Thursday, December 5, 2019

GURU GOVIND SINGH & KHALSA PANTH गुरु गोबिन्द सिंह-खालसा पंथ

गुरु गोबिन्द सिंह
CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM
By :: Pt. Santosh Bhardwaj
ॐ गं गणपतये नम:।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं सनातनम्।
निराकारं स्वेच्छामयमनन्तजम्॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि
[श्रीमद्भगवद्गीता 2.47]
खालसा पंथ में हिंदुओं का योगदान :: आम कहना हैं की सिखों ने हिंदुओं की रक्षा की। खालसा पन्थ की स्थापना के समय ब्राह्मण, हिन्दू खत्री आगे आये। हर हिन्दु ने अपने परिवार का बड़ा बेटा खालसा फौज के लिए दिया था। एक और जहाँ मराठे लड़ रहे थे वहीं दूसरी और राजपूतों और ब्राह्मणों ने मुगलों की नाक में दम किया हुआ था। जब पहली खालसा फ़ौज बनी तब उसका नेतृत्व एक ब्राह्मण भाई प्राग दास जी के हाथ में था। उसके बाद उनके बेटे भाई मोहन दास जी ने कमान सम्भाली। सती दास जी, मति दास जी, दयाल दास जी जैसे वीर शहीद ब्राह्मण खालसा फ़ौज के सेनानायक थे। इन्होंने गुरु जी की रक्षा करते हुए अपनी जान दी। गुरु गोबिंद जी को शस्त्रों की शिक्षा देने वाले पण्डित कृपा दत्त जी भी एक ब्राह्मण थे, उनसे बड़ा योद्धा कभी पंजाब के इतिहास में नही देखा गया। जब 40 मुक्ते मैदान छोड़ कर भागे तब एक बैरागी ब्राह्मण लक्ष्मण दास भरद्वाज उर्फ़ बन्दा बहादुर और उनका 14 साल का पुत्र अजय भरद्वाज गुरु जी के परिवार की रक्षा के लिए सरहिंद में लड़े। चप्पड़ चिड़ी की लड़ाई में उनकी इतिहासिक विजय हुई। 
1,906 में खालसा पन्थ सिख धर्म बना। अकाली लहर चला कर उसे हिन्दु धर्म से कुछ लोगों ने अलग कर दिया। इतिहास से छेड़-छाड़ हुई पर सच्चाई कभी बदल नही सकती। अंगेजों ने DIVID & RULE के तहत सिख गुरुद्वारा समिति आदि की स्थापना कराई। 1,946 तक पण्डित इन परिवारों में पूर्वत विवाह आदि संस्कार कराते रहे मगर बाद में राजनैतिक लाभों के दृष्टिगत कुछ लोगों ने ताना-बाना ध्वस्त कर दिया और बाद में खालिस्तान जैसे आन्दोलन खड़े कर दिये जिनका संचालन मुख्यतया कैनेडा, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों से भारत और सनातन धर्म के प्रति विरोध और दुर्भावना से किया जा रहा है। इसमें पाकिस्तान का खुला हाथ है। 
गुरु गोबिन्द सिंह (जन्म :- 22 दिसम्बर 1,666) सिखों के दसवें गुरु थे। उनके पिता गुरु तेग बहादुर की मृत्यु के उपरान्त 11 नवम्बर सन 1,675 को वे 
गुरु बने। वह एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। सन 1,699 में बैसाखी के दिन उन्होंने खालसा पन्थ की स्थापना की।
Nanak Dev was in a Hindu Vaeshy family. His successors from Guru Govind Singh to Guru Tegh Bahadur were also Hindus.
Govind Singh a Kayasth & 10th Guru. Between 40-45 years of age he laid the foundation of Sikhism to fight against the tyranny of Mughals.
If we tell the Sikhs that their Gurus were also Hindus, most of them do not believe it. When we ask them why Baba Nanak use suffix as Dev and same is the case with their other 8 Gurus except Guru Govind Singh.
The Hindus gave their eldest son to fight with the Mughals. Later on it became a tradition, all the male children became Sikhs.
गुरु गोबिन्द सिंह ने सिखों की पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित किया। बिचित्र नाटक को उनकी आत्मकथा माना जाता है। यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग है। दसम ग्रन्थ, गुरु गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है।
उन्होने मुगलों या उनके सहयोगियों (जैसे, शिवालिक पहाड़ियों के राजा) के साथ 14 युद्ध लड़े। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान उन्होंने किया, जिसके लिए उन्हें सर्वस्व दानी भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जन साधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं।
गुरु गोविंद सिंह जहाँ विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें संत सिपाही भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे।
उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने उनका अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। उनकी मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं "भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन"। वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है।
गुरु गोविंद सिंह का जन्म नौवें सिख (शिष्य) गुरु तेगबहादुर और माता गुजरी के घर पटना में 22 दिसम्बर 1,666 को हुआ था। जब वह पैदा हुए थे उस समय उनके पिता असम में धर्म उपदेश को गये थे। उनके बचपन का नाम गोविन्द राय (राय कायस्थों की उपशाखा है) था। पटना में जिस घर में उनका जन्म हुआ था और जिसमें उन्होने अपने प्रथम चार वर्ष बिताये थे, वहीं पर अब तखत श्री पटना साहिब स्थित है।
1,670 में उनका परिवार फिर पंजाब आ गया। मार्च 1,672 में उनका परिवार हिमालय के शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्क नानकी नामक स्थान पर आ गया। यहीं पर इनकी शिक्षा आरम्भ हुई। उन्होंने फारसी, संस्कृत की शिक्षा ली और एक योद्धा बनने के लिए सैन्य कौशल सीखा। चक नानकी ही आजकल आनन्दपुर साहिब कहलता है।
गोविन्द राय जी नित्य प्रति आनंदपुर साहब में आध्यात्मिक आनंद बाँटते, मानव मात्र में नैतिकता, निडरता तथा आध्यात्मिक जागृति का संदेश देते थे। आनंदपुर वस्तुतः आनंदधाम ही था। यहाँ पर सभी लोग वर्ण, रंग, जाति, संप्रदाय के भेदभाव के बिना समता, समानता एवं समरसता का अलौकिक ज्ञान प्राप्त करते थे। गोविन्द जी शांति, क्षमा, सहनशीलता की मूर्ति थे।
कश्मीरी पण्डितों का जबरन धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाये जाने के विरुद्ध शिकायत को लेकर तथा स्वयं इस्लाम न स्वीकारने के कारण 11 नवम्बर 1,675 को औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में सार्वजनिक रूप से उनके पिता गुरु तेग बहादुर का सिर कटवा दिया। इसके पश्चात वैशाखी के दिन 29 मार्च 1,676 को गोविन्द सिंह सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए।
10वें गुरु बनने के बाद भी आपकी शिक्षा जारी रही। शिक्षा के अन्तर्गत लिखना-पढ़ना, घुड़सवारी तथा धनुष चलाना आदि सम्मिलित था। 1,684 में उन्होने चंडी दीवार की रचना की। 1685 तक आप यमुना नदी के किनारे पांवटा नामक स्थान पर रहे।
गुरु गोबिन्द सिंह की तीन पत्नियाँ थीं। 21जून, 1,677 को 10 साल की उम्र में उनका विवाह माता जीतो के साथ आनंदपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में किया गया। उन दोनों के 3 पुत्र हुए जिनके नाम थे :- जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह। 4 अप्रैल, 1684 को 17 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह माता सुंदरी के साथ आनंदपुर में हुआ। उनका एक बेटा हुआ जिसका नाम था अजित सिंह। 15 अप्रैल, 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया। वैसे तो उनका कोई संतान नहीं था पर सिख धर्म के पन्नों पर उनका दौर भी बहुत प्रभावशाली रहा।
अप्रैल 1,685 में, सिरमौर के राजा मत प्रकाश के निमंत्रण पर गुरू गोबिंद सिंह ने अपने निवास को सिरमौर राज्य के पांवटा शहर में स्थानांतरित कर दिया। सिरमौर राज्य के गजट के अनुसार, राजा भीम चंद के साथ मतभेद के कारण उनजी को आनंदपुर साहिब छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था और वे वहाँ से टोका शहर चले गये। मत प्रकाश ने उनको टोका से सिरमौर की राजधानी नाहन के लिए आमंत्रित किया। नाहन से वह पांवटा के लिए रवाना हुए। मत प्रकाश ने गढ़वाल के राजा फतेह शाह के खिलाफ अपनी स्थिति मजबूत करने के उद्देश्य से उनको अपने राज्य में आमंत्रित किया था। राजा मत प्रकाश के अनुरोध पर उन्होंने पांवटा में बहूत कम समय में उनके अनुयायियों की मदद से एक किले का निर्माण करवाया। गुरु जी पांवटा में लगभग तीन साल के लिए रहे और कई ग्रंथों की रचना की। 
सन 1,687 में नादौन की लड़ाई में, गुरु गोबिंद सिंह, भीम चंद और अन्य मित्र देशों की पहाड़ी राजाओं की सेनाओं ने अलिफ़ खान और उनके सहयोगियों की सेनाओं को हरा दिया था। विचित्र नाटक (गुरु गोबिंद सिंह द्वारा रचित आत्मकथा) और भट्ट वाहिस के अनुसार, नादौन पर बने व्यास नदी के तट पर गुरु गोबिंद सिंह आठ दिनों तक रहे और विभिन्न महत्वपूर्ण सैन्य प्रमुखों का दौरा किया।
भंगानी के युद्ध के कुछ दिन बाद, रानी चंपा (बिलासपुर की विधवा रानी) ने गुरु जी से आनंदपुर साहिब (या चक नानकी जो उस समय कहा जाता था) वापस लौटने का अनुरोध किया जिसे गुरु जी ने स्वीकार किया। वह नवंबर 1,688 में वापस आनंदपुर साहिब पहुँच गये।
1,695 में, दिलावर खान (लाहौर का मुगल मुख्य) ने अपने बेटे हुसैन खान को आनंदपुर साहिब पर हमला करने के लिए भेजा। मुगल सेना हार गई और हुसैन खान मारा गया। हुसैन की मृत्यु के बाद, दिलावर खान ने अपने आदमियों जुझार हाडा और चंदेल राय को शिवालिक भेज दिया। हालांकि, वे जसवाल के गज सिंह से हार गए थे। पहाड़ी क्षेत्र में इस तरह के घटनाक्रम औरंगज़ेब लिए चिंता का कारण बन गए और उसने क्षेत्र में मुगल अधिकार बहाल करने के लिए सेना को अपने बेटे के साथ भेजा।
खालसा पंथ की स्थापना में ब्राह्मणों का बहुत भारी योगदान था। उस वक्त पंजाब हर ब्राह्मण परिवार का बड़ा बेटा फौज में भर्ती करा दिया जाता था-सिख (शिष्य) बना दिया जाता था। मराठों के साथ-साथ ब्राह्मणों की फौज (खालसा पन्थियों) ने भी मुगलों की नाक में दम कर रखा था। पहली खालसा फौज का नेतृत्व भाई प्राग दास जी हाथ में था जो कि स्वयं ब्राह्मण थे। उनके बाद उनके पुत्र भाई मोहन दास ने कमान संभाली। सती दास, मती दास, दयाल दास आदि ब्राह्मण खालसा पंथ की फौज के नायक थे। इन्होने गोविन्द सिंह की रक्षा के लिये अपने प्राण न्यौछावर किये थे। पण्डित कृपा दत्त ने गोविन्द सिंह को अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा दी थी। उस वक्त पंजाब में उनसे बड़ा योद्धा कोई नहीं था। जब चालीस मुक्ते मैदान छोड़कर भागे, तब वैरागी ब्राह्मण लक्ष्मण दास जी (बँदा बहादुर) और उनके 14 साल के पुत्र अजय भारद्वाज ने सरहिंद में गोविन्द सिंह के परिवार की रक्षा की और चप्पड़ चिड़ी की लड़ाई में ऐतिहासिक विजय हासिल की। 1,906 में अंग्रेजों की शह पर अकालियों ने खालसा पंथ को सिख धर्म में तब्दील कर दिया। अंग्रेजों के इशारे पर ही गुरुद्वारा प्रबंधक समिति की स्थापना हुई। मेरे अध्यापक डॉक्टर एन. के. दत्त ने बताया कि आजादी से पहले स्वर्ण मन्दिर परिसर में विवाह आदि शुभ कार्य ब्राह्मण परिवार ही कराया करते थे। मेरे अध्यापक (Prof. Dr. N.K. Dutt, CIE-Education Faculty, Delhi University Ex. VC Banaras Hindu University)) जो स्वयं ब्राह्मण थे, के बड़े भाई एक सिख थे, जैसा कि उन्होंने स्वयं कक्षा में बताया था। गुरु गोविन्द सिंह की नान्देड़ में हत्या के समय उनकी फौज में सिपहसलार-सेना नायक, वशिष्ट ब्राह्मण परिवार, बाद में लौटकर जेवर (बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश) के नजदीक 9 गाँवों (मंगरौली, अलावल पुर, सोबोता, बनवारीपुर, थोरे आदि; इन सभी गाँवों की जमीन अब जेवर हवाई अड्डे के लिए अधिग्रहण कर ली गई है) में आकर बस गये। मेरी माँ इन्द्रपुरी-नई दिल्ली के गुरूद्वारे मेरे द्वारा में नियमित रूप से मेरे द्वारा सीधा (भेंट, भोजन सामग्री) भिजवाती थीं। मेरे नाना पण्डित बिहारी लाल, गॉंव मँगरौली, अपने जमाने के बहुत जाने माने और प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वो हमेशां मुंडासा-पगड़ी पहनते थे। उनके बाद उनके पुत्र-मेरे मामा पण्डित घासी राम का बहुत दबदबा था। उनके नाम से कहावत बहुत मशहूर है "मॉल मारे घासी दंड भुगते हुलासी"। इन्द्रा गाँधी (जी कि हकीकत में जो एक मुसलमान थी) और उनका परिवार भी उन्हें मान्यता देता था। 
गुरु गोबिंद सिंह जी का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया ले कर आया। उन्होंने सन 1,699 में बैसाखी के दिन दास जो की सिख धर्म के विधिवत् दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामूहिक रूप है, का निर्माण किया।
सिख समुदाय के एक सभा में उन्होंने सबके सामने पुछा :- "कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है"? उसी समय एक स्वयंसेवक इस बात के लिए राज़ी हो गया और गुरु गोबिंद सिंह उसे तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे एक खून लगी तलवार के साथ। गुरु ने दोबारा उस भीड़ के लोगों से वही सवाल दोबारा पुछा और उसी प्रकार एक और व्यक्ति राज़ी हुआ और उनके साथ गया पर वे तम्बू से जब बाहर निकले तो खून से सनी तलवार उनके हाथ में था। उसी प्रकार पाँचवा स्वयंसेवक जब उनके साथ तम्बू के भीतर गया, कुछ देर बाद गुरु गोबिंद सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे और उन्होंने उन्हें पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया।
उसके बाद गुरु गोबिंद जी ने एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और चीनी मिला कर दुधारी तलवार से घोल कर अमृत का नाम दिया। पहले 5 खालसा के बनाने के बाद उन्हें छठवां खालसा का नाम दिया गया जिसके बाद उनका नाम गुरु गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह रख दिया गया। उन्होंने पाँच ककारों का महत्व खालसा के लिए समझाया और कहा :- केश, कंघा, कड़ा, किरपान, कच्चेरा-कच्छा।
27 दिसम्बर सन्‌ 1,704 को उनके दोनों छोटे साहिबजादे और जोरावत सिंह व फतेह सिंह को दीवारों में चुनवा दिया गया। जब यह हाल गुरु जी को पता चला तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने औरगंजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है।
8 मई सन्‌ 1,705 में मुक्तसर में मुगलों से भयानक युद्ध हुआ, जिसमें उनकी जीत हुई। अक्टूबर सन्‌ 1,706 में वो दक्षिण में गए जहाँ उन्हें औरंगजेब की मृत्यु का पता लगा। औरंगजेब ने मरते समय एक शिकायत पत्र लिखा था। हैरानी की बात है कि जो सब कुछ लुटा चुका था, (गुरुजी) वो फतहनामा लिख रहे थे व जिसके पास सब कुछ था वह शिकस्त नामा लिख रहा है। इसका कारण था सच्चाई। गुरुजी ने युद्ध सदैव अत्याचार के विरुद्ध किए थे न कि अपने निजी लाभ के लिए।
औरंगजेब की मृत्यु के बाद उन्होंने बहादुर शाह जफ़र को बादशाह बनाने में मदद की। गुरुजी व बहादुर शाह के संबंध अत्यंत मधुर थे। इन संबंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीत खाँ घबरा गया। अतः उसने दो पठान उनके पीछे लगा दिए। इन पठानों ने उन पर धोखे से घातक वार किया, जिससे 7 अक्टूबर 1,708 में गोबिन्द सिंह नांदेड साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए। अंत समय में उन्होंने सिक्खों को गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा व खुद भी माथा टेका। गुरुजी के बाद माधोदास (लक्ष्मण दस) ने, जिसे गुरुजी ने सिक्ख बनाया बंदासिंह बहादुर नाम दिया था, सरहद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों की ईंट से ईंट बजा दी।

    
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संतोष महादेव-धर्म विद्या सिद्ध व्यास पीठ (बी ब्लाक, सैक्टर 19, नौयडा)