Friday, January 7, 2022

धुन्धुकारी को प्रेत योनि से मुक्ति की कथा :: श्रीमद्भागवत माहात्म्य

धुन्धुकारी को प्रेत योनि से मुक्ति की कथा
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥
[श्रीमद् भगवद्गीता 2.47]
श्रीमद्भागवत माहात्म्य ::
सूत जी कहते हैं :- मुनिवर उस समय अपने भक्तों के चित्त में अलौकिक भक्ति का प्रादुर्भाव देखकर भक्तवत्सल श्री भगवान् अपना धाम छोड़कर वहाँ पधारे। उनके गले में वनमाला शोभा पा रही थी। श्रीअङ्ग जलधर के समान श्याम वर्ण था। उस पर  मनोहर पीताम्बर सुशोभित था।   
कटि प्रदेश करधनी की लड़ियों से सुसज्जित था, सिर पर मुकुट की लटक और कानों में कुण्डलों की झलक देखते ही बनती थी। वे त्रिभङ्ग ललित भाव से खड़े हुए चित्त को चुराये लेते थे। वक्षः स्थल पर कौस्तुभ मणि दमक रही थी, सारा श्रीअङ्ग हरिचन्दन से चर्चित था। उस रूप की शोभा क्या कहें, उसने तो मानो करोड़ों काम देवों की रूप माधुरी छीन ली थी। वे परमानन्द चिन्मूर्ति मधुराति मधुर-मुरलीधर ऐसी अनुपम छवि से अपने भक्तों के निर्मल चित्तों में आविर्भूत हुए। भगवान्‌ के नित्य लोक निवासी लीला परिकर उद्धवादि वहाँ गुप्त रूप से उस कथा को सुनने के लिये आये हुए थे। प्रभु के प्रकट होते ही चारों ओर "जय हो! जय हो"!! की ध्वनि होने लगी। उस समय उस समय भक्ति रस का अद्भुत प्रवाह चला, बार-बार अबीर-गुलाल और पुष्पों की वर्षा तथा शंख ध्वनि होने लगी। उस सभा में जो लोग बैठे थे, उन्हें अपने देड, गेह और आत्मा की भी कोई सुधि न रही।[श्रीमद्भागवत 0.4.1-7]
उनकी ऐसी तन्मयता देखकर नारद जी कहने लगे :- 
मुनीश्वर गण! आज सप्ताह श्रवण की मैंने यह बड़ी ही अलौकिक महिमा देखी। यहाँ तो जो बड़े मूर्ख, दुष्ट और पशु-पक्षी भी हैं, वे सभी अत्यन्त निष्पाप हो गये हैं। अतः इसमें संदेह नहीं कि कलिकाल में चित्त की शुद्धि के लिये इस भागवत कथा के समान मर्त्यलोक में पाप-पुञ्ज का नाश करने वाला कोई दूसरा पवित्र साधन नहीं है। मुनिवर! आप लोग बड़े कृपालु हैं, आपने संसार के कल्याण का विचार करके यह बिलकुल निराला ही मार्ग निकाला है। आप कृपया यह तो बताइये कि इस कथा रूप सप्ताह यज्ञ के द्वारा संसार में कौन-कौन लोग पवित्र हो जाते हैं!?[श्रीमद्भागवत 0.4.8-10]
सनकादि ने कहा :- जो लोग सदा तरह-तरह के पाप किया करते हैं, निरन्तर दुराचार में ही तत्पर रहते हैं और उलटे मार्गों से चलते हैं तथा जो क्रोधाग्नि से जलते रहने वाले, कुटिल और काम परायण हैं, वे सभी इस कलियुग में सप्ताह यज्ञ से पवित्र हो जाते हैं।
जो सत्य से च्युत, माता-पिता की निन्दा करने वाले, तृष्णा के मारे व्याकुल, आश्रम धर्म से रहित, दम्भी, दूसरों की उन्नति देखकर कुढ़ने वाले और दूसरों को दुःख देने वाले हैं, वे भी कलियुग में सप्ताह यज्ञ से पवित्र हो जाते हैं। जो मदिरापान, ब्रह्महत्या, सुवर्ण की चोरी, गुरुस्त्री गमन और विश्वासघात, ये पाँच महापाप करने वाले, छल-छद्म परायण, क्रूर, पिशाचों के समान निर्दयी, ब्राह्मणों के धन से पुष्ट होने वाले और व्यभिचारी हैं, वे भी कलियुग में सप्ताह यज्ञ से पवित्र हो जाते हैं। जो दुष्ट आग्रह पूर्वक सर्वदा मन, वाणी या शरीर से पाप करते रहते हैं, दूसरे के धन से ही पुष्ट होते हैं तथा मलिन मन और दुर हृदय वाले हैं, वे भी कलियुग में सप्ताह यज्ञ से पवित्र इतिहास सुनाते हैं, उसके सुनने से ही सब पाप नष्ट जाते हैं।
पूर्वकाल में तुङ्गभद्रा नदी के तटपर एक अनुपम नगर बसा हुआ था। वहाँ सभी वर्णों के लोग अपने-अपने धर्मों का आचरण करते हुए सत्य और सत्कमों में तत्पर रहते थे। उस नगर में समस्त वेदों का विशेषज्ञ और श्रौत-स्मार्त कर्मो में निपुण एक आत्मदेव नामक ब्राह्मण रहता था, वह साक्षात् दूसरे सूर्य के समान तेजस्वी था। वह धनी होने पर भी भिक्षाजीवी था। उसकी प्यारी पत्नी धुन्धुली कुलीन एवं सुन्दरी होने पर भी सदा अपनी बात पर अड़ जाने वाली थी। उसे लोगों की बात करने में सुख मिलता था। स्वभाव था क्रूर। प्रायः कुछ-न-कुछ बकवाद करती रहती थी। गृहकार्य में निपुण थी, कृपण थी और थी झगड़ालू भी। इस प्रकार ब्राह्मण-दम्पति प्रेम से अपने घर में रहते और विहार करते थे। उनके पास अर्थ और भोग-विलास की सामग्री बहुत थी। घर-द्वार भी सुन्दर थे, परन्तु उससे उन्हें सुख नहीं था। जब अवस्था बहुत ढल गयी, तब उन्होंने सन्तान के लिये तरह-तरह के पुण्यकर्म आरम्भ किये और वे दीन-दुखियों को गौ, पृथ्वी, सुवर्ण और वस्त्रादि दान करने लगे।  इस प्रकार धर्म मार्ग में उन्होंने अपना आधा धन समाप्त कर दिया, तो भी उन्हें पुत्र या पुत्री किसी का भी मुख देखने को न मिला। इसलिये अब वह ब्राह्मण बहुत चिन्तातुर रहने लगा।[श्रीमद्भागवत 0.4.11-22]
एक दिन वह ब्राह्मण देवता बहुत दुखी होकर घर से निकल कर वन को चल दिया। दोपहर के समय उसे प्यास लगी, इसलिये वह एक तालाब पर आया। सन्तान के अभाव के दुःख ने उसके शरीर को बहुत सुखा दिया था, इसलिये थक जाने के कारण जल पीकर वह वहीं बैठ गया। दो घड़ी बीतने पर वहाँ एक संन्यासी महात्मा आये। जब ब्राह्मण देवता ने देखा कि वे जल पी चुके हैं, तब वह उनके पास गया और चरणों में नमस्कार करने के बाद सामने खड़े होकर लंबी-लंबी साँसें लेने लगा।
संन्यासी ने पूछा :- कहो, ब्राह्मण देवता! रोते क्यों हो? ऐसी तुम्हें क्या भारी चिन्ता है? तुम जल्दी ही मुझे अपने दुःख का कारण बताओ।
ब्राह्मण ने कहा :- महाराज! मैं अपने पूर्व जन्म के पापों से संचित दुःख का क्या वर्णन करूँ? अब मेरे पितर मेरे द्वारा दी गई जलाञ्जली को अपनी चिन्ता जनित साँस से कुछ गरम करके पीते हैं। देवता और ब्राह्मण मेरा दिया हुआ प्रसन्न मन से स्वीकार नहीं करते। सन्तान के लिये मैं इतना दुखी हो गया हूँ कि मुझे सब सूना ही सूना दिखायी देता है। मैं प्राण त्यागने के लिये यहाँ आया हूँ। सन्तान हीन जीवन को धिक्कार है, सन्तानहीन गृह को धिक्कार है! सन्तान हीन धन को धिक्कार है और सन्तान हीन कुल को धिक्कार है!! मैं जिस गायको पालता हूँ, वह भी सर्वथा बाँझ हो जाती है; जो पेड़ लगाता हूँ, उस पर भी फल-फूल नहीं लगते। मेरे घर में जो फल आता है, वह भी बहुत जल्दी सड़ जाता है। जब मैं ऐसा अभागा और पुत्रहीन हूँ, तब फिर इस जीवन को ही रखकर मुझे क्या करना है। यों कहकर वह ब्राह्मण दुःख से व्याकुल हो उन संन्यासी महात्मा के पास फूट-फूट कर रोने लगा। तब उन यतिवर के हृदय में बड़ी करुणा उत्पन्न हुई। वे योगनिष्ठ थे; उन्होंने उसके ललाट की रेखाएँ देखकर सारा वृत्तान्त जान लिया और फिर उसे विस्तार पूर्वक कहने लगे।33 
संन्यासी ने कहा :- ब्राह्मण देवता! इस प्रजा प्राप्ति का मोह त्याग दो। कर्म की गति प्रबल है, विवेक का आश्रय लेकर संसार की वासना छोड़ दो। विप्रवर! सुनो; मैंने इस समय तुम्हारा प्रारब्ध देखकर निश्चय किया है कि सात जन्म तक तुम्हारे कोई सन्तान किसी प्रकार नहीं हो सकती। पूर्व काल में राजा सगर एवं अङ्ग को सन्तान के कारण दुःख भोगना पड़ा था। ब्राह्मण! अब तुम कुटुम्ब की आशा छोड़ दो। संन्यास में ही सब प्रकार का सुख है।
ब्राह्मण ने कहा :- महात्मा जी! विवेक से मेरा क्या होगा। मुझे तो बलपूर्वक पुत्र दीजिये; नहीं तो मैं आपके सामने ही शोक मूर्च्छित होकर अपने प्राण त्यागता हूँ। जिसमें पुत्र-स्त्री आदि का सुख नहीं है, ऐसा संन्यास तो सर्वथा नीरस ही है। लोक में सरस तो पुत्र-पौत्रादि से भरा-पूरा गृहस्थाश्रम ही है।
ब्राह्मण का ऐसा आग्रह देखकर उन तपोधन ने कहा, "विधाता के लेख को मिटाने का हठ करने से राजा चित्रकेतु को बड़ा कष्ट उठाना पड़ा था। इसलिये दैव जिसके उद्योग को कुचल देता है, उस पुरुष के समान तुम्हें भी पुत्र से सुख नहीं मिल सकेगा। तुमने तो बड़ा हठ पकड़ रखा है और अर्थी के रूप में तुम मेरे सामने उपस्थित हो; ऐसी दशा में मैं तुमसे क्या कहूँ"।
जब महात्माजी ने देखा कि यह किसी प्रकार अपना आग्रह नहीं छोड़ता, तब उन्होंने उसे एक फल देकर कहा, "इसे तुम अपनी पत्नी को खिला देना, इससे उसके एक पुत्र होगा। तुम्हारी स्त्री को एक साल तक सत्य, शौच, दया, दान और एक समय एक ही अन्न खाने का नियम रखना चाहिये। यदि वह ऐसा करेगी तो बालक बहुत शुद्ध स्वभाववाला होगा"।
यों कहकर वे योगिराज चले गये और ब्राह्मण अपने घर लौट आया। वहाँ आकर उसने वह फल अपनी स्त्री के हाथ में दे दिया और स्वयं कहीं चला गया। उसकी स्त्री कुटिल स्वभाव की थी ही, वह रो-रो कर अपनी एक सखी से कहने लगी, "सखी! मुझे तो बड़ी चिन्ता हो गयी, मैं तो यह फल नहीं खाऊँगी"। फल खाने से गर्भ रहेगा और गर्भ से पेट बढ़ जायगा। फिर कुछ खाया-पीया जायेगा नहीं, इससे मेरी शक्ति क्षीण हो जायगी; तब बता, घर का धंधा कैसे होगा"।[श्रीमद्भागवत 0.4.23-45]
और दैववश यदि कहीं गाँव में डाकुओं का हमला-आक्रमण हो गया तो गर्भिणी स्त्री कैसे भागेगी? यदि शुकदेव जी की तरह यह गर्भ भी पेट में ही रह गया तो इसे बाहर कैसे निकाला जायगा। और कहीं प्रसव काल के समय वह टेढ़ा हो गया तो फिर प्राणों से ही हाथ धोना पड़ेगा। यों भी प्रसव के समय बड़ी भयंकर पीड़ा होती है; मैं सुकुमारी भला, यह सब कैसे सह सकूँगी? मैं जब दुर्बल पड़ जाऊँगी, तब ननद रानी आकर घर का सब माल-मता समेट ले जायँगी और मुझ से तो सत्य-शौचादि नियमों का पालन होना भी कठिन ही जान पड़ता है। जो स्त्री बच्चा जनती है, उसे उस बच्चे के लालन-पालन में भी बड़ा कष्ट होता है। मेरे विचारसे तो वन्ध्या या विधवा स्त्रियाँ ही सुखी हैं।
मन में ऐसे ही तरह-तरह के कुतर्क उठने से उसने वह फल नहीं खाया और जब उसके पतिने पूछा, "फल खा लिया"? तब उसने कह दिया, "हाँ, खा लिया"।
एक दिन उसकी बहिन अपने-आप ही उसके घर आयी; तब उसने अपनी बहिन को सारा वृत्तान्त सुनाकर कहा कि मेरे मन में इसकी बड़ी चिन्ता है। मैं इस दुःख के कारण दिनों-दिन दुबली हो रही हूँ। बहिन! मैं क्या करूँ? बहिन ने कहा, मेरे पेट में बच्चा है, प्रसव होने पर वह बालक मैं तुझे दे दूँगी। तब तक तू गर्भवती के समान घर में गुप्त रूप से सुख से रह। तू मेरे पति को कुछ धन दे देगी तो वे तुझे अपना बालक दे देंगे। म ऐसी युक्ति करेंगी कि जिसमें सब लोग यही कहें कि इसका बालक छः महीने का होकर मर गया और मैं नित्य प्रति तेरे घर आकर उस बालक का पालन-पोषण करती रहूँगी। तू इस समय इसकी जाँच करने के लिये यह फल गौ को खिला दे। ब्राह्मणी ने स्त्री स्वभाव वश जो-जो उसकी बहिन ने कहा था, वैसे ही सब किया।
इसके पश्चात् समयानुसार जब उस स्त्री के पुत्र हुआ, तब उसके पिता ने चुपचाप लाकर उसे धुन्धली को दे दिया और उसने आत्मदेव को सूचना दे दी कि मेरे सुख पूर्वक बालक हो गया है। इस प्रकार आत्मदेव के पुत्र हुआ सुनकर सब लोगों को बड़ा आनन्द हुआ। ब्राह्मणने उसका जातकर्म-संस्कार करके ब्राह्मणों को दान दिया और उसके द्वार पर गाना-बजाना तथा अनेक प्रकार के माङ्गलिक कृत्य होने लगे। धुन्धुली ने अपने पति से कहा, "मेरे स्तनों में तो दूध ही नहीं है; फिर गौ आदि किसी अन्य जीव के दूध से मैं इस बालक का किस प्रकार पालन करूँगी"? मेरी बहिन के अभी बालक हुआ था, वह मर गया है; उसे बुलाकर अपने यहाँ रख लें तो वह आपके इस बच्चे का पालन-पोषण कर लेगी। तब पुत्र की रक्षा के लिये आत्मदेव ने वैसा ही किया तथा माता-धुन्धुली ने उस बालक का नाम धुन्धुकारी रखा।
इसके बाद तीन महीने बीतने पर उस गौ के भी एक मनुष्याकार बच्चा हुआ। वह सर्वाङ्ग-सुन्दर, दिव्य, निर्मल तथा सुवर्ण की-सी कान्ति वाला था। उसे देख कर ब्राह्मण देवता को बड़ा आनन्द हुआ और उसने स्वयं ही उसके सब संस्कार किये। इस समाचार से और सब लोगों को भी बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बालक को देखनेके लिये आये तथा आपस में कहने लगे, "देखो, भाई! अब आत्मदेव का कैसा भाग्य उदय हुआ है! कैसे आश्चर्य की बात है कि गौ के भी गौके भी ऐसा दिव्यरूप बालक उत्पन्न हुआ है"। दैवयोग से इस गुप्त रहस्य का किसीको भी पता न लगा। आत्मदेव ने उस बालक के गौ के समान कान देखकर उसका नाम गोकर्ण रखा। 
कुछ काल बीतने पर वे दोनों बालक जवान हो गये। उनमें गोकर्ण तो बड़ा पंडित और ज्ञानी हुआ, किन्तु धुन्धुकारी बड़ा ही दुष्ट निकला। स्नान-शौचादि ब्राह्मणोचित आचारों का उसमें नाम भी न था और न खान-पान का ही कोई परहेज था। क्रोध उसमें बहुत बढ़ा-चढ़ा था। वह बुरी-बुरी वस्तुओं का संग्रह किया करता था। मुर्दे के हाथ से छुआया हुआ अन्न भी खा लेता था। दूसरों की चोरी करना और सब लोगों से द्वेष बढ़ाना उसका स्वभाव बन गया था। छिपे-छिपे वह दूसरों के घरों में आग लगा देता था। दूसरों के बालकों को खेलाने के लिये गोद में लेता और उन्हें चट कुएँ में डाल देता।[श्रीमद्भागवत 0.4.46-58] 
हिंसा का उसे व्यसन-सा हो गया था। हर समय वह अस्त्र-शस्त्र धारण किये रहता और बेचारे अंधे और दीन-दुखियों को व्यर्थ तंग करता। चाण्डालों से उसका विशेष प्रेम था; बस, हाथ में फंदा लिये कुत्तों की टोली के साथ शिकार की टोह में घूमता रहता। वेश्याओं के जाल में फँसकर उसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति नष्ट कर दी। एक दिन माता-पिता को मार-पीट कर घर के सब बर्तन-भाँड़े उठा ले गया।
इस प्रकार जब सारी सम्पत्ति स्वाहा हो गयी, तब उसका कृपण पिता फूट-फूट कर रोने लगा और बोला, "इससे तो इसकी माँका बाँझ रहना ही अच्छा था; कुपुत्र तो बड़ा ही दुःखदायी होता है। अब मैं कहाँ रहूँ? कहाँ जाऊँ? मेरे इस संकट को कौन काटेगा? हाय! मेरे ऊपर तो बड़ी विपत्ति आ पड़ी है, इस दुःख के कारण अवश्य मुझे एक दिन प्राण छोड़ने पड़ेंगे। उसी समय परम ज्ञानी गोकर्ण जी वहाँ आये और उन्होंने पिता को वैराग्य का उपदेश करते हुए बहुत समझाया। वे बोले, "पिताजी! यह संसार असार है। यह अत्यन्त दुःख रूप और मोह में डालने वाला है। पुत्र किसका? धन किसका? स्नेहवान् पुरुष रात-दिन दीपक के समान जलता रहता है। सुख न तो इन्द्र को है और न चक्रवर्ती राजा को ही, सुख है तो केवल विरक्त, एकान्त जीवी मुनि को। "यह मेरा पुत्र है" अज्ञान को छोड़ दीजिये। मोह से नरक की प्राप्ति होती है। यह शरीर तो नष्ट होगा ही। इसलिये सब कुछ छोड़कर वन में चले जाइये। गोकर्ण के वचन सुनकर आत्मदेव वन में जाने के लिये तैयार हो गया और उनसे कहने लगा, "बेटा! वन में रहकर मुझे क्या करना चाहिये, यह मुझ से विस्तार पूर्वक कहो। मैं बड़ा मूर्ख हूँ, अब तक कर्मवश स्नेह-पाश में बँधा हुआ, अपङ्ग की भाँति इस घर रूप अँधेरे कुएँ में ही पड़ा रहा हूँ। तुम बड़े दयालु हो, इससे मेरा उद्धार करो"।
गोकर्ण ने कहा :- पिताजी! यह शरीर हड्डी, माँस और रुधिर का पिण्ड है; इसे आप "मैं" मानना छोड़ दें और स्त्री-पुत्रादि को "अपना" कभी न मानें। इस संसार को रात-दिन क्षण भङ्गर देखें, इसकी किसी भी वस्तु को स्थायी समझकर उसमें राग न करें। बस, एक मात्र वैराग्य-रस के रसिक होकर भगवान् भक्ति में लगे रहें। भगवद्ध भजन ही सबसे बड़ा धर्म है, निरन्तर उसी का आश्रय लिये रहें। अन्य सब प्रकार के लौकिक धर्म से मुख मोड़ लें। सदा साधुजनों की सेवा करें। भोगों की लालसा को पास न फटकने दें तथा जल्दी-से-जल्दी दूसरों के गुण-दोषों का विचार करना छोड़कर एक मात्र भगवत्सेवा और भगवान् की कथाओं के रसका ही पान करें।
इस प्रकार पुत्र की वाणी से प्रभावित होकर आत्मदेव ने घर छोड़ दिया और वन की यात्रा की। यद्यपि उसकी आयु उस समय साठ वर्ष की हो चुकी थी, फिर भी बुद्धि में पूरी दृढ़ता थी। वहाँ रात-दिन भगवान् की पूजा करने से और नियम पूर्वक भागवत के दसवें स्कन्ध का पाठ करने से उसको भगवान् श्री कृष्ण चन्द्र की प्राप्ति हो गई।[श्रीमद्भागवत 0.4.59-81]
धुन्धुकारी को प्रेत योनि से मुक्ति ::
सूत जी कहते हैं :- हे शौनक जी! पिता के वन चले जाने पर एक दिन धुन्धुकारी ने अपनी माता को बहुत पीटा और कहा, "बता, धन कहाँ रखा है? नहीं तो अभी तेरी लुआठी (जलती लकड़ी) से खबर लूँगा"। उसकी इस धमकी से डरकर और पुत्र के उपद्रवों से दुखी होकर वह रात्रि के समय कुएँ में कूद कर मर गई। 
योगनिष्ठ गोकर्ण जी तीर्थ यात्रा के लिये निकल गये। उन्हें इन घटनाओं से कोई सुख या दुःख नहीं होता था; क्योंकि उनका न कोई मित्र था न शत्रु।
धुन्धुकारी पाँच वेश्याओं के साथ घर में रहने लगा। उनके लिये भोग-सामग्री जुटाने की चिन्ता ने उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर दी। 
एक दिन उन कुलटाओं ने उससे बहुत से गहने माँगे। वह तो काम से अंधा हो रहा था, मौत की उसे कभी याद नहीं आती थी। बस, उन्हें जुटाने के लिये वह घरसे निकल पड़ा। वह जहाँ-तहाँ से बहुत सा धन चुराकर घर लौट आया तथा उन्हें कुछ सुन्दर वस्त्र और आभूषण लाकर दिये। चोरी का बहुत माल देखकर रात्रि के समय स्त्रियों ने विचार किया कि यह नित्य ही चोरी करता है, इसलिये इसे किसी दिन अवश्य राजा पकड़ लेगा। राजा यह सारा धन छीनकर इसे निश्चय ही प्राण दण्ड देगा। जब एक दिन इसे मरना ही है, तब हम ही धन की रक्षा के लिये गुप्त रूप से इसको क्यों न मार डालें!? इसे मारकर हम इसका माल-मता लेकर जहाँ-कहीं चली जायँगी। ऐसा निश्चय कर उन्होंने सोये हुए धुन्धुकारी को रस्सियों से कस दिया और उसके गले में फाँसी लगाकर उसे मारने का प्रयत्न किया। इससे जब वह जल्दी न मरा, तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई। तब उन्होंने उसके मुख पर बहुत-से दहकते अँगारे डाले; इससे वह अग्नि की लपटों से बहुत छटपटाकर मर गया। उन्होंने उसके शरीर को एक गड्ढे में डालकर गाड़ दिया जिससे वह छटपटा कर मर गया।  उन्होंने उसके शरीर को एक गड्ढे में डालकर गाड़ दिया। 
सच है, स्त्रियाँ प्रायः बड़ी दुःसाहसी होती हैं। उनके इस कृत्य का किसी को भी पता न चला। लोगों के पूछने पर कह देती थीं कि हमारे प्रियतम पैसे के लोभ से अबकी बार कहीं दूर चले गये हैं, इसी वर्ष के अंदर लौट आयेंगे।बुद्धिमान् पुरुष को दुष्टा स्त्रियों का कभी विश्वास न करना चाहिये। जो मूर्ख इनका विश्वास करता है, उसे दुखी होना पड़ता है। इनकी वाणी तो अमृत के समान कामियों के हृदय में रस का सञ्चार करती है; किन्तु हृदय छुरे की धार के समान तीक्ष्ण होता है। भला, इन स्त्रियों का कौन प्यारा है!?
वे कुलटाएँ धुन्धुकारी की सारी सम्पत्ति समेटकर वहाँ से चंपत हो गयीं। उनके ऐसे न जाने कितने पति थे और धुन्धुकारी अपने कुकर्मों के कारण भयंकर प्रेत हुआ। वह बवंडर के रूप में सर्वदा दसों दिशाओं में भटकता रहता था तथा शीत-घाम से सन्तप्त और भूख-प्यास से व्याकुल होने के कारण "हा दैव ! हा दैव"! चिल्लाता रहता था। परन्तु उसे कहीं भी कोई आश्रय न मिला। कुछ काल बीतने गोकर्ण जी लोगों के मुख से धुन्धुकारी की मृत्यु का समाचार उसे सुना। तब उसे अनाथ समझकर उन्होंने उसका गया जी में श्राद्ध किया। वे जहाँ-जहाँ भी जाते थे, उसका श्राद्ध अवश्य करते थे। 
इस प्रकार घूमते-घूमते गोकर्ण जी अपने नगर में आये और रात्रि के समय दूसरों की दृष्टि से बचकर सीधे अपने घर के आँगन में सोने के लिये पहुँचे। 
वहाँ अपने भाई को सोया देख आधी रात के समय धुन्धुकारी ने अपना बड़ा विकट रूप दिखाया। वह कभी भेड़ा, कभी हाथी, कभी भैंसा, कभी इन्द्र और कभी अग्नि का रूप धारण करता। अन्त में वह मनुष्य के आकार में प्रकट हुआ। ये विपरीत अवस्थाएँ देखकर गोकर्ण जी ने निश्चय किया कि यह कोई दुर्गति को प्राप्त हुआ जीव है। तब उन्होंने उससे धैर्य पूर्वक पूछा, तू कौन है? रात्रि के समय ऐसे भयानक रूप क्यों दिखा रहा है? तेरी यह दशा कैसे हुई? हमें बता तो सही-तू प्रेत है, पिशाच है अथवा कोई राक्षस है?
सूत जी कहते हैं, गोकर्ण के इस प्रकार पूछने पर वह बार-बार जोर-जोर से रोने लगा। उसमें बोलने की शक्ति नहीं थी, इसलिये उसने केवल संकेत मात्र किया। तब गोकर्ण जी ने अञ्जलि में जल लेकर उसे अभिमन्त्रित करके उस पर छिड़का। इससे उसके पापों का कुछ शमन हुआ और वह इस प्रकार कहने लगा। 
प्रेत बोला, "मैं तुम्हारा भाई हूँ। मेरा नाम है धुन्धुकारी। मैंने अपने ही दोष से अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर दिया। मेरे कुकर्मों की गिनती नहीं की जा सकती। मैं तो महान् अज्ञान में चक्कर काट रहा था। इसी से मैंने लोगों की बड़ी हिंसा की। अन्त में कुलटा स्त्रियों ने मुझे तड़पा-तड़पा कर मार डाला। इसी से अब प्रेत-योनि में पड़कर यह दुर्दशा भोग रहा हूँ। अब दैव वश कर्म फल का उदय होने से मैं केवल वायु भक्षण करके जी रहा हूँ। भाई! तुम दया के सागर हो; अब किसी प्रकार जल्दी ही मुझे इस योनि से छुड़ाओ"। गोकर्ण ने धुन्धुकारी की सारी बातें सनीं और तब पिण्ड दान किया, फिर भी तुम प्रेत योनि से मुक्त कैसे नहीं हुए?  यदि गया श्राद्ध से भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हुई, तब इसका और कोई उपाय ही नहीं है। अच्छा, तुम सब बात खोलकर कहो, मुझे अब क्या करना चाहिये?
प्रेत ने कहा, मेरी मुक्ति सैकड़ों गया, श्राद्ध करने से नहीं हो सकती। अब तो तुम इसका कोई और उपाय सोचो। 
प्रेत की यह बात सुनकर गोकर्ण को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे कहने लगे, "यदि सैकड़ों गया श्राद्धों से भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हो सकती, तब तो तुम्हारी मुक्ति असम्भव ही है। अच्छा, अभी तो तुम निर्भय होकर अपने स्थान पर रहो; मैं विचार करके तुम्हारी मुक्ति के लिये कोई दूसरा उपाय करूँगा"।
गोकर्ण जी की आज्ञा पाकर धुन्धुकारी वहाँ से अपने स्थान पर चला आया। इधर गोकर्ण जी ने रात भर विचार किया, तब भी उन्हें कोई उपाय नहीं सूझा।प्रातःकाल उनको आया देख लोग प्रेम से उनसे मिलने आये। 
तब गोकर्ण जी ने रात में जो कुछ जिस प्रकार हुआ था, वह सब उन्हें सुना दिया। उनमें जो लोग विद्वान्, योगनिष्ठ, ज्ञानी और वेदज्ञ थे, उन्होंने भी अनेकों शास्त्रों को उलट-पलटकर देखा; तो भी उसकी मुक्ति का कोई उपाय न मिला। तब सबने यही निश्चय किया कि इस विषय में भगवान् सूर्य नारायण जो आज्ञा करें, वही करना चाहिये। अतः गोकर्ण जी ने अपने तपोबल से सूर्य की गति को रोक दिया। उन्होंने स्तुति की , "भगवन्! आप सारे संसार के साक्षी हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप मुझे कृपा करके धुन्धुकारी की मुक्ति का साधन बताइये"। गोकर्ण की यह प्रार्थना सुनकर सूर्य देव ने दूर से ही स्पष्ट शब्दों में कहा, "श्रीमद्भागवत से मुक्ति हो सकती है, इसलिये तुम उसका सप्ताह-पारायण करो"। सूर्य का यह धर्म मय वचन वहाँ सभी ने सुना। तब सबने यही कहा कि प्रयत्न पूर्वक यही करो, क्योंकि यह साधन बहुत सरल है। अतः गोकर्ण जी भी तदनुसार निश्चय करके कथा सुनाने को तैयार हो गए। 
दूर-दूर तक जिसने भी यह सुना वह कथा सुनने के लिये चला आया। 
बहुत-से लँगड़े-लूले, अंधे, बूढ़े और मन्दबुद्धि पुरुष भी अपने पापों की निवृत्ति के उद्देश्यसे वहाँ आ पहुँचे। इस प्रकार वहाँ इतनी भीड़ हो गयी कि उसे देखकर देवताओं को भी आश्चर्य होता था। जब गोकर्ण जी व्यास गद्दी पर बैठकर कथा कहने लगे, तब वह प्रेत भी वहाँ आ पहुँचा और इधर-उधर बैठने के लिये स्थान ढूँढ़ने लगा। इतने में ही उसकी दृष्टि एक सीधे रखे हुए सात गाँठ के बाँस पर पड़ी। उसी के नीचे के छिद्र में घुसकर वह कथा सुनने के लिये बैठ गया। वायु रूप होने के कारण वह बाहर कहीं बैठ नहीं सकता था, इसलिये बॉस में घुस गया।
गोकर्ण जी ने एक वैष्णव ब्राह्मण को मुख्य श्रोता बनाया और प्रथम स्कन्ध से ही स्पष्ट स्वर में कथा सुनानी आरम्भ कर दी। सायंकाल में जब कथा को विश्राम दिया गया, तब एक बड़ी विचित्र बात हुई। वहाँ सभासदों के देखते-देखते उस बाँस की एक गाँठ तड़-तड़ शब्द करती फट गयी। इसी प्रकार दूसरे दिन सायंकाल में दूसरी गाँठ फटी और तीसरे दिन उसी समय तीसरी। इस प्रकार सात दिनों में सातों गाँठों को फोड़कर धुन्धुकारी बारहों स्कन्धों के सुनने से पवित्र होकर प्रेत योनि से मुक्त हो गया और दिव्य रूप धारण करके सबके सामने प्रकट हुआ। उसका मेघ के समान श्याम शरीर पीताम्बर और तुलसी की मालाओंसे सुशोभित था तथा सिर पर मनोहर मुकुट और कानों में कमनीय कुण्डल झलमिला रहे थे। उसने तुरन्त अपने भाई गोकर्ण जी को प्रणाम करके कहा, "भाई! तुमने कृपा करके मुझे प्रेत योनि की यातनाओं से मुक्त कर दिया। यह प्रेत पीड़ा का नाश करने वाली श्रीमद्भागवत की कथा धन्य है तथा भगवान् श्री कृष्ण चन्द्र के धाम की प्राप्ति कराने वाला इसका सप्ताह-पारायण भी धन्य है!
जब सप्ताह श्रवण का योग लगता है, तब सब पाप थर्रा उठते हैं कि अब यह भागवत की कथा जल्दी ही हमारा अन्त कर देगी। जिस प्रकार आग गीली-सूखी, छोटी-बड़ी-सब तरह की लकड़ियोंको जला डालती है उसी तरह यह सप्ताह श्रवण मन, वचन और कर्म द्वारा किये हुए नये-पुराने, छोटे-बड़े सभी प्रकार के पापों को भस्म कर देता है।
विद्वानों ने देवताओं की सभा में कहा है कि जो लोग इस भारतवर्ष में श्रीमद्भागवतकी कथा नहीं सुनते, उनका जन्म वृथा ही है। भला, मोह पूर्वक लालन-पालन करके यदि इस अनित्य शरीर को हृष्ट-पुष्ट और बलवान् भी बना लिया तो भी श्रीमद्भागवत की कथा सुने बिना इससे क्या लाभ हुआ? अस्थियाँ ही इस शरीर के आधार स्तम्भ हैं, नस-नाड़ी रूप रस्सियों से यह बँधा हुआ है, ऊपर से इस पर माँस और रक्त थोपकर इसे चर्म से मँढ़ दिया गया है। इसके प्रत्येक अङ्ग में दुर्गन्ध आती है; क्योंकि है तो यह मल-मूत्र का भाण्ड ही। वृद्धावस्था और शोक के कारण यह परिणाम में दुःख मय ही है, रोगों का तो घर ही ठहरा। यह निरन्तर किसी-न-किसी कामना से पीड़ित रहता है, कभी इसकी तृप्ति नहीं होती। इसे धारण किये रहना भी एक भार ही है; इसके रोम-रोम में दोष भरे हुए हैं और नष्ट होने में इसे एक क्षण भी नहीं लगता। अन्त में यदि इसे गाड़ दिया जाता है तो इसके कीड़े बन जाते हैं; कोई पशु खा जाता है तो यह विष्ठा हो जाता है और अग्नि में जला दिया जाता है  तो भस्म की ढेरी हो जाता है। ये तीन ही इसकी गतियाँ बतायी गयी हैं। ऐसे अस्थिर शरीर से मनुष्य अविनाशी फल देने वाला काम क्यों नहीं बना लेता!? जो अन्न प्रातःकाल पकाया जाता है, वह सायंकाल तक बिगड़ जाता है; फिर उसी के रस से पुष्ट हुए शरीर की नित्यता कैसी?!
इस लोक में सप्ताह-श्रवण करने से भगवान् की शीघ्र ही प्राप्ति हो सकती है। अतः सब प्रकार के दोषों की निवृत्ति के लिये एक मात्र यही साधन है। जो लोग भागवत की कथा से वञ्चित हैं, वे तो जल में बुद्बुदे और जीवों में मच्छरों के समान केवल मरने के लिये ही पैदा होते हैं। भला, जिसके प्रभाव से जड़ और सूखे हुए बाँस की गाँठें फट सकती हैं, उस भागवत कथा का श्रवण करने से चित्त की गाँठों का खुल जाना कौन बड़ी बात है। सप्ताह-श्रवण करने से मनुष्य के हृदय की गाँठ खुल जाती है, उसके समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और सारे कर्म क्षीण हो जाते हैं। यह भागवत रूप तीर्थ संसार  कीचड़ धोने बड़ा ही पटु है। विद्वानों का कथन है कि जब यह हृदय में  जाता है, तब मनुष्य की मुक्ति निश्चित ही समझनी चाहिए।
जिस समय धुन्धुकारी ये सब बातें कह रहा था, जिसके लिये वैकुण्ठ वासी पार्षदों के सहित एक विमान उतरा; उससे सब ओर मण्डलाकार प्रकाश फैल रहा था। सब लोगों के सामने ही धुन्धुकारी उस विमान पर चढ़ गया। तब उस विमान पर आये हुए पार्षदों को देखकर उनसे गोकर्ण जी ने यह बात कही। 
गोकर्ण जी ने पूछा, "भगवान्‌ के प्रिय पार्षदो! यहाँ तो हमारे अनेकों शुद्ध हृदय श्रोता गण हैं, उन सबके लिये आप लोग एक साथ बहुत-से विमान क्यों नहीं लाये? हम देखते हैं कि यहाँ सभी ने समान रूप से कथा सुनी है, फिर फल में इस प्रकार का भेद क्यों हुआ, यह बताइये"!?
भगवान् के सेवकों ने कहा, "हे मानद! इस फल भेद का कारण इनके श्रवण का भेद ही है। यह ठीक है कि श्रवण तो सब ने समान रूप से ही किया है, किन्तु इसके जैसा मनन नहीं किया। इसी से एक साथ भजन करने पर भी उसके फलमें भेद रहा। इस प्रेत ने सात दिनों तक निराहार रहकर श्रवण किया था तथा सुने हुए विषय का स्थिर चित्त से यह खूब मनन-निदिध्यासन भी करता रहता था।
जो ज्ञान दृढ़ नहीं होता, वह व्यर्थ हो जाता है। इसी प्रकार ध्यान न देने से श्रवण का, संदेह से मन्त्र का और चित्त के इधर-उधर भटकते रहने से जप का भी कोई फल नहीं होता। वैष्णव हीन देश, अपात्र को कराया हुआ श्राद्ध का भोजन, अश्रोत्रिय को दिया हुआ दान एवं आचार हीन कुल, इन सबका नाश हो जाता है। गुरु वचनों में विश्वास, दीनता का भाव, मन के दोषों पर विजय और कथा में चित्त की एकाग्रता इत्यादि नियमों का यदि पालन किया जाय तो श्रवण का यथार्थ फल मिलता है। यदि ये श्रोता फिर से श्रीमद्भागव तक कथा सुनें तो निश्चय ही सबको वैकुण्ठ की प्राप्ति होगी और गोकर्ण जी! आपको तो भगवान् स्वयं आकर गोलोक धाम में ले जायँगे। यों कहकर वे सब पार्षद हरि कीर्तन करते वैकुण्ठ लोक को चले गये।
श्रावण मास में गोकर्ण जी ने फिर उसी प्रकार सप्ताह क्रम से कथा कही और उन श्रोताओं ने उसे फिर सुना। नारद जी! इस कथा की समाप्ति पर जो कुछ हुआ, वह सुनिये। वहाँ भक्तों से भरे हुए विमानों के साथ भगवान् प्रकट हुए। सब ओर से खूब जय-जयकार और नमस्कार की ध्वनियाँ होने लगीं। भगवान् स्वयं हर्षित होकर अपने पाञ्चजन्य शङ्ख की ध्वनि करने लगे और उन्होंने गोकर्ण जी को हृदय से लगाकर अपने ही समान बना लिया। 
उन्होंने क्षण भर में ही अन्य सब श्रोताओं को भी मेघ के समान श्यामवर्ण, रेशमी पीताम्बर धारी तथा किरीट और कुण्डलादि से विभूषित कर दिया। उस गाँव में कुत्ते और चाण्डाल पर्यन्त जितने भी जीव थे, वे सभी गोकर्ण जी की कृपा से विमानों पर चढ़ा लिये गये। तथा जहाँ योगिजन जाते हैं, उस भगवद्धाम में वे भेज दिये गये। इस प्रकार भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण कथा श्रवणसे प्रसन्न होकर गोकर्ण जी को साथ ले अपने ग्वाल बालों के प्रिय गोलोक धाममें चले गये। पूर्वकाल में जैसे अयोध्यावासी भगवान् श्री राम के साथ साकेत धाम सिधारे थे, उसी प्रकार भगवान् श्री कृष्ण  सबको गोलोक धाम ले गये। जिस लोक में सूर्य, चन्द्रमा और सिद्धों की भी कभी गति नहीं हो सकती, उसमें वे श्रीमद्भागवत श्रवण करने से चले गये।
नारद जी! सप्ताह यज्ञ के द्वारा कथा श्रवण करने से जैसा उज्ज्वल फल संचित होता है, उसके विषय में हम आपसे क्या कहें? अजी! जिन्होंने अपने कर्णपुट से गोकर्ण जी की कथाके एक अक्षर का भी पान किया था, वे फिर माता के गर्भ में नहीं आये। जिस गति को लोग वायु, जल या पत्ते खाकर शरीर सुखाने से, बहुत काल तक घोर तपस्या करने से और योगाभ्यास से भी नहीं पा सकते, उसे वे सप्ताह श्रवण से सहज में ही प्राप्त कर लेते हैं। इस परम पवित्र इतिहास का पाठ चित्र कूट पर विराजमान मुनीश्वर शाण्डिल्य भी ब्रह्मानन्द में मग्न होकर करते रहते हैं। यह कथा बड़ी ही पवित्र है। एक बार के श्रवण से ही समस्त पाप राशि को भस्म कर देती है। यदि इसका श्राद्ध के समय पाठ किया जाय, तो इससे पितृगण को बड़ी तृप्ति होती है और नित्य पाठ करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।[श्रीमद्भागवत 0.5.1-90] 

  
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