Saturday, December 27, 2014

RAVAN KATHA रावण कथा :: RAMAYAN (2) रामायण

RAVAN KATHA रावण कथा
(RAMAYAN (2) रामायण)
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
ब्रह्मा जी के पुत्र पुलस्त्य ऋषि हुए। उनका पुत्र विश्रवा हुआ। विश्रवा की पहली पत्नी भरद्वाज ऋषि की पुत्री देवांगना थी, जिसका पुत्र कुबेर था। विश्रवा की दूसरी पत्नी दैत्यराज सुमाली की पुत्री कैकसी थी, जिसकी संतानें रावण, कुंभकर्ण और विभीषण थीं।
रावण बहुविद्याओं का ज्ञाता था। हर सुबह लंका में पूजा, अर्चना, शंख और वेद ध्वनियों द्वारा होती थी। रावण महान शिव भक्त था। उसने वैदिक ऋचाओं का संकलन किया। साथ ही वह अंक प्रकाश, इंद्रजाल, कुमार तंत्र, प्राकृत कामधेनु, प्राकृत लंकेश्वर, ऋग्वेद भात्य, रावणीयम, नाड़ी परीक्षा आदि पुस्तकों का रचनाकार भी था।
मद में चूर रावण ने कैलाश पर्वत  हिलाने की कोशिश की भगवान् शिव ने उसे अपने अँगूठे से  दबा दिया; जिससे वह  व्याकुल हुआ और वह भगवान् शिव  स्तुति करने लगा।
कामान्ध और दुराचारी :: राज्य विस्तार के लिए उसने अंगद्वीप, मलयद्वीप, वराहद्वीप, यवद्वीप और आंध्रलय को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। रावण एक कुशल राजनीतिज्ञ, सेनापति और वास्तुकला का मर्मज्ञ होने के साथ-साथ ब्रह्मज्ञानी तथा बहुविद्याओं का जानकार था। उसे मायावी इसलिए कहा जाता था क्योंकि वह इन्द्रजाल, तंत्र, सम्मोहन आदि तरह-तरह की अलौकिक विद्याओं का ज्ञाता भी था। उसके पास अपने बड़े सौतेले भाई कुबेर से छीना हुआ पुष्पक विमान भी था, जिसके कारण देवगण उससे भयभीत रहते थे।
रावण ज्ञानी-ध्यानी था लेकिन उसके कर्म तो खराब ही थे। भगवान् शिव का परम भक्त, यम और सूर्य तक को अपना प्रताप झेलने के लिए विवश कर देने वाला, प्रकांड विद्वान, बुराई का प्रतीक है। उसने हजारों स्त्रियों का अपहरण, बलात्कार किया जो कि एक राक्षसी कृत्य है।
विश्व विजय करने के लिए जब रावण स्वर्गलोक पहुँचा तो वहाँ उसे रम्भा नाम की अप्सरा दिखाई दी। कामातुर होकर उसने रम्भा को पकड़ लिया। तब अप्सरा रम्भा ने कहा कि आप मुझे इस तरह से स्पर्श न करें, मैं आपके बड़े भाई कुबेर के बेटे नल कुबेर के लिए आरक्षित हूँ, इसलिए मैं आपकी पुत्र वधू के समान हूँ। लेकिन रावण ने उसकी बात नहीं मानी और रम्भा से दुराचार किया। यह बात जब नलकुबेर को पता चली तो उसने रावण को शाप दिया कि आज के बाद रावण बिना किसी स्त्री की इच्छा के उसको स्पर्श नहीं कर पाएगा और यदि करेगा तो उसका मस्तक 100 टुकड़ों में बँट जाएगा।
एक बार रावण अपने पुष्पक विमान से किसी स्थान विशेष पर जा रहा था तभी उसे एक सुंदर स्त्री दिखाई दी, जो भगवान् श्री हरी विष्णु को पति रूप में पाने के लिए तपस्या कर रही थी। ऐसे में रावण ने उसके बाल पकड़े और अपने साथ चलने को कहा। उस तपस्विनी ने उसी क्षण अपनी देह त्याग दी और रावण को शाप दिया कि एक स्त्री के कारण ही तेरी मृत्यु होगी।
रावण ने अपनी पत्नी की बड़ी बहन माया पर भी वासना युक्त नजर रखी। माया के पति वैजयंतपुर शंभर 
के राजा थे। एक दिन रावण शंभर के यहाँ गया। वहाँ रावण ने माया को अपनी बातों में फंसाने का प्रयास किया। इस बात का पता लगते ही शंभर ने रावण को बंदी बना लिया। उसी समय शंभर पर राजा दशरथ ने आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में शंभर की मृत्यु हो गई। जब माया सती होने लगी तो रावण ने उसे अपने साथ चलने को कहा। तब माया ने कहा कि तुमने वासनायुक्त होकर मेरा सतीत्व भंग करने का प्रयास किया, इसलिए मेरे पति की मृत्यु हो गई। अत: तुम्हारी मृत्यु भी इसी कारण होगी।
वर्तमान काल में इस्लाम को मानने वाले इसी तरह की हरकतें करते हैं और उनका आचार, व्यवहार पूरी तरह राक्षसी है।
भगवान् श्री राम की अर्द्धांगिनी माता सीता को पंचवटी के पास लंकाधिपति रावण ने अपहरण करके 2 वर्ष तक अपनी कैद में रखा था, लेकिन इस कैद के दौरान रावण ने माता सीता को छुआ तक नहीं था। इसका कारण रम्भा द्वारा दिया गया शाप था। रावण जब माता सीता के पास विवाह प्रस्ताव लेकर गया तो माता ने घास के एक टुकड़े को अपने और रावण के बीच रखा और कहा, हे रावण! सूरज और किरण की तरह राम-सीता अभिन्न हैं। राम व लक्ष्मण की अनुपस्थिति में मेरा अपहरण कर तुमने अपनी कायरता का परिचय और राक्षस जा‍ति के विनाश को आमंत्रित कर दिया है। तुम्हारे श्री राम की शरण में जाना इस विनाश से बचने का एकमात्र उपाय है, अन्यथा लंका का विनाश निश्चित है।
रावण ने महाराज दशरथ को एक मंत्रोपचारित तिनके से शेर को मारते देखा था, अतः भयभीत था। 
अमृत प्राप्ति के बाद वर्षों तक देवताओं का पलड़ा  भारी रहा और वो दानवों पर भारी पड़ने लगे। इस बीच देवताओं ने पुन: तप-बल से शक्ति अर्जित की तब दानव परेशान हो गये और उन्होंने अपने गुरु शुक्राचार्य से पूछा कि हम कैसे देवताओं को हरा सकते हैं तब शुक्राचार्य ने कहा देवता अमृत पान कर चुके हैं, उन्हें हराना बहुत कठिन है।  
एक ही उपाय है, अगर श्रेष्ठ ब्राह्मण का तेजस्वी पुत्र आपकी सहायता करे तो देवताओं को हराया जा सकता है। उपाय जान कर दानवों ने सोचा ब्राह्मण पुत्र भला हमारा काम क्यों करेगा, उसके लिये हमारा साथ देना उसका अधर्म होगा और इस कार्य के लिये कोई भी तेजस्वी तो क्या पृथ्वी लोक का साधारण ब्राह्मण भी तैयार नहीं होगा। अगर हम बलपूर्वक कुछ करेंगे तो श्रेष्ठ और तेजस्वी ब्राह्मण हमारा ही विनाश कर डालेगा और कमजोर ब्राह्मण के पास हम गये तो, देवता भी हँसी उड़ायेंगे और हमारी बदनामी भी होगी। मंथन और चिंतन के दौर शुरु हुए और वे सब एक निर्णय पर पहुँचे कि अगर हम अपनी कन्या का दान किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को दें तो, ब्राह्मण को अवश्य स्वीकार करना ही पड़ेगा क्योंकि ब्राह्मण श्रेष्ठ मर्यादा का पालन करने को बाध्य है। उसका पुत्र होगा, वो हमारा भांजा होगा और ब्राह्मण भी, उसे हम पालेंगे और अपने अनुरूप बनायेंगे। वह हमारे अनुसार चलेगा और जब मर्जी देवताओं से भिड़ा देंगे।
तब एक दानव बोला कन्या दान वाली बात तो ठीक है, पर दान कैसे दोगे? ये रीति तो हम दानवों की है नहीं, ब्राह्मण कन्यादान कैसे और क्यों स्वीकार करेगा!? देवताओं वाले रिवाज हम कर नहीं सकते, क्योंकि वो हमारे अनुकुल नहीं हैं।  
देवताओं ने महाराज दशरथ से सहयोग माँगा तो उन्होंने राक्षसों को बुरी तरह हरा दिया। उनका नायक सुमाली पाताल में जाकर छुप गया। उसकी पुत्री कैकसी ने विश्रवा को मोहित करके विवाह लिया। कैकसी ने अशुभ समय में गर्भ धारण किया। इसी कारण से उसके गर्भ से रावण तथा कुंभकर्ण जैसे क्रूर स्वभाव वाले भयंकर राक्षस उत्पन्न हुए।
पूर्वकाल की बात है वैकुंठ लोक में जय-विजय नामक दो द्वारपाल थे। एक बार उन्होंने सनकादि बालक ऋषियों को वैकुंठ में जाने से रोक दिया था, उन्हें लगा कि बालकों को भला भगवान् के पास क्या काम है। तब सनकादि ऋषियों ने जय विजय को श्राप दे दिया कि तुम दोनों ने वैकुंठ लोक में मृत्युलोक जैसा नियम का पालन किया और स्वयं श्री हरि के द्वार पर सेवा में रहते हुये इतना ज्ञान भी नहीं है। अत: तुम मृत्यु लोक को प्राप्त होओ।
दूसरे बालक ऋषि ने कहा तुम्हें इस बात का भान भी नहीं कि भगवान् श्री हरी विष्णु लोक के में यह परम्परा नहीं हो सकती। इसी बीच आवाज सुन कर स्वयं भगवान् श्री हरी विष्णु उन शौनकादि ऋषियों को लेने आ गये। उन्होंने तथा जय-विजय ने ऋषियों से क्षमा माँगी। इस पर ऋषियों ने कहा कि श्राप वापस नहीं हो सकता, समय आने पर तुम्हें मृत्यु लोक जाना ही होगा, पर जैसे स्वयं श्री हरि हमें लेने आये हैं, वैसे ही वो तुम्हें भी वापस वैकुंठ लोक लाने के लिये मृत्युलोक में आयेंगे।
नारद जी का मिथ्याभिमान :: एक बार देवर्षि नारद को अपनी भक्ति का अभिमान हो गया और वो ब्रह्म  लोक में जा कर अपनी भक्ति और तपस्या का बखान करने लगे। नारद जी ने अपने पिता ब्रह्मदेव को यह सब कुछ कहा तो उन्होंने कहा ने नारद जी अपनी भक्ति का बखान करने को मना किया। नारद जी कैलाश में गये और वहाँ भोलेनाथ को बताया तो उन्होंने भी कहा कि देवर्षि नारद आप हर जगह इस बात को कह रहे हो यह अच्छा नहीं है। लेकिन नारद जी अभिमान में थे कि समस्त लोकों में उन जैसा कोई नारायण भक्त नहीं है। कैलाश से लौटते हुये नारद जी बैकुंठ की ओर चले तब नारद के अभिमान को नष्ट करने के लिये भगवान् श्री हरी विष्णु ने एक माया नगरी का निर्माण किया। नारद जी जिस मार्ग से निकले उस पर उन्हें एक सुंदर नगर दिखाई दिया। नारद जी ने सोचा मैं सभी लोकों और नगर में गया हूँ, पर इस नगर में नहीं गया। अत: यहाँ जा के देखता हूँ, कौन सा नगर है।  नारद जी वहाँ पहुँचे, बहुत सुंदर नगर था देवलोक से भी सुंदर वहाँ के राजा ने नारद जी का सम्मान किया, महल में बैठाया और स्वयँ सपरिवार नारद जी को नमस्कार किया। जलपान आदि के बाद कहा, महर्षि आप तो चिरिंजीवी, त्रिकालदर्शी महात्मा हैं; मेरी पुत्री का स्वयँवर दो दिनों के बाद रखा है, वैसे तो मैंने समस्त तीनों लोकों में खुला आमंत्रण दिया है कि जिसे भी मेरी पुत्री चाहेगी उसी से विवाह किया जायेगा परंतु यदि आप मुझे बता दें कि दामाद कैसा होगा तो मुझे आत्म संतोष हो जायेगा। नारद जी ने उनकी पुत्री के हस्तरेखा देख कर कहा कि आपकी पुत्री बहुत भाग्यशाली है, इसे चिरिंजीवी, अजर-अमर, सुंदर और शतोगुणी प्रधान वर मिलेगा। जिसकी कीर्ति समस्त लोकों में हो और नारद जी उस कन्या के रूप को देख कर मोहित हो गये उन्हें अपने आप में भी वो सब गुण नजर आये जो उसकी हस्तरेखा बता रही थी। इसके बाद नारद जी ने बिदा ली और वैकुंठ लोक को अपनी भक्ति का बखान करने निकल पड़े। रास्ते में विचार किया की मुझ में सारे गुण हैं, लेकिन मैं संन्यासी हूँ। अब मुझे भी सप्त ऋषियों की तरह अपनी ग्रहस्थी बसा लेनी चाहिये। विवाह के लिये अभी जिस कन्या को देखा वो उपयुक्त है। लेकिन एक कमी है वो है मेरा रूप, पर उस की चिंता की कोई बात नहीं क्युँकि मैं भगवान् का भक्त हूँ और अभी जा के भगवान् श्री हरी विष्णु से उनका रूप माँग लुँगा और उन्हें अपने भक्त को देना ही पड़ेगा।नारद जी थोड़े समय बाद वैकुंठ पहुँचे भगवान् श्री हरी विष्णु ने स्वागत किया पूछा बहुत जल्दी में हो, क्या बात है। नारद जी ने कहा भगवन ऐसे ही बहुत दिन हो गये आप से मिले हुये, भगवान् भोलेनाथ से मिलकर आ रहा हूँ और अब आप से मिलने चला आया। अब वैसे भी मेरे पास समय है, क्योंकि तपस्या और भक्ति मार्ग की उच्च अवस्था भी प्राप्त कर ली है, ज्ञानकाण्ड, कर्मकाण्ड और भक्ति में भी अब मैं चरम सीमा पर पहुँच चुका हूँ। माया को भी जीत चुका हूँ। अब सोच रहा हूँ मैं भी गृहस्थ बन जाऊँ। रास्ते में एक कन्या को देख कर आ रहा हूँ, जो सभी गुणों से युक्त है, आपसे क्या कहुँ, भगवन आप तो सर्वज्ञ हैं और मैं तो आपका सब से बड़ा भक्त हूँ, अत: आप मेरी सहायता कीजिये। 
भगवान् ने मुस्कुराते हुये कहा नारद तुम गृहस्थ बनने की चाह में लगता है कन्या के सुंदर रूप पर रोग ग्रस्त हो गये हो; अत: मैं अवश्य तुम्हारे इस रोग को दूर कर दुँगा तुम चिंता मत करो। तुम मेरे सबसे बडे भक्त हो तो मुझे भी एक चिकित्सक की तरह से ही अपने भक्त के रोग को दूर करना होगा। नारद जी भगवान्  के इन वाक्यों को नहीं समझ पाये और बोले प्रभु मेरा रोग दूर करने का उपाय है। आप मुझे अपना ही रूप दे दीजिये, ताकि मैं सुंदरता में बिल्कुल आप जैसा ही दिखुं, जिससे कि वह कन्या मेरा वरण कर ले।भगवान् ने कहा नारद मैं तुम्हारा चिकित्सक हूँ, इसलिये मैं रोग को ठीक करूँगा तुम चिंता मत करो। नारद जी ने कहा, प्रभु मुझे आज्ञा दीजिये अब मैं चलता हूँ। नारद जी खुश थे कि अब वो भी भगवान् विष्णु जैसे ही हो गये हैं और स्वयंवर के दिन पहुँचे। वहाँ तीनों लोकों से बहुत से लोग आये थे, राजा ने सभी को बैठने को आसन दिये। नारद जी ने अनुमान लगाया पिछली बार राजा ने मुझे महर्षि कह कर चरण धोये पर, आज सिर्फ सामान्य तरीके से प्रणाम करके आसन दिया, इसका मतलब भगवान् ने मुझे अपना रूप दे दिया; तभी तो ये राजा आज मुझे नहीं पहचान सका। स्वयँवर आरम्भ हुआ कन्या अपने लिये वर का चयन करने के लिये एक तरफ से आगे बढ़ी और नारद जी एक दो बार अपनी जगह से खड़े हुये, ताकि कन्या का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित कर सकें। जैसे ही वो पास से निकली तो नारद जी अपनी गर्दन को आगे की तरफ झुका के खड़े हो गये। लेकिन कन्या आगे बढ़ गई और एक अन्य दिव्य पुरुष के गले में जयमाला डाल दी। कन्या का विवाह उनसे सम्पन्न सम्पन्न हुआ। 
विवाह के बाद दो शिव गण जो वहाँ आये थे, वो नारद जी को देख कर बोले आप क्युँ बार-बार ऊछल रहे थे। नारद जी को उनकी बात पर बहुत गुस्सा आया और बोले मूर्खो हँस क्यों रहे हो जानते, नहीं मैं कौन हूँ? वो ये तो पता नहीं कौन हो पर देखने पर लगते एकदम बंदर हो, वो बंदर जो मृत्युलोक  में पाये जाते हैं। नारद जी ने अपना मुँह जल में देखा तो वानर का सा मुँह का नजर आया। शिव गण फिर बोले क्यों लग रहे हो ना मृत्युलोक के बंदर और पुन: जोर से हँसे तो नारद जी को और अधिक क्रोध आ गया और उन्हें श्राप दे दिया कि तुम दोनों शिव गण हो कैलाश में रहते हो और मेरा उपहास करते हो, नारद का उपहास करके कहते हो मृत्युलोक का बंदर इसलिये तुम्हें श्राप देता हूँ, तुम मृत्युलोक में जाओगे और वो भी राक्षस कुल में और फिर बंदर ही तुमको पीटेंगे। इसके बाद नारद जी गुस्से से वैकुंठ लोक की ओर तेजी से बढ़े, उन्हें भगवान् विष्णु पर बहुत गुस्सा आ रहा था। रास्ते में वही कन्या और वर भी विवाह के बाद जा रहे थे। जैसे ही नारद ने बारात पार करते हुये आगे निकले वर ने पूछ लिया, अरे नारद जी कहाँ को चले? इस प्रश्न से ही नारद को गुस्सा आ गया और थोड़ा रुक के बोले ओह तो आप हैं, अब मैंने पहचान लिया है, आप को। आप भगवान् विष्णु हैं। इतना बडा खेल वो भी मेरे साथ मैंने आपको इस कन्या के बारे में बतलाया, जानकारी दी और आपने इस कन्या के रूप गुणों की चर्चा मुझ से ही सुनकर मुझे ही छला और खुद रूप बदल कर दूसरा विवाह इस कन्या से किया। इसके बाद नारद जी ने श्री हरि को भी श्राप दे दिया, जैसे मैं पत्नी के वियोग में हूँ, वैसे ही आप को भी श्राप देता हूँ कि आप भी पत्नी के वियोग में दुखी रहेंगे वो भी मृत्युलोक में क्योंकि असली वियोग तो क्या होता है, वहीं पता चलेगा और आप पत्नी के वियोग में मेरी तरह ही भटकेंगें। भगवान् ने कहा नारद आपने श्राप दिया इसे स्वीकार करता हूँ और फिर अपनी माया हटा दी तब नारद ने देखा कुछ भी नहीं था ना वो नगर, न वो कन्या। नारद ने कहा यह क्या हुआ? भगवान् ने कहा तुमने ही कहा था नारद कि माया को जीत चुके हो, इसलिये तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। नारद जी ने श्री हरि से क्षमा माँगी और भगवान् विष्णु अदृश्य हो गये। इसी बीच वहाँ शिव गण भी आये और उन्होनें नारद जी से अपराध क्षमा करने को कहा। नारद जी ने कहा श्राप मिथ्या तो नहीं होगा, अत: राक्षस तो तुम होओगे ही; लेकिन इतना और कर देता हूँ कि तुम इतने पराक्रमी राक्षस होओगे कि स्वयं भगवान् श्री हरि ही तुम्हारे उद्धार के लिये आएँगे।
देवऋषि नारद के अहंकार का शमन :: नारद जी बड़े ही तपस्वी और ज्ञानी थे जिनके ज्ञान और तप की माता पार्वती भी प्रशंसक थीं। तब ही एक दिन माता पार्वती श्री शिव से नारद मुनि के ज्ञान की तारीफ करने लगीं। शिव ने पार्वती जी को बताया कि नारद बड़े ही ज्ञानी हैं। लेकिन किसी भी चीज का अंहकार अच्छा नहीं होता है।
नारद जी को इसी अहंकार (घमंड) के कारण बंदर बनना पड़ा था। यह सुनकर माता पार्वती को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने भगवान् शिव से पूरा प्रसंग जानने की इच्छा प्रकट की। तब भगवान् शिव ने कहा कि इस संसार में कोई कितना ही बड़ा ज्ञानी हो, लेकिन श्री हरि जो चाहते हैं वो उसे बनना ही पड़ता है। नारद जी को एक बार अपने इसी तप और बुद्धि का अहंकार (घमंड) हो गया था । इसलिए नारद को सबक सिखाने के लिए भगवान् श्री हरी विष्णु को एक उपाय किया।
हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उस गुफा के निकट ही गंगा जी बहती थीं। वह परम पवित्र गुफा नारद जी को अत्यन्त सुहावनी लगी। वहाँ पर के पर्वत, नदी और वन को देख कर उनके हृदय में भगवान् श्री हरि हरी विष्णु की भक्ति अत्यन्त बलवती हो उठी और वे वहीं बैठ कर तपस्या में लीन हो गए। नारद मुनि की इस तपस्या से देवराज इंद्र भयभीत हो गए कि कहीं देवर्षि नारद अपने तप के बल से उनका स्वर्ग नहीं छीन लें।
देवराज इंद्र ने नारद की तपस्या भंग करने के लिये कामदेव को उनके पास भेज दिया। वहाँ पहुँच कर कामदेव ने अपनी माया से वसंत ऋतु को उत्पन्न कर दिया। पेड़ और पत्ते पर रंग-बिरंगे फूल खिल गए कोयले कूकने लगीं और भौंरे गुंजार करने लगे। कामाग्नि को भड़काने वाली शीतल मंद सुगंध सुहावनी हवा चलने लगी। रंभा आदि अप्सराएं नृत्य करने लगीं।
किन्तु कामदेव की किसी भी माया का नारद मुनि पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। तब कामदेव को डर सताने लगा कि कहीं नारद जी मुझे शाप न दे दें। इसलिए उन्होंने नारद जी से क्षमा माँगी। नारद मुनि को थोड़ा भी क्रोध नहीं आया और उन्होंने कामदेव को क्षमा कर दिया। कामदेव वापस अपने लोक में चले गए।
कामदेव के चले जाने पर नारद मुनि के मन में अहंकार (घमंड) हो गया कि मैंने कामदेव को जीत लिया। वहाँ से वे शिव जी के पास चले गए और उन्हें अपने कामदेव को हारने का हाल कह सुनाया। भगवान् शिव समझ गए कि नारद जी को अहंकार हो गया है। भगवान् शिव ने सोचा कि यदि इनके अहंकार की बात भगवान् श्री हरी विष्णु जायें तो नारद जी के लिए अच्छा होगा। इसलिए उन्होंने नारद जी से कहा कि तुमने जो बात मुझे बताई है, उसे तुम भगवान् श्री हरि विष्णु को मत बताना।
नारद जी को भगवान् शिव की यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने सोचा कि आज तो मैंने कामदेव को हराया है और ये भी किसी को नहीं बताऊं। नारद जी क्षीरसागर पहुँचे और भगवान् शिव के मना करने के बाद भी सारी कथा उन्हें सुना दी। भगवान् श्री हरी विष्णु समझ गए कि आज तो नारद को अहंकार (घमंड) ने घेर लिया है। अपने भक्त के अहंकार को दूर करने उपाय उन्होंने अपने मन में सोचा।
नारद जी जब भगवान् श्री हरी विष्णु से विदा होकर चले तो उनका अभिमान और भी बढ़ गया। इधर भगवान् श्री हरी विष्णु ने अपनी माया से नारद जी के रास्ते में एक बड़े ही सुन्दर नगर को बना दिया । उस नगर में शीलनिधि नाम का वैभवशाली राजा रहता था। उस राजा की विश्व मोहिनी नाम की बहुत ही सुंदर बेटी थी, जिसके रूप को देख कर लक्ष्मी भी मोहित हो जायें। विश्व मोहिनी स्वयंवर करना चाहती थी इसलिए कई राजा उस नगर में आए हुए थे।
नारद जी उस नगर के राजा के वहाँ पहुँचे तो राजा ने उनका पूजन कर के उन्हें आसन पर बैठाया। फिर उनसे अपनी कन्या की हस्तरेखा देख कर उसके गुण-दोष बताने के लिया कहा। उस कन्या के रूप को देख कर नारद मुनि वैराग्य भूल गए और उसे देखते ही रह गए। उस कन्या की हस्तरेखा बता रही थी कि उसके साथ जो विवाह करेगा वह अमर हो जाएगा, उसे संसार में कोई भी जीत नहीं सकेगा और संसार के समस्त जीव उसकी सेवा करेंगे। यह बात नारद मुनि ने राजा को नहीं बताईं और राजा को उन्होंने अपनी ओर से बना कर कुछ और अच्छी बातें कह दी।
अब नारद जी ने सोचा कि कुछ ऐसा उपाय करना चाहिए कि यह कन्या मुझ से ही विवाह करे। ऐसा सोचकर नारद जी ने भगवान् श्री हरी विष्णु को याद किया और उनके पास पहुँच गये। नारद जी ने उन्हें सारी बात बताई और कहने लगे, हे नाथ! आप मुझे अपना सुंदर रूप दे दो, ताकि मैं उस कन्या से विवाह कर सकूँ। भगवान् श्री हरी विष्णु ने कहा, हे नारद! हम वही करेंगे जिसमें तुम्हारी भलाई हो। यह सारी भगवान् श्री हरी विष्णु की ही माया थी। भगवान् श्री हरी विष्णु ने अपनी माया से नारद जी को बंदर का रूप दे दिया। नारद जी को यह बात समझ में नहीं आई। वो समझे कि मैं बहुत सुंदर लग रहा हूँ। वहाँ पर छिपे हुए शिव जी के दो गणों ने भी इस घटना को देख लिया।
ऋषिराज नारद तत्काल विश्व मोहिनी के स्वयंवर में पहुँच गए और साथ ही शिव जी के वे दोनों गण भी ब्राह्मण का रूप बना कर वहाँ पहुँच गए। वे दोनों गण नारद जी को सुना कर कहने लगे कि भगवान् श्री हरी विष्णु ने इन्हें इतना सुंदर रूप दिया है कि राजकुमारी सिर्फ इन पर ही रीझेगी। उनकी बातों से नारद जी मन ही मन बहुत खुश हुए। स्वयं भगवान् श्री हरी विष्णु भी उस स्वयंवर में एक राजा का रूप धारण कर आ गए। विश्व मोहिनी ने कुरूप नारद की तरफ देखा भी नहीं और राजा रूपी विष्णु के गले में वरमाला डाल दी।
मोह के कारण नारद मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई थी । राजकुमारी द्वारा अन्य राजा को वरमाला डालते देख वे परेशान हो उठे। उसी समय भगवान् शिव के गणों ने ताना कसते हुए नारद जी से कहा, जरा दर्पण में अपना मुँह तो देखिए। मुनि ने जल में झांक कर अपना मुँह देखा और अपनी कुरूपता देख कर गुस्सा हो उठें। गुस्से में आकर उन्होंने भगवान् शिव के उन दोनों गणों को राक्षस हो जाने का शाप दे दिया। उन दोनों को शाप देने के बाद जब मुनि ने एक बार फिर से जल में अपना मुँह देखा तो उन्हें अपना असली रूप फिर से मिल चुका था।
नारद जी को अपना असली रूप वापस मिल गया था। लेकिन भगवान् श्री हरी विष्णु पर उन्हें बहुत गुस्सा आ रहा था, क्योंकि भगवान् श्री हरी विष्णु के कारण ही उनकी बहुत ही हँसी हुई थी। वे उसी समय भगवान् श्री हरी विष्णु से मिलने के लिए चल पड़े। रास्ते में ही उनकी मुलाकात भगवान् श्री हरी विष्णु जिनके साथ लक्ष्मी जी और विश्व मोहिनी भी थीं‍, से हो गई।
उन्हें देखते ही नारद जी ने कहा आप दूसरों की खुशियाँ देख ही नहीं सकते। आपके भीतर तो ईर्ष्या और कपट ही भरा हुआ है। समुद्र मंथन के समय आपने भगवान् शिव को बावला बना कर विष और राक्षसों को मदिरा पिला दिया और स्वयं लक्ष्मी जी और कौस्तुभ मणि को ले लिया। आप बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। हमेशा कपट का व्यवहार करते हो। हमारे साथ जो किया है उसका फल जरूर पाओगे। आपने मनुष्य रूप धारण करके विश्व मोहिनी को प्राप्त किया है, इसलिए मैं आपको शाप देता हूँ कि आपको मनुष्य जन्म लेना पड़ेगा। आपने हमें स्त्री से दूर किया है, इसलिए आपको भी स्त्री से दूरी का दुख सहना पड़ेगा और आपने मुझको बंदर का रूप दिया इसलिए आपको बंदरों से ही मदद लेनी पड़ेगी।
नारद जी के शाप को भगवान् श्री हरी विष्णु ने पूरी तरह स्वीकार कर लिया और उन पर से अपनी माया को हटा लिया। माया के हट जाने से अपने द्वारा दिए शाप को याद कर के नारद जी को बहुत दुख हुआ किन्तु दिया गया शाप वापस नहीं हो सकता था। इसीलिए भगवान् श्री हरी विष्णु को भगवान् श्री राम के रूप में मनुष्य बन कर अवतरित होना पड़ा।
भगवान् शिव के उन दोनों गणों ने जब देखा कि नारद जी अब माया से मुक्त हो चुके हैं तो उन्होंने नारद जी के पास आकर और उनके चरणों में गिरकर कहा, हे मुनिराज! हम दोनों भगवान् शिव के गण हैं। हमने बहुत बड़ा अपराध किया है जिसके कारण हमें आपसे शाप मिल चुका है। अब हमें अपने शाप से मुक्त करने की कृपा करें।
नारद जी बोलें मेरा शाप झूठा नहीं हो सकता, इसलिए तुम दोनों रावण और कुंभ कर्ण के रूप में महान ऐश्वर्यशाली बलवान तथा तेजवान राक्षस बनोगे और अपनी भुजाओं के बल से पूरे विश्व पर विजय प्राप्त करोगे। उसी समय भगवान् श्री हरी विष्णु भगवान् श्री राम के रूप में मनुष्य शरीर धारण करेंगे। युद्ध में तुम दोनों उनके हाथों से मारे जाओगे और तुम्हारी मुक्ति हो जायेगी।
लंका दहन और माता पार्वती का श्राप :: एक बार भगवान् श्री हरी विष्णु और माता लक्ष्मी माँ पार्वती के निमंत्रण पर कैलाश पहुँचे। इस दौरान माँ लक्ष्मी ठंड  से  ठिठुर रही थीं। जब उनसे न रहा गया तो उन्होंने माता पार्वती  से कहा कि आप राजकुमारी होते हुए भी इस हिम-पर्वत पर इतने ठंड में कैसे रह रहीं हैं!? इससे माँ पार्वती को बहुत दुख हुआ।
कुछ दिनों बाद भगवान् शिव और पार्वती देवी माँ लक्ष्मी के बुलावे पर बैकुंठ धाम पहुँचे। बैंकुठ धाम का वैभव देखकर माँ पार्वती ने भगवान् शिव से भी अत्यंत भव्य महल बनाने की इच्छा जताई। भगवान् शिव ने देव शिल्पी विश्कर्मा को लंका बनाने का  काम सौंपा। 
इस महल की वास्तु प्रतिष्ठा की पूजा के लिए रावण को बुलाया गया और उसने दक्षिणा में लंका को ही ले लिया।
माँ पार्वती इससे बड़ी क्रोधित हुई और उन्होंने रावण को श्राप देते हुए कहा कि तेरी यह नगरी भस्म हो जाए। माँ पार्वती के श्राप के कारण ही रावण द्वारा रक्षित वह लंका श्री हनुमान जी महाराज ने फूँक डाली। 
जब हनुमान जी लंकेश रावण की लंका को जला रहे थे, तब एक बहुत ही विस्मयकारी घटना हुई लंका में आग लगती और लंका को बिना हानि पहुँचाए अदृश्य हो जाती थी। तब महावीर हनुमान जी चिंतित हो उठे कि  क्या रावण द्वारा अर्जित पुण्य इतने प्रबल है अथवा मेरी भक्ति में ही किसी प्रकार की कमी है!?
जब श्री हनुमान जी ने अपने आराध्य प्रभु श्री राम का सुमिरन किया तब भगवान् श्री राम की कृपा से ज्ञात हुआ कि "हे हनुमान जिस लंका को तुम जला रहे हो वह माया रचित है, प्रतिबिम्ब है। असली लंका तो माँ पार्वती के हाथों शनि देव की दृष्टि से पूर्व में ही ध्वस्त हो चुकी है। शनि देव लंका के तल में है, इसीलिए ये प्रतिबिम्ब (लंका) नष्ट नहीं हो रही"! तब हनुमान जी महाराज ने जाकर शनि देव को रावण की कैद से मुक्त कराया। शनि देव के बाहर आते ही ज्यों ही उनकी दृष्टि उस बिम्ब लंका पर पड़ी वह धू-धू कर जलने लगी, क्योंकि माँ पार्वती के मन में लंका को स्वयं ध्वस्त करने का दुःख था। उसी के फलस्वरूप माँ पार्वती ने अपने मन का बिम्ब  रावण को दिया। 
Image result for MAA SITA ABDUCTION AND RAVAN IMAGESब्रह्मा जी के सनकादि 4 पुत्रों सनक, सनंदन, सनातन और सनत्कुमार; ने जो कि हमेशां 5 वर्ष की अवस्था में रहते हैं, श्राप देकर भगवान् श्री हरी विष्णु के द्वारपाल और पार्षद जय-विजय को जन्म लेने के लिए विवश कर दिया। वे क्रमशः हिरण्य कश्यप और हिरण्याक्ष, रावण और कुम्भकर्ण तथा अंत में शिशुपाल और दन्तवक्र के रुप पैदा हुए।
माता पार्वती की इच्छानुसार भगवान् शिव ने श्री लंका में स्वर्ण महल का निर्वाण तो करवा दिया, परन्तु यह भी कहा की वे वहाँ रह नहीं पायेंगी और ऐसा ही हुआ भी, जब रावण ने गृह प्रवेश सम्बन्धी पूजा-पाठ करवाये और दक्षिणा माँगने को कहा तो रावण ने श्री लङ्का स्थित उस महल को ही दक्षिणा में माँग लिया और माता पार्वती इंकार नहीं कर पाईं।
सुकेश नामक राक्षस के तीन पुत्र :- माली, सुमाली और माल्यवान। माली, सुमाली और माल्यवान नामक तीन दैत्य देव-दानव युद्ध के पश्चात पाताल में जाकर छिप गए। माली को देवों और यक्षों ने मार डाला। रावण की माता कैकसी सुमाली की पुत्री थी। अपने नाना के उकसाने पर रावण ने अपनी सौतेली माता इलविल्ला के पुत्र कुबेर से युद्ध की ठानी थी और कुबेर का राज्य और (वर्तमान में तिब्बत आदि प्रदेश) पुष्पक विमान भी छीन लिया। रावण का राज्य विस्तार, इंडोनेशिया, मलेशिया, बर्मा, दक्षिण भारत के कुछ राज्य और संपूर्ण श्रीलंका पर रावण का राज था। श्रीलंका में वह स्थान ढूंढ लिया गया है, जहाँ रावण की सोने की लंका थी। जंगलों के बीच रानागिल की विशालकाय पहाड़ी पर रावण की गुफा है, जहाँ उसने तपस्या की थी। 
रावण की रावणैला गुफा :- रावण ने माता सीता से भेंट करने के लिए उस गुफा में प्रवेश करने का प्रयत्न किया था, परंतु वह न तो गुफा के अंदर जा सका और न ही माता सीता के ही दर्शन कर सका।
रावण का महल :- कहा जाता है कि लंकापति रावण के महल, जिसमें अपनी पटरानी मंदोदरी के साथ निवास करता था, के अब भी अवशेष मौजूद हैं। इसे पवन पुत्र हनुमान जी ने लंका के साथ जला दिया था।
महाबली हनुमान के इस कौशल से वहाँ के सभी निवासी भयभीत होकर कहने लगे कि जब सेवक इतना शक्तिशाली है तो स्वामी कितना ताकतवर होगा। जिस राजा की प्रजा भयभीत हो जाए तो वह आधी लड़ाई तो यूं ही हार जाता है। लंका दहन के पश्चात जब हनुमान जी पुन: राम के पास जा रहे थे तो उनकी महागर्जना सुनकर राक्षस स्त्रियों का गर्भपात हो गया।
अशोक वाटिका :: अशोक वाटिका लंका में स्थित है, जहाँ रावण ने माता सीता को हरण करने के पश्चात बंधक बनाकर रखा था। ऐसा माना जाता है कि एलिया पर्वतीय क्षेत्र की एक गुफा में सीता माता को रखा गया था, जिसे ‘सीता एलिया’ नाम से जाना जाता है। यहाँ पर सीता माता के नाम पर एक मंदिर भी है। वेरांगटोक, जो महियांगना से 10 किलोमीटर दूर है, वहीं पर रावण ने माता सीता का हरण कर पुष्पक विमान को उतारा था। महियांगना मध्य श्रीलंका स्थित नुवारा एलिया का एक पर्वतीय क्षेत्र है। इसके बाद सीता माता को जहाँ ले जाया गया था उस स्थान का नाम गुरुलपोटा है, जिसे अब ‘सीतोकोटुवा’ नाम से जाना जाता है। यह स्थान भी महियांगना के पास है।
रावण के विमान और हवाई अड्डा :: रावण के चार हवाई अड्डे थे, उसानगोड़ा, गुरुलोपोथा, तोतूपोलाकंदा और वारियापोला। सिंघली में वारियापोला का अर्थ है हवाई अड्डा। कुरनांगला जिले में था एक अड्डा, दूसरा अड्डा मातली जिले में था। सबसे अहम था वेरेगनटोटा हवाई अड्डा। एक हवाई अड्डे का मालिक अहिरावण था। अहिरावण का हवाई अड्डा था तोतूपोलाकंदा। हालांकि तोतूपोलाकंदा पर भी रावण का अधिकार था।
उसानगोड़ा हवाई अड्डा : इन चार में से एक उसानगोड़ा हवाई अड्डा नष्ट हो गया था। लंका दहन में रावण का उसानगोड़ा हवाई अड्डा नष्ट हो गया था। उसानगोड़ा हवाई अड्डे को स्वयं रावण निजी तौर पर इस्तेमाल करता था। यहाँ रनवे लाल रंग का है। इसके आसपास की जमीन कहीं काली तो कहीं हरी घास वाली है। यह लड़ाकू जहाजों के लिए इस्तेमाल होता था।
वेरांगटोक जो महियांगना से 10 किलोमीटर दूर है वहीं पर रावण ने माता सीता का हरण कर पुष्पक विमान को उतारा था। महियांगना मध्य श्रीलंका स्थित नुवारा एलिया का एक पर्वतीय क्षेत्र है। इसके बाद सीता माता को जहाँ ले जाया गया था, उस स्थान का नाम गुरुलपोटा है जिसे अब सीतोकोटुवा नाम से जाना जाता है। यह स्थान भी महियांगना के पास है। वेरांगटोक में था रावण का वायुसेना मुख्यालय।
रावण का झरना :: रावण एल्ला नाम से एक झरना है, जो एक अंडाकार चट्टान से लगभग 25 मीटर अर्थात 82 फुट की ऊँचाई से गिरता है। "रावण एल्ला वॉटर फॉल" घने जंगलों के बीच स्थित है। यहाँ माता सीता के नाम से एक पुल भी है।
इसी क्षेत्र में रावण की एक गुफा भी है, जिसे "रावण एल्ला गुफा" के नाम से जाना जाता है। यह गुफा समुद्र की सतह से 1,370 मी. की ऊँचाई पर स्थित है। यह स्थान श्री लंका के बांद्रावेला से 11 किलोमीटर दूर है।
रामसेतु :: रामसेतु जिसे अंग्रेजी में एडम्स ब्रिज भी कहा जाता है, भारत (तमिलनाडु) के दक्षिण-पूर्वी तट के किनारे रामेश्वरम द्वीप तथा श्री लंका के उत्तर-पश्चिमी तट पर मन्नार द्वीप के मध्य बनी एक श्रृंखला है। भौगोलिक प्रमाणों से पता चलता है कि किसी समय यह सेतु भारत तथा श्री लंका को भू-मार्ग से आपस में जोड़ता था। यह पुल करीब 18 मील (30 किलोमीटर) लंबा है।
RAVAN AND MAA SITA रावण और माता सीता :: Jai the guard in Vaekunth Lok of Bhagwan Shri Hari Vishnu, took birth as Hirany Kashyap. His next birth was as Ravan.
He abducted Maa Sita to Shri Lanka, where he kept her in Ashok Vatika. Maa Sita is an incarnation of Maa Bhagwati Laxmi. The learned Brahman Ravan born out of a demoness was over powered by the cast-spell of the God's illusion-Maya and under the influence of his ego-pride he lost his rationality and prudence in addition to his memory and knowledge of astrology. He was aware that his own daughter would be the reason of his death, which he forgot. Though, he abducted Maa Sita and repeatedly proposed her to marry him for over 2 years. She not only denied his overtures but she threatened him of dire consequences. She picked up a straw and showed it to Ravan. Ravan had witnessed mighty king Dashrath killing a lion by throwing a straw at him. He remembered that his maternal relatives had been dragged out of heaven by Dashrath helping the demigods in the fierce fight between the demons and the demigods. Ravan had incurred many curses through out his life time by raping innocent girls. One of them was Ved Wati. Rambha-an Apsra too had cursed him. He had numerous daughters born out of illicit relations. Vaners requested Bhagwan Shri Ram to marry them with those girls and Bhagwan Shri Ram materialized their marriage and they were settled in an island in Europe created by Jallandhar the brother of Maa Bhagwati Laxmi. The descendants of these Vaners had red face as humans and no tail. Vaner and Berlin are two localities still present in Europe.
भगवान् श्री राम की अर्धांगिनी माँ सीता का पंचवटी के पास लंकाधिपति रावण ने अपहरण करके 2 वर्ष तक अपनी कैद में रखा था। उसने अनेकानेक प्रलोभन देकर माँ को स्वयं से विवाह के लिए आग्रह किया, जिन्हें दृढ़ता पूर्वक ठुकरा दिया गया। माता सीता में सतीत्व की शक्ति और महाराज दशरथ का भय उसे सदैव बना रहता था। उसे आयु पर्यन्त अनेक श्राप भी प्राप्त हुए थे। उसने अनेकों कन्याओं का सतीत्व भ्रष्ट किया था; जिसके परिणाम स्वरूप उसकी अनेक कन्याएँ भी थीं। 
रावण जब माता सीता के पास विवाह प्रस्ताव लेकर गया तो माता ने घास के एक टुकड़े को अपने और रावण के बीच रखा और कहा, "हे रावण! सूरज और किरण की तरह राम-सीता अभिन्न हैं। राम व लक्ष्मण की अनुपस्थिति में मेरा अपहरण कर तुमने अपनी कायरता का परिचय और राक्षस जा‍ति के विनाश को आमंत्रित कर दिया है। तुम्हें श्री राम जी की शरण में जाना इस विनाश से बचने का एकमात्र उपाय है, अन्यथा लंका का विनाश निश्चित है"।
सीता माता की इस बात से निराश रावण ने राम को लंका आकर माता सीता को मुक्त करने को दो माह की अवधि दी। इसके बाद रावण या तो सीता से विवाह करेगा या उनका अंत।
रावण माँ सीता को हरके लंका ले गया। लंका में माँ सीता वट वृक्ष के नीचे बैठ कर चिंतन करने लगीं। रावण बार-बार आकर माँ सीता को धमकाता था; लेकिन माँ सीता पर उसका कोई असर नहीं होता था। रावण ने भगवान् श्री राम की वेश भूषा में आकर माँ सीता को भ्रमित करने की कोशिश की, मगर फिर भी सफल नहीं हुआ।  रावण थक-हार कर जब अपने शयन कक्ष में गया तो मंदोदरी ने पूछा कि क्या हुआ? रावण बोला कि जब मैं राम का रूप लेकर सीता के समक्ष गया तो सीता मुझे नजर ही नहीं आई! रावण अपनी पूरी ताकत लगाकर भी जगत जननी माँ सीता को वश में नहीं कर पाया। 
राजा दशरथ की खीर में एक छोटा सा घास का तिनका गिरा तो माँ ने उसे घूर कर देखा और वह जल कर राख हो गया। राजा दशरथ यह देख कर स्तब्ध रह गये। उन्होंने अपने कक्ष में माँ सीता जी को बुलवाया! राजा दशरथ बोले मैंने आज भोजन के समय आप के चमत्कार को देख लिया था, आप साक्षात जगत जननी हैं! यह मैं समझ गया हूँ, परन्तु मेरी आपसे विनती है कि क्रोध में आप शत्रु को कतई ना देखें। माँ मान गईं। इसीलिए माँ सीता जी के सामने जब भी रावण आता था तो वो उस घास के तिनके को उठाकर महाराज दशरथ जी की बात याद कर लेती थीं। 
रावण ने सीता को हर तरह के प्रलोभन दिए कि वह उसकी पत्नी बन जाए। यदि वह ऐसा करती है तो वह अपनी सभी पत्नियों को उसकी दासी बना देगा और उसे लंका की राजरानी। लेकिन सीता माता रावण के किसी भी तरह के प्रलोभन में नहीं आईं। तब रावण ने माता सीता को जान से मारने की धमकी दी; लेकिन यह धमकी भी काम नहीं कर पाई। रावण चाहता तो माता सीता के साथ जोर-जबरदस्ती कर सकता था, लेकिन उसने अनेकों कारणों से ऐसा नहीं किया।
भगवान् श्री  राम के भाई लक्ष्मण ने रावण की बहन शूर्पणखा की नाक काट दी थी। पंचवटी में लक्ष्मण से अपमानित शूर्पणखा ने अपने भाई रावण से अपनी व्यथा सुनाई और उसके कान भरते कहा, "सीता अत्यंत सुंदर है और वह तुम्हारी पत्नी बनने के सर्वथा योग्य है"।
तब रावण ने अपने मामा मारीच के साथ मिलकर सीता अपहरण की योजना रची। इसके अनुसार मारीच का सोने के हिरण का रूप धारण करके राम व लक्ष्मण को वन में ले जाने और उनकी अनुपस्थिति में रावण द्वारा माता सीता का अपहरण करने की योजना थी।
इस पर जब भगवान् श्री राम हिरण के पीछे वन में चले गए, तब लक्ष्मण जी माता सीता के पास थे, लेकिन बहुत देर होने के बाद भी जब भगवान् श्री राम नहीं आए तो सीता माता को चिंता होने लगी, तब उन्होंने लक्ष्मण जी को भेजा। भगवान् श्री राम और लक्ष्मण जी की अनुपस्थिति में रावण माता सीता का अपहरण करके ले उड़ा। अपहरण के बाद आकाश मार्ग से जाते समय पक्षीराज जटायु के रोकने पर, रावण ने उनके पंख काट दिए।
रावण ने सीता को लंकानगरी के अशोक वाटिका में रखा और त्रिजटा के नेतृत्व में कुछ राक्षसियों को उसकी देख-रेख का भार दिया।
सिर्फ माता सीता के अपहरण के कारण ही राम के हाथों रावण की मृत्यु हुई थी। यह उस समय की बात है, जब भगवान् शिव से वरदान और शक्तिशाली खड्ग पाने के बाद रावण और भी अधिक अहंकार से भर गया था। वह पृथ्वी से भ्रमण करता हुआ हिमालय के घने जंगलों में जा पहुँचा। वहाँ उसने एक रूपवती कन्या को तपस्या में लीन देखा। कन्या के रूप-रंग के आगे रावण का राक्षसी रूप जाग उठा और उसने उस कन्या की तपस्या भंग करते हुए उसका परिचय जानना चाहा।
काम-वासना से भरे रावण के अचंभित करने वाले प्रश्नों को सुनकर उस कन्या ने अपना परिचय देते हुए रावण से कहा कि "हे राक्षस राज, मेरा नाम वेदवती है। मैं परम तेजस्वी महर्षि कुशध्वज की पुत्री हूँ। मेरे वयस्क होने पर देवता, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, नाग सभी मुझ से विवाह करना चाहते थे, लेकिन मेरे पिता की इच्छा थी कि समस्त देवताओं के स्वामी श्री विष्णु ही मेरे पति बनें"।
मेरे पिता की उस इच्छा से क्रुद्ध होकर शंभू नामक दैत्य ने सोते समय मेरे पिता की हत्या कर दी और मेरी माता ने भी पिता के वियोग में उनकी जलती चिता में कूदकर अपनी जान दे दी। इसी वजह से यहाँ मैं अपने पिता की इच्छा को पूरा करने के लिए इस तपस्या को कर रही हूँ।
इतना कहने के बाद उस सुंदरी ने रावण को यह भी कह दिया कि मैं अपने तप के बल पर आपकी गलत इच्छा को जान गई हूँ।
इतना सुनते ही रावण क्रोध से भर गया और अपने दोनों हाथों से उस कन्या के बाल पकड़कर उसे अपनी ओर खींचने लगा। इससे क्रोधित होकर अपने अपमान की पीड़ा की वजह से वह कन्या दशानन को यह शाप देते हुए अग्नि में समा गई कि मैं तुम्हारे वध के लिए फिर से किसी धर्मात्मा पुरुष की पुत्री के रूप में जन्म लुंगी।
रावण संहिता में उल्लेख मिलता है कि दूसरे जन्म में वही तपस्वी कन्या एक सुंदर कमल से उत्पन्न हुई और जिसकी संपूर्ण काया कमल के समान थी। इस जन्म में भी रावण ने फिर से उस कन्या को अपने बल के दम पर प्राप्त करना चाहा और उस कन्या को लेकर वह अपने महल में जा पहुँचा।
जहाँ ज्योतिषियों ने उस कन्या को देखकर रावण को यह कहा कि यदि यह कन्या इस महल में रही तो अवश्य ही आपकी मौत का कारण बनेगी। यह सुनकर रावण ने उसे समुद्र में फिकवा दिया।
तब वह कन्या पृथ्वी पर पहुँचकर राजा जनक के हल जोते जाने पर उनकी पुत्री बनकर फिर से प्रकट हुई। मान्यता है कि बिहार स्थिति सीतामढ़ी का पुनौरा गाँव वह स्थान है, जहाँ राजा जनक ने हल चलाया था। शास्त्रों के अनुसार कन्या का यही रूप सीता बनकर रामायण में रावण के वध का कारण बना।
रावण एक महान विद्वान, ज्योतिषाचार्य और योद्धा था। रामायण में उल्लेख है कि "रावण कहता है कि जब मैं भूलवश अपनी पुत्री से प्रणय की इच्छा करूँ, तब वही मेरी मृत्यु का कारण बने"।
रावण के इस कथन से ज्ञात होता है कि सीता रावण की पुत्री थीं। अद्भुत रामायण में उल्लेख है कि गृत्स्मद नामक ब्राह्मण लक्ष्मी को पुत्री रूप में पाने की कामना से प्रतिदिन एक कलश में कुश के अग्र भाग से मंत्रोच्चारण के साथ दूध की बूंदें डालता था। एक दिन जब ब्राह्मण कहीं बाहर गया था, तब रावण इनकी कुटिया में आया और वहाँ मौजूद ऋषियों को मारकर उनका रक्त कलश में भर लिया। यह कलश लाकर रावण ने मंदोदरी को सौंप दिया।
रावण ने कहा कि यह तेज विष है, इसे छुपाकर रख दो। मंदोदरी रावण की उपेक्षा से दुःखी थी। एक दिन जब रावण बाहर गया था तब मौका देखकर मंदोदरी ने कलश में रखा रक्त पी लिया। इसके पीने से मंदोदरी गर्भवती हो गई। लोक-लाज के डर से मंदोदरी अपनी पुत्री को कलश में रखकर उस स्थान पर छुपा गई, जहाँ से जनक ने उसे प्राप्त किया। 
त्रिजटा नाम की राक्षसी को रावण ने सीता की रक्षा के लिए अशोक वाटिका में राक्षसनियों की मुखिया बनाकर रखा था। सभी राक्षसनियाँ सीता माता को डराती रहती थीं और रावण से विवाह करने के लिए उकसाती रहती थीं लेकिन त्रिजटा धर्म को जानने वाली और प्रिय वचन बोलने वाली थी। त्रिजटा ने सीता को सांत्वना देते हुए कहा कि "सखी तुम चिंता मत करो। यहाँ एक श्रेष्ठ राक्षस रहता है जिसका नाम अविंध्य है। उसने तुमसे कहने के लिए यह संदेश दिया है कि तुम्हारे स्वामी भगवान् श्री राम अपने भाई लक्ष्मण जी के साथ कुशलपूर्वक हैं। वे अत्यंत शक्तिशाली वनराज सुग्रीव के साथ मित्रता करके तुम्हें छुड़वाने की कोशिश कर रहे हैं"।
त्रिजटा ने सीता को एक राज की बात और बताई यह कि तुम्हें रावण से नहीं डरना चाहिए, क्योंकि रावण ने कुबेर के पुत्र नलकुबेर की पत्नी अप्सरा, रंभा को काम-वासना से छुआ था तो रंभा ने क्रोधित होकर रावण को शाप दिया कि वह किसी पराई स्त्री के साथ उसकी इच्छा बिना संबंध नहीं बना पाएगा और अगर ऐसा किया तो वह भस्म हो जाएगा। रावण ने रंभा के साथ बलात्कार करने का प्रयास किया था; जिसके चलते रंभा ने उसे यह शाप दिया था। रंभा कुबेर के पुत्र नलकुबेर के साथ पत्नी की तरह रहती थी। रंभा और नलकुबेर के संबंध को लेकर रावण अकसर उपहास उड़ाया करता था। इसी शाप के भय से रावण ने सीताहरण के बाद सीता को छुआ तक नहीं था।
लंकाधिपति रावण अपूर्ण इच्छाएँ :: सभी वेदों का ज्ञाता होने के साथ-साथ रावण को अनेको विद्याओं में महारथ हासिल थी। वह बहुत ही कुशल राजनीतिज्ञ और सेनापति होने के अलावा वास्तुकला के मर्म को भी समझता था। इंद्रजाल, सम्मोहन, जादू के ज्ञान के अलावा वह मायावी भी था। वह युद्ध-कौशल में निपुर्ण था तथा भगवान् शिव का परम भक्त था। रावण ने अनेकों देवताओ को भी कैद किया हुआ था। उसने अपने भाई कुबेर से उनका राज्य और पुष्पक विमान भी छीन लिया था। वह अत्यधिक कामुक और बहुत बड़ा बलात्कारी था। धन, सम्पदा से परिपूर्ण होते हुए भी रावण की निम्न सात ऐसी इच्छाएँ थीं, जिन्हें वह जीते-जी पूरा न कर सका। 
(1). स्वर्ग तक सीढ़ियाँ बनना :- स्वर्ग तक सीढ़ियों का निर्माण कर रावण प्रकृति के नियम को तोड़, भगवान् की सत्ता को चुनौती देना चाहता था। वह सोचता था कि स्वर्ग और मोक्ष की कामना के लिए ही धरती के लोग भगवान् को पूजते हैं; अतः वह स्वर्ग तक सीढ़ियों का निर्माण करना चाहता था, ताकि लोग भगवान् की पूजा छोड़ उसे पूजें। 
(2). शराब की दुर्गन्ध को दूर करना :- राक्षसी प्रवृत्ति और अधर्म की वृद्धि के लिए वह शराब में से उसकी बदबू मिटाना।
(3). सोने में सुगंध डालना :- रावण चाहता था कि सोने में सुगंध-खशबू उत्पन्न हो जाये ताकि स्वर्ण भंडारों को ढूँढ़ने-खोजने में कोई परेशानी न हो। 
(4). मानव के रक्त को लाल से श्वेत करना :- रावण अपने विश्वविजयी अभियान में करोड़ों निर्दोष लोगों का खून बहाया, जिससे सरोवर और नदिया खून के रंग से लाल हो गईं; पृथ्वी का संतुलन बिगड़ने लगा तथा देवता इस सब का दोष रावण को देने लगे, तो रावण ने विचार किया कि अगर रक्त का रंग लाल के स्थान पर श्वेत हो जाये तो किसी को पता ही नहीं चलेगा कि उसने किसी का वध करा है, क्योंकि श्वेत रक्त पानी के साथ मिलकर उसी के जैसा हो जायेगा। 
(5). काले रंग को गोरा करना :- रावण के शरीर का रंग काला था। अतः वह अपने शरीर के रंग के साथ ही राक्षस जाति में उन सभी का रंग गोरा करना चाहता था, ताकि कोई भी महिला उनका अपमान न कर सके।
(6). संसार से भगवान् श्री हरी पूजा को निर्मूल करना :- रावण चाहता था की इस पूरी दुनिया से भगवान् श्री हरी विष्णु की पूजा की परम्परा ही समाप्त हो जाये तथा हर कोई सिर्फ उसे ही पूजे। इसके लिए उसने अनेक प्रयास भी किये परन्तु वह अपने इस प्रयास में सफल नहीं हुआ। 
(7). समुद्र के पानी को मीठा बनाना :- रावण का उसके सबसे अधिक सात प्रिय सपनों में से एक सपना था समुद्र के पानी को मीठा बनाना। वह विश्व के सातों समुद्रो के पानी को मीठा बनाना चाहता था। परन्तु उसका यह सपना भी अधूरा रह गया। 
(8). महा वालेश्वर शिव लिंग को लंका ले जाना :- रावण शिव लिंग को लंका तक नहीं ले जा पाया और वह महा वालेश्वर में स्थापित हो गया। 
Please refer to :: MAHA VALESHWAR TEMPLE महावळेश्वर santoshkipathshala.blogspot.com
रावण के अनुसार स्त्रियों के 8 अवगुण :: 4 वेदों और 6 दर्शन षड्दर्शन का ज्ञाता रावण ज्योतिष का भी महान विद्वान था। उसे दसों दिशाओं का ज्ञान था। वो ज्ञानी तो ज़रुर था; मगर गुना नहीं था। वो अविवेकी, अहंकारी, कामासक्त और निर्दय भी था; जबकि मन्दोदरी मय दानव की पुत्री होने के साथ-साथ एक विदुषी और विवेकशील स्त्री थी। उसे इस बात का पता था कि भगवान् श्री राम स्वयं भगवान् श्री हरी विष्णु के अवतार हैं। रावण को एक ज्योतिष के ज्ञाता-विद्वान् के तौर  पर मालूम था कि उसका नाश उसकी अपनी पुत्री के कारण ही होगा। माँ सीता को भ्रूणावस्था में नष्ट समझ, वो बेपरवाह हो गया था; जबकि मन्दोदरी इस बात को भूली नहीं थी। रावण से विवाह के समय उसकी भौतिक आयु एक कल्प से भी ज्यादा थी। अपनी इच्छापूर्ति हेतु उसने भगवान् ब्रह्मा के कहने पर उसने रावण के जन्म और राक्षस राजा बनने का इन्तजार किया। रावण के द्वारा कथित, यह प्रकरण राक्षसी प्रवृति की महिलाओं के बारे में सच हो सकता है; परन्तु विवेकी, धर्मशील, मर्यादा में रहने वाली प्रतिव्रता महिलाओं के बारे में कदापि नहीं। वो बेहद कामासक्त था और इसी बुराई के कारण वह मारा गया। धनुष यज्ञ में वो माता सीता को प्राप्त न कर सका तो छल से हर लाया। जब मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम अपनी वानर सेना के साथ समुद्र पार कर करके श्री लङ्का पहुँचे तो रावण की पत्नी मंदोदरी बहुत ज्यादा भयभीत हो गयी। मंदोदरी ने रावण को समझाया कि वो प्रभु राम से क्षमा याचना कर ले और माता सीता को लौटा दे। मंदोदरी के मुख से ऐसी बात सुनकर रावण बहुत हँसा और उसने मंदोदरी को कहा :-
नारि सुभाऊ सत्य सब कहही; अवगुन आठ सदा उर रहहीं।
साहस अनृत चपलता माया; भय अबिबेक असौच अदाया॥
रावण मंदोदरी को स्त्रियों में पाए जाने वाले 8 अवगुणों (Defect, Vice, Faults) को इस प्रकार बताया :-
(1). अत्याधिक साहस-दुस्साहस :- स्त्रियों में दुस्साहस बहुत ज्यादा होता है जिसके चलते कई बार वो ऐसे काम कर जाती हैं जिनके परिणाम स्वरुप बाद में उन्हें व उन्हें सम्बन्धियों को पछताना पड़ता है। वे इस बात का निर्णय नही ले पाती कि साहस का कैसे और किस जगह उचित प्रयोग करना चाहिए। जब साहस  बिना समझ के अत्याधिक प्रयोग किया जाता है, तब वो दुःसाहस बन जाता है। 
(2). झूंठ बोलना :- रावण मंदोदरी से कहता है कि स्त्रियों के अन्दर दूसरा अवगुण झूँठ बोलने का अवगुण होता है और वे बात-बात पर झूँठ बोलती हैं।ये आदत अक्सर उनकी परेशानियों का सबब बन जाती है। उन्हें वह याद नहीं रहता कि  झूँठ एक न एक दिन खुल ही जाता है और सच सामने आ जाता है और परेशानी का सबब बन जाता है।
(3). चंचलता, चपलता :- स्त्रियों में चंचलता का भाव पुरुषों की अपेक्षा अत्याधिक होता है, जिसकी वजह से वो किसी एक बात पर अधिक समय तक नहीं टिक पातीं। घड़ी-घड़ी स्त्रियों के विचारों में परिवर्तन देखने को मिलता है और वो अधिकांश परिस्तिथियों में सही निर्णय लेने में असमर्थ रहती हैं। 
(4). माया रचना :- स्त्रियाँ अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए कई प्रकार की माया रचती हैं (ड्रामेबाज़ी) अपना काम कराने के लिए वो व्यक्तियों को कई प्रकार के प्रलोभन देती हैं, रूठती हैं, मनाती हैं। जो इस मायाजाल में फँस गया वो स्त्री के वशीभूत हो जाता है और बेकार हो जाता है। 
(5). डरपोक होना :- स्त्रियाँ अनावश्यक रूप से बहुत डर जाती है और इस वजह से उनके कई काम बिगड़ जाते हैं। वैसे स्त्री बाहरी तौर पर भले ही साहस दिखाती हैं,  किन्तु अन्दर से वो डरी होती हैं। 
(6). अविवेकी स्वभाव (मूढ़ता या मूर्खता) :- कुछ परिस्तिथियों में अविवेकी स्वभाव के कारण मूर्खतापूर्ण कार्य को अंजाम दे देती हैं, जिनका परिणाम बुरा ही होता है। अधिक साहस होने की वजह से और खुद को श्रेष्ठ साबित करने के लिए ऐसे कार्य कर दिए जाते है वो भविष्य में दुःखदाई होता हैं। 
(7). निर्दयता :- सामान्यतया उनमें दया का अभाव होता है और अक्सर वे निर्दय हो जाती हैं और 
(8). अपवित्रता :: स्त्रियों में अपवित्रता यानी कि साफ़-सफाई का अभाव होता है।
राक्षस राज रावण :: राक्षसों के विनाश से दुःखी होकर सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री! राक्षस जाति के कल्याण के लिये मैं चाहता हूँ कि तुम परम पराक्रमी महर्षि विश्रवा के पास जाकर उनसे पुत्र प्राप्त करो। वही पुत्र हम राक्षसों की देवताओं से रक्षा कर सकता है। पिता की आज्ञा पाकर कैकसी विश्रवा के पास गई। उस समय भयंकर आँधी चल रही थी। आकाश में मेघ गरज रहे थे। कैकसी का अभिप्राय जानकर विश्रवा ने कहा कि भद्रे! तुम इस कु-बेला में आई हो। मैं तुम्हारी इच्छा तो पूरी कर दूँगा परन्तु इससे तुम्हारी सन्तान दुष्ट स्वभाव वाली और क्रूरकर्मा होगी। मुनि की बात सुन कर कैकसी उनके चरणों में गिर पड़ी और बोली कि भगवन्! आप ब्रह्मवादी महात्मा हैं। आपसे मैं ऐसी दुराचारी सन्तान पाने की आशा नहीं करती। अतः आप मुझ पर कृपा करें। कैकसी के वचन सुन कर मुनि विश्रवा ने कहा कि अच्छा, तो तुम्हारा सबसे छोटा पुत्र सदाचारी और धर्मात्मा होगा। इस प्रकार कैकसी के पुत्र रावण का जन्म हुआ। उसके पश्‍चात् कुम्भकर्ण, शूर्पणखा और विभीषण के जन्म हुए। रावण और कुम्भकर्ण अत्यन्त दुष्ट थे, किन्तु विभीषण धर्मात्मा प्रकृति का था।
रावण परम पराक्रमी महर्षि विश्रवा का पुत्र अवश्य था परन्तु राक्षसी के गर्भ से पैदा होने के कारण तमो गुण और मायावी विद्याओं से युक्त था। उसका पालन-पोषण भी राक्षसी पद्धति के अनुरूप ही हुआ। ब्राह्मण के वीर्य से अन्य जाति की स्त्री का गर्भाधान होने पर सन्तति को स्त्री के कुल का माना जाता है। मनु स्मृति भी किसी को जन्म से ब्राह्मण नहीं मानती। जाति कर्मों पर आधारित है। अतः माता के राक्षसी कुल की होने के कारण वह राक्षस ही था।राक्षस योनि में होने के कारण, मनुष्य योनि नहीं प्राप्त होने के कारण रावण वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत नहीं था, अतः वह ब्राह्मण नहीं था। कर्ण भगवान् सूर्य का पुत्र होकर भी मनुष्य था। धर्मराज के पुत्र युधिष्टर मनुष्य थे, माता अञ्जलि से उत्पन्न पवन पुत्र हनुमान जी वानर व भीम मनुष्य थे, देवराज इन्द्र के पुत्र अर्जुन मनुष्य, अश्वनी कुमारों के पुत्र नकुल और सहदेव भी तो मनुष्य ही थे। राक्षसी से उत्पन्न घटोत्कच भीम का पुत्र होकर भी राक्षस था। कश्यप ऋषि की विभिन्न पत्नियों से उत्पन्न विभिन्न प्रजतियाँ अपना अलग-अलग अस्तित्व रखतीं हैं, क्योंकि जाति का निर्णय माता से ही होता है। 
Mahrishi Bhardwaj married a Kshatriy woman called Sushila from whom he had a son called Garg. According to Anulom marriage, the off springs, who are born to a Brahman father and a Kshatriy woman take the characteristics of Kshatriy genetically, though technically being a Brahman. Hence the Brahman descendants of Bhardwaj Gotr are referred to as Brahm-Kshatriy (Warrior Brahmans). They are considered to have learning in Veds and war fare, simultaneously.

मनु स्मृति कहती है कि कर्मों के अनुरुप जाति बदल जाती है। रावण ने युद्ध को प्रश्रय दिया और राजा बना। उसे चारों वेदों और षड्दर्शन का पूरा ज्ञान था। वह दसों दिशाओं का ज्ञाता था। 
भगवान् की माया के जाल में जो फँस जाये, उसका निकलना नामुमकीन है। भगवान् ने उसका विवेक हर लिया। वह पढ़ा तो था मगर गुना नहीं था। उसका अवगुण था अहंकार, दम्भ और राक्षसी-तामसिक प्रवर्तियाँ। वह अधर्मी और आततायी भी था।
वह ज्योतिष का महा विद्वान् भी था और उसे यह भी मालूम था कि उसकी मृत्यु का कारण उसकी पुत्री (माता सीता) ही होगी। मन्दोदरी के गर्भवती होते ही उसे ज्ञान हो गया कि उसकी मौत ने जन्म ले लिया है। उसने गर्भपात कराया तो मन्दोदरी ने भ्रूण को एक मटके में रखवाकर रावण के राज्य की सीमा से दूर गढ़वा दिया। 
गान्धारी के 100 पुत्र और एक पुत्री इसी प्रकार एक मटके से उत्पन्न हुए थे। वर्तमान काल में भी 9 महीने पूरे होने से पहले ही जन्मे बच्चों को incubator में रखकर बड़ा किया जाता है। पिछले दिनों एक 400 ग्राम के बच्चे को पाला गया जो अब 4.5 किलो का है।
रावण भगवान् शिव का परम् भक्त था और ब्रह्मा जी के वरदान से युक्त था। वह भगवान् विष्णु का सेवक जय था और भगवान् की प्रेरणा से ही उसने ब्रह्मा जी के पुत्रों को नाराज कर श्राप प्राप्त किया था। भगवान् श्री राम ने उसे युद्ध से पूर्व शिवलिंग की स्थापना करने के लिये बुलाया तो वह आया और रामेश्वर में शिवलिगों की स्थापना भी कराई। क्योंकि यह प्रयोजन माता सीता के बगैर व्यर्थ था; अतः वह माता सीता को भी साथ लाया था।
महापंडित लंकाधीश रावण रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना के समय पुरोहित बने :: भगवान् श्री राम ने जामवंत जी को आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए श्री लंका भेजा। जामवन्त जी दीर्घाकार और आकार में कुम्भकर्ण से तनिक ही छोटे थे। रावण ने सहर्ष उनका अभिवादन किया। जामवंत जी ने रावण से कहा कि वे भगवान् श्री राम के दूत बनकर उसे पूजा-पाठ हेतु निमंत्रण देने के लिये आये हैं और श्री राम ने उसे सादर प्रणाम कहा है।
रावण ने सविनय कहा कि जामवंत जी उनके पितामह के भाई थे और इस नाते उसके भी पूज्य थे। जामवन्त जी ने कहा कि श्री राम सागर-सेतु निर्माण के उपरांत यथा शीघ्र महेश्वर लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते थे। इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होंने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचार्य पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की थी और वे उनकी ओर से रावण को आमंत्रित करने आये थे। रावण ने जामवंत जी से कहा कि अगर वो उन्हें कैदी बना ले तो क्या होगा? जामवंत जी ने बताया कि उनके प्रस्थान करने से पहले ही धनुर्वीर लक्ष्मण वीरासन में बैठे हुए हैं। उन्होंने आचमन करके अपने त्रोण से पाशुपतास्त्र (Pashu Patatr) का संधान कर लिया था ताकि अनहोनी होने पर रावण को दण्डित किया जा सके। रावण यह अच्छी तरह जानता था कि भगवान् श्री राम के पिता दशरथ जी ने देव-दानव संग्राम में भाग लेकर दानवों को बुरी तरह हराया था। उसने अपनी आँखों से यह भी देखा था कि किस तरह राजा दशरथ ने ब्राह्मण की गाय, शेर से बचाने के लिये महल में बैठे-बैठे तिनके को अस्त्र में बदल कर शेर का संहार कर दिया था और इसी वजह से वो अयोध्या विजय का स्वप्न भी नहीं देखता था। माँ सीता ने रावण को यही प्रकरण याद दिला कर अपनी रक्षा की थी। जामवंत जी ने यह भी बताया कि उनके पास ऐसा यंत्र था जिससे भगवान् श्री राम और लक्ष्मण जी वहाँ की कार्यवाही सीधी देख देख-सुन रहे थे। 
रावण ने विनम्रतापूर्वक कहा कि यजमान उचित अधिकारी है और उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है। रावण ने महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद को स्वीकार कर लिया। 
इस प्रकार के यज्ञ सपत्नीक होते हैं, अतः रावण ने माता सीता को पुष्पक विमान में अपने साथ ले जाने का निर्णय लिया। जानकी जी-माता सीता ने पति के आचार्य को अपना आचार्य मानकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया। स्वस्थ कण्ठ से सौभाग्यवती भव कहते रावण ने दोनों हाथ उठाकर भरपूर आशीर्वाद दिया।
माँ सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से समुद्र तट पर उतररा। माता सीता को उसने विमान में ही छोड़ा और स्वयं भगवान् राम के सम्मुख पहुँचा। जामवन्त से संदेश पाकर भाई, मित्र और सेना सहित श्री राम स्वागत सत्कार हेतु पहले से ही तत्पर थे। सम्मुख होते ही वनवासी श्री राम ने आचार्य दशग्रीव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया तो रावण ने आशीर्वाद दिया, "दीर्घायु भव! लंका विजयी भव"! 
माता सीता को रावण ने बुलाया और भगवान् श्री राम के साथ पूजा सम्पादन करने के लिये कहा। आचार्य के इस आदेश का वैदेही ने पालन किया। गणपति पूजन, कलश स्थापना और नवग्रह पूजन उपरान्त आचार्य ने पूछा लिंग विग्रह के बारे में जानकारी चाही। यजमान ने निवेदन किया कि उसे लेने गत रात्रि के प्रथम प्रहर से पवन पुत्र कैलाश गए हुए हैं और अभी तक लौटे नहीं हैं; आते ही होंगे।
आचार्य ने आदेश दे दिया कि विलम्ब ठीक नहीं था, क्योंकि शुभ महूर्त में यज्ञ को पूरा करना था। अतः माँ जानकी से बालू का विग्रह बनवाया। जनक नंदिनी ने स्वयं के कर-कमलों से समुद्र तट की आर्द्र रेणुकाओं से आचार्य के निर्देशानुसार यथेष्ट लिंग-विग्रह निर्मित किया। यजमान द्वारा रेणुकाओं का आधार पीठ बनाया गया। श्री सीता राम ने वही महेश्वर लिंग-विग्रह स्थापित किया। आचार्य ने परिपूर्ण विधि-विधान के साथ अनुष्ठान सम्पन्न कराया।
भगवान् श्री राम ने आचार्य रावण से दक्षिणा पूछी। रावण ने कहा कि जब आचार्य मृत्यु शैय्या ग्रहण करे तब यजमान सम्मुख उपस्थित रहें।
प्रभु श्री राम ने वचन दे दिया कि ऐसा ही होगा आचार्य। यजमान ने वचन दिया और समय आने पर निभाया भी।
“रघुकुल रीति सदा चली आई। प्राण जाई पर वचन न जाई।”
यह दृश्य वार्ता देख सुनकर उपस्थित समस्त जन समुदाय के नयनाभिराम प्रेमाश्रुजल से भर गए। सभी ने एक साथ एक स्वर से सच्ची श्रद्धा के साथ इस अद्भुत आचार्य को प्रणाम किया।
रावण जैसे भविष्यदृष्टा ने जो दक्षिणा माँगी, उससे बड़ी दक्षिणा क्या हो सकती थी!
(रामेश्वरम् देवस्थान में लिखा हुआ है कि इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना भगवान् श्री राम ने रावण द्वारा करवाई थी।) 
This story do not find mention in Mahrishi Balmiki's Ramayan and the Ram Charit Manas of Goswami Tulsi Dass. An inscription in Tamil describes the narrative from the Kampan Ramayan by the name of Kampan Maharishi's Iramawatarm.
Bhagwan Shri Ram decided to hold a Yagy to seek the blessings of Bhagwan Shiv before invading Shri Lanka for the release of Maa Sita who had been abducted by Ravan unaware of the fact that she was an incarnation of Maa Bhagwati Lakshmi and his own daughter. For this purpose a priest was needed. 
Ravana British Museum.jpgRavan turned into a Shiv Bhakt when he was buried under his nail by Bhagwan Shiv when he tried to move Kaelash Parwat. However, he recited Ravan Strotr to seek his release and was pardoned. 
Please refer to :: SHIV TANDAV STROTR COMPOSED BY RAVAN रावण रचित शिव तांडव स्त्रोत्  santoshsuvichar.blogspot.com
Ravan the door keeper Jai of Bhagwan Vishnu  in Vaekunth Lok, had this second incarnation after being released as Hirany Kashyap. He took birth form Mahrishi Visharva and the demon princess Keksi who is also known as Niksha and Keshini (निकषा केशिनी). He acquired all the characterises of the demons, giants, monsters from his mother and the knowledge of Veds, scriptures from his father. He became a great scholars and warrior. He took control of the 3 worlds under him viz. earth, heaven and nether world. He was a great astrologer as well. He is said to have the knowledge of 10 directions, sciences and arts.
Bhagwan Shri Ram requested Jamvant Ji to visit Lanka and request Ravan to accept the honour to become his Achary-Priesthood, to perform rites. Ravan was very much pleased to find Brahma Ji's son at his door and welcomed him. He jokingly asked if Jamvant Ji was not afraid of being imprisoned by him? Jamvant Ji replied that it was quite easy to see what was happening there for Bhagwan Shri Ram as he had the device to telecast live the conversation between Ravan and him. Secondly, there was no one in the universe capable to imprison him except the Almighty him self. And thirdly, Lakshman Ji was prepared to use Pashu Patatr which could eliminate Shri Lanka in a few second, though Lakshman Ji an incarnation of Bhawan Shesh Nag was reluctant to use divine weapons over the living beings of earth. Pashu Patatr could eliminate whole life over earth, had it being used.
Ravan was a Brahman by birth and a master of rituals and sacred prayers. He was aware of the consequences of the use of Pashu Patatr as well. He felt obliged to accept the priesthood of Bhagwan Shri Ram who had appeared over the earth as the son of mighty king Dashrath who had defeated the demons in great war between demons and the demigods. He himself noticed that a straw energised with the Mantr power killed the lion, who was ready to attack a cow, by king Dashrath, just by sitting in his palace.
Presence of Maa Sita was must in such a Yagy, sacred-holy fire. He asked Maa Sita to accompany him to Bhagwan Shri Ram for the ceremony. Pushpak Viman snatched from his brother Kuber by Ravan was used to ferry them to the site of Yagy.
As soon as Ravan reached in front of Bhagwa Shri Ram, he got up and welcomed Ravan with due respect and honour and Ravan blessed him with the victory of Lanka.
Mythological Facts about Ravan Death
Preparations were made for the Yagy. Maa Bhagwati Sita was asked to prepare a Shiv Ling of sea sand to conduct the prayers at the most auspicious-fortunate time. Hanuman Ji Maha Raj had gone to Kaelash to bring the energised Shiv Ling from there, but delayed due to some reason. Now, both these Shiv Lings are present at the same site-Rameshwaram. Ravan blessed Bhagwan Shri Ram to be victorious in the war against him and Bhagwan Shri Ram granted his wish to be present before him at the time of his death as Dakshina-fee for carrying out rituals as a priest.
Facts about Ravan Death रावण के सर्वनाश के कारण 6 श्राप :- रावण बहुत ही पराक्रमी योद्धा, परमज्ञानी, महापण्डित, त्रिकाल दर्शी, दसों दिशाओं का ज्ञाता और वेदों का पारगामी परम विद्वान था। उसने अपने जीवन में अनेक युद्ध किए। रावण के अंत का कारण भगवान् श्री राम की शक्ति तो थी ही; साथ ही, उन लोगों का श्राप भी था, जिनका रावण ने कभी अहित किया था। रावण को अपने जीवनकाल में मुख्यतः 6 लोगों से श्राप मिला था। यही श्राप उसके सर्वनाश का कारण बने और उसके वंश का समूल नाश हो गया। देवताओं से युद्ध में उसकी पराजय हुई, जिसमें महाराज दशरथ ने देवताओं का साथ दिया। वह बाली से हारा, जिसने उसे अपनी काँख में तब तक दबाये रखा जब तक उसने सूर्य भगवान् की पूजा अर्चना की। रावण ने उससे दोस्ती कर ली। कैलाश पर्वत को जाकर हिलाया तो भगवान् शिव ने उसे पैर के नाख़ून से दबाये रखा तो उसने रावण स्त्रोत्र से उनकी आराधना की।  उसने अपने जीवन में  अनेकों युद्ध लड़े और जीते जो कि उसके अहंकार के कारण बने और बाद में उसका विनाश भी किया। 
रावण ब्राह्मण कुल में उत्पन्न, विद्वान होते हुए भी बेहद कामुक, पतित स्वभाव का और राक्षसी बुद्धि वाला था। उस पर उसकी माँ और नाना का पूरा प्रभाव था। अपनी दुष्प्रवृत्तियों के कारण उसे अनेकानेक श्राप प्राप्त हुए जो कि भगवान् श्री राम के साथ युद्ध में उस पर फली भूत हो गए। 
(1). सूर्य, इक्ष्वाकु, रघुवंश (भगवान राम के वंश में) में एक परम प्रतापी राजा हुए थे, जिनका नाम अनरण्य था। जब रावण विश्व-विजय करने निकला तो राजा अनरण्य से उसका भयंकर युद्ध हुआ। उस युद्ध में राजा अनरण्य की मृत्यु हो गई, लेकिन मरने से पहले उन्होंने रावण को श्राप दिया कि मेरे ही वंश में उत्पन्न एक युवक तेरी मृत्यु का कारण बनेगा।
(2). एक बार रावण भगवान् शिव से मिलने कैलाश गया। वहाँ उसने नन्दीश्वर को देखकर उसने उनके स्वरूप की हँसी उड़ाई और उन्हें वानर मुँख कहा तो नन्दीश्वर ने उसे कहा कि वानर उसके नाश का कारण बनेंगे। 
(3). रावण ने अपनी पत्नी की बड़ी बहन माया के साथ भी छल किया था। माया के पति वैजयंतपुर के शंभर राजा थे। एक दिन रावण शंभर के यहाँ गया। वहाँ रावण ने माया को अपनी बातों में फँसा लिया। इस बात का पता लगते ही शंभर ने रावण को बंदी बना लिया। उसी समय शंभर पर राजा दशरथ ने आक्रमण कर दिया। उस युद्ध में शंभर की मृत्यु हो गई। जब माया सती होने लगी तो रावण ने उसे अपने साथ चलने को कहा। तब माया ने कहा कि तुमने वासना युक्त मेरा सतित्व भंग करने का प्रयास किया है, इसलिए मेरे पति की मृत्यु हो गई। अत: तुम भी स्त्री की वासना के कारण मारे जाओगे।
(4). एक बार रावण अपने पुष्पक विमान से कहीं जा रहा था। तभी उसे एक सुंदर स्त्री दिखाई दी, जो भगवान् विष्णु को पति रूप में पाने के लिए तपस्या कर रही थी। रावण ने उसके बाल पकड़े और अपने साथ चलने को कहा। उस तपस्विनी ने उसी क्षण अपनी देह त्याग दी और रावण को श्राप दिया कि एक स्त्री के कारण ही तेरी मृत्यु होगी। उसके पश्चात ही रावण ने स्त्रियों के साथ जोर-जबरदस्ती बंद कर दी। उसने अपने जीवन काल में बलात्कार-जोर जबरदस्ती से अनेकों स्त्रियों से बलात्कार कर अनेकानेक कन्याओं को उत्पन्न किया। 
(5). विश्व विजय करने के लिए जब रावण स्वर्ग लोक पहुँचा तो उसे वहाँ रंभा नाम की अप्सरा दिखाई दी। अपनी वासना पूरी करने के लिए रावण ने उसे पकड़ लिया। तब उस अप्सरा ने कहा कि आप मुझे इस तरह से स्पर्श न करें, मैं आपके बड़े भाई कुबेर के बेटे नलकुबेर के लिए आरक्षित हूँ, इसलिए मैं आपकी पुत्रवधू के समान हूँ। लेकिन रावण नहीं माना और उसने रंभा से दुराचार किया। यह बात जब नलकुबेर को पता चली तो उसने रावण को श्राप दिया कि आज के बाद रावण बिना किसी स्त्री की इच्छा के उसको स्पर्श करेगा तो रावण का मस्तक सौ टुकड़ों में बँट जाएंगे।
(6). रावण की बहन शूर्पणखा के पति का नाम विद्युतजिव्ह था। वो कालकेय नाम के राजा का सेनापति था। रावण जब विश्वयुद्ध पर निकला तो कालकेय से उसका युद्ध हुआ। उस युद्ध में रावण ने विद्युतजिव्ह का वध कर दिया। तब शूर्पणखा ने मन ही मन रावण को श्राप दिया कि मेरे ही कारण तेरा सर्वनाश होगा।
RAVAN'S FAMILY TREE ::
WIFE :-  (1). Mandodari-the daughter of the celestial renowned architect May Danav-giant, (2). Dhany Malini and a third wife as well.
PARENTS ::  Father :: Vishrava, a man; Mother :- Kaekasi demon-Rakshsi princess, daughter of Sumali and Thatak. She had two brothers Marich and Subahu
BROTHERS ::  (1). Kuber-Step/Half brother, a Yaksh, (2). Kumbh Karn, (3). Vibhishan, (4). Khar, Dushan & (5). Ahi Ravan.
SISTERS ::  
(1). Kumbhini :- Wife of the demon Madhu, King of Mathura, she was the mother of Lavana Sur (an Asur who was killed by Shatrughan Ji, the youngest brother of Bhagwan Shri Ram). She was renowned for her beauty and later retired to the sea for penance. (2). Surp Nakha :- She was the ultimate root cause of the kidnapping of Maa Bhagwati Sita. She was the one who instigated her brothers to wage a war against Bhagwan Shri Ram. 
SONS ::  He had seven sons from his three wives :-
(1). Megh Nad-Indr Jit, defeated Dev Raj Indr. 
(2). Atikay infuriated Bhagwan Shiv atop Mount Kailash, who in turn hurled his Trishul (divine trident) at Atikay, but Atikay caught the Trishul in mid air and folded his hands before Bhagwan Maha Dev in a humble manner. Maha Dev was pleased at seeing this and benevolently blessed Atikay with the secrets of archery and divine weapons.
(3). Akshay Kumar, the youngest son of Ravan, fought valiantly with Hanuman Ji, aiming various weapons at him. Though highly impressed by the young prince’s valour and skills, finally Hanuman Ji had to kill him.
(4). Devantak, killed by Hanuman Ji during the war.
(5). Narantak, was in charge of an army consisting of 720 million Rakshas (demons). He with his army was eventually killed by the monkey prince Angad, son of Bali.
(6). Trishira was killed by Bhagwan Shri Ram.
(7). Prahasth was the Chief Commander of Ravan’s army in Lanka.
Ravan had thousands of daughters born out of rape of various species like Yaksh, Humans, Demons, Giants etc. Vanars in the army of Bhawan Shri Ram showed their desire to marry them, once they were brought back to life by Bhagwan Shri Ram. Their desire was accomplished and they were settled around Berlin Germany and had their progeny with red face. A new island was carved out of the ocean in Europe to settle them.
TRAITS OF RAVAN :: 
(1). Ravan was a hybrid half-Brahman and half-demon. His father Vishrava, was a sage-Rishi belonging to the Pulasty clan and his mother Kaekasi belonged to demon clan. He is called a demon due to the powers he received from his mother.
Kuber, too was a hybrid-Yaksh treasurer of demigods wealth was born to the first wife of Vishrava.
Ravan along with his brothers Kumbh Karn and Vibhishan meditated, 
performed penance and got boons from Bhagwan Brahma. He snatched Kuber's wealth and drove him away from Amrawati, his kingdom. He sought Shri Lanka from Bhagwan Shiv as Dakshina-fee for performing Grah Pravesh Pooja. 
(2). While trying to dislodge Mount Kaelash the abode of Bhagwan Shiv, he was pressed by Bhagwan Shiv under the tip of his toe. Ravan let out blood-curling screams in agony and thus he got the name Ravan-one who screams. He pleased Maha Dev by composing instantaneously and reciting Ravan Tandav Strotr and turned one of his the greatest devotee.
(3). Ravan had killed King Anarany of the Ikshwaku dynasty to which Bhagwan Ram-incarnation of Bhagwan Shri Hari Vishnu belonged. While dying King Anarany had cursed Ravan saying that the son of King Dash Rath his descendent, will eventually kill him.
(4). Ravan had also tried to kill the monkey king Bali, who was performing Sun worship-his father, at the river front. Bali was blessed with the power to acquire half the powers of his enemy-opponent. Bali carried Ravan in his arms pit and flew to Kishkindha. Ravan begged for mercy and became Bali's friend. Bali was slayed by Bhagwan Shri Ram while hiding behind a Tad tree so that his powers were not transferred to Bali. Bali's younger brother Sugreev-son of Dev Raj Indr was made the king, who later helped Bhagwan Shri Ram  in tracing Maa Sita.
(5). Ravan accepted priesthood of Bhagwan Shri Ram for performing prayers of Bhagwan Maha Dev and blessed him with the victory over Shri Lanka.
(6). Ravan was not only a stupendous fighter, but also an expert of the Veds, an alchemist & renowned astrologer. When his son Megh Nand was to born from his wife Mandodari's womb, Ravan instructed all the planets and the Sun to be in their proper position for the auspicious Lagn-formation so that his son would become immortal.
But Saturn suddenly changed its position. Noticing this, a furious Ravan attacked Saturn, arrested him and imprisoned by hanging in a down wards posture. Later Hanuman Ji Maha Raj released him.
(7). Ravan was a great practitioner of statecraft-diplomacy, administration & politics. Bhagwan Shri Ram asked Lakshman Ji seek lessons in diplomacy from dying Ravan. Lakshman Ji accepted him as his Guru and learnt the treacherous lessons. 
(8). Ravan, after thousand years of penance, sought a boon of immortality from Brahma Ji, but the later politely declined saying that his life would be concentrated at his navel.
Ravan's youngest brother Vibhishan-a devotee of Bhagwan Shri Ram, knew this secret and on the tenth day of the battle, he told asked Bhagwan Shri Ram to strike his arrow at Ravan's navel, killing the demon king.  
(9). Ravan had acquired a boon from Brahma Ji by beseeching that no demigod, demon, Kinnar or Gandarbh could ever kill him.

He was granted this boon, little knowing that he did not seek the boon for protection from human beings. It was Ram, as a human, who ultimately slayed Ravan.  
(10). Ravan's empire spread over Bali Dweep-Island (today's Bali), Malay Dweep (Malaysia), Ang Dweep, Varah Dweep, Shankh Dweep, Yav Dweep, Andhralay and Kush Dweep.  
(11). Ravan not only usurped Kuber's kingdom of Amrawati-Tibet & China, but also his golden Pushpak Viman. Pushpak can take different shapes and can travel at the speed of mind.
(12). NAMES OF RAVAN :- Lankesh, Lankeshwar, Lanka Pati, Ravan (Rakshak-protector and Van-jungle)Das Greev (ten heads), Dash Kanth (ten voice box or throat; one with ten beautiful singing voices). Iravan (a boy with incomparable beauty or a man with strong principles). Dash Mukh (ten mouths), Dashanan (one with ten faces or heads).
कार्त्यवीर्य अर्जुन और रावण :: रावण का दिग्विजय अभियान चल रहा था। कई राज्यों को जीतते हुए रावण महिष्मति पहुँचा। उस समय वहाँ हैहय वंश के राजा कर्त्यवीर्य अर्जुन शासन कर रहा था तथा नित्य की भाँति अपनी रानियों के साथ जल विहार कर रहा था। घूमता-घुमाता रावण अपनी सेना सहित, उसी नदी के किनारे पहुँच गया और अपने आराध्य भगवान् शिव की आराधना हेतु उसने शिवलिंग की स्थापना की। कार्त्यवीर्य अर्जुन की रानियों ने कौतुक के लिए उससे कुछ असाधारण करने का अनुरोध किया। कार्त्यवीर्य अर्जुन को वरदान स्वरुप हजार भुजाएँ प्राप्त हुई थीं और इसी कारण वह सहस्त्रबाहु के नाम से भी विख्यात तथा अजेय था। अपनी पत्नियों के इस प्रकार अनुरोध करने पर उसने, अपनी हजार भुजाओं से नदी का प्रवाह पूरी तरह रोक दिया।
अचानक नदी की धारा रुक जाने से नदी का जलस्तर बढ़ गया और जिससे नदी के तट पर रावण द्वारा बनाया गया बालु का शिवलिंग बह गया। इससे क्रोध में आकर रावण ने अपनी सेना को अपराधी को बंदी बना कर लाने का आदेश दिया। जब उसकी सेना ने देखा कि कार्त्यवीर्य अर्जुन ने अपने हजार हाथों से जल का प्रवाह रोक रखा है तो उन्होंने उसे बंदी बनाने के लिए उस पर आक्रमण कर दिया। किन्तु कार्त्यवीर्य अर्जुन के पराक्रम के आगे किसी की ना चली। उससे पराजित हो, वे वापस रावण के पास लौटे और उससे सारी घटना कह सुनाई। अपने विजय के मद में चूर रावण नदी के तट पर पहुँचा और कार्त्यवीर्य अर्जुन को युद्ध की चुनौती दी। कार्त्यवीर्य अर्जुन ने कहा कि रावण उसका अतिथि है, इसलिए उसका उससे युद्ध करना उचित नहीं है। किन्तु रावण के हठ के आगे उसकी एक न चली।  अंततः दोनों वीर युद्ध के लिए सज्जित हुए।
दोनों महायोद्धा और अजेय थे। उनका युद्ध कई दिनों तक चलता रहा और ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनमें से कोई भी पराजित नहीं हो सकता। अंत में कार्त्यवीर्य अर्जुन ने रावण को अपने हजार हाथों में जकड़  लिया। रावण अपनी पूरी शक्ति के बाद भी उससे निकल नहीं पाया और कार्त्यवीर्य अर्जुन ने उसे बंदी बना लिया। बाद में जब रावण के दादा महर्षि पुलत्स्य को इसका पता चला तो उन्होंने बीच बचाव कर रावण को मुक्त करवाया और फिर रावण कार्त्यवीर्य अर्जुन से मित्रता कर वापस लंका को लौट गया।
अगस्त्य मुनि द्वारा रावण का चरित्र वर्णन :: जब भगवान् श्री राम अयोध्या में राज्य करने लगे, तब एक दिन समस्त ऋषि-मुनि श्री रघुनाथ जी का अभिनन्दन करने के लिये अयोध्या पुरी में पहुँचे। भगवान् श्री राम चन्द्र ने उन सबका यथोचित सत्कार किया। वार्तालाप करते हुये अगस्त्य मुनि कहने लगे, युद्ध में आपने जो रावण का संहार किया, वह कोई बड़ी बात नहीं है, परन्तु द्वन्द युद्ध में लक्ष्मण के द्वारा इन्द्रजित का वध सबसे अधिक आश्चर्य की बात है। यह मायावी राक्षस युद्ध में सब प्राणियों के लिये अवध्य था। उनकी बात सुनकर भगवान् श्री राम चन्द्र को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे बोले, मुनिवर रावण और कुम्भकर्ण भी तो महान पराक्रमी थे, फिर आप केवल इन्द्रजित मेघनाद की ही इतनी प्रशंसा क्यों करते हैं? महोदर, प्रहस्त, विरूपाक्ष भी कम वीर न थे।
अगस्त्य मुनि बोले, इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले मैं तुम्हें रावण के जन्म, वर प्राप्ति आदि का विवरण सुनाता हूँ। ब्रह्मा जी के पुलस्त्य नामक पुत्र हुये थे, जो उन्हीं के समान तेजस्वी और गुणवान थे। एक बार वे महगिरि पर तपस्या करने गये। वह स्थान अत्यन्त रमणीक था। इसलिये ऋषियों, नागों, राजर्षियों आदि की कन्याएँ वहाँ क्रीड़ा करने आ जाती थीं। इससे उनकी तपस्या में विघ्न पड़ता था। पुलस्त्य ने उन्हें वहाँ आने से मना किया। जब वे नहीं मानीं तो उन्होंने शाप दे दिया कि कल से जो लड़की यहाँ मुझे दिखाई देगी, वह गर्भवती हो जायेगी। शेष सब कन्याओं ने तो वहाँ आना बन्द कर दिया, परन्तु राजर्षि तृणबिन्दु की कन्या शाप की बात से अनजान होने के कारण उस आश्रम में आ गई और महर्षि के दृष्टि पड़ते ही गर्भवती हो गई। जब तृणबिन्दु को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने अपने कन्या को पत्नी के रूप में महर्षि को अर्पित कर दिया। इस प्रकार विश्रवा का जन्म हुआ जो अपने पिता के समान वेद्विद और धर्मात्मा हुआ। महामुनि भरद्वाज ने अपनी कन्या का विवाह विश्रवा से कर दिया। उनके वैश्रवण नामक पुत्र हुआ। वह भी धर्मात्मा और विद्वान था। उसने भारी तपस्या करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और यम, इन्द्र तथा वरुण के सदृश लोकपाल का पद पाया। फिर उसने त्रिकूट पर्वत पर बसी लंका को अपना निवास स्थान बनाया और राक्षसों पर राज्य करने लगा।
भगवान् श्री राम ने आश्चर्य से पूछा, तो क्या कुबेर और रावण से भी पहले लंका में माँस भक्षी राक्षस रहते थे? फिर उनका पूर्वज कौन था? यह सुनने के लिये मुझे कौतूहल हो रहा है? तब अगस्त्य जी बोले, पूर्व काल में ब्रह्मा जी ने अनेक जल जन्तु बनाये और उनसे समुद्र के जल की रक्षा करने के लिये कहा। तब उन जन्तुओं में से कुछ बोले कि हम इसका रक्षण (रक्षा) करेंगे और कुछ ने कहा कि हम इसका यक्षण (पूजा) करेंगे। इस पर ब्रह्माजी ने कहा कि जो रक्षण करेगा वह राक्षस कहलायेगा और जो यक्षण करेगा वह यक्ष कहलायेगा। इस प्रकार वे दो जातियों में बँट गये। राक्षसों में हेति और प्रहेति दो भाई थे। प्रहेति तपस्या करने चला गया, परन्तु हेति ने भया से विवाह किया जिससे उसके विद्युत्केश नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। विद्युत्केश के सुकेश नामक पराक्रमी पुत्र हुआ। सुकेश के माल्यवान, सुमाली और माली नामक तीन पुत्र हुये। तीनों ने ब्रह्मा जी की तपस्या करके यह वरदान प्राप्त कर लिये कि हम लोगों का प्रेम अटूट हो और हमें कोई पराजित न कर सके। वर पाकर वे निर्भय हो गये और सुरों, असुरों को सताने लगे। उन्होंने विश्वकर्मा से एक अत्यन्त सुन्दर नगर बनाने के लिये कहा। इस पर विश्वकर्मा ने उन्हें लंकापुरी का पता बताकर भेज दिया। वहाँ वे बड़े आनन्द के साथ रहने लगे। माल्यवान के वज्रमुष्टि, विरूपाक्ष, दुर्मुख, सुप्तघ्न, यज्ञकोप, मत्त और उन्मत्त नामक सात पुत्र हुये। सुमाली के प्रहस्त्र, अकम्पन, विकट, कालिका मुख, धूम्राक्ष, दण्ड, सुपार्श्व, संह्नादि, प्रधस एवं भारकर्ण नाम के दस पुत्र हुये। माली के अनल, अनिल, हर और सम्पाती नामक चार पुत्र हुये। ये सब बलवान और दुष्ट प्रकृति होने के कारण ऋषि-मुनियों को कष्ट दिया करते थे। उनके कष्टों से दुःखी होकर ऋषि-मुनि गण जब भगवान् श्री हरी विष्णु की शरण में गये तो उन्होंने आश्वासन दिया कि हे ऋषियों! मैं इन दुष्टों का अवश्य ही नाश करूँगा।
जब राक्षसों को भगवान् 
श्री हरी विष्णु के इस आश्वासन की सूचना मिली तो वे सब मन्त्रणा करके संगठित हो माली के सेनापतित्व में इन्द्रलोक पर आक्रमण करने के लिये चल पड़े। समाचार पाकर भगवान् श्री हरी विष्णु ने अपने अस्त्र-शस्त्र संभाले और राक्षसों का संहार करने लगे। सेनापति माली सहित बहुत से राक्षस मारे गये और शेष लंका की ओर भाग गये। जब भागते हुये राक्षसों का भी नारायण संहार करने लगे तो माल्यवान क्रुद्ध होकर युद्ध भूमि में लौट पड़ा। भगवान् श्री हरी विष्णु के हाथों अन्त में वह भी काल का ग्रास बना। शेष बचे हुये राक्षस सुमाली के नेतृत्व में लंका को त्यागकर पाताल में जा बसे और लंका पर कुबेर का राज्य स्थापित हुआ। 
अब मैं तुम्हें रावण के जन्म की कथा सुनाता हूँ। राक्षसों के विनाश से दुःखी होकर सुमाली ने अपनी पुत्री कैकसी से कहा कि पुत्री राक्षस वंश के कल्याण के लिये मैं चाहता हूँ कि तुम परम पराक्रमी महर्षि विश्रवा के पास जाकर उनसे पुत्र प्राप्त करो। वही पुत्र हम राक्षसों की देवताओं से रक्षा कर सकता है।
पिता की आज्ञा पाकर कैकसी विश्रवा के पास गई। उस समय भयंकर आँधी चल रही थी। आकाश में मेघ गरज रहे थे। कैकसी का अभिप्राय जानकर विश्रवा ने कहा कि भद्रे तुम इस कुबेला में आई हो। मैं तुम्हारी इच्छा तो पूरी कर दुँगा, परन्तु इससे तुम्हारी सन्तान दुष्ट स्वभाव वाली और क्रूरकर्मा होगी। मुनि की बात सुनकर कैकसी उनके चरणों में गिर पड़ी और बोली कि हे भगवन्! आप ब्रह्मवादी महात्मा हैं। आपसे मैं ऐसी दुराचारी सन्तान पाने की आशा नहीं करती। अतः आप मुझ पर कृपा करें। कैकसी के वचन सुनकर मुनि विश्रवा ने कहा कि अच्छा तो तुम्हारा सबसे छोटा पुत्र सदाचारी और धर्मात्मा होगा।
इस प्रकार कैकसी के दस मुख वाले पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम दशग्रीव रखा गया। उसके पश्चात् कुम्भकर्ण, शूर्पणखा और विभीषण के जन्म हुये। दशग्रीव और कुम्भकर्ण अत्यन्त दुष्ट थे, किन्तु विभीषण धर्मात्मा प्रकृति का था। अपने भाई वैश्रवण से भी अधिक पराक्रमी और शक्तिशाली बनने के लिये दशग्रीव ने अपने भाइयों सहित ब्रह्माजी की तपस्या की। ब्रह्मा के प्रसन्न होने पर दशग्रीव ने माँगा कि मैं गरुड़, नाग, यक्ष, दैत्य, दानव, राक्षस तथा देवताओं के लिये अवध्य हो जाऊँ। ब्रह्मा जी ने तथास्तु कहकर उसकी इच्छा पूरी कर दी। विभीषण ने धर्म में अविचल मति का और कुम्भकर्ण ने वर्षों तक सोते रहने का वरदान पाया।
फिर दशग्रीव ने लंका के राजा कुबेर को विवश किया कि वह लंका छोड़कर अपना राज्य उसे सौंप दे। अपने पिता विश्रवा के समझाने पर कुबेर ने लंका का परित्याग कर दिया और रावण अपनी सेना, भाइयों तथा सेवकों के साथ लंका में रहने लगा। लंका में जम जाने के बाद अपने बहन शूर्पणखा का विवाह कालका के पुत्र दानव राज विद्यु विह्वा के साथ कर दिया। उसने स्वयं दिति के पुत्र मय की कन्या मन्दोदरी से विवाह किया जो हेमा नामक अप्सरा के गर्भ से उत्पन्न हुई थी। विरोचन कुमार बलि की पुत्री वज्रज्वला से कुम्भकर्ण का और गन्धर्वराज महात्मा शैलूष की कन्या सरमा से विभीषण का विवाह हुआ। कुछ समय पश्चात् मन्दोदरी ने मेघनाद को जन्म दिया जो इन्द्र को परास्त कर संसार में इन्द्रजित के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
सत्ता के मद में रावण उच्छृंखल हो देवताओं, ऋषियों, यक्षों और गन्धर्वों को नाना प्रकार से कष्ट देने लगा। एक बार उसने कुबेर पर चढ़ाई करके उसे युद्ध में पराजित कर दिया और अपनी विजय की स्मृति के रूप में कुबेर के पुष्पक विमान पर अधिकार कर लिया। उस विमान का वेग मन के समान तीव्र था। वह अपने ऊपर बैठे हुये लोगों की इच्छानुसार छोटा या बड़ा रूप धारण कर सकता था। विमान में मणि और सोने की सीढ़ियाँ बनी हुई थीं और तपाये हुये सोने के आसन बने हुये थे। उस विमान पर बैठकर जब वह शरवण नाम से प्रसिद्ध सरकण्डों के विशाल वन से होकर जा रहा था तो भगवान् शिव के पार्षद नन्दीश्वर ने उसे रोकते हुये कहा कि दशग्रीव इस वन में स्थित पर्वत पर भगवान् शिव क्रीड़ा करते हैं, इसलिये यहाँ सभी सुर, असुर, यक्ष आदि का आना निषिद्ध कर दिया गया है। नन्दीश्वर के वचनों से क्रुद्ध होकर रावण विमान से उतरकर भगवान् शिव की ओर चला। उसे रोकने के लिये उससे थोड़ी दूर पर हाथ में शूल लिये नन्दी दूसरे शिव की भाँति खड़े हो गये। उनका मुख वानर जैसा था। उसे देखकर रावण ठहाका मारकर हँस पड़ा। इससे कुपित हो नन्दी बोले कि दशानन तुमने मेरे वानर रूप की अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारे कुल का नाश करने के लिये मेरे ही समान पराक्रमी रूप और तेज से सम्पन्न वानर उत्पन्न होंगे। रावण ने इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया और बोला कि जिस पर्वत ने मेरे विमान की यात्रा में बाधा डाली है, आज मैं उसी को उखाड़ फेंकूँगा। यह कहकर उसने पर्वत के निचले भाग में हाथ डालकर उसे उठाने का प्रयत्न किया। जब पर्वत हिलने लगा तो भगवान् शिव ने उस पर्वत को अपने पैर के अँगूठे से दबा दिया। इससे रावण का हाथ बुरी तरह से दब गया और वह पीड़ा से चिल्लाने लगा। जब वह किसी प्रकार से हाथ न निकाल सका तो रोत-रोते भगवान् शिव की स्तुति और क्षमा प्रार्थना करने लगा। इस पर भगवान् शिव ने उसे क्षमा कर दिया और उसके प्रार्थना करने पर उसे एक चन्द्रहास नामक खड्ग भी दी।
एक दिन हिमालय प्रदेश में भ्रमण करते हुये रावण ने अमित तेजस्वी ब्रह्मर्षि कुशध्वज की कन्या वेदवती को तपस्या करते देखा। उस देखकर वह मुग्ध हो गया और उसके पास आकर उसका परिचय तथा अविवाहित रहने का कारण पूछा। वेदवती ने अपने परिचय देने के पश्चात् बताया कि मेरे पिता भगवान् 
श्री हरी विष्णु से मेरे विवाह करना चाहते थे। इससे क्रुद्ध होकर मेरी कामना करने वाले दैत्यराज शम्भु ने सोते में उनका वध कर दिया। उनके मरने पर मेरी माता भी दुःखी होकर चिता में प्रविष्ट हो गई। तब से मैं अपने पिता के इच्छा पूरी करने के लिये भगवान् श्री हरी विष्णु की तपस्या कर रही हूँ। उन्हीं को मैंने अपना पति मान लिया है।
पहले रावण ने वेदवती को बातों में फुसलाना चाहा, फिर उसने जबरदस्ती करने के लिये उसके केश पकड़ लिये। वेदवती ने एक ही झटके में पकड़े हुये केश काट डाले। फिर यह कहती हुई अग्नि में प्रविष्ट हो गई कि दुष्ट तूने मेरा अपमान किया है। इस समय तो मैं यह शरीर त्याग रही हूँ, परन्तु तेरा विनाश करने के लिये फिर जन्म लूँगी। अगले जन्म में मैं अयोनिजा कन्या के रूप में जन्म लेकर किसी धर्मात्मा की पुत्री बनूँगी। अगले जन्म में वह कन्या कमल के रूप में उत्पन्न हुई। उस सुन्दर कान्ति वाली कमल कन्या को एक दिन रावण अपने महलों में ले गया। उसे देखकर ज्योतिषियों ने कहा कि राजन् यदि यह कमल कन्या आपके घर में रही तो आपके और आपके कुल के विनाश का कारण बनेगी। यह सुनकर रावण ने उसे समुद्र में फेंक दिया। वहाँ से वह भूमि को प्राप्त होकर राजा जनक के यज्ञमण्डप के मध्यवर्ती भूभाग में जा पहुँची। वहाँ राजा द्वारा हल से जोती जाने वाली भूमि से वह कन्या फिर प्राप्त हुई। वही वेदवती सीता के रूप में आपकी पत्नी बनी और आप स्वयं सनातन भगवान् श्री हरी विष्णु हैं। इस प्रकार आपके महान शत्रु रावण को वेदवती ने पहले ही अपने शाप से मार डाला था। आप तो उसे मारने में केवल निमित्तमात्र थे।
वेदवती और माता सीता, दोनों ही माता लक्ष्मी की अंश-स्वरूप और रावण की पुत्री के रूप में थी। बुरी निगाह डालते ही रावण की धन-सम्पत्ति, राज्य, कुल नाश तय हो गया। 
इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य का श्राप :: अनेक राजा महाराजाओं को पराजित करता हुआ दशग्रीव इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य के पास पहुँचा जो अयोध्या पर राज्य करते थे। उसने उन्हें भी द्वन्द युद्ध करने अथवा पराजय स्वीकार करने के लिये ललकारा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ किन्तु ब्रह्मा जी के वरदान के कारण रावण उनसे पराजित न हो सका। जब अनरण्य का शरीर बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो गया तो रावण इक्ष्वाकु वंश का अपमान और उपहास करने लगा। इससे कुपित होकर अनरण्य ने उसे शाप दिया कि तूने अपने व्यंग पूर्ण शब्दों से इक्ष्वाकु वंश का अपमान किया है, इसलिये मैं तुझे शाप देता हूँ कि महात्मा इक्ष्वाकु के इसी वंश में दशरथ नन्दन भगवान् श्री राम का जन्म होगा जो तेरा वध करेंगे। यह कहकर राजा स्वर्ग सिधार गये।
बाली द्वारा रावण को काँख में दबाना :: रावण की उद्दण्डता में कमी नहीं आई। राक्षस या मनुष्य जिसको भी वह शक्तिशाली पाता, उसी के साथ जाकर युद्ध करने करने लगता। एक बार उसने सुना कि किष्किन्धापुरी का राजा बालि बड़ा बलवान और पराक्रमी है तो वह उसके पास युद्ध करने के लिये जा पहुँचा। बालि की पत्नी तारा, तारा के पिता सुषेण, युवराज अंगद और उसके भाई सुग्रीव ने उसे समझाया कि इस समय बालि नगर से बाहर सन्ध्योपासना के लिये गये हुये हैं। वे ही आपसे युद्ध कर सकते हैं और कोई वानर इतना पराक्रमी नहीं है जो आपके साथ युद्ध कर सके। इसलिये आप थोड़ी देर उनकी प्रतीक्षा करें। फिर सुग्रीव ने कहा कि राक्षस राज सामने जो शंख जैसे हड्डियों के ढेर लगे हैं वे बालि के साथ युद्ध की इच्छा से आये आप जैसे वीरों के ही हैं। बालि ने इन सबका अन्त किया है। यदि आप अमृत पीकर आये होंगे तो भी जिस क्षण बालि से टक्कर लेंगे, वह क्षण आपके जीवन का अन्तिम क्षण होगा। यदि आपको मरने की बहुत जल्दी हो तो आप दक्षिण सागर के तट पर चले जाइये। वहीं आपको बालि के दर्शन हो जायेंगे। सुग्रीव के वचन सुनकर रावण विमान पर सवार हो तत्काल दक्षिण सागर में उस स्थान पर जा पहुँचा जहाँ बालि सन्ध्या कर रहा था। उसने सोचा कि मैं चुपचाप बालि पर आक्रमण कर दूँगा। बालि ने रावण को आते देख लिया परन्तु वह तनिक भी विचलित नहीं हुआ और वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करता रहा। ज्योंही उसे पकड़ने के लिये रावण ने पीछे से हाथ बढ़ाया, सतर्क बालि ने उसे पकड़कर अपनी काँख में दबा लिया और आकाश में उड़ चला। रावण बार-बार बालि को अपने नखों से कचोटता रहा किन्तु बालि ने उसकी कोई चिन्ता नहीं की। तब उसे छुड़ाने के लिये रावण के मन्त्री और अनुचर उसके पीछे शोर मचाते हुये दौड़े परन्तु वे बालि के पास तक न पहुँच सके। इस प्रकार बालि रावण को लेकर पश्चिमी सागर के तट पर पहुँचा। वहाँ उसने सन्ध्योपासना पूरी की। फिर वह दशानन को लिये हुये, किष्किन्धापुरी लौटा। अपने उपवन में एक आसन पर बैठकर उसने रावण को अपनी काँख से निकालकर पूछा कि अब कहिये आप कौन हैं और किसलिये आये हैं?
रावण ने उत्तर दिया कि मैं लंका का राजा रावण हूँ। आपके साथ युद्ध करने के लिये आया था। वह युद्ध मुझे मिल गया। मैंने आपका अद्भुत बल देख लिया। अब मैं अग्नि की साक्षी देकर आपसे मित्रता करना चाहता हूँ। फिर दोनों ने अग्नि की साक्षी देकर एक दूसरे से मित्रता स्थापित की।
रावण का जन्म स्थान गौतम बुद्ध नगर जिले के बिसरख नाम के गाँव में है। उसके पिता विश्रवा के नाम पर ही गाँव का नाम बिसरख पड़ा कि विश्रवा  अपभ्रंश है। यहाँ पर एक शिवलिंग है, जिसकी रावण और उसके पिता विश्रवा पूजा किया करते थे। अष्टकोण आकार में यह स्वयंभू शिवलिंग लगभग 100 साल पहले ही धरती से प्रकट हुआ है।
यहाँ दशहरा नहीं मनाया जाता है। दशहरे के दिन यहाँ रावण की मृत्यु का मातम मनाया जाता है। रावण को समर्पित एक मदिर यहाँ बनाया जा रहा है।
रावण के पिता का नाम विश्रवा था कि ऋषि पुलस्त्य के पुत्र थे। विश्र्वा का अर्थ है वेद ध्वनि सुनने वाला। उनकी दो पत्नियाँ थीं। एक का नाम देववर्णिनी था और एक का नाम कैकसी था जो कि एक राक्षसी थी। कैकसी को केशिनी और निकषा के नाम से भी जानी जाती है। वह विश्रवा मुनि की दूसरी पत्नी थीं। कैकसी ने रावण जैसा पुत्र प्राप्त करने के लिए ही विश्रवा मुनि से विवाह किया था, ताकि वो देवताओं को हरा कर राक्षस वंश को बढ़ा सके।
रावण के दादा ब्रह्मा के पुत्र महर्षि पुलस्त्य थे और दादी का नाम हविर्भुवा था। रावण के नाना का नाम सुमाली और नानी का नाम केतुमती था। रावण के भाई कुम्भकर्ण, विभीषण, अहिरावण, खर और दूषण थे। रावण का एक सौतेला भाई कुबेर भी था। जो रावण की सौतेली माँ देववर्णिनी के पुत्र थे। उसकी दो बहनें भी थी जिनका नाम शूर्पणखा और कुम्भिनी था। रावण की पत्नी मंदोदरी असुरों के राजा मायासुर और उसकी पत्नी अप्सरा हेमा की पुत्री थी। मंदोदरी के इलावा उसकी एक पत्नी ध्न्यमालिनी भी थी। रावण के त्रिशिरा, इन्द्रजीत और अक्षयकुमार पुत्र हुए हैं। मेघनाद ही इन्द्रजीत था। उसका ये नाम इंद्र को युद्ध में जीत लेने के कारण पड़ा। अतिकाय उसकी दूसरी पत्नी ध्न्यमालिनी का पुत्र था।
Please refer to :: (1). Video link :: https://youtu.be/l5yk5-AlYRY, (2). https://youtu.be/_Lu8VBMrxmo (3). https://youtu.be/e4Uutg2-2PI
रावण की उम्र और गोत्र :: त्रेतायुग 3,600 दिव्य वर्षों का था। एक दिव्य वर्ष 360 मानव वर्षो के बराबर होता है। 
इस हिसाब से त्रेतायुग का कुल काल हमारे समय के हिसाब से 3,600 × 360 = 12,96,000 (बारह लाख छियानवे हजार) मानव वर्षों का था। 
रावण त्रेतायुग के अंतिम चरण के मध्य में पैदा हुआ था और भगवान् श्री राम अंतिम चरण के अंत में। 
त्रेता युग में कुल तीन चरण थे। 
रामायण में ये वर्णन है कि रावण ने अपने भाइयों (कुम्भकर्ण एवं विभीषण) के साथ 11,000 वर्षों तक ब्रह्माजी की तपस्या की थी। 
इसके पश्चात रावण और कुबेर का संघर्ष भी बहुत काल तक चला। 
इसके अतिरिक्त रावण के शासनकाल के विषय में कहा गया है कि रावण ने कुल 72 चौकड़ी तक लंका पर शासन किया। 
एक चौकड़ी में कुल 400 वर्ष होते हैं। 
इस हिसाब से रावण ने कुल 72 × 400 = 28,800 वर्षों तक लंका पर शासन किया।
जब रावण महादेव से उलझा और महादेव ने उसके हाथ कैलाश के नीचे दबा दिए तब रावण 1,000 वर्षों तक उनसे क्षमा याचना (उनकी तपस्या) करता रहा और उसी समय उसने शिव स्त्रोत्र तांडव की रचना की। हालाँकि ऐसा उसके लंका शासनकाल में ही हुआ, इसीलिए इसे मैं अलग से नहीं जोड़ सकते।
रावण के शासनकाल और तपस्या के वर्ष मिला दें तो हुए कुल 11,000 + 28,800 = 39,800 वर्ष। 
अतः रावण की आयु कम से कम 40,000 वर्ष तो थी ही (उससे भी थोड़ी अधिक हो सकती है), अर्थात वो करीब 112 दिव्य वर्षों तक जीवित रहा।
भगवान् श्री राम और माता सीता के विषय में बाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि देवी सीता भगवान् श्री राम से 7 वर्ष 1 माह छोटी थीं। 
भगवान् श्री राम विवाह के समय 25 वर्षों के थे, तो इस हिसाब से माता सीता की आयु उस समय 18 वर्षों की थी। 
विवाह के पश्चात 12 वर्षों तक वे दोनों अयोध्या में रहे, उसके बाद उन्हें वनवास प्राप्त हुआ। 
इस हिसाब से वनवास के समय भगवान् श्री राम की आयु 37 वर्ष और माता सीता की आयु 30 वर्ष की थी। 
तत्पश्चात 14 वर्षों तक वे वन में रहे और वनवास के अंतिम मास में भगवान् श्री राम ने रावण का वध किया, अर्थात 51 वर्ष की आयु में भगवान् श्री राम ने 40,000 वर्ष के रावण का वध किया। 
तत्पश्चात भगवान् श्री राम ने 11,000 वर्षों तक अयोध्या पर राज्य किया। 
उस समय-वक्त उनकी आयु भी तकरीबन 11,100 वर्ष (30 दिव्य वर्ष) के आस-पास थी।
रावण का गोत्र उनके पितामह का गोत्र ही था, अर्थात पुलत्स्य गोत्र।
इस गणना के हिसाब से रावण के अतिरिक्त कुम्भकर्ण, मेघनाद, मंदोदरी इत्यादि की आयु भी बहुत होगी। 
विभीषण तो चिरंजीवी हैं तो आज भी जीवित हैं। जाम्बवन्त जी तो सतयुग के व्यक्ति थे, जो द्वापर के अंत तक जीवित रहे, तो उनकी आयु का केवल अनुमान ही लगा सकते हैं। 
महावीर हनुमान जी महाराज रावण से आयु में छोटे और भगवान् श्री राम से आयु में बहुत बड़े थे। 
वे भी चिरंजीवी हैं तो आज भी जीवित होंगे। परशुराम जी रावण से आयु में थोड़े छोटे और हनुमान जी से बड़े हैं और वे भी चिरंजीवी हैं। 
कार्त्यवीर्य अर्जुन आयु में रावण से भी बड़े थे किंतु भगवान् परशुराम जी ने अपनी युवावस्था में ही उनका वध कर दिया था।
पुराणों में चारों युगों के मनुष्यों की औसत आयु और कद का वर्णन है और ये सभी मनुष्यों के लिए है, ना कि केवल रावण और भगवान् श्री राम जैसे विशिष्ट लोगों के लिए। 
हालाँकि रावण जैसे तपस्वी और भगवान् श्री राम जैसे अवतारी पुरुष की आयु वर्णित आयु से अधिक होने का विवरण है।
जैसे-जैसे युग अपने अंतिम चरम में पहुँचता है, वैसे-वैसे ही मनुष्यों की आयु और ऊँचाई घटती जाती है अर्थात सतयुग के अंतिम चरण में जन्में लोगों की आयु और ऊँचाई सतयुग के ही प्रथम चरण में जन्में लोगों से कम होगी। 
सतयुग :- आयु - 1,00,000 वर्ष, ऊँचाई - 21 हाथ,
त्रेतायुग :- आयु - 10,000 वर्ष, ऊँचाई - 14 हाथ,
द्वापरयुग :- आयु - 1,000 वर्ष, ऊँचाई - 7 हाथ,
कलियुग :- आयु - 100 वर्ष, ऊँचाई - 4 हाथ।
रेवती के पिता कुकुद्भि, जो सतयुग से थे, ब्रह्मा जी के आदेश पर अपनी पुत्री का विवाह बलराम जी से करवाने द्वापर आये।[महाभारत] 
उन्होंने रेवती का विवाह बलराम जी से कर दिया, किन्तु सतयुग की होने के कारण देवी रेवती बलराम जी से 3–4 गुणा अधिक ऊँची थीं। 
तब बलराम जी ने अपने हल के दवाब से देवी रेवती की ऊँचाई अपने जितनी कर ली।
तीन श्राप जो कि जय-विजय, शिव गण और प्रतापभानु से सम्बन्धित हैं, रावण के जन्म का कारण बने। इन सभी के अंश के रूप में रावण पैदा हुआ।  प्रतापभानु का राजसी गुण, शिव गणों का तामसी गुण और जय-विजय का भक्ति का गुण, इन तीनों व्यक्तियों के गुणों की प्रधानता लिये रावण ने जन्म लिया। बाल्यकाल में ही रावण ने चारों वेद पर अपनी कुशाग्र बुद्धी से  पकड़ बना ली, उसे ज्योतिषि का इतना अच्छा ज्ञान था कि उसकी रावण संहिता आज भी ज्योतिषी में श्रेष्ठ मानी जाती है। युवावस्था में ही रावण तपस्या करने निकल गया, उसे पता था कि ब्रह्मा जी उसके परदादा हैं, इसलिये उसने पहले उनकी घोर तपस्या की और कई वर्षों की तपस्या से प्रसन्न हो के ब्रह्मा जी ने उसे वरदान माँग़ने को कहा। 
रावण ने अजर-अमर होने का वरदान माँगा। ब्रह्मा जी ने कहा मैं अजर-अमर होने का वरदान नहीं दे सकता, तुम ज्ञानी हो इसलिये समझने का प्रयास करो। मैं तुम्हें वो नहीं दे सकता हूँ, लेकिन बदले मैं अन्य शक्तियाँ  प्रदान करता हूँ। रावण तपस्या से शक्ति प्राप्त करके आया माता-पिता से मिला वे बहुत प्रसन्न हुए। 
सहस्त्रबाहु अर्जुन और रावण :: रावण को बहुत घमण्ड हो गया। एक दिन, दो चार साथियों को लेके रावण अपनी युवावस्था में सहस्त्रबाहु अर्जुन के राज्य की सीमा में गया, वहाँ नर्मदा नदी के किनारे उसने देखा नदी की चौड़ाई बहुत होने के बाद भी उसमें जल बहुत कम था। रावण ने अपने साथियों से कहा ये नदी का जल इतना कम कैसे है, पहले तो इसमें बहुत जल भरा हुआ करता था। तब साथियों ने आगे बढ़कर देखा तो एक बाँध नजर आया; जिसमें नदी का समस्त जल रोका गया था और बाँध को बाणों से बनाया था। तब रावण के साथियों ने उसको बताया कि किसी ने अपनी अद्भुत धनुर्विद्या के प्रयोग द्वारा बाणों से बाँधकर जल को रोका है। वो सब आगे बढ़े तो उन्हें कुछ शस्त्र धारी सुरक्षा में लगे सैनिक दिखे रावण ने पूछा कौन हो और ये बाँध किसने बनाया है!? उन लोगों ने कहा हमारे महाराज सहस्त्रबाहु अर्जुन ने वो इस समय अपनी पत्नियों के साथ विहार करने आये हैं। रावण ने कहा अच्छा तो अब मेरा कौशल देखो और एक ही बाण से उसने बाँध तोड़ दिया। सहस्त्र बाहु की पत्नियाँ जो कि स्नान करने के लिए गई थी पानी में बह गईं। काफी प्रयास करने के बाद उन्हें निकाला गया। रावण के द्वारा बाँ तोड़ने की सूचना सहस्त्रबाहु को मिली तो उसका रावण के युद्ध हो गया जिसमें रावण हार गया उसको बंदी बना लिया और  कारागार में डाल दिया।  उसके साथी भाग गये और रावण के दादा पुलस्त्य ऋषि को बताया गया तब उन्होंने सहस्त्रबाहु अर्जुन के पास संदेश भेजा कि रावण युवक है और युवावस्था में गलती की सम्भावना हो जाती है; इसलिये उसे छोड़ दो। अर्जुन ने उसे छोड़ दिया और चेतावनी दी कि दुबारा इस तरह की गलती न हो, नहीं तो सर धड़ पर नहीं दिखाई देगा। 
रावण को बहुत ग्लानि महसुस हुई और उसने वर्षो तक पुन: ब्रह्मा जी की घोर तपस्या की। ब्रह्म देव के पृकट होने पर उसने फिर से अमर होने का वरदान माँगा। लेकिन इस बार भी उसे अमर होने का वरदान नहीं मिला। लेकिन और ज्यादा मायावी शक्तियाँ  प्राप्त हुईं। 
बाली और रावण :: मायावी शक्तियाँ पा कर एक बार घूमते हुए वानरों के क्षेत्र में प्रवेश किया। शाम का समय था वानरों का राजा बालि उस वक्त एक वृक्ष के नीचे संध्या जप कर रहा था। रावण उसे देख कर हँसा और फिर उसे छेड़ने लगा। ऐ मर्कट! ऐ वानर बोल! उसका उपहास करने लगा और युद्ध करने के लिये उकसाने लगा। रावण को अपनी मायावी शक्ति पर घमण्ड था। वो अहङ्कारी बालि से बोला,अरे मर्कट! मैंने सुना है तू बहुत शक्तिशाली है, आ जरा मुझसे युद्ध कर के देख। तेरा अभिमान मैं कैसे ढीला करता हूँ। लेकिन बालि ध्यान में था इसलिये उसने इसकी बात को सुना ही नहीं। इसके बाद रावण ने उसको जोर से लात मारी और बोला, हे पाखंडी! मेरे ललकारने के बाद मेरे डर से ध्यान में बैठा है, सीधे-सीधे बोल कि मैं लड़ नहीं सकता। 
नाराज होकर बाली ने उसे अपनी बगल-काँख में दबा लिया और बहुत अनुनय-विनय करने पर ही छोड़ा। उसने बाली से मित्रता कर ली। 
अब रावण को पता चला कि उससे भी बलशाली लोग हैं, मुझे ही पितामह की वजह से अभिमान ज्यादा था। इसके बाद वो फिर से घोर तपस्या करने निकल पड़ा और फिर से उसने अमर होने का वरदान माँगा। ब्रह्मा जी ने कहा पुत्र मेरे अधिकार में वो वरदान नहीं है और इस बार उसने ब्रह्मा जी से प्रचंड शक्तियाँ और ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया। एक दिन देवताओं से किसी बात पर नाराज हो गया और उसने स्वर्ग में अकेले ही चढ़ाई कर दी और घोर युद्ध में उसने अकेले ही सभी देवताओं को परास्त कर डाला। इंद्र, यम, वरूण अन्य सभी दिकपाल और प्रजापतियों को बंधक बना लिया। अन्य सभी देवता स्वर्ग से भाग निकले, उसने स्वर्ग लोक पर अधिकार कर लिया और बाद में उसे देवताओं को लौटा दिया, लेकिन देवताओं का मान भंग हो गया वो चुप हो गये। दानवों को पता चला कि उनके भांजे रावण ने अकेले ही स्वर्ग में सभी देवताओं को परास्त कर दिया और  वह तीनों लोकों में अविजयी हो गया है। इससे दानव बहुत खुश हो गये उनकी वर्षों की मनोकामना पूर्ण हो गयी और दानवों ने रावण की जय जयकार की और रावण को अपना राजा बनने की प्रार्थना की। रावण के तेज और उसके भव्य स्वरूप और नेतृत्व से प्रसन्न होकर मय दानव ने अपनी अत्यंत सुंदर और मर्यादा का पालन करने वाली पुत्री मंदोदरी का विवाह रावण के साथ किया और रावण पत्नी रूप में मंदोदरी को पाकर प्रसन्न हुआ। पतिव्रता नारियों में मंदोदरी का स्थान देवी अहिल्या के समकक्ष है। रावण राजा के रूप में राक्षसों द्वारा प्रतिष्ठित हो गया तो फिर उसने अपने लिये राजधानी का निर्माण करने की सोची, वो फिर से स्वर्ग गया शायद राजधानी बनाने के लिये ये ठीक रहे, सभी देवता इंद्र, यम, वरुण उसे देख भाग लिये, वो बहुत प्रसन्न हुआ; मगर स्वर्ग उसे रास नहीं आया। 
रावण और कुबेर :: वापसी में लौटते वक्त उसे समुद्र में त्रिकूट पर्वत पर सुंदर नगर नजर आया। वो सीधे उधर गया वहाँ उसने देखा उसका ही सौतेला भाई कुबेर यक्षों के साथ रहता है। उसने कुबेर को उस नगर को यक्षों सहित खाली करने को कहा। कुबेर अपने पिताजी के पास गया और कहा पिताजी रावण जबरन लंका खाली करने को कह रहा है, तब उन्होंने कहा पुत्र रावण इस वक्त मानने वालों में नहीं है, अत: तुम उसे वो स्थान दे दो। तुम उत्तर दिशा में सुरक्षित स्थान में चले जाओ, वहाँ तुम्हें कोई तंग नही करेगा। अपने पिता के आदेशानुसार कुबेर ने हिमालय क्षेत्र में अल्कापुरी नाम से नगर का निर्माण मानसरोवर झील के पास कर लिया।
माता पार्वती की इच्छानुसार भगवान् शिव ने लँका निर्माण करवाया। त्रिकूट पर्वत पर बनी लंका बहुत सुन्दर थी। उसका निर्माण देवशिल्पी विश्वकर्मा किया था। जब पुरोहित रावण से गृहप्रवेश की पूजा हेतु दक्षिणा माँगने को कहा गया, तो उसने लँका को ही दक्षिणा स्वरूप माँग लिया।  
कुबेर की धन दौलत के लेकर लंका चला गया। 
उसके ससुर मय नामक दानव ने जो मायावी विद्याओं में अत्यंत निपुण थे, उसने लंका को तीनों लोकों में सबसे सुंदर नगर बना दिया, सोने की पन्नी से और हीरे जवाहारात, मणिया से लंका के सभी दिवारें, खंम्भे आदि को मढ़ दिया। रावण ने सभी राक्षसों को लंका में रहने का निर्देश दिया और सभी को एक से एक सुंदर घर और महल दिये, फिर एक दिन कुबेर से पुष्पक विमान भी छीन लिया। राज्य स्थापना और सुंदर राजधानी बसा कर सभी असुरों को अच्छी तरह से सब सुख सुविधाएँ उपलब्ध करा कर और उन्हें पूर्ण रूप से सुरक्षित कर रावण फिर से ब्रह्मदेव की तपस्या में लग गया, उसे देख बाद में उसके भाई कुम्भकर्ण और विभीषण भी उसके साथ तपस्या करने लगे। 
ब्रह्मा जी फिर रावण के पास आये तो रावण ने कहा, "पितामह मुझे अमरता का वरदान चाहिये। ब्रह्मदेव ने कहा वो मेरे लिये देना सम्भव ही नहीं है। लेकिन रावण नहीं माना। ब्रह्मा जी चले गये। रावण पुन: तप में लगा रहा और वर्षों बाद घोर तपस्या से ब्रह्मा जी फिर रावण के पास आये, उसको समझाया कि अजर-अमरता वाला वरदान मत माँगो तुम ज्ञानी हो, संसार के नियम को फेरने की शक्ति मुझ में नहीं, मैं मर्यादा में ही काम कर सकने की शक्ति रखता हूँ, पुत्र! तुम मेरी तपस्या बार-बार भंग कर रहे हो और इससे मुझे व्यवधान हो रहा है। इसलिये जितना हो सकता है, मैं ऊतना तुम्हें आज दे देता हूँ। तुम्हारी नाभि में, मैं एक अमृत कुंड प्रदान करता हूँ और जब तक यह अमृत कुंड तुम्हारी नाभी में रहेगा तब तक तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी। अगर तुम इस पर भी संतुष्ट नहीं हो और अजर-अमर होना चाहते हो, तो बेहतर है तुम महादेव की शरण में जाओ। महादेव की शक्ति मैं नहीं जानता, वो अमर होने का वरदान देंगे या नहीं, किंतु मेरे वश में तो नहीं है। रावण ने फिर ब्रह्मा जी से पूछा कि पितामह यह अमृत कुंड नाभि में कब तक रहेगा? तब ब्रह्मा जी ने कहा अग्नि बाण के अतिरिक्त इस अमृत कुंड को कोई नहीं सुखा सकता है तो रावण ने सोचा लगभग अमर होने जैसी बात है, क्योंकि अग्नि बाण का प्रयोग भगवान् श्री हरी विष्णु के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं कर सकता है। इसलिये उसने ब्रह्मा जी से कहा पितामह अब आप अजर-अमर होने का वरदान तो नहीं दे रहे हैं; इसलिये मैं इसे ही स्वीकार कर लेता हूँ। पर आपको और भी कुछ देना होगा। ब्रह्मा जी ने कहा तुम अमर होने के अतिरिक्त अन्य जो माँगो मैं देने को तैयार हूँ।  तब रावण ने वरदान ऐसे माँगा कि उसको देव, दनुज, नाग, यक्ष, किन्नर, गंधर्व कोई भी युद्द में न मार सके। ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह दिया। इसी समय ब्रह्मा जी की दृष्टी एक अप्सरा पर पड़ी जो पास में जो छुपके से अपना कान लगा के सुन रही थी कि ब्रह्मदेव रावण को क्या वरदान दे रहे हैं। ब्रह्मा जी समझ गये कि वो कौन है और उसे किसने भेजा है। वो अप्सरा घबराते हुए ब्रह्मा जी को प्रणाम करने लगी। उसका इस तरह छुप कर देखना ब्रह्मा जी को अच्छा नहीं लगा, उन्होंने सिर्फ उस अप्सरा को इतना ही कहा "जब तुमने छुप के सुन ही लिया है तो इतना और भी सुन लो कि, जिस दिन किसी वानर का जोरदार मुक्का तुम्हारे इसी कान पर पड़ेगा, उस दिन समझ लेना रावण और राक्षसों का अंत आ गया"।ब्रह्मा जी चले गये और अप्सरा चुपके से भागने वाली थी कि रावण ने उसे पकड़ लिया और बोला, तुम कौन हो और यहाँ क्या कर रही हो? उसने बताया कि ब्रह्मदेव क्या कह रहे है, वो देखने आई थी। रावण समझ गया कि देवताओं की चाल है। इसलिये उसने उस अप्सरा को कहा, "तुम्हें बहुत ज्यादा कान लगा के सुनने की आदत है, इसलिये अब मेरे साथ चल। अब लंका के द्वार पर, वहाँ कोई घुसे तब कान लगा के सुनना और रखवाली करना और उसे लंकिनी नाम से मुख्य द्वार पर रखवाली के लिये रख दिया। रावण अब तपस्या जनित अपनी शक्ति की लगभग चरम सीमा पर पहुँच गया था। इसलिये अभिमान भी स्वाभाविक था। सभी राक्षस उसकी छत्र-छाया में सुरक्षित थे। उनमें से कई राक्षस वो पहले देवताओं के भय से तपस्या नहीं कर पा रहे थे, वो तपस्या करने लगे शक्ति प्राप्त करने के लिये और अन्य सभी राक्षस लंका में आनंद और एश्वर्य का भोग करने लगे।
महाराज बाहुबली और भगौड़ा रावण :: एक दिन रावण अपने अभिमान और ऐश्वर्य के बल पर अकेले ही त्रिलोक में विजय के लिये निकला और सुतल लोक में पहुँच गया। वहाँ सुतल लोक में राजा बलि राजमहल में थे। रावण बड़े अभिमान और गरजना के साथ उनके द्वार पर गया और द्वार पाल को बोला, “बलि को बोलो रावण युद्ध के लिये आया है"। द्वारपाल के भेष में कोई और नहीं वल्कि स्वयं नारायण थे। उन्होंने बलि को वरदान दिया था, कि उसके द्वार पर पहरा वो देंगे। रावण ने जब द्वारपाल को जबरन धमकाकर बोला, तो द्वारपाल ने कहा, “हे लंकापति रावण, महाराज बलि इस वक्त पूजा -पाठ में व्यस्त हैं और पूजा की समाप्ति के बाद वो तुमसे अवश्य लड़ेंगे-युद्ध करेंगे। चिंता मत करो धैर्य रखो, वो भगवान् के भक्त हैं, इसलिये पहले वो उस काम को ही पूरा करेंगे। उसके बाद वो अपना ये सामने रखा कवच पहनने को यहाँ आयेंगे। तब तुम्हारा संदेश उन्हें, हम यहीं तुम्हारे सामने ही दे देंगे। रावण अभिमान में चूर था और बोला, “अच्छा इस कवच को पहनेगा। वो मैं इसे अभी तोड़ देता हूँ"।  रावण आगे बढ़ा और उस कवच को उठाने की कोशिश करने लगा, लेकिन वो इतना भारी था कि रावण को उठाने में पसीना आ गया। द्वारपाल ने कटाक्ष किया, "लंकापति रावण, महाराज बलि का कवच तक उठाने में आपके माथे पर पसीना निकल आया है, मुझे संदेह हो रहा है कि तुम महाराज बाहुबली से कैसे लड़ पाओगे; कोई बात नहीं कुछ ही समय की बात है और आप धैर्य रखें। रावण मन में डर गया और बाद आता हूँ, कहकर भाग निकला, वापस नहीं आया।
रावण ने सभी देवताओं, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि को युद्द में परास्त करके राक्षसों को अभय कर दिया और मानवों को वो पहले से ही सोचता था कि वो क्या लड़ेंगे।बेचारे सीधे-साधे लोग हैं। इसलिये पृथ्वी के अन्य भू-भागों पर उसके राक्षस अपनी चला ही रहे थे। यद्यपि शक्तिशाली राज्यों, जिनमें अयोध्या, मिथिला, कौशल जैसे अन्य राजा थे, वो बहुत उच्च कोटी के प्रतापी और सक्षम राज्य थे और कभी सीमा विस्तार के लिये युद्ध नहीं करते थे, ये राजा सन्मार्गी और नारायण भक्त थे, उनकी प्रजा भी सुखी संपन्न और उच्च कोटि की थी। महाराजा दशरथ तो इतने पराक्रमी थे कि देवराज इंद्र ने तक उनसे युद्ध में सहायता माँगी थी। राजा जनक इतने श्रेष्ठ राजा थे कि उन्हें प्रजा हित के कार्यो और संत सेवा में अपनी देह की सुध तक नहीं होती थी और इसलिये उनका नाम विदेह भी पड़ गया था। एक से बढकर एक ऋषी, महर्षी, मुनि जिनमें परशुराम, विश्वामित्र, बामदेव जैसे लोग इन राजाओं के दरबार में आते थे और इसी वजह से इनके राज्य को टेढ़ी निगाह से देखने का साहस तीनों लोकों में स्वत: ही कोई नहीं कर सका।
भोलेनाथ से वरदान :: रावण ने ब्रह्मा जी से नाभी कुँड में अमृत पाया, इससे उसकी मृत्यु भगवान् नारायण के अतिरिक्त किसी और से नहीं हो सकती है, इस बात का उसको ज्ञान था, मन में ग्लानि थी कि अगर-अमर हो जाता तो कितना अच्छा रहता, क्योंकि उसका लक्ष वही था और उसके लिये वो प्रयत्नशील था। लेकिन सिर्फ अमर रहने से कोई बात नहीं बनती। बल, कौशल और शस्त्र भी चाहिये उसके लिये उसने तपस्या से बहुत कुछ पाया भी। उस वक्त रावण जैसे कई अन्य तपस्वी भी थे, महाराज बाहुबली, वानर प्रदेश का राजा बालि, बाणासुर आदि-आदि। रावण ने ब्रह्मा जी से वरदान पाने के बाद सोचा अब वो अमरता का वरदान पाने के लिये महादेव को ही प्रसन्न कर के रहेगा और वरदान ले के ही रहेगा। रावण ने भोले नाथ की तपस्या आरम्भ कर दी, वर्षों तक तपस्या की। भोले नाथ प्रकट नहीं हुये, रावण ने सोचा भोलेनाथ जल्दी प्रसन्न होने वाले महादेव हैं और मुझसे ही लगता है अप्रसन्न हैं। ये सोच कर उसने और कठोर तपस्या करना शुरु कर दिया, कभी निराहार रह कर तो कभी भोलेनाथ की सुदंर स्त्रोतों से वीणा वादन कर, लेकिन प्रभु पृकट नहीं हुए। रावण ने सोचा उसका जीवन ही बेकार है; अगर वो महादेव को प्रसन्न न कर सका, महादेव जो अपने भक्तों पर शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं, उनको मैं प्रसन्न न कर सका, ये सोच कर आत्मग्लानि से भर गया। एक दिन वो पूजा में जब पुष्प चढाने लगा तो पुष्प कम पड़ गये। तब उसने पूजा को पूर्ण करने के लिये उसने एक-एक कर अपना मस्तक काट कर पुष्प की जगह चढ़ाने शुरु कर दिये। एक सर काटता था और दूसरा उग आता था अमृत कलश के प्रभाव से। ये सोच के कि जो अपने जीवन में महादेव को प्रसन्न नहीं कर सका तो उस जीने वाले को धिक्कार है। आज पुष्प की जगह महादेव को मेरे शीश अर्पण हैं। दर्द से रावण बेसुध सा हो गया, लेकिन मुँह से हर-हर महादेव कहना नहीं छोड़ा और महादेव प्रकट हो ही गये। उसका हाथ पकड़  लिया, "बोले रावण मुझे बहुत प्रसन्नता हुई, तुमने मेरे लिये अपने प्राण संकट में डाल दिये, माँगो क्या चाहिये"।  रावण दर्द को सहता हुआ महादेव के चरणों में प्रणाम करता हुआ, अति विनम्र होके बोला, “हे देवाधिदेव महादेव मुझे आपके दर्शन हो गये, आप मुझ से प्रसन्न हैं, मुझे अब और कुछ नहीं चाहिये, मैं माँगने की ईच्छा से ही तप कर रहा था, लेकिन आप के इस सुंदर स्वरूप को देखकर ही मैं धन्य हो गया, आप प्रसन्न हो गये मुझे इस बात से पूर्ण संतोष है"। प्रभु! "मुझे और कुछ नहीं चाहिये, आपने मुझे दर्शन दे दिये, मेरे लिये इससे बड़ा वरदान कुछ नहीं, अत: मुझे कुछ नहीं चाहिये"। महादेव ने कहा रावण मैं तो तुम्हारे संकल्प से ही वरदान देने के लिए आया हूँ। अत: ऐसे तो जा ही नहीं सकता हूँ। अत: तुम नि:संकोच होके माँगो। तुम्हें जो चाहिये तुम माँग लो। रावण ने कहा “हे महादेव! हे देवाधिदेव! हे भक्तवत्सल! यदि आप देना ही चाहते हैं, तो मुझे आपकी अटूट भक्ति दे दीजिये और मैं हमेशा आपके “नम: शिवाय” रुपी मंत्र का जप करता रहूँ। इसके अतिरिक्त मुझे कुछ भी नहीं चाहिये। महादेव उसकी बात सुन अत्यंत प्रसन्न हुये। जिसका लक्ष अमरत्व प्राप्त करना था वो प्रभु भक्ति माँग रहा है, इससे बड़ा ज्ञानी और कौन हो सकता है? तब महादेव ने उसे अपनी भक्ति प्रदान की। महादेव जानते थे कि रावण को बालि और अन्य लोगों से युद्ध में हार जाने की ग्लानि मन में है कि वो उतना शक्तिशाली नहीं है। इसलिये महादेव ने भक्ति के अतिरिक्त उसे बहुत अपार बल दे दिया और साथ में पाशुपत नामक अस्त्र दिया। महादेव से बल पाकर जब वह जैसे ही अपने स्थान से ऊठा और वापस चलने के लिये कदम आगे रखा तो पृथ्वी डगमगा गई और रावण बहुत आनंदित हो गया और पुन: महादेव को मन में प्रणाम कर वो लौट के लंका में आ गया। महादेव का रावण प्रिय भक्त बन गया, लंका से प्रतिदिन पुष्पक विमान से कैलाश जाता था और वहाँ भगवान् महादेव की पूजा और अराधना करता था। रावण ने तीनों लोकों को अपनी गति से चलाने वाले नौ ग्रहों को जब अपने अधीन कर लिया और दिगपालों से उसने अपने लंका के मार्गों में जल छिड़काव के काम में लगा दिया। तब उसे एक तरह से त्रिलोक विजेता माना गया, क्योंकि त्रिलोक का संचालन करने वाले सभी देवता, नौ ग्रह उसके अधीन थे और अब उसे भी पराजित करने वाला त्रिलोक में कोई नहीं था। उसने तीनों लोकों में रहने वाले अधिकांश भागों को अपने अधीन कर लिया था। 
वह भूल गया कि महाराज दशरथ को तिनके से शेर को मारते देखकर वो डरकर भाग आया था। उसे यह भी याद नहीं रहा कि महाराज दशरथ ने ही उसके नाना सहित अन्य राक्षसों के छक्के छुड़ा दिए थे।
मेघनाद की पत्नी सती सुलोचना :: सुलोचना मेघनाद का कटा सर लेने  भगवान् श्री राम सेना-दल में जा पहुँची। 
रावण के महापराक्रमी पुत्र इन्द्रजीत (मेघनाद) का वध करने की प्रतिज्ञा लेकर लक्ष्मण जी जिस समय युद्ध भूमि में जाने के लिये प्रस्तुत हुए, तब भगवान् श्री राम ने उनसे कहा, हे लक्ष्मण!, रण में जाकर तुम अपनी वीरता और रण कौशल से रावण-पुत्र मेघनाद का वध कर दोगे, इसमें मुझे कोई संदह नहीं है। परंतु एक बात का विशेष ध्यान रखना कि मेघनाद का मस्तक भूमि पर किसी भी प्रकार न गिरे। क्योंकि मेघनाद एक नारी-व्रत का पालक है और उसकी पत्नी परम पतिव्रता है। ऐसी साध्वी के पति का मस्तक अगर पृथ्वी पर गिर पड़ा, तो हमारी सारी सेना का ध्वंस हो जाएगा और हमें युद्ध में विजय की आशा त्याग देनी पड़ेगी। लक्ष्मण जी अपनी सेना लेकर चल पड़े। समर भूमि में उन्होंने वैसा ही किया। युद्ध में अपने बाणों से उन्होंने मेघनाद का मस्तक उतार लिया, पर उसे पृथ्वी पर नहीं गिरने दिया। हनुमान उस मस्तक को रघुनंदन के पास ले आये।
कटी भुजा द्वारा सुलोचना को प्रमाण :- मेघनाद की दाहिनी भुजा आकाश में उड़ती हुई उसकी  पत्नी सुलोचना के पास जाकर गिरी। सुलोचना चकित हो गयी। (सुलोचना वासुकी नाग की पुत्री और लंका के राजा रावण के पुत्र मेघनाद की पत्नी थी।) दूसरे ही क्षण अन्यंत दु:ख से कातर होकर विलाप करने लगी। पर उसने भुजा को स्पर्श नहीं किया। उसने सोचा, सम्भव है यह भुजा किसी अन्य व्यकित की हो। ऐसी दशा में पर-पुरुष के स्पर्श का दोष मुझे लगेगा। निर्णय करने के लिये उसने भुजा से कहा, "यदि तू मेरे स्वामी की भुजा है, तो मेरे पतिव्रत की शक्ति से युद्ध का  सारा वृतान्त लिख दे। भुजा में दासी ने लेखनी पकड़ा दी। लेखिनी ने लिख दिया, "प्राणप्रिये, यह भुजा मेरी ही है। युद्ध भूमि में श्रीराम के भाई लक्ष्मण से मेरा युद्ध हुआ। लक्ष्मण ने कई वर्षों से पत्नी, अन्न और निद्रा छोड़ रखी है। वे तेजस्वी तथा समस्त दैवी गुणों से सम्पन्न है। संग्राम में उनके आगे मेरी एक नहीं चली। अन्त में उन्हीं के बाणों से विद्ध होने से मेरा प्राणान्त हो गया। मेरा शीश श्री राम के पास है।
सुलोचना की रावण से प्रार्थना :- पति की भुजा-लिखित पंक्तियाँ पढ़ते ही सुलोचना व्याकुल हो गयी। पुत्र-वधु के विलाप को सुनकर लंकापति रावण ने आकर कहा, पुत्री! शोक न कर। प्रात: होते ही सहस्त्रों मस्तक मेरे बाणों से कट-कट कर पृथ्वी पर लोट जाऐंगे। मैं रक्त की नदियाँ बहा दुँगा। करुण चीत्कार करती हुई सुलोचना बोली, "पर इससे मेरा क्या लाभ होगा, पिताजी! सहस्त्रों नहीं करोड़ों शीश भी मेरे स्वामी के शीश के अभाव की पूर्ती नहीं कर सकेंगे। सुलोचना ने निश्चय किया कि मुझे अब सती हो जाना चाहिए। किंतु पति का शव तो राम-दल में पड़ा हुआ था। फिर वह कैसे सती होती? जब अपने ससुर रावण से उसने अपना अभिप्राय कहकर अपने पति का शव मँगवाने के लिए कहा, तब रावण ने उत्तर दिया, "देवी ! तुम स्वयं ही राम-दल में जाकर अपने पति का शव प्राप्त करो"।
जिस समाज में बाल ब्रह्मचारी हनुमान जी, परम जितेन्द्रिय लक्ष्मण जी तथा एक पत्नी व्रती भगवान् श्री राम विद्यमान हैं, उस समाज में तुम्हें जाने से डरना नहीं चाहिए। मुझे विश्वास है कि इन स्तुत्य महापुरुषों के द्वारा तुम निराश नहीं लौटायी जाओगी। पति के शीश की प्राप्ति सुलोचना के आने का समाचार सुनते ही भगवान् श्री राम खड़े हो गये और स्वयं चलकर सुलोचना के पास आये और बोले, "देवी, तुम्हारे पति विश्व के अन्यतम योद्धा और पराक्रमी थे। उनमें बहुत से सदगुण थे; किंतु विधि की लिखी को कौन बदल सकता है?! आज तुम्हें इस तरह देखकर मेरे मन में पीड़ा हो रही है। सुलोचना की भगवान् श्री राम स्तुति करने लगी। भगवान् श्री राम ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा, "देवी, मुझे लज्जित न करो। पतिव्रता की महिमा अपार है, उसकी शक्ति की तुलना नहीं है। मैं जानता हूँ कि तुम परम सती हो। तुम्हारे सतित्व से तो विश्व भी थर्राता है। अपने स्वयं यहाँ आने का कारण बताओ, बताओ कि मैं तुम्हारी किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ"? सुलोचना ने अश्रु पूरित नयनों से प्रभु की ओर देखा और बोली, "राघवेन्द्र! मैं सती होने के लिये अपने पति का मस्तक लेने के लिये यहाँ पर आई हूँ। भगवान् श्री राम ने शीघ्र ही ससम्मान मेघनाद का शीश मँगवाया और सुलोचना को दे दिया।
पति का छिन्न शीश देखते ही सुलोचना का हृदय अत्यधिक द्रवित हो गया। उसकी आँखें बड़े जोरों से बरसने लगीं। रोते-रोते उसने पास खड़े लक्ष्मण जी की ओर देखा और कहा, "सुमित्रानन्दन! तुम भूलकर भी गर्व मत करना कि मेघनाथ का वध मैंने किया है। मेघनाद को धराशायी करने की शक्ति विश्व में किसी के पास नहीं थी। यह तो दो पतिव्रता नारियों का भाग्य था। आपकी पत्नी भी पतिव्रता हैं और मैं भी पति चरणों में अनुरक्ती रखने वाली उनकी अनन्य उपसिका हूँ। पर मेरे पति देव पतिव्रता नारी का अपहरण करने वाले पिता का अन्न खाते थे और उन्हीं के लिये युद्ध में उतरे थे, इसी से मेरे जीवन धन परलोक सिधारे।
सुग्रीव की जिज्ञासा :- सभी योद्धा सुलोचना को राम शिविर में देखकर चकित थे। वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि सुलोचना को यह कैसे पता चला कि उसके पति का शीश भगवान् श्री राम के पास है। जिज्ञासा शान्त करने के लिये सुग्रीव ने पूछ ही लिया कि यह बात उन्हें कैसे ज्ञात हुई कि मेघनाद का शीश भगवान् श्री राम के शिविर में है। सुलोचना ने स्पष्टता से बता दिया, "मेरे पति की भुजा युद्ध भूमि से उड़ती हुई मेरे पास चली गयी थी। उसी ने लिखकर मुझे बता दिया"। व्यंग्य भरे शब्दों में सुग्रीव बोल उठे, "निष्प्राण भुजा यदि लिख सकती है फिर तो यह कटा हुआ सिर भी हंस सकता है"।
भगवान् श्री राम कहा, "व्यर्थ बातें मत करो मित्र। पतिव्रता के महाम्तय को तुम नहीं जानते। यदि वह चाहे तो यह कटा हुआ सिर भी हँस सकता है"। महान पतिव्रता स्त्री भगवान् श्री राम की मुखाकृति देखकर सुलोचना उनके भावों को समझ गयी। उसने कहा, "यदि मैं मन, वचन और कर्म से पति को देवता मानती हूँ, तो मेरे पति का यह निर्जीव मस्तक हँस पड़े।  सुलोचना की बात पूरी भी नहीं हुई ही थी कि कटा हुआ मस्तक जोरों से हँसने लगा। यह देखकर सभी दंग रह गये। सभी ने पतिव्रता सुलोचना को प्रणाम किया। सभी पतिव्रता की महिमा से परिचित हो गये थे। चलते समय सुलोचना ने भगवान् श्री राम से प्रार्थना की, "भगवन, आज मेरे पति की अन्त्येष्टि क्रिया है और मैं उनकी सहचरी उनसे मिलने जा रही हूँ। अत: आज युद्ध बंद रहे। भगवान् श्री राम ने सुलोचना की प्रार्थना स्वीकार कर ली। सुलोचना पति का सिर लेकर वापस लंका आ गईं। लंका में समुद्र के तट पर एक चंदन की चिता तैयार की गयी। पति का शीश गोद में लेकर सुलोचना चिता पर बैठी और धधकती हुई अग्नि में कुछ ही क्षणों में सती हो गई।
माता सती का रावण को श्राप :: एक बार नारद जी फिर से लंका आये, रावण ने उनकी बहुत अच्छी सेवा की, नारद जी ने रावण को कहा, “सुना है महादेव से बल पाए हो"। रावण ने कहा, "हाँ आपकी बात सही है"। नारद जी ने कहा कितना बल पाए!? रावण ने कहा यह तो नहीं पता परंतु अगर मैं चाहूँ तो पृथ्वी को हिला-डुला सकता हूँ। नारद जी ने कहा तब तो आपको उस बल की परीक्षा भी लेनी चाहिये, क्योंकि व्यक्ति को अपने बल का पता तो होना ही चाहिये। रावण को नारद जी की बात ठीक लगी और सोच के बोला महर्षि! "अगर मैं महादेव को कैलाश पर्वत सहित ऊठा के लंका में ही ले आता हूँ, ये कैसा रहेगा"? इससे ही मुझे पता चला जायेगा कि मेरे अंदर कितना बल है। नारद जी ने कहा विचार बुरा नहीं है और उसके बाद चले गये। एक दिन रावण भक्ति और शक्ति के बल पर कैलाश समेत महादेव को लंका में ले जाने का प्रयास किया। जैसे ही उसने कैलाश पर्वत को अपने हाथों में ऊठाया तो माता सती फिसलने लगी, वो जोर से बोलीं ठहरो-ठहरो! इसके उन्होंने महादेव से पूछा कि भगवन्  ये कैलाश क्यों हिल रहा है? महादेव ने बताया रावण हमें लंका ले जाने की कोशिश-प्रयास में है। रावण ने जब महादेव समेत कैलाश पर्वत को अपने हाथों में ऊठाया तो उसे बहुत अभिमान भी आ गया कि अगर वो महादेव सहित कैलाश पर्वत को ऊठा सकता है तो अब उसके लिये कोई अन्य असम्भव भी नहीं और रावण जैसे ही एक कदम आगे रखा तो उसका सन्तुलन बिगड़ गया।  इसके बाद भी वो अपनी कोशिश में लगा रहा। माता सती एक बार फिर फिसल गईं और उन्हें क्रोध आ गया। उन्होंने रावण को श्राप दे दिया, “अरे अभिमानी रावण! तू आज से राक्षसों में गिना जाएगा, क्योंकि तेरी प्रकृति राक्षसों की जैसी हो गई है और तू अभिमानी हो गया है"।  रावण ने माता के शब्दों पर फिर भी ध्यान नहीं दिया। तब भोलेनाथ ने अपना भार बढ़ाना शुरु किया और उस भार से रावण ने कैलाश पर्वत को धीरे से उसी जगह पर रखना शुरु किया और भार से उसका एक हाथ दब गया और वो दर्द से चिल्लाया उसके चिल्लाने की आवाज स्वर्ग तक सुनाई दी और वो कुछ देर तक मूर्छित हो गया। उसे होश आया तो उसने भोलेनाथ की स्तुती की।  
"जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्..." 
भोलेनाथ ने स्तुति से प्रसन्न होके उससे कहा कि रावण यद्यपि मैं नृत्य तभी करता हूँ, जब क्रोध में होता हूँ, इसलिये क्रोध में किये नृत्य को तांडव नृत्य नाम से संसार जानता है। किंतु आज तुमने अपनी इस सुंदर स्रोत से और सुंदर गायन से मेरा मन प्रसन्नता पूर्वक नृत्य करने को हो गया। रावण द्वारा रचित और गाया हुआ यह स्रोत शिव तांडव स्रोत कहलाया, क्योंकि भगवान् शिव का नृत्य तांडव कहलाता है। परन्तु वह क्रोध में होता है, लेकिन इस स्रोत में भगवान् शिव प्रसन्नता पूर्वक नृत्य करते हैं।
Please refer to :: SHIV TANDAV  शिव ताण्डव santoshsuvichar.blogspot.com
इसके उपरांत भगवान् शिव ने रावण को प्रसन्न हो कर चंद्रहास नामक तलवार दी, जिसके हाथ में रहने पर उसे तीन लोक में कोई युद्द में नहीं हरा सकता था। माता सती के श्राप के बाद से ही रावण की गिनती राक्षसों में होने लगी और राक्षसों की संगति तो थी ही, इसलिये राक्षसी संगति में अभिमान, गलत कार्य और भी बढ़ते चले गये। श्राप के पहले वो ब्राह्मण था और सात्विक तपस्या करता था। ब्रह्मदेव और महादेव की पूजा का जल लाने का कार्य भी देवताओं को दिया था। लेकिन बाद में वो सात्विक से तामसी प्रवर्त्ति का हो गया। अभिमान-अहंकार और असुरों की संगति इन दो कारणों से रावण पतन को प्राप्त हुआ। रावण से ज्यादा रावण के नाम का फायदा ऊठाया दूसरे राक्षसों ने, उसके नाम पर कर वसूली, सिद्द, संतों मुनि जनों का अपमान होने लगा। राक्षसों ने देवताओं से अपना वैर निकालने के लिये, वो कभी गायों को (पृथ्वी समझ कर कि ब्रह्मा जी के पास गयी थी, इसका भेद पूछने के लिये) और ब्राह्मणों इसलिये कि, स्वर्ग में बहुत कम देवता ही रह गये हैं, शायद ये रूप बदल कर देवता ही ब्राह्मण हैं और संत बन के देवताओं की मदद कर रहे हैं, राक्षस जहाँ-तहाँ सभी को त्रास देने और मारने लगे। 
दानवों को पता चला कि उनका भांजा रावण अकेले ही स्वर्ग में सभी देवताओं को परास्त कर दिया तीनों लोकों में इस बात का पता चला और इस बात से दानव बहुत खुश हो गये उनकी वर्षो की मनोकामना पूर्ण हो गयी और दानवों ने रावण की जय-जयकार की और रावण को अपना राजा बनने कि प्रार्थना की। रावण के तेज और उसके भव्य स्वरूप और नेतृत्व से मय दानव ने प्रसन्न हो के अपनी अत्यंत सुंदर और मर्यादा का पालन करने वाली पुत्री मंदोदरी का विवाह रावण के साथ किया और रावण पत्नी रूप में मंदोदरी को पा कर प्रसन्न हुआ। पतिव्रता नारियों में मंदोदरी का स्थान देवी अहिल्या के समकक्ष है।
    
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)