Tuesday, July 25, 2017

MAA TULSI-BASIL माता तुलसी

HOLY BASIL माता तुलसी  
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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धर्मध्वज की पत्नी का नाम माधवी तथा पुत्री का नाम तुलसी था। वह अतीव सुन्दरी थी। जन्म लेते ही वह नारीवत होकर बदरीनाथ में तपस्या करने लगी। भगवान् ब्रह्मा ने दर्शन देकर उसे वर मांगने के लिए कहा। उसने भगवान् ब्रह्मा को बताया कि वह पूर्वजन्म में भगवान् श्री कृष्ण की सखी थी। राधा जी ने उसे भगवान् श्री कृष्ण के साथ रतिकर्म में मग्न देखकर मृत्यु लोक जाने का शाप दिया था। भगवान् श्री कृष्ण की प्रेरणा से ही उसने भगवान् ब्रह्मा की तपस्या की थी। अत: भगवान् ब्रह्मा से उसने पुन: भगवान् श्री कृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने का वर माँगा। भगवान् ब्रह्मा ने कहा कि तुम भी जातिस्मरा हो तथा सुदामा भी अभी जातिस्मर हुआ है, उसको पति के रूप में ग्रहण करो। भगवान् नारायण के शाप अंश से तुम वृक्ष रूप ग्रहण करके वृंदावन में तुलसी अथवा वृंदावनी के नाम से विख्यात होगी। तुम्हारे बिना भगवान् श्री कृष्ण की कोई भी पूजा नहीं हो पायेगी। राधा को भी तुम प्रिय हो जाओगी। भगवान् ब्रह्मा ने उसे षोडशाक्षर राधा मंत्र दिया। 
गणेश जी गंगा किनारे तप कर रहे थे। इसी कालावधि में धर्मत्मज की नवयौवना कन्या तुलसी ने विवाह की इच्छा लेकर तीर्थ यात्रा पर प्रस्थान किया। इसी प्रक्रम में देवी तुलसी सभी तीर्थस्थलों का भ्रमण करते हुए गंगा के तट पर पहुंँची। गंगा तट पर देवी तुलसी ने युवा तरुण गणेश जी को देखा जो रत्न जटित सिंहासन पर विराजमान, तपस्या में विलीन थे। उनके समस्त अंगों पर चंदन लगा हुआ था। उनके गले में पारिजात पुष्पों के साथ स्वर्ण-मणि रत्नों के अनेक हार पड़े थे। उनके कमर में अत्यन्त कोमल रेशम का पीताम्बर लिपटा हुआ था।
तुलसी गणेश जी के रुप पर मोहित हो गई और उनके मन में गणेश जी से विवाह करने की इच्छा जाग्रत हुई। तुलसी ने विवाह की इच्छा से उनका ध्यान भंग किया। तब गणेश जी ने तुलसी द्वारा तप भंग करने को अशुभ बताया और तुलसी की मंशा जानकर स्वयं को ब्रह्मचारी बताकर उसके विवाह प्रस्ताव को नकार दिया।
गणेश जी द्वारा अपने विवाह प्रस्ताव को अस्वीकार कर देने से देवी तुलसी बहुत दुखी हुई और आवेश में आकर उन्होंने गणेश जी के दो विवाह होने का शाप दे दिया। इस पर गणेश जी ने भी तुलसी को शाप दे दिया कि तुम्हारा विवाह एक असुर से होगा। एक राक्षस की पत्नी होने का शाप सुनकर तुलसी ने गणेश जी से माफी मांगी। तब गणेश जी ने तुलसी से कहा कि तुम्हारा विवाह शंखचूर्ण राक्षस से होगा। किंतु फिर तुम भगवान् विष्णु और भगवान् श्री कृष्ण को प्रिय होने के साथ ही कलयुग में जगत के लिए जीवन और मोक्ष देने वाली होगी। पर मेरी पूजा में तुलसी चढ़ाना शुभ नहीं माना जाएगा। तब से ही गणेश जी की पूजा में तुलसी वर्जित मानी जाती है। 
श्राप के फलस्वरूप वृंदा का विवाह जलंधर के साथ हो गया। वृंदा स्वभाव से बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी और सदा अपने पति की सेवा किया करती थी। देवताओं और दानवों में युद्ध हुआ तो जलंधर युद्ध में सम्मिलित होने को पर जाने लगा। वृंदा ने कहा, "स्वामी आप युद्ध पर जा रहे हैं, आप जब तक युद्ध क्षेत्र में रहेंगे मैं पूजा गृह में बैठ कर आपकी जीत के लिये अनुष्ठान करुँगी और जब तक आप वापस नहीं आ जाते, मैं अपना संकल्प नहीं छोडूँगी। उसके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके, सारे देवता जब हारने लगे तो भगवान् श्री हरी विष्णु की सेवा में पहुँचे। 
भगवान् कहने लगे, "वृंदा मेरी परम भक्त है, मैं उसके साथ छल नहीं कर सकता"।
देवताओं के आग्रह करने पर भगवान् श्री हरी विष्णु ने जलंधर का ही रूप धराऔर वृंदा के महल में पहुँच गये। जैसे ही वृंदा ने अपने पति को देखा, वह तुरन्त पूजा से उठ गई और उनके चरणों को छू लिया। जैसे ही उनका संकल्प टूटा, युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काट कर अलग कर दिया। उनका सिर वृंदा के महल में गिरा। जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पड़ा है तो ये जो मेरे सामने खड़े हैं, कौन हैं? उसने पूछा कि आप कौन हैं? भगवान् श्री हरी विष्णु प्रकट हो गये। 
वृंदा ने भगवान् को श्राप दिया जिसके फलस्वरूप वे पत्थर हो गए।  
माता लक्ष्मी के आग्रह करने पर उसने श्राप वापस ले लिया और अपने पति के सिर के साथ वह सती हो गयी।
उसकी राख से एक पौधा निकला।  भगवान् श्री हरी विष्णु ने कहा,"आज से इसका नाम तुलसी है और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा, जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और में बिना तुलसी जी के भोग स्वीकार नहीं करुँगा। तब से तुलसी जी कि पूजा सभी करने लगे। तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किया जाता है। देव-उठावनी एकादशी को  तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है।  
गौलोक में माता राधा और वृन्दा की कथा :: भगवती तुलसी मूल प्रकृति की ही प्रधान अंश हैं। वे गोलोक में तुलसी नाम की गोपी थीं और भगवान् श्री कृष्ण के चरणों में उनका अतिशय प्रेम था। रास लीला में भगवान् श्री कृष्ण के प्रति उनकी अनुरक्ति देखकर राधा जी ने उन्हें मानव योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। गोलोक में सुदामा नाम का एक गोप भगवान् श्री कृष्ण का मुख्य पार्षद था; उसे भी राधा जी ने क्रुद्ध होकर दानव योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया जो अगले जन्म में शंखचूड़ नामक दानव बना। ब्रह्मा जी की प्रेरणा से दोनों का गांधर्व विवाह हुआ। शंख चूड़ ने देवताओं को स्वर्ग से निकाल कर उस पर अपना अधिकार कर लिया। भगवान् श्री हरी विष्णु ने देवताओं को उसकी मृत्यु का उपाय बताते हुए उसे मारने के लिए भगवान् शंकर को एक त्रिशूल दिया और कहा कि तुलसी का सतीत्व नष्ट होने पर ही शंखचूड़ की मृत्यु संभव हो सकेगी। भगवान् विष्णु ने छल पूर्वक तुलसी का सतीत्व नष्ट किया और भगवान् शिव ने त्रिशूल से शंख चूड़ का वध कर डाला। भगवान् विष्णु ने जो अनुग्रह कर इन्हें अपनी पत्नी बनाने के लिए छल का अभिनय किया, उससे रुष्ट होकर तुलसी ने भगवान् विष्णु को शिला बनने का शाप दिया और स्वयं तुलसी के शरीर से गण्डकी नदी उत्पन्न हुई और भगवान् श्री हरी उसी के तट पर मनुष्यों के लिए पुण्यप्रद शालग्राम बन गये। 
भगवान् ने तुलसी के सामने प्रकट होकर कहा कि तुम मेरे लिए बदरीवन में रहकर बहुत तपस्या कर चुकी हो, अब तुम इस शरीर का त्यागकर दिव्य देह धारणकर मेरे साथ आनन्द करो। लक्ष्मी के समान तुम्हें सदा मेरे साथ रहना चाहिए। तुम्हारा यह शरीर गण्डकी नदी के रूप में प्रसिद्ध होगा, जो मनुष्यों को उत्तम पुण्य देने वाली बनेगी। तुम्हारे केश कलाप पवित्र वृक्ष होंगे जो तुलसी नाम से प्रसिद्ध होंगे। तीनों लोकों में देवताओं की पूजा के काम में आने वाले जितने भी पत्र और पुष्प हैं, उन सबमें तुलसी प्रधान मानी जाएगी। स्वर्गलोक, मर्त्यलोक, पाताल तथा वैकुण्ठलोक में सर्वत्र तुम मेरे पास रहोगी। वहाँ तुम लक्ष्मी के समान सम्मानित होओगी। तुलसी-वृक्ष के नीचे के स्थान परम पवित्र होंगे। तुलसी के गिरे पत्ते प्राप्त करने के लिए समस्त देवताओं के साथ मैं भी रहूँगा। 
तभी से तुलसी अपना वह शरीर त्यागकर और दिव्य रूप धारण करके भगवान् श्री हरी के वक्ष:स्थल पर लक्ष्मी जी की भाँति सुशोभित होने लगीं। इस प्रकार माता लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और तुलसी; ये चारों देवियाँ भगवान् श्री हरी की पत्नियाँ हुईं। 
भगवान् श्री हरी द्वारा सर्वप्रथम तुलसी पूजा :: भगवान् श्री हरी ने तुलसी को गौरव प्रदान करके उन्हें लक्ष्मी जी के समान सौभाग्यशाली बना दिया। माता लक्ष्मी और गंगा ने तो तुलसी के नवसंगम, सौभाग्य और गौरव को सहन कर लिया परन्तु माता सरस्वती क्रोध के कारण इसे सहन नहीं कर सकीं। माता सरस्वती के कलह से लज्जा व अपमान के कारण माता तुलसी अन्तर्धान हो गयीं। ज्ञान सम्पन्न देवी तुलसी सर्व सिद्धेश्वरी थीं। अत: उन्होंने भगवान् श्री हरी की आँखों से स्वयं को ओझल कर लिया। जब भगवान् श्री हरी ने तुलसी जी को कहीं नहीं देखा तो माता सरस्वती को समझाकर वे तुलसीवन को गए और माता तुलसी की भक्तिपूर्वक स्तुति की। 
तुलसी पूजा का मन्त्र :: भगवान् श्री हरी ने तुलसी का ध्यान करके लक्ष्मी बीज (श्रीं), माया बीज (ह्रीं), काम बीज (क्लीं) और वाणी बीज (ऐं); इन चारों बीज मंत्रों को पूर्व में उच्चारण कर वृन्दावनी शब्द के अन्त में चतुर्थी विभक्ति लगाकर अंत में वह्निजाया (स्वाहा) का प्रयोग करके दशाक्षर मन्त्र से पूजन किया था :- 
"श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वृन्दावन्यै स्वाहा" 
यह मंत्रों में कल्पतरु है। जो इस मन्त्र का उच्चारण करके विधिपूर्वक तुलसी की पूजा करता है, उसे निश्चय ही सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। 
वृंदा और जालंधर :: भगवान् शिव के समुद्र में प्रवाहित अंश से जलंधर (शंखचूड़) उत्पन्न हुआ और समुद्र पुत्र कहलाया। जलंधर की पत्नी वृंदा के पतिव्रत धर्म के कारण देवता जलंधर को पराजित नहीं कर पा रहे थे। जलंधर को इससे अपने बल का अभिमान हो गया और वह वृंदा के पतिव्रत की अवहेलना करके देवताओं की स्त्रियों को सताने लगा। जलंधर देवी लक्ष्मी को भगवान् विष्णु से छीन लेना चाहता था इसलिए उसने बैकुण्ठ पर आक्रमण किया। लेकिन देवी लक्ष्मी ने जलंधर से कहा कि हम दोनों ही जल से उत्पन्न हुए हैं, इसलिए हम दोनों ही भाई-बहन हैं। इसके बाद वह कैलाश पर जाकर देवी पार्वती को पत्नी बनाने के लिए आग्रह करने लगा। इससे देवी पार्वती क्रोधित हो गयी और महादेव को जलंधर से युद्घ करना पड़ा। वृंदा के सतीत्व के कारण भगवान् शिव का हर प्रहार जलंधर निष्फल कर देता था। भगवान् विष्णु ने जलंधर के वेष में वृंदा का शील भंग किया और भगवान् शिव ने जलंधर का वध कर दिया। 
सागर मंथन के समय देवी लक्ष्मी के साथ जलंधर भी उत्पन्न हुआ था। वर्तमान जालंधर नगरी उसकी राजधानी थी। यूरोप द्वीप की उत्पत्ति जलंधर ने ही की थी। जालंधर में आज भी असुरराज जलंधर की पत्नी देवी वृंदा का मंदिर मोहल्ला कोट किशनचंद में स्थित है। यहाँ एक प्राचीन गुफ़ा थी, जो सीधी हरिद्वार तक जाती थी। भगवान् विष्णु द्वारा सतीत्व भंग किये जाने पर यहीं वृंदा ने यहीं पर आत्मदाह किया था और इसकी राख के ऊपर तुलसी के पौधे का जन्म हुआ। तुलसी देवी वृंदा का ही स्वरूप हैं, जिन्हें भगवान् श्री हरी विष्णु माँ लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय मानते हैं। 
वृंदा देवी मंदिर में 40 दिनों तक श्रद्घा पूर्वक पूजा करने से मनोकामना पूरी होती है। जालंधर में 12 तालाब हुआ करते थे और शहर में प्रवेश के लिए नाव का सहारा लेना पड़ता था। इस स्थान की चारदीवारी के बाहर एक पुराना तालाब था जो अन्नपूर्णा मंदिर को छूता था तथा एक तरफ ब्रह्मकुंड की सीमा से लगता था। आज भी यहांँ पुरानी छोटी ईटों की सीढ़ियां बनी हुई हैं।
श्री हरी प्रिया कल्पतरु तुलसी :: तुलसी जी हरिप्रिया और भगवान् श्री हरी विष्णु के मन का संताप हरने वाली हैं। अथर्ववेद और आयुर्वेद में तुलसी दल को चमत्कारिक औषधीय गुणों का भण्डार और एक महाऔषघि, संजीवनी बूटी और तुलसी अमृत गया कहा है। नित्य कर्म में तुलसी को दैहिक, भौतिक और आध्यात्मिक तीनों सुखों को देने वाली माना गया है। 
तुलसी दल की जड़ में सभी तीर्थ, मध्य में सभी देवि-देवियाँ और ऊपरी शाखाओं में सभी वेद स्थित हैं। तुलसी का प्रतिदिन दर्शन करना पापनाशक समझा जाता है तथा पूजन करना मोक्षदायक। देवपूजा और श्राद्धकर्म में तुलसी आवश्यक है। तुलसी पत्र से पूजा करने से व्रत, यज्ञ, जप, होम, हवन करने का पुण्य प्राप्त होता है। जिनके मृत शरीर का दहन तुलसी की लकड़ी की अग्नि से क्रिया जाता है, वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता। मृत शैया पर पड़े रोगी को तुलसी दलयुक्त जल सेवन कराये जाने के विधान में तुलसी की शुद्धता ही मानी जाती है और उस व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त होगा, ऐसा माना जाता है। इसीलिये मृत्यु के समय जीवात्मा को गंगा जल के साथ तुलसी दल का सेवन करया जाता है।
जहाँ तुलसी का एक भी पौधा होता है। वहाँ भगवान् ब्रह्मा, विष्णु, शिव भी निवास करते हैं। तुलसी की सेवा करने से महापातक भी उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जैसे सूर्य के उदय होने से अंधकार नष्ट हो जाता है।[पद्म पुराण] 
जिस प्रसाद में तुलसी नहीं होता, उसे भगवान स्वीकार नहीं करते। भगवान् विष्णु, योगेश्वर कृष्ण और पांडुरंग (श्री बालाजी) के पूजन के समय तुलसी पत्रों का हार उनकी प्रतिमाओं को अर्पण किया जाता है। तुलसी-वृन्दा श्री कृष्ण भगवान् की प्रिया मानी जाती है और इसकी भोग लगाकर भगवत प्रेमी जन इसका प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं। स्वर्ण, रत्न, मोती से बने पुष्प यदि भगवान् श्री कृष्ण को चढ़ाए जाएँ तो भी तुलसी पत्र के बिना, वे अधूरे हैं। भगवान् श्री कृष्ण अथवा भगवान् श्री हरी विष्णु तुलसी पत्र से प्रोक्षण किए बिना नैवेद्य स्वीकार नहीं करते।
तुलसी जी की पूजा विशेष कर स्त्रियाँ करती हैं। सद गृहस्थ महिलाएं सौभाग्य, वंश समृद्धि हेतु तुलसी-दल को जल सिंचन, रोली अक्षत से पूजकर दीप जलाती हुई, अर्चना-प्रार्थना में कहती हैं कि उन्हें सौभाग्य, सन्तति, दैविक सुख, धन-धान्यं, सदा उपलब्ध रहें। तुलसी के थाँवले का पूजन निरन्तर पूरे वर्ष भर होता है और कार्तिक मास में इसे विशेष रूप से पूजते हैं। कार्तिक मास में भगवान् विष्णु का तुलसीदल से पूजन करने का माहात्म्य अवर्णनीय है।
तुलसी गायत्री मंत्र व पूजा विधि :- सुबह स्नान के बाद घर के आँगन या देवालय में लगे तुलसी के पौधे की गंध, फूल, लाल वस्त्र अर्पित कर पूजा करें। फल का भोग लगाएं। धूप व दीप जलाकर उसके नजदीक बैठकर तुलसी की ही माला से तुलसी गायत्री मंत्र का श्रद्धा से सुख की कामना से कम से कम 108 बार स्मरण करें तथा अंत में तुलसी माता की निम्न मंत्र से पूजा करें :-
ॐ श्री तुलस्यै विद्महे। विष्णु प्रियायै धीमहि। तन्नो वृन्दा प्रचोदयात्। 
सौभाग्यं सन्तति देवि, धनं धान्यञ्च शोकशमनं, कुरु मे माधवप्रिये॥ 
रामायुघ अंकित ग्रह, शोभा वरनि न जाई। नव तुलसिकावृन्द तहँ, देखि हरष कपिराई।[तुलसी दास]
बुध ऐसा ग्रह है जो अन्य ग्रहों के अच्छे और बुरे प्रभाव जातक तक पहुँचाता है। अगर कोई ग्रह अशुभ फल देगा तो उसका अशुभ प्रभाव बुध के कारक वस्तुओं पर भी होता है। अगर कोई ग्रह शुभ फल देता है तो उसके शुभ प्रभाव से तुलसी का पौधा उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है। बुध के प्रभाव से तुलसी के पौधे में फल फूल लगने लगते हैं।तुलसी के विभिन्न प्रकार के पौधे मिलते है जिनमें श्रीकृष्ण तुलसी, लक्ष्मी तुलसी, राम तुलसी, भू तुलसी, नील तुलसी, श्वेत तुलसी, रक्त तुलसी, वन तुलसी, ज्ञान तुलसी मुख्य रूप से विद्यमान हैं। इन सबके गुण अलग अलग हैं। 
आयुर्वेद :: प्रतिदिन चार पत्तियाँ तुलसी की सुबह खाली पेट ग्रहण करने से मधुमेह, रक्त विकार, वात-पित्त आदि दोष दूर होने लगते है। तुलसी के माध्यम से कैंसर जैसे प्राण घातक रोग भी मूल से समाप्त हो जाता है। इसके पत्ते उबालकर पीने से सामान्य ज्वर, कफ, जुकाम, खाँसी तथा मलेरिया में तत्काल रहत मिलती है। तुलसी के पत्तों में संक्रामक रोगों को रोकने की अद्भुत शक्ति है। यह शरीर में नाक, कान, वायु और दिल की बिमारियों पर विशेष प्रभाव डालती है। माँ तुलसी के समीप आसन लगा कर यदि कुछ समय प्रतिदिन बैठा जाये तो श्वास के रोग अस्थमा आदि से जल्दी छुटकारा मिलता है। 
वास्तु दोष :: तुलसी वास्तु दोष भी दूर करने में सक्षम है। यह घर या भवन के समस्त दोष को दूर कर मनुष्य के जीवन को निरोग एवम सुखमय बनाने में सक्षम है। वास्तु दोष को दूर करने के लिए तुलसी के पौधे अग्नि कोण अर्थात दक्षिण-पूर्व से लेकर वायव्य उत्तर-पश्चिम तक के खाली स्थान में लगा सकते हैं। यदि खाली जमीन ना हो तो इसे गमलों में भी लगाया जा सकता है। नित्य पंचामृत बना कर यदि घर कि महिला शालिग्राम जी का अभिषेक करती है तो घर में वास्तु दोष हो ही नहीं सकता 
ग्रह शांति :: तुलसी का गमला रसोई के पास रखने से पारिवारिक कलह समाप्त होती है।पूर्व दिशा की खिडकी के पास रखने से पुत्र यदि जिद्दी हो तो उसका हठ दूर होता है। यदि घर की कोई सन्तान अपनी मर्यादा से बाहर है अर्थात नियंत्रण में नहीं है तो पूर्व दिशा में रखे। तुलसी के पौधे में से तीन पत्ते किसी ना किसी रूप में सन्तान को खिलाने से सन्तान आज्ञानुसार व्यवहार करने लगती है। 
कन्या विवाह :: कन्या के विवाह में विलम्ब हो रहा हो तो अग्नि कोण में तुलसी के पौधे को कन्या नित्य जल अर्पण कर एक प्रदक्षिणा करने से विवाह जल्दी और अनुकूल स्थान में होता है और सारी बाधाएँ दूर होती हैं। 
कारोबार :: यदि कारोबार ठीक नहीं चल रहा तो दक्षिण-पश्चिम में रखे तुलसी कि गमले पर प्रति शुक्रवार को सुबह कच्चा दूध अर्पण करे व मिठाई का भोग रख कर किसी सुहागिन स्त्री को मीठी वस्तु देने से व्यवसाय में सफलता मिलती है। 
नौकरी :: नौकरी में यदि उच्चाधिकारी की वजह से परेशानी हो तो ऑफिस में खाली जमीन या किसी गमले आदि जहाँ पर भी मिटटी हो वहां पर सोमवार को तुलसी के सोलह बीज किसी सफेद कपडे में बाँध कर सुबह दबा देने से सम्मान की वृद्धि होगी। 
पूजा-पाठ :: अति प्राचीन काल से ही तुलसी पूजन प्रत्येक सद्गृहस्थ के घर पर होता आया है तुलसी पत्र चढाये बिना शालिग्राम पूजन नहीं होता। भगवान् विष्णु को चढाये गये प्रसाद, श्राद्ध भोजन, देव प्रसाद, चरणामृत व पंचामृत में तुलसी पत्र होना आवश्यक है, अन्यथा उसका भोग देवताओं को लगा नहीं माना जाता। 
मृत्यु पीड़ा से मुक्ति :: मरते हुए प्राणी को अंतिम समय में गंगाजल के साथ तुलसी पत्र देने से अंतिम श्वास निकलने में अधिक कष्ट नहीं सहन करना पड़ता। 
सात्विक भोजन पर मात्र तुलसी के पत्ते को रख देने भर से भोजन के दूषित होने का काल बढ़ जाता है जल में तुलसी के पत्ते डालने से उसमें लम्बे समय तक कीड़े नहीं पड़ते। तुलसी की मंजरियों में एक विशेष सुगंध होती है जिसके कारण घर में विषधर सर्प प्रवेश नहीं करते। परन्तु यदि रजस्वला स्त्री इस पौधे के पास से निकल जाये तो यह तुरंत मलीन हो जाता है। अतः रजस्वला स्त्रियों को तुलसी के निकट नहीं जाना चाहिए। तुलसी के पौधे की सुगंध जहाँ तक जाती है, वहाँ दिशाओं व विदिशाओं को पवित्र करता है एवं उदभिज, श्वेदज, अंड तथा जरायु चारों प्रकार के प्राणियों को प्राणवान करती है।


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