमण्ड हो गया और वो भगवान् शिव के धाम में चले गए और घमण्ड में माता पार्वती से कहा कि मैंने ऐसा ग्रन्थ लिखा है जिससे किसी भी मनुष्य  का भूत, भविष्य और वर्तमान मालूम किया जा सकता है। माँ क्रोधित हो गयीं और उन्होंने भृगु को श्राप दे दिया कि तुम मेरे आवास में बिना अनुमति के अन्दर आ गए और अपनी विद्या पर इतना घमण्ड कर रहे हो। इसलिए तुम्हारी सारी  भविष्य वाणियाँ सच नहीं होगी। 
महर्षि के परीक्षा के इस ढ़ंग से नाराज मरीचि ॠषि ने इनको प्रायश्चित करने के लिए धर्मारण्य में तपस्या करके दोषमुक्त होने के लिए गंगा तट पर जाने का आदेश दिया। भृगु अपनी दूसरी पत्नी पौलमी को लेकर वहाँ आ गए। यहाँ पर उन्होने गुरुकुल स्थापित किया। उस समय यहाँ के लोग खेती करना नही जानते थे। महर्षि भृगु ने उनको खेती करने के लिए जंगल साफ़ कराकर खेती करना सिखाया। यहीं रहकर उन्होने ज्योतिष के महान ग्रन्थ भृगुसंहिता की रचना की। कालान्तर में अपनी ज्योतिष गणना से जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि इस समय यहाँ प्रवाहित हो रही गँगा नदी का पानी कुछ समय बाद सूख जाएगा तब उन्होने अपने शिष्य दर्दर को भेज कर उस समय अयोध्या तक ही प्रवाहित हो रही सरयू नदी की धारा को वहाँ मंगाकर गंगा-सरयू का संगम कराया।
भृगु संहिता ज्योतिष का आदि ग्रंथ है अपार श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है। 
महर्षि पराशर के ग्रंथ बृहत्पाराषरहोराषास्त्र में महर्षि भृगु को ही ज्योतिष शास्त्र का आदि प्रवर्तक कहा गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भृगु नामक एक प्रकांड ज्योतिषी हुए हैं। इस तरह भृगु ऐसे भविष्यवक्ता और त्रिकालज्ञ थे। 
भृगु संहिता में दृषेत शब्द बहुत बार आया है और संस्कृत के इस शब्द का अर्थ या प्रयोग देखने, दिखाई देने और दर्षित होने के संदर्भ में किया जाता है। इससे लगता है कि महर्षि भृगु को भूत और भविष्य स्पष्ट दिखाई देता था। इसमें पूर्वजन्म का विवरण भी है। एक जगह पर आचार्य शुक्र महर्षि भृगु से पूछते हैं :- 
पूर्वजन्मकृतं पापं कीदृक्चैव तपोबल। 
तद् वदस्य दयासिंधो येन भूयत्रिकालज्ञः 
अधिकांष स्थलों पर पूर्वजन्म, वर्तमान जन्म तथा आने वाले जन्म का हाल भी दिया गया है। कुछ मामलों में यहांँ तक कहा गया है कि कोई व्यक्ति भृगु संहिता कब, कहाँ, किस प्रयोजन से विश्वास या अविश्वास के साथ सुनेगा। पत्नी की कुंडली के बिना ही सिर्फ पति की कुंडली के आधार पर पत्नी के बारे में व्यापक विवेचन व उसके सही होने की पुष्टि अनेक विद्वानों ने की है। भृगु संहिता में गणनाओं का उल्लेख करते समय वर्ष, महिने और दिन का भी जिक्र आता है। कुछ कुंडलियों में प्रश्नकाल के आधार भी पर गणनाएँ गईं हैं। कहीं-कहीं प्रश्नकर्ता के जन्म स्थान, निवास स्थान, पिता तथा उनके नामों के पहले अक्षरों का भी विवरण मिलता है। 
पितृव्यष्च सुखं पूर्ण नागत्रिंषतषत कवेः। 
सम्यक् ब्रूमि फलं तत्र पितृव्यष्च महतरम्
यह अनुमान लगाना असंभव है कि भृगु संहिता कितने पृष्ठों की है और इसका आकार क्या है। यह दुर्लभ ग्रंथ अरबों वर्ष पूर्व भोजपत्र पर लिखा गया था। प्राचीन अनमोल ग्रंथों को नालंदा विष्वविद्यालय में जला दिया गया था। अब भी कुछ दुर्लभ पांडुलिपियाँ उपलब्ध हैं, जिनमें भृगु संहिता, षंख संहिता, सुश्रुत संहिता, चरक संहिता, रावण संहिता आदि सुरक्षित हैं। इनमें भृगु संहिता इतनी विशाल है कि उसे उठाना भी कठिन है।
भृगु संहिता नाम पर अनेकों प्रकाशकों ने पुस्तकें प्रकाशित की हैं जो कि अप्रमाणिक, अनुपयोगी हैं। 
भृगु की  तीन पत्नियाँ :- ख्या‍ति, दिव्या और पौलमी। पहली पत्नी का नाम ख्याति था, जो दक्ष कन्या थी। ख्याति से भृगु को दो पुत्र दाता और विधाता (काव्य शुक्र और त्वष्टा-विश्वकर्मा) तथा एक पुत्री श्री लक्ष्मी का जन्म हुआ। घटनाक्रम एवं नामों में कल्प-मन्वन्तरों के कारण अंतर आता है। [देवी भागवत के चतुर्थ स्कंध, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण, श्रीमद् भागवत] लक्ष्मी का विवाह उन्होंने भगवान् विष्णु से कर दिया था।
आचार्य बनने के बाद शुक्र को शुक्राचार्य के नाम से और त्वष्टा को शिल्पकार बनने के बाद विश्वकर्मा के नाम से जाना गया। 
दैत्यों के साथ हो रहे देवासुर संग्राम में महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति, जो योगशक्ति संपन्न तेजस्वी महिला थीं, दैत्यों की सेना के मृतक सैनिकों को जीवित कर देती थीं, जिससे नाराज होकर भगवान् श्री हरि विष्णु ने शुक्राचार्य की माता व महर्षि भृगु जी पत्नी ख्याति का सिर अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया।
दूसरी पत्नी पौलमी :- उनके ऋचीक व च्यवन नामक दो पुत्र और रेणुका नामक पुत्री उत्पन्न हुई। भगवान् परशुराम महर्षि भृगु के प्रपौत्र, वैदिक ऋषि ऋचीक के पौत्र, जमदग्नि के पुत्र परशुराम थे। रेणुका का विवाह विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य) से किया।
जब महर्षि च्यवन उसके गर्भ में थे, तब भृगु की अनुपस्थिति में एक दिन अवसर पाकर दंस (पुलोमासर) पौलमी का हरण करके ले गया। शोक और दुख के कारण पौलमी का गर्भपात हो गया और शिशु पृथ्वी पर गिर पड़ा, इस कारण यह च्यवन (गिरा हुआ) कहलाया। इस घटना से दंस पौलमी को छोड़कर चला गया, तत्पश्चात पौलमी दुख से रोती हुई शिशु (च्यवन) को गोद में उठाकर पुन: आश्रम को लौटी। पौलमी के गर्भ से 5 और पुत्र बताए गए हैं।
भृगु पुत्र धाता के आयती नाम की स्त्री से प्राण, प्राण के धोतिमान और धोतिमान के वर्तमान नामक पुत्र हुए। विधाता के नीति नाम की स्त्री से मृकंड, मृकंड के मार्कण्डेय और उनसे वेद श्री नाम के पुत्र हुए। 
भृगु के और भी पुत्र थे जैसे उशना, च्यवन आदि। ऋग्वेद में भृगुवंशी ऋषियों द्वारा रचित अनेक मंत्रों का वर्णन मिलता है जिसमें वेन, सोमाहुति, स्यूमरश्मि, भार्गव, आर्वि आदि का नाम आता है। भार्गवों को अग्निपूजक माना गया है। दाशराज्ञ युद्ध के समय भृगु मौजूद थे।
शुक्राचार्य :- शुक्र के दो विवाह हुए थे। इनकी पहली स्त्री इन्द्र की पुत्री जयंती थी, जिसके गर्भ से देवयानी ने जन्म लिया था। देवयानी का विवाह चन्द्रवंशीय क्षत्रिय राजा ययाति से हुआ था और उसके पुत्र यदु और मर्क तुर्वसु थे। दूसरी स्त्री का नाम गोधा (शर्मिष्ठा) था जिसके गर्भ से त्वष्ट्र, वतुर्ण शंड और मक उत्पन्न हुए थे।
च्यवन ऋषि :- मुनिवर ने गुजरात के भड़ौंच (खम्भात की खाड़ी) के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से विवाह किया। भार्गव च्यवन और सुकन्या के विवाह के साथ ही भार्गवों का हिमालय के दक्षिण में पदार्पण हुआ। च्यवन ऋषि खम्भात की खाड़ी के राजा बने और इस क्षेत्र को भृगुकच्छ-भृगु क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा।
सुकन्या से च्यवन को अप्नुवान नाम का पुत्र मिला। द‍धीच इन्हीं के भाई थे। इनका दूसरा नाम आत्मवान भी था। इनकी पत्नी नाहुषी से और्व का जन्म हुआ। [और्व कुल का वर्णन ब्राह्मण ग्रंथों में, ऋग्वेद में 8.10.2.4 पर, तैत्तरेय संहिता 7.1.8.1, पंच ब्राह्मण 21.10.6, विष्णुधर्म 1.32 तथा महाभारत अनुच्छेद 56 आदि में प्राप्त है]
ऋचीक :- पुराणों के अनुसार महर्षि ऋचीक, जिनका विवाह राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ हुआ था, के पुत्र जमदग्नि ऋषि हुए। जमदग्नि का विवाह अयोध्या की राजकुमारी रेणुका से हुआ जिनसे परशुराम का जन्म हुआ।
विश्वामित्र :- गाधि के एक विश्वविख्‍यात पुत्र हुए जिनका नाम विश्वामित्र था जिनकी गुरु वशिष्ठ से प्रतिद्वंद्विता थी। परशुराम को शास्त्रों की शिक्षा दादा ऋचीक, पिता जमदग्नि तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा अपने पिता के मामा राजर्षि विश्वामित्र और भगवान् शंकर से प्राप्त हुई। च्यवन ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से विवाह किया।
मरीचि के पुत्र कश्यप की पत्नी अदिति से भी एक अन्य भृगु उत्त्पन्न हुए जो उनके ज्येष्ठ पुत्र थे। ये अपने माता-पिता से सहोदर दो भाई थे। आपके बड़े भाई का नाम अंगिरा ऋषि था। इनके पुत्र बृहस्पति जी हुए, जो देवगणों के पुरोहित-देव गुरु के रूप में जाने जाते हैं।
भृगु ने ही भृगु संहिता, भृगु स्मृति,  भृगु संहिता-ज्योतिष, भृगु संहिता-शिल्प, भृगु सूत्र, भृगु उपनिषद, भृगु गीता आदि की रचना की। 

Wednesday, December 23, 2015

XXX ब्रह्मा जी के पहले पुत्र मरीचि

ब्रह्मा जी के पहले पुत्र मरीचि

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj

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महर्षि मरीचि ब्रह्मा जी के अन्यतम मानस पुत्र और एक प्रधान प्रजापति थे। इन्हें द्वितीय ब्रह्मा ही कहा गया। ऋषि मरीचि पहले मन्वंतर के पहले सप्तऋषियों की सूची के पहले ऋषि थे। यह दक्ष प्रजापति के दामाद और भगवान् शंकर के साढू थे।
इनकी पत्नि दक्ष-कन्या संभूति थी। इनकी दो और पत्नियां थीं :- कला और उर्णा। उर्णा को ही धर्मव्रता भी कहा जाता है जो कि एक ब्राह्मण कन्या थी। दक्ष के यज्ञ में मरीचि ने भी भगवान् शंकर का अपमान किया था। इस पर भगवान् शंकर ने इन्हें भस्म कर डाला था।
इन्होंने ही भृगु को दण्ड नीति की शिक्षा दी है। ये सुमेरु के एक शिखर पर निवास करते थे और महाभारत में इन्हें चित्र शिखण्डी भी कहा गया है। ब्रह्मा जी ने पुष्कर क्षेत्र में जो यज्ञ किया था उसमें ये अच्छावाक् पद पर नियुक्त हुए थे। दस हजार श्लोकों से युक्त ब्रह्म पुराण का दान पहले-पहल ब्रह्मा जी ने इन्हीं को किया था। वेद और पुराणों में इनके चरित्र का चर्चा मिलती है।
मरीचि ने कला नाम की स्त्री से विवाह किया और उनसे उन्हें कश्यप नामक एक पुत्र मिला। कश्यप की माता ‘कला’ कर्दम ऋषि की पुत्री और ऋषि कपिल देव की बहन थी। ब्रह्मा जी के पोते और मरीचि के पुत्र कश्यप ने ब्रह्मा के दूसरे पुत्र दक्ष की 13 पुत्रियों से विवाह किया। मुख्यत इन्हीं कन्याओं से मैथुनी सृष्टि का विकास हुआ और कश्यप सृष्टिकर्ता कहलाए।
कश्यय पत्नी :: अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्ठा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सरमा और तिमि। महर्षि कश्यप को विवाहित 13 कन्याओं से ही जगत के समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। वे लोकमाताएं कही जाती हैं। इन माताओं को ही जगत जननी कहा जाता है।
कश्यप की पत्नी अदिति से आदित्य (देवता), दिति से दैत्य, दनु से दानव, काष्ठा से अश्व आदि, अरिष्ठा से गंधर्व, सुरसा से राक्षस, इला से वृक्ष, मुनि से अप्सरागण, क्रोधवशा से सर्प, ताम्रा से श्येन-गृध्र आदि, सुरभि से गौ और महिष, सरमा से श्वापद (हिंस्त्र पशु) और तिमि से यादोगण (जलजंतु) की उत्पत्ति हुई।
कश्यप के अदिति से 12 आदित्य पुत्रों का जन्म हुए जिनमें विवस्वान और विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए। वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था। वैवस्वत मनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था। राजा इक्ष्वाकु के कुल में जैन और हिन्दु धर्म के महान तीर्थंकर, भगवान, राजा, साधु महात्मा और सृजनकारों का जन्म हुआ है।
वैवस्वत मनु के पुत्र :: (1). इल, (2).इक्ष्वाकु, (3). कुशनाम, (4).अरिष्ट, (5). धृष्ट, (6). नरिष्यन्त, (7). करुष, (8). महाबली, (9). शर्याति और (10).पृषध।
तार्क्ष्य कश्यप ने विनीता कद्रू, पतंगी और यामिनी से विवाह किया था। कश्यप ऋषि ने दक्ष की सिर्फ 13 कन्याओं से ही विवाह किया था।

इक्ष्वाकु के पुत्र और उनका वंश :: मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु के तीन पुत्र हुए:- (1). कुक्षि, (2). निमि और (3). दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। भगवान राम इक्षवाकु कुल में ही जन्में।


Saturday, December 12, 2015

महर्षि भरद्वाज :: बृहस्पति के पौत्र*

महर्षि भरद्वाज 
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।  
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
Bhardwaj is a title name or designation granted to the holy souls often called Bhagwan due to their proximity with the trinity of the Almighty :- Brahma, Vishnu and Mahesh. The Sapt Rishis occur in every Kalp-Brahma's day and thereafter in every Manvantar cyclically, like the beads of a revolving rosary in the hands of religious practitioners-The Sadhak. Bhardwaj was a descendant of Sage (Rishi) Angira, whose accomplishments are detailed in the Purans, in the current Manvantar too. He is one of the Sapt Rishis (Seven Great Sages or Rishis) in the present Manvantar, with others being Atri, Vashishth, Vishwamitr, Gautom, Jamdagni, Kashyap. Bhrdwaj is the name of a bird as well.
Dev Guru Brahaspati is the progenitor of the Bhardwaj (भरद्वाज के पुत्र भारद्वाज) family and the family is attributed as the composers of Sixth Mandal of the Rig Ved. Mandal 6 is known as the Bhardwaj Family Book as all its 75 hymns are composed by a member of this family over several centuries.
महर्षि भरद्वाज :: ऋग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भरद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भरद्वाज के 765 मन्त्र हैं। अथर्व वेद में भी भरद्वाज के 23 मन्त्र मिलते हैं। वैदिक ऋषियों में भरद्वाज ऋषि का अति उच्च स्थान है। भरद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं।
भरद्वाज का वंश :: ऋषि भरद्वाज के पुत्रों में 10 ऋषि ऋग्वेद के मन्त्र द्रष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम रात्रि था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्र द्रष्टा हैं। भरद्वाज के मन्त्र द्रष्टा पुत्रों के नाम हैं :- ऋजिष्वा, गर्ग, नर, यायु, वसु, शास, शिराम्बिठ, शुनहोत्र, सप्रथ और सुहोत्र। ऋग्वेद की सर्वानुक्रमणी के अनुसार ऋषिका कशिपा भरद्वाज की पुत्री हैं। अतः ऋषि भरद्वाज की 12 संतानें मन्त्र द्रष्टा ऋषियों की कोटि में सम्मानित थीं। भरद्वाज ऋषि ने बड़े गहन अनुभव किये।
ऋषि भरद्वाज ने धनुर्वेद पर प्रवचन किया था।[महाभारत, शान्ति पर्व 210.21]
वहाँ यह भी कहा गया है कि ऋषि भरद्वाज ने राजनीति शास्त्र का प्रणयन किया था।[महाभारत, शान्ति पर्व 58.3] 
कौटिल्य ने अपने पूर्व में हुए अर्थशास्त्र के रचनाकारों में ऋषि भरद्वाज को सम्मान से स्वीकारा है।
ऋषि भरद्वाज ने यन्त्र सर्वस्व नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्म मुनि ने विमानन शास्त्र के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिये विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन है।
ऋषि भरद्वाज व्याकरण शास्त्र, धर्म शास्त्र, शिक्षा शास्त्र, राजनीति शास्त्र, अर्थ शास्त्र, धनुर्वेद, आयुर्वेद और भौतिक विज्ञान वेत्ता थे। 
भरद्वाज ने सम्पूर्ण वेदों के अध्ययन का यत्न किया। दृढ़ इच्छा शक्ति और कठोर तपस्या से देवराज इन्द्र को प्रसन्न किया। भरद्वाज ने प्रसन्न हुए देवराज इन्द्र से अध्ययन हेतु सौ दिव्य वर्ष की आयु माँगी। भरद्वाज अध्ययन करते रहे। सौ वर्ष पूरे हो गये अध्ययन की लगन से प्रसन्न होकर दुबारा इन्द्र ने फिर वर माँगने को कहा तो भरद्वाज ने पुनः सौ वर्ष अध्ययन के लिये और माँगे। देवराज ने पुनः सौ वर्ष प्रदान किये। इस प्रकार अध्ययन और वरदान का क्रम चलता रहा। भरद्वाज ने दिव्य तीन सौ वर्षों तक अध्ययन किया इसके बाद पुन: इन्द्र ने उपस्थित होकर कहा, "हे भरद्वाज! यदि मैं तुम्हें सौ वर्ष और दे दूँ तो तुम उनसे क्या करोगे"? भरद्वाज ने सरलता से उत्तर दिया, "मैं वेदों का अध्ययन करूँगा"। इन्द्र ने तत्काल बालू के तीन पहाड़ खड़े कर दिये, फिर उनमें से एक मुट्ठी रेत हाथों में लेकर कहा, "भरद्वाज, समझो ये तीन वेद हैं और तुम्हारा तीन सौ वर्षों* का अध्ययन यह मुट्ठी भर रेत है। वेद अनन्त हैं। तुमने आयु के तीन सौ वर्षों में जितना जाना है, उससे न जाना हुआ अत्यधिक है"। अतः मेरी बात पर ध्यान दो, "अग्नि देव सब विद्याओं का स्वरूप हैं। अतः अग्नि देव को ही जानो। उन्हें जान लेने पर सब विद्याओं का ज्ञान स्वतः प्राप्त हो जायेगा"। इसके बाद देवराज इन्द्र ने भरद्वाज को सावित्र्य अग्नि-विद्या का विधिवत् ज्ञान कराया। भरद्वाज ने उस अग्नि को जानकर उससे अमृत-तत्त्व प्राप्त किया और स्वर्ग लोक में जाकर आदित्य से सायुज्य प्राप्त किया।[तैत्तिरीय ब्राह्मण ग्रन्थ 3.10.11]
*The sum total of divine years comes to 12,000 divine years which is called a Yug for the demigods while for the humans this period is termed as Maha Yug measuring 4,320,000 solar years.1 DIVINE YUG = 12,000 DIVINE YEARS = MAHA YUG FOR HUMANS = 43,20,000 SOLAR YEARS.
ऋषि भरद्वाज ने देवराज इन्द्र की सहायता से अग्नि तत्त्व का साक्षात्कार किया, ज्ञान से तादात्म्य किया और तन्मय होकर रचनाएँ की। आयुर्वेद के प्रयोगों में वे परम निपुण थे। इसीलिये उन्होंने ऋषियों में सबसे अधिक आयु प्राप्त की थी। वे ब्राह्मण ग्रन्थों में दीर्घ जीवितम् पद से सबसे अधिक लम्बी आयु वाले ऋषि गिने गये हैं।[ऐतरेय आरण्यक 1.2.2]
चरक ने भरद्वाज को अपरिमित आयु वाला कहा।[सूत्र स्थान 1.26]
भरद्वाज ऋषि काशिराज दिवोदास के पुरोहित थे। वे दिवोदास के पुत्र प्रतर्दन के पुरोहित थे और फिर प्रतर्दन के पुत्र क्षत्र का भी उन्हीं मन्त्रद्रष्टा ऋषि ने यज्ञ सम्पन्न कराया था।[जै. ब्रा. 3.2.8]
वनवास के समय भगवान् श्री राम इनके आश्रम में गये थे, जो त्रेता द्वापर का सन्धि काल था। अतः भरद्वाज ऋषि को अनूचानतम और दीर्घ जीवितम् या अपरिमित आयु कहे जाने में कोई अत्युक्ति नहीं है।
ऋषि भरद्वाज ने सामगान को देवताओं से प्राप्त किया था। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में कहा गया है, "यों तो समस्त ऋषियों ने ही यज्ञ का परम गुह्य ज्ञान जो बुद्धि की गुफा में गुप्त था, उसे जाना, परन्तु ऋषि भरद्वाज ने द्युस्थान (स्वर्गलोक) के धाता, सविता, विष्णु और अग्नि देवता से ही बृहत्साम का ज्ञान प्राप्त किया"।[ऋग्वेद 10.182.2]
बृहत्साम :: साम का अर्थ है (सा-अमः) ऋचाओं के आधार पर आलाप। ऋचाओं के आधार पर किया गया गान साम है। ऋषि भरद्धाज बृहत्साम ने को आत्मसात् किया था। ब्राह्मण ग्रन्थों की परिभाषाओं के संदर्भ में ऋचाओं के आधार पर स्वर प्रधान ऐसा गायन जो स्वर्गलोक, आदित्य, मन, श्रेष्ठत्व और तेजस् को स्वर आलाप में व्यञ्जित करता हो, बृहत्साम कहा जाता है। ऋषि भरद्वाज ऐसे ही बृहत्साम-गायक थे। वे चार प्रमुख साम गायकों :- गौतम, वामदेव, भरद्वाज और कश्यप की श्रेणी में गिने जाते हैं। 
बृहत्साम के गायन से शासक सम्पन्न होता है तथा ओज, तेज और वौर्य बढ़ता है। राजसूय यज्ञ समृद्ध होता है। राष्ट्र और दृढ़ होता है।[काठक संहिता, ऐतरेय ब्राह्मण 36.3]
राष्ट्र को समृद्ध और बनाने के लिये भरद्वाज ने राजा प्रतर्दन से यज्ञ में इसका अनुष्ठान कराया था, जिससे प्रतर्दन का खोया राष्ट्र उन्हें पुनः मिला था।[काठक 21.10,  महाभारत अनुशासन पर्व अ. 30] 
भरद्वाज उवाचः :: 
पश्यतेममिदं ज्योतिस्मृतं मत्य्येषु।
अग्नि को देखो, यह मरण धर्मा मानवों में मौजूद अमर ज्योति है। यह अग्नि विश्व कृष्टि है अर्थात् सर्व मनुष्य रूप है। यह अग्नि सब कर्मों में प्रवीणतम ऋषि है, जो मानव में रहती है, उसे प्रेरित करती है ऊपर उठने के लिये।[ऋग्वेद 6.9.4] 
प्रचेता अग्निर्वेधस्तम ऋषिः।
मानवी अग्नि जागेगी। विश्व कृष्टि को जब प्रज्वलित करेंगे तो उसे धारण करने के लिये साहस और बल की आवश्यकता होगी। इसके लिये आवश्यक है कि मनुष्य सचाई पर दृढ़ रहें।[ऋग्वेद 6.14.2] 
न वीळवे नमते न स्थिराय न शर्धते दस्युजूताय।
हम झुकें नहीं। हम सामर्थ्यवान् के आगे भी न झुकें। दृढ़ व्यक्ति के सामने भी नहीं झुकें। क्रूर, दुष्ट, हिंसक, दस्यु के आगे भी हमारा सिर ना झुके।[ऋग्वेद 6.24.8] 
जिह्वया सदमेदं सुमेधा आ।
जीभ से ऐसी वाणी बोलनी चाहिये कि सुनने वाले बुद्धिमान् बनें।[ऋग्वेद 6.67.8] 
"अवा वाजेषु, नो नेषि वस्यः"
हमारी विद्या ऐसी हो, जो कपटी दुष्टों का सफाया करे, युद्धों में संरक्षण दे, इच्छित धनों को प्राप्त कराये और हमारी बुद्धी को निन्दित मार्ग से रोके।
विद्या इतनी समर्थ हो कि वह सभी प्रकार के मानवों का पोषण करे। हे सरस्वती! सब कपटी दुष्टों की प्रजाओं का नाश कर।[ऋग्वेद 3.61.3,4,6,14]
"नि बर्हय प्रजां विश्वस्य बृसयस्य मायिनः" 
हे सरस्वती! तू युद्धों में हम सब का रक्षण कर। 
"धीनामवित्र्यवतु" 
हे सरस्वती! तू हम सबकी बुद्धियों की सुरक्षा कर।
विद्या वही है, जो सबका पोषण करे, कपटी दुष्टों का विनाश करे, युद्ध में रक्षण करे, बुद्धि शुद्ध रखे तथा वाञ्छित अर्थ देने में समर्थ हो। ऐसी विद्या को जिन्होंने प्राप्त किया है, ऋषि का उन्हें आदेश हैं :-
"श्रुत श्रावय चर्षणिभ्यः"
अरे, ओ ज्ञान को प्रत्यक्ष करने वाले! प्रजाजनों को उस उत्तम ज्ञान को सुनाओ और जो दास हैं, सेवक हैं, उनको श्रेष्ठ नागरिक बनाओ।[ऋग्वेद 6.31.5]
"दासान्यार्याणि करः"
ज्ञानी, विज्ञानी, शासक, कुशल योद्धा और राष्ट्र को अभय देने वाले ऋषि भरद्वाज के ऐसे ही तीव्र, तेजस्वी और प्रेरक विचार हैं।[ऋग्वेद 6.22.10]
Rishi Bhardwaj was the grand son of sage Brahaspati. His father's name was Shanyu (शंयु), who was the son of Dev Guru Brahaspati. Dev Guru Brahaspati was the son of Rishi Angira. Angira, Brahaspati and Bhardwaj are recognised as Trey Rishi. Mahrishi Angira, was the elder son of the creator Bhagwan Brahma. Brahma Ji took birth from the naval Lotus of the Nurturer Bhagwan Vishnu. Bhardwaj is the father of Guru Dronachary and grandfather of Ashwasthama. Dronachary was an incarnation of Dev Guru Brahaspati himself and Ashwatthama is an incarnation of Bhagwan Shiv. Bhardwaj is one of the most exalted Gotr of Brahmns in India.

Dev Guru Brahaspati entered into sexual intercourse with the wife of his younger brother, who already had intercourse with her husband. As a result of this relationship a male child was born, who was protected by the king of heaven, Dev Raj Indr. Bhardwaj literary means :- born out of two fathers. Bhardwaj Rishi and Virath (Bhrdwaj) are two entities. This son was later known as Virath (विरथ) and adopted by the mighty Emperor Bharat, who ruled the earth for 27,000 years. Bharat was the propagator of Chandr-Kuru Vansh clan, born out of the relationship of Dushyant and Shakuntla. One should not be confused with this Bhardwaj, later called Virath with Bhardwaj Rishi, the progenitor, (ancestor, forefather, मूलपुरुष, पुरखा, अग्रगामी, प्रजनक) of Bhardwaj clan. Virath led to the progress of Kuru Vansh, till Mahrishi Ved Vyas led to the birth of Dhrat Rashtr, Pandu and Vidur Ji.
Please refer to :: (1).HINDU PHILOSOPHY (11) हिन्दु दर्शन :: SCIENCE IN THE SCRIPTURES हिन्दु धर्म शास्त्र में विज्ञान  santoshkipathshala.blogspot.com (2).  BRAHMAN VANSH ब्राह्मण वंश परम्पराsantoshkipathshala.blogspot.com
विमानन शास्त्र :: 1,875 ईसवी में भारत के मन्दिर में विमानिका शास्त्र ग्रंथ की एक प्रति मिली थी। इस ग्रन्थ का अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में हो चुका है। इसी ग्रंथ में पूर्व के 97 अन्य विमानाचार्यों का वर्णन है तथा 20 ऐसी कृतियों का वर्णन है, जो विमानों के आकार-प्रकार के बारे में विस्तरित जानकारी देती हैं। 
विमान :: जो पृथ्वी, जल तथा आकाश में पक्षियों के समान वेग पूर्वक चल सके, उसका नाम विमान है।[नारायण ऋषि]
एक स्थान से दूसरे स्थान को आकाश मार्ग से जा सके, उसका नाम विमान है।[शौनक]
एक देश से दूसरे देश या एक ग्रह से दूसरे ग्रह जा सके, उसे विमान कहते हैं।[विश्वम्भर]
विमान के प्रकार :: विमान विद्या के पूर्व आचार्य युग के अनुसार विमानों का वर्णन करते है। सतयुग और त्रेता युग मंत्रिका प्रकार के विमान, जिसमें भौतिक एवं मानसिक शक्तियों के सम्मिश्रण की प्रक्रिया रहती थी। इसमें 25 प्रकार के विमान का उल्लेख है।
द्वापर युग में तांत्रिक प्रकार के विमान थे। इनके 56 प्रकार बताये गए हैं।
कलियुग में कृतिका प्रकार के यंत्र चालित विमान थे, इनके 25 प्रकार बताये गए हैं। इन में शकुन, रूक्म, हंस, पुष्कर, त्रिपुर आदि प्रमुख थे।
मेघोत्पत्तिप्रकरणोक्तशरन्मेधावरणषट्केषु द्वितीया वरणपथे विमानमन्तर्धाय विमानस्थ शक्त्याकर्षणदर्पणमुखात्तन्मेधशक्तिमाहत्य पच्श्राद्विमानपरिवेषचक्रमुखे नियोजयेत्। तेनस्तंभनशक्तिप्रसारणम् भवति, पच्श्रात्तद्दवा रा लोकस्तम्भनक्रियारहस्यम्॥
मेघोत्पत्ति प्रकरण में कहे शरद ऋतु संबंधी छ: मेघावरणों के द्वितीय आवरण मार्ग में विमान छिपकर विमानस्थ शक्ति का आकर्षण करने वाले दर्पण के मुख से उस मेघ शक्ति को लेकर पश्चात् विमान के घेरे वाले चक्रमुख में नियुक्त करे, उससे स्तम्भन शक्ति का विस्तार अर्थात प्रसार हो जाता है एवं स्तम्भन क्रिया रहस्य हो जाता है।
इस मंत्र में जो दर्पण आया है, उसे शक्ति आकर्षण दर्पण कहा जाता है, यह पूर्व के विमानों में लगा होता था, यह दर्पण मेघों की शक्ति को ग्रहण करता है।
दूसरा विमान में एक स्थित चक्र मुख यंत्र होता है। आकाश में शक्ति आकर्षण दर्पण मेघों की शक्ति को ग्रहण करके, स्थित चक्र के माध्यम से मुख यंत्र तक पहुँचा देता है। तत्पश्चात चन्द्र मुख यंत्र स्तंभन क्रिया का प्रारम्भ कर देता है।
विमान को अदृश्य करने का रहस्य :: शक्ति यंत्र सूर्य किरणों के उषा दण्ड के सामने पृष्ठ केंद्र में रहने वाले वेण रथ्य किरण आदि शक्तियों से आकाश तरंग के शक्ति प्रवाह को खींचता है और वायु मण्डल में स्थित बलाहा विकरण आदि पाँच शक्तियों को नियुक्त करके उनके द्वारा सफ़ेद अभ्र मण्डला कार करके उस आवरण से विमान के अदृश्य करने का रहस्य है।
विश्व क्रिया दर्पण :: आकाश में विद्युत किरण और वात किरण (रेडियो तरंगे) के परस्पर सम्मेलन से उत्पन्न होने वाली बिंब कारक शक्ति से छाया चित्र बनाकर आकाश में उड़ने वाले अदृश्य विमानों का पता लगाया जा सकता है।
निर्मथ्य तद्वेदाम्बुधिं भरद्वाजो महामुनिः।
नवनीतं समुद्घृत्य यन्त्रसर्वस्वरूपकम्॥‌ 
प्रायच्छत्‌ सर्वलोकानामीप्सिताज्ञर्थ लप्रदम्‌।
तस्मिन चत्वरिंशतिकाधिकारे सम्प्रदर्शितम्‌॥
नाविमानर्वैचित्र्‌यरचनाक्रमबोधकम्‌।
अष्टाध्यायैर्विभजितं शताधिकरणैर्युतम॥ 
सूत्रैः पञ्‌चशतैर्युक्तं व्योमयानप्रधानकम्‌।
वैमानिकाधिकरणमुक्तं भगवतास्वयम्‌॥[बोधानन्द]
भरद्वाज महामुनि ने वेदरूपी समुद्र का मन्थन करके यन्त्र सर्वस्व नाम का ऐसा मक्खन निकाला है जो मनुष्य मात्र के लिए इच्छित फल देने वाला है। उसके चालीसवें अधिकरण में वैमानिक प्रकरण जिसमें विमान विषयक रचना के क्रम कहे गए हैं। यह ग्रंथ आठ अध्याय में विभाजित है तथा उसमें एक सौ अधिकरण तथा पाँच सौ सूत्र हैं तथा उसमें विमान का विषय ही प्रधान है। ग्रंथ के बारे में बताने के बाद भरद्वाज ऋषि विमान शास्त्र के उनसे पूर्व हुए आचार्य उनके ग्रंथों के बारे में लिखते हैं, वे आचार्य तथा उनके ग्रंथ निम्नानुसार हैं :-
(1). नारायण  :- विमान चन्द्रिका,   
(2). शौनक  :- न् व्योमयान तंत्र,
(3). गर्ग :- यन्त्र कल्प, 
(4). वायस्पतिकृत :- यान बिन्दु + चाक्रायणीकृत खेटयान प्रदीपिका और 
(5). धुण्डीनाथ :- व्योमयानार्क प्रकाश। 
इस ग्रन्थ में ऋषि भरद्वाज ने विमान की परिभाषा, विमान का पायलट जिसे रहस्यज्ञ अधिकारी कहा गया, आकाश मार्ग, वैमानिक के कपड़े, विमान के पुर्जे, ऊर्जा, यंत्र तथा उन्हें बनाने हेतु विभिन्न धातुओं का वर्णन किया गया है।
रहस्यज्ञ अधिकारी (पायलट) :: विमान के रहस्यों को जानने वाला ही उसे चलाने का अधकारी है। शास्त्रों में विमान चलाने के बत्तीस रहस्य बताए गए हैं। उनका भली भाँति ज्ञान रखने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी-सफल चालक हो सकता है। क्योंकि विमान बनाना, उसे जमीन से आकाश में ले जाना, खड़ा करना, आगे बढ़ाना टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना या चक्कर लगाना और विमान के वेग को कम अथवा अधिक करना उसे जाने बिना यान चलाना असम्भव है। अतः जो इन रहस्यों को जानता है, वह रहस्यज्ञ अधिकारी है तथा उसे विमान चलाने का अधिकारी है तथा उसे विमान चलाने का अधिकार है।[भरद्वाज ऋषि]
कृतक रहस्य ::  बत्तीस रहस्यों में यह तीसरा रहस्य है, जिसके अनुसार विश्वकर्मा, छाया पुरुष, मनु तथा मय दानव आदि के विमान शास्त्र के आधार पर आवश्यक धातुओं द्वारा इच्छित विमान बनाना इसमें शामिल है। 
गूढ़ रहस्य :: यह पाँचवा रहस्य है, जिसमें विमान को छिपाने की विधि दी गयी है। इसके अनुसार वायु तत्त्व प्रकरण में कही गयी रीति के अनुसार वातस्तम्भ की जो आठवीं परिधि रेखा है, उस मार्ग की यासा, वियासा तथा प्रयासा इत्यादि वायु शक्तियों के द्वारा सूर्य किरण रहने वाली जो अन्धकार शक्ति है, उसका आकर्षण करके विमान के साथ उसका सम्बन्ध बनाने पर विमान छिप जाता है।
अपरोक्ष रहस्य :: यह नवाँ रहस्य है। इसके अनुसार शक्ति तंत्र में कही गयी रोहिणी विद्युत्‌ के फैलाने से विमान के सामने आने वाली वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।
संकोचा :: यह दसवाँ रहस्य है। इसके अनुसार आसमान में उड़ने समय आवश्यकता पड़ने पर विमान को छोटा करना बताया गया है।
विस्तृता :: यह ग्यारवाँ रहस्य है। इसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर विमान को बड़ा करना समझाया गया है। 
सर्पागमन रहस्य :: यह बाइसवाँ रहस्य है, जिसके अनुसार विमान को सर्प के समान टेढ़ी-मेढ़ी गति से उड़ाना संभव है। इसमें कहा गया है कि दण्ड, वक्रआदि सात प्रकार के वायु और सूर्य किरणों की शक्तियों का आकर्षण करके यान के मुख में जो तिरछें फेंकने वाला केन्द्र है, उसके मुख में उन्हें नियुक्त करके बाद में उसे खींचकर शक्ति पैदा करने वाले नाल में प्रवेश कराना चाहिए। इसके बाद नियंत्रण बिंदु को दबाने से विमान की गति साँप के समान टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती है।
परशब्द ग्राहक रहस्य :: यह पच्चीसंवा रहस्य है। इसमें कहा गया है कि सौदामिनी कला ग्रंथ के अनुसार शब्द ग्राहक यंत्र विमान पर लगाने से उसके द्वारा दूसरे विमान पर लोगों की बात-चीत सुनी जा सकती है।
रूपाकर्षण रहस्य :: इसके द्वारा दूसरे विमानों के अन्दर का सब कुछ देखा जा सकता था।
दिक्प्रदर्शन रह्रस्य :: दिशा सम्पत्ति नामक यंत्र द्वारा दूसरे विमान की दिशा ध्यान में आती है।
स्तब्धक रहस्य :: एक विशेष प्रकार का अपस्मार नामक गैस स्तम्भन यंत्र द्वारा दूसरे विमान पर छोड़ने से अन्दर के सब लोग बेहोश हो जाते हैं।
कर्षण रहस्य :- यह बत्तीसवाँ रहस्य है, इसके अनुसार अपने विमान का नाश करने आने वाले शत्रु के विमान पर अपने विमान के मुख में रहने वाली वैश्र्‌वानर नाम की नली में ज्वालिनी को जलाकर सत्तासी लिंक (डिग्री जैसा कोई नाप है) प्रमाण हो, तब तक गर्म कर फिर दोनों चक्कल की कीलि-नियंत्रण बिंदु चलाकर शत्रु विमानों पर गोलाकार से उस शक्ति की फैलाने से शत्रु का विमान नष्ट हो जाता है।
FUEL-ENERGY FO THE ANCIENT AEROPLNES ::
ईंधन-कार्य  शक्ति ::
(1). शक्त्युद्गम :- बिजली से चलने वाला।
(2). भूतवाह :- अग्नि, जल और वायु से चलने वाला।
(3). धूमयान :- गैस से चलने वाला।
(4). शिखोद्गम :- तेल से चलने वाला।
(5). अंशुवाह :- सूर्य रश्मियों से चलने वाला।
(6). तारामुख :- चुम्बक से चलने वाला।
(7). मणिवाह :- चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त मणियों से चलने वाला।
(8). मरुत्सखा :- केवल वायु से चलने वाला।
ऊर्जा स्रोत ::  विमान को चलाने के लिए भरद्वाज ऋषि ने निम्न ऊर्जा स्रोतों का उल्लेख  किया है :-
(1). वनस्पति तेल :- यह पेट्रोल की भाँति काम करता था।
(2). पारे की भाप :- प्राचीन शास्त्रों में इसका शक्ति के रूप में उपयोग किए जाने का वर्णन है। 
(3). सौर ऊर्जा :- इसके द्वारा भी विमान चलता था। ग्रहण कर विमान उड़ना जैसे समुद्र में पाल खोलने पर नाव हवा के सहारे तैरता है, इसी प्रकार अंतरिक्ष में विमान वातावरण से शक्ति ग्रहण कर चलता रहेगा। 
(4). वातावरण की ऊर्जा :- बिना किसी अन्य साधन के सीधे वातावरण से शक्ति ग्रहण कर विमान, उड़ना जैसे समुद्र में पाल खोलने पर नाव हवा के सहारे तैरती है उसी प्रकार अंतरिक्ष में विमान वातावरण से शक्ति ग्रहण कर चलता रहेगा। अमरीका में इस दिशा में प्रयत्न चल रहे हैं। यह वर्णन बताता है कि ऊर्जा स्रोत के रूप में प्राचीन भारत में कितना व्यापक विचार हुआ था।
विमान संचालन भारहीनता (zero gravity) की स्थति उत्पन्न की जा सकती थी। यदि पृथ्वी की गरूत्वाकर्षण शक्ति का उसी मात्रा में विपरीत दिशा में प्रयोग किया जाये तो भारहीनता उत्पन्न कर पाना संभव है।
इनके अलावा मन की गति से चलना।
Pushpak Viman of Kuber is said to be operated with the waves generated through mind and it could be expanded or contracted at will as per need.
Its very clear that the present day scientist has not even reached the tip of the vast knowledge the Rishis had. Petroleum was the worst fuel that was not used-rejected by the Rishis.
AERIAL ROUTES ::
आकाश मार्ग :: महर्षि शौनक ने आकाश मार्ग का पाँच प्रकार का विभाजन किया तथा धुण्डीनाथ ने विभिन्न मार्गों की ऊँचाई विभिन्न मार्गों की ऊँचाई पर विभिन्न आवर्त्त (whirlpools) का उल्लेख किया और उस ऊँचाई पर सैकड़ों यात्रा पथों का संकेत दिया। इसमें पृथ्वी से 100 किलोमीटर ऊपर तक विभिन्न ऊँचाईयों पर निर्धारित पथ तथा वहाँ कार्यरत शक्तियों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
आकाश मार्ग तथा उनके आवर्तों :: 
(1). रेखा पथ :- शक्त्यावृत्त (whirlpool of energy).
(2). वाता वृत्त :- wind.
(3). कक्ष पथ :- किरणावृत्त (Sun light, solar rays).
(4).  शक्तिपथ :- सत्यावृत्त (cold current).
Scientists have disfigured-traced some ancient aerial routes.
FOOD FOR  THE ASTRONAUTS वैमानिक का खाद्य :: इसमें किस ऋतु में किस प्रकार का अन्न हो, इसका वर्णन है। उस समय के विमान आज से कुछ भिन्न थे। आज के विमान उतरने की जगह निश्चित है, पर उस समय विमान कहीं भी उतर सकते थे। अतः युद्ध के दौरान जंगल में उतरना पड़ा तो जीवन निर्वाह कैसे करना, इसीलिए 100 वनस्पतियों का वर्णन दिया है। जिनके सहारे दो-तीन माह जीवन चलाया जा सकता है। एक और महत्वपूर्ण बात वैमानिक शास्त्र में कही गयी है कि वैमानिक को दिन में 5 बार भोजन करना चाहिए। उसे कभी विमान खाली पेट नहीं उड़ाना चाहिए। 1,990 में अमेरिकी वायुसेना ने 10 वर्ष के निरीक्षण के बाद ऐसा ही निष्कर्ष निकाला है।
SYSTMES OF AEROPLANE ::
विमान के यन्त्र ::  विमान शास्त्र में 31 प्रकार के यंत्र तथा उनका विमान में निश्चित स्थान का वर्णन मिलता है। इन यंत्रों का कार्य क्या है, इसका भी वर्णन किया गया है। कुछ यंत्रों की जानकारी निम्नानुसार है :-
(1). विश्व क्रिया दर्पण :- इस यंत्र के द्वारा विमान के आसपास चलने वाली गति विधियों का दर्शन वैमानिक को विमान के अंदर होता था, इसे बनाने में अभ्रक तथा पारा आदि का प्रयोग होता था।
(2). परिवेष क्रिया यंत्र :- इसमें स्वाचालित यंत्र वैमानिक यंत्र वैमानिक का वर्णन है।
(3). शब्दाकर्षण मंत्र :- इस यंत्र के द्वारा 26 किमी. क्षेत्र की आवाज सुनी जा सकती थी तथा पक्षियों की आवाज आदि सुनने से विमान को दुर्घटना से बचाया जा सकता था।
(4). गुह गर्भ यंत्र :- इस यंत्र के द्वारा जमीन के अन्दर विस्फोटक खोजने में सफलता मिलती है।
(5). शक्त्याकर्षण यंत्र :- विषैली किरणों को आकर्षित कर, उन्हें उष्णता में परिवर्तित करना और उष्णता को वातावरण में छोड़ना।
(6). दिशा दर्शी यंत्र :- दिशा दिखाने वाला यंत्र-मार्गदर्शक यंत्र। 
(7). वक्र प्रसारण यंत्र :- इस यंत्र के द्वारा शत्रु विमान अचानक सामने आ गया, तो उसी समय पीछे मुड़ना संभव होता था।
(8). अपस्मार यंत्र :- युद्ध के समय इस यंत्र से विषैली गैस छोड़ी जाती थी।
(9). तमोगर्भ यंत्र :- इस यंत्र के द्वारा शत्रु युद्ध के समय विमान को छिपाना संभव था तथा इसके निर्माण में तमोगर्भ लौह प्रमुख घटक रहता था।
TYPES-MODLES OF AEROPLANE ::
विमान के प्रकार :: इनके 56 प्रकार बताए गए हैं तथा कलियुग में कृतिका प्रकार के यंत्र चालित विमान थे। इनके 25 प्रकार बताए हैं। इनमें शकुन, रुक्म, हंस, पुष्कर, त्रिपुर आदि प्रमुख थे ।
METAL USED FOR AEROLANE BUILDING विमान शास्त्र में वर्णित धातुएं :: 
(1). तमोगर्भ लौह :- विमान शास्त्र में वर्णन है कि यह विमान अदृश्य करने के काम आता है। इस पर प्रकाश छोड़ने से 75 से 80 प्रतिशत प्रकाश (radiations, waves) को सोख लेता है। यह धातु रंग में काली तथा शीशे से कठोर तथा कान्सन्ट्रेटेड सल्फ्‌यूरिक एसिड-गंधक का अम्ल-तेज़ाब; में भी नहीं गलती।
(2). पंच लौह :- यह रंग में स्वर्ण जैसा है तथा कठोर व भारी है। ताँबा आधारित इस मिश्र धातु की विशेषता यह है कि इसमें सीसे का प्रमाण 7.95 प्रतिशत है।
(3). आरर :- यह ताँबा आधारित मिश्र धातु है, जो रंग में पीली और कठोर तथा हल्की है। इस धातु में तमेपेजंदबम जव उवपेजनतम का गुण है। 
(4). पराग्रंधिक द्रव :- यह एक प्रकार का एसिड है, जो चुम्बक मणि के साथ गुहगर्भ यंत्र में काम आता है।
AEROPLANES DESCRIBED IN VEDS वेदों  विमानों के प्रकार ::
जल यान :- यह वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था।[ऋग्वेद  6.58.3]
कारा :- यह भी वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था।[ऋग्वेद 9.14.1]
त्रिताला :- इस विमान का आकार तिमंजिला था।[ऋग्वेद 3.14.1]
त्रिचक्र रथ :- यह तिपहिया विमान आकाश में उड़ सकता था।[ऋग्वेद 4.36.1]
वायु रथ :: रथ की शकल का यह विमान गैस अथवा वायु की शक्ति से चलता था।[ऋग्वेद 5.41.6]
विद्युत रथ :- इस प्रकार का रथ विमान विद्युत की शक्ति से चलता था।[ऋग्वेद 3.14.1]
एक अन्य विमान का तथा उन की संचलन प्रणाली उल्लेख है जिसका निर्माण जुड़वा अश्वनी कुमारों ने किया था। इस विमान के प्रयोग से उन्होंने राजा भुज्यु को समुद्र में डूबने से बचाया था।[यजुर्वेद]
TREATISE ON AEROPLANES विमानिका शास्त्र :: इस में सौर ऊर्जा के माध्यम से विमान को उड़ाने के अतिरिक्त ऊर्जा को संचित रखने का विधान भी बताया गया है। एक विशेष प्रकार के शीशे की आठ नलियों में सौर ऊर्जा को एकत्रित किया जाता था, जिसके विधान की पूरी जानकारी लिखित है, किन्तु इसमें से कई भाग अभी ठीक तरह से समझे नहीं जा सके हैं।
इस ग्रन्थ के आठ भाग हैं, जिन में विस्तार पूर्वक चित्रों की सहायता से विमानों की बनावट के अतिरिक्त विमानों को अग्नि तथा टूटने से बचाव के तरीके भी लिखित हैं। ग्रन्थ में 31 उपकरणों का वर्तान्त है तथा 16 धातुओं का उल्लेख है, जो कि विमान निर्माण में प्रयोग की जाती थीं जो विमानों के निर्माण के लिये उपयुक्त मानी गयीं हैं क्योंकि वह सभी धातुयें गर्मी सहन करने की क्षमता रखती हैं और भार में हल्की हैं।
THREE TYPES OF AEROPLANES यन्त्र सर्वस्व :: यह ग्रन्थ भी ऋषि भरद्वाज रचित है। इस के 40 भाग हैं जिन में से एक भाग विमानिका प्रकरण के आठ अध्याय, लगभग 100 विषय और 500 सूत्र हैं जिन में विमान विज्ञान का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में ऋषि भरद्वाज ने विमानों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया है :-
(1). अन्तर्देशीय :- जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं।
(2). अन्तर्राष्ट्रीय :- जो एक देश से दूसरे देश को जाते थे। 
(3). अन्तीर्क्षय :-  जो एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक जाते थे। 
इनमें से अति-उल्लेखलीय सैनिक विमान थे, जिन की विशेषतायें विस्तार पूर्वक लिखी गयी हैं।
QUALITIES OF FIGHTER PLANES सैनिक विमानों की विशेषतायें ::
पूर्ण तया अटूट, अग्नि से पूरी तरह सुरक्षित तथा आवश्यकता पड़ने पर पलक झपकने मात्र समय के अन्दर ही एक दम से स्थिर हो जाने में सक्षम।
(1).  शत्रु से अदृष्य हो जाने की क्षमता।
(2).  शत्रुओं के विमानों में होने वाले वार्तालाप तथा अन्य ध्वनियों को सुनने में सक्ष्म। शत्रु के विमान के भीतर से आने वाली आवाजों को तथा वहाँ के दृष्यों को रिकार्ड (वीडियोग्राफी) कर लेने की क्षमता।
(3). शत्रु के विमान की दिशा तथा दशा का अनुमान लगाना और उस पर निगरानी रखना।
(4). शत्रु के विमान के चालकों तथा यात्रियों को दीर्घ काल के लिये स्तब्द्ध कर देने की क्षमता।
(5). निजि रुकावटों तथा स्तब्द्धता की दशा से उबरने की क्षमता।
(6).  आवश्यक्ता पडने पर स्वयं को नष्ट कर सकने की क्षमता।
(7). चालकों तथा यात्रियों में मौसमानुसार अपने आप को बदल लेने की क्षमता।
(8). स्वचालित तापमान नियन्त्रण करने की क्षमता।
(9). हल्के तथा उष्णता ग्रहण कर सकने वाले धातुओं से निर्मित तथा आपने आकार को छोटा-बड़ा करने तथा अपने चलने की आवाजों को पूर्णतया नियन्त्रित कर सकने में सक्ष्म।
LAWS-PRINCIPLES PERTAING TO AEROCRAFT BUILDING समरांगन सूत्रधारा ::  यह ग्रन्थ विमानों तथा उन से सम्बन्धित सभी विषयों के बारे में जानकारी देता है। इसके 230 पद्य विमानों के निर्माण, उड़ान, गति, सामान्य तथा अकस्मात उतरान एवम पक्षियों की दुर्घटनाओं के बारे में भी उल्लेख करते हैं। लगभग सभी वैदिक ग्रन्थों में विमानों की बनावट त्रिभुज आकार की दिखायी गयी है। किन्तु इन ग्रन्थों में दिया गया आकार-प्रकार स्पष्ट और सूक्ष्म है। कठिनाई केवल धातुओं को पहचानने में आती है।
समरांगन सूत्रधारा के आनुसार सर्व प्रथम पाँच प्रकार के विमानों का निर्माण ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर तथा इन्द्र के लिये किया गया था। तत्पश्चात अतिरिक्त विमान बनाये गये। चार मुख्य श्रेणियों का ब्योरा इस प्रकार है :-
रुकमा :- रुकमानौकीले आकार के और स्वर्ण रंग के थे।
सुन्दरः :- सुन्दर राकेट की शक्ल तथा रजत युक्त थे।
त्रिपुरः :- त्रिपुर तीन तल वाले थे।
शकुनः :- शकुनः का आकार पक्षी के जैसा था।
दस अध्याय संलगित विषयों पर लिखे गये हैं जैसे कि विमान चालकों का  प्रशिक्षण, उडान के मार्ग, विमानों के कल-पुरज़े, उपकरण, चालकों एवम यात्रियों के परिधान तथा लम्बी विमान यात्रा के समय भोजन किस प्रकार का होना चाहिये।
ग्रन्थ में धातुओं को साफ करने की विधि, उस के लिये प्रयोग करने वाले द्रव्य, अम्ल जैसे कि नींब अथवा सेब या कोई अन्य रसायन, विमान में प्रयोग किये जाने वाले तेल तथा तापमान आदि के विषयों पर भी लिखा गया है।
सात प्रकार के इंजनों का वर्णन किया गया है तथा उन का किस विशिष्ट उद्देष्य के लिये प्रयोग करना चाहिये तथा कितनी ऊँचाई पर उस का प्रयोग सफल और उत्तम होगा। प्रत्येक विषय पर तकनीकि और प्रयोगात्मक जानकारी उपलब्द्ध है। विमान आधुनिक हेलीकोपटरों की तरह सीधे ऊँची उडान भरने तथा उतरने के लिये, आगे पीछे तथा तिरछा चलने में भी सक्ष्म थे।
AIRCRAFT ENGINEERS कथा सरित-सागर :- यह ग्रन्थ उच्च कोटि के श्रमिकों का उल्लेख करता है जैसे कि काष्ठ का काम करने वाले, जिन्हें राज्यधर और प्राणधर कहा जाता था। यह समुद्र पार करने के लिये भी रथों का निर्माण करते थे तथा एक सहस्त्र यात्रियों को ले कर उड़ने वाले विमानों को बना सकते थे। यह रथ-विमान मन की गति के समान चलते थे।
महर्षि भरद्वाज :: बृहस्पति के पौत्र
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Mahrishi Bhardwaj married a Kshatriy woman called Sushila from whom he had a son called Garg. According to Anulom marriage, the off springs, who are born to a Brahman father and a Kshatriy woman take the characteristics of Kshatriy genetically, though technically being a Brahman. Hence, the Brahman descendants of this Bhardwaj Gotr are referred to as Brahm-Kshatriy (Warrior Brahmans). They are considered to have learning in Veds and war fare, simultaneously.
Bhardwaj is the father of Guru Dronachary and grandfather of Ashwasthama. Bhardwaj is one of the most exalted Gotr of Brahmans in India.
Among all the seven Gotr of Brahmans Bhardwaj constitutes the largest chain. All the disciples of Bhardwaj, since the Treta Yug to Dwapar; adopted Bhardwaj as their surname-title, since Bhardwaj had no progeny at that time. Dronachary-incarnation of Dev Guru Vrahaspati, took birth near the termination of Dwapar Yug. Prior to Dronachary, Mahrishi Bhardwaj's wife gave birth to 13 golden swans, which died immediately after the death. He has another wife called Shushila, who had a son called Garg. Later he had  10 Mantr Drashta sons and a daughter as well. Those who adopted the surname Bhardwaj were originally from different Gotr (Shasan-branch, lineage, शासन), which are 135 in number, divided into more than 1,400 sub branches-titles. Bhardwaj is the largest Gotr in India having more than 1,400 branches.
North India (Panch Goud Brahmans) Kashmir Himachal Pradesh :: Around 60% of Brahmans have Bhardwaj as their Gotr. Around 45% of Brahmans in Punjab have Bhardwaj as their Gotr. In Haryana, around 40%-45% of Brahmans have Bhardwaj as their Gotr. In Rajasthan, around 35% of Brahmans have Bhardwaj as their Gotr and Kul Devta as Bhagwan Nar Singh. South India (Panch Dravid Brahmans), has Vaediki Velanadi Brahmans with Bhardwaj Gotr. In Coastal Andhra Pradesh, Karnatak & Tamil Nadu, Smarth and Madhav Brahmans are of Bhardwaj lineage. Among Iyers and Iyangars, Namboodari Brahmans of Kerala are from Bhardwaj lineage. Bhardwaj Brahmns who migrated southwards were from Kannauj, with Bhardwaj as their title. 
Gotr :- Bhardwaj, Ved :- Yajur Ved, Devi :- Maha Kali, Isht :- Hraday.
In earlier days Sages were only Brahmans except Vishwamitr. Also all the warrior Brahmans became Kshatriy. Later all the business minded Kshatriy became Vaeshy-trader community. Hence there are people of all the three communities having a common Gotr, especially Bhardwaj Gotr. 
All the descendants of Bhardwaj Gotr display warrior skills because Mahrishi Bhardwaj married a Kshatriy woman called Sushila who had a son called Garg. According to Anulom marriage, the off springs who are born to a Brahman father and a Kshatriy woman take the characteristics of Kshatriy genetically, though technically being a Brahman. Hence, the Brahman descendants of Bhardwaj Gotr are referred to as Brahm-Kshatriy (Warrior Brahmans). They are considered to have learning in Veds and war fare, simultaneously.
Bhardwaj's Vedic Mantr constitute the sixth Mandal of the Rig Ved by Ved Vyas. Dharm Sutr and Shrut Sutr are written by Bhardwaj. The manuscript-Pandu script is available with the Vishw Vidyalay of Mumbai. He was a grammarian. As per the Rak Tantr, Prati Sakhy of the Sam Ved, Brahma Ji taught grammar to Vrahaspati who in turn taught it to Indr, who transferred this to Bhardwaj. Panini, Rak Prati Sakhy and Taettiriy have quoted and discussed Bhardwaj on grammar. Kautily (Achary Chanky-Vishnu Gupt) has quoted Bhardwaj on politics in his treatise Kautily Arth Shastr, Devant Pram Pak Yantr. 
He had an unquenchable thirst for the knowledge of the Ved and in addition to his studies, meditated on Indr. He also meditated upon Bhagwan Shiv and Maa Parvati for more Vedic knowledge. He was a disciple of Gautom Mahrishi as well as of Valmiki. He was a first hand witness to the incident of the Kaunch birds, where Valmiki uttered his first Shlok. 
The seat-Ashram of Bhardwaj Rishi still exists in Allahabad where a Shiv Ling installed by Bhardwaj is still worshipped. During Treta Yug (around 17,50,000 years from now) Bhagwan Shri Ram visited the Ashram. Mahrishi Bhardwaj's wife offered a divine cloth-Saree which would never become stained or dirty. Bhagwan Shri Ram met August-Vashist's son & Gautam. They were aware that the Almighty had descended over the earth & had visited their Ashram to oblige them. Bhagwan Shri was an incarnation of Bhagwan Vishnu, Maa Sita was an incarnation of Maa Bhagwati Laxmi and Lakshman Ji was an incarnation of Bhagwan Shesh Nag.
Bhardwaj had a daughter called Dev Varnini. Yagy Valakay, the author of the Sat Path Brahman was a descendant of Bhardwaj. The second wife of Yagy Valakay Katyayani, was the daughter of Bhardwaj. 
Bhardwaj attained extraordinary scholarship. He had the great power of meditation. He is also the author of Ayur Ved. His Ashram still exists at holy Prayag (Allahabad).
His son Dronachary was born as a result of his attraction to an Apsara Ghratachi. Bhardwaj ejected his sperms, when he got excited on looking over Ghratachi. Bhardwaj collected the sperms in a Dona (दोना, boat shaped leaf). Dron took birth out of it. Dron acquired all the abilities of his father in addition to weaponry. Dron also learnt the use of weapons from Agnivesh, Bhagwan Parshu Ram’s disciple and Bhagwan Parshu Ram himself.
महृषि भरद्वाज :: महर्षि अंगिरा का विवाह दक्ष पुत्री सती से हुआ जिससे महर्षि अथर्वागिंरस का जन्म हुआ। ये अथर्ववेद अधिकांश मंत्रों के ऋषि हैं। वाजपेय यज्ञ के प्रथम कर्त्ता त्रिसन्धि वज्र के निर्माता शिल्पाचार्य देवगुरु एवं नीति शास्त्रज्ञ तथा महान सेना नायक हुए। इनके पुत्र शंयु अग्नि भी ऋषि हैं। बृहस्पति के पौत्र तथा शंयु के पुत्र महर्षि भरद्वाज ने ऋग्वेद के छटे मंडल का सम्पादन किया। इन्हीं के नाम से भरद्वाज वंश चला।
भरद्वाज ऋषि द्वारा घृतार्ची नामक अप्सरा को गँगा स्नान कर निकलते हुये देखा तो उनके मन में काम वासना जागृत हुई और उनका वीर्य स्खलित हो गया, जिसे उन्होंने एक दोने में रख दिया। कालान्तर में उसी यज्ञ पात्र से आचार्य द्रोण की उत्पत्ति हुई, जो स्वयं देवगुरु वृहस्पति के अवतार थे। द्रोण अपने पिता के आश्रम में ही रहते हुये चारों वेदों तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में पारंगत हो गये। भगवान् परशुराम के शिष्य बन कर द्रोण अस्त्र-शस्त्रादि सहित समस्त विद्याओं के अभूतपूर्व ज्ञाता हो गये। द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। कृपी से उनका एक पुत्र हुआ। उनके उस पुत्र के मुख से जन्म के समय अश्व की ध्वनि निकली इसलिये उसका नाम अश्वत्थामा (भगवान् शिव के अवतार) रखा गया। किसी प्रकार का राजाश्रय प्राप्त न होने के कारण द्रोण अपनी पत्नी कृपी तथा पुत्र अश्वत्थामा के साथ निर्धनता के साथ रह रहे थे। द्रोण के समस्त विषयों में प्रकाण्ड पण्डित होने के विषय में ज्ञात होने पर भीष्म पितामह ने उन्हें राजकुमारों के उच्च शिक्षा के नियुक्त कर राजाश्रय में ले लिया और वे द्रोणाचार्य के नाम से विख्यात हुये।
कृपाचार्य और कृपी :: गौतम ऋषि के पुत्र का नाम शरद्वान था। उनका जन्म बाणों के साथ हुआ था। उन्हें वेदाभ्यास में जरा भी रुचि नहीं थी और धनुर्विद्या से उन्हें अत्यधिक लगाव था। वे धनुर्विद्या में इतने निपुण हो गये कि देवराज इन्द्र उनसे भयभीत रहने लगे। इन्द्र ने उन्हें साधना से डिगाने के लिये नामपदी नामक एक देवकन्या को उनके पास भेज दिया। उस देवकन्या के सौन्दर्य के प्रभाव से शरद्वान इतने काम पीड़ित हुये कि उनका वीर्य स्खलित हो कर एक सरकंडे पर आ गिरा। वह सरकंडा दो भागों में विभक्त हो गया जिसमें से एक भाग से कृप नामक बालक उत्पन्न हुआ और दूसरे भाग से कृपी नामक कन्या उत्पन्न हुई। कृप भी धनुर्विद्या में अपने पिता के समान ही पारंगत हुये। पितामह भीष्म ने इन्हीं कृप को पाण्डवों और कौरवों की शिक्षा-दीक्षा के लिये नियुक्त किया और वे कृपाचार्य के नाम से विख्यात हुये।
भारद्वाज (विरथ) :: देवगुरु वृहस्पति ने अपने भाई उतथ्य की गर्भवती पत्नी के साथ जबरदस्ती मैथुन किया, जिससे भरद्वाज का जन्म हुआ। वृहस्पति ने उसे अपना औरस और अपने भाई का क्षेत्रज अर्थात दोनों का पुत्र-द्वाज कहा (born out of two fathers) और भाई की पत्नी को उसका भरण-पोषण (भर) करने को कहा। बच्चे को माँ और बाप दोनों ने छोड़ दिया। वो बच्चा भरद्वाज कहलाया। देवताओं के द्वारा नाम का ऐसा निर्वचन होने पर भी माँ, ममता ने ऐसा समझा कि वो विरथ अर्थात अन्याय से पैदा हुआ है। अतः उसके द्वारा भी छोड़ दिए जाने पर मरुद्गणों ने उसका पालन किया। 
दुष्यन्त और शकुंतला के पुत्र राजा भरत ने 27,000 साल तक शासन किया। उन्होंने अपने पुत्रों को अपने अनुरूप नहीं पाया तो, अपनी पत्नियों को यह बता दिया। उनकी पत्नियों ने अपने बच्चों को इस डर से मार डाला कि राजा कहीं उनको छोड़ न दें। इस प्रकार सम्राट भरत का कुरु-चन्द्र वंश, वितथ-विच्छिन्न होने लगा। तब उन्होंने सन्तान की प्राप्ति के लिये मरुत्स्तोम नामक यज्ञ किया। मरुद्गणों ने प्रसन्न होकर उन्हें भरद्वाज नाम का पुत्र लाकर दिया जो विरथ कहलाया। महाराज भरत ने उसे अपना  दत्तक पुत्र स्वीकार कर लिया।[श्री मद्भागवत 9.20.34-39] 
भरद्वाज ऋषि आश्रम, इलाहाबाद :: भरद्वाज आश्रम प्रयाग का महत्वपूर्ण मंदिर है। महर्षि भरद्वाज ज्ञान-विज्ञान, वेद पुराण, आयुर्वेद, धनुर्वेद और विमान शास्त्र के जानकार आचार्य थे। उनका गुरुकुल विद्या और शिक्षा का बहुत बड़ा केंद्र था। वाल्मीकि रामायण में भरद्वाज को इस गुरुकुल का कुलपति कहा गया है।
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्री राम वन जाते हुए भरद्वाज आश्रम में आए थे। भारद्वाज मुनि ने राम का बड़े प्रेम से स्वागत किया था और उन्हें चित्रकूट जाने का मार्ग बताया। भगवान् श्री राम को चित्रकूट से वापस बुलाने के लिए भरत प्रयाग आए, तो उन्होंने ऋषि भरद्वाज के दर्शन किए।ऋषि ने अपने आश्रम के शांत वातावरण में भरत और उनके आए अतिथियों का स्वागत किया था। लंका विजय करके अयोध्या वापस लौटते समय भगवान् श्री राम ने पुनः भरद्वाज ऋषि के दर्शन किए।
इस आश्रम में भारद्वाज ऋषि ने एक शिवलिंग को स्थापित किया था। यह शिव विग्रह आज भी पूजा जाता है। इन्हें भरद्वाजेश्वर शिव कहा जाता है।
इसके अतिरिक्त भरद्वाज यजुर्वेद के 16 मन्त्रों के भी ऋषि हैं। इनमें से अधिकांश मंत्रों का देवता अग्नि है। भरद्वाज ने उस अग्नितत्व का साक्षात्कार करके उसे साधन युक्त किया और विमानन विज्ञान को उसकी चरम सीमा तक उन्नत किया जिस पर आज का विज्ञान भी नहीं पहुँच सका है। इन्होने यंत्र सर्वस्व आकाश शास्त्र, अंशुमतन्त्र तथा भरद्वाज शिल्प इन 4 शिल्प ग्रन्थों की रचना की। यंत्र सर्वस्व में 40 अधिकरण थे, जिनमें प्रत्येक में पृथक-पृथक विज्ञानों का वर्णन था। इनमें से केवल वैमानिक अधिकरण के 500 सूत्रों में से 4 सूत्र वोधानन्द की वृति के सहित प्राप्त हुए, जिनमें विमान के 32 रहस्यों का वर्णन मिलता है, जिन्हें पढ़कर भारत की अद्वितीय शिल्प उन्नति की कर्मावस्था का परिचय मिलता है। भरद्वाज की महती प्रतिभा अनुपम तपस्या एवं वेद विज्ञानंनिष्ठां का अद्वितीय वर्णन तैत्तिरीय ब्राह्मण (3.10.11) में मिलता है। 
भरद्वाज ऋषि का वैमानिक शास्त्र :: महर्षि भरद्वाज द्वारा लिखित वैमानिक शास्त्र जिसमें एक उड़ने वाले यंत्र विमान के कई प्रकारों का वर्णन किया गया था तथा हवाई युद्ध के कई नियम व प्रकार बताए गए।
वैमानिक शास्त्र में भरद्वाज मुनि ने विमान की परिभाषा, विमान का चालक जिसे रहस्यज्ञ अधिकारी कहा गया, आकाश मार्ग, वैमानिक के कपड़े, विमान के पुर्जे, ऊर्जा, यंत्र तथा उन्हें बनाने हेतु विभिन्न धातुओं का जैसा वर्णन किया गया है, जो कि आधुनिक युग में विमान निर्माण प्रकिया से काफी अधिक विकसित है।
भरद्वाज ऋषि द्वारा उनसे पूर्व के विमान शास्त्री आचार्य और उनके ग्रंथों का वर्णन :: (1). नारायण द्वारा रचित विमान चन्द्रिका, (2). शौनक द्वारा रचित व्योमयान तंत्र, (3). गर्ग द्वारा रचित यन्त्रकल्प, (4). वायस्पति द्वारा रचित यान बिन्दु, (5). चाक्रायणी द्वारा रचित खेटयान प्रदीपिका और (6). धुण्डीनाथ द्वारा रचित व्योमयानार्क प्रकाश।
वैमानिक शास्त्र में उल्लेखित प्रमुख पौराणिक विमान :: (1). गोधा ऐसा विमान था जो अदृश्य हो सकता था। इसके जरिए दुश्मन को पता चले बिना ही उसके क्षेत्र में जाया जा सकता था, (2). परोक्ष दुश्मन के विमान को पंगु कर सकता था। इसकी महत्ता एक मुख्य युद्धक विमान के रूप में है। इसमें प्रलय नामक एक शस्त्र भी था जो एक प्रकार की विद्युत ऊर्जा का शस्त्र था, जिससे विमान चालक भयंकर तबाही मचा सकता था और (3). जलद रूप एक ऐसा विमान था जो देखने में बादल की भाँति दिखता था। यह विमान छ्द्मावरण में माहिर होता था।
भरद्वाज गौत्र-कुल के तीन प्रमुख स्त्रोत्र :: आंगिरस, वृाहस्पत्य और भारद्वाज। 
(1). आंगिरस :: ये अंगिरा वंशी देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं। इनके दो भाई उतथ्य और संवर्त ऋषि तथा अथर्वा जो अथर्व वेद के कर्त्ता हैं और वे भी आंगिरस हैं। ये मनुष्यों के वे प्रथम पुरूष हैं, जिन्होंने मनुष्यों के प्रयोग हेतु अग्नि को उत्पन्न किया, भाषा और छन्द विद्या का प्रवाह किया। इन, ऋग्वेद के नवम मण्डल के मन्त्रों के दृष्टाओं ने अपने वंशधरों को एक मण्डल में स्थापित किया और ब्रह्मदेव से ब्रह्म विद्या प्राप्त कर समस्त ऋषियों को ब्रह्म ज्ञान-तत्व दर्शन का उपदेश दिया। अथर्ववेद का एक कल्प आंगिरस कल्प है। आत्मोपनिषद में इनकी ब्रह्मज्ञान विद्या का निर्देशन है। इन्होंने आदित्यों से स्वर्ग में पहले कौन पहुँचे, ऐसी शर्त लगाई और स्वर्ग काम यज्ञ का अनुष्ठान किया। किन्तु आदित्य स्वयं तेजधारी होने से पहले स्वर्ग पहुँचे। इन्होंने  स्वर्ग से कामधेनु प्राप्त की। ये सर्वप्रथम गोस्वामी बने परन्तु इन्हें गौ दोहन नहीं आता था, जिसका ज्ञान इन्होंने अर्यमा सूर्य से प्राप्त किया। ये समस्त भूमण्डल में भ्रमण करने वाले पृथ्वी पर्यटक थे। जिन्होंने विश्व की सभी मानव जातियों को जो महामुनि कश्यप से उत्पन्न हुईं थीं को यथास्थान बसाया तथा खरबों वर्ष पहले उसे उपयोगी बनाया और मनुष्यों को अनेक विद्याओं का प्रशिक्षण दिया। ये अपने समय के समस्त भूमण्डल में स्थापित तीर्थों के ज्ञाता थे, जिनकी समय-समय पर बहिर्मडल यात्रायें, इन्होंने प्रहलाद जी राजा बाहु बलि, जामवन्त जी, हनुमान जी महाराज तथा सुग्रीव आदि-आदि को करायी थीं।
प्रवर :: वंश, कुल, पूर्व पुरुष, सर्वश्रेष्ठ, प्रधान, प्रमुख, उम्र में बड़ा, उच्चतर; upper, senior, superior.
अल्ल या अड़क :: गौत्र-वंश की शाखाएँ, निकास; branches of a dynasty.
आंगिरस कुल में प्रतापी-यशस्वी पुरूष :: देवगुरु बृहस्पति, अथर्वेवेद कर्ता अथर्वागिरस, महामान्यकुत्स, श्री कृष्ण के ब्रह्माविद्या गुरु घोर आंगिरस मुनि। भर ताग्नि नाम का अग्निदेव, पितीश्वरगण, गौत्तम, बामदेव, गाविष्ठर, कौशलपति कौशल्य (भगवान् श्री राम के नाना), पर्शियाका आदि पार्थिव राज, वैशाली का राजा विशाल, आश्वलायन (शाखाप्रवर्तक), आग्निवेश (वैद्य) पैल मुनि पिल्हौरे माथुर (इन्हें महर्षि वेदव्यास ने ऋग्वेद प्रदान किया), गाधिराज, गार्ग्यमुनि, मधुरावह (मथुरा वासी मुनि), श्यामायनि राधाजी के संगीत गुरु, कारीरथ (विमान शिल्पी) कुसीदकि (व्याज खाने वाले) दाक्षि (पाणिनि व्याकरण कर्त्ता के पिता), पतंजलि (पाणिनि अष्टाध्यायी के भाष्कार), बिंदु (स्वायंम् मनु के बिंदु सरोवर के निर्माता), भूयसि (ब्राह्मणों को भूयसि दक्षिणा बाँटने की परम्परा के प्रवर्तक), महर्षि गालव (जैपुर गल्ता तीर्थ के संस्थापक), गौरवीति (गौरहे ठाकुरो के आदि पुरूष), तन्डी (भगवान् शिव के सामने तांडव नृत्य कर्ता रूद्रगण), तैलक (तैलंगदेश तथा तैलंग ब्रह्मणों के आदि पुरूष), नारायणि (नारनौल खन्ड वसाने वाले), स्वायंभूमनु (ब्रहषि देश ब्रह्मावर्त के सम्राट मनुस्मृति के आदि मानव धर्म के समाज रचना नियमों के प्रवर्तक), पिंगल नाग (वैदिक छन्द शास्त्र प्रवर्तक), माद्रि (मद्रदेश मदनिवाणा के सावित्री (जव्यवान) के तथा पाँडु पाली माद्री के पिता अश्वघोषरामा बात्स्यायन (स्याजानी औराद दक्षिण देश के काम सूत्र कर्ता), हंडिदास (कुवेर के अनुचर ऋण बसूल करने वाले हुँडीय यक्ष हूड़ों के पूर्वज), बृहदुक्थ (वेदों की उक्थ भाषा के विस्तारक भाषा विज्ञानी), वादेव (जनक के राज पुरोहित), कर्तण (सूत कातने वाले), जत्टण (बुनने वाले जुलाहे) विष्णु सिद्ध (खाद्यात्र (काटि) कोठारों के सुरक्षाधिकारी), मुद्गल मुदगर बड़ी गदा) धारी, आग्नि जिव्ह (अग्नि मन्त्रों को जिव्हाग्र रखने वाले) देव जिव्ह (इन्द्र के मन्त्रों को जिव्हाग्र धार), हंस जिव्ह (प्रजापति ब्रह्मा के मन्त्रों के जिव्हाग्र धारक), मत्स्य दग्ध (मछली भूनने वाले), मृकंडु मार्कडेय, तित्तिरि तीतर धर्म से याज्ञवल्क्य मुनि के वमन किये कृष्ण्यजु मन्त्रों को ग्रहण करने वाले तैतरेय शाखा के ब्राह्मण), ऋक्ष जामवंत, शौंग (शुंग वन्शी तथा माथुर सैगंवार ब्राह्मण) दीर्घ तमा ऋषि (दीर्घपुर डीगपुर ब्रज के बदरी वन में तप करने वाले) हविष्णु (हवसान अफ्रीका देश की हवशी प्रजाओं के आदि पुरूष) अयास्य मुनि (अयस्क लोह धातु के आविष्कर्ता) कितव (संदेशवाहक पत्र लेखक किताब पुस्तकें तैयार करने वाले देवदूत) कण्व ऋषि (ब्रज कनवारौ क्षेत्र के तथा सौराष्ट्र के कणवी जाति के पुरूष) आदि अनेक महानुभावों ने आंगिरस कुल में जन्म लेकर अथवा इनका शिष्यत्व रूप अंग बनकर भारतीय धर्म और संस्कृति को विश्व विख्यात गौरव माथुरी गरिमा के अनुरूप् प्रदान किया है। वृहस्पति का जन्म स्थान द्युलोक के शीर्ष स्थल घौसेरस में है ।
(2). वृाहस्पत्य :: देव गुरु वृहस्पति और उनकी पत्नी तारा से उत्पन्न 7 आग्नि देव पुत्र तथा प्रधान पुत्र कच (कछपुरा तथा कुचामन राजस्थान) ही वार्हस्पत्य हैं। तारा के पुत्र भुगु निश्च्यवन विश्वभुज विश्वजित बड़वाग्नि जातवेदा (स्पिष्ट कृत) हैं। ये सभी वेदों में वर्णित और यज्ञों में पूजित हैं। बच ने शुक्र कन्या देवयानी के प्रेम सम्बन्ध को  नकार दिया जिससे श्राप स्वरूप मृत संजीवनी विद्या उनके लिये बेअसर हो गई। यह देवों से पूज्य यज्ञ भाग प्राप्त कर्त्ता ऋषियों में परम आदरणीय हुए हैं। देवयानी पीछे शर्मिष्ठा के साथ ब्रज में ययाति के पुर (जतीपुरा) में आकर शर्मिष्ठा के उपवन (श्याम ढाक) में आकर रही और ययाति से देवयानी वन (जान अजानक वन) में यदु तुर्वसु पुरू, जिनका वर्णन ऋग्वेद में है, अपने पुत्रों के साथ रहे। शर्मिष्ठा से (श्याम ढाक वन) दुह्मु अनु (आन्यौर) और पुरू हुए। ययाति ने सुरभी गौ नाम की अप्सरा से सुरभी बन पर (अप्सराकुन्ड) अलका से अलकापुरी अलवर में, विश्वाची अप्सरा से अप्सरा सरोवर वन में विहार किया। वृहस्पति की एक पत्नि जुहू (जौहरा) भी थी जिससे जौहर करने वाले जुहार शब्द से अभिवादन करने वाले यहूदी वंश तथा जौहरी कायस्थ तथा युद्ध में आगे लड़ने वाला हरावल दस्ता जुझाइऊ वीर उत्पन्न हुए। ये सब वृार्हस्पत्य थे। 
(3). भरद्वाज वंश को  मत्स्य पुराण में कुलीन वंश कहा गया है।
(3.1). पाँडे :: पाँडे शिक्षा कर्म के आचार्य सुप्रसिद्ध व्याकरण कर्त्ता पाणिनि अष्टाधारी ग्रन्थ रचयिता के वंशज थे। विद्यार्थियों को आरम्भ से ही भाषा शास्त्र का अध्ययन कराने के कारण ये पाँडे नाम से प्रतिष्ठित हैं। पाँड़े (अध्यापक) और चट्टा (विद्यार्थी) जो चट या चटाई पर बैठकर गुरु के चरणों में श्रद्धा रखकर विद्या ग्रहण करता है, यह दोनों शब्द माथुरी संस्कृति में लोक प्रसिद्ध हैं। सबसे प्राचीन व्यारणकार भरद्वाज के भरद्वाजीय व्याकरण ग्रन्थों के आधार पर पाणिनि ने अपना अष्टध्यायी व्याकरण ग्रन्थ तथा भाषा उच्चारण का ग्रन्थ पाणिनि शिक्षा की रचना की थी। शिक्षकों को पाँड़े पाणियाँ, राजस्थान आदि प्रान्तों में भी कहा जाता है। इन्होंने ऋग् प्रतिशाख्य भरद्वाजीय व्याकरण आदि ग्रन्थों के आधार पर अपना अष्टाध्यायी ग्रंथ रचा। ये मौर्य शासन काल में भी प्रसिद्ध हुए। इनका छोटा भाई पिगंल छन्द शास्त्र  रचनाकार था। व्याडि नाम का व्याकरण विद्वान भी इनका सहाध्यायी था। व्याडि (बाढ़ा उझानी) दक्ष गोत्री दाक्षायण थे और इनके मामा थे तथा इनकी माता दाक्षी होने से इन्हें "दाक्षीपुत्रो पाणिनेय:" पिंगलनाग कहा गया है। पाणिनि का ग्राम पानीकौ तथा शालातुरी परिवार का क्षेत्र यमुना तट का स्यारये कौ घाट मथुरा अंचल में है। पिंगल का पिगोरा भी इसी क्षेत्र में है। पाणिनी का कार्य क्षेत्र तक्षशिला, कंधार भी था। पाणिनी ने अपने पूर्वाचार्यों में कौत्स शिष्य मांडव्य, पाराशर्य, शिलालि, कश्यप, गर्ग, गालब, भारद्वाज, चक्रवर्म (चकेरी), शाकटायन, स्फोटायन सेनुक आदि के नाम लिखे हैं।
पाणिनि का दक्ष दौहित्र होना उन्हें प्रबल रूप से मथुरा का माथुरा ब्रह्मण होना सिद्ध करता है क्योंकि दक्ष गोत्र माथुरों के अतिरिक्त और किसी ब्रह्मण वर्ग में नहीं है तथा इनके मामा व्याड़ि को स्पष्ट ही "तत्र भवान् दाक्षायणा: दाक्षिर्वा" कहा गया है। दाक्षी ऋषि को अंगिरा वंश में स्थापित किया गया है।[मत्स्य पुराण] 
व्याडि को रसाचार्य कवि और शब्द ब्रह्म व्याकरणज्ञाता पुन: भी कहा है :-
रसाचार्य: कविर्व्याडि: शब्द ब्रह्मैकवाड् मुनि:। 
दाक्षी पुत्र वचो व्याख्या पटुमिंमांसाग्रणी[सम्राट समुद्र गुप्त की प्रशन्ति]
पाणिनी ने कृष्ण चरित्र तथा व्याडि ने बलराम चरित्र काव्यों की रचना भी की थी। पाणिनि ने अष्टाध्यायी में नलंदिव नाम के स्थान का उल्लेख किया है, जो मथुरा नगर का प्राचीन टीला नकती टेकरा ही है। अष्टाध्यायी पर माथुरी वृत्ति भी है। पाणिनि के भाष्यकार परम विदुष महर्षि पतंजलि धौम्य गोत्रिय श्रोत्रिय (सोती) माथुरा वंश विभूषण थे। वे पुष्यमित्र शुंग (भरद्वाज गौत्री सौगरे) के द्वारा आयोजित अश्वमेध यज्ञ के आचार्य थे। नागवंशी होने से, ये कारे नाग तिवारी शाखा में थे। ये अंगिरा कुल कुत्स गौत्रियों के शिष्य थे। पातंजलि शुंग काल से चन्द्र गुप्त मौर्य काल तक थे तथा इनके समय उत्तर भारत पर यवनों के आक्रमण होने लगे थे। पातंजलि सामवेदी कौथुम शाखा के थे तथा इनका निवास गोनन्द गिरि नदवई ब्रज में था। पांड़े वंश की प्रशाखाओं में खैलावंश, घरवारी, कुइया, बुचईबन्श, मारियाँ, डुगहा, काजीमार, होली पाँडे़, शंकर गढ़ के पाँड़े आदि उल्लेखनीय हैं। कारेनाग, दियोचाट (सद्योजात वामदेव रूद्रत्रण), चौपौरिया, जैमिनी वंश भी इनके प्राचीन वंश हैं।
जैमिनी महर्षि वेद व्यास के साम वेदाध्यायी शिष्य थे। ये कौत्स के वंशज थे। ये युधिष्ठर के राजसूय में तथा जनमेजय के सर्प-सव में व्यास शिष्य वैशम्पायन के साथ सम्मिलित थे। इन्होने मथुरा में व्यास आश्रम कृष्ण गँगा पर निवास कर साम वेद उपलब्ध किया था। जैमन, जैमाचूठी जौंनार इनके प्रिय संस्कृति सूत्र हैं। इनके सहाध्यायी महर्षि पैल थे, जिन्हें महर्षि वेदव्यास ने ऋग्वेद दिया था और आज थे पिल्हौरे माथुर कहे जाते हैं।
(3.2). पाठक :: ये वैदिक संहिताओं के यज्ञ समारोहों में सस्वर पाठ करने वाले वैदिक महर्षि थे। ब्राह्मण ग्रन्थों में पाठ सक भाग इन्हीं के अनुभव के संकलन हैं। यह भी प्रभावशाली वर्ग है। अन्य अल्लौं में रावत (पारावत) मावले (महामल्ल), अझुमिया (अजमीढ यादव प्रोहित, यज्ञ में अग्न्याधाम होने पर प्रथम आज्य की आहुतियाँ डालकर अग्नि देव को चैतन्य करते थे), कोहरे (कहोल वंशज), चौपौलिया (चौपालों पर बैठकर माथुर आवासों की चौकसी और रक्षा करने वाले), रिली कुमारिल मट्ठ  के वेदोद्धारक प्रयासों के प्रबल सहायक (आरिल्ल नाम के वीर रस के छन्दों के अग्रगायक), वीसा (विश्वासव सुगंधर्व राज के पुरोहित), सद्द (धर्म निर्णायक परिषदों के संचालक), तिवारी (त्रिवेदी), लौहरे (लोहबन के निवासी), नसवारे (कनिष्क कंसासुर वंश के याजक, नशेबाज), सिकरौलिया (सिकरौल वासी), मैंसरे (महिष वंश, भौंसले, भुसावल, महिसाना, मैसूर, मस्कत, मसूरी आदि क्षेत्रों की प्रजाओं के पुरोहित, उचाड़े (उचाड़वासी), गुनारे (फाल्गुनी यज्ञ होलीकोत्सव के आयोजक, मिश्र (वेद और तन्त्र दोनों की मिश्रित विद्याओं से यज्ञ कराने वाले, जनुष्ठी (जन्हु यादव के पुरोहित-जुनसुटी निवासी) चतुर (युक्ति चतुर), डुंडवारिया (गंग डुंवारा के-पैठवाल पैठा गाँव वाले), दरर (विधाधरों के), पूरबे (पुरूरवा के) हलहरे (हालराज के) मारौठिया (मारौठवासी), जिखनियाँ (जिखन गाँव के) अगरैंया (आगरा के), दुसाध (दुसाध निषादों के सहवासी), सुमेरधनी (सुमेरू युक्त बड़ी सुमिरनी माला पर जाप करने वाले) आदि। 
अन्य अल्ल :- बाबले (बाबर के सेवा श्रमी), बहरामदे (अकबर के फूफा बैरम ख़ाँ के आश्रर्य जीवी), दाहरे (सिंध के धार्मिक राजा दाहर के सभासद 769 ई.पू. में यह यवन खलीफा के सेनापति इबने फासिम के आक्रमण से पराजित होकर ब्रह्मर्षि देशों में भाग आया था और धर्मचर्या तथा त्याग रूप जीवन में उपराम लिया था), दारे (शाहजहाँ का वेद वेदांत धर्म चिन्तक शाहजादा दारा के सहायक। दारा को शाहजहाँ ने पँजाब और दिल्ली मथुरा का इलाका दिया था। वह केशव नारायण श्री यमुना जी और माथुर ब्रह्मणों का परम भक्त था। औरंगजेब के हाथों छत्रसाल के पिता चंपतराय के द्वारा इसका धौलपुर के युद्ध में पराभव और वध हुआ), साजने (शाहजहाँ बादशाह के राज कर्मचारी गण) जहाँगीर बादशाह के (जहाँगीरपुर गाँव के निवासी) आदि।
(3.3). सौश्रवस गौत्र :: ये विश्वामित्र के वंशज हैं, जो भरद्वाज की शिष्य परम्परा के अंतर्गत आते हैं। ये मथुरा के क्षेत्र में सौश्रबस आश्रम (सौंसा साहिपुरा) में रहने थे। इनके तीन प्रवर विश्वामित्र देबराट् औदले हैं। सौश्रबस सुश्रबा महर्षि के पुत्र थे। ये और्व राजर्षि के पुरोहित थे। [पंचबिश ब्राह्मण 14.6.8]। अपने पिता सुश्रवा की अवमानना करने पर सुश्रवा के निर्देश पर और्व ने इनका सिरच्छेद कर दिया जिसे भक्ति से प्रभावित इन्द्र ने पुन: संधाधित किया।
(3.3.1). विश्वामित्र :: ये राजऋषि से ब्रह्म ऋषि बने और इनके वंशज कौशिक कहलाते हैं। इनका काल कम से कम 18 लाख वर्ष पूर्व तथा मूल स्थान मथुरा में कुशिकपुर (कुशकगली) था। 
(3.3.2). देवराट :: ये विश्वामित्र के संरक्षित थे। मूलत: इनका नाम शुन: शेष (कुत्ते की पूँछ) था। ये अपने पिता के उपेक्षित पुत्र थे। अयोध्यापति महाराज हरिचन्द ने जब वरूण देव की मान्यता करके भी अपना पुत्र रोहिताश्व उसे बलि नहीं दिया तब वरूण देव ने उसके उदर में जलरोग (जलोदर) उत्पत्र किया। इस संकट से मुक्त होने को ऋषियों ने राजा को किसी अन्य कुमार को अपने पुत्र के प्रतिनिधि रूप में बलि अर्पित करने की सलाह दी ।
प्रयत्नों के बाद ब्राह्मण कुमार शुन: शेष को उसका पिता द्रव्य के बदले देने को राजी हो गया। जब ब्राह्मण कुमार बलि हेतु यज्ञ यूप से बाँधा गया तो वह  भयार्त होकर रूदन करने लगा, इस पर विश्वामित्र को करूणा उत्पत्र हुई और उन्होंने शुन: शेष के समीप जाकर उसे वरूण स्तुति के कुछ अति प्रभावोत्पादक दीनता सूचक मन्त्र बताकर पाठ करवाये। वरूण देव इन मन्त्रों से दयाद्रवित हो गये और शुन:शेष को बलि मुक्त कर दिया। विश्वामित्र ने तब चरणों में लिपटे विप्र कुमार को छाती से लगाया और उसको शुन: शेष (कुत्ते की पूँछ) जैसे हीन नाम से देवराट (देवों का राजा इन्द्र) जैसा नाम दिया तथा अपने 100 पुत्रों में सबसे श्रेष्ठ मानकर सबको उसका मान करने की आज्ञा दी। विश्वामित्र ने वेद विद्या पढ़ाकर देवराट को वैदिक ऋषियों में स्थान दिलाया। उसके मन्त्र ऋग्वेद में हैं। यह शुन: शेष देवराट माथरों के उत्तम ब्राह्मण वंश में प्रविष्ठ हुआ और सौश्रवसों का प्रवरीजन स्वीकृत हुआ। इसका समय हरिश्चन्द्र काल क्रम 17,50,000 वर्ष है।
(3.3.3). औदले :: यह महर्षि उछालक के पुत्र थे। इनका मूलनाम आरूणी पाँचाल था। वो मथुरा निवासी धौम्य आचार्य (आपोद धौम्य) के शिष्य थे। इनकी गुरु भक्ति की कथा सर्वोपरि है। एक बार अपने मथुरा के धौस्य आश्रय (धामला बाग) में समीप के खेत पर वर्षा के पानी को रोकने हेतु गुरु ने उन्हें भेजा। पानी किसी भी प्रकार न रूकने पर आरूणी ने जल धारा के बीच लेटकर पानी बन्द किया। काफ़ी रात गये गुरुजी आरूणी को खोजने निकले तो आवाज लगाने पर उसे जल प्रवाह के बीच लेटा हुआ पाया। (इस महान गुरुभक्ति से प्रभावित होकर गुरु ने उन्हें हृदय से लगा लिया तथा सभी वेद, ब्रह्म विद्यायें प्रदान कीं तथा उसका नाम आरूणी के स्थान पर उद्दालक नाम रखा।
आगे चलकर यह महान ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी हुआ। इसका महर्षि याज्ञवल्क्य से ब्रह्मविद्या पर संवाद हुआ। इसने अपनी आध्यात्म विद्या परम्परा वेदगर्भ ब्रह्म से आरम्भ की तथा इन्द्र द्युम्न, सत्य यज्ञ, जनक तक जारी रखी। वुडिल इनसे ब्रह्म ज्ञान पाने को आये थे। इन्होंने  कुशिक वंश की कन्या से विवाह किया जिससे इन्हें श्वेत केतु नचिकेता (नासिकेत) तथा सुजाता पुत्री हुई। यह सुजाता कहोल ऋषि (काहौ माथुर वंश) को व्याही, जिससे अष्टावक्र नामक पुत्र हुआ। श्वेतकेतु ने जनक सभा में याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ किया। इसके पिता उद्दालक ने इन्हें तत्वम नाम की विद्या का उपदेश किया। श्वेतकेतु माथुर ने कुरू पाँचाल (काख पचावर) में निवास कर जावली गाँव के राना प्रवाहल जैविली से ब्रह्म विद्या आकर सीखी। ये परमाणु विद्या के भी महान ज्ञाता थे। श्वेत केतु को समाज व्यवस्थापक सामाजिक नियमों की स्थापत्र, विवाह संस्था, यज्ञ संस्था, ब्राह्मण को मद्यपान निषेध परस्त्री गमन, विवाह के बाद कर्त्तव्य पालन, राज्यभिषेक के नियमों का कठोर विधान करने से इन्हें भारतवर्ष का सर्वप्रथम समाज सुधारक माना जाता है। उद्दालक पुत्र नचिकेता, पिता की भर्त्सना पर सदेह जीवित यमपुर गये और यमलोक दर्शन कर यमदेव से संवाद कर लौटकर आये तथा यमपुरी की सारी व्यवस्था मनि मण्डल को सुनाई। इनका यात्रा वृत्तांत नसिकेत पुराण में विस्तार से वर्णित है। अष्टावक्र जी ने विदेह जनक की सभा विजय कर पिता का बदला लिया तथा सब पराजित पंडित मुक्त किये।
(3.4). सौश्रवसों की अल्ल 14 :: 
(3.4.1). मिश्र :: ये मिश्र देश के मग (मगोर्रा) और शाकल दीमी ब्राह्मणों में से हैं, जो नेदिषाण्य और मिश्रिक मासध तीर्थों में ब्रह्मा के चक्र की नेमि (धुरा) टूटने के सीमा स्थान पर आयोजित यज्ञ में स्वीकृत किये गये। भगवान् श्री कृष्ण के पुत्र साम्ब (भगवान् श्री कृष्ण के शापित पुत्र)  ने शाक द्वीप शक प्रदेश के कहोलपुर काहिरा में जब विशाल सूर्य मन्दिर की स्थापना की तो वहाँ सूर्य पूजा के लिए मग ब्राह्मणों के बुलाकर नियुक्त किया गया जो मिश्र या मिश्री ब्राह्मण हैं। 
मिश्रों में छ: भेद :–
(3.4.1.1). छिरौरा :- अप्सरापुर (कोटा, छिरोरा गाँव मथुरा) के निवासी। 
(3.4.1.2). गोरावार :- गजनी गोर नगर के यवनों का पुर गोराओं राजस्थान के गौरी वंश के यवनों के अधिष्ठाता।
(3.4.1.3). परिदान :- फारस पर्शिया तथा पेरिस (फ्रांस) में परी कथायें सुनाने वाले। मुग़लों में इस वंश की फरीद वेगम, फरीदकोट, शेख फरोदू, फरीदाबाद प्रसिद्ध हुए तथा पारसियों बोहराओं की बड़ी सँख्या इस्लामी अत्याचारों से त्रस्त्र भारत में आकर बसी हुई है। ये सूर्य और अग्नि के उपासक हैं। 
(3.4.1.4). डवरैया :- उवरा (ग्वालियर) के निवासी। 
(3.4.1.5). चौथैया :- पेशवाओं ने मुग़ल बादशाह मुहम्मदशाह से 1,765 ई.पू. में सारे मुग़ल साम्राज्य में लगे बादशाही भूमिकर में से चौथाई कर अपने लिए वसूल करने की सनद लेली और सारे देश में सर्वत्र चौथ जबरन बसूल करने लगे इस काल में उनके सहायक होने से वे माथुर चौथैया कहलाये।
(3.4.1.6). तिहाब-तिहैया :- मथुरा तथा ब्रज में तीर्थ यात्रियों के दान में से तिहाब (तृतिया भाग) बसूल करने वाले "तिहाब के" या तिहैया कहे जाने लगे।
(3.4.2). पुरोहित :- पौरोहित्य कर्म, कुल पुरोहित, तीर्थ पुरोहित, यज्ञ पुरोहित आदि में सर्वत्र सम्मान प्राप्त यह वर्ग प्रोहित है ।
(3.4.3). जनुष्ठी :- जन्दु राना यादव को यज्ञ इष्ठि कराकर, उनके नाम से ब्रज में जान्हवी गंगा प्रसिद्ध करने वाले जन्हु क्षेत्र आनूऔ जनूथर जूनसुटी के निवासी।
(3.4.4). चन्दबारिया :- चन्दवार के निवासी।
(3.4.5). वैसांधर :- वैश्वान अग्नि जिसने समस्त विश्व में भ्रमण कर विश्व के जंगली (यूरोपियन, एशियन, अफ्रीकी अमरीकी अष्टेरियन), लोगों को आग्नि का उत्पादन संरक्षण और पाक विद्या में प्रयोग सिखाया।
(3.4.6). धोरमई :- ध्रुवपुर धौरेरा के निवासी।
(3.4.7). चकेरी :- भगवान् श्री कृष्ण की चक्र सेना के योद्धा।
(3.4.8). सुमावलौ :- सोमनाथ शिव मथुरा के भक्त सोमराजा जो उत्तर दिशा से सोमबूटी मूंजबान पर्वत कश्मीर से मगवाकर सोमयज्ञ सम्पत्र कराने वाले पुरोहित। 
(3.4.9). साध :- निषाद जाति को उपनिषद विद्या प्रदान करने वाले तथा राजानल के निष्धदेश के पुरोहित ।
(3.4.10). चौपौलिया :- चार द्वारों की पौरी चौपरा युक्त भवन बनवाकर रहने वाले।
(3.4.11). बुदौआ :- बौद्धों के स्पूपों मठों बिहारों के निर्देशक बौद्धों को बौद्ध स्मारकों की तीर्थ यात्रा कराने वाले।
(3.4.12). तोपजाने :- ये स्तूप ज्ञानी हैं जो जैनों और बौद्धों को उनके स्तूपों चैत्यों बिहारों के दर्शन कराकर उनका महत्व और इतिहास बतलाकर नका पौरो दिव्य कर्म संवादन करते थे।
(3.4.13). चातुर :- राजकाज में चतुर लोगों का वर्ग।
(3.4.14). छिरौरा :- कहीं छिरौराओं को मिश्रों से अलग स्वतन्त्र अल्ल गिना जाता है।
सौश्रवसो की शाखा आश्वलायनी वेद ऋग्वेद है।
(4). धौम्य गौत्र ::  धौम्य का पूरा नाम आपोद धौम्य था। इनके वंश का बहुत महत्वपूर्ण विस्तार रहा है। जिसमें कश्यप यजमान ऋते युराजा आसेत. देवल. सांडिल्य, रैम्य कश्यप पुत्री ब्रह्मा की मानसी सृष्टि तथा नागपुरा की संरक्षिका मनसा देवी मानसी गंगातट गोवर्धन। महाभारत के अनुसार इसी वंश में व्याघ्रपाद के पुत्र महर्षि और धौम्य हुए हैं। ये महर्षि कश्यप के वंश में महा प्रतापी हुए हैं। पांडवों के रक्षक और पुरोहित होने से पांडव कुल में परम सज्मानित थे तथा महाभारत में सर्वत्र इनकी श्रेष्ठता वर्म निष्ठा और तेजस्विता का वर्णन है। इनका निवास स्थान मथुरा में धौम्य आश्रम धामला कूप और गोपाल बाग सूर्य क्षेत्र हैं। गोपाल बाग में ही श्री यमुना महारानी जी की बहिन सूर्यपुत्री तपती देवी (तत्ती माता) विराजमान हैं तथा कार्वित शुक्ल गोपाष्ठमी को भगवान् श्री कृष्ण और बलराम जी गौ चारन का उत्सव (मेला) मनाते, सत्राजित को स्यमंतक मणि एवं पांडव पत्नि द्रोपदी को अक्षय पात्र प्रदाता, महाराज शान्तुन को भीष्म पुत्र तथा सिद्ध मन्त्रायुर्वेद विधा प्रदाता भगवान् सूर्य की सेवा में पधारते हैं। धौम्य कूप (धामला) का पानी बहुत शुद्ध और गुणकारी माना जाता है और उसे अनेक माथुर (चतुर्वेदी पहलवान) लोग स्वस्थ वृद्धि के लिए पीते हैं।
धौम्य के कश्यप वंश में 3 प्रतापी प्रवर जन :-
(4.1). कश्यप :- प्राचीन बर्हिवन्श।
(4.2). आवत्सार :- कश्यप पुत्र, नैध्रुव आवत्मार पुत्र हैं। 
(4.3). नैध्रुव :- ये आवत्सार के पुत्र हैं। ये ऋग्वेद के मन्त्रद्दष्टा (9-63) हैं। च्यवन भार्गव की कन्या सुमेधा इनको ही व्याही थी। ये प्राचीन काल के 6 ब्रह्म वादियों कश्यप, अवत्सार, नैध्रुव, रैम्य, आसित और देबल में से प्रसिद्ध ब्रह्मबिद्या के आचार्य थे।
धौम्य वंश परम्परा महर्षि कश्यप से अलग है। समस्त सृष्टि की रचना महर्षि कश्यप से ही प्रारम्भ हुई थी। 
उन्होंने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान पाया।[चरक संहिता]
वे ब्रह्मा, बृहस्पति एवं इन्द्र के बाद वे चौथे व्याकरण-प्रवक्ता थे।[ऋक्तंत्र] 
उन्होंने व्याकरण का ज्ञान इन्द्र से प्राप्त किया था।[प्राक्तंत्र 1.4]) 
महर्षि भृगु ने उन्हें धर्मशास्त्र का उपदेश दिया। तमसा-तट पर क्रौंचवध के समय भरद्वाज वाल्मीकि के साथ थे।
वे व्याकरण, आयुर्वेद संहित, धनुर्वेद, राजनीतिशास्त्र, यंत्रसर्वस्व, अर्थशास्त्र, पुराण, शिक्षा आदि पर अनेक ग्रंथों के रचयिता हैं। वर्तमान समय में यंत्र सर्वस्व तथा शिक्षा ही उपलब्ध हैं। 
उन्होंने आयुर्वेद संहिता लिखी थी, जिसके आठ भाग करके अपने शिष्यों को सिखाये।[वायुपुराण]
उन्होंने आत्रेय पुनर्वसु को काय चिकित्सा का ज्ञान प्रदान किया था।[चरक संहिता]
उन्हें प्रयाग के प्रथम निवासी थे जहाँ उन्होंने घरती के सबसे बडे गुरूकुल (विश्वविद्यालय) की स्थापना की थी और हजारों वर्षों तक विद्या दान करते रहे। वे शिक्षाशास्त्री, राजतंत्र मर्मज्ञ, अर्थशास्त्री, शस्त्रविद्या विशारद, आयुर्वेेद विशारद, विधि वेत्ता, अभियाँत्रिकी विशेषज्ञ, विज्ञानवेत्ता और मँत्र द्रष्टा थे। ऋग्वेेद के छठे मंडल के द्रष्टाऋषि भरद्वाज ही हैं। इस मंडल में 765 मंत्र हैं। अथर्ववेद में भी ऋषि भरद्वाज के 23 मंत्र हैं। उनके पिता वृहस्पति और माता ममता थीं।
उन्हें आयुर्वेद और सावित्र्य अग्नि विद्या का ज्ञान इन्द्र और कालान्तर में ब्रम्हा जी द्वारा प्राप्त हुआ था। अग्नि के सामर्थ्य को आत्मसात कर ऋषि ने अमृत तत्व प्राप्त किया था और स्वर्ग लोक जाकर आदित्य से सायुज्य प्राप्त किया था।[तैत्तरीय ब्राह्मण 3.10.11]
चरक ने उन्हें अपरिमित आयु वाला बताया है।[सूत्र-स्थान 1.26]
उन्होंने प्रयाग के अधिष्ठाता भगवान् श्री माधव जो साक्षात श्री हरि हैं, की पावन परिक्रमा की स्थापना भगवान् शिव जी के आशीर्वाद से की थी। भगवान् श्री द्वादश माधव परिक्रमा सँसार की पहली परिक्रमा है। भरद्वाज ने इस परिक्रमा की तीन स्थापनाएं दी हैं ;-
(1). जन्मों के संचित पाप का क्षय होगा, जिससे पुण्य का उदय होगा,
(2). सभी मनोरथ की पूर्ति होगी और 
(3). प्रयाग में किया गया कोई भी अनुष्ठान, कर्मकाण्ड जैसे अस्थि विसर्जन, तर्पण, पिण्डदान, कोई संस्कार यथा मुण्डन यज्ञोपवीत आदि, पूजा पाठ, तीर्थाटन, तीर्थ प्रवास, कल्पवास आदि पूर्ण और फलित नहीं होंगे जब तक स्थान देेेेवता अर्थात भगवान् श्री द्वादश माधव की परिक्रमा न की जाये।
आयुर्वेद सँहिता, भरद्वाज स्मृति, भरद्वाज सँहिता, राज शास्त्र, यँत्र-सर्वस्व (विमान अभियाँत्रिकी) आदि उनकी  प्रमुख रचनाएँ ग्रँथ हैं।
Please refer to :: BHARDWAJ VANSH भरद्वाज वंश santoshkipathshala.blogspot.com