(1). गृहस्थ-दाम्पत्य जीवन :: भगवान् शिव योगेश्वर हैं, वैरागी है और गृहस्थ में प्रवेश करने जा रहे है। उनके हाथ में त्रिशूल है जो तीन शूल काम, क्रोध, लोभ का प्रतीक है।गृहस्थ में प्रवेश करने से पहले तीनों ही अधीन-वश में हैं। नंदीश्वर पर बैठकर चले हैं, जो कि स्वयं धर्म हैं। अर्थात धर्म किसी भी परिस्थिति में नहीं छोडेगे। उनके भाल पर चंद्रमा सुशोभित है, जो कि मन का प्रतीक है। मन भोला, निर्मल, पवित्र, सशक्त और उज्जवल हो। सिर पर जटाओ का मुकुट है, गृहस्थ में प्रवेश करने जा रहे हैं और गृहस्थी में जंजाल भी बहुत होते हैं। उन जंजाल रूपी जटाओ को, संकट को भी श्रंगार मुकुट बनाकर धारण किया है-स्वीकार किया है।
जटाओं से गंगा की धारा बह रही है, अर्थात गृहस्थी के सिर पर जो जंजालो की जटाए हैं। उनसे विवेक की, भक्ति की, गंगा निकलती है। नागों के आभूषण पहन रखे हैं जो कि इस बात के प्रतीक हैं कि विषैले व्यक्ति भी नियन्त्रण में रहें।
मुंडमाला इस बात का प्रतीक है कि शिव ने मृत्यु को वश में कर रखा है। भस्म रमाके चले है। भस्म काम नाशक है। विवाह में हल्दी लगायी जाती है, जो कि कामवर्द्धक, परन्तु रोगनाशक भी है।
शिव के शरीर पर व्याघ्र चर्म है, व्याघ्र हिंसा व अंहकार का प्रतीक माना जाता है। इसका अर्थ है कि शिव ने हिंसा व अहंकार का दमन कर, उसे अपने नीचे दबा कर चले हैं। गृहस्थ में हिंसा और अहंकार दोनों के लिये ही स्थान नहीं है। स्थान है तो केवल समन्वय-सामंजस्य का।
गृहस्थ में समन्वय आवश्यक है। जहाँ पत्नी, पुत्र और वाहन सभी की पूजा होती है। माँ पार्वती भवानी है, पुत्र गणेश और कार्तिकेय हैं, वाहन नंदी हैं। यहाँ सभी आदरणीय और पूजनीय हैं।पूरा शिव परिवार ही आदरणीय-पूजनीय है।
गले में सर्प हैं।उनकी भी पूजा होती है। अर्थात अपने चरित्र को ऐसा बनाये कि सभी आदर करे। कार्तिकेय का वाहन मोर है, गणेश जी का वाहन चूहा है, माता का वाहन शेर है। मोर सर्प को खाता है। सर्प चूहे को खा जाता है। सिंह, बैल को खाता है। पर यहाँ सभी साथ-साथ प्यार से रहते हैं। यही समन्वय गृहस्थ जीवन-परिवार में होना चाहिये।
भगवान् शिव और माँ पार्वती राम चरित्र की चर्चा करते हैं। भगवान् शिव जी ने ही माँ पार्वती जी को श्री राम कथा सुनाई। पति-पत्नी में संत्संग और राम चर्चा भी हो सकती है। श्रीमद्भागवत में देवहुति और कर्दम जी के गृहस्थ जीवन में प्रवेश होने पर 14 वर्षों तक दोनों पति पत्नी के बीच में केवल सत्संग ही हुआ तत्पश्चात गृहस्थ में प्रवेश किया। इसलिए भगवान कपिल के रूप में उनके यहाँ अवतरित हुए।
माता सती के वियोग के उपरान्त भगवान् शंकर तपस्या में लीन हो गए। माँ सती ने शरीर का त्याग करते समय संकल्प किया था कि मैं पुनः जन्म लेकर हिमवान-हिमालय के यहाँ जन्म लेकर भगवान् शंकर की अर्द्धांगिनी बनुँगी। देवताओं की योजनानुसार माता हिमालय की पत्नी मेनका के गर्भ में प्रविष्ट होकर उनकी कोख से प्रकट हुईं। पर्वतराज की पुत्री होने के कारण माँ भगवती जगदम्बा पार्वती कहलाईं। उनके सयानी होने पर सयानी माता-पिता को उनके योग्य वर की चिंता सताने लगी।
विधि के अनुसार एक दिन अचानक देवर्षि नारद राजा हिमालय के महल में आ पहुँचे और माँ पार्वती का हाथ देखकर कहने लगे कि उनका विवाह भगवान् शंकर के साथ होना चाहिए और वे ही सभी दृष्टि से उनके योग्य हैं। पार्वती के माता-पिता को नारद ने जब यह बताया कि पार्वती साक्षात जगदम्बा के रुप में इस जन्म में आपके यहा प्रकट हुई हैं तो उन्हें अपार आनन्द हुआ।
तपस्या से उपरति के पश्चात भगवान् शिव घूमते-घुमाते हिमालय प्रदेश में जा पहुँचे। माँ को तपस्या करते हुए पाया तो उन्होंने माँ की परीक्षा ली और संतुष्ट हुए। माँ भी उनको पाने के लिए अनवरत तपस्या में लीं थीं। भोले बाबा नट का रूप धारण करके हिमालय के यहाँ पहुँचे और भाँति-भाँति के करतव दिखाने लगे। पर्वतराज की पत्नी मैना ने उन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप धारण करने को कहा तो प्रभु तत्काल इन तीनों ही रूपों में प्रकट हो गए। अन्ततोगत्वा हिमालय और उनकी पत्नी मैना भगवान् शिव से उनकी पुत्री को पत्नी के रूप में ग्रहण करने की प्रार्थना की। भगवान् शिव माँ पार्वती की भक्ति देखकर वे उनका आग्रह नहीं टाल पाये। भगवान् शिव से अनुमति मिलने के बाद माँ पार्वती प्रतिदिन अपनी सखियों को साथ ले भोले बाबा की सेवा करने लगीं। माँ पार्वती इस बात का सदा ध्यान रखती थीं कि भगवान् शिव को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो। माता पार्वती प्रतिदिन भगवान् शिव के चरण धोकर चरणोदक ग्रहण करतीं और षोडशोपचार से पूजा करतीं। इसी तरह माँ पार्वती को भगवान शंकर की सेवा करते दीर्घ समय व्यतीत हो गया। किन्तु पार्वती जैसी सुंदर बाला से इस प्रकार एकांत में सेवा लाभ लेते रहने पर भी भगवान शंकर के मन में कभी विकार उत्पन्न नहीं हुआ।
त्रिपुरारी शिव हमेशा अपनी समाधि में ही निश्चल रहते। उधर देवताओं को तारक नाम का असुर बड़ा त्रास दे रहा था। ब्रह्मा जी ने उस सभी देवता को बताया, इस दैत्य की मृत्यु केवल शिव जी के वीर्य से उत्पन्न पुत्र के हाथों ही हो सकती हैं। सभी देवता शिव-पार्वती का विवाह कराने का प्रयास करने लगे। देवताओं ने शिव को पार्वती के प्रति अनुरक्त करने के लिए कामदेव को उनके पास भेजा, किन्तु पुष्पायुध का पुष्पबाण भी शंकर के मन को विक्षुब्ध न कर सका। उलटा कामदेव भगवान् शिव की क्रोधाग्नि से भस्म हो गए।
तदोपरांत भगवान् शिव कैलास की ओर चल दिए। माँ पार्वती को भगवान् शंकर की सेवा से वंचित होने का बड़ा दुःख हुआ, किंतु उन्होंने निराश न होकर अब की बार तप द्वारा शंकर को संतुष्ट करने की मन में ठानी।
उनकी माता ने उन्हें सुकुमार एवं तप के अयोग्य समझकर बहुत मना किया, किन्तु पार्वती पर इसका कोई असर नहीं हुआ। पार्वती अपने संकल्प से वे तनिक भी विचलित नहीं हुईं। माता पर्वती भी घर से निकल उसी शिखर पर तपस्या करने लगीं, जहाँ शिवजी ने तपस्या की थी। शिखर पर तपस्या में माँ पार्वती ने पहले वर्ष फलाहार से जीवन व्यतीत किया, दूसरे वर्ष वे वृक्षों के पत्ते खाकर रहने लगीं और फिर तो उन्होंने पर्ण का भी त्याग कर दिया।
इस प्रकार पार्वती ने तीन हजार वर्ष तक तपस्या की। माँ पार्वती कि कठोर तपस्या को देख ऋषि-मुनि भी दंग रह गए। अंत में भगवान भोले का आसन हिला। उन्होंने पार्वती की परीक्षा के लिए पहले सप्तर्षियों को भेजा और पीछे स्वयं वटुवेश धारण कर पार्वती की परीक्षा के निमित्त प्रस्थान किया।
जब भगवान् शिवने सब प्रकार से जाँच-परखकर देख लिया कि पार्वती कि उनमें अविचल निष्ठा हैं, तब तो वे अपने को अधिक देर तक न छिपा सके। वे तुरंत अपने असली रूप में पार्वती के सामने प्रकट हो गए और उन्हें पाणिग्रहण का वरदान देकर अंतर्धान हो गए।
पार्वती अपने तप को पूर्ण होते देख घर लौट आईं और अपने माता-पिता से सारा वृत्तांत कह सुनाया। अपनी दुलारी पुत्री की कठोर तपस्या को फलीभूत होता देखकर माता-पिता के आनंद का ठिकाना नहीं रहा। भगवान् शंकर ने सप्तर्षियों को विवाह का प्रस्ताव लेकर हिमालय के पास भेजा और इस प्रकार विवाह की शुभ तिथि निश्चित होगई।
सप्तर्षियों द्वारा विवाह की तिथि निश्चित कर दिए जाने के बाद भगवान् शंकरजी ने नारदजी द्वारा सारे देवताओं को विवाह में सम्मिलित होने के लिए आदरपूर्वक निमंत्रित किया और अपने गणों को बारात की तैयारी करने का आदेश दिया।
भगवान् शिव के इस आदेश से अत्यंत प्रसन्न होकर गणेश्वर शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, विकृतानन, दुन्दुभ, कपाल, कुंडक, काकपादोदर, मधुपिंग, प्रमथ, वीरभद्र आदि गणों के अध्यक्ष अपने-अपने गणों को साथ लेकर चल पड़े।नंदी, क्षेत्रपाल, भैरव आदि गणराज भी कोटि-कोटि गणों के साथ निकल पड़े। ये सभी तीन नेत्रों वाले थे। सबके मस्तक पर चंद्रमा और गले में नीले चिन्ह थे। सभी ने रुद्राक्ष के आभूषण पहन रखे थे। सभी के शरीर पर उत्तम भस्म लगी हुई थी।इन गणों के साथ शंकरजी के भूतों, प्रेतों, पिशाचों की सेना भी आकर सम्मिलित हो गई। इनमें डाकनी, शाकिनी, यातुधान, वेताल, ब्रह्मराक्षस आदि भी शामिल थे। इन सभी के रूप-रंग, आकार-प्रकार, चेष्टाएँ, वेश-भूषा, हाव-भाव आदि सभी कुछ अत्यंत विचित्र थे। वे सबके सब अपनी तरंग में मस्त होकर नाचते-गाते और मौज उड़ाते हुए शंकरजी के चारों ओर एकत्रित हो गए।
चंडीदेवी बड़ी प्रसन्नता के साथ उत्सव मनाती हुई भगवान रुद्रदेव की बहन बनकर वहाँ आ पहुँचीं। उन्होंने सर्पों के आभूषण पहन रखे थे। वे प्रेत पर बैठकर अपने मस्तक पर सोने का कलश धारण किए हुए थीं।धीरे-धीरे वहाँ सारे देवता भी एकत्र हो गए। उस देवमंडली के बीच में भगवान श्री विष्णु गरुड़ पर विराजमान थे। पितामह ब्रह्माजी भी उनके पास में मूर्तिमान्वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों, सनकाद महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा कई परिजनों के साथ उपस्थित थे।
देवराज इंद्र भी कई आभूषण पहन अपने ऐरावत गज पर बैठ वहाँ पहुँचे थे। सभी प्रमुख ऋषि भी वहाँ आ गए थे। तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि श्रेष्ठ गंधर्व तथा किन्नर भी शिवजी की बारात की शोभा बढ़ाने के लिए वहाँ पहुँच गए थे। इनके साथ ही सभी जगन्माताएँ, देवकन्याएँ, देवियाँ तथा पवित्र देवांगनाएँ भी वहाँ आ गई थीं। इन सभी के वहाँ मिलने के बाद भगवान शंकरजी अपने स्फुटिक जैसे उज्ज्वल, सुंदर वृषभ पर सवार हुए। दूल्हे के वेश में शिवजी की शोभा निराली ही छटक रही थी। इस दिव्य और विचित्र बारात के प्रस्थान के समय डमरुओं की डम-डम, शंखों के गंभीर नाद, ऋषियों-महर्षियों के मंत्रोच्चार, यक्षों, किन्नरों, गन्धर्वों के सरस गायन और देवांगनाओं के मनमोहक नृत्य और मंगल गीतों की गूँज से तीनों लोक परिव्याप्त हो उठे।
उधर हिमालय ने विवाह के लिए बड़ी धूम-धाम से तैयारियाँ कीं और शुभ लग्न में शिवजी की बारात हिमालय के द्वार पर आ लगी। पहले तो शिवजी का विकट रूप तथा उनकी भूत-प्रेतों की सेना को देखकर मैना बहुत डर गईं और उन्हें अपनी कन्या का पाणिग्रहण कराने में आनाकानी करने लगीं। पीछे से जब उन्होंने शंकरजी का करोड़ों कामदेवों को लजाने वाला सोलह वर्ष की अवस्था का परम लावण्यमय रूप देखा तो वे देह गेह कि सुधि भूल गईं और शंकर पर अपनी कन्या के साथ ही साथ अपनी आत्मा को भी न्योछावर कर दिया। शिव गौरी का विवाह आनंद पूर्वक संपन्न हुआ। हिमाचल ने कन्यादान दिया। विष्णु भगवान तथा अन्यान्य देव और देव-रमणियों ने नाना प्रकार के उपहार भेंट किए। ब्रह्माजी ने वेदोक्त रीति से विवाह करवाया। सब लोग अमित उत्साह से भरे अपने-अपने स्थानों को लौट गए।
(2). भगवान् शिव और माता पार्वती का विवाह :: जगत् के सभी छोटे बड़े पर्वत, वन, समुद्र, नदियाँ तालाब आदि हिमाचल का निमन्त्रण पाकर इच्छानुसार रूप धारण कर उस विवाह में सम्मिलित थे। हिमाचल के नगर को सुन्दरतापूर्वक सजाया गया था।
हिमवान के घर से भगवान् शिव को लग्न पत्रिका भेजी गई, जिसे उन्होंने विधिपूर्वक बाँच कर हर्ष के साथ स्वीकार किया तथा लग्न-पत्रिका लाने वालों का यथोचित आदर-सम्मान कर, उन्हें विदा किया। तदनंतर, भगवान् शिव ने ऋषियों से कहा कि, "आप लोगों ने उनके कार्य का भली प्रकार से संपादन किया, अब उन्होंने विवाह स्वीकार कर लिया हैं, अतः सभी को विवाह में चलना चाहिये।" तदनंतर, भगवान् शिव ने नारद जी का स्मरण किया, जिस कारण वे तक्षण ही वहां उपस्थित हुए। भगवान् शिव ने उनसे कहा, “नारद! तुम्हारे उपदेश से ही पार्वती ने कठोर तपस्या कर मुझे संतुष्ट किया हैं तथा मैंने उनका पति रूप से पाणिग्रहण करने का निश्चय किया। सप्त-ऋषियों ने लग्न का साधन और शोधन कर दिया हैं, आज से सातवें दिन मेरा विवाह हैं। इस अवसर पर मैं लौकिक रीति का आश्रय लेकर महान उत्सव करूँगा, तुम भगवान् विष्णु आदि सब देवताओं, मुनियों, सिद्धों तथा अन्य लोगों को मेरे ओर से निमंत्रित करो।" भगवान् शिव की आज्ञानुसार नारद जी ने तीनों लोकों में सभी को शिव-विवाह का निमंत्रण दिया तथा अंततः कैलाश पर लौट आयें।
सप्तर्षियों ने हिमाचल के घर जाकर भगवान् शिव और पार्वती के विवाह के लिये वेद की विधि के अनुसार शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और शुभ घड़ी का निश्चय कर लग्नपत्रिका तैयार कर ब्रह्मा जी के पास पहुँचा दिया। भगवान् शिव के विवाह की सूचना पाकर समस्त देवता अपने विमानों में आरूढ़ होकर भगवान् शिव के यहाँ पहुँच गये।
भगवान् शिव के गणों ने भगवान् शिव की जटाओं का मुकुट बनाकर और सर्पों के मौर, कुण्डल, कंकण उनका श्रृंगार किया और वस्त्र के स्थान पर बाघम्बर लपेट दिया। तीन नेत्रों वाले भगवान् शिव के सुन्दर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगा जी, गले में विष और वक्ष पर मुण्डों की माला शोभा दे रही थी। उनके एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में डमरू सुशोभित थे।
चंडी देवी बड़ी प्रसन्नता के साथ उत्सव मनाती हुई भगवान् रुद्रदेव की बहन बनकर वहाँ आ पहुँचीं। उन्होंने सर्पों के आभूषण पहन रखे थे। वे प्रेत पर बैठकर अपने मस्तक पर सोने का कलश धारण किए हुए थीं।
धीरे-धीरे वहाँ सारे देवता भी एकत्र हो गए। उस देवमंडली के बीच में भगवान् श्री विष्णु गरुड़ पर विराजमान थे। पितामह ब्रह्माजी भी उनके पास में मूर्तिमान्वेदों, शास्त्रों, पुराणों, आगमों, सनकादि महासिद्धों, प्रजापतियों, पुत्रों तथा कई परिजनों के साथ उपस्थित थे।
देवराज इंद्र भी कई आभूषण पहन अपने ऐरावत गज पर बैठ वहाँ पहुँचे थे। सभी प्रमुख ऋषि भी वहाँ आ गए थे। तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि श्रेष्ठ गंधर्व तथा किन्नर भी भगवान् शिव की बारात की शोभा बढ़ाने के लिए वहाँ पहुँचे। इनके साथ ही सभी जगन्माताएँ, देवकन्याएँ, देवियाँ तथा पवित्र देवांगनाएँ भी वहाँ आ गई थीं। इन सभी के वहाँ मिलने के बाद भगवान् शंकर अपने स्फुटिक जैसे उज्ज्वल, सुंदर वृषभ पर सवार हुए। दूल्हे के वेश में भगवान् शिव की शोभा निराली ही थी। इस दिव्य और विचित्र बारात के प्रस्थान के समय डमरुओं की डम-डम, शंखों के गंभीर नाद, ऋषियों-महर्षियों के मंत्रोच्चार, यक्षों, किन्नरों, गन्धर्वों के सरस गायन और देवांगनाओं के मनमोहक नृत्य और मंगल गीतों की गूँज से तीनों लोक परिव्याप्त हो उठे।
भगवान् शिव बैल पर चढ़ कर चले। बाजे बज रहे थे। देवांगनाएँ उन्हें देख कर मुस्कुरा रही थीं और विनोद पूर्वक कह रही थीं कि इस वर के योग्य दुलहिन संसार में शायद ही हो। ब्रह्मा, विष्णु सहित समस्त देवताओं के साथ ही साथ भगवान् शिव जी समस्त गण भी बाराती थे। उनके गणों में कोई बिना मुख का था तो किसी के अनेक मुख थे, कोई बिना हाथ पैर का था तो किसी के कई हाथ पैर थे, किसी की एक भी आँख नहीं थी तो किसी के बहुत सारी आँखें थीं, कोई पवित्र वेष धारण किये था तो कोई बहुत ही अपवित्र वेष धारण किया हुआ था। सब मिला कर प्रेत, पिशाच और योगनियों की जमात चली जा रही थी बारात के रूप में।
इनमें डाकनी, शाकिनी, यातुधान, वेताल, ब्रह्मराक्षस आदि भी शामिल थे। इन सभी के रूप-रंग, आकार-प्रकार, चेष्टाएँ, वेश-भूषा, हाव-भाव आदि सभी कुछ अत्यंत विचित्र थे। वे सबके सब अपनी तरंग में मस्त होकर नाचते-गाते और मौज उड़ाते हुए भगवान् शंकर के चारों ओर एकत्रित हो गए।
गणेश्वर शंखकर्ण, केकराक्ष, विकृत, विशाख, विकृतानन, दुन्दुभ, कपाल, कुंडक, काकपादोदर, मधुपिंग, प्रमथ, वीरभद्र आदि गणों के अध्यक्ष अपने-अपने गणों को साथ लेकर चल पड़े।
नंदी, क्षेत्रपाल, भैरव आदि गणराज भी कोटि-कोटि गणों के साथ निकल पड़े। ये सभी तीन नेत्रों वाले थे। सबके मस्तक पर चंद्रमा और गले में नीले चिन्ह थे। सभी ने रुद्राक्ष के आभूषण पहन रखे थे। सभी के शरीर पर उत्तम भस्म लगी हुई थी।
इन गणों के साथ भगवान् शंकर के भूतों, प्रेतों, पिशाचों की सेना भी आकर सम्मिलित हो गई।
भगवान् शिव के सभी गण भारी उत्सव माना रहें थे, भगवान् विष्णु अपनी पत्नी माता लक्ष्मी के साथ आपने पार्षदों सहित, साथ ही भगवान् ब्रह्मा अपने गणों के साथ कैलाश पर आये। समस्त लोकपाल भी अपनी पत्नियों के साथ सज-धज कर कैलाश पर आये; मुनि, नाग, सिद्ध, उप-देवता तथा अन्य लोग भी कैलाश पर गए तथा शिव-गणों के साथ उत्सव मनाने लगे। भगवान् शिव ने अपने स्वाभाविक भेष के अनुसार ही नाना आभूषणों को धारण किया, उनका स्वरूप बड़ा ही आकर्षक था। कैलाश पर उपस्थित सभी उनके विवाह में जाने हेतु तैयार हुए, भगवान् विष्णु ने भगवान् शिवसे कहा! “गृह-सुत्रोक्त विधि के अनुसार आप पार्वती से विवाह करें, जिससे यह विधि लोक-विख्यात हो जाये तथा अपने कुलधर्म के अनुसार मंडप-स्थापन एवं नंदी-मुख श्राद्ध भी करें।” भगवान् विष्णु के कथन अनुसार भगवान् शिव ने विधिपूर्वक समस्त कार्य किये, उनके समस्त कार्य स्वयं भगवान् ब्रह्मा तथा उनके नाना महर्षि पुत्र आभ्युदयिक करने लगे। सभी ऋषियों ने बड़े हर्ष के साथ बहुत से मांगलिक कार्य किये, विघ्नों के शांति हेतु ग्रहों और समस्त मंडलवर्ती देवताओं का पूजन किया गया। समस्त प्रकार के लौकिक, वैदिक कर्म यथोचित रीति से कर भगवान् शिव बहुत संतुष्ट हुए, तदनंतर वे ऋषियों तथा देवताओं को आगे कर कैलाश से हिमवान के घर जाने हेतु निकले। उन्होंने अपने कुछ गणों को कैलाश पर ही ठहरने तथा बाकी गणों को हिमालय की नगरी की ओर प्रस्थान करने का आदेश दिया।
अपने स्वामी द्वारा आदेश पाकर, सभी प्रमथ इत्यादि गण, भूत-प्रेतों के संग महान उत्सव करते हुए चले। नंदी, भैरव एवं क्षेत्रपाल असंख्य गणों के साथ भारी उत्सव मानते हुए चले, वे सभी अनेक हाथों से युक्त थे, सर पर जटा, उत्तम भस्म तथा रुद्राक्ष इत्यादि आभूषण धारण किये हुए थे। चंडी देवी, रुद्र के बहन रूप में उत्सव मानते हुए माथे पर सोने का कलश धारण किये हुई थीं, वे अपने वाहन प्रेत पर आरूढ़ थीं। उस समय डमरुओं के घोष, भेरियों की गड़गड़ाहट तथा शंख-नाद से तीनों लोक गूंज उठा था, दुन्दुभियों की ध्वनि से महान कोलाहल हो रहा था। समस्त देवता, शिव गणों के पीछे रहकर बरात का अनुसरण कर रहें थे, समस्त लोकपाल तथा सिद्ध-गण भी उन्हीं के साथ थे। देवताओं के मध्य में गरुड़ पर विराज-कर भगवान् विष्णु चल रहें थे, उनके पार्षदों ने उन्हें नाना आभूषणों से विभूषित किया था, साथ ही भगवान् ब्रह्मा भी वेद-पुराणों के साथ थे। शाकिनी, यातुधान, बेताल, ब्रह्म-राक्षस, भूत, प्रेत, पिशाच, प्रमथ, गन्धर्व, किन्नर बड़े हर्ष के साथ नाना प्रकार की ध्वनि करने हुए चल रहें थे। देव-कन्याएँ, जगन्माताऍ तथा अन्य देवांगनाएँ बड़ी प्रसन्नता के साथ भगवान् शिव के विवाह में सम्मिलित होने हेतु आयें थे।
सर्वप्रथम भगवान् शिव ने नारद जी को हिमालय के घर भेजा, वे वहाँ की सजावट देखकर दंग रह गए। देवताओं, अन्य लोगों तथा अपने गणों सहित भगवान् शिव हिमालय के नगर के समीप आयें, हिमालय ने नाना पर्वतों तथा ब्राह्मणों को उनसे वार्तालाप करने तथा अगवानी हेतु भेजा। समस्त देवताओं को भगवान् शिव के बरात में देखकर हिमालय-राज को बड़ा ही विस्मय हुआ तथा वे अपने आप को धन्य मानने लगे। भगवान् शिव को अपने सामने देखकर हिमवान ने उन्हें प्रणाम किया, साथ ही पर्वतों तथा ब्राह्मणों ने भी उनकी वंदना की। भगवान् शिव अपने वाहन वृषभ पर आरूढ़ थे, उनके बाएँ भाग में भगवान् विष्णु तथा दाहिने भाग में भगवान् ब्रह्मा उपस्थित थे। हिमवान ने अन्य सभी देवताओं को भी मस्तक झुकाया, तत्पश्चात भगवान् शिव की आज्ञा से वे सभी को अपने नगर में ले गए।
भगवान् शिव का भेष बड़ा ही निराला हैं, समस्त प्रकार के विस्मित कर देने वाले तत्व इन्हें प्रिय हैं। वे अद्भुत वर के रूप में सज-धज कर अपनी बारात ले हिमालय राज के घर गए थे; ये वृषभ पर आरूढ़ थे, शरीर में चिता भस्म लगाये हुए, पाँच मस्तकों से युक्त थे, बाघाम्बर एवं गज चर्म इन्होंने वस्त्र के रूप में धारण कर रखा था। आभूषण के रूप में हड्डियों, मानव खोपड़ियों तथा रुद्राक्ष की माला शरीर में धारण किये हुए थे, अपने दस हाथों में खप्पर, पिनाक, त्रिशूल, डमरू, धनुष आदि अस्त्र-शस्त्र धारण किये हुए थे। साथ ही इनके संग आने वाले समस्त बाराती या गण भूत-प्रेत, बेताल इत्यादि भयंकर भय-भीत कर देने वाले अद्भुत रूप में थे। मर्मर नाद करते हुए, बवंडर के समान, टेढें-मेढें मुंह तथा शरीर वाले अत्यंत कुरूप, लंगड़े-लूले-अंधे, दंड, पाश, मुद्गर, हड्डियाँ, धारण किये हुए थे। बहुत से गणो के मस्तक नहीं थे तथा किन्हीं के एक से अधिक मस्तक थे, कोई बिना हाथ के तथा उलटे हाथ वाले, बहुत से मस्तक पर कई चक्षु वाले, कुछ नेत्र हीन थे तथा कुछ एक ही चक्षु वाले थे, किसी के बहुत से कान थे और किसी के एक भी नहीं थे।
सभी बाराती जब हिमाचल नगरी के पास पहुँचे तब नारद जी ने गिरिराज हिमालय को सूचना दी। हिमवान तत्काल ही विभिन्न स्वागत सामग्रियों के साथ भगवान् शिव का दर्शन करने चल पड़े। उन्होंने समस्त देव सम्माज को अपने यहाँ आया देख कर आनंदमग्न हो गए। उन्होंने भाव विभोर होकर समस्त देवताओं का स्वागत किया। हिमराज, मन ही मन सोचने लगे कि उनसे ज्यादा भाग्यवान कोई नहीं है। उन्होंने सभी का स्वागत सत्कार किया और सभी को प्रणाम कर, अपने निवास स्थान पर लौट आये।
इस अवसर पर मैना के मन में भगवान् शिव के दर्शन की इच्छा हुई तथा उन्होंने नारद जी को बुलवाया तथा उनसे कहने लगी कि! पार्वती ने जिसके हेतु कठोर तप किया, सर्व प्रथम मैं उन भगवान् शिव को देखूुँगी। भगवान् शिव, मैना के मन के अहंकार को समझ गए थे, इस कारण उन्होंने भगवान् श्री हरी विष्णु तथा भगवान् ब्रह्मा सहित समस्त देवताओं को पहले ही भवन में प्रवेश करा दिया तथा स्वयं पीछे से आने का निश्चय किया।
इस उद्देश्य से मैना अपने भवन के ऊपर नारद जी संग गई एवं बारात को भली प्रकार से देख रहीं थीं। प्रत्येक दल के स्वामी को देखकर मैना, नारद जी से पूछती थीं, क्या यही भगवान् शिव हैं? नारद जी उत्तर देते थे कि यह तो भगवान् शिव के सेवक हैं। मैना मन ही मन आनंद से विभोर हो सोचने लगती, जिसके सेवक इतने सुन्दर हैं उनके स्वामी पता नहीं कितने सुन्दर होंगे। भगवान् विष्णु के अद्भुत स्वरूप को देखकर मैना को लगा की "अवश्य ही वे भगवान् शिव हैं, इसमें संशय नहीं हैं।" इस पर नारद जी ने कहा! “वे भी पार्वती के वर नहीं हैं, वे तो केशव श्री हरी विष्णु हैं। पार्वती के वर तो इनसे भी अधिक सुन्दर हैं, उनकी शोभा का वर्णन नहीं हो सकता हैं। इस पर मैना ने अपने आप को बहुत ही सौभाग्यशाली मना, जिसने पार्वती को जन्म दिया, वे इस प्रकार सोच ही रहीं थी की भगवान् शिव सामने आ गए। उनकी तथा उनके गणों की भेष-भूषा तथा स्वरूप उनके अभिमान को चूर-चूर करने वाले थे, नारद जी ने भगवान् शिव को इंगित कर मैना को बताया की वे ही पार्वती के पति भगवान् शिव हैं।
सर्वप्रथम मैना ने भूत-प्रेतों से युक्त नाना शिव-गणों को देखा; उनमें से कितने ही बवंडर का रूप धारण किये हुए, टेढ़े-मेंढ़े मुखाकृति और मर्मर ध्वनि करने वाले थे। प्रायः सभी बहुत ही कुरूप स्वरूप वाले थे, कुछ विकराल थे, किन्हीं का मुंह दाढ़ी-मूँछ से भरा हुआ था, बहुत से लंगड़े थे तो कई अंधे, किसी की एक से अधिक आँख थे तो किसी की एक भी नहीं, कोई बहुत हाथ तथा पैर वाले थे तो कुछ एक हाथ एवं पैर युक्त। वे सभी गण दंड, पाश तथा मुद्गर इत्यादि धारण किये हुए बारात में आयें थे, कोई वाहन उलटे चला रहे थे, कोई सींग युक्त थे, कई डमरू तथा गोमुख बजाते थे, कितने ही गण मस्तक विहीन थे। कुछ एक के उलटे मुख थे तो किसी के बहुत से मुख थे, किन्हीं के बहुत सारे कान थे, कुछ तो बहुत ही डरावने दिखने वाले थे, वे सभी अद्भुत प्रकार की भेष-भूषा धारण किये हुए थे। वे सभी गण बड़े ही विकराल स्वरूप वाले तथा भयंकर थे, जिनकी कोई सँख्या नहीं थीं। नारद जी ने उन सभी गणों को मैना को दिखाते हुए कहा, पहले आप भगवान् शिव के सेवकों को देखे, तदनंतर उनके भी दर्शन करना। परन्तु, उन असंख्य विचित्र-कुरूप-भयंकर स्वरूप वाले भूत-प्रेतों को देखकर मैना (मैना) भय से व्याकुल हो गई।
इन्हीं गणो के बीच में भगवान् शिव अपने वाहन वृषभ पर सवार थे, नारद जी ने अपनी उँगली से इंगित कर उन्हें मैना को दिखाया। उनके पञ्च मुख थे और सभी मुख पर 3 नेत्र थे, मस्तक पर विशाल जटा समूह था। उन्होंने शरीर में भस्म धारण कर रखा था, जो उनका मुख्य आभूषण हैं तथा दस हाथों से युक्त थे, मस्तक पर जटा-जुट और चन्द्रमा का मुकुट धारण किये हुए थे। वे अपने हाथों में कपाल, त्रिशूल, पिनाक इत्यादि अस्त्र धारण किये हुए थे, उनकी आँखें बड़े ही भयानक दिख रहीं थीं, वे शरीर पर बाघाम्बर तथा हाथी का चर्म धारण किये हुए थे।भगवान् शिव का ऐसा रूप देखकर मैना भय के मरे व्याकुल हो गई, काँपने लगी तथा भूमि पर गिर गयी एवं मूर्छित हो गई। वहां उपस्थित स्वजनों ने मैना की नाना प्रकार की सेवा कर उन्हें स्वस्थ किया।
[यहाँ भावना का प्रश्न है। जाकि रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तीन तैसी।]
जब मैना को चेत हुआ, तब वे अत्यंत क्षुब्ध हो विलाप करने लगी तथा अपने पुत्री को दुर्वचन कहने लगी; साथ ही उन्होंने नारद मुनि को भी बहुत उलटा-सीधा सुनाया। मैना, नारद जी से बोलीं, “भगवान् शिव को पति रूप में प्राप्त करने हेतु पार्वती को तपस्या करने का पथ तुमने दिखाया, तदनंतर हिमवान को भी शिव-पूजा करने का परामर्श दिया, इसका फल ऐसा अनर्थकारी एवं विपरीत होगा यह मुझे ज्ञात नहीं था। दुर्बुद्धि देवर्षि! तुमने मुझे ठग लिया हैं, मेरी पुत्री ने ऐसा तप किया जो महान मुनियों के लिए भी दुष्कर हैं, इसका उसे ऐसा फल मिला? यह सभी को दुःख में ही डालने वाला हैं। हाय! अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मेरे जीवन का नाश हो गया हैं, मेरा कुल भ्रष्ट हो गया हैं, वे सभी दिव्य सप्त-ऋषि कहा गए? उनकी तो मैं दाड़ी-मूँछ नोच लुंगी, वशिष्ठ जी की पत्नी भी बड़ी ही धूर्त निकली। पता नहीं किस अपराध से मेरा सब कुछ नष्ट हो गया हैं"।
तदनंतर, वे पार्वती की ओर देखकर दुर्वचन कहने लगी, “अरी दुष्ट ! तूने यह क्या किया? मुझे दुःखी किया हैं, तूने सोना देकर काँच का क्रय किया, चन्दन छोड़कर अपने अंगों में कीचड़ लगाया हैं। प्रकाश की लालसा में सूर्य को छोड़कर जतन कर जुगनू को पकड़ा हैं, गंगा जल का त्याग कर कुएँ का जल पीया है, सिंह का सेवन छोड़कर सियार के पास गई हैं। घर में रखी हुई यश की मंगलमयी विभूति का त्याग कर चिता की अमंगल भस्म अपने पल्लू में बाँधा हैं, तुमने सभी देवताओं को छोड़कर, शिव को पाने के लिए इतना कठोर तप किया हैं! तुझको धिक्कार हैं! धिक्कार हैं! तपस्या हेतु उपदेश देने वाले दुर्बुद्धि नारद तथा तेरी सखियों को धिक्कार हैं! हम दोनों माता-पिता को धिक्कार हैं, जिसने तुझ जैसी दुष्ट कन्या को जन्म दिया हैं! सप्त-ऋषियों को धिक्कार हैं! तूने मेरा घर ही जला कर रखा दिया हैं, यह तो मेरा साक्षात् मरण ही हैं। हिमवान अब मेरे समीप न आयें, सप्त-ऋषि मुझे आज से अपना मुँह न दिखाए, तूने मेरे कुल का नाश कर दिया हैं, इससे अच्छा तो यह था की मैं बाँझ ही रह जाती। मैं आज तेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर, तेरा त्याग करके कही और चली जाऊंगी, मेरा तो जीवन ही नष्ट हो गया हैं"।
ऐसा कहकर मैना पुनः मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी, उस समय सभी देवता उनके निकट गए। पुनः उनकी चेतना वापस आने पर नारद जी उनसे बोले, “आपको पता नहीं भगवान् शिव का स्वरूप बड़ा ही मनोरम हैं, आपने जो देखा वह उनका यथार्थ रूप नहीं हैं। आप अपने क्रोध का त्याग कर स्वस्थ हो जाइये तथा पार्वती-शिव के विवाह में अपने कर्तव्य को पूर्ण करें"। इस पर मैना अधिक क्रोध-युक्त होकर नारद जी से बोलीं! “मुनिराज आप दुष्ट तथा अधमों के शिरोमणि हैं, आप यहाँ से दूर चले जाए।” मैना द्वारा इस प्रकार कहने पर देवराज इंद्र तथा अन्य देवता और दिक्पाल मैना से बोले, “तुम हमारे वचनों को प्रसन्नता पूर्वक सुनो! भगवान् शिव उत्कृष्ट देवता तथा सभी को उत्तम सुख प्रदान करने वाले हैं, आपकी कन्या के तप से प्रसन्न होकर ही उन्होंने पार्वती को उत्तम वर प्रदान किया हैं। यह सुनकर मैना देवताओं से विलाप कर कहने लगी! “उस शिव का स्वरूप बड़ा ही डरावना हैं, मैं उसके हाथों में अपनी कन्या का दान नहीं करूँगी, सभी देवता मेरी कन्या के उत्कृष्ट स्वरूप को क्यों प्रपंच कर व्यर्थ करने हेतु उद्धत हैं?" तदनंतर, मैना के पास सप्त-ऋषि गण आयें और कहने लगे, “पितरों की कन्या मैना, हम तुम्हारे कार्य सिद्धि हेतु आयें हैं। जो कार्य उचित हैं, उसे तुम्हारे हठ के कारण हम विपरीत क्यों मान ले? भगवान् शिव देवताओं में सर्वोच्च हैं, वे साक्षात दान पात्र होकर तुम्हारे घर पर आयें हैं।” इसपर मैना को भरी क्रोध हुआ तथा उन्होंने कहा! “मैं अपनी कन्या के अस्त्र से टुकड़े-टुकड़े कर दूंगी, परन्तु उस शिव के हाथों में अपनी पुत्री को नहीं दुँगी, तुम सब मेरे सामने से चले जाओ और कभी मेरे सामने ना आना"।
पार्वती की माता के हठ त्याग न करने पर वहाँ हाहाकार मच गया, तदनंतर हिमवान, मैना के पास आयें और प्रेम पूर्वक नाना तत्त्वों को दर्शाते हुए उन्हें समझाने लगे। उन्होंने कहा! “तुम इस प्रकार व्याकुल क्यों हो रही हो? मेरी बातों को ध्यान पूर्वक सुनो! भगवान् शिव के नाना रूपों को तुम भली प्रकार जानती हो, इस पर भी तुम उनकी निंदा क्यों कर रही हो? उनके विकट रूप को देखकर तुम घबरा गई हो, वे ही सबके पालक हैं, अनुग्रह तथा निग्रह करने वाले हैं, सबके पूजनीय हैं। पहली बार यहाँ आकर उन्होंने कैसी लीलाएँ की थीं, क्या तुम्हें वह सब स्मरण नहीं है?” इसपर मैना ने हिमवान से कहा! “आप अपनी पुत्री के गले में रस्सी बाँध कर, उसे पर्वत से नीचे गिरा दीजिये या इसे ले जाकर निर्दयता पूर्वक सागर में डूबा दीजिये, मैं पार्वती को शिव के हाथों में नहीं दूुँगी। यदि आपने पुत्री का दान विकट रूपधारी शिव को किया तो मैं अपना शरीर त्याग दूंगी।“ मैना के इस प्रकार के वचनों को सुनकर पार्वती स्वयं अपनी माता से आकर बोलीं, “इस समय आपकी बुद्धि विपरीत कैसे हो गयी हैं? आपने धर्म का त्याग कैसे कर दिया हैं? रुद्र-देव ही सर्व उत्पत्ति के कारण-भूत साक्षात् परमेश्वर हैं, इनसे बढ़कर दूसरा कोई भी नहीं हैं। समस्त श्रुतियाँ उन्हें ही सुन्दर रूप वाले तथा सुखद मानते हैं, समस्त देवताओं के स्वामी हैं, केवल इनके नाम और रूप अनेक हैं। भगवान् ब्रह्मा तथा भगवान् विष्णु भी इनकी सेवा करते हैं, भगवान् शिव ही सभी के अधिष्ठान, कर्ता, हर्ता तथा स्वामी हैं, सनातन एवं अविनाशी हैं। इनके हेतु ही सभी देवता किंकर हो आपके द्वार पर उत्सव मना रहें हैं, इससे बढ़कर और क्या हो सकता हैं? आप सुख पूर्वक उठकर मेरा हाथ उन परमेश्वर की सेवा में प्रदान करें, मैं स्वयं आपसे यह कह रहीं हूँ, आप मेरी इतनी सी विनती मान ले। यदि आपने मुझे इनके हाथों में नहीं दिया तो कभी किसी और वर का वरण नहीं करूँगी। मैंने मन, वाणी और क्रिया द्वारा स्वयं भगवान् शिव का वरण किया हैं, अब आप जैसा उचित समझे करें।” इस पर वे पार्वती पर बहुत क्रोधित हुई और उन्हें दुर्वचन कहते हुए विलाप करने लगीं।
भगवान् ब्रह्मा तथा सनकादी ऋषियों ने भी उन्हें इस विषय में बहुत समझाया परन्तु वे नहीं मानी, मैना की हठ की बात सुनकर भगवान् श्री विष्णु तुरंत वह आयें तथा उन्होंने कहा, “तुम पितरों की मानसी पुत्री हो, साथ ही हिमवान की प्रिय पत्नी हो, तुम्हारा सम्बन्ध साक्षात् भगवान् ब्रह्मा के कुल से हैं। तुम धर्म की आधार-भूता हो, फिर धर्म का त्याग क्यों कर रहीं हो? तुम भली-प्रकार से सोच-विचार करो! सम्पूर्ण देवता, ऋषि, भगवान् ब्रह्मा तथा स्वयं मैं, हम सभी तुम्हारा क्यों अहित चाहेंगे? क्या तुम भगवान् शिव को नहीं जानती हो? वे तो सगुण भी हैं और निर्गुण भी, कुरूप हैं और सुरूप भी। उनके रूप का वर्णन कौन कर पाया हैं? मैंने तथा भगवान् ब्रह्मा ने भी उनका अंत नहीं पाया, फिर उन्हें कौन जान सकता हैं? भगवान् ब्रह्मा से लेकर कीट पर्यंत इस चराचर जगत में जो भी दिखाई देता हैं, वह सब भगवान् शिव का ही स्वरूप हैं। वे अपनी लीला से अनेक रूपों में अवतरित होते हैं, तुम दुःख का त्याग करो तथा भगवान् शिव का भजन करो, जिससे तुम्हें महान आनंद की प्राप्ति होगी, तुम्हारा सारा क्लेश मिट जायेगा।” भगवान् पुरुषोत्तम श्री हरी विष्णु द्वारा इस प्रकार समझाने पर मैना का मन कुछ कोमल हुआ, परन्तु वे भगवान् शिव को अपनी कन्या का दाना न देने के हठ पर टिकी रहीं। कुछ क्षण पश्चात, भगवान् शिव की माया से मोहित होने पर मैना से भगवान् श्री हरी से कहा! “यदि वे सुन्दर, मनोरम शरीर धारण कर ले तो मैं अपनी पुत्री का दान उन्हें कर दुँगी; अन्य किसी उपाय से वे मोहित नहीं होंगी।”
मैना ने जब यह कहा कि भगवान् शिव यदि सुन्दर रूप धारण कर लें तो मै अपनी पुत्री का विवाह उनके साथ कर दूँगी। इसे सुनकर नारद जी भगवान् शिव के पास गये और उनसे सुन्दर रूप धारण करने का अनुरोध किया।भगवान् शिव दयालु एवं भक्तवत्सल हैं ही। उन्होंने नारद जी के अनुरोध को स्वीकार करके सुन्दर दिव्यरूप धारण कर लिया। उस समय उनका स्वरूप कामदेव से भी अधिक सुन्दर एवं लावण्यमय था।तब नारद जी ने मैना को भगवान् शिव के सुन्दर स्वरूप का दर्शन करने के लिए प्रेरित किया।
मैना ने जब शिव जी के स्वरूप को देखा तो वे आश्चर्यचकित हो गयीं। उस समय भगवान् शिव का शरीर करोड़ों सूर्यों से भी अधिक तेजस्वी और देदीप्यमान था। उनके अंग-प्रत्यंग मे सौन्दर्य की लावण्यमयी छटा विद्यमान थी।उनका शरीर सुन्दर वस्त्रों एवं रत्नाभूषणों से आच्छादित था। उनके मुख पर प्रसन्नता एवं मन्द मुस्कान की छटा सुशोभित थी।उनका शरीर अत्यन्त लावण्यमय, मनोहर, गौरवर्ण एवं कान्तिमान था। भगवान् विष्णु आदि सभी देवता उनकी सेवा में संलग्न थे।सूर्य देव उनके ऊपर छत्र ताने खड़े थे। चन्द्र देव मुकुट बनकर उनके मस्तक की शोभा बढ़ा रहे थे। गँगा और यमुना सेविकाओं की भाँति चँवर डुला रही थीं। आठों सिद्धियाँ उनके समक्ष नृत्य कर रही थीं। भगवान् ब्रह्मा, भगवान् विष्णु सहित सभी देवता, ऋषि-मुनि उनके यशोगान मे संलग्न थे। उनका वाहन भी सर्वांग विभूषित था।वस्तुतः उस समय भगवान् शिव की जो शोभा थी, वह नितान्त अतुलनीय एवं अवर्णनीय थी। उसका वर्णन करना मानव-सामर्थ्य के परे था।
भगवान् शिव के ऐसे विलक्षण स्वरूप को देखकर मैना अवाक् सी रह गयीं। वे गहन आनन्द सागर में निमग्न हो गयीं। कुछ देर बाद प्रसन्नता पूर्वक बोलीं :-हे प्रभुवर! मेरी पुत्री धन्य है। उसके कठोर तप के प्रभाव से ही मुझे आपका दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। मैंने अज्ञानतावश आपकी निन्दारूपी जो अपराध किया है; वह अक्षम्य है। परन्तु आप भक्तवत्सल एवं करुणानिधान हैं। इसलिए मुझ मन्दबुद्धि को क्षमा करने की कृपा करें। मैना की अहंकार रहित प्रार्थना को सुनकर भगवान् शिव प्रसन्न हो गये। उसके बाद स्त्रियों ने चन्दन अक्षत से भगवान् शिव का पूजन किया और उनके ऊपर खीलों की वर्षा की। इस प्रकार के स्वागत-सत्कार को देखकर देवगण भी प्रसन्न हो गये।
मैना जब भगवान् शिव की आरती करने लगीं तब उनका स्वरूप और अधिक सुन्दर एवं मनभावन हो गया। उस समय उनके शरीर की कान्ति सुन्दर चम्पा के समान अत्यन्त मनोहर थी। उनके मुखारविन्द पर मन्द-मन्द मुस्कान सुशोभित हो रही थी। उनका सम्पूर्ण शरीर रत्नाभूषणों से सुसज्जित था। गले मे मालती की माला तथा मस्तक पर रत्नमय मुकुट धारण करने से उनका मुखमण्डल श्वेत प्रभा से उद्भाषित हो रहा था। अग्नि के समान निर्मल, सूक्ष्म, विचित्र एवं बहुमूल्य वस्त्रों के कारण उनके शरीर की शोभा द्विगुणित हो रही थी। उनका मुख करोड़ों चन्द्रमाों से भी अधिक आह्लादकारी था। उनका सम्पूर्ण शरीर मनोहर अंगराग से सुशोभित हो रहा था। उन्होंने अपनी विलक्षण प्रभा से सबको आच्छादित कर लिया था।
यह सब देखकर मैना कुछ क्षण के लिए तो चित्र-लिखित सी रह गई तथा उन्होंने भगवान शिव से कहा, “मेरी पुत्री धन्य हैं, जिसके कठोर तप से संतुष्ट हो आप इस घर पर पधारे हैं। मैंने अपने कुबुद्धि के कारण आपकी जी निंदा की हैं, उसे आप क्षमा कर प्रसन्न हो जायें।” मैना ने दोनों हाथ जोड़कर भगवान् शिव को प्रणाम किया, उस समय मैना के घर में उपस्थित अन्य स्त्रियों ने भी उनके दर्शन किये तथा सभी चकित रह गए।
भगवान् शिव के इस विलक्षण स्वरूप को देखकर मैना रानी का मुख प्रसन्नता से खिल उठा। वे भगवान् शिव के अगाध सौन्दर्यरस का नेत्रनलिन से पान करती हुई उनकी आरती करने लगीं। वे मन ही मन सोचने लगीं कि आज भगवान् शिव के इस दुर्लभ स्वरूप का दर्शन करके मैं भी धन्य हो गयी। मुझे जीवन भर के पुण्य प्रताप का सम्पूर्ण फल मिल गया। मैना ने भगवान् शिव की विधिवत आरती की। इसके बाद द्वार पूजा का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। इस प्रकार आरती करके वे घर के अन्दर चली गयीं।
द्वार पूजा आदि के बाद बारात जनवासे की ओर चल पड़ी। इधर पार्वती जी अपनी कुल देवी का पूजन करने गयीं। उस समय उनका स्वरूप अत्यन्त सुन्दर एवं दर्शनीय था। उनकी अंगकान्ति नीलाञ्जन सदृश अत्यन्त मनमोहक थी। उनके अंग-प्रत्यंग सौन्दर्य से परिपूर्ण थे। उनका मुखमण्डल मन्द मुस्कान से सुशोभित था।उनकी दृष्टि अत्यन्त पैनी एवं मनोहारिणी थी।नेत्रों की आकृति कमल को भी लज्जित कर रही थी। उनकी केशराशि बहुत सुन्दर एवं हृदयाकर्षक थी।कपोलों पर बनी हुई पत्रभंगी के कारण उनकी शोभा द्विगुणित हो रही थी। ललाट मे कस्तूरी और सिन्दूर कि बिन्दी अत्यधिक शोभायमान थी।
पार्वती जी का सम्पूर्ण शरीर बहुमूल्य आभूषणों से सुसज्जित था। उन्होंने वक्षस्थल पर जो रत्नजटित हार धारण कर रखा था ;उससे दिव्य दीप्ति निःसृत हो रही थी।उनकी भुजाओं मे केयूर, कंकण, वलय आदि आभूषण सुशोभित हो रहे थे। उन्होंने कानों मे जो रत्नकुण्डल धारण कर रखा था, उससे उनके मनोहर कपोलों की रमणीयता और अधिक बढ़ गयी थी। उनकी दन्तपंक्ति मणियों एवं रत्नों की शोभा को भी लज्जित कर रही थी। उनके अधर एवं ओष्ठ सुन्दर बिम्बाफल के समान सुशोभित हो रहे थे। पैरों में रत्नाभ महावर विराजमान थीं। उनके एक हाथ मे रत्नजटित दर्पण और दूसरे हाथ में क्रीडा कमल सुशोभित हो रहा था।
पार्वती जी के शरीर की शोभा अत्यन्त सुन्दर एवं अवर्णनीय थी। उनके सम्पूर्ण शरीर में चन्दन, अगरु, कस्तूरी और कंकुम का अंगराग सुशोभित था। उनके पैरों की पायजेब मधुर संगीत बिखेर रही थी। उनके इस दिव्य रूप को देखकर सभी देवता भक्तिभाव से नतमस्तक हो गये। भगवान् शिव जी भी कनखियों के द्वारा पार्वती जी में सती जी की आकृति का अवलोकन किया, जिससे उनकी विरह वेदना समाप्त हो गयी। उनके सम्पूर्ण अंग रोमाञ्चित हो उठे।उस समय ऐसा प्रतीत होता था, मानो गौरी जी भगवान् शिव की आँखों में समा गयी हों।
पार्वती जी अपने कुल देवी का पूजन करने लगीं। उनके साथ अनेक ब्राह्मण पत्नियाँ भी विद्यमान थीं। पूजनोपरान्त सभी स्त्रियाँ हिमालय के राजभवन मे चली गयीं। बाराती भी जनवासे मे जाकर विश्राम करने लगे।
द्वार पूजा के बाद बारात जनवासे वापस गयी। चढ़ाव-चढ़त का जब समय आया तब भगवान् विष्णु आदि देवताओं ने वैदिक एवं लौकिक रीति का पालन करते हुए भगवान् शिव के द्वारा दिये गये आभूषणों से पार्वती जी को अलंकृत किया। धीरे-धीरे कन्यादान की मुहूर्त सन्निकट आ गयी। वर सहित बारातियों को बुलाया गया। भगवान् शिव बाजे गाजे के साथ हिमालय के घर पहुँचे। हिमवान ने श्रद्धा भक्ति के साथ भगवान् शिव को प्रणाम किया और उनकी आरती उतारी। फिर उन्हें रत्नजटित सिंहासन पर बैठाया। आचार्यों ने मधुपर्क आदि क्रियायें सम्पन्न कीं। फिर पार्वती जी को उचित स्थान पर बैठाकर पुण्याहवाचन आदि किया गया।
अब कन्यादान का समय आ गया। हिमवान के दाहिनी ओर मैना और सामने पार्वती जी विराजमान हो गयीं। इसी समय हिमवान ने शाखोच्चार के उद्देश्य से भगवान् शिव से उनका गोत्र, प्रवर, शाखा आदि के विषय में पूछा। भगवान् शिव ने कोई उत्तर नहीं दिया। तब नारद ने कहा, “हे पर्वतराज! तुम बहुत भोले हो, तुम्हारा प्रश्न उचित नहीं है, क्योंकि इनके गोत्र, कुल आदि के बारे में भगवान् ब्रह्मा, भगवान् विष्णु आदि भी नहीं जानते हैं। दूसरों के द्वारा जानने का प्रश्न ही नहीं उठता है। ये प्रकृति से परे निर्गुण, निराकार, परब्रह्म परमेश्वर, परमात्मा हैं और गोत्र, कुल, नाम आदि से रहित स्वतन्त्र एवं परम पिता परमेश्वर हैं। परन्तु स्वभाव से अत्यन्त दयालु और भक्तवत्सल हैं। ये केवल भक्तों का कल्याण करने के लिए ही साकार रूप धारण करते हैं। इसलिए इनके गोत्र, प्रवर आदि जानने के भ्रमजाल मे मत फँसिये।
नारद जी की बातों को सुनकर हिमालय को ज्ञान हो गया।उनके मन का सम्पूर्ण विस्मय नष्ट हो गया।उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक निम्नलिखित मन्त्र बोलते हुए भगवान् शिव के लिए अपनी कन्या का दान कर दिया।
इमां कन्यां तुभ्यमहं ददामि परमेश्वर। भार्यार्थं परिगृह्णीष्व प्रसीद सकलेश्वर॥
भगवान् शिव प्रसन्नता पूर्वक वेदमन्त्रों के साथ पार्वती जी के कर कमलों को अपने हाथ में ग्रहण कर लिया। फिर क्या था, सम्पूर्ण त्रैलोक्य में जय जयकार का शब्द गूँजने लगा। इसके बाद शैलराज ने भगवान् शिव को कन्यादान की यथोचित सांगता प्रदान की। साथ ही अनेक प्रकार के द्रव्य, रत्न, गौ, अश्व, गज, रथ आदि प्रदान किया। इसके बाद विवाह की सम्पूर्ण क्रियायें सम्पन्न की गयीं। मंगल गीत गाये जाने लगे। ज्योनार हुआ। सुन्दरी स्त्रियों ने मीठे स्वरों में गाली गाईं। फिर महामुनियों ने वेदों में वर्णित रीति से भगवान् महादेव और जगत्जननी पार्वती जी का विवाह सम्पन्न करा दिया। हिमाचल ने दास, दासी, रथ, घोड़े, हाथी, गौएँ, वस्त्र, मणि आदि अनेक प्रकार की वस्तुओं को अन्न तथा सोने के बर्तनों के साथ दहेज के रूप में गाड़ियों में लदवा दिया।
इस प्रकार विवाह सम्पन्न हो जाने पर भगवान् शिव माता पार्वती के साथ अपने निवास कैलाश पर्वत में चले आये। वहाँ शिव पार्वती विविध भोग विलास करते हुए समय व्यतीत करने लगे।
सती का प्रेम उन्हें पार्वती के रूप में पुनः इस धरा पर लाकर शिव की अर्धांगिनी बनाकर उनके प्रेम को अमर कर दिया। उनके अमर प्रेम को प्रणाम !
सती और शिव विवाह :: एक दिन माता सती भ्रमण के लिए निकलीं तो ऋषि दधीचि उन्हें दंडवत प्रणाम किया और शिव महिमा का बखान किया। महल में जाकर माता सती ने भगवान् शिव से विवाह की इच्छा जाहिर की जिससे दक्ष हो गए। माँ सती दक्ष के महल और सुख सुविधाओं का त्याग कर मन में भगवान् शिव से विवाह की इच्छा ले वन में तपस्या के लिए चलीं गईं। माँ सती के आवाहन पर भगवान् शिव ने प्रकट हो माँ सती को दक्ष के पास लौटने की सलाह दी।
प्रसूति के कहने पर दक्ष ने माँ सती के लिए उचित वर खोजने लगा। सती के विवाह हेतु दक्ष ने स्वयंवर का आयोजन किया और जिसमें सभी देवता, दैत्य, गन्धर्व, किन्नर इत्यादि को निमंत्रित किया गया, परन्तु त्रिशूल धारी भगवान् शिव को नहीं बुलाया। भगवान् शिव को अपमानित करने के उद्देश्य से प्रजापति दक्ष ने स्वयंवर में द्वारपाल की जगह सिर झुकाये भगवान् शिव की प्रतिमा स्थापित कर दी।
उस सभा में सभी देव, दैत्य, मुनि इत्यादि आये। सभी अतिथिगण वहाँ नाना प्रकार के दिव्य वस्त्र तथा रत्नमय अलंकार धारण किये हुए थे, वे नाना प्रकार के रथ तथा हाथियों पर आयें थे। इस विशेष अवसर पर भेरी (नागड़ा), मृदंग और ढोल बज रहें थे, सभा में गन्धर्वों द्वारा सुललित गायन प्रस्तुत किया जा रहा था। सभी अतिथियों के आने पर दक्ष प्रजापति ने अपनी त्रैलोक्य-सुंदरी कन्या सती को सभा में बुलवाया। इस अवसर पर भगवान् शिव भी अपने वाहन वृषभ में सवार होकर वहां आये, सर्वप्रथम उन्होंने आकाश से ही उस सभा का अवलोकन किया।
दक्ष ने अपनी कन्या सती से कहा, “पुत्री यहाँ एक से एक सुन्दर देवता, दैत्य, ऋषि, मुनि एकत्रित हैं, तुम इनमें से जिसे भी अपने अनुरूप गुण-सम्पन्न युक्त समझो, उस दिव्य पुरुष के गले में माला पहना कर, उसको अपने पति रूप में वरन कर लो।” सती देवी ने आकाश में उपस्थित भगवान् शिव को प्रणाम कर वर माला को भूमि पर रख दी। भूमि पर रखी हुई वह माला भगवान् शिव के गले स्वतः पहुँच गई तो भगवान शिव अकस्मात् ही उस सभा में प्रकट हो गए। उस समय भगवान् शिव का शरीर दिव्य रूप-धारी था, वे नाना प्रकार के अलंकारों से सुशोभित थे, उनकी शारीरिक आभा करोड़ों चन्द्रमाओं के कांति के समान थीं। सुगन्धित द्रव्यों का लेपन करने वाले, कमल के समान तीन नेत्रों से युक्त भगवान् शिव देखते-देखते प्रसन्न मन युक्त हो वहाँ से अंतर्ध्यान भी हो गए।
तत्पश्चात माँ सती ने स्वयंवर में एक अन्य माला, भगवान् शिव से अपने आत्मिक प्रेम को आधार बना, उनका आवाहन कर भगवान् शिव की प्रतिमा को वरमाला डालकर भगवान् शिव को अपने पति रूप में वरण कर लिया। अब भगवान् शिव ने प्रकट होकर माँ सती को अपनी भार्या के रूप में स्वीकार कर लिया। दक्ष द्वारा इस विवाह को नहीं मानने पर ब्रह्म देव और भगवान् विष्णु ने दक्ष को लताड़ा तो उसने यह रिश्ता स्वीकार कर लिया। शिव-सती के मिलन से चारों दिशाओं में हर्ष पैदा हो गया। इस विवाह से शिव सती दोनों पुनः सम्पूर्णता को प्राप्त हुए। माँ सती दक्ष के महल से विदा हो शिव के साथ कैलाश पर्वत पर चली गईं।
सती और शिव का विवाह तो दक्ष ने करा दिया, लेकिन अपने अपमान और अपने मन से भगवान् शिव के प्रति वैमनस्य भाव को नहीं मिटा पाया। सती द्वारा भगवान् शिव का वरण करने के परिणाम स्वरूप, दक्ष प्रजापति के मन में सती के प्रति प्रेम कम हो गया था।
सती के विदा होने के पश्चात दक्ष प्रजापति, शिव तथा सती की निंदा करते हुए रुदन करने लगे। इस पर उन्हें दधीचि मुनि ने समझाया, "तुम्हारा भाग्य पुण्य-मय था, जिसके परिणाम स्वरूप सती ने तुम्हारे यहाँ जन्म धारण किया, तुम शिव तथा सती के वास्तविकता को नहीं जानते हो। सती ही आद्या शक्ति मूल प्रकृति तथा जन्म-मरण से रहित हैं, भगवान् शिव भी साक्षात् आदि पुरुष हैं, इसमें कोई संदेह नहीं हैं। देवता, दैत्य इत्यादि, जिन्हें कठोर से कठोर तपस्या से संतुष्ट नहीं कर सकते उन आद्या शक्ति मूल प्रकृति को तुमने संतुष्ट किया तथा पुत्री रूप में प्राप्त किया। अब किस मोह में पड़ कर तुम उनके विषय में कुछ नहीं जानने की बात कर रहे हों? उनकी निंदा करते हो"?
इस पर दक्ष ने अपने ही पुत्र मरीचि से कहा, “आप ही बताएँ कि यदि शिव आदि-पुरुष हैं एवं इस चराचर जगत के स्वामी हैं, तो उन्हें श्मशान भूमि क्यों प्रिय हैं? वे विरूपाक्ष तथा त्रिलोचन क्यों हैं? वे भिक्षा-वृति क्यों स्वीकार किये हुए हैं? वे अपने शरीर में चिता भस्म क्यों लगते हैं?”
इस पर मुनि ने अपने पिता को उत्तर दिया, “भगवान् शिव पूर्ण एवं नित्य आनंदमय हैं तथा सभी ईश्वरों के भी ईश्वर हैं, उनके आश्रय में जाने वालो को दुःख तो है ही नहीं। आपकी विपरीत बुद्धि उन्हें कैसे भिक्षुक कह रही हैं? उनकी वास्तविकता जाने बिना, आप उनकी निंदा क्यों कर रहे हो? वे सर्वत्र गतिमान और व्याप्त हैं। उनके निमित्त श्मशान या रमणीय नगर दोनों एक ही हैं, शिव लोक तो बहुत ही अपूर्व हैं, जिसे भगवान् ब्रह्मा तथा भगवान् श्री हरी विष्णु भी प्राप्त करने की आकांशा करते हैं। देवताओं के लिए कैलाश में वास करना दुर्लभ हैं। देवराज इंद्र का स्वर्ग, कैलाश के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हैं। इस मृत्यु लोक में वाराणसी नाम की रमणीय नगरी भगवान् शिव की ही हैं, वह परमात्मा मुक्ति क्षेत्र हैं, जहाँ भगवान् ब्रह्मा आदि देवता भी मृत्यु की कामना करते हैं। यह तुम्हारी मिथ्या भ्रम ही हैं कि श्मशान के अतिरिक्त उनका कोई वास स्थान नहीं हैं। व्यर्थ मोह में पड़कर भगवान् शिव तथा सती की निंदा मत करो।
मुनि दधीचि द्वारा समझाने पर भी दक्ष प्रजापति के मन से उन दंपति शिव तथा सती के प्रति हीन भावना नहीं गई तथा उनके बारे में निन्दात्मक कटुवचन बोलते रहें। वे अपनी पुत्री सती की निंदा करते हुए विलाप करते थे, “हे सती! हे पुत्री! तुम मुझे मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय थीं, मुझे शोक सागर में छोड़-कर तुम कहाँ चली गई। तुम दिव्य मनोहर अंग वाली हो, तुम्हें मनोहर शय्या पर सोना चाहिये, आज तुम उस कुरूप पति के संग श्मशान में कैसे वास कर रहीं हो?”
इस पर दधीचि मुनि ने दक्ष को पुनः समझाया, “आप तो ज्ञानियों में श्रेष्ठ हैं, क्या आप यह नहीं जानते हैं कि उस स्वयंवर में इस पृथ्वी, समुद्र, आकाश, पाताल से जितने भी दिव्य स्त्री-पुरुष आयें थे, वे सब इन्हीं दोनों आदि पुरुष-स्त्री के ही रूप हैं। तुम उस पुरुष (भगवान् शिव) को यथार्थतः अनादि (प्रथम) पुरुष जान लो तथा त्रिगुणात्मिका परा भगवती तथा चिदात्मरूपा प्रकृति के विषय में अभी अच्छी तरह समझ लो। यह तुम्हारा दुर्भाग्य ही हैं की तुम आदि-विश्वेश्वर भगवान् तथा उनकी पत्नी परा भगवती सती को महत्व नहीं दे रहे हो। तुम शोक-मग्न हो, यह समझ लो की हमारे शास्त्रों में जिन्हें प्रकृति एवं पुरुष कहा गया हैं, वे दोनों आद्या शक्ति मूल प्रकृति सती तथा भगवान् शिव ही हैं।”
पुनः दक्ष बोले कि आप उन दोनों के सम्बन्ध में ठीक ही कह रहें होंगे, परन्तु मुझे नहीं लगता हैं कि शिव से बढ़कर कोई और श्रेष्ठ देवता नहीं हैं। यद्यपि ऋषिजन सत्य बोलते हैं, उनकी सत्यता पर कोई संदेह नहीं होना चाहिये, परन्तु मैं यह मानने को सन्नद्ध नहीं हूँ कि शिव ही सर्वोत्कृष्ट हैं। इसका मूल करण हैं, जब मेरे पिता ब्रह्मा जी ने इस सृष्टि की रचना की थीं, तभी रुद्र भी उत्पन्न हुए थे, जो शिव समान शरीर तथा भयानक बल वाले थे। वे अति-साहसी एवं विशाल आकर वाले थे, निरंतर क्रोध के कारण उनके नेत्र सर्वदा लाल रहते थे, वे चीते का चर्म पहनते थे, सर पर लम्बी-लम्बी जटाएं रखते थे। एक बार दुष्ट रूद्र ब्रह्मा जी द्वारा निर्मित इस सृष्टि को नष्ट करने उद्यत हुए तो, ब्रह्मा जी ने उन्हें कठोर आदेश देकर शांत किया, साथ ही मुझे आदेश दिया की भविष्य में ये प्रबल पराक्रमी रुद्र ऐसा उपद्रव न कर पायें तथा आज वे सभी मेरे वश में हैं। ब्रह्मा जी की आज्ञा से ही ये रौद्र-कर्मा रुद्र भयभीत हो मेरे वश में रहते हैं। रुद्र अपना आश्रय स्थल एवं बल छोड़ कर मेरे अधीन हो गए हैं। अब मैं पूछता हूँ कि जिनके अंश से संभूत ये रुद्र मेरे अधीन हैं, तो इनका जन्म दाता मुझ से कैसे श्रेष्ठ हो सकता हैं? सत्पात्र को अधिकृत कर दिया गया दान ही पुण्य प्रद एवं यश प्रदान करने वाला होता है। मेरी इतनी गुणवान और सुन्दर पुत्री को क्या मेरी आज्ञा में न रहने वाला वह शिव ही मिला था? मैंने अपनी पुत्री का दान उसे कर दिया। जब तक रुद्र मेरी आज्ञा के अधीन हैं, तब तक मेरी ईर्ष्या शिव में बनी रहेंगी।
इस तरह से दक्ष अपने मन में उत्पन्न हुए भावों को छुपा नहीं पाये और भगवान् शिव के प्रति उदासीन ही रहे। इसके साथ-साथ ही अपनी पुत्री सती के प्रति भी उनका क्रोध बढ़ते ही गया।