Tuesday, July 25, 2017

MAA TULSI-BASIL माता तुलसी

HOLY BASIL माता तुलसी  
 CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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धर्मध्वज की पत्नी का नाम माधवी तथा पुत्री का नाम तुलसी था। वह अतीव सुन्दरी थी। जन्म लेते ही वह नारीवत होकर बदरीनाथ में तपस्या करने लगी। भगवान् ब्रह्मा ने दर्शन देकर उसे वर मांगने के लिए कहा। उसने भगवान् ब्रह्मा को बताया कि वह पूर्वजन्म में भगवान् श्री कृष्ण की सखी थी। राधा जी ने उसे भगवान् श्री कृष्ण के साथ रतिकर्म में मग्न देखकर मृत्यु लोक जाने का शाप दिया था। भगवान् श्री कृष्ण की प्रेरणा से ही उसने भगवान् ब्रह्मा की तपस्या की थी। अत: भगवान् ब्रह्मा से उसने पुन: भगवान् श्री कृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने का वर माँगा। भगवान् ब्रह्मा ने कहा कि तुम भी जातिस्मरा हो तथा सुदामा भी अभी जातिस्मर हुआ है, उसको पति के रूप में ग्रहण करो। भगवान् नारायण के शाप अंश से तुम वृक्ष रूप ग्रहण करके वृंदावन में तुलसी अथवा वृंदावनी के नाम से विख्यात होगी। तुम्हारे बिना भगवान् श्री कृष्ण की कोई भी पूजा नहीं हो पायेगी। राधा को भी तुम प्रिय हो जाओगी। भगवान् ब्रह्मा ने उसे षोडशाक्षर राधा मंत्र दिया। 
गणेश जी गंगा किनारे तप कर रहे थे। इसी कालावधि में धर्मत्मज की नवयौवना कन्या तुलसी ने विवाह की इच्छा लेकर तीर्थ यात्रा पर प्रस्थान किया। इसी प्रक्रम में देवी तुलसी सभी तीर्थस्थलों का भ्रमण करते हुए गंगा के तट पर पहुंँची। गंगा तट पर देवी तुलसी ने युवा तरुण गणेश जी को देखा जो रत्न जटित सिंहासन पर विराजमान, तपस्या में विलीन थे। उनके समस्त अंगों पर चंदन लगा हुआ था। उनके गले में पारिजात पुष्पों के साथ स्वर्ण-मणि रत्नों के अनेक हार पड़े थे। उनके कमर में अत्यन्त कोमल रेशम का पीताम्बर लिपटा हुआ था।
तुलसी गणेश जी के रुप पर मोहित हो गई और उनके मन में गणेश जी से विवाह करने की इच्छा जाग्रत हुई। तुलसी ने विवाह की इच्छा से उनका ध्यान भंग किया। तब गणेश जी ने तुलसी द्वारा तप भंग करने को अशुभ बताया और तुलसी की मंशा जानकर स्वयं को ब्रह्मचारी बताकर उसके विवाह प्रस्ताव को नकार दिया।
गणेश जी द्वारा अपने विवाह प्रस्ताव को अस्वीकार कर देने से देवी तुलसी बहुत दुखी हुई और आवेश में आकर उन्होंने गणेश जी के दो विवाह होने का शाप दे दिया। इस पर गणेश जी ने भी तुलसी को शाप दे दिया कि तुम्हारा विवाह एक असुर से होगा। एक राक्षस की पत्नी होने का शाप सुनकर तुलसी ने गणेश जी से माफी मांगी। तब गणेश जी ने तुलसी से कहा कि तुम्हारा विवाह शंखचूर्ण राक्षस से होगा। किंतु फिर तुम भगवान् विष्णु और भगवान् श्री कृष्ण को प्रिय होने के साथ ही कलयुग में जगत के लिए जीवन और मोक्ष देने वाली होगी। पर मेरी पूजा में तुलसी चढ़ाना शुभ नहीं माना जाएगा। तब से ही गणेश जी की पूजा में तुलसी वर्जित मानी जाती है। 
श्राप के फलस्वरूप वृंदा का विवाह जलंधर के साथ हो गया। वृंदा स्वभाव से बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी और सदा अपने पति की सेवा किया करती थी। देवताओं और दानवों में युद्ध हुआ तो जलंधर युद्ध में सम्मिलित होने को पर जाने लगा। वृंदा ने कहा, "स्वामी आप युद्ध पर जा रहे हैं, आप जब तक युद्ध क्षेत्र में रहेंगे मैं पूजा गृह में बैठ कर आपकी जीत के लिये अनुष्ठान करुँगी और जब तक आप वापस नहीं आ जाते, मैं अपना संकल्प नहीं छोडूँगी। उसके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके, सारे देवता जब हारने लगे तो भगवान् श्री हरी विष्णु की सेवा में पहुँचे। 
भगवान् कहने लगे, "वृंदा मेरी परम भक्त है, मैं उसके साथ छल नहीं कर सकता"।
देवताओं के आग्रह करने पर भगवान् श्री हरी विष्णु ने जलंधर का ही रूप धराऔर वृंदा के महल में पहुँच गये। जैसे ही वृंदा ने अपने पति को देखा, वह तुरन्त पूजा से उठ गई और उनके चरणों को छू लिया। जैसे ही उनका संकल्प टूटा, युद्ध में देवताओ ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काट कर अलग कर दिया। उनका सिर वृंदा के महल में गिरा। जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पड़ा है तो ये जो मेरे सामने खड़े हैं, कौन हैं? उसने पूछा कि आप कौन हैं? भगवान् श्री हरी विष्णु प्रकट हो गये। 
वृंदा ने भगवान् को श्राप दिया जिसके फलस्वरूप वे पत्थर हो गए।  
माता लक्ष्मी के आग्रह करने पर उसने श्राप वापस ले लिया और अपने पति के सिर के साथ वह सती हो गयी।
उसकी राख से एक पौधा निकला।  भगवान् श्री हरी विष्णु ने कहा,"आज से इसका नाम तुलसी है और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा, जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा और में बिना तुलसी जी के भोग स्वीकार नहीं करुँगा। तब से तुलसी जी कि पूजा सभी करने लगे। तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किया जाता है। देव-उठावनी एकादशी को  तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है।  
गौलोक में माता राधा और वृन्दा की कथा :: भगवती तुलसी मूल प्रकृति की ही प्रधान अंश हैं। वे गोलोक में तुलसी नाम की गोपी थीं और भगवान् श्री कृष्ण के चरणों में उनका अतिशय प्रेम था। रास लीला में भगवान् श्री कृष्ण के प्रति उनकी अनुरक्ति देखकर राधा जी ने उन्हें मानव योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। गोलोक में सुदामा नाम का एक गोप भगवान् श्री कृष्ण का मुख्य पार्षद था; उसे भी राधा जी ने क्रुद्ध होकर दानव योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया जो अगले जन्म में शंखचूड़ नामक दानव बना। ब्रह्मा जी की प्रेरणा से दोनों का गांधर्व विवाह हुआ। शंख चूड़ ने देवताओं को स्वर्ग से निकाल कर उस पर अपना अधिकार कर लिया। भगवान् श्री हरी विष्णु ने देवताओं को उसकी मृत्यु का उपाय बताते हुए उसे मारने के लिए भगवान् शंकर को एक त्रिशूल दिया और कहा कि तुलसी का सतीत्व नष्ट होने पर ही शंखचूड़ की मृत्यु संभव हो सकेगी। भगवान् विष्णु ने छल पूर्वक तुलसी का सतीत्व नष्ट किया और भगवान् शिव ने त्रिशूल से शंख चूड़ का वध कर डाला। भगवान् विष्णु ने जो अनुग्रह कर इन्हें अपनी पत्नी बनाने के लिए छल का अभिनय किया, उससे रुष्ट होकर तुलसी ने भगवान् विष्णु को शिला बनने का शाप दिया और स्वयं तुलसी के शरीर से गण्डकी नदी उत्पन्न हुई और भगवान् श्री हरी उसी के तट पर मनुष्यों के लिए पुण्यप्रद शालग्राम बन गये। 
भगवान् ने तुलसी के सामने प्रकट होकर कहा कि तुम मेरे लिए बदरीवन में रहकर बहुत तपस्या कर चुकी हो, अब तुम इस शरीर का त्यागकर दिव्य देह धारणकर मेरे साथ आनन्द करो। लक्ष्मी के समान तुम्हें सदा मेरे साथ रहना चाहिए। तुम्हारा यह शरीर गण्डकी नदी के रूप में प्रसिद्ध होगा, जो मनुष्यों को उत्तम पुण्य देने वाली बनेगी। तुम्हारे केश कलाप पवित्र वृक्ष होंगे जो तुलसी नाम से प्रसिद्ध होंगे। तीनों लोकों में देवताओं की पूजा के काम में आने वाले जितने भी पत्र और पुष्प हैं, उन सबमें तुलसी प्रधान मानी जाएगी। स्वर्गलोक, मर्त्यलोक, पाताल तथा वैकुण्ठलोक में सर्वत्र तुम मेरे पास रहोगी। वहाँ तुम लक्ष्मी के समान सम्मानित होओगी। तुलसी-वृक्ष के नीचे के स्थान परम पवित्र होंगे। तुलसी के गिरे पत्ते प्राप्त करने के लिए समस्त देवताओं के साथ मैं भी रहूँगा। 
तभी से तुलसी अपना वह शरीर त्यागकर और दिव्य रूप धारण करके भगवान् श्री हरी के वक्ष:स्थल पर लक्ष्मी जी की भाँति सुशोभित होने लगीं। इस प्रकार माता लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और तुलसी; ये चारों देवियाँ भगवान् श्री हरी की पत्नियाँ हुईं। 
भगवान् श्री हरी द्वारा सर्वप्रथम तुलसी पूजा :: भगवान् श्री हरी ने तुलसी को गौरव प्रदान करके उन्हें लक्ष्मी जी के समान सौभाग्यशाली बना दिया। माता लक्ष्मी और गंगा ने तो तुलसी के नवसंगम, सौभाग्य और गौरव को सहन कर लिया परन्तु माता सरस्वती क्रोध के कारण इसे सहन नहीं कर सकीं। माता सरस्वती के कलह से लज्जा व अपमान के कारण माता तुलसी अन्तर्धान हो गयीं। ज्ञान सम्पन्न देवी तुलसी सर्व सिद्धेश्वरी थीं। अत: उन्होंने भगवान् श्री हरी की आँखों से स्वयं को ओझल कर लिया। जब भगवान् श्री हरी ने तुलसी जी को कहीं नहीं देखा तो माता सरस्वती को समझाकर वे तुलसीवन को गए और माता तुलसी की भक्तिपूर्वक स्तुति की। 
तुलसी पूजा का मन्त्र :: भगवान् श्री हरी ने तुलसी का ध्यान करके लक्ष्मी बीज (श्रीं), माया बीज (ह्रीं), काम बीज (क्लीं) और वाणी बीज (ऐं); इन चारों बीज मंत्रों को पूर्व में उच्चारण कर वृन्दावनी शब्द के अन्त में चतुर्थी विभक्ति लगाकर अंत में वह्निजाया (स्वाहा) का प्रयोग करके दशाक्षर मन्त्र से पूजन किया था :- 
"श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वृन्दावन्यै स्वाहा" 
यह मंत्रों में कल्पतरु है। जो इस मन्त्र का उच्चारण करके विधिपूर्वक तुलसी की पूजा करता है, उसे निश्चय ही सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। 
वृंदा और जालंधर :: भगवान् शिव के समुद्र में प्रवाहित अंश से जलंधर (शंखचूड़) उत्पन्न हुआ और समुद्र पुत्र कहलाया। जलंधर की पत्नी वृंदा के पतिव्रत धर्म के कारण देवता जलंधर को पराजित नहीं कर पा रहे थे। जलंधर को इससे अपने बल का अभिमान हो गया और वह वृंदा के पतिव्रत की अवहेलना करके देवताओं की स्त्रियों को सताने लगा। जलंधर देवी लक्ष्मी को भगवान् विष्णु से छीन लेना चाहता था इसलिए उसने बैकुण्ठ पर आक्रमण किया। लेकिन देवी लक्ष्मी ने जलंधर से कहा कि हम दोनों ही जल से उत्पन्न हुए हैं, इसलिए हम दोनों ही भाई-बहन हैं। इसके बाद वह कैलाश पर जाकर देवी पार्वती को पत्नी बनाने के लिए आग्रह करने लगा। इससे देवी पार्वती क्रोधित हो गयी और महादेव को जलंधर से युद्घ करना पड़ा। वृंदा के सतीत्व के कारण भगवान् शिव का हर प्रहार जलंधर निष्फल कर देता था। भगवान् विष्णु ने जलंधर के वेष में वृंदा का शील भंग किया और भगवान् शिव ने जलंधर का वध कर दिया। 
सागर मंथन के समय देवी लक्ष्मी के साथ जलंधर भी उत्पन्न हुआ था। वर्तमान जालंधर नगरी उसकी राजधानी थी। यूरोप द्वीप की उत्पत्ति जलंधर ने ही की थी। जालंधर में आज भी असुरराज जलंधर की पत्नी देवी वृंदा का मंदिर मोहल्ला कोट किशनचंद में स्थित है। यहाँ एक प्राचीन गुफ़ा थी, जो सीधी हरिद्वार तक जाती थी। भगवान् विष्णु द्वारा सतीत्व भंग किये जाने पर यहीं वृंदा ने यहीं पर आत्मदाह किया था और इसकी राख के ऊपर तुलसी के पौधे का जन्म हुआ। तुलसी देवी वृंदा का ही स्वरूप हैं, जिन्हें भगवान् श्री हरी विष्णु माँ लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय मानते हैं। 
वृंदा देवी मंदिर में 40 दिनों तक श्रद्घा पूर्वक पूजा करने से मनोकामना पूरी होती है। जालंधर में 12 तालाब हुआ करते थे और शहर में प्रवेश के लिए नाव का सहारा लेना पड़ता था। इस स्थान की चारदीवारी के बाहर एक पुराना तालाब था जो अन्नपूर्णा मंदिर को छूता था तथा एक तरफ ब्रह्मकुंड की सीमा से लगता था। आज भी यहांँ पुरानी छोटी ईटों की सीढ़ियां बनी हुई हैं।
श्री हरी प्रिया कल्पतरु तुलसी :: तुलसी जी हरिप्रिया और भगवान् श्री हरी विष्णु के मन का संताप हरने वाली हैं। अथर्ववेद और आयुर्वेद में तुलसी दल को चमत्कारिक औषधीय गुणों का भण्डार और एक महाऔषघि, संजीवनी बूटी और तुलसी अमृत गया कहा है। नित्य कर्म में तुलसी को दैहिक, भौतिक और आध्यात्मिक तीनों सुखों को देने वाली माना गया है। 
तुलसी दल की जड़ में सभी तीर्थ, मध्य में सभी देवि-देवियाँ और ऊपरी शाखाओं में सभी वेद स्थित हैं। तुलसी का प्रतिदिन दर्शन करना पापनाशक समझा जाता है तथा पूजन करना मोक्षदायक। देवपूजा और श्राद्धकर्म में तुलसी आवश्यक है। तुलसी पत्र से पूजा करने से व्रत, यज्ञ, जप, होम, हवन करने का पुण्य प्राप्त होता है। जिनके मृत शरीर का दहन तुलसी की लकड़ी की अग्नि से क्रिया जाता है, वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता। मृत शैया पर पड़े रोगी को तुलसी दलयुक्त जल सेवन कराये जाने के विधान में तुलसी की शुद्धता ही मानी जाती है और उस व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त होगा, ऐसा माना जाता है। इसीलिये मृत्यु के समय जीवात्मा को गंगा जल के साथ तुलसी दल का सेवन करया जाता है।
जहाँ तुलसी का एक भी पौधा होता है। वहाँ भगवान् ब्रह्मा, विष्णु, शिव भी निवास करते हैं। तुलसी की सेवा करने से महापातक भी उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जैसे सूर्य के उदय होने से अंधकार नष्ट हो जाता है।[पद्म पुराण] 
जिस प्रसाद में तुलसी नहीं होता, उसे भगवान स्वीकार नहीं करते। भगवान् विष्णु, योगेश्वर कृष्ण और पांडुरंग (श्री बालाजी) के पूजन के समय तुलसी पत्रों का हार उनकी प्रतिमाओं को अर्पण किया जाता है। तुलसी-वृन्दा श्री कृष्ण भगवान् की प्रिया मानी जाती है और इसकी भोग लगाकर भगवत प्रेमी जन इसका प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं। स्वर्ण, रत्न, मोती से बने पुष्प यदि भगवान् श्री कृष्ण को चढ़ाए जाएँ तो भी तुलसी पत्र के बिना, वे अधूरे हैं। भगवान् श्री कृष्ण अथवा भगवान् श्री हरी विष्णु तुलसी पत्र से प्रोक्षण किए बिना नैवेद्य स्वीकार नहीं करते।
तुलसी जी की पूजा विशेष कर स्त्रियाँ करती हैं। सद गृहस्थ महिलाएं सौभाग्य, वंश समृद्धि हेतु तुलसी-दल को जल सिंचन, रोली अक्षत से पूजकर दीप जलाती हुई, अर्चना-प्रार्थना में कहती हैं कि उन्हें सौभाग्य, सन्तति, दैविक सुख, धन-धान्यं, सदा उपलब्ध रहें। तुलसी के थाँवले का पूजन निरन्तर पूरे वर्ष भर होता है और कार्तिक मास में इसे विशेष रूप से पूजते हैं। कार्तिक मास में भगवान् विष्णु का तुलसीदल से पूजन करने का माहात्म्य अवर्णनीय है।
तुलसी गायत्री मंत्र व पूजा विधि :- सुबह स्नान के बाद घर के आँगन या देवालय में लगे तुलसी के पौधे की गंध, फूल, लाल वस्त्र अर्पित कर पूजा करें। फल का भोग लगाएं। धूप व दीप जलाकर उसके नजदीक बैठकर तुलसी की ही माला से तुलसी गायत्री मंत्र का श्रद्धा से सुख की कामना से कम से कम 108 बार स्मरण करें तथा अंत में तुलसी माता की निम्न मंत्र से पूजा करें :-
ॐ श्री तुलस्यै विद्महे। विष्णु प्रियायै धीमहि। तन्नो वृन्दा प्रचोदयात्। 
सौभाग्यं सन्तति देवि, धनं धान्यञ्च शोकशमनं, कुरु मे माधवप्रिये॥ 
रामायुघ अंकित ग्रह, शोभा वरनि न जाई। नव तुलसिकावृन्द तहँ, देखि हरष कपिराई।[तुलसी दास]
बुध ऐसा ग्रह है जो अन्य ग्रहों के अच्छे और बुरे प्रभाव जातक तक पहुँचाता है। अगर कोई ग्रह अशुभ फल देगा तो उसका अशुभ प्रभाव बुध के कारक वस्तुओं पर भी होता है। अगर कोई ग्रह शुभ फल देता है तो उसके शुभ प्रभाव से तुलसी का पौधा उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है। बुध के प्रभाव से तुलसी के पौधे में फल फूल लगने लगते हैं।तुलसी के विभिन्न प्रकार के पौधे मिलते है जिनमें श्रीकृष्ण तुलसी, लक्ष्मी तुलसी, राम तुलसी, भू तुलसी, नील तुलसी, श्वेत तुलसी, रक्त तुलसी, वन तुलसी, ज्ञान तुलसी मुख्य रूप से विद्यमान हैं। इन सबके गुण अलग अलग हैं। 
आयुर्वेद :: प्रतिदिन चार पत्तियाँ तुलसी की सुबह खाली पेट ग्रहण करने से मधुमेह, रक्त विकार, वात-पित्त आदि दोष दूर होने लगते है। तुलसी के माध्यम से कैंसर जैसे प्राण घातक रोग भी मूल से समाप्त हो जाता है। इसके पत्ते उबालकर पीने से सामान्य ज्वर, कफ, जुकाम, खाँसी तथा मलेरिया में तत्काल रहत मिलती है। तुलसी के पत्तों में संक्रामक रोगों को रोकने की अद्भुत शक्ति है। यह शरीर में नाक, कान, वायु और दिल की बिमारियों पर विशेष प्रभाव डालती है। माँ तुलसी के समीप आसन लगा कर यदि कुछ समय प्रतिदिन बैठा जाये तो श्वास के रोग अस्थमा आदि से जल्दी छुटकारा मिलता है। 
वास्तु दोष :: तुलसी वास्तु दोष भी दूर करने में सक्षम है। यह घर या भवन के समस्त दोष को दूर कर मनुष्य के जीवन को निरोग एवम सुखमय बनाने में सक्षम है। वास्तु दोष को दूर करने के लिए तुलसी के पौधे अग्नि कोण अर्थात दक्षिण-पूर्व से लेकर वायव्य उत्तर-पश्चिम तक के खाली स्थान में लगा सकते हैं। यदि खाली जमीन ना हो तो इसे गमलों में भी लगाया जा सकता है। नित्य पंचामृत बना कर यदि घर कि महिला शालिग्राम जी का अभिषेक करती है तो घर में वास्तु दोष हो ही नहीं सकता 
ग्रह शांति :: तुलसी का गमला रसोई के पास रखने से पारिवारिक कलह समाप्त होती है।पूर्व दिशा की खिडकी के पास रखने से पुत्र यदि जिद्दी हो तो उसका हठ दूर होता है। यदि घर की कोई सन्तान अपनी मर्यादा से बाहर है अर्थात नियंत्रण में नहीं है तो पूर्व दिशा में रखे। तुलसी के पौधे में से तीन पत्ते किसी ना किसी रूप में सन्तान को खिलाने से सन्तान आज्ञानुसार व्यवहार करने लगती है। 
कन्या विवाह :: कन्या के विवाह में विलम्ब हो रहा हो तो अग्नि कोण में तुलसी के पौधे को कन्या नित्य जल अर्पण कर एक प्रदक्षिणा करने से विवाह जल्दी और अनुकूल स्थान में होता है और सारी बाधाएँ दूर होती हैं। 
कारोबार :: यदि कारोबार ठीक नहीं चल रहा तो दक्षिण-पश्चिम में रखे तुलसी कि गमले पर प्रति शुक्रवार को सुबह कच्चा दूध अर्पण करे व मिठाई का भोग रख कर किसी सुहागिन स्त्री को मीठी वस्तु देने से व्यवसाय में सफलता मिलती है। 
नौकरी :: नौकरी में यदि उच्चाधिकारी की वजह से परेशानी हो तो ऑफिस में खाली जमीन या किसी गमले आदि जहाँ पर भी मिटटी हो वहां पर सोमवार को तुलसी के सोलह बीज किसी सफेद कपडे में बाँध कर सुबह दबा देने से सम्मान की वृद्धि होगी। 
पूजा-पाठ :: अति प्राचीन काल से ही तुलसी पूजन प्रत्येक सद्गृहस्थ के घर पर होता आया है तुलसी पत्र चढाये बिना शालिग्राम पूजन नहीं होता। भगवान् विष्णु को चढाये गये प्रसाद, श्राद्ध भोजन, देव प्रसाद, चरणामृत व पंचामृत में तुलसी पत्र होना आवश्यक है, अन्यथा उसका भोग देवताओं को लगा नहीं माना जाता। 
मृत्यु पीड़ा से मुक्ति :: मरते हुए प्राणी को अंतिम समय में गंगाजल के साथ तुलसी पत्र देने से अंतिम श्वास निकलने में अधिक कष्ट नहीं सहन करना पड़ता। 
सात्विक भोजन पर मात्र तुलसी के पत्ते को रख देने भर से भोजन के दूषित होने का काल बढ़ जाता है जल में तुलसी के पत्ते डालने से उसमें लम्बे समय तक कीड़े नहीं पड़ते। तुलसी की मंजरियों में एक विशेष सुगंध होती है जिसके कारण घर में विषधर सर्प प्रवेश नहीं करते। परन्तु यदि रजस्वला स्त्री इस पौधे के पास से निकल जाये तो यह तुरंत मलीन हो जाता है। अतः रजस्वला स्त्रियों को तुलसी के निकट नहीं जाना चाहिए। तुलसी के पौधे की सुगंध जहाँ तक जाती है, वहाँ दिशाओं व विदिशाओं को पवित्र करता है एवं उदभिज, श्वेदज, अंड तथा जरायु चारों प्रकार के प्राणियों को प्राणवान करती है।


Tuesday, July 4, 2017

BHAGWAN SADASHIV भगवान् सदाशिव

 BHAGWAN SADASHIV 
भगवान् सदाशिव 
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM 
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]    
भगवान् सदाशिव तब से हैं जब से सृष्टि है। सृष्टि के आदिकाल में न सत था न असत, न वायु थी न आकाश, न मृत्यु थी और न अमरता, न रात थी न दिन, उस समय केवल वही था, जो वायु रहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से साँस ले रहा था। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। वही परमात्मा है, जिसमें से संपूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है। विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण यही ब्रह्म है। तब वही तत्सदब्रह्म ही था जिसे श्रुति में सत कहा गया है। सत अर्थात अविनाशी परमात्मा। उस अविनाशी पर ब्रह्म (काल) ने कुछ काल के बाद द्वितीय की इच्छा प्रकट की। उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीला शक्ति से आकार की कल्पना की, जो मूर्ति रहित परम ब्रह्म है। परम ब्रह्म अर्थात एकाक्षर ब्रह्म, परम अक्षर ब्रह्म। वह परम ब्रह्म भगवान् ही सदाशिव हैं। अर्वाचीन और प्राचीन विद्वान उन्हीं को ईश्वर कहते हैं। उन्हें ही शिव कहते है। उस समय केवल सदा शिव की ही सत्ता थी जो विद्यमान, जो अनादि और चिन्मय कही जाती थी। उन्हीं भगवान सदाशिव को वेद पुराण और उपनिषद तथा संत महात्मा; ईश्वर तथा सर्वलोकमहेश्वर कहते हैं।
भगवान् शिव के मन में सृष्टि रचने की इच्छा हुई। उन्होंने सोचा कि में एक से अनेक हो जाऊं। यह विचार आते ही सबसे पहले परमेश्वर शिव ने अपनी परा शक्ति अम्बिका को प्रकट किया तथा उनसे कहा सृष्टि के लिए किसी दूसरे पुरुष का सृजन करना चाहिए, जिसके कंधे पर सृष्टि चलन का भार रखकर हम आनंदपूर्ण विचरण कर सकें। शिव और शक्ति एक ही परमात्मा के दो रूप है, इसी कारण भगवान् शिव को अर्धनारीश्वर भी कहा जाता है। सृष्टि को रचने का समय आ गया था। 
ऐसा निश्चय करके शक्ति सहित परमेश्वर शिवा ने आपने वाम अण्ड के 10 वें भाग पर अमृत मल दिया। वहाँ से तत्काल एक दिव्य पुरुष प्रकट हुआ। उसका सौन्दर्य अतुलनीय था। उसमें सर्वगुण संपन्न की प्रधानता थी। वह परम शांत और सागर की तरह गंभीर था। उसके चार हाथों में शंख, चक्र, गदा और पध सुशोभित हो रहे थे। उस दिव्य पुरुष ने भगवान् शिव को प्रणाम करके कहा ‘भगवन् मेरा नाम निश्चित कीजिये और काम बताइये।’ उसकी बात सुनकर भगवान् शिव शंकर ने मुस्कराते हुए कहा ‘वत्स! व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम विष्णु होगा। सृष्टि का पालन करना तुम्हारा काम होगा। इस समय तुम उत्तम तप करो’।
भगवान् शिव का आदेश प्राप्त कर भगवान् विष्णु कठोर तपस्या करने लगे। उस तपस्या के श्रम से उनके अंगों से जल धाराएँ निकलने लगीं, जिससे सूना आकाश भर गया। अंततः उन्होंने थककर उसी जल में शयन किया।
तदनंतर सोये हुए भगवान् नारायण की नाभि से एक उत्तम कमल प्रकट हुआ। उसी समय भगवान् शिव ने अपने दाहिने अण्ड से चतुर्मुखः ब्रह्मा को प्रकट करके उस कमल पर बैठा दिया। महेश्वर की माया से मोहित हो जाने के कारण बहुत दिनों तक ब्रह्मा जी उस कमल की नाल में भ्रमण करते रहे। किन्तु उन्हें अपने उत्पत्ति कर्ता का पता नहीं लगा। आकाशवाणी द्वारा तप का आदेश मिलने पर अपने जन्मदाता के दर्शनाथ बारह वर्षों तक कठोर तपस्या की। तत्पश्चात उनके सम्मुख विष्णु प्रकट हुए। श्री परमेश्वर शिव की लीला से उस समय वहाँ श्री विष्णु और ब्रह्मा जी के बीच विवाद हो गया और ये विवाद उन दोनों के मध्य अपनी श्रेष्ठता को लेकर था, ये विवाद बढ़ते ही गया। कुछ देर बाद उन दोनों के मध्य एक अग्निस्तम्भ प्रकट हुआ। बहुत प्रयास के बाद भी भगवान् विष्णु और भगवान्  ब्रह्मा  उस अग्निस्तम्भ के आदि-अंत का पता नहीं लगा सके।
अंततः थककर भगवान विष्णु ने प्रार्थना किया, “हे महाप्रभु! हम आपके स्वरूप को नहीं जानते। आप जो कोई भी हैं' हमें दर्शन दें। भगवान् विष्णु की स्तुति सुनकर महेश्वर सहसा प्रकट हो गए और बोले,' हे सुरश्रेष्ठगण! मैं तुम दोनों के तप और भक्ति से भलीभांति संतुष्ट हूँ। ब्रह्मा, तुम मेरी आज्ञा से जगत की सृष्टि करो और वत्स विष्णु! तुम इस चराचर जगत का पालन करो।‘ तदनंतर भगवान् शिव ने अपने हृदय भाग से रुद्र को प्रकट किया और संहार का दायित्व सौंपकर वही अंतर्ध्यान हो गये।
शिव आदि देव है। वे महादेव हैं, सभी देवों में सर्वोच्च और महानतम है शिव को ऋग्वेद में रुद्र कहा गया है। पुराणों में उन्हें महादेव के रूप में स्वीकार किया गया है। वे ही इस जगत की सृष्टि करते हैं, इसकी रक्षा करते हैं और अंत में इसका संहार करते हैं। ‘रु’ का अर्थ है-दुःख तथा ‘द्र’ का अर्थ है-द्रवित करना या हटाना अर्थात् दुःख को हरने (हटाने) वाला। शिव की सत्ता सर्वव्यापी है। प्रत्येक व्यक्ति में आत्म-रूप में शिव का निवास है। सब कुछ शिव मय है। शिव से परे कुछ भी नहीं है। 
"शिवोदाता, शिवोभोक्ता शिवं सर्वमिदं जगत्"। 
शिव ही दाता हैं, शिव ही भोक्ता हैं। जो दिखाई पड़ रहा है यह सब शिव ही है। शिव का अर्थ है-जिसे सब चाहते हैं वह अखण्ड आनंद, परम मंगल, परम कल्याण।
भगवान शिवमात्र पौराणिक देवता ही नहीं, अपितु वे पंचदेवों में प्रधान, अनादि सिद्ध परमेश्वर हैं एवं निगमागम आदि सभी शास्त्रों में महिमामण्डित महादेव हैं। वेदों ने इस परमतत्त्व को अव्यक्त, अजन्मा, सबका कारण, विश्वपंच का स्रष्टा, पालक एवं संहारक कहकर उनका गुणगान किया है। श्रुतियों ने भगवान् सदाशिव को स्वयम्भू, शान्त, प्रपंचातीत, परात्पर, परमतत्त्व, ईश्वरों के भी परम महेश्वर कहकर स्तुति की है। परम ब्रह्म के इस कल्याण रूप की उपासना उच्च कोटि के सिद्धों, आत्मकल्याणकामी साधकों एवं सर्वसाधारण आस्तिक जनों-सभी के लिये परम मंगलमय, परम कल्याणकारी, सर्वसिद्धिदायक और सर्वश्रेयस्कर है। देव, दनुज, ऋषि, महर्षि, योगीन्द्र, मुनीन्द्र, सिद्ध, गन्धर्व ही नहीं, अपितु ब्रह्मा और विष्णु तक इन महादेव की उपासना करते हैं।
सामान्यतः ब्रह्मा को सृष्टि का रचयिता, विष्णु को पालक और शिव को संहारक माना जाता है। परन्तु मूलतः शक्ति तो एक ही है, जो तीन अलग-अलग रूपों में अलग-अलग कार्य करती है। वह मूल शक्ति शिव ही हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर (त्रिमूर्ति) की उत्पत्ति महेश्वर अंश से ही होती है। मूल रूप में शिव ही कर्ता, भर्ता तथा हर्ता हैं। सृष्टि का आदि कारण शिव है। शिव ही ब्रह्म हैं। जिससे पैदा होते हैं, जन्म पाकर जिसके कारण जीवित रहते हैं और नाश होते हुए जिसमें प्रविष्ट हो जाते हैं, वही ब्रह्म है। शिव आदि तत्त्व है, वह ब्रह्म है, वह अखण्ड, अभेद्य, अच्छेद्य, निराकार, निर्गुण तत्त्व है। वह अपरिभाषेय है, वह नेति-नेति है।
इस तरह से भगवान् सदाशिव सृष्टि का भार भगवान् विष्णु और भगवान् ब्रह्मा को देकर तपस्या में लीन हो गए।

शिवाराधना :: 
ओ३म् कारं बिंदु-संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिन:। 
कामदं मोक्षदं चैव ओ३म् काराय मनो नम:॥1॥
नमंति ऋषयो देवा नमन्त्यप्सरसां गणाः। 
नरा नमंति देवेशं ‘न’ काराय नमो नमः ॥2॥
महादेवं महात्मानं महाध्यानं परायणम्। 
महापापहरं देवं ‘म’ काराय नमो नमः॥3॥ 
शिवं शांतं जगन्नाथं लोकानुग्रहकारकम्। 
शिवमेकपदं नित्यं ‘शि’ काराय नमो नमः॥4॥
वाहनं वृषभो यस्य वासुकिः कंठभूषणम्। 
वामे शक्तिधरं देवं ‘व’ काराय नमो नमः॥5॥
यत्र यत्र स्थितो देवः सर्वव्यापी महेश्वरः। 
यो गुरुः सर्वदेवानां ‘य’ काराय नमो नमः॥6॥ 
षडक्षरमिदं स्तोत्रं यः पठेच्छिवसंनिधौ। 
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥7॥ 
INCARNATIONS OF BHAGWAN SHIV भगवान शिव के अंशावतार ::
There is no difference between various incarnations of the Almighty-Shri Krashn: Brahma, Vishnu and Mahesh. The trio reproduce them selves as fragment-piece-fraction of themselves, as and when required by the circumstances, for protecting their devotees. Various incarnations of Bhagwan Shiv are hideously important as well as considered-assumed to be the most significant-important and effective for the safety of his devotees. Pouranic scriptures contain occasional references to "ansh-fraction-piece-fragment" The Ling Puran speaks of twenty-eight forms of Shiv. Shiv Maha Puran describes these incarnation at length.
अंशावतार :: दुर्वासा, हनुमान, महेश, वृषभ, पिप्पलाद, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, अवधूतेश्वर, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, ब्रह्मचारी, सुनटनतर्क, द्विज, अश्वत्थामा, किरात और नतेश्वर। 
तंत्र से सम्बन्धित अवतार :: (1). महाकाल, (2). तारा, (3). भुवनेश, (4). षोडश, (5). (भैरव, (6). छिन्न मस्तक, (7). धूम्रवान, (8. बगलामुखी, (9. मातंग और (10. कमल। 
अन्य ग्यारह अवतार: (1). कपाली, (2). पिंगल, (3). भीम, (4). विरुपाक्ष, (5). विलोहित, (6). शास्ता, (7). अजपाद, (8). आपिर्बुध्य, (9). शम्भु, (10). चण्ड तथा (11). भव। 
ब्रह्मा जी के आग्रह करने पर भगवान शिव ने जो श्रष्टि की उससे 10 रूद्र (रोने वाले) उत्पन्न हुए जिन्हें भगवान ब्रह्माजी ने दसौं दिशाओं का दिक्पाल नियुक्त कर दिया। 
VEER BHADR वीरभद्र :: This incarnation took place, when Bhagwan Shiv grew furious, pulled a lock of his matted-lock-hair and dashed it over Kailash Parwat, as soon as he came to know of the incident, in which Mata Sati sacrificed her self during Daksh Yagy. Vir Bhadr destroyed Daksh's Yagy (-fire sacrifice) and severed Daksh's head as per Shiv's instructions-directives.
दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का योगाग्नि में त्याग किया था। भगवान शिव ने ज्ञात होने पर   क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोष पूर्वक कैलाश पर्वत के पर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महा भंयकर वीरभद्र प्रकट हुए। शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया।
BHAERAV ::  This incarnation was to protect the fragmented body (pind पिंड) of Mata Sati which was divided by Bhagwan Vishnu in 52 segments-pieces with Sudarshan Chakr. Mata Sati evolved Yogic-Sacrificial fire which engulfed her, in protest against her father Daksh's abnormal behaviour, when he insulted Bhagwan Shiv ignorantly. Bhagwan Shiv wandered all over the earth. Ultimately these pieces fell over various places on earth resulting in the establishment of 52 Shakti Peeth. Bhaerav (भैरव, terrifying, the terrible or frightful) is often called Bhaeroun-Bhairon-Bhaerdy-Bhaeroun Ji, is the fierce manifestation of Shiv associated with annihilation. 
KAL BHAERAV काल भैरव : Bhagwan Shiv decapitated the 5th head of Brahma Ji's and thus was named Kal Bhaerav. 
भैरव को भगवान शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। माया से प्रभावित होकर भगवान  ब्रह्मा व विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने लगे। तभी वहाँ एक  वहां तेज-पुंजप्रकट हुआ जिसके मध्य एक पुरुषाकृति दिखाई पड़ी, जिसे  देखकर ब्रह्माजी ने कहा-चंद्र शेखर तुम मेरे पुत्र हो। अत: मेरी शरण में आओ। ब्रह्मा की ऐसी बात सुनकर भगवान शंकर को क्रोध आ गया। उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा-काल की भांति शोभित होने के कारण आप साक्षात काल राज हैं। भीषण होने से भैरव हैं। भगवान शंकर से इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अंगुली के नाखून से ब्रह्मा जी  के पांचवें सिर को काट दिया। ब्रह्मा जी का पांचवां सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्म हत्या के पाप से ग्रस्त हो गए। ब्रह्मा जी का कटा हुआ सिर भगवान् शंकर की जांघ पर चुपक गया और वे कापालिक कहलाये। काशी में भैरव को ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति मिल गई। काशी वासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है।
भैरवाष्टक :: देवताओं के युद्ध में अन्धक (भगवान् शिव का पुत्र, जिसे हिरण्याक्ष ने पाला था), पैदल ही गदा लेकर भगवान् शिव की ओर दौड़ा, तो उन्होनें इन्द्र और ब्रह्मा जी सहित समस्त देवताओं को अपने शरीर में छुपा लिया और नन्दीश्वर को छोड़कर, पर्वत पर पैरों के बल खड़े होकर (1). अति भयंकर भैरव रूप धारण कर लिया और उसका ह्रदय विदीर्ण कर दिया। उस समय वे भयानक दाढ़ों वाले करोड़ों सुरों के समान प्रकाशमान, बाघम्बर, पहने, जटा से युक्त, सर्प के हार से अलंकृत ग्रीवा वाले और दस भुजा और तीन नेत्रों से युक्त थे। अन्धक की गदा से उनके सर से खून की धाराएँ बहने लगीं। (2). पूर्व दिशा की धारा से अग्नि की प्रभा वाले, कमल की माला से शोभित विद्याराज, (3). दक्षिण दिशा से प्रेत से मण्डित, काले अञ्जन की प्रभा वाले कालराज, (4). पश्चिम से अलसी के फूल के समान पत्र, से शोभित कामराज, (5). उत्तर से चक्र माला से शोभित शूल लिए हुए, सोमराज, (6). घाव के रक्त से इन्द्रधनुष के समान चमक वाले शूल लिए हुए, स्वछंदराज, (7). पृथ्वी पर गिरे हुए रक्त से सौभाञ्जन-सहिजनके समान शूल लिये हुए शोभायुक्त ललितराज और (8). आठवें विघ्नराज  नामक भैरव उत्पन्न हुए।
HANUMAN JI  राम भक्त हनुमान :: This is the incarnation of Bhagwan Shiv which took place to help the Almighty, when he took the incarnation along with his three more forms as Ram, Bharat, Laxman and Shatrughan to eliminate Ravan. He is called Ram Bhakt Hanuman. He under took to serve Shri Ram in all adversities. He is a role model of devotion. His devotion is ideal. He always the worshippers as and when are in distress and call him. He was born out of Maan Anjali, called Pawan Putr and the son of Vanar king Kesri, from the sperms of Bhagwan Shiv ejected out during Mohini Avtar.
देवताओं और दानवों को अमृत बांटते हुए विष्णुजी के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश कामातुर भगवान शिव का वीर्यपात हो गया। सप्त ऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहीत कर लिया। समय आने पर सप्तऋषियों ने भगवान शिव के वीर्य को पवन देव के माध्यम से वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए। 
KIRAT  किरात (भील) ::  Arjun started praying to Bhagwan Shiv on the advice of Bhagwan Shri Krashn for obtaining various Ashtr-Shatr including Pashupashtr, when Bhagwan Shiv appeared before him as a Bheel (-tribal, native) and killed a demon in the form of pig. Both of them claimed that it was killed by him. Arguments resulted in a war. Ultimately, Arjun offered a garland over the Shiv Ling he was praying to, to be blessed to win the Kirat. The garland immediately switched over to the neck of Bhagwan Shiv. Now, Arjun recognised him and fell over his feet. Bhagwan Shiv blessed him, since he had proved to be worthy of the different weapons, he was looking for, from Bhagwan Shiv. 
भगवान श्री कृष्ण के कहने पर अर्जुन ने पाशु पात्र  सहित अन्य दिव्यास्त्र  प्राप्त करने के लिये  वनवास के दौरान अर्जुन ने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की, दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मारने के लिए शूकर (सूअर) का रूप धारण कर वहां आया। अर्जुन और भगवान शिव ने किरात वेष धारण कर शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया। अर्जुन उन्हें पहचान न पाया और शूकर का वध किसके  बाण से हुआ है इस बात  पर दोनों में विवाद होने  लगा।  भगवान शंकर ने  अर्जुन की पात्रता  की परीक्षा ली और उनकी  योग्यता देखकर अर्जुन को समस्त वांछित अश्त्र-शस्त्र प्रदान किये। 
PIPPLAD पिप्पलाद :: Dadhichi swallowed the weapons (Ashtr-Shashtr) given to him for safe custody. Demigods requested him to return them in an hour of need. Dadhichi showed his inability and offered to leave his body through Yog Vidya-Kriya. His body was utilised by Dev Shilpi Vishw Karma to produce Vajr. His death was a set back to his pregnant wife Suvrcha. Her son questioned the demigods in this regard, who told that it all happened due to the Saturn. He grew angry and punished Saturn, by striking his leg with a stick, making him lame. This act led to Brahma Ji name him as Pipplad. One suffering from the trouble caused by Saturn may pray to Pipplad. Its advised that one should pray to Saturn in stead of punishing him, who is duty bound due to ones own deeds in previous births-incarnations.
शनि पीड़ा का निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सकता है। पिप्पलाद ने देवताओं से अपने पिता  दधीचि द्वारा जन्म से पूर्व मृत्यु का कारण पूछा तो उन्हें बताया गया कि  शनिग्रह की वक्र दृष्टि के चलते ही ऐसा कुयोग बना। पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया। शाप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे। तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है। ब्रह्मा जी  ने ही प्रसन्न होकर  शिव के इस अवतार सुवर्चा के पुत्र का नामकरण पिप्पलाद किया।
नंदीश्वर :: पशु पति नाथ भगवान शंकर सभी जीवों के पूज्य  हैं। नंदी (बैल) धर्म-कर्म के प्रतीक हैं। वंश नाश होते देख पितरों ने ब्रह्मचारी शिलाद मुनि से संतानोतपत्ति  के लिये  कहा। तब शिलाद ने अयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना से भगवान शिव की तपस्या की। भगवान शिव ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र के रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को खेत में  एक बालक मिला। जिसका  नाम नंदी रखा गया । भगवान शंकर ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष बनायाऔर वे नंदीश्वर हो गए। मारुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदीश्वर का विवाह हुआ। 
अश्वत्थामा ::  द्रोण पुत्र अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के अंशावतार हैं। आचार्य द्रोण ने भगवान शिव को पुत्र रूप में पाने की लिए घोर तपस्या की थी और भगवान शिव ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। सवन्तिक रुद्र-भगवान शिव  ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में जन्म लिया। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर (स्वेच्छा से कल्पान्त में देह त्याग) हैं तथा वह आज भी धरती पर विचरण कर रहे हैं। 
शरभावतार :: शरभावतार में भगवान शिव का स्वरूप आधा मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (आख्यानिकाओं में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु, जो शेर से भी अधिक शक्तिशाली था) के रूप में, नृसिंह भगवान की क्रोधाग्नि को शांत करने के लिए प्रकट हुए।  हिरण्यकश्यपू के वध के पश्चात भी जब भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तो देवता भगवान  शिव की शरण में गये। पहले तो शरभ रूपी भगवान शिव  ने  नर सिंह की स्तुति की, जब उनकी क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई तो शरभ रूपी भगवान शिव, अपनी पूंछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े और  भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि को शांत किया। भगवान विष्णु ने शरभ से क्षमा याचना कि और  अतयन्त विनम्र भाव से उनकी स्तुति की। 
गृहपति :: 
नर्मदा तट पर धर्मपुर में मुनि विश्वानर तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती निवास करते थे।  मुनि विश्वनार ने काशी  में घोर तप द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की। एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया तो  मुनि ने बाल रूपधारी शिव की पूजा की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शिव  ने शुचिष्मति के गर्भ से जन्म लेने का वरदान दिया। कालांतर में भगवान शिव शुचिष्मती के गर्भ से पुत्र रूप में प्रकट हुए। पितामह ब्रह्म जी  ने  उस बालक का नाम गृहपति रखा। 
दुर्वासा :: सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा जी  के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्र कामना से घोर तप किया।  ब्रह्मा, विष्णु और महेश उनके आश्रम पर परीक्षा लेने पहंचे तो अनुसूइया ने उन्हें बालक बना दिया। अनुसूइया ने बृह्माणी, माता पार्वती और लक्ष्मी जी के अनुरोध पर उन्हें मुक्त किया और तीनों को अपने पुत्र रूप में प्राप्त करना चाहा।  ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा हुए, जो देवताओं द्वारा समुद्र में फेंके जाने पर, उससे प्रकट हुए। भगवान विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास-सांख्य  पद्धति को प्रचलित करने वाले  दत्तात्रेय उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया।
वृषभ :: भगवान विष्णु दैत्यों को मारने पाताल गए तो उन्हें वहां बहुत सी सुंदर  स्त्रियां मिलीं, जिनसे भगवान  विष्णु जी ने अनेक  पुत्र उत्पन्न किए, जिन्होंने पाताल से पृथ्वी पर्यन्त बड़ा उत्पात मचाया। ब्रह्माजी ऋषि-मुनियों को लेकर भगवान  शिव के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना की।  भगवान शंकर ने वृषभ रूप धारण कर विष्णु पुत्रों का संहार किया। 
यतिनाथ ::  अर्बुदाचल पर्वत के समीप शिव भक्त आहुक-आहुका भील दम्पत्ति निवास करते थे। भगवान शंकर यतिनाथ-अतिथि बनकर उनके घर आए। उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की। आहुका ने अपने पति से  गृहस्थ की मर्यादा अनुसार यति को घर में विश्राम करने कि लिए प्रार्थना की। आहुक धनुष-बाण लेकर रक्षा हेतु बाहर ठहरा। दिन निकलने पर आहुका और यति ने देखा कि वन्य प्राणियों ने आहुक को मार डाला है। यतिनाथ बहुत दु:खी हुए तो आहुका ने कहा कि वे शोक न करें। अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है, और उसका पालन कर आहुक धन्य हो गये हैं। आहुका ने  अपने पति का शवदाह किया, तो भगवान  शिव ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन: अपने पति से मिलने का वरदान दिया। 
कृष्णदर्शन :: इक्ष्वाकुवंशीय श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ। नभग विद्या-अध्ययन के लिये गुरुकुल गए। उनके भाइयों ने परस्पर राज्य का विभाजन कर लिया। नभग ने अपने पिता से इस सम्बन्ध में बात की तो उन्होंने  कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न करके, उनके धन को प्राप्त करे।  नभग ने यज्ञभूमि में पहुँचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा यज्ञ संपन्न कराया। अंगारिक ब्राह्मण, यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए। भगवान शिव ने  कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर कहा कि  यज्ञ के अवशिष्ट धन पर केवल उनका अधिकार है। विवाद होने पर कृष्णदर्शन रूपधारी शिव ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा। नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा-वह पुरुष शंकर भगवान हैं और यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है। पिता की बातों को मानकर नभग ने भगवान शिव की स्तुति की।
अवधूत :: बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर देवराज इंद्र भगवान शिव  के दर्शन के लिए कैलाश पर्वत पर गए। इंद्र की परीक्षा लेने के लिए भगवान शिव  ने अवधूत रूप धारण कर, उनका मार्ग अवरुद्ध कर दिया। इंद्र ने  अवज्ञा पूर्वक बार-बार अवधूत से उनका परिचय पूछा, तो भी वे  मौन रहे। क्रोधित  इंद्र ने ज्योंही  अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडऩा चाहा त्योंही  उनका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर गुरु बृहस्पति ने भगवान शिव को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की।  इंद्र का  अंहकार मिट गया और भगवान शिव ने उसे क्षमा कर दिया। 
भिक्षुवर्य ::  विदर्भ नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला। उसकी गर्भवती पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए। समय आने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। रानी जब जल पीने के लिए सरोवर गई तो एक  उसे घडिय़ाल ने उन्हें अपना आहार बना लिया। बालक भूख-प्यास से तड़पने लगा। शिव प्रेरणा से एक भिखारिन वहां आई । भगवान  शिव ने भिक्षुक का रूप धारण कर बालक का परिचय दिया और उसके पालन-पोषण का निर्देश दिया और स्वयं को प्रकट किया।  बालक ने बड़ा होकर शिव कृपा से  दुश्मनों को हराकर राज्य प्राप्त किया। 
सुरेश्वर :: व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था। वह सदा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था। उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु वन में जाकर ऊँ नम: शिवाय का जाप करने लगा। भगवान शिव ने सुरेश्वर (-इंद्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिव की अनेक प्रकार से निंदा की। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए खड़ा हुआ। उपमन्यु को अपने में दृढ़ भक्ति और अटल विश्वास देखकर भगवान शिव ने उसे दर्शन दिया और क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया। उसकी प्रार्थना पर भगवान शिव ने उसे परम भक्ति और अमर पद प्रदान किया। 
ब्रह्मचारी :: दक्ष यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद माता  सती ने हिमालय के घर जन्म लिया और भगवान शिव को पुनः पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया। माँ पार्वती की परीक्षा लेने के लिए भगवान शिव ब्रह्मचारी का रूप धारण कर उनके पास पहुंचे। पार्वती ने ब्रह्मचारी को देख उनकी विधिवत पूजा की। जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा तो बृह्मचारी ने शिव निंदा की। उन्हें श्मशानवासी व कापालिक बताया तो माँ पार्वती बहुत क्रोधित हुईं। माँ पार्वती की भक्ति व प्रेम को देखकर भगवान शिव ने स्वयं को प्रकट किया। 
सुनट नर्तक :: पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ माँगने के लिए शिवजी ने सु नट नर्तक वेष धारण किया। हाथ में डमरू लेकर जब शिव हिमालय के घर पहुंचे और नृत्य करने लगे। नटराज शिव ने सुंदर और मनोहर नृत्य किया। उन्होंने नैना के कहने पर अपना ब्रह्मा व विष्णु रूप प्रकट किया तो भी कोई उन्हें पहचान नहीं पाया। हिमाचल ने नटराज से इनाम मांगने को कहा तो नटराज शिव ने पार्वती जी  को मांग लिया। नटराज माँ पार्वती को दर्शन देकर चले गए। मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती माता का कन्यादान भगवान शिव को करने का निश्चय किया। 
यक्ष :: देवताओं व असुरों द्वारा किए गए समुद्र मंथन से प्राप्त हलाहल को   भगवान शिव  ने ग्रहण कर अपने कंठ में धारण किया। अमृतपान करने से सभी देवता अमर और अभिमानी  गये और स्वयं  को सबसे  अधिक बलशाली मानने लगे। भगवान शिव ने यक्ष का रूप धारण कर देवताओं से  एक तिनका उठाने को कहा। पूरी शक्ति लगाने पर भी देवता उस तिनके को उठा नहीं पाए। उसी समय एक आकाशवाणी हुई जिसने  यक्ष को  सब गर्वों के विनाशक भगवान शिव बताया।
RAVAN'S SHIV TANDAV STROTR रावण द्वारा रचित शिव तांडव स्त्रोत्र :: This is the prayer recited by RAVAN the demon king, who won-conquered the Dev Lok. He became extremely proud-arrogant-egoistic. He reached Mount Kailash-the abode of Bhagwan Shiv and started shaking-jolting, the Kailash Parwat. He grew-nurtured, the misconception, that he could not be defeated by any one.  Ravan irritated-annoyed, Maan Parvati, who got jittery. Bhagwan Shiv laughed at him and pressed the Parwat a bit by his toe's nail. It became difficult for Ravan to come out of the nail. At this juncture having realized his mistake-fault, he started singing-chanting the Shloks-Verses of Sam Ved. He started praying-pleasing the Almighty with this Shiv Tandav Strotr, composed by him, instantaneously. One who recites this prayer is blessed with all worldly pleasures and might.
Bhagwan Shiv opens his third eye as soon as he gets angry-annoyed. He performs Tandav Nraty, whenever he becomes furious. Ravan annoyed him, but pleased him, having realized his mistake. He chanted this poem-verse-Shloks, to calm-cheer him, to prevent Tandav.
Bhagwan Shiv is possessor of all the 64 forms/faculties of learning-enlightenment. Dancing is one of them. Tandav is the dance form which is exhibited by him, only when he gets furious-extremely angry. It involves vigorous movements of the whole body adopted by the male dancers. People in Southern India perform this dance at various occasions.
He is Adi Dev Maha Dev. He is called Sada Shiv. He has five heads. Shiv Lok is his abode. He was there before evolution and will remain after evolution. Shiv has a Trident in the right hand, with a crescent moon on his head. He is said to be fair like camphor or like an ice clad mountain. He plays Damru while performing dance happily. He wears Mala-garland and Janeu of snakes. He is shown pressing Muyalak-a demon, with his foot. Panch Aksher itself constitutes his body. The trident-a weapon, symbolizes the unity of three abodes. Trilochan-Shiv is depicted with a third eye, with which he burnt Kam Dev. He is Trayamb Keshwar, since he killed Trayambak-a demon, near Pune-Maharashtr.
शिव ताण्डव स्तोत्र की महिमा :: शिव तांडव स्तोत्र रावण द्वारा रचा गया है। इसकी शब्द रचना के कारण व्यक्ति का उच्चारण साफ हो जाता है। इस मंत्र से नृत्य, चित्रकला, लेखन, युद्धकला, समाधि, ध्यान आदि कार्यो में भी सिद्धि मिलती है। इस स्तोत्र का जो भी नित्य पाठ करता है उसके लिए सारे राजसी वैभव और अक्षय लक्ष्मी भी सुलभ होती है। इसकी रचना (संस्कृत: शिव ताण्डव स्तोत्रम्) महान विद्वान एवं परम शिवभक्त लंकाधिपति रावण द्वारा है। मान्यता है कि रावण ने कैलाश पर्वत ही उठा लिया था और जब पूरे पर्वत को ही लंका ले चलने को उद्यत हुआ तो भगवान् शिव ने अपने अंगूठे से थोड़ा सा दबाया तो कैलाश फिर जहां था वहीं अवस्थित हो गया। शिव के अनन्य भक्त रावण का हाथ दब गया और वह आर्तनाद कर उठा: शंकर शंकर-क्षमा करिए, क्षमा करिए और स्तुति करने लग गया; जो कालांतर में शिव तांडव स्त्रोत्र कहलाया।
काव्य शैली :: शिवताण्डव स्तोत्र स्तोत्रकाव्य में अत्यन्त लोकप्रिय है। यह पञ्चचामर छन्द में आबद्ध है। इसकी अनुप्रास और समास बहुल भाषा संगीतमय ध्वनि और प्रवाह के कारण शिवभक्तों में प्रचलित है। सुन्दर भाषा एवं काव्य-शैली के कारण यह स्तोत्रों विशेषकर शिवस्तोत्रों में विशिष्ट स्थान रखता है।




 अथ रावण कृत शिव तांडव स्तोत्र 
जटाटवीग लज्जलप्रवाहपावितस्थले; गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डम न्निनादवड्डमर्वयं चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥
Jatat Veeg ljjal Pravah Pav Itha Sthale,
 Gale avalabhya lambithaam bhujanga thungamalikaam,
Damaddama dama ddama ninnadava damarvayam,
 Chakar chand andavam thanotu n: Shiv: Shivam.
O, The Almighty!  Ganga Jal is oozing out of your consecrated locks-matted hair, which are like the deep-dense-thick forest, the serpent-snake is coiled, round your neck-area in the throat, stuck-hanging like a lofty-garland, you perform the Tandav Nraty, producing the fierce sound of dam-dam, with the help of Damru, held by you in your right hand. Kindly forgive me and bless-shower with auspiciousness and prosperity.सघन जटामंडल रूप वन से प्रवाहित होकर श्री गंगाजी की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ प्रदेश को प्रक्षालित (धोती) करती हैं, और जिनके गले में लंबे-लंबे बड़े-बड़े सर्पों की मालाएँ लटक रही हैं तथा जो शिवजी डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्याण करें।
                     जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी; विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके; किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं॥2॥
Jata katah sambhram bhramani limp nirjhri,
Vilol vichi vallari viraj man moordhni,
Dhag ddhag ddhag jjw lal lalat patt pavke,
Kishor Chandr shekhare ratih: prtikshanm mm.
O! Serveshwr! The celestial-mighty Holy River Maan Ganga, whose waves-rows are agitatedly moving through your matted locks-hair, along with the sound of the  Damru Dam-Dam-daga-daga-damat-damat, played by you, makes your forehead shine  like the brilliant fire (-due to the impact of the third eye) and  the crescent of moon fixed like an ornament-jewel on your head, makes me  love-inclined-devoted to you. अति अम्भीर कटाहरूप जटाओं में अतिवेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की चंचल लहरें जिन शिवजी के शीश पर लहरा रही हैं तथा जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालाएँ धधक कर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे बाल चंद्रमा से विभूषित मस्तक वाले शिवजी में मेरा अनुराग (प्रेम) प्रतिक्षण बढ़ता रहे।
धरा धरेंद्र नंदिनी विलास बंधुवंधुर-स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि; कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥
 Dhra dharendr nandini vilas bhandhu bhandur, 
Sphuradigantha santhathi pramodha mana manase,
Krupa kadaksha dhorani niruddha durdharapadi,
Kwachi digambare mano vinodhamethu vasthuni. 
O! Lord Shiv! I seek asylum-shelter under you-along with your beautiful-glorious-rejoicing companion-consort-ever supportive Maan Parvati-the daughter of Parwat Raj Himaly (-the king of mountains); having compassionate looks-whose mind rejoices at her side long glances, who is supportive-invincible-nurtures and controls the entire living world-universe and pervasive in all the ten directions-with the stream of merciful look which removes hardships-as her kith, makes my mind take pleasure in her who wears the directions as apparel.पर्वतराजसुता के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परम आनंदित चित्त वाले (माहेश्वर) तथा जिनकी कृपादृष्टि से भक्तों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, ऐसे (दिशा ही हैं वस्त्र जिसके) दिगम्बर शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा। 
जटा भुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा-कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे। 
मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥
Jata bhujang pingal sphurat phan mani prabha, 
Kadamb kumkum drav pralipt digwadhu mukhe;
Madhandh sindhur sphuratw guuttriya medure, 
Mano vinod mad bhutm bibhartu bhoot bhartri.
O! Bhoot Nath! I seek shelter-asylum-pleasure in you; with the shining lustrous jewel-gem on the hood of the serpent-the creeping reddish brown snake-with the shining hood-entwining your matted locks, along with your bride, whose face-body is covered-decorated with the luster of variegated colors  of red dye-saffron-kum kum, the supporter  of all life forms-minds-pleasures-wonders, who supports the beautiful faces of the maidens of directions, your upper glittering  garment, is made up of  the skin of the huge intoxicated elephant.जटाओं में लिपटे सर्प के फण के मणियों के प्रकाशमान पीले प्रभा-समूह रूप केसर कांति से दिशा बंधुओं के मुखमंडल को चमकाने वाले, मतवाले, गजासुर के चर्मरूप उपरने से विभूषित, प्राणियों की रक्षा करने वाले शिवजी में मेरा मन विनोद को प्राप्त हो।
सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर-प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।
भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकःश्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥
                                          Sahasr lochan prabhty sesh lekh shekhar, 
Prasoon dhooli dhorni vidhu sarangri peeth bhuh,
Bhujang raj Malaya nibhaddh jat jootak, 
Sriyai chiray jayatam chakor bandhu shekhar: .
O! Bhagwan Shiv! Your matted locks are tied by the red-brown king of serpents like a garland, and the head is decorated by the crescent moon as a jewel the friend-relative of Chakor (a bird) has granted prosperity to Indr and all the demigods, who have lined up to pray to you with lowered heads, their stole is grayed by the flow of dust.
इंद्रादि समस्त देवताओं के सिर से सुसज्जित पुष्पों की धूलिराशि से धूसरित पादपृष्ठ वाले सर्पराजों की मालाओं से विभूषित जटा वाले प्रभु हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।
ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा-निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्‌।
सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं; महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः ॥6॥
Lalat chathwara jwal ddhanjay  sphuling gabha, 
Nipeet panch  saykm namnni  limpnaykam;
Sudha mayookh lekhya  virajaman shekharm, 
Maha kapali sampadishi, roj talamasthu n: .
O! Siddheshwr! O! Kapalik! You burnt the Kaam Dev-the deity/demi god of love with the raging fire by opening your third eye on the fore head, you are bowed-saluted by all the celestial entities-Deities-demi gods-Indr, you are decorated with the beautiful cool rayed crescent Moon, kindly bless us with siddhis.इंद्रादि देवताओं का गर्व नाश करते हुए जिन शिवजी ने अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से कामदेव को भस्म कर दिया, वे अमृत किरणों वाले चंद्रमा की कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटा वाले, तेज रूप नर मुंडधारी शिवजीहमको अक्षय सम्पत्ति दें।

कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके।
धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक-प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥7॥
Karal bhal pattika dagddhag gddha jjwal, 
Dhananja yahuthi krt prachand panch sayake;
Dhara dharendr nandini kuchagra chithr patrak,
Prakalp naik shilpini  trilochane rtirmm.
O! Tri Netr! Kaam Dev armed with five dreaded arrows of sexuality-lust-pleasure-sensuality-comfort was turned to ashes, when you opened the third eye while you were meditating, on being disturbed, for the benefit of the demi gods protected by you. After calm down, you appreciated the cause and accepted the demi gods’ desire for you to have a son from Maan Parvati-the daughter of Himaly-King of mountains and painted the tips of her breasts with decorative colors.जलती हुई अपने मस्तक की भयंकर ज्वाला से प्रचंड कामदेव को भस्म करने वाले तथा पर्वत राजसुता के स्तन के अग्रभाग पर विविध भांति की चित्रकारी करने में अति चतुर त्रिलोचन में मेरी प्रीति अटल हो।
नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर-त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः।
निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरःकलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥
Naveen megh mandali nirudh durdharat sphurat,
 Kuhoo nisithii neetam prabhndh baddh kandhr: ;
Nilimp nirjari darstanotu krtti sindhur, 
Kala nidhan bandhur: shriym jagad dhurndhar:. 
O! Neel Kanth! Your throat has turned blue-as dark as the mid night of new moon with several layers of clouds, you supported the celestial river in her abode to earth on your head, you are dressed in the red skin of Gajasur after killing him, for supporting the universe, kindly award us with prosperity and wealth.नवीन मेघों की घटाओं से परिपूर्ण अमावस्याओं की रात्रि के घने अंधकार की तरह अति गूढ़ कंठ वाले, देव नदी गंगा को धारण करने वाले, जगचर्म से सुशोभित, बालचंद्र की कलाओं के बोझ से विनम, जगत के बोझ को धारण करने वाले शिवजी हमको सब प्रकार की सम्पत्ति दें।
                    प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा-विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌। 
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदंगजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥
 Prafull neel pankaj prapanch kalim prabha,
 Valambi kantha kand kandli ruchi prabaddh kandhrm;
Smarschhidam puraschhidam bhvaschhidhm makhachhidam, 
Gjachhidandh kchhidam tamantkachhidam bhaje.
O! Tri Purari! Your blue neck is shining like the bloomed blue lotus, the lustrous temples for prayers are located over your shoulders, you destroyed the Tri Pur (-three abodes of demons located in the sky, made up of Gold, silver and iron, destroyed by you when they came in line, with a single arrow), Andhak, Gajasur etc., who disturbed the Yagy-rituals-prayers-penances-sacrifices, I pray to you.फूले हुए नीलकमल की फैली हुई सुंदर श्याम प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कंधे वाले, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों के काटने वाले, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुरहंता, अंधकारसुरनाशक और मृत्यु के नष्ट करने वाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।
अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी-रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌ ।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं; गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥
Agarv sarv mangl kla kdamb manjari,
Ras pravah madhuri vijrmbhmn madhuvrtam;
Smrantakam, purantakam, bhvantakm, makhantakam,
Gajant kaandh kantkam tamantakantakam bhaje.

O! Maha Kaal! You, who nurtures-protects all auspicious (-differentiated  like the variegated bunch of flowers, having enjoyment-flow-sweetness-flare) events; you burnt the Kaam Dev, killed Manmath, destroyed the Tri Pur-the abode of demons-who, destroyed-hindered the Yagy, teased-killed Rishis-Munis-human life on earth, killed the demon Andhak, killed Gajasur and tamed Yam-the Deity-demi god of death, I worship you.कल्याणमय, नाश न होने वाली समस्त कलाओं की कलियों से बहते हुए रस की मधुरता का आस्वादन करने में भ्रमररूप, कामदेव को भस्म करने वाले, त्रिपुरासुर, विनाशक, संसार दुःखहारी, दक्षयज्ञविध्वंसक, गजासुर तथा अंधकासुर को मारनेवाले और यमराज के भी यमराज श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ।
                  जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर-द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्-
धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल-ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः॥11॥
Jayatwdbhr vibhrm bhrm adbhujagm shwasa,
 Dwinirgamtkram sphurt karal bhal havy vat;
Dhimid dhimid dhimid dhwan mrudang thung mangal,
Dhwani krm pravartita prachand thandaw: shiv: .
O! Natraj! You should be victorious, your forehead’s third eye is evolving fire which is enhanced by the breath of dreadful snake wandering in the sky, you are whirling around while performing the Tandav Nrty-dance of the doom’s day, to the tunes of the Damru (-drum held in the hand, which produces rhythmic sound with the rotation of the hand in clock wise and anti-clock wise directions-frequently-vigorously), dhimid, dhimid, dhimid sound coming out the drum should be auspicious to us.अत्यंत शीघ्र वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से क्रमशः ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्नि वाले मृदंग की धिम-धिम मंगलकारी उधा ध्वनि के क्रमारोह से चंड तांडव नृत्य में लीन होने वाले शिवजी सब भाँति से सुशोभित हो रहे हैं।
                दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो-र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥
Sprsh dwichitr talpyor bhujangm moukti kasjor,
Garishth ratn loshthayo: suhrd wipakshy pakshayo:,
Trunar vind chakkshusho: praja maheem mahendrayo:,
Sam pravartynmn: kada sadashivam bhje.
O! Sada Shiv! When will I, be able to worship you With equanimity towards  a snake and a garland, towards, gems and dirt, friends and foes, straw and lotus, emperor and a common man and the differentiated manners of this universe.
कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शय्या में सर्प और मोतियों की मालाओं में मिट्टी के टुकड़ों और बहुमूल्य रत्नों में, शत्रु और मित्र में, तिनके और कमललोचननियों में, प्रजा और महाराजाधिक राजाओं के समान दृष्टि रखते हुए कब मैं शिवजी का भजन करूँगा।
               कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्‌; विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌। विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌॥13॥
Kada nilimp nirjhree nikunj kotre vasan,
Vimukt durmati: sada shir: sthamanjlim vahan,
Vimukt lol lochno lalam bhal lagnak:
Shiveti mantramuchchran kada sukhi bhavamyham.
O! Trilochan! When will I live the life of pleasure, meditating you, occupying a hollow place near the celestial river Ganga, with hands clasped over the head, relinquishing sensuality-sexuality-lust-passions-evil-wickedness with the movement of eyes enchanting your name.
कब मैं श्री गंगाजी के कछारकुंज में निवास करता हुआ, निष्कपटी होकर सिर पर अंजलि धारण किए हुए चंचल नेत्रों वाली ललनाओं में परम सुंदरी पार्वतीजी के मस्तक में अंकित शिव मंत्र उच्चारण करते हुए परम सुख को प्राप्त करूँगा।
              निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः। तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं; परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः॥14॥
देवांगनाओं के सिर में गूँथे पुष्पों की मालाओं के झड़ते हुए सुगंधमय पराग से मनोहर, परम शोभा के धाम महादेवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानंद युक्त हमारेमन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें।
इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं, पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं, विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम्॥15॥
Idam hi nity mev mukt mutt mottmm stavm,
Pathn smrn bruvannro vishudhimeti santatam,
Hre Gurou subhaktimashu yati nanyatha gatim,
Vimohnam hi dehinam sushakrasy chitanm.
O! Jagat Guru! Anyone who learns and recites this strotr become pious-virtuous-righteous-purified and attain devotion-shelter-asylum-protection under you the eternal will attain liberation-Salvation-assimilation in you.
इस परम उत्तम शिवतांडव श्लोक को नित्य प्रति मुक्तकंठ सेपढ़ने से या श्रवण करने से संतति वगैरह से पूर्ण हरि और गुरु मेंभक्ति बनी रहती है। जिसकी दूसरी गति नहीं होती शिव की ही शरण में रहता है।
प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी; महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना। विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌॥16॥
प्रचंड बड़वानल की भाँति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली देवकन्याओं से शिव विवाह समय में गान की गई मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, सांसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पाएँ।
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं, यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे। तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां, लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शम्भुः॥ 17॥
Pooja vasan samye dash vaktr geetam,
shambhu poojanm parm pathti pradhoshe,
Tasy sthirm rath gajendr turng yuktam,
Lakshmim sadaiv sumukhim praddati shambu.
O! The Almighty! Anyone who recite this Strotr composed by Ravan-Dash Kandhar-ten headed, at the end of prayers in the evening-after sun set on Pradosh day, will be blessed with prosperity and the Goddess Maan Laxmi will his home her permanent abode granting him chariots, elephants and horses (riches, wealth, prosperity), due to your blessings.
शिव पूजा के अंत में इस रावणकृत शिव तांडव स्तोत्र का प्रदोष समय में गान करने से या पढ़ने से लक्ष्मी स्थिर रहती है। रथ गज-घोड़े से सर्वदा युक्त रहता है।
॥ इति शिव तांडव स्तोत्रं संपूर्णम्‌॥
MAHA SHIV RATRI :: 
Maha Shiv Ratri, is celebrated with fun fare, enthusiasm and frolic. Maha Shiv Ratri occurs in the Krashn Paksh (dark fortnight) of Phalgun (February or March).
People wake up in the morning dress up with washed or new cloths/attire and visit the nearby temple, with offerings like Milk, sweets, btashe, Ganga Jal, Bel Patthr Leaves, Fruits preferably Ber (jujube fruit) or Datura, Vermilion Paste, Beetel Leaves and Incense  sticks and Pure Desi Ghee lamps. Long serpentine queues are witnessed near the temples. One who perform pooja on this day is relinquished-detached-freed from sins and is blessed with Moksh. On this auspicious day one should recite "Om Namah Shivay", Maha Mratunjay Mantr or Tandev Strotr silently with or without Rudraksh-garland/Jap Mala. 
One performs pooja with the help of a Pundit or by himself by pouring water, mixed with Ganga Jal, milk, honey over the Shiv ling, along with  Bel Patr for cleansing his the soul. Vermilion paste is applied on the Ling to identify one with virtues, devotion and piousity. Fruits are offered to seek longevity and gratification of desires. Incense are lighted for acquiring riches-wealth. Oil lamps are lit to acquire knowledge from the master of masters Bhagwan Shiv. Beetel leaves are offered to seek satisfaction-peace-solace and tranquility along with worldly pleasures-comforts.
Shivabhishek-Mahabhishek is performed with Sugarcane Juice for pleasing Maa Laxmi-for Wealth, with Milk & Ghee-for progeny-children, with Water for release from miseries, with Mustard-for protection against enemies and with Ganga Jal-for Moksh. Dhatura fruit and flower are also offered to Shiv even though they are poisonous, being favorite of Bhagwan Shiv. 
Shiv is worshiped in Ling form throughout the night; which is bathed every three hours with the 5 sacred offerings from a virtuous cow, called the "Punch Gavy". The Panch Gavy contains milk, sour milk, cow's urine, butter and dung. Milk, Clarified Butter, Curd, Honey and Sugar are also offered to the Ling. In Ujjain Maha Kaal pooja is performed from the very fine Bhasm-powdered ashes from the pyre. Puja is amplified many folds, on this auspicious day. Bhagwan Shiv is Bhole-innocent, Nath-master, merciful and compassionate. One who attains the blessings of Bhagwan Shiv is awarded residence in Shiv Lok. Pooja performed at the site of Jyotir Ling is even more rewarding. 
On the day of Maha Shivratri at midnight, Bhagwan Shiv revealed his Ling Swroop-form on this day. Rudra Abhishek is performed at midnight. 
Bhawan Shiv married with Maan Parvti on  this auspicious occasion. He acquired Sagun-with definite shape; from 'Nirgun-shapeless by virtue of the mystic powers-Maya  of Maa Parvati.
Bhagwan Shiv consumed the deadly poison Halahal, which emerged out during Smudr Manthan-the churning of Kshir Sagar-the milky ocean and protected the three abodes: Heavens, Earth and the Patal Lok,  on this auspicious occasion. His  throat turned blue and so his name became 'Neel Kanth'.
Bhole Nath revealed to Maa Parvati that the 14th night of the Krashn Paksh-fortnight, is His favorite night and that the devotees, who worship Him on thus auspicious night will surely receive His blessings. He preformed Tandav-the dance of primordial conception, preservation, sustenance and destruction on this auspicious day.
Maa Parvati under took his strict penances on this virtuous day. 
One keep awaking & performing pooja, enchanting-reciting divine prayers, throughout he night in the honour of Shiv, the Truth-Supreme, Maha Yogi, Ultimate, Chandr Shekhar.  He, who sheltered Ganga in his locks, is Aghori :- the master of Tantra-Mantr, Maha Dev, Bhole Nath, Rudr. Devotees worship Him with dedication and devotion on this auspicious day of Maha Shiv Ratri to seek His blessings, so that they can live a fulfilling life leading to Moksh.
Recitation-enchantment of Maha Mratyunjay Mantr protects one from all illnesses and diseases: Trayambakam Yajaamahe Sugandhim Pushtivardhanam Urvarukmiv Bandhanan Mrityor Mokshiy Mamrtat.
[I worship thee, O! The sweet Lord of transcendental vision (the three eyed). O! the giver of health and prosperity to all, may I be free from the bonds of death, just as a melon (or cucumber) is severed effortlessly from its bondage or attachment to the creeper.]
Anyone, who worships Shiv on the day of Maha Shivratri is released-relinquished from all bondage and sins of Karm and moves towards the path of Moksh. Devotees, who worship Bhagwan Shiv with true devotion on Maha Shivratri are freed from all sins-bondage and are blessed with health, wealth and success. 
Parad-Para-Mercury is regarded as one of the auspicious metals. Shiv Lings made using Parad are considered as most auspicious, even more auspicious than Shiv Lings made from gemstones or gold. Devotees who worship Parad Shivling are blessed with all worldly pleasures and are excelled on the path of Moksh. Parad Shivling, when kept in homes or place of work brings in physically, spiritually and psychologically upliftment. Parad and Parad Shivling have many other medicinal and mystic benefits such as peace, prosperity and happiness. 
Shiv Ling represents Bhawan Shiv, the primeval and primary source of energy in this Universe.  Generally, people avoid  installation of Shiv Ling at homes or place of work, since its proper place is cremation ground or the temple. Shiv is Supreme Soul-Adi Dev, Maa Parwati Shakti is his driving force. The combination of Shiv and Shakti is behind the creation-nurture and act of perishing this Universe. 
Ling symbolizes Tej (energy, sperms) and Chaitany-living (consciousness); it is often represented alongside the Yoni, which is a symbol of Maa Shakti, the female creative energy of the universe. Thus, Shivling is a symbol of union of the duality of  Shiv (The Purest) and Shakti (-sacred force or the cosmic energy). 
महा शिव रात्रि मनुष्यों को पाप, अन्याय और अनाचार से दूर रहकर शुद्ध, पवित्र और सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा देता है। कल्याण और मोक्ष प्रदान करने वाली महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव का विधि-विधान के साथ पूजा करने से सुख-शांति और खुशहाली आती है। श्रद्धाभाव से हो शिव पूजन भगवान शिव का पूजन श्रद्धाभाव के साथ करने से मनवांछित फल की प्राप्ति होती है।महाशिव रात्रि की रात्रि में जागरण करते हुए शिव जी की आराधना करने और शांत-चित्त एवं पूर्ण सात्विक भाव से व्रत रखने से भक्तों के समस्त दुःख तथा कष्ट दूर हो जाते हैं। 
अन्याय और अत्याचार का पर्याय बने तारकासुर के वध का निमित्त बने भगवान शिव ने माता सती के अपने पिता के घर यज्ञाग्नि में भस्म होने के बाद, तांडव नृत्य किया। 
चंदन, बूरा-शक्कर, पान-सुपारी, लौंग-इलायची, पंचमेवा, फल, धतूरा, रुद्राक्ष, बेलपत्र, पुष्पों में कनेर, नीलकमल, गुलाब, चमेली, गेंदा आदि समर्पित करने के साथ-साथ धूप और दीप प्रज्‍ज्वलित करना चाहिए।शिवलिंग पर कभी भी चंपा, केतकी, नागकेशर, केवड़ा और मालती के पुष्प नहीं चढ़ाने चाहिए। 
अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली  यह  एकमात्र ऐसी कालरात्रि है, जो मनुष्यों को पापकर्म, अन्याय और अनाचार से दूर रहकर पवित्र एवं सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा देती है।
शिव पूजन के दौरान महामृत्युंजय मंत्र, शिवाष्टक, रुद्राष्टक, रामचरितमानस के बालकांड के अंतर्गत शिव-सती प्रसंग का पाठ करना विशेष फलदायी कारक-दायक माना गया है। व्रत न भी कर सके, तो उक्त पाठ से भी शिव उपासना का संपूर्ण फल मिल जाता है।
भगवान्  शिव के 108 नामों का जाप :: (1). ॐ भोलेनाथ नमः, (2). ॐ कैलाश पति नमः, (3). ॐ भूतनाथ नमः, (4). ॐ नंदराज नमः, (5). ॐ नन्दी की सवारी नमः, (6). ॐ ज्योतिलिंग नमः, (7). ॐ महाकाल नमः, (8). ॐ रुद्रनाथ नमः, (9). ॐ भीमशंकर नमः, (10). ॐ नटराज नमः, (11). ॐ प्रलेयन्कार नमः, (12). ॐ चंद्रमोली नमः, (13). ॐ डमरूधारी नमः, (14) ॐ चंद्रधारी नमः, (15) ॐ मलिकार्जुन नमः, (16). ॐ भीमेश्वर नमः (17). ॐ विषधारी नमः, (18). ॐ बम भोले नमः, (19) ॐ ओंकार स्वामी नमः, (20). ॐ ओंकारेश्वर नमः, (21). ॐ शंकर त्रिशूलधारी नमः, (22). ॐ विश्वनाथ नमः, (23). ॐ अनादिदेव नमः, (24). ॐ उमापति नमः, (25). ॐ गोरापति नमः, (26). ॐ गणपिता नमः, (27). ॐ भोले बाबा नमः, (28). ॐ शिवजी नमः, (29). ॐ शम्भु नमः, (30). ॐ नीलकंठ नमः, (31). ॐ महाकालेश्वर नमः, (32). ॐ त्रिपुरारी नमः, (33). ॐ त्रिलोकनाथ नमः, (34). ॐ त्रिनेत्रधारी नमः, (35). ॐ बर्फानी बाबा नमः, (36). ॐ जगतपिता नमः, (37). ॐ मृत्युन्जन नमः, (38). ॐ नागधारी नमः, (39). ॐ रामेश्वर नमः, (40). ॐ लंकेश्वर नमः, (41). ॐ अमरनाथ नमः, (42). ॐ केदारनाथ नमः, (43). ॐ मंगलेश्वर नमः, (44). ॐ अर्धनारीश्वर नमः, (45). ॐ नागार्जुन नमः, (46). ॐ जटाधारी नमः, (47). ॐ नीलेश्वर नमः, (48). ॐ गलसर्पमाला नमः, (49) ॐ दीनानाथ नमः, (50) ॐ सोमनाथ नमः, (51) ॐ जोगी नमः, (52) ॐ भंडारी बाबा नमः, (53). ॐ बमलेहरी नमः, (54). ॐ गोरीशंकर नमः, (55). ॐ शिवाकांत नमः, (56). ॐ महेश्वराए नमः, (57). ॐ महेश नमः, (58). ॐ ओलोकानाथ नमः, (59). ॐ आदिनाथ नमः, (60). ॐ देवदेवेश्वर नमः, (61). ॐ प्राणनाथ नमः, (62). ॐ शिवम् नमः, (63). ॐ महादानी नमः, (64). ॐ शिवदानी नमः, (65). ॐ संकटहारी नमः, (66). ॐ महेश्वर नमः, (67). ॐ रुंडमालाधारी नमः, (68) ॐ जगपालनकर्ता नमः, (69) ॐ पशुपति नमः, (70) ॐ संगमेश्वर नमः, (71). ॐ दक्षेश्वर नमः, (72). ॐ घ्रेनश्वर नमः, (73). ॐ मणिमहेश नमः, (74). ॐ अनादी नमः, (75). ॐ अमर नमः, (76) ॐ आशुतोष महाराज नमः, (77). ॐ विलवकेश्वर नमः, (78). ॐ अचलेश्वर नमः, (79). ॐ अभयंकर नमः, (80). ॐ पातालेश्वर नमः, (81). ॐ धूधेश्वर नमः, (82). ॐ सर्पधारी नमः, (83). ॐ त्रिलोकिनरेश नमः, (84). ॐ हठ योगी नमः, (85). ॐ विश्लेश्वर नमः, (86). ॐ नागाधिराज नमः, (87). ॐ सर्वेश्वर नमः, (88). ॐ उमाकांत नमः, (89). ॐ बाबा चंद्रेश्वर नमः, (90). ॐ त्रिकालदर्शी नमः, (92). ॐ त्रिलोकी स्वामी नमः, (92). ॐ महादेव नमः, (93). ॐ गढ़शंकर नमः, (94). ॐ मुक्तेश्वर नमः, (95). ॐ नटेषर नमः, (96). ॐ गिरजापति नमः, (97). ॐ भद्रेश्वर नमः, (98). ॐ त्रिपुनाशक नमः, (99) ॐ निर्जेश्वर नमः, (100). ॐ किरातेश्वर नमः, (101). ॐ जागेश्वर नमः, (102). ॐ अबधूतपति नमः, (103). ॐ भीलपति नमः, (104). ॐ जितनाथ नमः, (105). ॐ वृषेश्वर नमः, (106). ॐ भूतेश्वर नमः, (107). ॐ बैजूनाथ नमः, एवं (108). ॐ नागेश्वर नमः। 
ये भगवान शिव के 108 नाम हैं। 
 
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