SHAKUNTALA शकुंतला की कथा
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM By :: Pt. Santosh Bhardwaj
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उस समय तक शकुंतला गर्भवती हो चुकी थी। जब ऋषि कण्व वापस तीर्थ यात्रा से लौटे तो उनको पूरी कहानी शकुंतला ने बताई। ऋषि ने शकुंतला को अपने पति के पास जाने को कहा, क्योंकि विवाहित कन्या को पिता के घर रहना वो उचित नही मानते थे। शकुंतला सफर के लिए निकल पड़ी, लेकिन मार्ग में एक सरोवर में पानी पीते वक्त उनकी अंगूठी तालाब में गिर गयी, जिसे एक मछली ने निगल लिया। शकुंतला जब राजा दुष्यंत के पास पहुँचे तो ऋषि कण्व के शिष्यों ने शकुंतला का परिचय दिया। राजा दुष्यंत ने शकुंतला को पत्नी मानने से अस्वीकार कर दिया, क्योंकि वो दुर्वासा ऋषि के श्राप से सब कुछ भूल चुके थे। शकुंतला निराश होकर राजमहल के बाहर निकली तो उसकी माँ मेनका ने उसे कश्यप ऋषि के आश्रय में रखा जहाँ शकुन्तला ने एक पुत्र को जन्म दिया।
जब उस बालक को राजा दुष्यंत ने देखा तो उसे देखकर उनके मन में प्रेम उमड़ आया। वो जैसे ही उस बालक को गोद में उठाने के लिए खड़े हुए तो शकुंतला की सहली ने बताया कि अगर वो इस बालक को छुएंगे तो उसकी भुजा में बंधा काला डोर साप बनकर उनको डंस लेगा। राजा दुश्न्त ने उस बात का ध्यान नहीं दिया और बालक को गोद में उठा लिया, जिससे उस बालक के भुजा में बंधा काला डोरा टूट गया, जो उसके पिता की निशानी थी। शकुंतला की सहेली ने सारी बात शकुंतला को बताई, तो वो दौडती हुयी राजा दुष्यंत के पास आयी। राजा दुष्यंत ने भी शकुंतला को पहचान लिया और अपने किये की क्षमा माँगी और उन दोनों को अपने राज्य ले गये। महाराज दुष्यंत और शकुंतला ने उस बालक का नाम भरत रखा जो आगे चलकर एक महान प्रतापी सम्राट बना।
पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुन्तला के पुत्र भरत की गणना महाभारत में वर्णित सोलह सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है। इनका एक नाम 'सर्वदमन' भी था क्योंकि इन्होंने बचपन में ही बड़े-बड़े राक्षसों, दानवों और सिंहों का दमन किया था। वे समस्त वन्य तथा पर्वतीय पशुओं को भी सहज ही परास्त कर अपने अधीन कर लेते थे। अपने जीवन काल में उन्होंने यमुना, सरस्वती तथा गंगा के तटों पर क्रमश: सौ, तीन सौ तथा चार सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे। प्रवृत्ति से दानशील तथा वीर थे। राज्यपद मिलने पर भरत ने अपने राज्य का विस्तार किया। प्रतिष्ठान पुर के स्थान पर हस्तिनापुर को राजधानी बनाया। भरत का विवाह विदर्भराज की तीन कन्याओं से हुआ था। जिनसे उन्हें नौ पुत्रों की प्राप्ति हुई। भरत ने कहा-ये पुत्र मेरे अनुरूप नहीं है। अत: भरत के शाप से डरकर उन तीनों ने अपने-अपने पुत्र का हनन कर दिया।तब देवराज इंद्र ने उन्हें ऋषि देवगुरु वृहस्पति के पुत्र को लेकर दिया जिससे कुरु वंश आगे चला।